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अभिनव धर्मभूषण और उनकी 'न्यायदीपिका'
समय- विचार
यद्यपि अभिनव धर्मभूषण की निश्चित तिथि बताना कठिन है तथापि जो आधार प्राप्त है उनमे उनके समय का लगभग निश्चय हो जाता है ।
विन्ध्यगिरि का जो गिलालेख प्राप्त है, वह गक म० १२६५ का उत्कीर्ण हुआ है । हम पहले वतला चुके हैं कि इसमें प्रथम और द्वितीय इन दो ही धर्मभूषणों का उल्लेख है और द्वितीय वर्मभूषण के शिष्य वर्द्धमान का अन्तिम रूप से उल्लेख है। तृतीय धर्मभूषण का उल्लेख उसमे नही पाया जाता। डा० हीरालालजी एम० ए० के उल्लेखानुसार द्वितीय धर्मभूषण की निपद्या (नि मही) शक स० १२६५ में बनवाई गई है । अत द्वितीय धर्मभूषण का अस्तित्व समय डाक स० १२९५ तक ही समझना चाहिए। हमारा अनुमान है कि केशववर्णी को अपनी गोम्मटसार की जीवतत्त्वप्रदीपिका टीका बनाने की प्रेरणा एव प्रदेश जिन धर्मभूषण मे मिला उन धर्मभूषण को भी यही द्वितीय
भूषण होना चाहिए, क्योकि इनके पट्ट का समय यदि पच्चीस वर्ष भी हो तो इनका पट्ट पर बैठने का समय क स० १२७० के लगभग पहुँच जाता है । उम समय या उसके उपरान्त केशववर्णी को उपर्युक्त टीका के लिखने मे उनसे श्रादेश एव प्रेरणा मिलना असम्भव नही है । चूँकि केशववर्णी ने अपनी उक्त टीका शक स० १२८१ में पूर्ण की है, अत उस जैमी विशाल टीका को लिखने के लिए ग्यारह वर्ष का समय लगना भी आवश्यक एव भगत है । प्रथम व तृतीय धर्मभूषण केशववर्णी के टीकाप्रेरक प्रतीत नही होते, क्योकि तृतीय धर्मभूषण 'जीवतत्त्वप्रदीपिका' के समाप्तिकाल ( गक० १२८१ ) मे लगभग उन्नीस वर्ष बाद गुरुपट्ट के अधिकारी हुए जान पडते है और उस समय वे प्राय वीस वर्ष के होगे । अत 'जीवतत्त्वप्रदीपिका' के रचनारम्भ समय में तो उनका अस्तित्व ही नही रहा होगा । तव वे केशववर्णी के टीका-प्रेरक कैसे हो सकते हैं ? प्रथम धर्मभूषण भी उनके टीका-प्रेरक सम्भव प्रतीत नही होते । कारण उनके पट्ट पर अमरकीति और अमरकीर्ति के पट्ट पर द्वितीय धर्मभूषण (शक स० १२७० - १२६५ ) बैठे है । अत अमरकीत्ति का पट्ट-समय अनुमानत शक स० १२४५-१२७० और प्रथम धर्मभूषण का शक स० १२२०-१२४५ होता है । ऐसी हालत में यह सम्भव नही है कि प्रथम धर्मभूषण गक स० १२२०-१२४५ में केशववर्णी को 'जीवतत्त्वप्रदीपिका' के लिखने का आदेश दे और वे ६१ या ३६ वर्षो के दीर्घ समय में उसे पूर्ण करे । प्रतएव यही प्रतीत होता है कि द्वितीय धर्मभूषण ( शक० १२७० - १२६५) ही केशववर्णी ( गक० १२८१) के उक्त टीका के लिखने में प्रेरक रहे हैं ।
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पीछे हम यह निर्देश कर आये है कि तृतीय धर्मभूषण (प्रस्तुत अभिनव धर्मभूषण) शक स० १२६५ श्रौर शक स० १३०७ के मध्य में किमी समय अपने वर्द्धमान गुरु के पट्ट पर ग्रासीन हुए है । अत यदि वे पट्ट पर बैठने के ममय (करीव शक० १३०० मे) बीस वर्ष के हो, जैसा कि सम्भव है तो उनका जन्म ममय शक स० १२८० (१३५८ ई०) के लगभग होना चाहिए । विजयनगर साम्राज्य के स्वामी प्रथम देवराय और उनकी पत्नी भीमादेवी जिन वर्द्धमान गुरु के शिष्य धर्मभूषण के परम भक्त थे और जिन्हें अपना गुरु मानते थे तथा जिनसे प्रभावित होकर जैनधर्म की अतिशय प्रभावना में प्रवृत्त रहते थे वे यही अभिनव धर्मभूषण है । पद्मावती-वस्ती के एक लेख ज्ञात होता है कि "राजाधिराज परमेश्वर देवराय प्रथम वर्द्धमान मुनि के शिष्य धर्मभूषण गुरु के, जो वडे विद्वान् थे, चरणो में नमस्कार किया करते थे ।" इसी बात का समर्थन शक स० १४४० में अपने 'दशभक्त्यादिमहाशास्त्र' को समाप्त करने वाले कवि वर्द्धमान मुनीन्द्र के इसी ग्रन्थगत निम्न श्लोक से भी होता है—
"राजाधिराजपरमेश्वरदेवरायभूपालमौलिलसदप्रिसरोजयुग्म ।
श्रीवर्द्धमानमु निवल्लभमोठ्यमुख्य श्रीधर्मभूषणसुखी जयति क्षमाढ्य ॥""
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'आरा से प्रकाशित प्रशस्ति स० पृ० १२५ से उद्धृत ।