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मासिक
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अक
वीर सेवा it graकालय
खजुराहो की १०३ ११वीं शती की तीर्थंकर पारसनाथ सहित धरणेन्द्र पद्मावती की एक सुन्दर मूर्ति छाया-नीरज जैन
समन्तभद्राश्रम (वीर - सेवा मन्दिर) का मुखपत्र
तेली
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पष्ठ
विषय-सूची
अनेकान्त को सहायता विषय १. सुमति-जिन-स्तवन-समन्तभद्राचार्य
| १०) श्री प्रकाशचन्द जी मेठी उज्जैन की सुपुत्री के २. जैन-दर्शन में सर्वज्ञता की भावनाएं
विवाहोपलक्ष मे निकाले हुए दान में से दस रुपया -पं० दरबारीलाल जैन कोठिया एम ए. २ अनेकान्त को सहायतार्थ ५० सत्यधर जी मेठी उज्जन के ३. शब्द-चिन्तन : शोध दिशाएं-मुनि श्री नथमल ८ | द्वाग मपन्यवाद प्राप्त हा है। प्राशा है अन्य महधर्मी-जन ४. श्रावक प्रज्ञप्ति का रचयिता कौन ?
भी इसका अनुकरण करेंगे। -श्री बालचन्द सिद्धान्त शास्त्री ५. श्रीपुर, निर्वाण भक्ति और कुन्दकुन्द
-व्यवस्थापक
'अनेकान्त' -डा० विद्याधर जोहरा पुरकर, जावरा १४ ६. प्रतिहार साम्राज्य मे जैन धर्म
-डा० दशरथ शर्मा एम. ए. डी लिट् १७ ७. खजुराहो का जैन मग्रहालय-नीरज जैन १५ ८. जैन-दर्शन में सप्तभगीवाद
सूचना -उपाध्याय मुनि श्री अमरचन्द ९. श्रीपुर पाश्वनाथ मन्दिर के मूर्ति यत्र-लेख-मग्रह १७वे वर्ष की मम.न्ति के साथ अनेकान्त के ग्राहको
-प. नेमचन्द धन्नूमा जैन, देउलगांव २५ का वार्षिक शुल्क समाप्त हो जाता है। प्रत १८ वर्ष के १०. सोलहवी शताब्दी की दो प्रशस्तियाँ | प्रारम्भ में ग्राहको को बिना वी० पी० के ही प्रथम किरण -परमानन्द शास्त्री
भेजी जा रही है। कृपया ) रुपया मनीग्राईर से भेज ११. जैन तंत्र साहित्य-डा कस्तूरचन्द
कर अनुगृहीत करे । अन्यथा अगला प्रक बी० पी० से कासलीवाल एम. ए. पीलाच. डी. ३३ ! भेजा जावेगा । जिसमें ग्राहको को ७५ पैम का अतिरिक्त श्री छोटेलाल जैन अभिनन्दन प्रथ
पोरटेज खर्च भी देना होगा। -डा. कस्तूर चन्द कामलीवाल एम. ए ३७ १३ अहिसा का वैज्ञानिक प्रस्थान
.-व्यवस्थापक -श्री काका कालेलकर
अनेकान्त १४ प्रात्म-दमन--मुनि श्री नथमल
वीर सेवा मन्दिर २१ दरियागंज, १५ महर्षि बाल्मीकि और श्रमण मस्कृति
दिल्ली। -मुनि विद्यानन्द १६. साहित्य-समीक्षा-परमानन्द शास्त्री ४५ १७. श्री सम्मेद शिम्वर तीर्थ रक्षा-प्रेमचन्द जैन ४८ अनेकान्त का वार्षिक मूल्य ६) रुपया
एक किरण का मूल्य १ रुपया २५ पं० सम्पादक-मण्डल डा० प्रा० ने० उपाध्ये
अनेकान्त में प्रकाशित विचारों के लिए सम्पादक डा० प्रेमसागर जैन
मण्डल उत्तरदायी नहीं हैं। श्री यशपाल जैन
२४
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मोम बहन
अनेकान्त
परमागस्य बीजं निषिद्ध मात्यबसिन्पुर विधानम्। सकलनयविमसितानां विरोधमवनं नमाम्यनेकान्तम् ।।
वर्ष १८ किरण-१
। ।
वीर-सेवा-मन्दिर, २१ दरियागंज, बिल्ली-६ वीर निर्वाण संवत् २४६१.वि. सं. २०२२
प्रेल
सन् १९६५
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सुमति-जिन-स्तवन
(समुद्गक यमकः) देहिनो जयिनः श्रेयः सदाप्रतः सुमते ! हितः । देहिनो जयिनः१ श्रेयः स बातः सुमतेहितः ॥
-समन्तभद्राचार्य
प्रथं हे सुमति ! जिनेन्द्र ! पाप कर्मरूप शत्रों को जीतने वाले प्राणियों के उपासनीय -जो प्राणी अपने कमरूप शत्रुओं को जीतना चाहते हैं वे अवश्य ही मापकी उपासना करते हैं। (क्योंकि मापकी उपासना के बिना कर्मरूप शत्रु नहीं जीते जा सकते) प्राप सदा उनका हित करने वाले हैं, आपके द्वारा प्ररूपित मागम और प्रापकी चेष्टाएँ उत्तम हैं। आप प्रज हैं-जन्म-मरणादिक व्यथा से रहित हैं, सबके स्वामी है, अर्थात् मापके द्वारा निर्दिष्ट मोक्षमार्ग का अवलम्बन करने से संसार के समस्त प्राणियों का हित होता है। प्रतएव हे दानशील
भगवन् ! मुझे भी मोक्षरूप कल्याण प्रदान कीजिए-मैं भी जन्म-मरणादि कष्टों से सदा के लिए छुटकारा 'पा जाऊँ।
न:+मज:+इनः इति पदच्छेदः । मज शब्दः स्वोज समोडिति सुप्रत्ययः । ससजुपोरितिरुत्वम् । 'भोमगोप्रधो अपूर्वस्य योऽशि' इति रोयदिशः। लोपः शाकल्यस्येति विकल्पेन यकार लोपः । ततो मात्र विकल्पत्वाल्लोपः।
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जैन-दर्शन में सर्वज्ञता की संभावनाएँ
पं० दरबारीलग्न छन कोठिया एम. ए. न्यायाचा तज्जयति परं ज्योतिः समं समस्तैरनन्तपर्याः। नहीं १ । पुरुष रागादि पोंके युक्त है और रागादि दोष
दर्पणतल इव सकला प्रतिफलति पदार्थमालिका यत्र॥ पुरुषमात्र का स्वभाव हैं तथा वे किसी भी पुरुष से सर्वथा -अमृतचन्द्र, पुरुषार्थसिद्धय पाय ॥१॥ दूर नहीं हो सकते। ऐसी हालत में रागी-देपी-अज्ञानी
पुरुषों के द्वारा उन. धर्मादि अतीन्द्रिय पदार्थों का ज्ञान पृष्ठभूमि :
संभव नहीं है। शवर स्वामी अपने शावर-भाष्य (१-१-५) भारतीय दर्शनों में चार्वाक और मीमांसक इन दो में लिखते हैं:दर्शनों को छोड़कर शेष सभी (न्याय-वैशेषिक, साख्या 'चोदना हि भूतं भवन्तं भविष्यन्तं सूक्ष्म व्यवहितं योग, वेदान्त, बौद्ध और जैन) दर्शन सर्वज्ञता की सम्भा- विप्रकृष्टमित्येवजातीयकमर्थमवगमयितुमलं, नान्यत् किंचबना करते तथा युक्तियों द्वारा उसकी स्थापना करते हैं। नेन्द्रियम्।' साथ ही उसके सद्भाव में पागम-प्रमाण भी प्रचुर मात्रा इससे विदित है कि मीमांसक दर्शन सूक्ष्मादि प्रतीमें उपस्थित करते हैं।
न्द्रिय पदार्थों का ज्ञान चोदना (वेद) द्वारा स्वीकार करता
है किसी इन्द्रिय के द्वारा उनका ज्ञान सम्भव नहीं सर्वज्ञता के निषेष में सर्वाक दर्शन का दृष्टिकोण:
मानता। शवर स्वामी के परवर्ती प्रकाण्ड विद्वान् भट्ट चार्वाक दर्शन का दृष्टिकोण है कि 'यददृश्यते तदस्ति' 'कुमारिल भी किसी पुरुप में सर्वज्ञता की सम्भावना का यन्न दख्यने तन्नस्ति'-इन्द्रियों से जो दिखे वह है और अपने मीमांसा श्लोकवार्तिक में विस्तार के साथ पुरजोर जो न दिखे वह नहीं है। पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु से खण्डन करते हैं । पर वे इतना स्वीकार करते है कि हम चार भूत-तत्व ही दिखाई देते हैं । अतः वे हैं । पर उनके १. तथा वेदेतिहासादि ज्ञानातिशयवानपि । अतिरिक्त कोई प्रतीन्द्रिय पदार्थ दृष्टिगोचर नहीं होता। न स्वर्ग-देवतापूर्व-प्रत्यक्षीकरण क्षमः ।। अतः वे नहीं हैं। सर्वज्ञता किसी भी पुरुप में इन्द्रियों द्वारा
भट्ट कुमारिल, मीमासा श्लोक वा। ज्ञात नहीं है और अज्ञात पदार्थ का स्वीकार उचित नही २. यज्जातीयः प्रमाणैस्तु यज्जातीयार्थदर्शनम् । है। स्मरण रहे कि चार्वाक प्रत्यक्ष प्रमाण के अलावा दृष्ट सम्प्रतिलोकस्य तथा कालान्तरेऽण्यभूत्॥११२-सू०२ अनुमानादि कोई प्रमाण नहीं मानते । इसलिए इस दर्शन यत्राप्यनिशयो दृष्टः स स्वार्थानतिलघतात् । में प्रतीन्द्रिय सर्वज्ञ की सम्भावना नहीं है।
दूरसूक्ष्मादिदृष्टी स्यान्न रूपे श्रोत्रवृत्तिता ॥११४
येऽपि सातिशया दृष्टाः प्रज्ञामेधादिभिनंराः । मीमांसक वर्शन का मन्तव्यः
स्तोक स्तोकान्तरत्वेन नत्वतीन्द्रिय दर्शनात् ।। मीमासकों का मन्तव्य है कि धर्म, अधर्म, स्वर्ग, देवता,
प्राज्ञोऽपि हि नरः सूक्ष्मानर्थान् द्रष्टु क्षमोऽपि सन । मरक, नारकी मादि मतीन्द्रिय पदार्थ है तो अवश्य, पर
स्वजातीरनतिक्रमान्नतिशेते परान्नगन् । उनका ज्ञान वेद द्वारा ही सम्भव है, किसी पुरुष के द्वारा
एकशास्त्रविचारे तु दृश्यतेऽतिशयो महान् ।
न तु शस्त्रान्तरज्ञानं तन्मात्रणव लभ्यते ॥ अखिल भारतीय दर्शन परिषद् के दशम वार्षिक ज्ञात्वी व्याकरणं दूरं बुद्धिः शब्दापशब्दयोः । अधिवेशन में प्रायोजित गोष्ठी में पठित ।
प्रकृष्यति न 'नक्षत्र-तिथि-ग्रहणनिर्णये ॥
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जंन वर्शन में सर्वज्ञता की संभावनाएं
केवल धर्मज्ञ का अथवा धर्मज्ञता का निषेध करते हैं । यदि .. कोई पुरुष धर्मातिरिक्त अन्य सबको जानता है तो जाने, हमे कोई विरोध नहीं है:
धर्मज्ञत्व- निषेधस्तु केवलोऽत्रोपयुज्यते । सर्वमन्यद्विजानस्तु पुरुषः केन वार्यते ॥ सर्व प्रमातृ - संबंधि- प्रत्यक्षादिनिवारणात् । केवलाऽऽगम - गम्यत्वं लप्स्यते पुण्य प्रापयोः ३ ॥ किसी पुरुष को धर्मज्ञ न मानने में कुमारिल का तर्क यह है कि पुरुषों का अनुभव परस्पर विरुद्ध एवं बाधित देखा जाता है४ । अतः वे उसके द्वारा धर्माधर्म का यथार्थ साक्षात्कार नहीं कर सकते । वेद नित्य, श्रपौरुषेय और त्रिकालाबाधित होने से उसका ही धर्माधर्म के मामले में प्रवेश है ( धर्मे चोदनैव प्रमाणम्) । ध्यान रहे कि बौद्धदर्शन में बुद्ध के अनुभव, योगि ज्ञान को मौर जैन दर्शन में तु के अनुभव, केवलज्ञानको धर्माधर्म का यथार्थ साक्षात्कारी बतलाया गया है । जान पड़ता है कि कुमारिल को इन दोनों की धर्माधर्मज्ञता का निषेध करना इष्ट है । उन्हें त्रयीवित् मन्वादि का धर्माधर्मादि विषयक उपदेश मान्य है, क्योंकि वे उसे वेद प्रभव बतलाते है५ । कुछ भी
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ज्योतिविच्च प्रकृष्टोऽपि चन्द्राकं ग्रहणादिषु । न भवत्यादिशब्दानां साधुत्वं ज्ञातुमर्हति ॥ दशहस्तान्तरे व्योम्नि यो नामोल्लुत्य गच्छति न योजनमसौ गन्तुं शक्तोऽभ्यासशतैरपि ॥ . तस्मादतिशयज्ञानं रतिदूरगर्त रवि । किंचिदेवाधिक ज्ञातु गक्यते न त्वतीन्द्रियम् ॥ अनन्तकीर्ति द्वारा बृहत्सर्वज्ञसिद्धिमें उद्धृत ।
३ इन दो कारिकाओं में पहली कारकाको शान्तरक्षित ने तत्वसंग्रह में ( ३१२८ का० ) और दोनों को श्रनन्तबृहत्सर्वज्ञसिद्धि (१० १३७ ) में उद्धृत
किया है।
४. सुगतो यदि सर्वज्ञः कपिलो नेति का प्रमा। तावुभौ यदि सर्वज्ञौ मतभेदः कथं तयोः ॥
३
हो, वे किसी पुरुष को स्वयं धर्मज्ञ स्वीकार नहीं करते । वे मन्वादि को भी वैद द्वारा ही धर्माधर्मादि का ज्ञाता और उपदेष्टा मानते हैं ।"
बौद्ध दर्शन में सर्वज्ञताकी संभावना :
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बौद्ध दर्शन में अविद्या और तृष्णा के क्षय से प्राप्त योगी के परम प्रकर्षजन्य अनुभव पर बल दिया गया है और उसे समस्त पदार्थों का, जिनमें धर्माधर्मादि श्रतीन्द्रिय पदार्थ भी सम्मिलित हैं, साक्षात्कर्ता कहा गया है। दिङ्नाग आदि बोद्ध-चिन्तकों ने सूक्ष्मादि पदार्थों के साक्षात्करण रूप अर्थ में सर्वज्ञता को निहित प्रतिपादम किया है । परन्तु बुद्ध ने स्वयं अपनी सर्वज्ञता पर बल नही दिया । उन्होंने कितने ही प्रतीन्द्रिय पदार्थो को मव्याकस ( न कहने योग्य) कहकर उनके विषय में मौन ही रखा६ । पर उनका यह स्पष्ट उपदेश था कि धर्म जैसे प्रतीन्द्रिय लिए किसी धर्म-पुस्तक की शरण में जाने की आवश्यकता पदार्थ का साक्षात्कार या अनुभव हो सकता है। उसके नही है । बौद्ध तार्किक धर्मकीर्ति ने भी बुद्ध को धर्मज्ञ हो
५. उपदेशो हि बुद्धादेधर्माधर्माविमोचरः । अन्यथाच्च पद्येत सर्वज्ञो यदि नाभवत् ॥
बुद्धादयो ह्यवेदज्ञास्तेषां वेदादसंभव: । उपदेशः कृतोऽतस्तैoर्व्यामोहादेव केवलात् ॥ येsपि मन्वादयः सिद्धाः प्राधान्येन त्रयीविदाम् । त्रयीविदाश्रितंप्रन्यास्ते वेदप्रभवोक्तयः ॥ नरः कोऽप्यस्ति सर्वज्ञः स च सर्वज्ञ इत्यपि । साधनं यत्प्रयुज्येत प्रतिज्ञामात्रमेव तत् ॥ सिसाधयिषितो योऽर्थः सोऽनया नाभिधीयते । यस्तुच्यते न तत्सिद्धौ किंचिदस्ति प्रयोजनम् ॥ यदीयागमसत्यत्वसिद्धौ सर्वज्ञतेष्यते । न सा सर्वज्ञ सामान्यसिद्धिमात्रेण लभ्यते ॥ यावदुद्धो न सर्वज्ञस्तावत्तद्वचनं मृषा । यत्र वचन सर्वज्ञे सिद्धे तत्सस्यता कुतः ॥ प्रन्यस्मिन्न हि सर्वज्ञे वचसोऽन्यस्य सत्यता । सामानाधिकरण्ये हि तयोरंगा गिभावता भवेत् ॥
ये कारिकाएँ कुमारिल के नाम से अनन्तकीति ने
- प्रष्ट स. पू. ३, उद्धृत वृ. स. सि. में उद्धृत की हैं।
६. देखिये, मज्झिमनिकाय २-२-३ के चूलमालुंक्य सूत्र का संवाद ।
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अनेकान्त
बतलाया है और सर्वशता को मोक्षमार्ग में अनुपयोगी परन्तु उनका वह सर्वशत्व प्रपवर्ग-प्राप्ति के बाद नष्ट हो कहा है : जाता है, क्योंकि यह योग तथा प्रात्ममन: संयोग- जन्य गुण अथवा प्रणिमा प्रादि ऋद्धियों की तरह एक विभूति मात्र है | मुक्तावस्था में न भ्रात्मनः संयोग रहता है प्रौर न योग । अतः शानादि गुणों का उच्छेद हो जाने से वहां सर्वज्ञता भी समाप्त हो जाती है। हाँ, वे ईश्वर की सर्वज्ञता श्रनादि-अनन्त अवश्य मानते हैं । सांख्ययोग दर्शन में सर्वज्ञता की संभावना :
तस्मादनुष्ठानगतं ज्ञानमस्य विचार्यताम् । कीट संख्या परिज्ञान तस्य नः क्वोपयुच्यते ॥ हेयोपादेयतत्त्वस्य साभ्युपायस्य वेदकः । यः प्रमाणमसाविस्टो न तु सर्वस्य वेदकः ॥ धर्मकीर्ति, प्रमाण वा० ३१,३२ । 'मोक्षमार्ग में उपयोगी ज्ञान का ही विचार करना चाहिए। यदि कोई जगत् के कीड़े-मकौड़ों की संख्या को 'जानता है तो उससे हमें क्या लाभ? भ्रतः जो हेय और उपावेय तथा उनके उपायों को जानता है वही हमारे लिए प्रमाण ( प्राप्त ) है, सब का जानने वाला नहीं । यहाँ उल्लेखनीय है कि कुमारिल ने जहां धमंश का निबंध करके सर्वज्ञ के सद्भाव को इष्ट प्रकट किया है वही धर्मकीति ने ठीक उसके विपरीत धर्मज्ञ को सिद्ध कर सवंश का निषेध मान्य किया है। शान्तरक्षित और उनके शिष्य कमलशील बुद्ध में धर्मज्ञता के साथ ही सर्वशता की भी सिद्धि करते हैं७ । पर वे भी धर्मज्ञता को मुख्य श्रौर सर्वज्ञता को प्रासंगिक बतलाते हैं । इस तरह हम बौद्ध दर्शन में सर्वशता की सिद्धि देख कर भी, वस्तुतः उसका विशेष बल हेयोपादेय तत्वज्ञता पर ही है, ऐसा निष्कर्ष निकाल सकते हैं । म्याय-वंशेषिक दर्शन में सर्वज्ञता की सम्भावना :
न्याय-वैशेषिक ईश्वर में सर्वशत्व मानने के प्रतिरिक्त दूसरे योगी-आत्माभों में भी उसे स्वीकार करते है । ७. स्वर्गापवर्गसम्प्राप्तिहेतुज्ञोऽस्तीति गम्यते ।
साक्षान्न केवलं किन्तु सर्वशोऽपि प्रतीयते ॥ - तत्त्व० सं० का० ३३० । ८. 'मुख्यं हि तावत् स्वर्गमोक्ष सम्प्राप कहेतुज्ञत्वसाधनं भगवतोऽस्माभिः क्रियते । यत्पुनः प्रशेषार्थं परिज्ञातृत्व साधनमस्य तत् प्रासङ्गिकम् । सत्त्व० [सं० पृ० ८६३ । ६. 'अस्मद्विशिष्टानां युक्तानां योगजधर्मानुगृहीतेन मनसा स्वात्मान्तराकाश दिक्कालपरमाणु वायुमनस्य तत्समवेत गुण कर्म सामान्यविशेषसमवाये चावितथं स्वरूप दर्शनमुत्पद्यते, वियुक्तानां पुनः प्रशस्त
पाद भाष्य, पृ० १८७ ।
निरीश्वरवादी सांख्य प्रकृति में और ईश्वरीवादी योग ईश्वर में सर्वज्ञता स्वीकार करते हैं । सांख्यों का मन्तव्य है कि ज्ञान बुद्धितत्व का परिणाम है और बुद्धितत्त्व महत्तत्त्व प्रकृति का परिणाम है । अत: सर्वज्ञता प्रकृति में निहित है और वह प्रपवर्ग हो जाने पर समाप्त हो जाती है। योगदर्शन का दृष्टिकोण है कि पुरुषविशेष रूप ईश्वर १० में नित्य सर्वज्ञता है भीर योगियों की सर्वज्ञता, जो सर्व विषयक 'तारक' विवेकज्ञात रूप है, भ्रपवर्ग के बाद नष्ट हो जाती है। अपवर्ग अवस्था में पुरुष चैतन्य मात्र में, जो ज्ञान से भिन्न है, अवस्थित रहता
है११ । यह भी श्रावश्यक नहीं कि हर योगी को वह सर्वज्ञता प्राप्त हो । तात्पर्य यह कि इनके यहां सर्वज्ञता की संभावना तो की गई है पर वह योगज विभूतिजन्य होने से नादनन्त नहीं है, केवल सादि सान्त है । वेदान्त दर्शन में सर्वज्ञता :
