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भारतीय प्राय-भाषा में बहुभाषिता भारत में लाये गये । एक ऐमा ही नाम मुरुण्ड है, जिसका अर्थ शक-भाषा मे राजा है। भारतीय शको के अभिलेखो में मुरुण्ड-स्वामिनी शब्द मिलता है, जो उपर्युक्त समानार्थक समास-पद का एक उदाहरण है।
(६) इसी प्रकार कुछ अन्य गब्द भी विचारणीय है, परन्तु अभी तक उन शब्दो की उत्पत्ति तथा उनके तुलनात्मक विचार के सवध में विद्वानो का ध्यान नहीं गया। प्राग्ज्योतिप के राजा वैद्यदेव (११वी शती का उत्तरभाग) के कमौली से मिले हुए ताम्र-पत्र मे जउगल्ल नामक एक छोटी नदी का उल्लेस है । यह गब्द दो पदो से मिल कर वना है-जउ /सस्कृत जतु= लाख या लाह+गल्ल (बंगला का गाला), जिमका भी अर्थ लाख है (बंगला भाषा मे भी जतु-जउ का जो रूप मिलता है)। शायद गल्ल के माने पहले-पहल गलाई हुई लाख रहा हो, परन्तु ऊपर जो उदाहरण दिये जा चुके हैं, उनमें इस प्रकार नब्दो का गर्ल्डमड्ड समझ मे आ सकेगा।
(७) महावस्तु में इक्षु-गड नामक एक शब्द ईग्य या गन्ने के लिए प्रयुक्त हुआ है । नव्य भारतीय आर्यभापायो में इक्ष के रूपमे ईख,पाख,पाउख,अख, ऊस मिलते है। गण्ड गब्द का नव्य भारतीय आर्य-भापा (हिंदुस्तानी) में गन्ना या गंडेरी रूप है । इस प्रकार हम यहां भी दो समानार्थक शब्दो को जो प्राचीन भारत में प्रचलित दो भिन्न भाषाओं में मे लिये गये है, सम्मिलित रूप में प्रयुक्त पाते हैं।
(८) इमी प्रकार महावस्तु में एक दूसरा गव्द गच्छ-पिण्ड है। यह एक विचित्र समाम है और इसका अर्थ वृक्ष है। गच्छ शब्द बंगला में (तथा उगने सबधित पूर्व भारत की भाषा मे ) गाछ-'वृक्ष' के रूप मे पाना है। मूलत इस शब्द का अर्थ 'सवर्धन' है, जो एक पोदे के ऊँचे उठने या वढने का सूचक है (सस्कृत धातु /गम् गच्छ से)। पिण्ड का अर्थ समूह या ढेर है। इस प्रकार गच्छ पिण्ड का अर्थ 'बढता हुआ ढेर' बहुत विचित्र मालूम पडेगा। परन्तु एक पौदे या वृक्ष जैनी मामूली वस्तु के लिए ऐमा टेढे अर्थ वाला शब्द क्यो प्रयुक्त किया गया ? हमे याद रखना चाहिए कि पिण्ड शब्द का ही हिंदुस्तानी में प्रचलित स्प पेंड है, जो वृक्ष के लिए पाता है। इस पेंड शब्द का मूल क्या है ? नव्य भारतीय आर्य-भापा द्वारा हम इसी परिणाम पर पहुंचेंगे कि गच्च-पिण्ड का और कोई शाब्दिक अर्थ न होकर केवल 'वृक्ष-वृक्ष' है।
(8) गच्छ-पिण्ड तया अन्य शब्दो के समान ही अपभ्रश का गब्द अच्छ-भल्ल है, जो रीछ या भालू के लिए प्रयुक्त होता है। अच्छ शब्द आर्य या इदो-यूरोपीय है। मस्कृत में ऋक्ष शब्द है (जिसका हिंदुस्तानी मे प्राचीन अर्धनत्सम रूप रीब है)। भल्ल नव्य भारतीय आर्य-भापायो के भल्लक वाचक कुछ शब्दो का मूल रूप है, जिसमे भालू (हिंदुस्तानी) तथा भालुक, भाल्लुक (वगला) शब्द बने, जिन मवका अर्थ 'रीछ' है। कुछ लोगो ने भल्ल को पाद्य भारतीय आर्य-भाषा के भद्र शब्द का स्प माना है। ऐमा मानने पर अच्छ-भल्ल का अर्थ अच्छा-या मीषा 'भालू होगा। वह भी असभव नही, क्योकि प्राय बुरे या भयकर जानवरो का केवल नाम लेना प्रशस्त नही समझा जाता (इस प्रकार के जानवरो का नाम लेने से यह माना जाता है कि वह जानवर निकट आ जायगा)। इसी विचार के आधार पर शायद रीछ का नाम भल्ल 'अच्छा या सीधा जानवर' रक्खा गया, और धीरे-धीरे यही नाम उम जानवर का हो गया। ऐमी ही वात रूमी भाषा मे है, जिसमे रीछ को मेवेद् ('मधु खाने वाला', मिलामो स० मध्वद्) कहते हैं। इस बात का अनुसघान कि भल्ल शब्द का सवध भारतीय आर्य-भाषाओ के बाहर किसी भाषा में मिलता है या नहीं, शायद मनोरजक सिद्ध होगा।
(१०) मस्कृत के शब्द कञ्चूल, फञ्चूलिका (=कचुकी, जाकट) चोलिका शब्द से मिलाये जा सकते है, जिसका भी अर्थ वही है । ये शब्द भारत की आधुनिक प्रचलित भापामो में भी मिलते हैं। कञ्चूल या कञ्चुकी पहले पहल 'स्तनो के ऊपर वांधे जाने वाले वस्त्र' के सूचक थे । चोलिका पट्ट का अर्थ 'मध्य भाग के लिए प्रयुक्त वस्त्र' है । कञ्चूल, कञ्चूलिका-कन्+चोलिका इन दो शव्दी से मिल कर बने हुए जान पडते है । कन् ऑस्ट्रिक शब्द है जिसका बंगला का म्प कानि='चीथडा' है (मिलाओ मलायन शब्द काइन् =(Kain) कपडा)। चोल शब्द चेल (-वस्त्र) मे सवधित हो सकता है। चेल शब्द की उत्पत्ति अज्ञात है।