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________________ ___ संस्कृत व्याकरण में लकार-वाची संज्ञाएँ ८६ का प्रयोग हुआ है, जो प्राचीन परम्परा के अधिक निकट है। शाकटायन के व्याकरण में 'भवत्' के स्थान पर 'सत्' और 'भविष्यत्' के लिए 'वर्तस्यत्' प्रयुक्त हुए है।। कातन्त्र में 'लिट्' के लिए 'परोक्षा' सज्ञा है, जो पाणिनि के सूत्र 'परोक्ष लिट्' (३।२।११५) से मिलती है । परोक्षा सज्ञा चतुरध्यायिका ग्रन्थ मे, जो अथर्ववेद का, प्रातिशाख्य है और कात्यायन के वार्तिको मे भी मिलती है (भाप्य श२।१८ पर श्लोक वार्तिक)। 'लुटु' (अनद्यतन भविष्य) के लिए कातन्त्र व्याकरण में 'श्वस्तनी' सज्ञा है, जो पाणिनि सूत्र 'अनद्यतने लुट् (३।३।१५) से मिलती है। इसी सूत्र पर कात्यायन के वार्तिक में भी यह सज्ञा पाई है-'परिदेवने श्वस्तनी भविज्यन्त्या अर्थे ।' लुट् (सामान्य भविप्य) के लिए कातन्त्र में भविष्यती सज्ञा का प्रयोग हुआ है। यह सज्ञा कात्यायन के ऊपर लिखे हुए वार्तिक मे आ चुकी है और पाणिनि के भविष्यति गम्यादय' एव 'लुट् शेपे च' सूत्रो से मिलती है।। 'लेट् लकार का केवल वेद में प्रयोग होता है। अतएव पाणिनि के उत्तरकालीन व्याकरणो में इसकी चर्चा नही है, किन्तु अथर्व प्रातिशास्य में इसके लिए 'नेगमी' सज्ञा का प्रयोग हुआ है (२३।२, चतुरध्यायिका)। 'नगमी' मज्ञा 'निगम' (वेद) से बनाई गई है। 'लोट्' (आज्ञा) का प्राचीन नाम कातन्त्र व्याकरण मे नही मिलता। वहां इसे 'पचमी' कहा गया है, क्योकि पाणिनि के लकारो मे इसका पांचवां स्थान है, यदि लेट्' को उस सूची से निकाल दिया जाय । यह भी सम्भव है कि किमी समय प्रथमा, द्वितीया, तृतीया विभक्तियो की तरह लकारो के भी वैसे ही नाम थे। प्रयोगरत्नमाला में (जो कातन्त्र सम्मत है) 'लोट्' नाम का ही ग्रहण किया गया है और कातन्त्र के रचयिता शर्ववर्मन द्वारा प्रयुक्त 'पचमी' इस सज्ञा का वहिष्कार हुआ है । ऊपर लिखे हुए अथर्व प्रातिशाख्य में (२।१।११, २।३।२१) 'लोट्' के लिए 'प्रेषणी' (पाठान्तर 'प्रेषणी') सजा का प्रयोग हुआ है, जो कि पाणिनि सूत्र ३।२।१६३ 'प्रैपाति सर्ग प्राप्त कालेषु कृत्याश्च' से मिलती है। __ लड् (अनद्यतन)-भूत के लिए कातन्त्र में 'ह्यस्तनी' सज्ञा का नाम आया है। यह नाम पाणिनि के 'अनद्यतने लड्' (२।१११) से मिलता है और 'श्वस्तनी' सज्ञा का उल्टा है । क्रिया के सम्बन्ध में 'ह्यस्तन' गव्द का महाभाष्य में प्रयोग हुआ है, [अथ कालविशेषान् अभि समीक्ष्य यश्चाद्यतन पाको यश्च शस्तनो यश्च श्वस्तन (महाभाष्य ३३१ ६७)] किन्तु कालवाची 'ह्यस्तनी' सज्ञा का उल्लेख वार्तिक और भाप्य में नहीं मिलता। 'लिड्' लकार के लिए भी प्राचीन नाम कातन्त्र में नही आता। वहाँ उसे सप्तमी कहा गया है, लेकिन प्रयोगरत्नमाला मे 'लिड्' नाम का ही ग्रहण हुआ है। 'लुड्' के लिए प्राचीन नाम 'अद्यतनी' था, जो कि कात्यायन के वार्तिको में कई वार आया है (२॥४॥३२२, ३२२१०२।६, ६४१११४१३)। 'लुड्' के लिए कातन्त्र व्याकरण में 'क्रियातिपत्ति' सज्ञा का प्रयोग हुआ है , जो कि पाणिनीय सूत्र 'लिड् क्रियातिपत्तो' (३।३।१३६) से लिया गया है। चन्द्रव्याकरण में भी पाणिनि के लकार-नामो का ग्रहण किया गया है। कालान्तर के व्याकरणो पर साम्प्रदायिकता की छाप पडी और सीधी-सादी व्याकरण की सज्ञानी को भी देवताओ के नामो के साथ जोड दिया गया। उदाहरण के लिए हरिनामामृत व्याकरण में दस समानाक्षरी के लिए विष्णु के दस अवतारो के नाम रक्खे गये है और दस लकारो के लिए भी अच्युत, अधोक्षज आदि सज्ञाएँ प्रयुक्त हुई है । शाक्तो के एक व्याकरण में तो दम लकारो के लिए काली, तारा, पोडशी, भुवनेश्वरी, भैरवी, छिन्नमस्ता, धूमावती, वगला, मातगी और कमला, इन दम महाविद्याओ के नाम ले लिये गये है। कलकत्ता ] १२ -
SR No.010849
Book TitlePremi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremi Abhinandan Granth Samiti
PublisherPremi Abhinandan Granth Samiti
Publication Year
Total Pages808
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size34 MB
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