वेदान्त दर्शन में सर्वज्ञता को अन्तःकरणनिष्ठ माना गया है और उसे जीवनमुक्त दशा तक स्वीकार किया गया है । उसके बाद वह छूट जाती है । उस समय प्रविद्या से मुक्त होकर विद्या रूप शुद्ध सच्चिदानन्द ब्रह्म का रूप प्राप्त हो जाता है और सर्वज्ञता आत्मज्ञता में विलीन हो जाती है । अथवा उसका प्रभाव हो जाता है। जंन दर्शन में सर्वज्ञता की संभावनाएँ :
जैन दर्शन में ज्ञान को श्रात्मा का स्वरूप अथवा स्वाभाविक गुण माना गया है और स्व-पर प्रकाशक
१० [ 'क्लेशकर्म विपाकाशयंरपरामृष्टः पुरुषविशेष ईश्वर:'- योगसूत्र ।
११ ['तदा द्रष्टुः स्वरूपेऽवस्थानम्' - योगसूत्र १-१-३
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नवसन में सर्वशताको संभावनाएं
बतलाया गया है१२। यदि मात्मा का स्वभाव इत्व उद्भूत केवलज्ञान, वर्तमान, भूत, भविष्यत, सूक्ष्म, व्यव. (जानना) न हो तो वेद के द्वारा सूक्ष्मादि शेयों का ज्ञान हित मादि सब तरह के शेयों को पूर्ण रूप में युगपत नहीं हो सकता । भट्ट भकलंक ने लिखा है१३ कि ऐसा जानता है । जो त्रिकाल और त्रिलोकवर्ती सम्पूर्ण पदार्थों कोई शेय नहीं, जो स्वभाव मात्मा के द्वारा जाना न को नहीं जानता वह अनन्त पर्यायों वाले एक द्रव्य को जाय । किसी विषय में माता का होना ज्ञानावरण तथा भी पूर्णतया नहीं जान सकता और जो अनन्त पर्याय वाले मोहादि दोषों का कार्य है। जब ज्ञान के प्रतिबन्धक एक द्रव्य को नहीं जानता वह समस्त द्रव्यों को कैसे एक ज्ञानावरण तथा मोहादि दोषों का क्षय हो जाता है तो साथ जान सकता है? प्रसित विचारक भगवती मारापनाबिना रुकावट के साथ समस्त शेयों का ज्ञान हुए बिना कार शिवाय १८ और पावश्यक निर्युक्तिकार भद्रबाह गरे ज्ञान नहीं रह सकता । इसको सर्वज्ञता कहा गया है। स्पष्ट और प्रांजल शब्दों में सर्वशता का प्रबल समर्थन जन मनीषियों ने प्रारम्भ से त्रिकाल और त्रिलोकवर्ती करते हुए कहते हैं कि 'वीतराग भगवान तीनों कालों. समस्त पदार्थों के प्रत्यक्ष ज्ञान के अर्थ में इस सर्वज्ञता अनन्त पर्यायों से सहित समस्त शेयों और समस्त लोकों को पर्यवसित माना है। प्रागम-ग्रन्थों व तक ग्रन्थों में हमें को युगपत् जानते व देखते हैं।' सर्वत्र सर्वज्ञता का प्रतिपादन मिलता है। षट्खण्डागम भागम युग के बाद जब हम तार्किक युग में पाते हैं सूत्रों में कहा गया है१४ कि 'केवली भगवान् समस्त लोको, तो हम स्वामी समन्तभद्र, सिद्धसेन, प्रकलंक, हरिभद्र, समस्त जीवों और अन्य समस्त पदार्गे को सर्वदा एक पात्रस्वामी, वीरसेन, विद्यानन्द, प्रभ चन्द्र, हेमचन्द्र प्रभृति साथ जानते व देखते हैं१५ । प्राचारांग सूत्र में भी यही जैन ताकिकों को भी सर्वज्ञता का प्रबल समर्थन एवं उपकथन किया गया है१६ । महान् चिन्तक और लेखक कुन्द- पादन करने हए पाते हैं। इनमें अनेक लेखकों ने तो कन्द ने भी लिखा है१७ कि 'पावरणों के प्रभाव से सर्वज्ञता की स्थापना में महत्वपूर्ण स्वतन्त्र ग्रन्थ ही लिखे
हैं। उनमें समन्तभद्र (वि. स. दूसरी, तीसरी शती) १२ 'उपयोगो लक्षणम्'-तत्त्वार्थ सू०२-८ ।
की प्राप्तमीमांसा, जिसे 'सर्वज्ञ विशेष परीक्षा' कहा गया १३ 'गाणं सपरपयासयं'-कुन्दकुन्द' प्रवचन साः १
है,१६ प्रकलक देव की सिद्धिविनिश्चयगत 'सर्वज्ञसिद्धि' १४ 'न खलु ज्ञस्वभावस्य कश्चितगोचरोऽस्ति यन्न
विद्यानन्द की प्राप्तपरीक्षा', मनन्तीति की लघु व क्रमेत, तत्स्वभावान्तरप्रतिषेधात् ।'-अष्ट. श. अष्ट सा पृ०४७ ।
बृहत्सर्वज्ञ सिद्धियाँ, वादीसिह की स्यातादसिद्धिगत १५ सयं भयवं उप्पण्णणाणदरिसी..... सवलोए 'सर्वज्ञ सिद्धि' मादि कितनी ही रचनाएँ उल्लेखनीय हैं। सव्वजीवे सव्वभावे सव्वं समं जाणदि पस्सादि विह-दित्ति' यदि कहा जाय कि सर्वज्ञता पर जैन दार्शनिकों ने सब से -षट् ख० पयदि०सू० ७८।
अधिक चिन्तन और साहित्य सृजन करके भारतीय दर्शन १६ से भगवं परिहं जियो केवली सम्बन्न सव्वभाव- शास्त्र को समृद्ध बनाया है तो प्रत्युक्ति न होगी। दरिसी...."सव्वलोए सव्वजीवाणं सव्वं भावाइं जाणमाणे
सर्वज्ञता की स्थापना में समन्तभद्र ने जो युक्ति दी पासमाणे एवं च ण विहरद् ।' पाचारांग सू०२-३। है वह बड़े महत्व की है । वे कहते हैं कि सूक्ष्मादि प्रती१७'जं तक्कालियमिदरं जाणदि जगवं समंतदोसव्वं न्द्रिय पदार्थ भी किसी पुरुष विशेष के प्रत्यक्ष है, क्योंकि
प्रत्थं विचित्त विसमं तं गाणं खाइयं भणियं ॥ १८ पस्सदि जाणदि य तहा तिणि वि काले सपज्जए सव्वे, जो ण विजाणदि जुगवं प्रत्थे तेकालिगे तिडवणत्थे। त(मह वा लोगमसेसं पस्सदि भयवं विगदमोहो। जादु तस्स ण सक्कं सपज्जयं दव्वमेकं वा ।।
भ० प्रा० गा० २१४१। दव्यमणतप्पज्जयमेकमणंताणि दव्वजादाणि । १६ संभिणं पामंतो लोगमलोग च सव्वनो मन्वं । ण विजाणदिदि जुगवं कध सो दव्वाणि जाणादि ।। त त्थि जंन पासइ भूयं भवं भविस्सं च ॥ प्रवचन सा०१-४७,४८, ४६ ।
मावश्यक नि. गा.१२७ ।
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के अनुमेय है, जैसे अग्नि । उनकी वह युक्ति यह है : की पहली युक्ति यह है कि प्रात्मा में समस्त पदार्थों को
सूक्ष्मान्तरितदूरार्थाः प्रत्यक्षा: कस्यचिद्यथा। जानने की सामर्थ्य है। इस सामर्थ्य के होने से ही कोई अनुमेयत्वतोजन्यादिरिति सर्वज-मस्थितिः ।। पुरुप विशेष वेद के द्वारा भी सूक्ष्मादि ज्ञेयों को जानने में
समन्तभद्र एक दूसरी युक्ति के द्वाग सर्वज्ञता के समर्थ हो मकना है, अन्यथा नहीं। हां यह अवश्य है कि रोकने वाले प्रज्ञानादि दोपों और ज्ञानावग्णादि प्रावरणों संमागे-अवस्था में जानावरण से प्रावृत होने के कारण का किसी यात्म विशेष में प्रभाव सिद्ध करते हए कहने ज्ञान मब ज्ञेयों को नहीं जान पाता। जिस तरह हम है कि 'किसी पुरुष विशेष में ज्ञान के प्रतिबन्धकों का लोगों का ज्ञान सब ज्ञेयों को नहीं जानता, कुछ सीमितों पूर्णतया क्षय हो जाता है क्योंकि उनकी अन्यत्र न्यूना- को ही जान पाता है, पर जब ज्ञान के प्रतिबन्धक कर्मों धिकता देखी जाती है। जैसे स्वर्ग में बाह्य और अन्तरंग (ग्रावरणी) का पूर्ण क्षय हो जाता है तो उस विशिष्ट दोनो प्रकार के मेलों का प्रभाव दृष्टिगोचर होता है२०। इन्द्रियानपेक्ष और आत्म मात्र सापेक्ष ज्ञान को, जो स्वयं प्रतिबन्धकों के हट जाने पर ज्ञस्वभाव प्रात्मा के लिए अप्राप्यकारी भी है, समस्त ज्ञयों को जानने में क्या बाधा कोई ज्ञेय मज्ञेय नही रहता। जयों का अज्ञान या तो है२१? मात्मा में उन सब ज्ञेयों को जानने की मामयं न होने से उनकी दूसरी युक्ति यह है कि यदि पुरुषों को धर्माहोता है या ज्ञान के प्रतिबन्धकों के रहने से होता है। धर्मादि अतीन्द्रिय ज्ञेयों का ज्ञान न हो तो सूर्य, चन्द्र आदि चूकि प्रान्मा है और तप, संयमादि की पागधना द्वारा ज्योतिग्रहों की ग्रहण आदि भविष्यत् दशाग्रो और उनसे प्रतिबन्धकों का प्रभाव पूर्णतया सम्भव है, "मी स्थिति में होने वाला शुभाशुभ का अविसंवादी उपदेश कैमे हो उम वीतगग महायोगी को कोई कारण नहीं कि अगेष सकेगा? इन्द्रियों की अपेक्षा किये बिना ही उनका शेयो का ज्ञान न हो । अन्त में इस सर्वज्ञता को अहत् में अतीन्द्रियार्थ विषयक उपदेश सत्य और यथार्थ स्पष्ट देखा सम्भाव्य बतलाया गया है। उसका यह प्रतिपादन इस जाता है। प्रथवा जिस तरह सत्य स्वप्नदर्शन इन्द्रियादि प्रकार है :
की महायता के बिना ही भावी राज्यादि लाभ का यथार्थ दोपावरणयोहानिनिश्शेपास्यतिशायनात् ।
बोध कराता है उसी तरह सर्वज्ञ का ज्ञान भी अतीन्द्रिय क्वचिद्यथा स्वहेतुभ्यो बहिरन्तमलक्षयः ॥ पदार्थों में मंवादी और स्पष्ट होता है और उसमे इन्द्रियों म त्वमेवासि निर्दोपो युक्ति शास्त्राविरोधिवाक् । की आशिक भी महायता नही होती । इन्द्रियाँ तो वास्तव प्रतिरोधो यदिष्टं ते प्रसिद्धन न वाध्यते ॥ में कम जान को दी कराती है। वे अधिक प्रो
प्राप्तमी० का० ५, ६ । .. समन्तभद्र के उत्तरवर्ती मूक्ष्म चिन्तक प्रकल इदेव ने २१. कथञ्चित् स्वप्रदेशेषु स्यात्कर्म-पटलाच्छता। मर्वजता की मम्भावना में जो महत्वपूर्ण युक्तियाँ दी हैं।
संसारिणा तु जीवाना यत्र ते चक्षुगदयः ॥ उनका भी यहाँ उल्लेख कर देना प्रावश्यक है। अफलक
साक्षात्कतुं विरोधः, क: सर्वथा वरणात्यये ।
सत्यमर्थ तथा सर्व यथाऽभूदा भविष्यति ।। २०. यहाँ ध्यान देने योग्य है कि समन्तभद्र ने प्राप्त के
सर्वार्थग्रहणसामच्चितन्यप्रतिबन्धिनाम् । पावश्यक ही नही, अनिवार्य तीन गुणों एव विशेप- कर्मणा विगमे कस्मात् सर्वान्नर्थान् न पश्यति ।। ' तामों में सर्वज्ञता को प्राप्त की अनिवार्य विशेषता ग्रहादि गतयः सर्वाः सुख-दुःखादि हेतवः । बतलाया है-उसके बिना वे उसमें प्राप्तता प्रसम्भव
येन साक्षात्कृतास्तेन किन्न साक्षात्कृतं जगत् ।। बतलाते है :
ज्ञस्यावरणविच्छेदे ज्ञेयं किमवशिष्यते । प्राप्तेनोच्छिन्नदोषेण सर्वज्ञेनागमेशिना । अप्राप्यकारिणस्तस्मात्सर्वार्थावलोकनम् ॥ भवितव्यं नियोगेन नान्यथा ह्याप्तता भवेत् ॥ न्यायविनिश्चय का० ३६१, ३६२, ४१०, ४१४, -रत्नक० श्लोक ५।
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- जैन दर्शन में सर्वज्ञता की संभावनाएं
विषयक ज्ञान में उसी तरह बाधक हैं जिस तरह सुन्दर प्रभाव करना है उनका प्रत्यक्ष दर्शन भी मम्भव नहीं । प्रामाद में बनी हई खिड़कियां अधिक और पूर्ण प्रकाश को ऐसी स्थिति में सर्वज्ञता का प्रभाव प्रमाण भी बाधक नहीं रोकती हैं।
है। इस सरह जब कोई बंधक नहीं है तो कोई कारण अकलंक की तीसरी यक्ति यह है कि जिस प्रकार नहीं कि मर्वज्ञता का मद्भाव सिद्ध न हो२३ ।। परिमारण, अणु परिमाण से बढ़ता-बढ़ता प्राकाश में महा . निष्कर्ष यह है कि प्रात्मा 'ज्ञ'-जाता है और उसके परिमाण या विभुत्व का रूप ले लेना है, क्योंकि उसकी ज्ञान स्वभाव को ढंकने वाले प्रावरण दूर होते है। प्रतः तरतमता देखी जाती है, उसी तरह ज्ञान के प्रकर्ष में भी आवरणों के विच्छिन्न हो जाने पर ज्ञस्वभाव प्रात्मा तारतम्य देखा जाता है। अतः जहाँ वह ज्ञान सम्पूर्ण लिए फिर शेप जानने योग्य क्या रह जाता है? अर्थात अवस्था (निरतिशयपने) को प्राप्त हो जाय वहीं सर्वज्ञता कुछ भी नहीं। अप्राप्यकारी ज्ञान से सकलार्थ विषयक या जाती है। इम सर्वज्ञता का किसी व्यक्ति या समाज ज्ञान होना अवश्यम्भावी है। इन्द्रियां और मन मकलार्थ ने ठेका नहीं लिया। वह प्रत्येक योग्य साधक को प्राप्त परिज्ञान में साधक न होकर बाधक है। वे जहां महों है। हो सकती है।
और आवरणो का पूर्णत. प्रभाव है वहाँ कालिक और उनकी चौथी युक्ति यह है कि सर्वज्ञता का कोई त्रिलोकवर्ती यावज्जयों का साक्षात् ज्ञान होने में कोई बाधा बाधक नही है। प्रत्यक्ष प्रादि पांच प्रमाण तो इसलिए नहा हा बाधक नही हो सकते क्योंकि वे विधि (अस्तित्व) को प्रा० वीरसेन२४ और प्रा० विद्यानन्द२५ ने भी इसी विषय बनाते हैं। यदि वे सर्वज्ञता के विषय में दखल दे आशय का एक महत्वपूर्ण श्लोक प्रस्तुत करके उसके द्वारा नो उनमे उसका सदभाव ही सिद्ध होगा। मीमासको का ज्ञ स्वभाव अात्मा में सर्वज्ञता की सम्भावना की है। वह प्रभाव-प्रमाण भी उसका निषेध नहीं कर सकता। क्योंकि लोक यह है .प्रभाव-प्रमाण के लिए यह यावश्यक है२२ कि जिसका ज्ञो ज्ञये कथमज्ञः स्यादसति प्रतिबन्धने । प्रभाव करना है उसका स्मरण और जहां उसका प्रभाव
दाह्मग्निर्दाहको न स्यादसति प्रतिबन्धनं ।। करना है वहाँ उराका प्रत्यक्ष दर्शन आवश्यक ही नहीं,
जयधवला पृ०६६, अष्ट म० पृ० ५० । अनिवार्य है। जब हम भूतल में घड़े का प्रभाव करते है अग्नि में दाहकना हो और दाह्य-ईधन सामने हो तथा नो वहाँ पहले देखे गये घड़े का स्मरण और भूनल का बीच में रुकावट न हो तो अग्नि अपने दाह्म को क्यो नही दर्शन होता है, तभी हम यह कहते है कि यहाँ घड़ा नहीं जलावेगी? ठीक उसी तरह प्रान्मा ज्ञ (जाना) हां, और है। किन्तु तीनो (भूत, भविष्यत् और वर्तमान) कालों जय मामने हों तथा उनके बीच में कोई रुकावट न रहे तथा तीनो (उर्व मध्य और अघो) लोको के अतीत, तो ज्ञाता उन ज्ञया को क्यों नहीं जानेगा? यावरणों के अनागत और वर्तमानकालीन अनन्त पुरुपो में सर्वज्ञता, प्रभाव में स्वभाव प्रात्मा के लिए प्रामन्नता और दूरता 'नहीं थी, नहीं है और न होगी', इस प्रकार का ज्ञान ये दोनो भी निरर्थक हो जाती है। शेप पृ०६ पर उमी को हो सकता है जिसने उन तमाम पुरुपो का साक्षा- . -- त्कार किया है। यदि किमी ने किया है तो वह सर्वज्ञ हो २३. 'अम्ति गवंज्ञ. मुनिश्चितामभवद्बाधकप्रमाणत्वान, जायगा। साथ ही सर्वज्ञता का स्मरण सर्वजता के प्रत्यक्ष नुवादिवत् ।
नुयादिवत् ।' सिद्धिवि०व०८-६ तथा अप्ट० श. अनुभव के बिना सम्भव नही और जिन कानिक और
का०५। त्रिलोकवी अनन्त पुरुषों (पाधार) मे सर्वज्ञता का २४. विशप के लिए वारसन की जयधवला (पृ. ६४ में
६६)। २२. गृहीत्वा वस्तु मद्भावं स्मृन्वा च प्रतियोगिम् । . २५. विद्यानन्द के आग्नपरीक्षा, अष्टमहस्री प्रादि ग्रन्थ
मानम नास्तिताजानं जायतेऽक्षानपेक्षया ॥
देख ।
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शब्द-चिन्तन : शोध-दिशाएँ
मुनिश्री नथमल
[यहाँ प्राकृत भाषा के शब्दों का भाषा वैज्ञानिक, व्याकरण-सम्मत और इतिहास-पुराण के प्राचार परसा विश्लेषण प्रस्तुत किया गया है, वह मुनिश्री को विद्वत्ता और सूक्ष्म दृष्टि का परिचायक है। उससे विद्वान पाठक प्रत्याधिक लाभान्वित हो सकेंगे, ऐसा मैं समझ सका है। ये शोध के दुर्गम पथ है, जिन पर साधारमअनुसन्धिसुचलते हुए हिचकता है। मुनिश्री उन पर सहजगति से ही चले चलते हैं। -सम्पादक)
(१) रायवेटि
में गौतम-गोत्र के अन्तर्गत गर्ग गोत्र का उल्लेख हुआ है। रायवेट्ठि का मर्थ है-राजा की बेगार१। राजस्थान इसलिए शान्त्याचार्य वाला अर्थ ही संगत लगता है । सर में इसे 'बेठ' कहते है (विट्टि वेटूि-बेठ), यह देशी शब्द है। पेन्टियर ने यह अनुमान किया है कि-गर्ग शब्द देशीनाममाला में इसका पथ प्रषण' किया है। उपदेश अति प्राचीन है और वैदिक साहित्य में इसका प्रयोग हुआ रत्नाकर (५ ६११) में इसका अर्थ 'बेगार' किया है। है । इसके निकट के शब्द गार्गी और गार्य भी ब्राह्मणप्राचीन समय में यह परम्परा थी कि राजा या जमीदार युग से सुविदित है। सम्भव है कि उस समय मे गर्ग नाम गांव के प्रत्येक व्यक्ति से बिना पारिश्रमिक दिए ही काम वाला कोई ब्राह्मण मुनि रहा हो और जैनों ने उस कराते थे। बारी-बारी से सबका कार्य करना पड़ता था। नाम का अनुकरण कर अपने साहित्य में उसका प्रयोग इसी की भोर यह शब्द संकत करता है। जेकोबी 'विट्ठि' किया हो। उत्तराध्ययन में पाए हुए 'कपिल' मादि शब्द का अर्थ 'भाड़ा', "किराया करते हैं। किन्तु यहाँ यह उप- के विषय में भी ऐसा ही हुआ है। किन्तु ब्राह्मण लोग युक्त नहीं है।
जैन-शासन में प्रव्रजित होते थे, इसलिए ब्राह्मण-मुनि नाम (२) गग्ग:
का अनुकरण कर यह अध्ययन लिखा गया, इस अनुमान इसके दो सस्कृत रूप होते हैं-गर्ग और गार्म्य ।
, के लिए कोई पुष्ट आधार प्राप्त नहीं है । 'गर्ग' व्यक्तिवाची शब्द है और 'गाय' गोत्र-सम्बन्धी। (३) खलंक: शाम्त्याचार्य ने इसका सस्कृत रूप 'गाय' देकर इसका 'खलुक और खुलुंक' ये दोनों रूप प्रचलित हैं । नेमिअर्थ गगंसगोत्र:' किया है। नेमिचन्द्र ने इसे 'गर्ग' शब्द चन्द्र ने इसका अर्थ 'दुष्ट बैल' किया है३ । स्थानांग वृत्ति मानकर 'गर्ग नामा' ऐसा अर्थ किया है। स्थानांग सूत्र में भी खलुक का अर्थ प्रविनीत किया गया है। खलुक' का
१. बृहद् वृत्ति, पत्र ५५३ ।
"राजवेष्टिमिव' नृपतिहठप्रवर्तितकृत्य मिव । २. २१४३, पृष्ठ ६६ । ३. पाइयसद्दमहण्णव, पृष्ठ ९७१ । ४. दि सेकंड बुक्स मॉफ दि ईस्ट बोलूम ९५५.
