________________
६५८
प्रेमी-अभिनवन-पथ यदि इस समय हमारी विवाह-पद्धति की गौरव-गभीरता उतनी प्रभावोत्पादक नहीं तो इसका कारण सभवत यह है कि अनेक प्रकार की विधियो के विस्तृत जजाल में, जो कि आधुनिक समय में नीरस, निरर्थक और वहुधा हास्यास्पद-सी प्रतीत होती है, इन ऋचाओ का सरल सौदर्य बिलकुल दब जाता है। यदि समयानुसार प्रभावोत्पादक और सरल विवाह-पद्धति तैयार की जाय तो इन ऋचाओ की उदात्त, ओजस्वी और सजीव भावना में विवाह का सर्वोत्कृष्ट आदर्श मिलेगा।
सूर्यासूक्त मे हमे विवाह-पद्धति का परिपूर्ण चित्र नहीं मिलता, परन्तु फिर भी उस दिशा में इस सूक्त से जो परिचय प्राप्त होता है, वह अत्यन्त महत्वपूर्ण है। सूर्यासूक्त ऋग्वेद के दशम मण्डल का ६५वां सूक्त है। इसमें ४१ ऋचाए है । इस प्रकार यह ऋग्वेद के वडे सूक्तो मे से है । इस सूक्त की ऋषि भी स्वय सूर्या है। यह कहने की आवश्यकता नहीं कि ऋग्वेद के और भी अनेक सूक्तो की ऋषि स्त्रियाँ है । इस सूक्त के देवता, जो कि विषयसूचक होते है, विभिन्न है । पहले पाँच मनो में सूर्या के पति सोम का वर्णन है । इसलिए उनका देवतासोम है। अगले ११ मनो में विवाह का वर्णन है । अत उनका देवता विवाह ही है। इसी प्रकार अगली ऋचालो में भी विवाह-सवधी आशीर्वाद, वस्त्र आदि का वर्णन है। इसलिए उन-उन विषयो को ही इस सूक्त का देवता कहा जायगा । इस सूक्त की ऋचाओ का क्रम, पूर्वापर भाव अभी तक स्पष्ट समझ में नहीं आ सका है। यह कहना अप्रासगिक न होगा कि किसी वैदिक विद्वान द्वारा इस अत्यन्त महत्त्वपूर्ण सूक्त के विशिष्ट अध्ययन का पता लेखक को नहीं मिला है। पूर्वापर भाव स्पष्ट न होने से हमें मत्रो पर विचार करने मे सूक्त का क्रम छोडना पड़ा है। अनेक ऋचामो का प्राशय अभी तक स्पष्ट नहीं है। इसलिए केवल ऐसी ऋचामो पर ही इस लेख में विचार किया जायगा, जो स्पष्ट रूप से विवाहपद्धति के विषय में प्रकाश डालती है ।।
सबसे पहले सूर्या के विवाह के अलकार की आधारभूत प्राकृतिक घटना का समझना आवश्यक है, क्योकि जो विद्वान ऋग्वेद को प्राचीन युग की गाथा के रूप में ऐतिहासिक दृष्टि से देखते है, वे भी इस सूक्त में ऐतिहासिक गाथा न मान कर इसे प्राकृतिक घटना काही पालकारिक वर्णन स्वीकार करते है । यहाँ 'सूर्या' सूर्य या सविता की पुत्री है। बहुतो के विचार मे यह सविता की पुत्री 'उषा' है, परन्तु वस्तुत यह प्रतीत होता है कि सूर्य की किरणें ही सूर्य की पुत्री 'सूर्या' के रूप में है । 'सोम' ऋग्वेद मे साधारणतया उस वनस्पति के लिये प्राया है, जिससे सोमरस निकाला जाता था, परन्तु यह सोम वनस्पतियो का राजा है और चन्द्रमा को भी वनस्पतियो का राजा माना गया है। इसलिये 'सोम' शब्द चन्द्रमा के लिये भी ऋग्वेद में तथा वाद के साहित्य मे आने लगा है। इस सूक्त में भी सोम शब्द चन्द्रमा के लिये है, यह सूक्त के प्रथम पांच मत्रो में ही स्पष्ट कर दिया गया है। प्रश्न यह है कि चन्द्रमा का सूर्य की किरणो के साथ विवाह का क्या अर्थ है ? सभी जानते है कि चन्द्रमा सूर्य की किरणो द्वारा ही चमकता है। वैज्ञानिक बताते है कि चन्द्रमा वुझे हुए कोयले का एक बड़ा पिण्ड माना गया है। सूर्य की किरणो से सयुक्त होकर वह चमक उठता है, प्रकाशक और आह्लादक होता है और कवियो की कल्पना मे वह अमृत से भरा हुआ सुधासमुद्र बन जाता है। यही घटना चन्द्रमा से सूर्य की किरणो का विवाह है। कितनी हृदयङ्गम कल्पना है। इसमें कितना महत्त्वपूर्ण सत्य विद्यमान है । मनुष्य का जीवन कोयले का ढेर है, नीरस है, अन्धकारमय है, निर्जीव है, किन्तु स्त्री का सयोग उसे सरस वनाता है, प्रकाश देता है और सजीव कर देता है । स्त्री पुरुष के जीवन की ज्योति है।
सूक्त के मत्रो पर विचार करने से पूर्व यह बतला देना आवश्यक है कि ऋग्वेद की नारी आधुनिक हिन्दू समाज की नारी के समान निर्वल, दलित और व्यक्तित्वहीन नही, प्रत्युत वह गौरवशालिनी गृह की स्वामिनी है । वह वशिनी' सारे घर को वश में करने वाली है। इतना ही नही वह घर की 'सम्राज्ञी है। इससे अधिक गौरवपूर्ण अधिकार
'ऋग्वेद १०८।२६ । 'ऋग्वेद १०५०४६ ।