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भारतीय आर्य-भाषा में बहुभाषिता
श्री सुनीतिकुमार चाटुा एम० ए० (कलकत्ता), डो०-लिट० (लदन) नव्य भारतीय आर्यभाषा के शब्द निम्नाकित वर्गों में से किसी एक के अतर्गत पाते है
(१) उत्तराधिकार-सूत्र से प्राप्त भारतीय आर्य (इदो-यूरोपीय) गब्द' (शब्द, धातु तया प्रत्यय), जो प्राकृतज या तद्भव रूप मे मिलते है।
(२) संस्कृत से उवार लिए हुए शब्द, जो तत्सम और पर्व-तत्सम शब्द कहलाते है।
(३) भारतीय अनार्य शब्द, ठेठ देशी रूप, जो भारतीय आर्य-भाषा मे आद्य भारतीय आर्य-काल से लेकर नव्य भारतीय आर्य-भाषा के निर्माण-काल तक प्रचलित रहा। इस श्रेणी के अदर उन शब्दो का एक वडा समूह आता है, जिनकी उत्पत्ति वास्तव मे इदो-यूरोपीय नही है, और जिनके लिए उपयुक्त अनार्य (द्राविण तथा ऑस्ट्रिक) सबवो का पता लगाया गया है।
(४) विदेशी भाषाओ के शब्द, जो आद्य भारतीय आर्य-काल से (जिसका प्रारभ वैदिक शब्दो मे कुछ मेसोपोटेमियन शब्दो के मिलने से होता है)लेकर वाद तक प्रचलित मिलते है। इन शब्दो मे प्राचीन ईरानी, प्राचीन ग्रीक, मध्य ईरानी, एक या दो प्राचीन चीनी, नवीन ईरानी (अथवा आधुनिक फारसी, जिनमें तुर्की और अरबी भी है) पुर्तगाली, फ्रेंच, डच और अग्रेज़ी गिने जाते है।
(५) इनके अतिरिक्त कुछ अज्ञातमूलक शब्द है, जो न तो भारतीय आर्य-भाषा के है और न विदेशी है, किंतु जिनका सवय, जहाँ तक हमे ज्ञात है, भारत को अनार्य-भापानो के साथ भी निश्चय रूप से नहीं जोडा जा सकता।
ऊपर के पाँच वर्गों में भारतीय आर्य-भाषा के सम्पूर्ण शब्द पा जाते है। नव्य भारतीय आर्य-भाषाप्रो के वे शब्द अपने या निजी है, जो वर्ग (१) के अन्तर्गत है, और भारतीय-उत्पत्ति-वाले उच्चकोटि के निजी सस्कृत-गर्भित शब्द द्वितीय वर्ग के अन्दर आते हैं। वर्ग (३), (४) और (५) के शब्द बाहरी बोलियो से लिये गये है, चाहे वे देशी हो या विदेशी। उत्तर भारत के अनार्यों ने प्रार्य-भाषामो को उस समय से अपनाना प्रारम्भ कर दिया था, जव आर्यभाषा-भाषी पजाव में वस कर अपने प्रभाव को फैला रहे थे और जब कि ब्राह्मण्य धर्म और सस्कृति की स्थिति पहली महस्राब्दी ई०पू० के प्रथम भाग में गगा की उपत्यका में दृढ हो गई थी। यह हालत आज तक जारी रही है, जब कि उत्तर भारत में अनार्य-भाषा-भाषी धीरे-धीरे आर्य-भाषाओ को अपना रहे है और जिसके फलस्वरूप कुछ शताब्दी में अनार्य-भाषा के सभी रूपो का लोप हो जाना अवश्यम्भावी दीख पड रहा है । जव पूर्व वैदिक काल में पार्यों और अनार्यों का सम्मिलन प्रारम्भ हो गया था तब यह अपरिहार्य था कि अनेक अनार्य शब्द तथा अनार्यों के कुछ बोलचाल के रीति-रिवाज; यदि प्रत्यक्ष नही तो परोक्ष या गुप्त रूप से, आर्य-भाषाओ में मिल जायें। आद्य तथा मध्य भारतीय आर्य-भापात्रो तया नव्य भारतीय आर्य-भापात्रो मे अनार्य शब्दो की उत्पत्ति इसी प्रकार हुई। उन विदेशी भाषाभाषियो से, जो भारत में विजेता के रूप में आकर यही बस गये, यहाँ के निवासियो का मेलजोल होने के कारण पारस्परिक सास्कृतिक सम्पर्क बढा, और इसके परिणाम स्वरूप भारतीय भाषायो मे अनेक विदेशी शब्दो का प्रादुर्भाव हो गया।
___ जो शब्द भाषा मे किमी कमी की पूर्ति करता है, वह प्राकृतिक रूप से शीघ्र ही उस भाषा का अग वन जाता है। जहाँ पर दो भाषा-भाषियो का सम्पर्क घनिष्ठ हो जाता है, वहां उस सम्पर्क के प्रभाव से एक दूसरे की भाषा के कुछ शब्दो से परिचित हो जाना स्वाभाविक ही है। इस प्रकार के भाषा-सम्वन्धी पारस्परिक प्रभाव के आरम्भ मे यह