उत्तराध्ययन पेज १५१, फुट नोट ३ । ५. (क) बृहद् वृत्ति, पत्र ५५० 'गार्ग्य' गर्गसगोत्रः।
(ख) सुखबोधा, पत्र ३१६ 'गर्ग:' गर्गनामा।
१. ७.५५१
"जे गोयमा ते सत्तविधा पं० नं० ते गोयमा, ते गग्गा, ते भारद्दा, ते मंगिरसा, ते सक्कराभा, ते भक्खराया, ते उदत्ताभा।"
उत्तगध्ययन, पृ० ३७५। ३. सुखबोध, पत्र ३१६-'खलुङ्कान' गलिबृषभान् । ४. स्थानांग बृत्ति ४१३।३२७, पत्र २४०-खलुको
गलिरविनीतः।
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शब्द चिन्तन शोध-विधाएँ
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अर्थ घोडा भी होता है१ |
सरपेन्टियर ने लिखा है कि सम्भव है यह शब्द 'खल' से सम्बन्धित रहा 'हो । परन्तु इसकी प्रामाणिक व्युत्पत्ति अज्ञात ही है। अनुमानतः यह शब्द 'सलोक्ष' का निकटवर्ती रहा है। जैसे खल-विहग का दुष्ट पक्षी के -- अर्थ में प्रयोग होता है, वैसे ही सल-उक्ष का दुष्ट बैल के अर्थ में प्रयोग हुआ हो ।
'लुक' शब्द के अनेक अर्थ निर्मुक्ति की (४८१- शिष्यों को समुक कहा गया है३।
४६४) गाथाओं में मिलते हैं
जो बैन अपने जुए को तोड़ कर उत्पथगामी हो जाते हैं उन्हें खलुंक कहा जाता है—यह गाथा ४८६ का भावार्थ है।
उपसंहार
अन्त में यह कहते हुए अपना निबन्ध समाप्त करते है कि जैन दर्शन में प्रत्येक ग्रात्मा में प्रावरणों और दोषो के प्रभाव मे सर्वज्ञता का होना अनिवार्य माना गया है। वेदान्त दर्शन मे मान्य आत्मा की सर्वजता से जैन दर्शन की सर्वज्ञता में यह पर है कि जैन दर्शन में सर्वज्ञता को प्रवृत करने वाले आवरण और दोष मिथ्या नहीं है, जबकि वेदान्त दर्शन में अविद्या को मिथ्या कहा गया है। इसके अलावा जैन दर्शन की सर्वज्ञता जहाँ सादि अनन्त है और प्रत्येक मुक्त आत्मा मे वह पृथक्-पृथक् विद्यमान रहती है अतएव प्रनन्त सर्वज्ञ है, वहाँ वेदान्त में मुक्तआत्माएं अपने पृथक् अस्तित्व को न रख कर एक बाइ तीय मनातन ब्रह्म में विलीन हो जाते है और उनकी सर्वज्ञता अन्तःकरण सम्बन्ध तक रहती है, बाद को वह नष्ट हो जाती है या ब्रह्म में ही उसका समावेश हो जाता है।
नमाया नहीं जा सकता आदि किया गया है ।
४६१वीं गाथा में हाथी के अंकुश, करमंदी, गुल्म की लकड़ी और लालवृत के टंके आदि को खलुका कहा गया है। ४१२वी गाथा में दस, मशक, जौक आदि को मनुंका कहा गया है और अन्त में
1
४६०वी गाथा में खलुक का अर्थ वत्र, कुटिल, जो वाली लकड़ी या वृक्ष होता है ।
श्री सम्पूर्णानन्द जी ने अपने उद्घाटन भाषण मे जैनों की सर्वज्ञता का उल्लेख करते हुए उसे श्रात्मा का स्वभाव न होने की बात कही है। उसके सम्बन्ध में इतना ही निवेदन कर देना पर्याप्त होगा कि जैन मान्यतानुसार
४६३-४९४ में गुरु के प्रत्यनीक, शयल, प्रसमाधिकर, पिशुन, दूसरों को संतप्त करने वाले, प्रविश्वस्त श्रादि
[७] पृ० का प]
१. प्रभिधानप्पदीपिका ३७०-पोटको (तु) व (५) । २. उत्तराध्ययन, पृ० ३७२ ।
उपरोक्त विवरण से यह स्पष्ट हो जाता है कि दुष्ट, वक्र आदि के अर्थ में 'खलुंक' शब्द का प्रयोग होता है । जब यह मनुष्य या पशु के विशेषण के रूप में प्रयुक्त होता है तब इसका अर्थ-पत्र, लता या वृक्ष, ठंड गाठो
1
सर्वज्ञता धात्मा का स्वभाव है और वह अर्हत (जीवन्मुक्त) अवस्था में पूर्णतया प्रकट हो जाती है तथा वह विदेह मुक्तावस्था में भी अनन्त काल तक विद्यमान रहती है । 'सत् का विनाग नही और चमत् का उत्पादन नहीं इस सिद्धान्त के अनुसार श्रात्मा का कभी भी नाश न होने के कारण उसकी स्वभावभूत सर्वज्ञता का भी विनाश नहीं होता अतएव महंतु अवस्था में प्राप्त धनन्त चतुष्टय ( अनन्त दर्शन, अनन्त ज्ञान, अनन्त सुख और अनन्त वीर्य ) के अन्तर्गत अनन्त ज्ञान द्वारा इस सर्वज्ञता को जैन दर्शन मे शाश्वताति की अपेक्षा अनादि अनन्त थोर व्यक्ति की अपेक्षा सादि प्रनन्त स्वीकार किया गया है ।
अन्त में दर्शन परिषद् में सम्मिलित हुए सभी मदस्यो का विशेष कर उसके आयोजकों का मैं हृदय से आभारी है कि उन्होंने मुझे जैनों के अनुसार सर्वज्ञता की सभावनाएं' विषय पर जैन दृष्टि मे विचार प्रस्तुत करने का अवसर तथा समय दिया । एक बार मैं पुनः सब का धन्यवाद करता हूँ ।
हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी ।
३. बृहद् वृति पत्र ५४८-५५०
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श्रावकप्रज्ञप्ति का रचयिता कौन ?
श्री पं० बालचन्द सिद्धान्त शास्त्री
श्रावकप्रज्ञप्ति यह एक श्रावकाचार विषयक सुप्रसिद्ध ग्रन्थ है जो प्राकृत में रथा गया है। उसमें समस्त गाथाएँ ४०१ है। यह बम्बई के ज्ञान प्रसारक मण्डल द्वारा वि० सं० १९६१ में श्री प्राचार्य हरिभद्र विरचित संस्कृत टीका के साथ प्रकाशित हो चुका है। इस संस्करण में जो शीर्षक रूप से 'उमास्वातिवाचक कृत श्रावक प्रज्ञप्त्याख्य प्रकरण' ऐसा निर्देश किया गया है। वह सम्भवत किसी हस्तलिखित प्रति के प्राधार से ही किया गया प्रतीत होता है। इस संस्करण के प्रमुख मे ग्रन्थ के कर्तुत्व के विषय में आशंका प्रगट करते हुए उसके प्राचार्य हरिभद्र और उमास्वाति वाचक विरचित होने में पृथक्-पृथक् २-४ कारण भी प्रस्तुत किये गये है ।
यहाँ हम उक्त ग्रन्थ के कर्ता के विषय में कुः विचार करना चाहते हैं। उपर्युक्त संस्करण में जो उसे उमा स्वाति वाचक विरचित निविष्ट किया गया है वह कुछ भ्रान्तिपूर्ण दीखता है। यथा
श्री प्राचार्य प्रवर उमास्वातिवाचक विरचित तत्त्वाafare सूत्र कुछ पाठ भेद के साथ दिगम्बर और श्वे ताम्बर दोनों ही सम्प्रदायों मे सम्मान्य देखा जाता है। उसके ७ वें अध्याय में प्रास्रव तत्व की प्ररूपणा करते हुए श्रावकाचार का विशद विवेचन किया गया है१ । उसके साथ जब हम तुलनात्मक स्वरूप से प्रकृत श्रावकप्रज्ञप्ति
१. पञ्चाशक टीका में जो नवांगीवृत्तिकार श्री श्रमयदेव सूरि ने उसे वाचक तिलक उमास्वाति विरचित निर्दिष्ट किया है सम्भव है उनका उससे अभिप्राय तत्त्वार्थाधिगम सूत्र के अन्तर्गत इस श्रावकाचार प्ररूपण का ही रहा हो । अन्यथा, वे ही अभयदेव सूरि प्राचार्य हरिभद्रविरचित पञ्चाशक की इसी टीका में धन्यत्र पूज्यैरेवोक्तम्' जैसे वाक्य के द्वारा उसे हरिभद्रविरचित कैसे सूचित कर सकते थे ?
के विषय-विवेचन का विचार करते हैं तो दोनों में हमें कितने ही मतभेद दृष्टिगोचर होते हैं, जिनसे इन दोनों ग्रन्थों के एक कलंक होने में बाधा उपस्थित होती है। वे कुछ मतभेद इस प्रकार है
१ तत्त्वार्थागम सूत्र में गुणव्रत और शिक्षाव्रत का विभाग न करके जिन सात शीलव्रतो का उल्लेख किया गया है १ । उनका वह विभाग प्रवृत श्रादक प्रज्ञप्ति में रुष्टरूप से देया जाता है। तस्वार्थाभिगम सूत्र के ऊपर जो स्वोपज्ञ भाय्य उपलब्ध है उसमें भी वह विभाग नहीं देखा जाता है, प्रत्युत इसके वहीं इन व्रतों को उत्तर व्रत कहा गया है। इस प्रकार के उल्लेख से यदि भाष्यकार को उक्त मात व्रत के पूर्ववर्ती पाँच अणुव्रत मूलव्रतो के रूप में अभीष्ट रहे हो तो यह प्राध्ययजनक नहीं होगा४। इसके अतिरिक्त जिस क्रम में उन व्रतों का निर्देश सत्या दधिगम सूत्र में किया गया है उससे उनका वह अम
दिग्देशानर्षदण्डविरतिसामायिकपौषथोपवासोपभोग परिभोगातिथिसविभाग प्रतपन्नश्च ० सूत्र १६, व्रत- शीलेषु पञ्च- पञ्च यथाक्रमम् ॥ ० सू० १९ ।
२.
पंचैव अणुब्वयाई गुणव्वयाई च हुति तिन्नेव । सिक्खावयाइ चउरो सावगधम्मो दुवालसहा || इत्थ उ समणोवा मगधम्मे श्रणुव्वयगुणव्वयाइ च । भावकहियाइ सिक्वावयाइ पुरण इत्तराइ ति ॥
श्रा० प्र० ६ व ३२८ ।
३.
एभिश्च दिव्रतादिभिरुत्तरव्रतैः संपन्नोऽगारी वनी भवति । त० भाष्य ७ १६ ।
४.
स्वामी समन्तभद्र ने मद्य, मांस और मधु के त्याग के साथ उन पांच मणुव्रतों को मूल गुण ही स्वीकार किया है । र० क० ६६ ।
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बावकमाप्ति का रचयिता कौन?
श्रावकप्रज्ञप्ति में भिन्न ही देखा जाता है।
५. उपभोग परिभोग व्रत के प्रतिचार भी दोनों २. तत्त्वार्थाधिगम सूत्र में सत्याणवत के अतिचारों ग्रंथों में कुछ भिन्न स्वरूप से पाये जाते हैं। यथामे न्यासापहार भौर साकार मन्त्र भेद का ग्रहण किया गया सचित्ताहार, सचित्तसंबद्धाहार, सचित्तसंमिश्राहार, है, परन्तु श्रावकप्रज्ञप्ति में इन दो अतिचागे के स्थान में अभिपवाहार और दुष्पक्वाहार। (त० सू०७, ३०)। सहसा अभ्याख्यान और स्वदारमन्त्रभेद नाम के दो अन्य सचित्ताहार, मचित्तप्रतिबद्धाहार, अपक्वाहार, दुष्पही अतिचार ग्रहण किये गये है।
क्वाहार और तुच्छौषधिभक्षण । (था० प्र० २८६)। ३. तत्त्वार्थाधिगम सूत्र में अनर्थदण्ड व्रत के प्रति
६. तत्त्वार्थाधिगम सूत्र (७, ३२) में संलेखना के चारों में असमीक्ष्याधिकरण को ग्रहण किया गया है, परन्तु
अतिचार जीविताशमा, मरणासंसा, मित्रानुराग, सुखानुश्रावक प्रज्ञप्ति मे उसके स्थान में मंयुक्ताधिकरण नाम के
बन्ध और निदान; ये पांच कह गये है। परन्तु श्रावकअतिचार को ग्रहण किया गया है ।
प्रज्ञप्ति में (३८५) वे इस प्रकार पाये जाते है-इह
लोकाशंसाप्रयोग, परलोकाशंसाप्रयोग, जीविताशंसाप्रयोग, ४. तत्त्वार्थाधिगमसूत्र में (७,२६) में पोषधोपवास
मरणाशसाप्रयोग और भोगाशंसाप्रयोग । व्रत के अतिचार इस प्रकार निर्दिष्ट किये गये है-अप्रत्यवेक्षित-अप्रमाजित उत्सर्ग, अप्रत्यवेक्षित-अप्रमार्जित आदान
७. तत्त्वार्थाधिगम सूत्र (७, १८) के भाष्य में निक्षेप, अप्रत्यवेक्षित-अप्रमाजित सस्तारोपक्रमण, अनादर
कांक्षा अतिचार का स्वरूप इस प्रकार कहा गया है-'ऐह
लौकिक-पार लौकिकेषु विषयेष्वाशसा कांक्षा' । और स्मृत्यनुपस्थान।
परन्तु उसी का स्वरूप श्रावक प्रज्ञप्ति (गा०८७) में परन्तु श्रावकप्रज्ञप्ति में वे अतिचार कुछ भिन्न रूप भिन्न रूप से इस प्रकार कहा गया है-कंवा अन्नन्नदसणसे पाये जाते हैं-प्रप्रतिलेखित दुप्रतिलखित शय्या- ग्गाहो। टीका---'काक्षान्योन्यदर्शनग्राहः सुगतादिप्रणीतेषु मस्तारक, अप्रमाजित-दु प्रमाजित शय्या-सस्तारक, अप्रति- दर्शनेष ग्राहोऽभिलाप इति ।' लेखित-दुःप्रतिलेखित उच्चारादिभूमि, अप्रमाजित दुःप्रमा- ८. श्रावकप्रज्ञप्ति मे (३२१) पौषध के जो जित उच्चारादिभूमि और पौपधविषयक सम्यक् अननु- पाहारपौपध, शरीरसत्कारपोपध, ब्रह्मचर्यपौषध पौर पालन। (श्रा. प्र. ३२३-२४) ।
अव्यापारपौषध ये चार भेद निर्दिष्ट किये गये है उनका
उल्लेख तत्त्वार्थाधिगम सूत्र (७, १६) के भाष्य में किया १. देखिये था० प्र० गाथा २८०, २८४, २८६. २९२. जा सकता था, परन्तु वह वहाँ दृष्टिगोचर नही होता। ३१८, ३२१, और ३२५-२६ ।
१. श्रावक प्रज्ञप्ति में १२ व्रतों की प्ररूपणा कर चुकने २. मिथ्योपदेश-रहस्याभ्याख्यान-कूटलेखक्रियान्यासापहार
के पश्चात् धावक को कैसे स्थान में रहना चाहिए साकारमन्त्रभेदाः त. सू. ७-२१.
(३३६) व वहाँ रहते हुए किस प्रकार का आचरण सहसा अब्भक्खाणं रहमा य सदारमतभेयं च ।
करना चाहिए (३४३) इत्यादि सामाचारीका मोसोवएसय कूडलेहकरणं च वज्जिज्जा ।। (३७५) कथन करते हुए गाथा ३७६ मे विशेष कर
श्रा०प्र० ३६३। णीय रूप से जिन प्रतिमादिकों का भी सकेत किया ३. त० सू०७-२७ । असमीक्ष्याधिकरणं लोक प्रतीतम ।
है उनका निर्देश तत्त्वार्थाधिगम सूत्र और उसके (भाष्य)।
भाष्य में कहीं नहीं पाया जाता है। परन्तु उपासकश्रा० प्र० २६१. संयुक्ताधिकरणम्-अधिक्रियते दशांग (पृ. २६-२६), समवायांग (११, पृ० १५) नरकादिष्वनेनेत्यधिकरणं वस्युदूग्वल शिलार पुत्रक अावश्यक मूत्र उ० (पृ० ११७-२०) चारित्र प्राभूत गोधूमयन्त्रकादिषु संयुक्तमर्थक्रियाकरणयोग्यम्, सयुक्त (२१) और रत्नकरण्ड श्रावकाचार (१३६-४७) च तदधिकरणं चेति समासः । (टीका)
आदि मे उनका उल्लेख देखा जाता है।
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अनेकान्तं
इन मतभेदों से यह निश्चित प्रतीत होता है कि उपर्युक्त श्रावकप्रज्ञप्ति के रचयिता धाचार्य उमास्वाति वाचक नहीं हो सकते, क्योंकि, किसी एक ही प्रत्यकार के द्वारा रथे गये विविध ग्रंथों में परस्पर उक्त प्रकार के मतभेदों की सम्भावना नहीं होती ।
तब फिर उस श्रावकप्रज्ञप्ति का रचयिता कौन है ? यह एक प्रश्न है जिनके समाधान स्वरूप यहाँ कुछ विचार किया जाता है— उक्त श्रावकप्रज्ञप्ति की दो हस्तलिखित प्रतियां हमारे पास रही है। उनमें एक प्रति भाण्डारकर ओरियण्टल रिसर्च इंस्टीट्यूट पूना की थी जो भवत् १५६३ में लिखी गई है। उसक आदि व अन्त में कहीं भी मूल ग्रन्थकार के नाम का निर्देश नही किया गया है । ग्रन्थ का प्रारम्भ वहाँ ||६० ॥ श्रीगुरुभ्यो नमः ॥ इस वाक्य के अनन्तर हुआ है और अन्तिम पुष्यिका उसकी इस प्रकार है । इति विप्रदा नाम धावक प्रज्ञप्ति टीका ॥ समाप्ता ॥ कृतिः सितपटाचार्य जिनभद्रपादसेव कस्याचार्य हरिभद्रस्य ।। ३।। सवत् १५२३ व निखित मिदं पुन (?) वाच्यभानं मुनिवरंश्चिरं जीयात् ॥६॥ श्रीस्तात् || धी||
दूसरी प्रति ना० द० भारतीय संस्कृति विद्यामन्दिर अहमदाबाद की रही है। इस प्रति के भी प्रारम्भ में मूल ग्रन्थकार का नाम-निर्देश नहीं किया गया है। वहां ॥६०॥ नमः सिद्धेभ्यः ।। इस वाक्य को लिख कर ग्रन्थ का प्रारम्भ हुआ है । उसका अन्तिम पत्र नष्ट हो गया है जो सम्भवतः पीछे मुद्रित प्रति के आधार से भिन्न कागज पर नीली स्पाही में लिखाकर उसमें जोड़ दिया गया है। इससे उसके लेखनकाल आदि का परिज्ञान होना सम्भव नहीं रहा ।
इनमें पूर्व प्रति से यह निश्चित ज्ञात हो जाता है कि इस श्रावक प्रज्ञप्ति के ऊपर प्राचार्य हरिभद्र के द्वारा दिप्रदा नाम की टीका लिखी गई है। ये हरिभद्रसूरि वे ही हैं जिन्होंने 'समराइच्चकहा' नामक प्रसिद्ध पौराणिक कथाग्रन्थ की रचना की है। इसमें उन्होंने उज्जैन के राजा समरादित्य के नौ पूर्वभवो के चरित्र का चित्रण अतिशय काव्य कुशलता के साथ ललित भाषा में किया है यह कथा बड़ी ही रोचक है।
उक्त समर इच्चकहा के अन्तर्गत प्रथम भव प्रकरण में कहा गया है कि एक दिन सितिप्रविष्टनगर में विजयमेन नाम के धाचार्य का शुभागमन हुआ। इस शुभ समाचार को सुन कर गुणसेन राजा (ममरादित्व राजा के पूर्व प्रथम भव का जीव) उनकी वंदना के लिए गया। वंदना के पश्चान् उसने विजयमेनाचार्य की रूपसम्पदा को देखकर उनसे अपने विरक्त होने का कारण पूछा । तदनुसार उन्होंने अपने विरक्त होने की कथा कह दी। इस कथा का प्रभाव राजा गुणमेन के हृदय-पट पर अंकित हुप्रा । तब उसने उनसे शाश्वत स्थान व उसके साधक उपाय के सम्बन्ध में प्रश्न किया। उसके उत्तर मे आचार्य ने परमपद (मोक्ष) को शाश्वत स्थान बतला कर उसका साधक उपाय सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र स्वरूप धर्म को बतलाया ।
।
इस धर्म को उन्होंने गृहिधर्म और साधुधर्म के भेद से दो प्रकार का बतला कर उसकी मूल वस्तु सम्यक्त्व को निर्दिष्ट किया थ ही उन्होंने यह भी कहा कि वह सम्यक्त्व अनादि कर्म सन्तान से वे पेटत प्राणी के लिए दुर्लभ होता है । प्रागवश वहां ज्ञानावरणादि आठ कर्मों और उनकी उत्कृष्ट व जघन्य स्थिति का भी वर्णन किया गया है । उक्त कर्म स्थिति के क्रमशः क्षीण होने पर जब वह एक कोटाकोड मात्र शेष रह कर उसमे भी स्तोक मात्र - पत्योपम के प्रख्यातवे भाग मात्र - क्षीण हो जाती है तब कहीं प्राणी को उस सम्यक्त्व की प्राप्ति हुआ करती है। इस प्रसग में ममराइच्चकहा मे जो गाथाएँ (७२-०८ ) उद्धृत की गई हैं वे पूर्व निर्दिष्ट श्रावक - प्रज्ञप्ति में उमी क्रम से ५३-६० गाथा सख्या से अंकित पायी जाती है।
तत्पश्चात् वहाँ विजयमेनाचार्य के मुख से यह कहलाया गया है कि पूर्वोक्त उस ममं स्थिति में से जब पस्योरम के प्रख्यातवें भाग मात्र स्थिति और भी क्षोण हो जाती है तब उस सम्यग्दृष्टि जीव को देशविरति को प्राप्ति होती है। इतना निर्देन करने के पश्चात् वहां प्रतिचारों के नामोन्नेव के साथ पनि व्रत, तीन गुणव्रतों और चार शिक्षावनों का वर्णन किया गया है। तत्पश्चात् वहाँ यह कहा गया है कि इस अनुरूप कल्प से
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बांधकप्रति का रचयिता कौन?
विहार करके परिणाम विशेष के माश्रय से जब पूर्वोक्त
एयस्म मूलवत्थू मम्मत्तं तं च गंटिभेयम्मि। कर्मस्थिति में से उसी जन्म में प्रथवा अनेक जन्मों में भी खयउवसमाइ तिविहं सुहायपरिणामरूवं तु ॥ भी संख्यात सागरोपम मात्र स्थिति और भी क्षीण समराइच्चकहा में भी ठीक उसी प्रकार से 'एयस्स हो जाती है। तब जीव सर्वविरतिरूप यति धर्म को- पुरण दुविहस्स वि धम्मस्स मूलवत्यु सम्मत्तं' इस वाक्य के क्षमा मार्दवादिरूप दस प्रकार के धर्म को-प्राप्त करता द्वारा उम मम्यक्त्व को धावक धर्म की मूल वस्तु निर्दिष्ट है । इस प्रसंग में जो वहाँ दो गाथाएँ (८०-८१) उद्धृत किया गया है। की गई हैं वे श्रावक प्रज्ञप्ति में ३६०-६१ गाथा संख्या ३ जीव और कर्म का प्रनादि सम्बन्ध होने पर में उपलब्ध होती हैं।
चंकि कर्म के क्षयोपशमादि स्वरूप उस सम्यक्त्व की अब यहाँ विशेष ध्यान देने योग्य यह है कि प्रकृत संगति बनती है, अतएव जिस प्रकार श्रावक प्रज्ञप्ति में श्रावक प्रज्ञप्ति में जिस क्रम से और जिस रूप से श्रावक २३ (८ से ३०) गाथानों के द्वारा उन ज्ञानावग्णादि धर्म की विस्तार से प्ररूपणा की गई है ठीक उसी क्रम से कर्मों की प्ररूपणा की गई है उसी प्रकार समगइच्चकहा और उसी रूप में उसका विवेचन समराइच्चकहा में गुण- में भी पागे संक्षप में उन कमा का प्ररूपणा का गह है।
यथासेन राजा के उस प्रश्न के उत्तर में प्राचार्य विजयमन के
जं जीव-कम्मजोए जुज्जइ एयं प्रभो तयं पुव्वं । श्रीमुख से सक्षेप में कराया गया है। समराइच्चकहा का
बोच्छं तो कमेणं पच्छा तिविहं पि सम्मत्त ॥ प्रमुख विपय न होने से वहाँ जो उस थावक धर्म की
वेयणियस्स य बारस णामग्गोयाण मट्ट उ मुहत्तं । सक्षेप में प्राणा की गई वह प्रसंगोचित होने से मप्रथा
सेसाण जहन्नठिई भिन्न मुहुतं विरिणद्दिट्टा ॥ योग्य है। फिर भी वहाँ जिस पद्धति से उसकी प्ररूपणा
श्रा०प्र० गाथा ८ व ३० । की गई है वह श्रावक प्रज्ञप्ति की विपय वेचन पद्धति मे
तं पुणो अणाइकम्मसंताणवेढियरस जंतुणो दुल्लह सर्वथा ममान है-दोनों में कुछ भी भेद नही पाया
हवड ति । त च कम्म अट्टहा । तं जहा-पाणावरणिज्ज जाता है। इस समानता को स्पष्ट करने के लिए यहाँ
दरिसणावणिज्ज................। सेसाणं भिण्णमुहत्तं कुछ उदाहरण दिये जाने हैं
ति । (ममगडच्चकहा) १. श्रावक प्रज्ञप्ति की गाथा ६ 'पचेव अणुव्वयाई'
४ प्रागे धावकज्ञप्ति में २ गाथाओ के द्वारा आदि में जिस प्रकार श्रावक धर्म को पांच अणव्रत. नीन
घण-घोलन के निमित्त में उस उत्कृष्ट कर्मस्थिति के गणव्रत और चार शिक्षाबनो के भेद से बारह प्रकार का किसी प्रकार से क्षीण होने पर अभिन्न पूर्व ग्रन्थि के होन निदिष्ट किया गया है उसी प्रकार समगइच्चकहा में भी
का निर्देश किया गया है। यथाउमे बारह प्रकार का इस प्रकार से निर्दिष्ट किया गया
एव टियस्स जया घसणघोलणणिमित्तो कहवि ।
खविया कोडाकोडी सब्बा इक्क पमुतूणं ॥३१॥ तत्थ गिहिधम्मो दुवालसविहो । त जहा पच अणुटव.
