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प्रेमी-अभिनदन-प्रय
नवत पहले हन्द्वात्मक भावना यहाँ थी, किन्तु बहुत से स्थानो मे हम सब्दो को एकार्थी होने के कारण एक-दनको व्याल्या करते हुए पते हैं। जैने वंगला वास-पंजा-बकसे चोर पिटारे, प्रोजी bes (जिसका एन्चारण एक ताब्दी पहले baks पा)+वाला पेंटा, पेंड़ा/ पेटक-हिन्दी पेटो।
न्ह दंगल के शब्दों में देनीपन ताफ नलकता है। उदाहरण के लिए वंगला पोला-पान-बच्चे (पूर्वी बंगला की बोली में पयुक्त)-पहाँ पोला सस्कृत पोत-तते है और पान आस्टिक गन्द पतीत होता है जो नपाली (को)में हॉपॉन पने मिलताहै पान इस शब्द का सादा प है। इसी प्रकार बंगला छले-पिले का भी प्रर्प लड-बच्चे हैं और इनकी उत्पत्तिप्राचीन वाला घालिया-पिलातेहैं। [धालिया या छावालिया प्राचीन भानीय पार्यशाव--साल+-इक-मार और पिला, जो स्नोस्प ने उडिया भापाने प्रयक्त होता है पौर जिनके । नाने तडका, बच्चा या जानवर कावन्चाइनका नव द्राविड भापा के साथ जोड दिया गया है (मिलामो तामिल पिल्लै गन्द)]।
__ इन प्रकार नन्य भारतीय पार्य-भाषा नेहले मापा-सपीमिण का पता चलना है,जो पनलिन भाषामा में प्रयुक्त मिलता है। इन पगार के सब्दी-जैन ले-पिले, बाखडी, पाव-रोटी, राजा-बादशाह पादि के विश्लेषण में पता चलता है कि वे सपने समस्त-पद मूल्क मन्द हैं और वे अपने रूप को कायम रखते हुए भी एक मामूली बात कोही नूचित करते हैं। यह भी जात होता है कि दिन प्रकार विभिन्न भाषाओं के बन्दो ने मिलकर नर भारतीय पार्य-मापा के निमापने योग दिया है। भारतीय पाकृत तथा नन ने गये हुए गन्दो के पो के नाप-नाय
यहाँ दगी या अनार्य भाषाओं के तपाफारती, परवी पुर्तगाली पोर मोजी के भी गन्दोका पडल्ले में प्रयोग पाते हैं। इन शब्दो में इस बात का स्पष्ट प्रमाण निल्ना है कि नव्य भारतीय पार्यकाल में भारतीय लोगो में बहुभाषिता प्रचलित हो गई थी।
जब हम नध्य-भारतीय पार्य तथा पाच भारतीय आर्य-भापापों ने जिनका साहित्य अनेक प्रकार की प्राहतो तथा सन्कृत में है, उपर्युक्त वात का पता लगाते है तो उनमे भी वही स्थिति पाई जाती है। इस समय थोडे ही प्राकृत और सस्कृत गब्दो की वावत हीं मालूम है, जिनसे पता चलता है कि १५००, २००० या २५०० वर्ष पहले भी भारत में न केवल भारतीय भार्य-भाषाएँ ही प्रचलित पी, अपितु अनार्य-चोलियां तपा विदेशी वोलियां भी वोलो नतो थी, जो बहुत ही नातू हालाने थी, यार जिनका भारतीय मार्य-भाषा पर व्यापक प्रभाव पडा था। हम यहां कुछ ऐने नन्कृत और प्राकृत शब्दों पर विचार करेंगे, जो वास्तव ने अनुवादमूलक तमत्त-पद है।
(३) मस्त कापिण=पाली कहापन, प्राकृत बहादप, बंगला काहन ‘एक प्रकार का बांट, 'एक कार्ष की तोत का सिक्का । यह भब्द दो मब्दो के योग ने बना है-कार्ष तथा पण । पहले गब्द का मूल कर्ष है, जिनका पर्व है एक नाप या तोल। मालून होता है कि कर्ष शब्द हवामनी (Achaemensan) ईरान का ह जिन देश का प्राचीन भारत की सजनैतिक तथा प्रार्थिक बक्त्या पर काफी प्रभाव पड़ा था। पण शब्द को डा० प्रबोधचद्र वागवी ने सत्यातूचक गन्द माना है, और इसकी उत्पत्ति ऑस्ट्रिक (कोल) भाषा से मानी है। इस प्रकार कापिण मन्द एक व्यात्यात्मक नमान-पद है, जिसमे प्राचीन ईरानी भाषा तया पार्य-भाषा-प्रभावित प्रॉन्टिक का सम्मिलित रूप दृष्टिगोचर है।
(२) वालि होन-यह दूसरा मनोरजक मन्द है, जो नस्कृत से मिलता है। यह शब्द प्राचीन काव्य में अश्व का घोतक है, ऐना नानियर विलियम्स (Alonier-Williams) ने अपने संस्कृत अभियान मे लिखा है। पुराने हग के विद्वानो ने इतकी व्याल्या इस प्रकार की है कि घोडे का शालि-होत्र नाम इस कारण है कि उत्ते शालि (धान) भोजन (होत्र) के लिए अपित किया जाता है। अश्व को शालि-होत्रिन् भी कहा जाता है। पालतू दानवरों की बीमारियो के नवव में एक ऋषि ने एक प्रथ लिखा था, उन ऋषि का नाम भी शालिहोत्र मिलता है। इन अर्थ में यह गन्द भारतीय सेना में अब भी चालू है, जित्तमे घुडसवार सेना के घोडोका चिक्तिक सोलनी कहलाता