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- ग्रंथों में भौगोलिक सामग्री और भारतवर्ष में जैन धर्म का प्रसार
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ताम्रलिप्ति (तामलुक) एक व्यापारिक केन्द्र था और यह खासकर कपडे के लिए प्रसिद्ध था । यहाँ जलमार्ग और स्थलमार्ग दोनी प्रकार से माल आता-जाता था । यहाँ मच्छरों का वहृत प्रकोप था । तामलित्तिया नामक जैन श्रमणो की एक प्रसिद्ध शाखा थी जिससे मालूम होता है कि ताम्रलिप्ति जैन श्रमणो का केन्द्र रहा होगा । *
इसके अतिरिक्त, वगाल में पुंड्रवर्धन (राजगाही जिला) जैन श्रमणी का केन्द्रस्थल रहा है । पुडवद्धणिया नामक जैन श्रमणो की शाखा का उल्लेख कल्पसूत्र में आता है ।" चीनी यात्री हुइनत्याग ने पुडूवन में बहुत मे दिगम्बर निर्ग्रन्यो के पाये जाने का उल्लेख किया है ।' वगाल का दूसरा महत्त्वपूर्ण स्थान कोमला ( कोमिला ) था । खीमलिज्जिया नाम की शाखा का उल्लेख कल्पसूत्र में मिलता है। इसमे मालूम होता है कि यह स्थान प्राचीन समय में काफ़ी महत्त्व रखता था ।
४ कलिंग (कचनपुर)
कलिंग (उडीसा ) के राजा खारवेल ने अंग-मगव से जिन प्रतिमा वापिस लाकर यहाँ स्थापित की थी । कलिंग की राजवानी कंचनपुर (भुवनेश्वर ) थी । यह नगर एक व्यापारिक केन्द्र था और यहाँ के व्यापारी लका तक जाते थे।' कचनपुर जैन साधुओ का विहार-स्थल था ।
इसके अतिरिक्त कलिंग में पुरी ( जगन्नाथपुरी) जैनी का खास केन्द्र था । यहाँ जीवन्तस्वामी प्रतिमा होने का उल्लेख जैन-ग्रन्थों में आता है ।" श्रावको के यहाँ अनेक घर थे । वज्रस्वामी ने यहाँ उत्तरापथ से आकर माहेसरी (माहिष्मती) के लिए विहार किया था। उस समय यहाँ का राजा वौद्धधर्मानुयायी था । वौद्धो का यहाँ जोर था । " पुरी व्यापार का एक वडा केन्द्र था, और यहाँ जलमार्ग से माल आता-जाता था ।" कलिंग का दूसरा महत्त्वपूर्ण म्यान तोसलि था । यहाँ महावीर ने विहार किया था। उन्हें यहाँ सात वार पकडा गया, परन्तु यहाँ के तोमलिक क्षत्रिय ने उन्हें छुड़ा दिया ।" तोसलि में एक सुन्दर जिनप्रतिमा थी, जिसकी देखरेख तोसलिक नामक राजा किया करता था।" यहाँ के लोग फल-फूल के बहुत शौकीन थे ।" यहाँ वर्षा के प्रभाव में नदी के पानी से खेती
१ 'व्यवहारभाष्य ७.६ १ 'बृहत्कल्पभाष्य १.१०६० 'सूत्रकृतांग टीका ३.१
कल्पसूत्र ८, पृ० २२७ अ ।
५
' वही ।
"युवान च्वांगस ट्रैवेल्स इन इन्डिया, वाटर्स, जिल्द २, पृ० १८४
" कल्पसूत्र ८, पृ० २३१
C
'वसुदेवहडी, पृ० १११.
* श्रोषनिर्युक्तिभाष्य ३०
१०
'प्रोघनियुक्ति टीका. ११६
'श्रावश्यक नियुक्ति ७७२: श्रावश्यक चूर्णि, पृ० ३६०
निशीय चूर्णि ५, पृ० ३४ ( पुण्यविजय जो की प्रति ) ।
१३ 'श्रावश्यक नियुक्ति ५१०
११
व्यवहारभाष्य ६.११५ इत्यादि
'बृहत्कल्पभाष्य १-१२३६, विशेष चूर्णि ।
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