तीइविय थोवमित्त वविए इत्थतम्मि जीवस्स । याई तिण्णि गुणव्वयाइ चत्तारि सिक्खावयाइ ति ।
हवड ह अभिन्नपुवो गंठी एवं जिणा विति ॥३२॥ २. प्रागे श्रावक प्रज्ञप्ति की गाथा ७ में श्रावक धर्म
ठीक इसी प्रकार से ममगइच्चकहा में भी प्रकृन की मूल वस्तु मम्यक्त्व को बतलाया है । यथा
प्ररूपणा इस प्रकार की गई है१. हम ममगइच्चकहा का छात्रोपयोगी जो प्रथम दो एव ठियस्म य इमस्म कम्मस्म प्रहपवत्त करणण जया
भवात्मक मस्करण प्राप्त हुआ है उसमें पृ०४३-४४ घसरणपोलणाए कहवि एग मागरांवम कोडाकोडि मोत्तूण मे उम धावक धर्म की प्ररूपणा पाई जाती है पुस्तक सेमापोखवियानो हनि तीमे वियण थावमित्ते खनिए के प्रारम्भ के कुछ पृष्ठो के फट जाने से उसके प्रकाशन तया घणराय-दोसपरिणाम... ..........कम्मगठि स्थान मादि का परिज्ञान नहीं हो सका।
हवइ । (स० कहा)
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श्रीपुर, निर्वाण भक्ति और कुन्दकुन्द
डा० विद्याधर जोहरापुरकर, जावरा अनेकान्त के पिछले (फरवरी ६५) के अंक में श्रीपुर मत है । जिनप्रभ सूरि के शब्दों में (विविधतीर्थकल्प पृ० के अन्तरिक्ष पाश्नाथ के विषय में श्रीमान् नेमचंद जी १०३)-रना पडिमा अदटूण अधिईए गते तत्थेव सिरि न्यायतीर्थ का एक लेख प्रकाशित हमा है। इसमें जो बाते पुरं नाम नयरं निप्रनामोवलक्खिन निवेसिनं। अतः इस इतिहास की दृष्टि से एकदम विरुद्ध हैं उन्हें स्पष्ट करने श्रीपुर का अस्तित्व गजा एल अपरनाम श्रीपाल से पहले के लिए यह लेख लिखा जा रहा है।
का बतलाना पुराने मभी कथा लेखकों के विरुद्ध है । फिर (१) श्रीपुर में खरदूषण के समय में ही श्रीश्वनाथ
प्रश्न होता है कि क्या ये कथालेखक गलती कर रहे थे। की स्थापना हुई थी तथा एल राजा के कुछ पहले उस
यदि नहीं तो श्रीमान नेमचन्द जी ने श्रीपुर के जो पुगने मन्दिर का विध्वंस हुना होगा यह श्रीमान् नेमचन्द जी
उल्लेख बतलाये हैं उनका क्या स्पष्टीकरण है ? इस प्रश्न की कल्पना श्रीपुर के सम्बन्ध में पुराने लेखकों की जो भी
के उत्तर के लिए हमने इन उल्लेखों की छानबीन की तो कथाएं मिलती है उन सब के विरुद्ध हैं । इन सब कयानों
पता चला कि इनमें से कुछ उल्लेख इम (विदर्भ स्थित) में यह कहा गया है कि खरदूषण ने (या माली सुमाली
श्रीपुर के न होकर कर्णाटक के धारवाड जिले में स्थित के सेवक ने) स्वय प्रतिमा का अविनय न हो इसलिए
श्रीपुर (वर्तमान नाम शिरूर, सिरियर) के हैं। उसे कूप में (या सगेवर में) डाल दिया था। तथा एल (२) श्रीमान नेमचन्द जी ने जैन शिलालेखमंग्रह राजा ने कप से ही वह प्रतिमा पाई। खरदूषण के समय भा०२ पृ० ८५ के एक लेख में राजा जयमिह चालुक्य से एलराज के समय तक यदि प्रतिमा कूप में ही रही तो द्वारा इस क्षेत्र को सन् ४८८ में कुछ भूमि दान देने की उसकी स्थापना एलराज से पहले किस प्रकार हो सकती बात लिखी है। मूल लेख तथा उमका मागंश देखने पर थी? यह कप या पोखर जिम में यह प्रतिमा थी एक पता चला कि यहाँ श्रीपुर का सम्बन्ध नीं के बगबर वन में था तथा राजा एल वहाँ क्रीडा करने गया था और है। यह दान कुहुण्डी प्रदेश के अलक क नगर में बने हए प्रतिमा मिलने पर राजा ने वहाँ अपने नाम से श्रीपुर जिनमन्दिर के लिए था। यहाँ श्रीपुर का सम्बन्ध इतना नगर बसाया। इस विषय में भी पुराने कथाकारों में एक- ही है कि दान दी हुई भूमि श्रीपुर के मार्ग पर पड़ती थी।
५. श्रावक प्रज्ञप्ति मे ३२वी गाथा की टीका में दोनो ग्रन्थो में समान रूप से की गई है-उसमें कहीं कुछ प्रसंग पाकर जो "गंठित्ति सुदुन्भेमो?" मादि गाथा उद्- भी मतभेद नही है। धृत की गई है वह समराइच्चकहा मे भी इसी प्रसग मे इस प्रकार दोनों ग्रन्थों की एकरूपता को देखते हुए उद्धृत की गई है।
यह निश्चित प्रतीत होता है कि प्राचार्य हरिभद्र ने ही इसके अतिरिक्त जैसा कि ऊपर निर्देश किया जा स्वोपज्ञ टीका के साथ उसके मूल भाग की भी रचना चुका है। बीसों गाथाये दोनों ग्रन्थों में यथास्थान समान की है। रूप में उपलब्ध होती हैं२ । व्रतातिचारो की प्ररूपणा भी
उससे कुछ भिन्न रूप में पाई जाती है, परन्तु उक्त १. विशेषावश्यक भाष्य ११९५।
दोनों ग्रन्थों में सर्वथा समान होकर उपासक दशांग २. यह व्रताति चारों की प्ररूपणा तत्त्वार्थाधिगम सूत्र में (अध्ययन १) का अनुसरण करती है।
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मीपुर, निर्वाणभक्ति और कुन्दकुन्द
वह श्रीपुर क्षेत्र को दी गई थी ऐसा लेख में कहीं नहीं के है और पाठवीं सदी की लिपि पढ़ने के लिए विशेषज्ञ कहा है। दूसरी बात यह है कि यह श्रीपुर चालुक्य राज्य विद्वान की जरूरत होती है । उक्त धातुमूर्तियों के लेख में था और उस समय चालुक्यो का राज्य सिर्फ उत्तर पाठवीं सदी के हैं या नहीं यह तो उनकी लिपि से ही कर्णाटक में था। विदर्भ में तो उस समय वाकाटक वंश के जाना जा सकता है। प्रतः सिर्फ विमलचन्द्र नाम देखकर राजामों का पासन था। जिनकी एक गजधानी वाशिम इन मूर्तियों का सम्बध उपयक्त लेख से नहीं जोडना में ही थी। वाकाटक राजामों के प्रदेश की कोई भूमि चाहिए। जैन प्राचार्यों में बहधा एक-एक नाम के कई चालुक्य राजा किस प्रकार दान कर सकते थे ? अतः प्राचार्य हुए हैं यह ध्यान में रखना होगा। उक्त लेख मे जिस श्रीपुर का थोड़ा सा सम्बन्ध है वह भी TO) ऊपर कर्णाटक के जिम श्रीपुर की चर्चा की है कर्णाटक के धारवाड़ जिले का श्रीपुर है, विदर्भ क उसकी जानकारी हमें स्व. प. प्रेमीजी के एक लेख में अकोला जिले का नहीं।
मिली [जैन साहित्य और इतिहास पृ० ४६४] १३ उनका (३) यही बात जैन शिलालेखसंग्रह भा० २ पृ० कहना है कि विद्यानन्द का श्रीपुरपाश्वनाथ स्तोत्र भी १०६ के उल्लेख के सम्बन्ध मे भी है। इसमे कहा है कि इसी कर्णाटक के श्रीपुर का है। यही हमारा भी मत है: पृथिवीनिर्गन्दराज की पत्नी कुन्दाच्चि ने श्रीपुर के उत्तर यह स्तोत्र ३. श्लोकों का है लेकिन उसमें पाश्र्वनाथ के में लोकतिलक मन्दिर बनवाया तथा उसके लिए विमन- अन्तरिक्ष होने का कही उल्वेख नही है। विदर्भ के श्रीपुर चन्द्र प्राचार्य को सन् ७७६ में कुछ दान दिया। इस पाश्र्वनाथ का यह अन्तरिक्ष होने का अतिशय इतना लेख का भी विदर्भ के श्रीपुर से सम्बन्ध होना सम्भव विलक्षण है कि प्रायः सभी स्तोत्र लेखकों ने उसका बरानहीं है। क्योंकि दानदाता राजा पृथिवीनिर्गुन्द गग महा- बर उल्लेख किया है। उसका उल्लेख न होना यही मूचित राज श्रीपुरुष के सामन्त थे जिनका राज्य कर्णाटक म ही करता है कि विद्यानन्द वर्णित श्रीपुर विदर्भ का न होकर था। विदर्भ और महाराष्ट्र में उस समय राष्ट्रकट कर्णाटक का है। यह स्वाभाविक है क्योकि विद्यानन्द ने गजानों का शासन था और गग और राष्ट्रकटो में उस जिस गग राजा सत्यवाक्य के लिए तीन ग्रन्थ लिखे थे सनय शत्रुता थी। श्रीपुरुष का पुत्र शिवमार युद्ध मैं उस का राज्य विदर्भ में न होकर कर्णाटक में था। राष्ट्रकूटों द्वारा बन्दी बनाया गया था२। ऐमी स्थिति मे
(५) अब निर्वाणकाण्ड के उल्लेख को देखिए । श्रीपुरुष का एक मामन्त राष्ट्रकटों के प्रदेश में कोई मन्दिर पं०प्रेमीजी ने तो इस उल्लेख को भी उपयुक्त कन्नड़ बनवा कर भूमि कैसे दान दे सकता था ?
श्र.पुर का ही माना है। किन्तु इस प्रश्न का एक दूसरा अत' उक्त लेम्व में जिम श्रीपुर का उल्लेख है वह भी पहलू भी है। वह यह कि निर्वाणकाण्ड न तो श्री कुन्दकर्णाटक का ही है, विदर्भ का नही। इस लेख में जिन कुन्द की रचना है और न ही उमका समय ईसवी सन विमलचन्द्र प्राचार्य का उल्लेख है उनके गुरु कीनिणन्दि की पहली शताब्दी है । दशभक्ति की पुस्तकों में निर्वाण प्राचार्य एरेगिन्तर गण के पुलिकल गच्छ के थे। श्रीमान काण्ड भी छपा होता है और टीकाकार प्रभाचन्द्र के नेमचन्दजी लिखते हैं कि इनके कुछ लेख सिरपुर की धातु- कथनानुसार प्राकृत दशभक्ति कुन्दकुन्द की और संस्कृत मूर्तियों पर हैं । अच्छा हो यदि वे उक्त लेख प्रकाशित दशभक्ति पूज्यपाद की रचना मतलाई गई है । इसी पर में करें और बताये कि उनमें एरेगित्तूर गण, पुलिकल गच्छ श्रीमान नमचन्द जी ने तक किया होगा कि निर्वाणका या कीर्तिण न्दिगुरु का सम्बन्ध कहां तक है। किन्तु यह कुन्दकुन्दकृत है। उन्होंने इस बात की ओर ध्यान नह। संभव नहीं है क्योंकि उपयुक्त विमलचन्द्र पाटवी सदी
३. प. दरबारीलाल जी ने अन्तन्क्षि पार्श्वनाथ का । १. दि क्लासिकल एज पृ० १८५-८७ ।
सम्बन्ध भी गलती से इसी श्रीपुर के साथ जोड़ दिया है २. दि एज माफ इम्पीरियल कनौज पृ० १५६ ।
(शासनचतुस्त्रिशिका पृ०४२)
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भनेकान्त
दिया कि संस्कृत निर्वाणभक्ति पर तो प्रभाचन्द्र की टीका निर्वाणकाण्ड के जो बहुत से कथन है उनकी विस्तार से है किन्तु निर्वाणकाण्ड पर नहीं है इससे स्पष्ट होता है कि समीक्षा ५० प्रेमीजी के जैन साहित्य और इतिहास (पृ. प्रभाचन्द्र के समय या तो निर्वाणकाण्ड था ही नहीं प्रथवा ४२२-५१) में की गई है। उसले स्पष्ट प्रतीत होता है हो भी तो वे उसे दशभक्ति संग्रह की रचना नहीं मानते कि यह रचना किसी साधारण लेखक की उत्तरकालीन थे। टीकाकार प्रभाचन्द्र का समय कुछ विद्वान तेरहवी रचना है। यह बात और है कि तीर्थ सम्बन्धी दूसरी सदी में और कुछ दसवीं सदी में मानते हैं। इनमें से व्यवस्थित रचना उपलब्ध न होने से उसी को दिगम्बर दूसरा मत भी माने तो कहना होगा कि निर्वाणकाण्ड जैन समाज में बहुत अधिक प्रादर मिला है। दसवीं सदी में निर्वाणभक्ति के रूप में प्रतिष्ठित नही हुआ था। एक पौर प्रमाण है जिसमे निर्वाणकाण्ड की (६) श्रीपुर के सम्बन्ध में ऊपर जो चर्चा की है रचना पाठवीं सदी से बाद की निश्चित होती है। उसमे स्पष्ट होगा कि पुरातन समय में श्रीपुर नाम के दो निर्वाणकाण्ड में वरदत्त और वगंग का निर्वाणस्थान नगर थे एक कर्णाटक मे और दूमग विदर्भ मे (इसके तारापुर के निकट बतलाया है । यह तारापुर राजा वत्स- प्रातारक्त एक धापुर मध्य प्रदश म रायपुर
अतिरिक्त एक श्रीपुर मध्य प्रदेश मे रायपुर के पास था राज ने बसाया था और इसका नाम बौद्ध देवी ताग के और एक और श्रीपुर प्रान्ध्र में था जहा इस समय कागजमन्दिर के कारण त.गपुर था ऐसी जानकारी सोमप्रभकत नगर नामक नया प्रौद्योगिक शहर बसा हुआ है) इस कुमारपाल-प्रतिबोध में मिलती है (प.प्रेमीजी-जैन में श्रीपुर का जो कोई पुराना उल्लेख मिले उमका संदर्भ साहित्य पार इतिहास पृ० ४२५-६)। इस प्रदेश के देखकर ही निर्णय करना चाहिए कि वह किस श्रीपुर इतिहास मे वत्सराज नाम का जो राजा हा था उसका
का है। हरिभद्र और जिनसेन के जो उल्लेम्व श्रीमान समय पाठवीं शताब्दी है।४ प्रतः उसके द्वारा बसाये गये
नेमचन्दजी ने बताये हैं उनमें विशिष्ट सन्दर्भ का प्रभाव तारापुर का उल्लेख करने वाला निर्वाणकाण्ड आठवी
होने से विदर्भ स्थित श्रीपुर के ही वे उल्लेख है यह कहना सदी के बाद का है। इस समय के पहले सातवीं सदी मे सभव नहीं है। हरिभद्र का जो उद्धरण उन्होंने दिया है जटासिहनन्दि प्राचार्य न वरदत्त का निर्वाणस्थान और वह मौलिक न होकर किसी प्राधुनिक लेखक का है जिसने वरांग का स्वर्गवास स्थान मणिमान पर्वत बतलाया है, गलता सस
गलती से उसका सबध अतरिक्ष पाश्वनाथ के श्रीपुर से उन्हें तागपुर नाम की जानकारी नहीं थी, इससे भी जोड़ दिया है । एसा स्थिति म हमारा मत है कि उपयुक्त कथन की पुष्टि होती है। जब निर्वागकाण्ड पार्वताथ का श्रीपुर राजा एल श्रीपाल द्वारा स्थापित आठवीं सदी के बाद का है तब न वह पहली सदी का है यह पुराने कथालेखकों का वर्णन सही है, उसे गलत हो सकता है और न ही कुन्दकुन्दकृत हो सकता है। सि
सिद्ध करने वाले प्रमाण अभी उपलब्ध नहीं है। प्रभाचन्द्र के समय (दसवी सदी) में भी वह प्रसिद्ध नहीं था। अतः बहुत सभव है कि राजा एल श्रीपाल (दसवों
(७) प्रसंगवश यह भी नोट करना चाहिए कि
पद्मप्रभ के लक्ष्मीर्महस्तुल्य आदि स्तोत्र के प्रत्येक पद्य में सदी) के बाद की ही रचना हो । जटासिहनन्दि, रविषेण,
रामगिरि का स्पष्ट उल्लेख है। प्रतः उसका श्रीपुर से गुणभद्र, पुष्पदन्त प्रादि पुरातन ग्रन्थकारों के विरुद्ध
जो सम्बन्ध श्री नेमचन्द जी ने बताया है वह भी निरा४ दि एज प्राफ इम्पीरियल कनौज पृ० २१-२३। धार है।
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प्रतिहार साम्राज्य में जैन-धर्म
डा० दशरथ शर्मा एम. ए. डी. लिट
प्रतिहार साम्राज्य में अनेक धर्म फले और फूले। प्राचार्यों ने यह प्रवाद निर्मल सिद्ध कर दिया कि राजपूतों बौद्धधर्म भी कुछ समय तक कोटा प्रदेश में अवस्थित द्वारा शासित राज्यों में महिंसावादी धर्म नहीं पनप सकते। रहा; किन्तु विशेष समय तक नहीं। प्रायः सर्वत्र ही जैन धर्म में तो हर एक के लिए स्थान है। उसमें प्राचार अहिंसावादी जनधर्म या वैष्णव धर्म दसवी शती तक का क्रम ही ऐसा रखा गया है कि हर एक मनुष्य अपनी उसका स्थान ग्रहण कर चुका था। जैन विद्वानो मे बप्प- सामर्थ्य और बुद्धि के अनुसार स्वत: मागे बढ़ने की शक्ति भट्टसूरि पामराज नागभट द्वितीय के मित्र और अध्यात्म प्राप्त करता है। दृष्टि से गुरु भी थे। उनकी पारस्परिक मंत्री का बप्पभट्टमूरि चरित में बहुत अच्छा वर्णन है।
राजपूत राजाओं ने जैनों से सदा मच्छा. व्यवहार कुछ समय तक राजस्थान में जैन धर्म भी पतनोन्मुख
किया। परम्परा से प्रसिद्ध है कि प्रथम प्रतिहार सम्राट
नागभट प्रथम को जैनाचार्य यक्षदेव की कृपा से ऋद्धि हुमा । सतत विहार को छोड़ कर अनेक साधुओं ने चैत्यों
और सिद्धि की प्राप्ति हुई थी। सम्राट् बत्सराज के समय में रहना; लवग, ताम्बूल आदि का सेवन करना और बढ़िया वस्त्र धारण करना प्रारम्भ कर दिया था। धर्म
समस्त पश्चिमी राजस्थान जैन मन्दिरों से परिपूर्ण था। विषयक प्रश्न पूछने पर ये प्रायः श्रावकों को टालते,
प्रोसियां के भव्य जैन मन्दिर का भी उसी के समय में उनसे कहते कि धर्म की गुत्थियाँ और रहस्य उनकी समझ
निर्माण हुआ। प्रतिहार राजा कक्कुल न सं० ६१८ में में कुछ दूर की वस्तु हैं। प्रतिहार साम्राज्य के उदय से
रोहिंसकूप में जैन मन्दिर का निर्माण करवाया और उसे पूर्व ही श्री हरिभद्र सूरि ने अपनी बहुमुखी प्रतिभा से इस
माम्रक, भालुक आदि जैन गोष्ठिकों के हाथ में सौप दिया। उन्मार्गगामिनी प्राचारधारा को रोकने का प्रयत्न किया
उसी प्रकार चौहान राजा पृथ्वीराज प्रथम पार्णोराज था। उनके बाद कुवलयमालाकार उद्योतनमरि और
विग्रहराज चतुर्थ, सोमेश्वर प्रादि में भी जैनधर्म की उपमितिभवप्रपञ्चाकार श्री सिपिसूरि ने भी यह
अच्छी सेवा की। इन राजानों का समय प्रतिहार साम्राज्य कार्य अग्रसर किया। हरिभद्र सूरि ने अत्यन्त सक्षेप में
के बाद का है। इससे सिद्ध है कि जैन धर्म तब तक इस जिस धर्म विषय का धर्मविन्दु में प्रतिपादन किया था,
प्रदेश में इतना दृढमूल हो चुका था कि राज्यों के अनेक वही उनकी समगइच्च कथा एवं अन्य प्राचार्यों की कथायो उत्थान और पतन होने पर भी उसका उत्थान ही होता में विशद रूप प्राप्त कर चुका है।
रहा। प्रतिहार साम्राज्य मे जैनधर्म ने अच्छी प्रगनि को। अनेकान्त के किसी अग्निम अङ्क में हम इस विषय विशेष रूप से राजपूतो को जैनधर्म में दिक्षित कर जैन पर कुछ अधिक प्रकाश डालने का प्रयत्न करेंगे।
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खजुराहो का जैन संग्रहालय
नीरज जैन
खजुराहो का पुरातत्त्व विशिष्ट कलात्मक और विश्व- द्वार तोरण, सिंहासन, शासन देवियां, द्वारपाल, नवग्रह, विख्यात है, बहुत कम लोग जानते हैं कि सौन्दर्य के इन शार्दूल प्रादि भी पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध है, इन सबका प्रतीकों में जैन स्थापत्य का बहुत बड़ा योगदान है । खजु. मंकन अनेक वैविध्य और वैचित्र्य से पूर्ण है, एक लम्बे राहो के जैन शिल्प का क्रमशः वर्णन करते हुए पारसनाथ तोरण में एक दिगम्बर प्राचार्य को एक ऊँची शिला पर मन्दिर और प्रादिनाथ मन्दिर पर सामग्री पाठकों के विराजमान दिखाया गया हैं जिनके सामने पीछी लिए समक्ष गत अंकों में प्रस्तुत की जा चुकी है। इस अंक में हुए दो दिगम्बर मुनि नमन करते हुए अंकित हैं और वहाँ के जैन शिल्प संग्रहालय पर दृष्टिपात करेंगे। श्रावक श्राविकाएं तथा सेना खड़ी हुई है, हाथी घोड़े तथा
भाला बरछी से सज्जित सेना यह सिद्ध करती है कि पारसनाथ मन्दिर के पश्चिमी पावं में एक गहरी बावली है; उसी बावली से लगा हुमा--नग्रुप का अंतिम
