________________
जन-ग्रंथों में भौगोलिक सामग्री और भारतवर्ष में जन-धर्म का प्रसार
२६५ दक्षिण भारत के अन्य प्रदेशो में सवमे प्रथम आन्ध्र देश का नाम आता है, जहाँ जैन-श्रमणो ने पहुंच कर अपने धर्म का प्रचार किया था। आन्ध्रदेश की राजधानी धनकटक (वेजवाडा) मानी जाती है। गोदावरी तथा कृष्णा नदी के बीच के प्रदेश को प्राचीन आन्ध्र देश मानते है । प्रान्ध्र के पश्चात् दमिल अथवा द्रविड देश का नाम आता है। इस देश में प्रारम्भ मे जैन-माधुओ को वसति मिलना बहुत दुर्लभ था। अतएव उन्हें लाचार होकर वृक्ष आदि के नीचे ठहरना पडता था। काचीपुरी (काजीवरम) द्रविड का प्रसिद्ध नगर था, जहां का 'नेलक' सिक्का दूर-दूर तक चलता था। काची के दो नेलक कुसुमपुर (पाटलिपुत्र) के एक-एक नेलक के वरावर होते थे।' कवेरीपट्टन द्रविड का एक बन्दरगाह था, जिसकी पहचान मलावार तट या उत्तर सीलोन से की जाती है। तत्पश्चात् महाराष्ट्र और कुडुक्क देशो का नाम आता है। कुडुक्क प्राचार्य का व्यवहारमाप्य में उल्लेख मिलता है। इससे पता लगता है कि गन-गन कुडुक्क (कुर्ग) जैन-श्रमणो का एक वडा केन्द्र बन गया था। महाराष्ट्र के अनेक रीति-रिवाजो का उल्लेख जैनमूत्रो मे मिलता है। इससे मालूम होता है कि जैन-श्रमणोने इमप्रान्त मे खूब परिभ्रमण किया था। महाराष्ट्र मे नग्न जैन साधु अपने लिंग में वेंटक (एक प्रकार की अंगूठी) पहनते थे। महाराष्ट्र का प्रधान नगर प्रतिष्ठान या पोतनपुर (पैठन) गोदावरी के किनारे स्थित था। मालूम होता है कि प्राचीन समय में यहां के राजाओ पर जैनश्रमणो का काफी प्रभाव था। पादलिप्त मूरिने पइट्टान के राजा को गिरोवंदना को दूर किया था। कालकाचार्य ने भी इस नगर में विहार किया था। एक बार कालकाचार्य यहां उज्जयिनी से पधारे और राजा सातवाहन (शालिवाहन) के कहने पर पर्युषण पर्व की तिथि पचमी से चतुर्थी कर दी, जिससे इस पर्व में जनता ने भाग लिया। उसी समय से महाराष्ट्र में समणपूय (श्रमणपूजा) नाम का उत्सव प्रचलित हुआ।
उक्त स्थानो के सिवाय दक्षिण भारत में अन्य भी अनेक स्थान थे, जहां जैनधर्म का प्रचार हुया था। उदाहरण के लिए कोकण जैन-श्रमणो का एक विशाल केन्द्र था। इस देश में अत्यधिक वृष्टि होने के कारण जन-साधु छतरी रख सकते थे। कोकण में मच्छरो का वडा प्रकोप था, जिसके कारण एक जनसाधु को अपने प्राण खो देने पडे थे। इस देश में बडी भयानक अटवी थी, जिसे पार करते समय जैन-श्रमण-सघ की रक्षा करने के लिए एक साधु को तीन शेर मारने पड़े थे।" पश्चिमी घाट तथा समुद्र के वीच का स्थल प्राचीन कोकण माना जाता है। कोकण देश में सोप्पारय (सोपारा) व्यापार का वडा केन्द्र था और यहां बहुत से वडे-बडे व्यापारी रहते थे।" वज्रसेन, प्रार्यसमुद्र तया आर्यमगु" ने इस प्रदेश में विहार किया था। तत्पश्चात् गोल्ल देश का उल्लेख जैन-ग्रन्यो में अनेक
'वृहतकल्पभाष्य १३२८६ 'वही ३३७४६ 'वही ३.३८९२ *४.२८३, १, पृ० १२१ प्रा। "वृहत्कल्पभाष्य १२६३७ "पिंड नियुक्ति ४६७ इत्यादि "निशीयचूणि १०, पृ० ६३२ 'आचाराग चूणि, पृ० ३६६
सूत्रकृताग टीका ३.१ "निशीथ चूणि पीठिका, पृ० ६० "बृहत्कल्पभाज्य १२५०६ "प्रावश्यक चूर्णि, पृ० ४०६ "व्यवहारभाष्य ६२४० इत्यादि