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मरण से
श्री मैथिलीशरण गुप्त भुका सकेगा मुझे कभी तू ? कर्ता का केतन हूँ मैं, मरण, नित्य नव जीवन हूँ मै, तू जड़ है, चेतन हूँ मैं। __ मेरे पीछे लाख पड़ा रह, आगे पा न सकेगा तू ,
रोया कर जी चाहे जितना, मुझ-सा गा न सकेगा तू। छद्म रूप रखकर जा तो भी भव को भा न सकेगा तू ,
सड़ा-गला भी कभी पेट भर पामर, पा न सकेगा तू । रह रूखा-सूखा उजाड़ तू, हरा-भरा उपवन हूँ मैं; मरण, नित्य नव जीवन हूँ मैं, तू जड़ है, चेतन हूँ मै ।
नये नये पट-परिवर्तन कर प्रकट नाट्यशाला मेरी, वचित ही इस स्वर-लहरी के रस से रसनाएँ तेरी। फणि, कोई मणि है तो वह तो चोरी की ही हथफेरी,
सरक वहीं तू जहाँ नरक से कूडे-घूडे की ढेरी। देख दूर से क्रूर रोग तू योग-सिद्ध जन-धन हूँ मैं, मरण, नित्य नव जीवन हूँ मै, तू जड़ है, चेतन हूँ मैं ! चिरगांव ]