कहीं दूर की यात्रा का यह दृश्य है, ऊपर विद्याधरों की
पंक्ति भी है, इसी पट्ट के नीचे की भोर बांसुरी बजाते कोना-अभी एक खुले हुए संग्रहालय के रूप में सजा
हुए एक गंधर्व युगल का सुन्दर अंकन है। हमा है। इसे संग्रहालय भी क्या कहें, मन्दिरों की पुननि- हुए मणि-व्यवस्था करते समय यहाँ फैली हुई शतश: जैन- द्वार तोरणों में मध्य कालीन परम्परा के अनुसार प्रतिमानों को परकोटे की दीवाल में चुन दिया गया है गंगा-यमुना, द्वारपाल यक्ष, मिथुन युगल तथा नवग्रहों का और बाद में एकत्र की गई कुछ मूर्तियाँ चबूतरे पर सजा अंकन एक से एक बढ़कर यहाँ दिखाया गया है, जैन दी गई हैं। यह हर्ष की बात है कि समाज ने धीरे धीरे शासन देवियों की कुछ स्वतन्त्र बड़ी प्रतिमाएं भी इस अपनी इन कलानिधियों का मूल्य पहिचाना है पोर यहाँ संग्रहालय की शोभा बढ़ा रही है जिनमें धरणेन्द्र पद्मावती एक संग्रहालय भवन बनाने का निश्चय कर लिया है। इस और अम्बिका प्रमुख हैं, चन्द्रेश्वरी, ज्वालामालिनी तथा वर्ष मेले पर इस प्रस्तावित भवन का शिलान्यास भी हो सरस्वती प्रादि का अकन भी यथा स्थान दिखाई देता चका है। इसी बीच केन्द्रीय पुरातत्त्व विभाग ने इन है. अनेक विशाल जिन बिम्बों के ऊपरी भाग यहां पाये प्रतिमानों को प्राप्त करने का प्रयास किया था परन्तु जाते है, जिनमे जल अभिषेक करते हुए गज तथा छत्र श्रीमान् बाबू छोटेलालजी कलकत्ता के प्रयास से वह स्थिति प्रादि बने हैं, और उन्हें देखकर लगता है कि यहां बड़ीटल गई है तथा इन पंक्तियों के लेखक का विश्वास है कि बडी मतिया भी प्रचर मात्रा में रही है, तीर्थकर प्रतिमाएँ यदि समय पर संग्रहालय भवन तैयार हो सका तो यहाँ यहां सर्वाधिक हैं, जिनमें पद्मासन और खड्गासन दोनों की समस्त उपलब्ध सामग्री तो उसमें सजाई ही जायगी, प्रकार की मूर्तियां हैं, इन मूर्तियों का सुकर परिकर, खजुराहो के केन्द्रीय संग्रहालय में स्थित अनेक जैन प्रति- निर्विकार-सौम्य मुख मुद्रा, तथा सिंहासन से लेकर छत्र तक मानों को भी इस संग्रहालय के लिए प्राप्त करने में का कलात्मक गठन और सुन्दर सज्जा खजुराहो के तक्षक सफलता प्राप्त हो जायगी, और तब यह एक अत्यन्त की गौरव गरिमा के अनुरूप है और दर्शकों को प्राषित महत्वपूर्ण संग्रहालय हो जाएगा।
करते हुए उच्चतर स्वर में घोपित करती है कि सौन्दर्य वर्तमान में यहाँ पर लगभग एक-सौ से अधिक मूर्ति की अनुभूति कामुकता या शृगार के अनुपान में ही होती खण्ड पडे हैं जिनमें अधिकांश तीर्थकर प्रतिमाएँ है, किन्तु हो यह मावश्यक नहीं है अपरिग्रह के परिवेश में मौर
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बाबुराहो का मेन संग्रहालय
विकार मुद्रा के सर्वथा प्रभाव में भी अनन्त सौंदर्य की है। खजुराहो में सिंह को मारुति से मिलते-जुलते इस धारा प्रवाहित होती रह सकती है, चार छह मूर्तियों का जानवर का अंकन प्रतीकरूप में बहुतायत से हुपा है। सिर खंडित हो गया है उनके सम्पूर्ण भामण्डल को देखकर जैन ग्रुप में भी वह सैकड़ों की संख्या में अंकित है। इस यह समझना कठिन हो जाता है कि सिर की उपस्थिति पशु प्राकृति के इस प्रकार प्रकन के अनेक रूस और अनेक में यह समूचा भामण्डल बनाया कैसे गया होगा, दो तीन अर्थ विद्वानों द्वारा दिए जाते हैं। कोई इन्हें प्रसुर बिम्ब भूतियों के शरीर की चिकनाहट भी माश्चर्यकारी है। मानकर मन्दिरों पर देवासुर अंकन की सिद्धि करते हैं यहां की मूर्तियों पर पानिश का सर्वथा प्रभाव है, इसलिए और किसी किसी ने इन्हें अभिलाषा और ज्ञान का प्रतीक विशेष चिकनाहट वाली प्रतिमानों को देखकर विश्वास माना है। इनका धड़ सिंह के शरीर से मिलता जुलता है, करना पड़ता है कि अवश्य ही सैकड़ों वर्षों तक इन प्रति- पर मुखाकृति अनेक तरह की बनाई गई है। मुझ इन मानों पर प्रतिदिन प्रक्षाल और अभिषेक हना है जिसके जैन मन्दिरों में ही शार्दूलों की जो मुखाकृतियाँ प्राप्त हुई बिना उन पर इतनी मनमोहक चिकनाहट का ही नही हैं उनमें सिंह, बाघ, गज, प्रश्व, मेढ़ा, तोता, हिरण, बैल सकती थी।
और मनुष्य मादि लगभग बारह भिन्न भिन्न भाकृतियाँ हैं
इन सभी में प्रायः एक ही अभिप्राय अंकित हुमा है कि यहां की सभी प्रतिमाएं और मन्दिर भूरे अथवा लाल ।
शार्दूल ऋद्ध और पाक्रामक मुद्रा में खड़ा है। उसने अपने देशी बलूबा पत्थर से निर्मित हैं, तथा उनमें तक्षण कला के नीचे एक मानवाकृति को दबा रखा है। कहीं कहीं के जैसे चमत्कार अंकित किए गए हैं वास्तव में वसा इस मानवाकृति की जगह भी गज, अश्व, ऊँट मादि अंकन संगमरमर जैसे नरम पाषाण में भी सहज संभव दिखाए गए हैं। यह प्राकृति किसी न किसी प्रस्त्र द्वारा नहीं होता, मूर्तियों के छत्र पर मंकित की गई क्षुद्र घंटि
पाक्रमण का प्रतिकार करती दिखाई जाती है और शार्दूल काएँ, पुष्प वेलि तथा रत्नमयी झालर अत्यन्त शोभनीय की पीठ पर प्रासीन एक छोटी सी मानवाकृति मूर्ति दिखाई देती है, इसी प्रकार भामण्डल में भी अनेक अभि
दिखाई गई है जो अपने दुर्दमनीय किन्तु सौम्य पौरुष से प्रायों का अंकन है, रत्नवलय, पुष्प वेलि तथा सूर्य किरण
___ उस विशाल आक्रामक दुर्दान्त पशु पर नियंत्रण करती तो भामण्डल का साधारण क्रम है ही पर यहां के कलाकार
दिखाई देती है। ने कमल दल, नाग वेल और अग्नि ज्वाल को भी भामण्डल में अंकित करके अपनी सविशेष कल्पना को साकार
मैं शार्दूल के इस अभिप्राय को जहाँ तक समझ पाया किया है।
हूँ मुझे यह मनुष्य की अपनी पाशविक माकांक्षामों अथवा
अमानुपिक वृत्तियों का प्रतिबिम्ब लगता है जो अपनी इस संग्रहालय की वर्तमान दीवाल के बाहरी ओर ती मागों के कारण जमी चेटो तथा बीच में भी पर्याप्त सामग्री का उपयोग हुमा मालूम लेकर अंकित किया गया है और जिसने स्वय अपनी होता है। नये संग्रहालय भवन के निमाण के समय निकट
मानवता को ही दबोच रखा है। इस प्रासुरी भावना को भविष्य में ही उस विलुप्त प्राय सामग्री के उद्घाटन की
संयत करने में ममर्थ हमारा संयम या विवेक ही है जो आशा है और यह विश्वास किया जा सकता है कि तब
छोटा होकर भी हमारी पाशविक प्रभिलाषानों पर विजय चंदेल कला में जैन मूर्ति शास्त्र के कुछ नए मान प्रकाश में
पाने में समर्थ होता है। जैन दृष्टिकोण से इमे बारह व्रतों आवेगे।
के अतिचार रूप में भी समझा जा सकता है । इन शार्दूलों जैन पुरातत्त्व के वर्णन के अन्त में शार्दूल अथवा की विभिन्न प्राकृतियों को देखकर मेरी बात आसानी से अष्टापद के अंकन का थोड़ा सा विवरण दे देना आवश्यक समझी जा सकती है।
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जैन-दर्शन में सप्तभंगीवाद
उपाध्याय मुनि श्री अमरचन्द
प्रभेदावच्छेदक कालादि का निरूपण
७. जो एक वस्तु-स्वरूप से वस्तु में अस्तित्व धर्म जीव आदि पदार्थ कथंचित् अस्तिरूप है, उक्त एक का ससर्ग है, वही अन्य धर्मों का भी है। अतः ससर्गर अस्तित्व-कथन में अभेदावच्छेदक काल आदि की घटन की अपेक्षा से भी सभी धर्मों में अभेद है। पद्धति इस प्रकार है :
८. जिस प्रकार 'अस्ति' शब्द अस्तित्व धर्म-युक्त १. वस्तु में जो अस्तित्व धर्म का समय है, काल है, वस्तु का वाचक है, उसी प्रकार 'अस्ति' शब्द अन्य अनन्त वही शेप अनन्त धर्मों का भी है, क्योंकि उसकी समय धर्मात्मक वस्तु का भी वाचक है। 'सर्वे सर्वार्थवाचकाः'। वस्तु में अन्य भी अनन्तधर्म-उपलब्ध होते है। अतः एक अतः शब्द की अपेक्षा से भी अस्तित्व आदि धर्म अस्तित्व के साथ काल की अपेक्षा अस्तित्व मादि सब प्रभिल हैं। धर्म एक हैं।
___कालादि के द्वारा यह अभेद व्यवस्था पर्यायस्वरूप २. जिस प्रकार वस्तु का अस्तित्व स्वभाव है, उसी अर्थ को गौण और गुणपिण्डरूप द्रव्य पदार्थ को प्रधान प्रकार अन्य धर्म भी वस्तु के प्रात्मीय-रूप है, स्वभाव है। करने पर सिद्ध हो जाती है। प्रमाण का मूल प्राणप्रतः प्रात्म-रूप की अपेक्षा से अस्तित्व आदि सब धर्म प्रभेद है। प्रभेद के बिना प्रमाण की कुछ भी स्वरूपअभिन्न हैं।
स्थिति नहीं है। ३. जिस प्रकार वस्तु अस्तित्व का अर्थ है, उसी
नय-सप्तभंगी: प्रकार अन्य धर्मों का भी वह आधार है। प्रतः अर्थ
नय वस्तु के किसी एक धर्म को मुख्य रूपों में ग्रहण अर्थात् आधार की अपेक्षा अस्तित्व आदि धर्म अभिन्न हैं।
करता है. वस्तुगत शेप धर्मों के प्रति वह तटस्थ रहना है। ४. जिस प्रकार पृथक्-पृथक् न होने वाले कचित्
न वह उन्हें ग्रभरण करता है और न उनका निपंध ही अविष्वग् भावरूप तादात्म्य सम्बन्ध से अस्तित्व धर्म वस्तु
करता है। न हाँ पौरन ना, एक मात्र उदासीनता । में रहता है, उसी प्रकार अन्य धर्म भी रहते हैं। अत:
इमको 'मुनय' कहते हैं। इसके विपरीत, जो नय अपने सम्बन्ध की अपेक्षा से भी अस्तित्व आदि धर्म अभिन्न हैं।
विपय का प्रतिपादन करना हुमा दूसरे नयों का खण्डन ५. अस्तित्व धर्म के द्वारा जो स्वानुरक्तत्व करण करता है, उने 'दुर्नय' कहा जाता है। नय सप्तभगी सुनय रूप उपकार वस्तु का होता है, वही उपकार अन्य धर्मों
में होती है, दुर्नग में नहीं। वस्तु के घनन्त धों में से के द्वारा भी होता। अतः उपकार की अपेक्षा से भी किसी धर्म का काल आदि भेदावच्छेदकों द्वारा भेद मस्तित्व आदि धर्मों में अभेद है।
की प्रधानता अथवा भेद के उपचार से प्रतिपादन करने ६. जो क्षेत्र द्रव्य में अस्तित्व का है वही क्षेत्र अन्य वाला वाक्य विकलादेश कहलाता है। इसी को 'नयधर्मों का भी है। अतः अस्तित्व आदि धर्मों में अभेद है। सप्तभगी' कहते है। नय-सप्तभंगी वस्तु के स्वरूप का इसी को गुरिण-देश१ कहते हैं।
२. पूर्वोक्त सम्बन्ध और प्रस्तुत संसर्ग में यह अन्तर है १. अर्थ पद से लम्बी-चौड़ी प्रखण्ड वस्तु को पूर्णरूप से कि तादात्म्य सम्बन्ध धर्मों की परस्पर योजना करने
ग्रहण की जाती है और गुणि-देश से प्रखण्ड वस्तु के वाला है और संसर्ग एक वस्तु में प्रशेष धमों को बुद्धि-परिकल्पित देशांश ग्रहण किये जाते हैं।
ठहराने वाला है।
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जन-दर्शन
सप्तभंगीवाद
प्रतिपादन भेद-मुखेन किया जाता है।
घटित नहीं होता। नय-सम्बन्धित भेवावच्छेदक कालादि:
६. प्रत्येक गुण की अपेक्षा से गुणी का देश भी नय सप्तभंगी में गुणपिण्डरूप द्रव्य पदार्थ को गौण भिन्न-भिन्न ही होता है। यदि गुण के भेद से गुणी में और पर्याय स्वरूप अर्थ को प्रधान माना जाता है। अतः देश भेद न माना जाए, तो सर्वथा भिन्न दूसरे पदार्थों के नय सप्तभंगी भेद-प्रधान है। उक्त भेद भी कालादि के गुणों का गुणी देश भी अभिन्न ही मानना होगा। इस द्वारा ही प्रमाणित होता है।
स्थिति में एक व्यक्ति के दु.ख, सुख और ज्ञानादि दूसरे
व्यक्ति में प्रविष्ट हो जायेगे, जो कि कथमपि इष्ट नहीं १. वस्तुगत-गुण प्रत्येक क्षण में भिन्न-भिन्न रूप से
है। अत गुणी-देश से भी धर्मों का अभेद नहीं, किन्तु भेद परिणत होते है। प्रतः जो अस्तित्व का काल है, वह
ही सिद्ध होता है। नास्तित्व प्रादि का काल नहीं है। भिन्न-भिन्न धर्मों का भिन्न-भिन्न काल होता है, एक नहीं। यदि बलात् अनेक ७. संसर्ग भी प्रत्येक ससर्ग वाले भेद मे भिन्न ही गणों का एक ही काल माना जाए, तो जितने गुण हैं, माना जाता है। यदि सम्बन्धियो के भेद के होते हुए भी उतने ही प्राश्रयभेद से वस्तु भी होनी चाहिए । इम उनके मंसर्ग का अभेद माना जाए, तो फिर ससगियो
एक वस्तु में अनेक वस्तु होने का दोप उपस्थित (सम्बन्धियों) का भेद कैमे घटित होगा? लोक व्यवहार होता है। अत: काल की अपेक्षा वस्तुगत धर्मों में भेद है, सभी टालों का मिश्री पान या अभेद नहीं।
भिन्न-भिन्न प्रकार का ससर्ग होता है, एक नहीं। अतः २. पर्याय-दृष्टि से वस्तुगत गुणों का प्रात्मरूप भी ससर्ग से भी अभेद नही, भेद ही सिद्ध होता है। भिन्न-भिन्न है। यदि अनेक गुणो का पात्मस्वरूप भिन्न न माना जाए, तो गुणों में भेद की बुद्धि कैसे होती है ? एक
२. प्रत्येक वाच्य (विषय) की अपेक्षा से वाचक प्रात्मस्वरूप वाले तो एक-एक ही होंगे, अनेक नहीं।
शब्द भिन्न भिन्न होते है । यदि वस्तुगत सम्पूर्ण गुणों को प्रात्म-स्वरूप से भी अभेद नहीं, भेद ही सिद्ध होता है।
एक शब्द के द्वागही वाच्य माना जाए, तब तो विश्व
के मम्पूर्ण पदार्थों को भी एक शब्द के द्वारा वाच्य क्यों न ३. नाना धर्मों का अपना-अपना आश्रय अर्थ भी
माना जाए? यदि एक शब्द द्वारा भिन्न-भि न समस्त नाना भी होता है। यदि नाना गुणो का आधारभूत पदार्थ
पदार्थों की वाच्यता स्वीकार कर ली जाए, तो विभिन्न अनेक न हो, तो एक को ही अनेक गुणों का प्राथय
पदार्थों के लिए विभिन्न शब्दो का प्रयोग व्यर्थ सिद्ध मानना पड़ेगा, जो कि तर्क-गंगत नहीं है। एक का आधार
होगा । अतः वाचक शब्द की अपेक्षा से भी प्रभेद वृत्ति एक ही होता है। प्रत अर्थ-भेद मे भी मब धर्मों में
नही, भेदवृत्ति ही : माणित होती है।
४. सम्बन्धियों के भेद से सम्बन्ध में भी भेद होता प्रत्येक पदार्थ गुण और पर्याय स्वरूप है। गुण और है। अनेक मम्बन्धियों का एक वस्तु में मम्बन्ध घटित पर्यायों में परसार भेदाभेद सम्बन्ध है। जब प्रमाणनहीं होता। देवदत्त का अपने पुत्र में जो मम्बन्ध है, वहीं सप्तभगी मे पदार्थ का अधिगम किया जाता है, तब गुणपिता, भ्राता आदि के माथ नहीं है। अतः भिन्न धर्मो पर्यायो में कालादि के द्वारा प्रभेद वृनि या अभेद का में सम्बन्ध की अपेक्षा से भी भेद ही सिद्ध होता है अभेद उपचार होता है और अस्ति या नास्ति आदि किमी एक नहीं।
शब्द के द्वारा ही अनन्त गुण पर्यायों के पिण्डस्वरूप ५. धर्मों के द्वारा होने वाला उपकार भी वस्तु अखण्ड पदार्थ का, अर्थात् अनन्त धमों का युगपत् परिपृथक्-पृथक् होने से अनेक रूप है, एक रूप नहीं। अत. बोध होता है और जब नग-सप्तभंगी से पदार्थ का उपकार की अपेक्षा से भी अनेक गुणों में अभेद (एकत्व) अधिगम किया जाता है, तब गुण पर्यायों मे कालादि के
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२२
द्वारा भेदवृत्ति अथवा भेदोपचार होता है और पस्ति अनन्त भंगी क्यों नहीं? या नास्ति प्रादि किसी एक शब्द के द्वारा द्रव्यगत सप्तभंगी सम्बन्ध में एक प्रश्न और उम्ता है और मस्तित्व या नास्तित्व प्रादि किसी एक विवक्षित गुण- वह यह है कि जब जैनदर्शन के अनुसार प्रत्येक वस्तु में पर्याय का क्रमशः मुख्य रूप से निरूपण होता है । विकला- अनन्त धर्म है, तब सप्तभंगी के स्थान पर प्रन-तभंगी देश (नय) वस्तु के अनेक धमों का क्रमशः निरूपग स्वीकार करनी चाहिये, सप्तभंगी नहीं ? उक्त प्रश्न का करता है और सकलादेश (प्रमाण) सम्पूर्ण धर्मों का समाधान यह है कि प्रत्येक वस्तु में मनन्त धर्म है, और युगपत् निरूपण करता है । संक्षेप में इतना ही विकलादेश उसके एक-एक धर्म को लेकर एक-एक सप्तभंगी बनती पौर सकलादेश में, अर्थात् नय और प्रमाण में अन्तर है। है। इस दष्टि से अनन्त सप्तभंगी स्वीकार करने में जैन प्रमाण सप्तभगी में प्रभेदवृत्ति या प्रभेदोपचार का और नय दर्शन का कोई विरोध नहीं है, वह इसको स्वीकार करता सप्तभंगी में भेद वृत्ति या भेदोपचार का जो कथन है है। किन्तु वस्तु के किसी एक धर्म को लेकर, एक ही उसका अन्तर्मम यह है कि प्रमाण सप्तभंगी में जहां सप्तभंगी बन सकती हैं, अनन्त भंगी नहीं। इस प्रकार द्रव्यार्थिक भाव है, वहां तो अनेक धर्मों में अभेदबुत्ति जैन-दर्शन को अनन्त सप्त भंगी का होना, तो स्वीकार स्वतः है और जहां पर्यायार्थिक भाव है वहां अभेद का है, परन्तु अनन्तभंगी स्वीकार नहीं है। उपचार-प्रारोप करके अनेक धमों में एक अखण्ड प्रभेद Ramanar प्रस्थापित किया जाता है। और नय सप्तभंगी में जहां
प्राचार्य सिद्धसेन और अभयदेव सूरि ने 'सत् असत् द्रव्याथिकता है, वहां अभेद में भेद का उपचार करके एक
और प्रवक्तव्य' इन तीन भंगों को सकलादेशी पौर शेष धर्म का मुख्यत्वेन निरूपण होता है, और जहां पर्यायाधिक
चार भंगों को विकलादेशी माना है। न्यायावतार सूत्र ता हैं, वहां तो भेदवृत्ति स्वयं सिद्ध होने से उपचार की
वातिक वृत्ति में३ प्राचार्य शान्तिसूरि ने भी "अस्ति, आवश्यकता नहीं होती।
नास्ति और प्रवक्तव्य" को सकलादेश और शेष चार को व्याप्य-व्यापक-भाव
विकलादेश कहा है। उपाध्याय यशोविजय ने जैनतर्क
भाषा और गुरुतत्त्व-विनिश्चय में उक्त परम्परा का अनुस्पाद्वाद और सप्तभंगी में परस्पर क्या सम्बन्ध है?
