________________
अभिनन्दनीय प्रेमी जी
७४१ इसी मित्रता के फलस्वरूप प्रेमी जी के अनुरोध पर मेरा सन् १९२७ और १९२८ में दो बार बम्बई जाना हुआ और उन्ही के पास महीना दो-दो महीना ठहरना हुआ। प्रेमी जी भी मुझसे मिलने के लिए दो-एक वार सरसावा पधारे। अपनी सख्त वीमारी के अवसर पर प्रेमी जी ने जो वसीयतनामा ( will ) लिखा था। उसमें मुझे भी अपना ट्रस्टी बनाया था तथा अपने पुत्र हेमचन्द्र की शिक्षा का भार मेरे सुपुर्द किया था, जिसकी नौवत नही आई। अपने प्रिय पत्र 'जनहितैषी' का सम्पादन-भार भी वे मेरे ऊपर रख चुके है, जिसका निर्वाह मुझसे दो वर्ष तक हो सका। उसके बाद से वह पत्र बन्द ही चला जाता है। इनके अलावा उन्होने 'रत्नकरण्ड श्रावकाचार' की प्रस्तावना लिख देने का मुझसे अनुरोध किया और मैने कोई दो वर्ष का समय लगा कर रत्नकरण्ड की प्रस्तावना ही नहीं लिखी, बल्कि उसके कर्ता स्वामी समन्तभद्र का इतिहास भी लिख कर उन्हें दे दिया। यह इतिहास जब प्रेमी जी को समर्पित किया गया और उसके समर्पण-पत्र में उनकी प्रस्तावना लिख देने की प्रेरणा का उल्लेख करने तथा उन्हे इतिहास को पाने का अधिकारी बतलाने के अनन्तर यह लिखा गया कि-"आपकी समाज-सेवा, साहित्यसेवा, इतिहासप्रीति, सत्यरुचि और गुणज्ञता भी सब मिलकर मुझे इस बात के लिए प्रेरित कर रही है कि मैं अपनी इस पवित्र और प्यारी कृति को आपकी भेट करूं। अत मै आपके करकमलो में इसे सादर समर्पित करता हूँ। आशा है, आप स्वय इससे लाभ उठाते हुए दूसरो को भी यथेष्ट लाभ पहुंचाने का यत्ल करेंगे," साथ ही एक पत्र द्वारा इतिहास पर उनकी सम्मति मांगी गई और कही कोई सशोधन की जरूरत हो तो उसे सूचना-पूर्वक कर देने की प्रेरणा भी की गई, तब इस सव के उत्तर मे प्रेमी जी ने जिन शब्दो का व्यवहार किया है, उनसे उनका सौजन्य टपकता है । १५ मार्च सन् १९२५ के पत्र में उन्होने लिखा
"मैं अपनी वर्तमान स्थिति मे भला उस (इतिहास) में सशोधन क्या कर सकता हूँ और सम्मति ही क्या दे सकता हूँ। इतना मै जानता हूँ कि आप जो लिखते है वह सुचिन्तित और प्रामाणिक होता है। उसमें इतनी गुजाइश ही आप नही छोडते है कि दूसरा कोई कुछ कह सके। इसमें सन्देह नहीं कि आपने यह प्रस्तावना और इतिहास लिख कर जैन-समाज मे वह काम किया है, जो अब तक किसी ने नही किया था और न अभी जल्दी कोई कर ही सकेगा। मुर्ख जन-समाज भले ही इसकी कदर न करे, परन्तु विद्वान आपके परिश्रम की सहस्र मुख से प्रशसा करेंगे। आपने इममे अपना जीवन ही लगा दिया है। इतना परिश्रम करना सबके लिए सहज नही है । मै चाहता हूँ कि कोई विद्वान् इसका माराश अग्रेजी पत्रो मे प्रकाशित कराये। बाबू हीरालाल जी को मै इस विषय में लिखूगा। इडियन एटिक्वेरी वाले इसे अवश्य ही प्रकाशित कर देगे।
"क्या आप मुझे इस योग्य समझते है कि आपकी विद्वन्मान्य होने वाली यह रचना मुझे भेंट की जाय ? अयोग्यो के लिए ऐसी चीजे सम्मान का नही, कभी-कभी लज्जा का कारण बन जाती है , इसका भी आपने कभी विचार कियाहै ? मैं आपको अपना बहुत ही प्यारा भाई समझता हूँ और ऐसा कि जिसके लिए मै हमेगा मित्रो मे गर्व किया करता हूँ। जैनियो में ऐसा है ही कोन, जिसके लेख किसी को गर्व के साथ दिखाये जा सके ?"
इस तरह पत्रो पर से प्रेमी जी की प्रकृति, परिणति और हृदयस्थिति का कितना ही पता चलता है।
नि सन्देह प्रेमी जी प्रेम और सौजन्य की मूर्ति है। उनका प्रेमी' उपनाम बिल्कुल सार्थक है। मैने उनके पास रह कर उन्हे निकट से भी देखा है और उनके व्यवहार को सरल तथा निष्कपट पाया है। उनका आतिथ्य-सत्कार सदा ही सराहनीय रहा है और हृदय परोपकार तथा सहयोग की भावना से पूर्ण जान पडा है। उन्होने साहित्य के निर्माण और प्रकाशन-द्वारा देश और समाज की ठोस सेवाएं की है और वे अपने ही पुरुषार्थ तथा ईमानदारी के साथ किये गए परिश्रम के बल पर इतने वडे बने है तथा इस रुतबे को प्राप्त हुए है। अत अभिनन्दन के इस शुभ अवसर पर मैं उन्हें अपनी हार्दिक श्रद्धाजलि अर्पण करता हूँ। सरसावा]