________________
३०२
प्रेमी-प्रभिनदन-प्रथ
इमलिए हम ऊपर की प्राध्यात्मिक विकासक्रम मे सम्बन्ध रखने वाली तुलना में देखते है कि चाहे जिस रीति से, चाहे जिस भाषा में और चाहे जिस रूप मे जीवन का सत्य एक समान ही सभी अनुभवी तत्त्वज्ञो के ग्रनुभव मे प्रकट हुग्रा है ।
प्रस्तुत वक्तव्य को पूर्ण करने के पहले जैनदर्शन की सर्वमान्य दो विशेषताओ का उल्लेख करना उचित है । अनेकान्त और ग्रहिमा इन दो मुद्दो की चर्चा पर ही सम्पूर्ण जैनसाहित्य का निर्माण है। जैन ग्राचार और सम्प्रदाय की विशेषता इन दो विषयो से ही बनाई जा सकती है । सत्य वस्तुत एक ही होता है, परन्तु मनुष्य की दृष्टि उसको एक रूप में ग्रहण नहीं कर सकती है । इसलिए सत्यदर्शन के लिए मनुष्य को अपनी दृष्टिमर्यादा विकसित करनी चाहिए और उसमे सत्यग्रहण की सभी सभवनीय दृष्टियो को स्थान होना चाहिए। इस उदात्त और विशाल भावना मे से श्रनेकान्त विचारसरणी का जन्म हुआ है । इस विचारसरणी की योजना किसी वादविवाद में जय प्राप्त करने के लिए या विवाद को माठमारीचकव्यूह या दावपेच खेलने के लिए और शब्दछल को शतरज खेलने के लिए नही हुई है, परन्नु इसकी योजना तो जीवनगोधन के एक भाग स्वरूप विवेकशक्ति को विकसित करने के लिए और मत्यदर्शन की दिशा में आगे बढने के लिए हुई हैं । इसलिए ग्रनेकान्त विचारसरणी का सच्चा श्रर्थ यह है कि सत्यदर्शन को लक्ष्य में रस करके उसके सभी शो और भागो को एक विशाल मानस वर्तुल मे योग्य रीति से स्थान देना । जैसे जैसे मनुष्य की विवेकशक्ति बढती है वैसे वैसे उनकी दृष्टिमर्यादा बढने के कारण उसको अपने भीतर रही हुई मकुचितताओ और वामनाग्रो के दवावो के सामने होना पडता है । जव तक मनुष्य सकुचितता और वासनाओ के साथ विग्रह नही करता तब तक वह अपने जीवन में अनेकान्त को वास्तविक स्थान नही दे सकता है । इसलिए अनेकान्त विचार की रक्षा और वृद्धि के प्रश्न मे से ही श्रहिंसा का प्रश्न प्राता है । जैन श्रहिंसा केवल चुपचाप बैठे रहने मे या उद्योग-धन्धा छोड देने में अथवा काष्ठ जैसी निश्चेप्ट स्थिति करने मे ही पूर्ण नही होती, परन्तु वह श्रहिंसा वास्तविक ग्रात्मिक वल की अपेक्षा रखती है। कोई भी विकार उद्भूत हुआ, किसी वासना ने सिर ऊंचा किया अथवा कोई मकुचिता मन में प्रज्वलित हो उठी वहाँ जैन ग्रहिमा यह कहती है कि तू इन विकारो, इन वासनाओ और इन कुचितता से हनन को प्राप्त मत हो, पराभव प्राप्त न कर और इनकी सत्ता श्रगीकार न कर, तू इनका वलपूर्वक सामना कर और इन विरोधी बलो को जीत । श्राध्यात्मिक जय प्राप्त करने के लिए यह प्रयत्न ही मुख्य जैन
हिमा है । इसको फिर सयम कहो, तप कहो, ध्यान कहो या कोई भी वैमा आध्यात्मिक नाम प्रदान करो, परन्तु वह वस्तुत अहिंसा ही है। श्रीर जैनदर्शन यह कहता है कि अहिसा केवल प्रचार नही है, परन्तु वह शुद्ध विचार के परिपाक रूप से अवतरित जीवनोत्कर्षक ग्राचार है ।
ऊपर वर्णन किये गये श्रहंसा के सूक्ष्म और वास्तविक रूप मे मे कोई भी वाह्याचार उत्पन्न हुआ हो अथवा उम सूक्ष्म रूप की पुष्टि के लिए किसी ग्राचार का निर्माण हुआ हो तो उसका जैनतत्त्वज्ञान में अहिंसा के रूप में स्थान है । इसके विपरीत, ऊपर ऊपर से दिखाई देने वाले अहिंसामय आचार या व्यवहार के मूल मे यदि ऊपर के अहिंसातत्त्व का सम्बन्ध नही हो तो वह आचार और वह व्यवहार जैन दृष्टि मे श्रहिंसा है या अहिंसा का पोषक है यह नही कह सकते है ।
यहाँ जैनतत्त्वज्ञान मे सम्बन्ध रखने वाले विचार में प्रमेय चर्चा का जान बूझकर विस्तार नही किया है । इस विषय की जैन विचारसरणी का केवल मकेत किया है । आचार के विषय मे भी वाह्य नियमो और विधानो सम्बन्धी चर्चा जानबूझ कर छोड़ दी है, परन्तु प्राचार के मूलतत्त्वो की जीवनगोधन के म्प में सहज चर्चा की है, जिनको कि जैन परिभाषा मे श्राम्रव, सवर श्रादि तत्त्व कहते है । यागा है कि यह सक्षिप्त वर्णन जैनदर्शन की विशेष जिज्ञामा उत्पन्न करने में सहायक होगा ।
बबई ]
[ गुजराती से अनूदित