गमन न करके सातों भंगों को सकलादेशी और विकलायह भी एक प्रश्न हैं। दोनों में व्याप्य-व्यापक भाव
देशी माना है। परन्तु अपने प्रष्टसहस्री विवरणों में सम्बन्ध माना जाता है। स्याद्वाद 'व्याप्य' है और सष्त
उन्होंने तीन भंगों को सकलादेशी और शेष चार को भंगी 'व्यापक'। क्योंकि जो स्याद्वाद है, वह सप्तभंगी विकलादेशी स्वीकार किया है। अकलंक और विद्यानन्द होता ही है, यह तो सत्य है। परन्तु जो सप्तभंगी है, वह
ह आदि प्राय. सभी जैनाचार्य सातों ही भंगों को सकलादेश स्पाद्वाद है भी और नहीं भी । नय स्याद्वाद नहीं है, फिर
__ और विकलादेश के रूप में स्वीकार करते हैं।
से भी उसमें सप्तभंगीत्व एक व्यापक धर्म है। जो स्याद्वाद
सत् प्रसत् और प्रवक्तव्य भंगों को सकलादेशी और प्रौद नय-दोनों में रहता है । "अधिक देशवृत्तित्वं व्यापक त्वम् अल्पदेश वृत्तित्वं व्याप्यत्वम् ।"
१. प्रतिपर्यायं सप्तभंगी वस्तुनि-इति वचनात् तथाऽनन्ता,
सप्तभंग्यो भवेयुरित्यपि नानिष्टम् । १. सकलादेशो हि योगपद्यन अशेपधर्मात्मक वस्तू
तत्वार्थश्लोक वार्तिक १, ६, ५२ कालादिभिरभेदवुत्या प्रतिपादयति, मभेदोपचारेण २. पं० सुखलाल जी और प. बेचरदास जी द्वारा वा, तस्य प्रमाणाधीनत्वात् । विकलादेशस्तु क्रमेण सम्पादित-सन्मति तक, सटीक पृ०४६ भेदोपचारेण, भेद-प्राधान्येन वा तस्य नयायत्तत्वात् । ३. पं० दलसुख मालवणिया सम्पादित, पृ०१४
-तत्वार्थश्लोक वा० १, ६, ५४। ४. पृ० २०८
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बनान में सप्तभंगीवाद
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शेष चार भंगों को विकलादेशी मानने वालों का यह अभि- के, अर्थात् वचनागोचरता४ के उल्लेख भी प्राप्त होते हैं। प्राय है कि प्रथम भंग में द्रव्यार्थिक दृष्टि के द्वारा 'सत्' प्रवक्तव्य तो उपनिषत्साहित्य का एक मुख्य सूत्र है, यह रूप से प्रभेद होता है, और उसमें सम्पूर्ण द्रव्य का परि- निर्विवाद ही है। बुद्ध के विभज्यवाद और अव्याकृतवाव बोध हो जाता है। दूसरे भंग में पर्यायार्थिक दृष्टि के द्वारा में भी उक्त चार पक्षों का उल्लेख मिलता है। महावीरसमस्त पर्यायों में भेदोपचार से प्रभेद मानकर प्रसत्रूप से कालीन तत्त्व-चिन्तक संजय के प्रज्ञानवाद में भी उक्त भी समस्त द्रव्य का ग्रहण किया जा सकता है, और तीसरे चारों पक्षों की उपलब्धि होती है। भगवान महावीर ने प्रवक्तव्य भंग में तो सामान्यतः भेद भविवक्षित ही है। अपनी विशाल एवं तत्व-पशिणी दृष्टि से वस्तु के विराट प्रतः सम्पूर्ण द्रव्य के ग्रहण में कोई कठिनाई नहीं है। रूप को देखकर कहा-वस्तु में उक्त चार पक्ष ही नहीं,
उक्त तीनो भंग अभेद रूपेण समग्र द्रव्यगाही होने से अपितु एक-एक वस्तु में अनन्त पक्ष हैं । अनन्त विकल्प हैं, सकलादेशी हैं। इसके विपरीत अन्य शेप भग स्पष्ट ही अनन्त धर्म हैं । विश्व की प्रत्येक वस्तु अनन्त धर्मात्मक सावयव या अंशग्राही होने से विकलादेशी हैं । सातवें भङ्ग है। अतएव भगवान महावीर ने उक्त चतुष्कोटि से में अस्ति प्रादि तीन अंश हैं और शेष में दो-दो प्रश। विलक्षण वस्तुगत प्रत्येक धर्म के लिए सप्तभंगी का और इस सन्दर्भ में प्राचार्य शान्ति सूरि ने लिखा है-'तेच प्रतिपादन करके वस्तुबोध का सर्वग्राही एवं वैज्ञानिक रूप स्वाक्यवा पेक्षया विकलादेशाः"१।
प्रस्तुत किया। परन्तु प्राज के कतिपय विचारक उक्त मतभेद को
भगवान महावीर से पूर्व उपनिषदों में वस्तुतत्व के कोई विशिष्ट महत्व नही देते । उनकी दृष्टि में यह एक
सद-सद्वाद को लेकर विचारणा प्रारम्भ हो चुकी थी, विवक्षा भेद के अतिरिक्त कुछ नहीं है। जबकि एक सत्व
परन्तु उसका वास्तदिक निर्णय नहीं हो सका। संजय ने या प्रसत्व के द्वारा समग्र वस्तु का ग्रहण हो सकता है,
उसे अज्ञात कहकर टालने का प्रयत्न किया। बुद्ध ने कुछ तब सत्वासत्वादि रूप से मिश्रित दो या तीन धर्मों के
बातों में विभज्यवाद का कथन करके शेष बातों में प्रव्याद्वारा भी प्रखण्ड वस्तु बोध क्यों नहीं हो सकता? अतः
कृत कहकर मौन स्वीकार किया। परन्तु भगवान महावीर सातों ही भंगों को सकलादेशी और विकलादेशी मानना
ने वस्तु-स्वरूप के प्रतिपादन में उपनिषद के अनिश्चयवाद तर्क-सिद्ध राजमार्ग है।
को, संजय के अज्ञानवाद को और बुद्ध के एकान्त एवं सप्तभंगी का इतिहास
सीमित अव्याकृतवाद को स्वीकार नहीं किया । क्योंकि तत्त्व __ भारतीय दर्शनों में विश्व के सम्बन्ध के सत्-असत् चिन्तन के क्षेत्र में किसी वस्तु को केवल अव्याकृत अथवा उभय और अनुभय-ये चार पक्ष बहुत प्राचीनकाल से ही अज्ञात कह देने भर से समाधान नहीं होता । अतएव विचार-चर्चा के विषय रहे हैं। वैदिककाल में२ जगत के उन्होंने अपनी तात्त्विक दृष्टि और तर्क-मूलक दृष्टि से सम्बन्ध में सत् और असत् रूप से परस्पर विरोधी दो वस्तु के स्वरूप का यथार्थ और स्पष्ट निर्णय किया। उनकी कल्पनाओं का स्पष्ट उल्लेख है। जगत् सत् है या असत् ? उक्त निर्णय-शक्ति के प्रतिफल है-अनेकान्तवाद, नयवाद, इस विषय में उपनिपदों में भी विचार उपलब्ध होते है। स्यादवाद और सप्नभंगीवाद । वहीं पर सत् और असत् की उभयरूपता और अनुभयरूपता
विभज्यवाद १. न्यायवार्तिक सूत्र वृत्ति पृ०६४
एक बार बुद्ध के शिष्य शुभमाणवक ने बुद्ध से पूछा२. एक सद्विप्रा बहुधा वदन्ति,-ऋग्वेद १,१६४,४६ "भते ! सुना है कि गृहस्थ ही पागधक होता है, प्रवजिन
सद् सत् दोनों के लिए देखिए ऋग्वेद १०,१२६ आराधक नहीं होता । आपका क्या अभिप्राय है ?” बुद्ध ३. सदेव सौम्येदमन आसीत्-छान्दोग्योपनिषद् ६-२ प्रसदेवेदमन पासीत् । वही ३,१६,१
४. यतो वाचो निवर्तन्ते-तैत्तिरीय २-४
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ने जो उत्तर दिया, वह मज्झिम निकाय (सुत्त , ६) में है३-अनेकान्त और एकान्त दोनों ही सम्यक् और मिथ्या उपलब्ध है। उन्होंने कहा-"माणवक! मैं विभज्यबादी के भेद से दो-दो प्रकार के होते हैं। एक वस्तु में मुक्ति है, एकांशवादी नहीं है।" इम प्रसंग पर बुद्ध ने अपने और पागम से अविरुद्ध पस्पर विरोधी से प्रतीत होने पापको विभज्यवादी स्वीकार किया है। विभज्यवाद का बाले अनेक धर्मों को ग्रहण करने वाला सम्यग् अनेकान्त अभिप्राय है-प्रश्न का उत्तर एकांशवाद में नही, परन्तु है, तथा वस्तु में तद वस्तु स्वरूप से भिन्न अनेक धर्मो की विभाग करके अनेकाशवाद में देना । इस वर्णन पर से मिथ्या कल्पना करना केवल अर्थ शून्य बचन विलास विभज्यवाद और एकांशवाद का विरोध स्पष्ट हो जाता मिथ्या अनेकान्त है। इसी प्रकार हेतु-विशेष सामर्थ्य से है। परन्तु बुद्ध सभी प्रश्नों के उत्तर में विभजवादी नहीं प्रमाण-निरूपित वस्तु एक देश को ग्रहण करने वाला थे । अधिकतर वे अपने प्रसिद्ध अव्याकृतवाद का ही प्राश्रय सम्यग एकान्त है और वस्तु के किसी एक धर्म का सर्वथा ग्रहण करते हैं।
अवधारण करके अन्य अशेष धर्मों का निराकरण करने जैन आगमों में भी "विभज्यवाद' शब्द का प्रयोग वाला मिथ्या एकान्त है; अर्थात् नय सम्यग् एकान्त है उपलब्ध होता है। भिक्ष कैसी भाषा प्रयोग करे? इसके और दुनय मिथ्या एकान्त है। उत्तर में१ सूत्र कृतांग में कहा गया है कि उसे विभज्यवाद का प्रयोग करना चाहिए । मूल मूत्रगत 'विभज्यवाद' शब्द
जैन दर्शन का यह अनेकान्तरूप ज्योतिर्मय नक्षत्र
मात्र दार्शनिक चर्चा के क्षितिज पर ही चमकता नहीं का अर्थ, टीकाकार शीलांक 'स्याद्वाद' और 'अने
रहा है। उसके दिव्य पालोक से मानव जीवन की प्रत्येक कान्तवाद' करते है। बुद्ध का विभज्यवाद सीमित क्षेत्र में
छोटी-बड़ी साधना प्रकाशमान है। छेद सूत्र, मूल, उनकी था, अत: वह व्याप्य था । परन्तु महावीर का विभज्यवाद
चुणियों और उनके भाप्यों में उत्सर्ग और अपवाद के समग्र तत्त्व दर्शन पर लागू होता था, प्रतः व्यापक था
माध्यम से साध्वाचार का जो सूक्ष्म तत्त्व स्पर्शी चिन्तन और तो क्या, स्वयं अनेकान्त पर भी अनेकान्त का सार्व
किया गया है, उसके मूल में सर्वत्र अनेकान्त और स्याद्वाद भौम सिद्धान्त घटाया गया है। प्राचार्य समन्तभद्र कहते
का ही स्वर मुखर है। किंबहुना, जैन दर्शन में वस्तु हैं२,--"अनेकान्त भी अनेकान्त है प्रमाण अनेकान्त और
स्वरूप का प्रतिपादन सर्वत्र अनेकान्त और स्याद्वाद के नय एकान्त ।" इतना ही नही, यह अनेकान्त और एकान्त
माध्यम से ही हुआ है, जो अपने आप में सदा सर्वथा मम्यग हैं या मिथ्या-इस प्रश्न का उत्तर भी विभज्य
परिपूर्ण है। यह वाद व्यक्ति देश और काल से प्रवाधित वाद में दिया गया है। प्राचार्य प्रकलक की वाणी
वाणा है, प्रतएव अनेकान्त विश्व का अजर, अमर शाश्वत और १ विभाज्यवाय च वियागरेज्जा-गूत्र कृताग १, १४,२२.
सर्व व्यापी सिद्धान्त है। २. अनेकान्तोप्यनेकान्तः, प्रमाण नयसाधनः-स्वयम्भूस्तोत्र। ३. तत्त्वार्थराजवातिक १-६-७ ।
अनेकान्त के ग्राहक बनें
'अनेकान्त' पुराना ख्यातिप्राप्त शोध-पत्र है। अनेक विद्वानों और समाज के प्रतिष्ठित व्यक्तियों का अभिमत है कि वह निरन्तर प्रकाशित होता रहे। ऐसा तभी हो सकता है जब उसमें घाटा न हो और इसके लिए ग्राहक संख्या का बढ़ाना अनिवार्य है हम विद्वानों, प्रोफेसरों, विद्यार्थियों, सेठियों, शिक्षा-संस्थानों, संस्कृत विद्यालयों, कालेजों और जनश्रत को प्रभावना में श्रद्धा रखने वालों से निवेदन करते हैं कि वे 'अनेकान्त' के ग्राहक स्वयं बने और दूसरों को बनावें।
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श्रीपुरपार्श्वनाथ मन्दिर के मूर्ति-यंत्र-लेख-संग्रह
पं० नेमचन्द पन्नूसा जन देउलगांव
ई.-स. १९६१ के पर्युषण पर्व के निमित्त मैं श्री वाल खटबड गोत्र संघवी पीलासाह॥ अंतरिक्ष पार्श्वनाथ शिरपूर में गया था। वहां मैं प्राचीन (५) दगडी पाषाण की पंचपरमेष्ठी-ऊंची १'धर्मशाला में ठहरता था और खाना श्री प्रानंदराव लेख नहीं, मगर शिल्प है-बीच में पद्मासनी वृषभ, कान मनाटकर मुकर्जी के यहां खाता था। उस धर्मशाला में से कांधे तक सुन्दर केशकलाप, भास्कंध कर्ण लीन छत्रयुक्त प्राज सुव्यवस्था के नाम पर श्वेताम्बरों ने लकड़ी भादि सुन्दर भामण्डल, इनके दोनों बाजू दो पपासनी मूर्ति तथा भर कर ताला लगा दिया है। न मालूम हमारा यह इनके नीचे दो कायोत्सर्ग स्थित सप्तफणी मूर्ति है। पापसी द्वेष हमें कहां तक ले जायगा। प्रस्तु । भासन के मध्य भाग में नंदी बताया है। तथा बाम वा
वैसा तो उसके पहले कई बार इस क्षेत्र के दर्शन मैंने चमर व दण्डधारी २ यक्ष खड़े हैं और दाहिने बाजू पाम्र किये थे, मगर खास मुक्काम नहीं होता था। इस (वक्त) वृक्ष के नीचे सिंह पर सवार होकर दाहिना पग नीचे काफी समय होने से मैंने वहां के मूर्ति तथा यंत्र लेख डाली हुई चक्रेश्वरी देवी है। उसके दाएं मांडी पर एक लिये थे, जो प्राज यथाक्रम पाठकों के सामने प्रगट कर मूल बैठा है तथा पास में एक मूल खड़ा है। इस मूर्तिरहा हूँ । इस कार्य में श्री पानंदराव जी का तथा पौली का काल अनिश्चित है। इसी तरह एक प्रति प्राचीन दिगम्बर जैन मन्दिर के पुजारी श्री मूर्तीधर जी और भग्न मूर्ति पं०१३' ऊँची वहां के कुएं से निकली है। जो अंतरिक्ष पार्श्वनाथ मन्दिर के दिगम्बर पुजारी लीलाधर हजार बारा सौ साल पुरानी है। जी इन्होंने सहायता दी, उसके लिए मैं उनका आभारी हूँ। इसके सिवाय १०-११ मूर्ति संवत १५४८ की जीव. श्रीपुर पाश्चमाप पौली मन्दिर में स्थित मतिलेख- राज पापडीवाल द्वारा प्रतिष्ठित हैं । और ३, ४ मूर्ति पर
(१) मूल नायक श्री पार्श्वनाथ-सफेद पाषाण, ऊँची लेख नहीं है। इस पौली मन्दिर के द्वार के ऊपर एक अंदाजन १'-संवत १५४० शके १४०५ सुभान सं शिला पर लेख अंकित है-"श्री दिगम्बर जैन मन्दिर (वत्सरे) मिती माघ सुद ७ चांदुरमध्ये कुंद (कुंद) मा श्री मन्नेमिचंद्राचार्य प्रतिष्ठितं" तथा इसी द्वार के छावनी (म्नाये) मू० (लसंधे) स० (गच्छे) ब. (गणे) भ० के पत्थर पर ३ पंक्ति का लेख प्रस्पष्ट हुआ है। जिसमें रत्नकीर्ति स्वामी जी हस्तेन पासो बाजी काले जात बद से पहली पंक्ति का में..."वसुंधरो मल्लपमः' तथा दूसरी में नोरे प्रतिष्ठा कारापितं ।
'अंतरिक्ष श्री पार्श्वनाथ' का उल्लेख है। (२) पार्श्वनाथ-काला पा०, ऊंची १०"-शके १५४५ इस लेख के बारे में ई. सन् १९०७ तथा १९११ के खरोहारी नाम संवत्सरे जेष्ठ मासे-शुक्ल पक्षे-तत्पश्री गजेटीयर में खुलासा पाया है कि यह मन्दिर दिगम्बर सोमसेन-भ० गुण (भद्र)...(सोम) सेन उपदेशात धाकड पाम्नायका है तथा यहां जगसिंह (जयसिंह) चालुक्य ज्ञातीय''देशभूषण"तत्पुत्री भवनासा मानिकमा। राजा का उल्लेख है। और यह भी स्पष्ट किया है भाज
(३) पीतली पद्मावती देवी-ऊंची ४"-शके जहाँ श्री अंतरिक्ष पार्श्वनाथ की प्रतिमा विराजमान है उसी ॥१७५६॥ मा० सु८ श्री० स० ब० ॥ कुंदकंदाचार्याम्नाये भोयरे में वह मूर्ति संवत् ५५५ में स्थापित की गई थी। देवेद्रकीरती उपदेशात् ॥
इस पौली मन्दिर पर तीनों बाजू तीन द्वार पर दो(४) फणारहित, दोनों भुजामों पर नागचिन्ह, काला दो नग्न मूर्ति खड़ी हैं तथा पपासनी ६-७ मूर्ति खुदी हुई पा०, ऊंची ७" ॥ शके १५३७ फागुन सुध १३-बघेर- है। अन्दर के एक स्तम्भ पर एक परम वीतरागी दिगंबर
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अनेकान्त
जैन मुनि की प्रतिमा कायोत्सर्ग उत्कीर्णित है, जिसके एक १८१३ प्रीतीकार जी। हाथ में कमंडलु तथा दूसरे हाथ में मोर पिच्छिका है। ५. पार्श्वनाथ-स० पाषाण, ६ फणा, ऊंची १३"गर्भागार में एक अपूर्व मान स्तंभ गढ़ा दिया है उस पर सं० १५४८ जीवराज पापडीवाल प्रतिष्ठितं । लिखा है-'ग्वाल गोत्री श्री रामसेनु (पदेशात्)।
इसी संवत् की महावीर स्वामी, शांतिनाथ पार्श्वनाथ, इस मन्दिर के बारे में पुरातत्त्व विभाग, अन्य पुरा- नेमिनाथ, मुनि सुव्रत जी, अरहनाथ, आदिनाथ तथा ३ और तत्त्वज्ञ तथा यादव माधव काले व य० खु० देशपांडे आदि पाव-नाथ की प्रतिमा, सभी सफेद पाषाण की हैं। इतिहासकार लिखते हैं कि यह मन्दिर दिगम्बर जैन संप्रदाय का ही है । लेकिन हमारे श्वेताम्बर भाई उसको
६. एक पादुका-के समोवार-शके १८०८ व्यय
नाम संवत्सरे सवत १९४२ तथा १९४३-मूल संघ ग्वेताम्बर संप्रदाय का होना और श्वेताम्बर राजा के
बालात्कार (गण) अंतरीक्ष स्वामी (इसके नीचे)-यती द्वारा निर्माण करना बताते हैं। तथा पूरी मालकी का दावा करते हैं।
श्री नेमसागर स्वामी। __ लेकिन हाल ही में कोर्ट से जो फैसला हुपा-उसमें
७. जोड पादुका-चंद्रनाथ स्वामी + पार्श्वनाथ
स्वामी संवत १९४८ गच्छ सरस्वती बलात्कार मिती बताया है कि 'यह मन्दिर दिगम्बर जैन संप्रदाय का है'
___ कारती सुदी १४। वहां पौली मन्दिर के सामने ४ दिगम्बर संत की समाधि
८. पार्श्वनाथ-सहस्रफणायुक्त-सफेद पाषाण ऊंची है । क्रम से उत्तर से दक्षिण (१) भ० श्री १०७ शांति
__ अं० ११" -संवत १ ३० श्री (पिंग) ल नाम संवत्सरे सेन महाराज । (२) पं० गोबिंदबापुजी। (३) भ० श्री.
शके १७६५ श्री मिती कारतिक शुद्ध १३ बालासा १०७ जिनसेन (कुबडे स्वामी)। (४) जितभवजी पंडित ,
कासार प्रतिमा कारापिती।। जी तथा और एक है।
६. नेमिनाथ-स० पाषाण ऊंची १०" - संवत श्री अंतरिक्ष पार्श्वनाथ के (प्रमुख) मन्दिर में दो
१९६४ माघ व ॥ ८ मंगल वासरे श्री वीरसेन स्वामीनां गर्भागार है । एक ऊपर का, कि जिसमें सम्पूर्ण मूर्ति तथा
(स्थाप) पिता। गुरुपीठ दिगम्बर आम्नाय की ही है। दूसरा उसके नीचे
१०. --(?)-काला पिंगट पाषाण ऊँची पं. भोयरे में, जहाँ श्री अंतरिक्ष भगवान विराजमान हैं, और
१०"-मध्य भाग में एक अर्ध पद्मासनी प्रतिमा है। अंतरिक्ष पार्श्वनाथ के नजदीक चार श्वेताम्बर पीतल की छोटी प्रतिमा तथा ३ चांदी के+१ पीतल के यंत्र है।
उसके नीचे सिंह लांछण है । तथा इस मूर्ति के प्राजू-बाजू
और ऊपर छोटी १३ मूर्ति है। वह सभी भी अर्ध पद्माबाकी पूरी वेदी दोनों बाजू दिगम्बर मूर्तियों से भरी है।
सनी हैं । मूर्तियां आकर्षक हैं। इसके जाडी के भाग पर ० पार्श्वनाथ गर्भगृह के वि० जैन मूर्तियों के लेख- एक प्रति प्राचीन लिपी में (अंदाजा ईस्वी की पहली सदी)
१. नंदीश्वर-पीतल की छोटी, ऊंची ३"-सरस्वती का एक लेख खुदा है इसके संबंध में अन्वेषण होना चाहिए। (गच्छे) बलात्कारगणे स० भ० नागषेण पीठ मन्त्र उप- इतनी प्राचीन मूर्ति मैने पूरे विदर्भ में नहीं पायी है। प्रतः देशात जिनेद्रसागर प्रणमति ।
प्राचीनत्व की दृष्टि से भी इसका विशेष महत्त्व है। इस २. नंदीश्वर-काला पाषाण, ऊंची २"-लेख नहीं। मूर्ति को अनंत की मूर्ति कहते हैं।
, , ३"-लेख नहीं, ११. आदिनाथ-स. पाषाण-शके १५६१ मगर मूर्तियों के नीचे चंद्र, बैल, शंख प्रादि चिह्न हैं। प्रमाथी नाम संवत्सरे फाल्गुन सुद द्वितीया गुरुवारे श्री
४. आदिनाथ-काला पाषाण, ऊची ७"--स्वस्ति मूलसंघे वपभसेनान्वये पुष्कर गच्छे सेनगण भट्टारक श्री श्री श्रीपुर सुभस्थाने श्री ब्रह्मभव कार्तिक शुद्ध १४ रोज गुणभद्र तत्प? भ. श्री सोमसेन उपदेशात् श्रीपुर ग्रामे मंगलवार नक्षत्रे भरणी रोहिनी॥
श्री अंतरिक्ष चैत्यालये.....शेठी भार्या कमलाई 'सेठी... तीर्थकर मूलसंघ बलात्कारगण संवत १९४८ शके ब्राह्म सेठी भार्या जीनाई तत्पुत्र सांतुसेठी, तत्पुत्र कमल
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भोपुर पाश्चनाप मूर्ति मंदिर यंत्र लेल संग्रह सेठी (स्थान) सेठी....."भार्या जिनाइ.....कर सेठी- इसी तरह अं. पाश्वनाथ के सीधे बाजू श्वे. पीतल रखल सेठी, भार्या मालाई ।
की ४ मूर्ति तथा पंचपरमेष्ठी के २ मोठे, १ छोटे चांदी (१२) पावती देवी-स. पाषाण उंची म. २- के यंत्र हैं, और प्रष्ट मंगल के एक चांदी के और पीतल स्वस्ती श्री सिरपुर ग्राम संवत् १९३० शके १७६५ मिती का यंत्र है। कातिक शदी १३ पार्श्वनाथ सामी सह हि छत्र प्रतिष्ठा ऊपर के गर्भगह में:झाली.
