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समाज-सेवा का प्रादर्श
૬૪હ, शिक्षा और जीवन निर्वाहार्थ व्यवसाय साथ-साथ प्राप्त करते थे । धार्मिक शिक्षा में अध्यात्म, 'भक्ति, चित्त-नियन्त्रण, क्रिया-काड और दैनिक क्रिया-क्रम, सव कुछ गर्मित होता था।
उस जमाने में पढाई की फीस नही लगती थी। अध्यापक, उपाध्याय नौकरी नही करते थे। अपनी विद्या को वस्त्र-भोजन-प्राप्ति धनोपार्जन का साधन नही बनाते थे। वैद्य भिषगाचार्य फीस या दवाई के मुंहमांगे दाम नही लेते थे। रोगी का इलाज करना वे धार्मिक कर्तव्य समझते थे। वकालत करने का रिवाज यूनान से चला है। वकील फीस नही लेते थे और अब तक यह प्रथा चली आती है कि वैरिस्टर को जो कुछ दिया जाता है वह फीस नहीं, बल्कि 'समर्पण' कहा जाता है। वह व्यापारिक मामला नही है, सम्मानित भेट है। उसके लिए कचहरी मे नालिश नही हो सकती।
धर्म के नाम पर प्रजा-प्रतिष्ठा आदि धर्मानुष्ठान कराने की फीस चुका कर लेना तो बडा ही निंद्य कर्म समझा जाता था। प्रजा धन-धान्य-सम्पन्न, स्वस्थ, सुखी, सदाचारी और धर्मनिष्ठ थी।
इस प्रकार समाज-सेवा याप्रजा-पालन राजा का धर्म था। खेती की उपज का केवल एक नियमित निश्चित भाग समाज सेवार्थ लिया जाता था। उर्वरा वसुन्धरा की देन में राजा-प्रजा यथोचित रीति से भागीदार होते थे । महाकवि कालिदास ने 'रघुवश' (प्रथम सर्ग श्लोक १६) में कहा है
प्रजानामेव भूत्ययं स ताभ्यो वलिमग्रहीत् ।
सहस्रगुणामुत्स्रष्टुमादत्रे हि रस रवि ॥१८॥ अर्थातू-(राजा दिलीप) प्रजा के हितार्थ ही कर ग्रहण करते थे। जैसे सूरज पृथ्वी से जल खीच कर हजार गुणा वापिस कर देता है। शकुन्तला नाटक के पांचवे अक में लिखा है
भानुसकृयुक्त तुरगएव
रात्रिन्दिव गन्धवह प्रयाति । शेष. सदैवाहित भूमिभार
षष्ठाश वृत्तेरपि धर्म एष ॥ अर्थात्-सूर्य एक वार घोडे जोत कर बरावर चलता रहता है, हवा रात दिन वहती है, शेषनाग निरन्तर पृथ्वी का भार वहन करता है, (जो राजा) छठा हिस्सा लेकर अपनी गुजर करता है, उसका धार्मिक (कर्त्तव्य) यही है (कि निरन्तर समाज-सेवा करता रहे)।
हिन्दू साम्राज्य में राज्य-कर पैदावार का छठा भाग था। मरहठो के राज्य मे वह चौथा हिस्सा हो गया, मुगल-साम्राज्य में तीसरा भाग निश्चित किया गया। अव भी देशी रियासतो मे वटाई की प्रथा जारी है।
गुरुकुल शिक्षा प्रणाली रूप समाजसेवा का ऊपर जिकर हो चुका है। उस प्रथा की छाया मुगल साम्राज्य में सरकारी दारूल-उलूम और ग्रामो और शहरो की गली-गली में मकतवो की सूरत में मौजूद रही। शुरु अंग्रेजी राज्य में सरकारी स्कूल इस मतलव से खुले कि सरकारी काम चलाने के लिए पढे-लिखे नौकरी की जरुरत पूरी हो सके। स्कूल जाने के लिए प्रलोभन दिये गये। पिता जी से मैने सुना है कि हर वालक को पुस्तक, लिखने का सामान स्कूल से दिया जाता था, फीस कुछ नही ली जाती थी, पारितोषिक और छात्रवृत्ति उदारता से दी जाती थी, पढ जाने पर वेतन अच्छा मिलता था। किन्तु दिनोदिन सख्ती वढती गई। मेरे पढाई के जमाने मे एम० ए० तक फीस केवल तीन रुपये और कानून पढने की फीस एक रुपया मासिक थी। मुझे पन्द्रह रुपये छात्रवृत्ति स्प मिलते थे और वहुमूल्य अग्रेजी कोष आदि पुस्तकें इनाम मे मिलती थीं। अब तो स्थिति ही कुछ और हो गई है। परिणाम यह कि पुरानी शिक्षण-पद्धति घटती और मिटती चली गई। ठोस विद्वता का स्थान पुस्तको ने ले लिया। किन्तु भारत की गुरुकुल शिक्षा पद्धति विदेशो ने ग्रहण की।
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