१. पीतल का यंत्र-शाके १७३७-चाकी लेख __इस पद्मावती देवी के मस्तक पर पार्श्व प्रभु की एक
नहीं। इस यंत्र में नन्दीश्वर द्वीप के द्वापंचाशत जिन एक मूर्ति हैं। तथा उसके दोनों बाज दो-दो ऐसी चार ।
बिम्बों को नमस्कार किया है। पद्मासनी दि. मूर्ति है। इन मूर्तियों के नीचे चमर और दण्डधारी एक यक्ष है, तथा उनके नीचे भी किसी वाहन
२. तावे का यंत्र- एक वर्तुल में-मों ह्रीं दर्श पर बैठी हुई एकेक व्यक्ति (यक्षिणी) हैं।
विशुध्याय नमः । मों ह्रीं सोडशभावनाय नमः । सोला १३. पार्श्वनाथ-काला पापाण उंची ७"-लेख नहीं।।
अंगाय नमः। (वर्तुल के बाह्म बाजू में) विवाह नाम
संवत्सरे पौष वदी पचमी शुक्रवारे प्रतिष्ठा सीरपुर १४. पार्श्वनाथ-काला पिंगट पाषाण-उंची ८"
अंतरीक्ष पार्श्वनाथ चैत्याल्ये दीक्षाग्रहण प्रतीसन पर) -अर्ध पद्मासन सप्तफणायुक्त, घ्यान मुद्रा (हाथ पावो । से उठाकर नाभी कमल तक तक उठाये) है' इसका और
३. पीतल का यंत्र- शाके १६०७ कोधनाम लेख नं०१० के अनन्त के मति का पाषाण एक ही है। संवत्सरे मार्गशीर्ष सुदी १० गुरे सेनगणे वपभसेनान्वये यह दोनों प्रतिमा जड़याने धातु मिश्रित मालूम पड़ती हैं। म. र
भ. सोमसेनदेवास्तत्पट्ट भ. जिनसेन गुरुपदेशात् जांबगाव बरी पजा समय भिवानीudaiy वास्तव्य धाकड (जातीय) जससा भार्या गौराई पुत्र के सामने ही रखी जाती हैं।
कोंडामंधवी भा. चिगाई भ्रान नेमासंगवी भा. सोयराई, १५. चांदी के सोलाकारण यंत्र-लेख नहीं-(यह भ्रात मथ
भ्रात मेथामा भार्या द्वारकाई एते प्रणमती। यंत्र सौ. जानकाबाई भ्र. मोती सा ब्राह्मण वाडीकर म० ४. दश. यंत्र तांबे का-सवत १८४५ शालि शाके अकोला इन्होंने यहां (थीपुर में) सोलाकारण ब्रतोद्यापन १७१० किलक नाम संवत फाल्गुण मासे शुक्ल ११ रवी करके दान दिया है।)
सेनगणे पुष्कर गच्छे सी मूलसघे श्री वृपभसेनान्वये श्री १६. रत्नत्रय यंत्र-ताबे का-सं. १६३६ वर्षे सिद्धमे (न)....."भट्टारक तुकसा प्रतीष्ठी ? बैशाख वदी ११ सोमे श्रीमूल संघे सरस्वती गच्छे ५. अप्टाग सम्यग्दर्शन पीतल का यत्र-शके बलात्कारगणे कुन्दकुन्दाम्नाये भ. श्री लक्ष्मीचन्द्र भ. ज्ञान- १६७६ मार्गशीर्ष सुदी १० दसमी मूलसघे वृभसेनगण भूपण भ. श्री प्रभाचन्द्र भ. श्री वादीचन्द्र उपदेशात्..... वृषभसेनगणान्वये भट्टारक श्री गुणभद्रदेवा: तत्पदे भ. प्रगामति ।
सोमसेन तत्पट्ट भ. श्री जिनसेनोपदेशात् जावग्राम धाकड १७. दशलक्षणी यंत्र २-पीतल के-माके १७२८ ।। ज्ञातो कोंडासा भार्या चिगाई एते--भार्या गौराई तयो माघ सुदी ३ श्री मूलमंघ भ. आगमिक श्री विशालकीर्ति पूत्राः त्रयः प्रथम कोंडामा भा. चिगाई तयो पुत्री प्रथम गुरुपदेशात् श्रीपुर मध्ये भगवंतजी मकराजी काले सइन रतनमा भार्या तुकाई द्वितीय लालमा, पुत्र: नेमामा भार्या बाल अनंतवतोद्यापन प्रणमति ।
सोहराई पुत्र. तु. मेयामा भार्या द्वारकाई एते नित्यं १६. दश. यंत्र-पीतल का-सं० १६०७ फाल्गुन प्रणमती। वदी १० मूल सरस्वती गच्छ (च्छे) बलात्कारगन (ण) ६. नन्दीश्वर पीतल की छोटी-भा विमल । कुन्दकुन्दाचार्यान्वये भ. धर्मचन्द्रोपदेशात सकाहनी (नित्य ७. पार्श्वनाथ पीतल की ऊंची ४"-संवन १७१० (प्रणमति)।
मूल० ब० वंगाप मुद ३।
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८. वृषभनाथ-स-पाषाण ऊंची १८"-श्री संवत संघे बलात्कारगणे भ० हेमकीर्ति उपदेशात् शीतल संघईन १९३८ वष नाम संवत्सरे मार्ग शीर्ष मास शुक्ल पक्ष रमा नर पंडित। ) यह दोनों मूर्ति पूजन तृतीयायां तिथी गुरुवासरे श्री मूलसंघे पुष्कर गच्छे सेनगणे
१६. चांदी की चंद्रप्रभ समयी नीचे जाती हैं। वृषभसेन गणधरान्वये भट्टारक श्री लक्ष्मीसेन देवास्तत्पढें
ऊंची १"-लेख नहीं। "
बाकी तिजोरी में रहती है। भ. श्री वीरसेन गुरूपदेशात् घाकड ज्ञातीय रिति
१७. पद्मावती देवी पीतल की ऊंची "-संवत प्रतिष्ठितम् ॥
१७३६..... पदवंदिते श्री मूलसंघ ब. गणे भ० देवेन्द्र१. अजितनाथ-स. पा.-लेख वरील प्रमाणे ।
कीर्ति तत्प? भ. श्रीभूषण गुरूपदेशात् इयं प्रतिष्ठिता १०. पाश्र्वनाथ स० पा० मूर्ति २ ,
चिमणाजी जैन श्रीपुर मध्ये संप्रणमेत [नित्यं प्रणमति]॥ ११. पार्श्वनाथ का० पा०- ,
१८. जलवट पीतल का-श्री अंतरिक्ष पार्श्वनाथ १२. नेमिनाथ-लाल पा. ऊंची २"-संवत १९१५ चैत्याले सीरपुर ६९ पदासाः भोसा चवरे सके १७८० श्री मूलसंधे सरस्वती गच्छे। (यह मूर्ति काष्ठ के समान मिती जे० सु०२। हलकी है।)
१९. घण्टा-पीतल का-कोठारी यंकोबा वलद १३. पार्श्वनाथ की ४, पद्मप्रभ, अरहनाथ, पपप्रभ कासीबा बोगार नीरमलकर सन १८९७ फसली मिती यह मूर्तियां सं० १५४८ की जीवराज पापडीवाल द्वारा फाल्गुन वद ७ । यह घण्टा द्वार के पास प्रांगन में है। प्रतिष्ठित हैं।
२०. नीचे के भोयरे में स्थित घण्टा-||श्री अंतरिक्ष १४. चौवीसी पीतल की ऊंची १०"-संवत १५२८ महाराज हारबाजी ढमाल ॥ सईतवाल कनेरगावकर संवत वर्ष माघ वदी ५ सोम० श्रीमूलसंघे श्री विद्यानन्द स्वामी १९३८ मिती माघ शुढे मामना (य) बालातक(का)र ॥ तत्प? श्रीमदमरकीति तथा सिंहकीर्ति...कालेजी इसके सिवाय नीचे के गर्भागार में बलात्कारगण,
-रतनत्रय व्रत।। वुलसानी अनन्तव्रत निमित्यर्थ कारा. ऊपर में सेनगण तथा बाहर चौक के पास दिगम्बर शास्त्र पितं ॥
भंडार और बलात्कारगण के भट्टारकों की गादी है। १५. चौबीसी पीतल की छोटी-ऊंची ४"-ऊपर उसके ऊपर उन-उन पीठों के भट्टारकों के फोटो हैं। कानडी लेख है। नीचे शके १६२६ माघ सुदी ३ श्री मूल
(क्रमशः)
आत्म-बोधक-पद
कविवर दौलतराम हमतो कबहूँ न हित उपजाये। सुकल-सुवेव-सुगुरु-सुसंगहित, कारन पाय गमाये ॥टेक॥ ज्यों शिशु नाचत माप न माचत, लखनहार बोराये। त्यों श्रुत बांचत मापन रावत, पौरन को समझाये ॥१॥ सुजस लाह की चाह न तज निज, प्रभुता ललि हरषाये। विषय तजेनरचे निजपद में, पर पद प्रपद लुभाये ॥२॥ पाप त्याग जिन-जाप न कोन्हों, सुमन-चाप तपताये । चेतन तन को कहत भिन्न पर, देह सनेही पाये ॥३॥ यह चिर भूल भई हमरी प्रब, कहा होत पछताये । बोल प्रजों भवभोग रचौ मत, यों गुरु बचन सुनाये ॥३॥
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सोलहवीं शताब्दी की दो प्रशस्तियाँ
परमानन्द शास्त्री इतिहास के अनुसन्धातानों को प्रशस्तियाँ उतनी हो कर्मठ कार्यकर्ता थे। वे मूलमंघान्तर्गत नन्दिसंघ के बलाउपयोगी हैं जितने कि शिलालेख और ताम्र-पत्रादि हैं। त्कार गण और सरस्वतीगच्छ के विद्वान थे। उनके अनेक कभी-कभी इनमें महत्व की सामग्री मिल जाती है, जो शिष्य थे। भट्टारक जिनचन्द्र द्वारा प्रतिष्ठित मूर्तियाँ किसी तथ्य के निर्णय में सहायक हो जाती है। पुरातन भारत के कोने कोने में पाई जाती हैं। संवत् १५४७, लिखित साहित्य में दो प्रकार की प्रशस्तियाँ उपलब्ध होती १५४८ की मुडासा नगर में प्रतिष्ठित सहस्रों मूर्तियां हैं। एक ग्रंथ प्रशस्तियां, जिनमें ग्रंथकार एवं ग्रंथ का रचना विविध स्थानों के मन्दिरों में प्रतिष्ठित हैं, सं० १५०४ काल और ग्रन्थ-निर्माण में प्रेरक श्रावक प्रादि का वर्णन और सं० १५०७ की प्रतिष्टित मूर्तियाँ भी मिलती हैं। निहित रहता है। दूसरी लिपि प्रशस्तियां हैं, जिन्हें कोई इनकी दो कृतियाँ उपलब्ध है। सिद्धान्तसार प्राकृत और दानी महानुभाव अपनी ओर से उन ग्रन्थों की प्रतिलिपि संस्कृत भाषा का चतुर्विशतिस्तव जो अनेकान्त वर्ष ११ कि. करवा कर साधुओं, भट्टारकों, प्राचार्यों या व्रती श्रावकों ३ में प्रकाशित हो चुका है। इनके समय के अथवा जिनकी तथा मन्दिर जी को भेंट करते हैं। इन दोनों प्रकार की लिपि प्रशस्तियों में इनका गुरुरूप से उल्लेख किया गया प्रशस्तियों से सामाजिक, धार्मिक और ऐतिहासिक इति- है उनकी शिष्य परम्परा के प्रसिद्ध विद्वान मेधावी थे, वृत्तों के साथ तात्कालिक रीति-रिवाजों पर भी प्रकाश जो संस्कृत भाषा के अच्छे विद्वान कवि थे। इनका वंश पडता है। यहाँ इस लेख द्वारा १६वीं शताब्दी की दो अग्रवाल था, पिता का नाम उद्धरण और माता का नाम संस्कृत पद्यबद्ध प्रशस्तियों का परिचय देना उपयुक्त भाषुहा था
भीषही था वे प्राप्त मागम के श्रद्धानी मौर जिन चरणों समझता हूँ। जो ऐतिहासिक और सामाजिक अनुसन्धान
के भ्रमर थे। पं० मेघावी अधिक समय तक हिसार में योग्य सामग्री प्रदान कर सकें।
रहे थे। नागौर में भी रहे, और वहां रहकर उन्होंने
सं० १५४१ में मेधावी संग्रह श्रावकाचार पूरा किया संवत १५२१ को प्रथम लिपि प्रशस्ति :
था। किन्तु उनका मुख्य स्थान हिसार था। हिसार की दिल्ली के नया मन्दिर धर्मपुरा के शास्त्र भण्डार में भट्टारकीय गद्दी उस समय सक्रिय थी, वहां ग्रंथ लेखन का श्वेताम्बरीय विद्वान सिद्धसेनगणी की तस्वार्थ भाष्य टीका कार्य भी सुचारु रूप से चलता था। की एक प्रति मौजूद है, जिस पर सं० १५२१ की उक्तप्रशस्ति १. हिसार दिल्ली से पश्चिम दिशा में बसा हुआ है । यह अंकित है । यद्यपि वह प्रति इतनी पुरानी नहीं है-लग
प्राचीन प्रसिद्ध नगर है। अग्रवालों का इस नगर के भग सौ वर्ष के भीतर की लिखी हुई जान पड़ती है, किन्तु
साथ खास सम्बन्ध रहा है, क्योंकि अग्रोहा हिसार के वह प्रति पुरानी होगी, जिस पर से इसकी प्रतिलिपि की पास ही है, जो अग्रवालो की उत्पत्ति का जनक गई है। उक्त प्रशस्ति भट्टारक जिनचन्द्र के प्रधान शिष्य तथा ऐतिहासिक स्थान है। हिसार किसी समय जैन पं० मेधावी द्वारा लिखी गई है।
सस्कृति का प्रमुख केन्द्र रहा है और आज भी वहां विक्रम की सोलहवीं शताब्दी में दिल्ली गद्दी के जैनियों की अच्छी बस्ती है। १५वी शताब्दी में तो भट्टारक जिनचन्द्र बड़े विद्वान और प्रभावशाली सन्त थे। वहां के मूवेदारों के अनेक जैन मंत्री रहे हैं। उस प्राकृत और संस्कृत भाषा पर उनका अच्छा अधिकार था। समय वहां जैनियों की अच्छी प्रतिष्ठा थी। पं. भट्टारक जिनचन्द्र उस समय के सामर्थ्यवान वक्ता और मेधावी के समय अनेक ग्रन्थ लिखे गये, उनमें
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अनेकान्त
प्रस्तुत प्रति लिपि प्रशस्ति बड़ी ही महत्व पूर्ण है। १५०८ से १५४६ तक राज्य किया है। उस समय सिंहयह उस समय लिखी गई जब योगिनीपुर (दिल्ली) में नन्दीपुरी में भगवान शान्तिनाथ का सुन्दर मन्दिर बना हुआ बहलोल लोदी का राज्य चल रहा था । बहलोल लोदी धा। जिसमें प्रतिदिन देवार्चन होता था, चैत्र, भाद्र और ने सं० १५०८ से ई० सं० १४५१ से १४८६ वि० सं० माघ महीने में तथा प्राष्टान्हिक पर्व में विधिवत अभि
षेक पूजा गीत नृत्यादिक मंगल कार्य सम्पन्न किये जाते अधिकांश की लिपि प्रशस्तियां उन्हीं के द्वारा पद्यों में - लिखी गई हैं। उनमें सं० १५१६, १५१८, १५१६, बादशाह तुगलक द्वारा सम्मानित हुए। और सहदेव के १५२१, १५२७, १५३३, १५४१ और सं० १५४२ पुत्र सहजपाल ने जिनेन्द्र मूर्ति की प्रतिष्ठा कराई थी, और में लिखी गई हैं। ये ग्रन्थ दात्री प्रशस्तियां बड़ी ही उक्त सहजपाल के पुत्र ने गिरनार की यात्रा का संघ महत्त्वपूर्ण हैं । जब सं० १५१६ में तिलोयपण्णेत्ती की चलाया था और उसका कुल भार स्वयं वहन किया था। ये प्रशस्ति लिखी गई उस समय हिसार का नवाव क्याम सब ऐतिहासिक उल्लेख हिसार के अग्रवालों के लिये खां का बेटा कद्दन खा था, जिसे कुतुबखान भी कहते महत्वपूर्ण हैं। हिसार के खेल्हा ब्रह्मचारी ने ग्वालियर के थे। सं० १५३३ मे प्राध्यात्म तरगिणा के हिसार में दुर्ग में चन्द्रप्रभ की विशाल मूर्ती का निर्माण कराया था। लिखते समय भी उक्त कुतुबखान का ही राज्य था। और इसी खेल्हा की प्रेरणा से ही साह तोसउ के लिये
संवत् १५१४ में हेम शब्दानुशासन की एक प्रति रइधू कवि ने सन्मति जिन चरित्र की रचना की थी। मेधावी को बहलोल लोदी के राज्यकाल में हिसार में भेट सम्वत् १५४६ में चैत वदी ११ शुक्रवार के दिन सुलतान दी गई है। इससे इतना और भी ज्ञात हो जाता हैं कि सिकन्दर के राज्यकाल में रइधू कवि का पार्श्व पुराण वहां भट्टारकीय गद्दी स० १५१४ से पूर्ववर्ती है। कितनी लिखा गया था, उस समय कोट में महावीर जिन चैत्यालय पूर्ववर्ती है यह अभी विचारणीय है। इस गद्दी का सम्बन्ध मौजूद था-श्री हिसारे फेगेजाकोटे श्रीमहावीर चैत्यालये भी दिल्ली से था, और नागौर, पामेर, ग्वालियर और सुलितानसाहि सिकन्दर राज्य प्रवर्तमाने श्री काष्ठासंधे पारा आदि स्थानों की गद्दियों का सम्बन्ध भी दिल्ली से माथुरान्वये पुष्करगणे"-कोट का वह मन्दिर जैनियों की ही रहा है । शिष्य परम्परा बढ़ जाने के कारण दिल्ली के उपासना का केन्द्र बना हुआ था। सम्वत् १५४२ मे अतिरिक्त स्थानों पर गद्दिया कायम की गई, और उनमें कातिक सुदि ५ गुरु दिने श्री वर्द्धमान चैत्यालये विराजप्रमुख शिष्यों को भट्टारक बनाकर गद्दीधारी बना दिया माने श्री हिसार पिरोजापत्तने सुलितान बहलोल साहि जाता था। ऐसा भी संकेत मिलता है, कि पहले प्राचार्य राज्य प्रवर्तमाने श्री मूलसंधे आदि दिया है। पद, फिर मडलाचार्य और बाद में भट्टारक पद पर सम्वत् १७०० में दिल्ली गद्दी के भट्टारक महेन्द्रसेन प्रतिष्टित किया जाना था।
के शिप्य भगवतीदास ने हिसार में कोट के उक्त महावीर महाकवि रइधु ने अपने मन्मति जिनचरित्र की प्रशस्ति चैत्यालय में 'मृगाक लेखा चरित' नामक ग्रन्थ की रचना मे हिसार को फिरोजशाहतुगलक द्वारा बसाया हुया की थी। वतलाया है। और उमे कोट खाई, वन और उपवन रइयो कोट हिसारे जिणहरि वरवीर वड्ढमाणस्स। आदि से शोभित प्रकट किया है
तत्त्व ठियो वयधारी जोईदासो वि बंभयारीयो। (जोयणिपुगउ पच्छिम दिसाहि, मुपसिद्ध णयर बहु सुय भागवई महुरीया वत्तिगवर वित्ति साहणा विणि ।
जुयाहि । मइ बिबुध सु गंगारामो तत्थ ठियो जिणहरे मइवंतो॥ णामें हिसार फिरोज अत्थि, काराविउ पेरोज साहिजि ससिलेहा सुय बंधु जे महिउ कठिण जो आसि ।
अत्थि। महरि भासउ देसकरि वणिक भगोतिदासि ।। हिसार के अग्रवालवंशी साहु नरपति के पुत्र, साहु इन सब उल्लेखों पर से हिसार में जैन धर्म के गौरव बील्हा, जो जैन धर्मी और पाप रहित थे, दिल्ली के की झलक अनायास मिल जाती है ।
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सोलहवीं शताब्दीको दो प्रशस्यिा
थे। और मुनिजन उपदेश देते थे। वहां पर मूलनंघान्त- लिखाकर प्रदान किया गया। इस तरह यह प्रशस्ति गंत नन्दिसंघ बलात्कारगण और सरस्वती गच्छ में दर्शन अनेक ज्ञातव्य बातों पर प्रकाश डालती है और देव पूजा ज्ञान चारित्र, तप और वीर्य से समन्वित प्रभाचन्द्र नाम के साथ ज्ञान दान की प्रवृत्ति को प्रकट करती है। के प्राचार्य थे। उनके पट्ट पर पद्यनन्दी हुए, जो प्राकृत प्रथम लिपि प्रशस्ति : संस्कृत भापा के विद्वान, मंत्र-तत्र शक्ति सम्पन्न थे । बडे
स्यावाद केतुर्जित मीनवे तुर्भवाविसे तज्जनि सौस्यहेतुः । प्रभाविक एवं तपस्वी थे। इनके पट्ट धर शुभचन्द्र हुए, और
जिनेन्द्रचन्द्रः प्रणमन्सुरेन्द्रः, कुर्यात्प्रभाव. प्रकट प्रभावः ।। शुभचन्द्र के पट्टधर जिनचन्द्र हुए, जिनका सक्षिप्त परिचय
यदा जना याति पारं संसार वारिधेः । पहले दिया जा चुका है। उक्त पद्मनन्दि के प्रभावशाली
अनन्त महिमाढ्यंतज्जन जयति शासनम् ॥२ शिप्यों में सकलकीर्ति भी हुए, जिन का समय सं०
जयन्तु गौतम स्वामि प्रमुख्या गणनायकाः । १४४३ से १४६६ है । अपने समय के तपस्वी और प्रभाव
सूरिणो जिनचन्द्राता श्रीमन्तः क्रमदेशकाः ॥३ माली विद्वान थे । इनके शिष्यो से राजस्थान मे अनेक
वर्षे चन्द्राक्षिबाणक १५२१ पूरणे विक्रमेनतः । गद्दियां कायम हुँई थी। सकलकीति के जयकीति नाम के
शुक्ने भाद्र पद मासे नवम्वा शनिवासरे ॥४ मुनि उत्पन्न हुए, जो उत्तम क्षमादि दश धर्मों के धारक
श्री जम्पपदेद्वीपे क्षेत्र भरतमंजके। थे और जिन्होंने दक्षिण तथा उत्तर देशों में जाकर जैन
कूरुजागलदेशोस्ति यो देशाः मुख-सम्पदा ॥५ धर्म का उद्योत किया था वे उसी सिहतरंगिणीपुरी मे
तत्रास्ति हस्तिना नामा नगरी मा गरीयसी। पाये, उनके उपदेश से भव्य जीवो ने सम्यक्त्व ग्रहण
शाति कुवर नीर्थशा: यत्रा सन्निद्र वदिता ॥६ किया और कुछ ने अणुव्रत महाव्रत ग्रहण किये। उनके
विद्यते तत्समीपस्था श्रीमती योगिनीपुरी। शिप्य कामजयी उग्र तपस्वी हरिभूपण हुए और हरि
यां पाति साहि श्री बहलोलामिधो नृपः ।।७ भूपण के भवभीरू शिष्य सहस्त्रकीति । जिसने भ्रातृ
यच्छाशनातपत्रेण भूपिता जनता हिता। पुत्रादि का मोह छोड़कर दीक्षा गहण की थी। वहा
सिंहनंद्यभिधानेन पुरी देव मनोहरी ॥ क्षात्यादि गुरण विशिष्ट गंधर्वश्री नामकी प्रायिका भी थी।
तत्र श्री शान्तिनाथस्य मन्दिरं भूति सुन्दरं । इसी माम्नाय मे खण्डेलवाल वंश और गोधा गोत्र रत्न काचन मत्स्तभ कलशध्वज गजित
यत्र श्रद्धा पगथाद्ध स्त्रिकाल देवताचंन । मे माहु कुमारपाल नाम के श्रेष्ठी हए, जो श्रावक के व्रतों का अनुष्ठान करते थे। उनके पुत्र पसिंह थे उनको
कुर्वन्ति सोन्सवं भक्त्या विधिवत्स्नानपूर्वक ॥१०
चत्रे भाद्रपदे माघेऽष्टान्हिक पर्वरिण । पत्नी का नाम मेहिनी था, उससे तीन पुत्र हुए थे, घेरू, मीहा और चाहड । इनमे घेरू तिलोयपण्णत्ती की
अभिषेकाश्च जायते यत्र मण्डल पूर्वकं ॥११ प्रशस्ति के अनुसार बहलोल लोदी से सम्मानित था।
गायंनि यत्र मन्नार्यो मागन्यानि जिनेशिना । (मानित: सुरितानेन बहलोलाभिधेन यः) । इस तरह
वादयंनि च वाद्यानि नृत्यंति पुरुपोत्तमा ॥१२ चतुर्विध संघसिंहनन्दिपुरी के सुशर्मनगर में जाकर और
सच्छाया पात्र संयुक्तं, मुमनोभिसमंचितं । उन्नत जिन मन्दिर में जहां सुसरिता बहती थी, और फलदायक मुच्चस्थ ना
फलदायक भुच्चस्थं नानाश्रवण मेवितं ॥१३ मनोहर वृक्ष समूहों से अलंकृत स्थान मे निमित मण्डप यदुद्दिश्य समागत्य चतुर्दिश्यो मनीश्वग.। शास्त्रोक्त विधि से पंचकल्याणक प्रतिष्ठा का कार्य विश्राम्यति च बंदित्वा महाममिवाध्वगाः ॥१४ (युग्म) सम्पन्न हुमा, और ऋपभादि तीर्थकरों की मूतियों की पूर्वजन्मज पापंधो गशि मंदग्ध भिक्षुकः । प्रतिष्ठा की गई, और नवनिर्मित मन्दिर में उन ऋषभादि भव्यरुक्षिक्रकप्पूर कृष्णागुरुज धूपजं ॥ १५ तीर्थकरों की मूर्तियां विराजमान की गई, और उन्ही की मण्डलीभूत मालोक्य धूमं खेमेद्य शंकिनः । वित्त सहायता से उक्त तत्त्वार्थाभिगम भाष्य टीका को प्रकाण्डे तांडवं टोपं यत्र तन्वंति वहिणः ॥१६
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१२
अनेकान्त
अब श्रीमूलसंधेस्मिन्नन्दिसंघेऽनघेऽजनि ।
तयो पुत्रोऽस्ति मेघावी नामा पंडितरः । बलात्कारगणस्तत्र गच्छस्सारस्वतोऽभवत् ॥१७
माप्तागमविचारशो जिनपादाब्ज षट् पदः॥३१ तत्राजनि प्रभाचन्द्रःसूरिचन्द्रो जितांगजः ।
तथान्योपि सुधीरस्ति गुणराजि विराजितः । दर्शनशानचारित्र तपोवीर्य समन्वितः ॥१८
गुणिराजो भिषानेन साधु छेतू शरीरजः ॥३४ श्रीमान् बभूव मार्तण्डस्तत्पट्टोदय भूधरे ।
एतदाम्नाय संजातो वंश: खंडेल संशकः । पपनन्दी दुषानन्दीतमश्च्छेदी मुनि प्रभुः ॥१६
गोत्रो गोधाभिधास्तत्र नानागोधाकरोजनि ॥५ तत्पट्टाम्बुधि सच्चन्दः शुभचन्द्रः सतां वरः ।
साधु कुमारपालाख्यः श्रावकः व्रतभावकः । पंचाक्ष वन दावाग्निः कषायाक्ष्माधराशनिः ॥२०
तत्सुतः पासिंहाहो भार्या मेहणि संज्ञकः ॥३६ तदीय पट्टाम्बर भानुमाली,
तयोस्तनूरुहास्सूति तयोः पूर्णेन्दु कीर्तयः । क्षमादि नानागुणरत्नशाली।
संघाधिपति धेरूक: सीहा चाहड मामकाः ॥३७ भटारक श्री जिनचन्द्र नामा,
अथ संघेश पनादि सिंहस्य तनु संभवः । सैद्धान्तिकानां भुवियोऽस्ति सीमा ॥२१
त्रिभिश्चतुविधादत्ति प्रदाने सुरभूरुहः ॥३८ स्याद्वादामृतपानतृप्तमनसो, यस्यातनोत्सर्वतः ।
चतुर्विधन संघेन श्रीमत्सिहनंदीपुरः । कीर्ति भूमितले शशांक धवला, नज्ञान दानात्सतः ॥२२
सुशर्म गरे गत्वा प्रोत्तुंग जिनमंदिरे ॥३६ चार्वाकादिमत प्रवादितिमिरोण्णांशोमुनीन्द्र प्रभोः
स्थित्वा सुरसरित्तीरे क्रीडितानेक किन्नरे । सूरि थी जिनचन्द्रकस्य जयतात्संघोहि तस्यानधः ।।२३
चंचच्चंपकचूतादि तरुराजि मनोहरे ॥४० बभूव मंडलाचार्या:सूरेः श्री पपनदिनः ॥२३
माहूय शिल्पेनस्तुष्टयां मंडपं विरचय्य च । शिष्यः सकलकीाख्यो लसत्कीतिर्महातपः ॥२४
स्तंभलोचनसतकुंभ मुक्तालंबू बभूषितं ॥४१ मुनि श्री जयकीाह्वस्तच्छिष्यो मुनि कुंजरः ।
अष्टोत्तरशतं नारी-रणन्नूपुर सुंदरी। उत्तमक्षांतिमुख्यानि धम्मागानि दधाति यः ॥२५
संतोष्य बहुदानेन जलयात्रां विधाय च ॥४२ दक्षिणाद्यउदगदेशे समागत्य मुनिप्रभुः । जैनमुद्योतियामास शासनं धर्मदेशनात् ।।२६
प्राचार्य जयकीाख्या देशदभ्यर्थ्य पंडितान् । पुर्या सिंहतरंगिण्यां यस्मिन् जाते मुनीश्वरे ।
पंडिताचार्य मेधावि गुणि राजादि संज्ञकान् ॥४३ भव्यैः सम्यक्क्मग्राहि कैश्चिच्चाणु महाव्रतम् ॥२७
पंच वर्णन चूर्णेन वेदी शोभां वितीर्य च। हरिभूषणसंज्ञोऽस्ति तस्य शिष्योस्ति मन्मथः ।
प्रहन्मंडलपूजादि यागमंडलपूजनम् ॥४४ एकांतराद्यजस्त्रं यः करोत्युग्रं तपो मुनिः ॥२८ गर्भादो पंचकल्याणं कारयित्वा जिनेशिनां । परः सहस्त्र कीाख्यस्तिच्छिष्यो भव-भीरुकः ।
श्री ऋषभाद्यभिधेयानां प्रतिष्ठा कारिता हिता ॥४५ दाक्षां जग्राह यस्यत्क्त्वा भ्रातृपुत्र परिग्रहम् ॥२६
जिनबिम्ब प्रतिष्ठोत्थ यशसा पूरितं जगत् । क्षांति का क्षांति शांत्यादि गुणरत्नखनिः सती। वाग्देविहा ससत्कारं शशांककर पांडुना ।।४६ गंधर्व श्री रितिख्याता शीलालंकार विग्रहा ॥३० तीर्थकृन्नाम गोत्रत्वं यत्फलालभ्यतेगिभिः । अणु वत्यस्ति मेघाख्यो जिनदिष्टार्य सद्रुचिः । नंदंतु कारकास्तस्याः सुखसंस्मृति वृद्धिभिः ।।४७ शंकाकांक्षादिनिर्मुक्त सम्यक्त्वादि गुणान्वितः ॥३१ तत्र श्री ज्ञानकल्याणे ज्ञानोद्धाराय कस्मरं । अग्रोत वंशजः साधुर्लवदेवाभिधानकः ।
शायेतोपाजितं भूयः सर्व संघोप्पमी मिलत् ।।४८ तत्त्वगुद्धरणः संज्ञा तत्पत्नी भीषुहीप्सुभिः ॥३२
प्रन्येयुः सोत्सवं तस्मैश्च सुशापुर संज्ञके ।
कारिते वृषभेशस्य मन्दिरे चोपमन्दिरे ॥४६ *बोधाल्यो इत्यपि पाठः दृश्यते, तिलोयणण्णत्ती प्रशस्त्यां। महंबिंबानि संस्थाप्य कारयित्वा मखंपुरः ।
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जैन तन्त्र साहित्य डा० कस्तूरचन्द कासलीवाल एम. ए. पी-एच. डी.
जैन प्राचार्यो मन्तों एवं विद्वानो ने प्रत्येक भारतीय एव पांच सौ महाविद्यामो व उनके साधनों की विधि भाषा में एवं साहित्य के प्रत्येक अग पर विशाल माहित्य और सिद्ध हुई विद्याप्रो के फल को बतलाया गया है। की मर्जना की है। भाषा विवाद एवं भाषा विशेष के मोह कल्पसूत्र में चौदह पूर्वो की महत्त्रता वर्णन के प्रसङ्ग में मे न पड कर उन्होने सभी भारतीय भापायो को अपनाया कहा गया है कि पूर्व प्रथम · रचे जाने के कारण महा और उनमे मभी विषयों पर माहित्य लिख कर माँ भारती प्रमाण होने के कारण नथा अनेक विद्या और मन्त्रों का की अपूर्व मेवा की। यद्यपि जैन आगमो की मुख्य भापा भन्डार होने के कारण प्वों का प्राधान्य है। इसी तरह प्राकृत रही है। लेकिन मंस्कृत में भी उन्होने कम साहित्य दिगम्बर सम्प्रदाय में उपलब्ध आगम ग्रन्थों के रचयिता नहीं लिखा । इसी तरह दक्षिण भारत की भाषाओं में भूनबलि और पुष्पदन्त के गुरू के सम्बन्ध में कथा प्रचलित भी उन्होंने अनगिनत अन्य लिख कर तमिल, कन्नड, है कि धरसेनाचार्य ने अपने दो शिष्यो की परीक्षा लेने के तेलग आदि भाषाम्रो के प्रति अपना अपूर्व प्रेम प्रदर्शित लिए दो विद्याएँ दी। एक मे अल्प अक्षर थे और दूसरी किया। काव्य, पुगण, कथा चरित्र, व्याकरण, आयुर्वेद, में अधिक अक्षर थे। विद्या साधन के विषय में प्राचार्य ज्योतिष, दर्शन, पूजा एवं स्तोत्र आदि विषयों के ममान श्री ने कहा कि इन विद्यानो की दो उपवास के साथ उन्होने तन्त्र साहित्य पर भी कितने ही गन्थ लिखे और मिद्धि कगे। अशुद्ध मन्त्र की साधना करने के कारण अपनी अमीमित तन्त्र जान एव साधना का परिचय दिया। अल्पाक्षर युक्त मन्त्र माधक के मामने कानी देवी आई तो प्रस्तुत निबन्ध में, मैं जैन तन्त्र माहि-य पर प्रकाश डाल अधिक अक्षर वाले माधक के सामने लम्बे दांत वाली देवी
पाई। देवताओं का रूप सुन्दर होना है। यह विकृत वेदों के ममान जैन धर्म में अगों की मान्यता है। प्राकृति त्रुटि को बतलाती है। इससे दोनों साधको को उनकी संख्या बारह होने में उन्हें द्वादशांग भी कहा जाता मन्त्र की अशुद्धता ज्ञात हुई। उन्होंने मन्त्र शास्त्र के अनुहै। अगो को आगम भी कहते है। ग्यारह अङ्ग और मार मन्त्री को शुद्ध कर माधना प्रारम्भ की तो देवतामो चौदह पूर्ने के ग्रहण गे द्वादमाग का ग्रहण होता है। जैन ने अपने दिव्य रूप में दर्शन दिये । उक्त कथा से यह प्रागम के एक ग्रन्थ विद्यानप्रवाद में मर्व प्रथम हमे तन्त्र जानकारी मिलती है कि जैन साहित्य में तन्त्र साहित्य को विद्या का उल्लेख मिलता है। उममें प्राट महानिमिनो काफी अच्छा स्थान प्राप्त था और मन्त्री की सिद्धि प्रादि मेनिरे नर जन्मागः फलितः सत्फलैरिमः ।।५० (युग्मम) इत्थं मप्तक्षेत्र्या बपते यो दानमात्मनोभक्या। तस्मात्दुर्गान्ममानीतात्पुस्तकाच्चकालिकात् ।
लभते तदनन्तगुणं परत्र सोत्रापि पूज्यः स्यात् ।।१४ माधुचारुभटाख्यस्य साहाय्येन च सन्मतः ॥५१ यो दनं जानदानं भवति हि म नरो निर्जरायां प्रपूज्यो । तेन वित्तेन साधन मेहाख्येन सुधीमता ।
भक्त्वा देवांगनाभि विषयमुग्यमनुप्राप्य मानुष्य जन्मा । पूर्या मिहतरंगिण्यां शास्त्रमेतत्सृलेखितं ॥५२
भक्त्वा राज्यस्य सौख्यं भवतनुग्वसुम्बा निस्पही कृत्यचित्तं,
लात्वा दीक्षां न बुध श्रुतमपि मकलं ज्ञान मन्त्यम् प्रशस्त । आत्मनः पठनार्थ व भव्यानां पठनाय च ।
ज्ञानदानात्भवेत् ज्ञानी मुग्वीम्याद भोजनादिह । श्रुतज्ञान प्रवृत्त्यं च ज्ञानावरणहानये ॥५३
निर्भयो भयतोजीवो नीरुमौपधि दानतः ।।
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अनेकान्त
में प्राचार्यों को विश्वास था। जैन पुराण कथा एवं हैं जिनमे विभिन्न प्रकार की रिद्धियां, वैभव एवं सुख चरित्र साहित्य का यदि हम अध्ययन करे तो पता चलेगा सम्पत्ति प्राप्त करने का उल्लेख किया गया है । कि इस प्रकार की कृतियों में मन्त्र एवं तन्त्र साहित्य को तन्त्र साहित्य सबसे अधिक संस्कृत भाषा में लिखा उचित स्थान मिला है। क्योंकि तत्कालीन समाज का हरा मिलता है। विद्यानुशासन सम्भवतः सबसे प्रसिद्ध जान की इस शाखा पर पूरा विश्वास था। इस विषय पर एवं विशाल ग्रन्थ है जो तन्त्र साहित्य पर प्राधारित है। सुन्दर प्रतिपादन, प्राचार्य एव विद्वानों द्वारा उस विषय जिनरत्नकोश में इस ग्रन्थ के कर्ता का नाम जिनसेन के को स्वीकार किये जाने आदि तत्कालीन समाज में शिष्य मल्लिषेण दिया हया है जो दसवीं शताब्दी के विद्वान उसकी लोक प्रियता की ओर संकेत करता है। कविवर थे। इसमें २४ अध्याय है तथा ५००० मन्त्रों का संग्रह सधारु ने प्रद्यम्न चरित्र में सोलह विद्याओं के नाम गिनाये हैं, है। लेकिन राजस्थान के जैन शास्त्र भण्डारों में एक और
और श्रीकृष्ण के पुत्र प्रद्युम्न को ये विद्याएँ सिद्ध थी, ऐसा विद्यानुशासन नाम के ग्रन्थ की उपलब्धि हुई है जिसकी उल्लेख किया है। इन विद्यानों के नाम इस प्रकार हैं- तीन हस्तलिखित प्रतियां जयपुर के दा ग्रन्थ-संग्रहालयो हृदयावलोकनी, मोहनी, जलशोखिनी, रत्नदर्शिनी, आकाश- में संग्रहीत हैं। जयपुर के दिगम्बर जैन मान्दर तेरह गामिनी वायुगामिनी, पातालगामिनी, शुभदशिनी, सुधा- पंथियों के शास्त्र भण्डार में इसकी अत्यधिक प्राचीन कारिणी, अग्निस्थम्भिणी, विद्यातारिणी, बहुरूपिणी, जल- प्रति सरक्षित है। जो संवत १४३२ की लिखी हुई हैं । इस बन्धिनी, गुटका, सिद्धिप्रकाशिका, एवं धाराबन्धिणी है।
ग्रन्थ के संकलनकर्ता हैमन्ति सागर है, जिन्होंने विभिन्न भट्टारक एवं यति, पांडे तथा उनकी शिष्य परम्परा ग्रन्थों के आधार पर इस ग्रन्थ का निर्माण किया है। की जो समाज ने अधिक मान्यता की उसका मूलकारण तथा मन्त्रों का संग्रह किया है। इस ग्रन्थ म भा २० उनकी ज्ञान शक्ति के अतिरिक्त उनकी तन्त्र एवं मन्त्र समुद्देश हैं और पूरा ग्रन्थ मन्त्रशास्त्र पर आधारित है।
। जब फिरोजशाह तुगलक ने भटारक प्रभानन्ट इमलिए जिनरलकोश में जिस विद्यानुशासन का उल्लेख का अध्यात्मिक चमत्कार देख कर उनका भव्य स्वागत है वह यही विद्यानुशासन है। और इसके संग्रहकर्ता किया तो इस स्वागत से बादशाह के एक विद्वान राघव मल्लिपेण के स्थान पर मतिमागर है। ग्रन्थ में मल्लिषेण को बड़ी ईर्ष्या हई । और उसने अपने मन्त्र बल से भटा- द्वारा रचित ज्वालामालिनी देवी का स्तोत्र है। रक की पालकी को कीलित कर दिया। लेकिन भट्रारक ग्रन्थ के प्रारम्भ में मतिसागर ने मन्त्र यन्त्र साहित्य प्रभाचन्द्र तन्त्र विद्या मे उस स अधिक बलशाली थे इसलिए से सम्बन्धित विद्यानुवाद नामक १०वें पूर्व का उल्लेख अपनी विद्या बल से पालकी को चला दिया। इसके अति- किया है । और लिखा है कि उसी विद्यानुवाद के अंगों रिक्त यमुना नदी में घड़ों की नाव से अधर ही अधर को लेकर पहिले कितने विद्वान ग्रंथों की रचना कर चुके राघव को पार कर दिया तथा अमावस्या को पणिमा हैं। इसलिए उन्हीं कृतियों के सारभाग को लेकर यह बना कर बादशाह को अत्यधिक प्रभावित किया। विद्यानुशासन नामक ग्रंथ की रचना कर रहा है। भट्टारकों के तन्त्र बल के सम्बन्ध में और भी कितनी ही तेषु विद्यानुवादाख्यो यः पूर्वो दशमो महान् । किंवदन्तियां सुनने को मिलती है। जैनों का णमोकार मंत्रयंत्रादि विषयः प्रथते विदुपां मतः ॥४॥ मन्त्र अनादि निधन मन्त्र माना गया है। और उसके तस्यांशा एव कतिचित् पूर्वाचार्यरनेकधा । स्मरण मात्र से रोगों और व्याधियो का शान्त होना स्वी- स्वा स्वां कृति समालंव्य कृताः परहितैषिभि ॥१०॥ कार किया गया है। भक्तामरस्तोत्र जनों का सबसे उद्धृत्य विप्रकीर्णभ्यः तेभ्यः सारं विरच्यते । अधिक लोकप्रिय स्तोत्र है जो अधिकांश जैनों को कण्ठस्थ एद युगीनानुद्दिश्य मंदान् विद्यानुशासनं ॥१॥ है और जिसका प्रतिदिन पाठ करने की परम्परा है । इस ग्रन्थकार ने प्रारम्भ में विद्यानुशासन में वणित विषय स्तोत्र में ४८ छन्द है और सभी छन्दों पर एक-एक यन्त्र का निम्न प्रकार उल्लेख किया है।
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बन तन्त्र साहित्य
गर्भोत्पत्ति विधानं बालचिकित्साग्रहोऽथसंग्रहणं । मकार: सर्वकर्म विकल्पेन सर्वसिद्धिः। विषहरणं फणि तंत्र मड 'न्यायाद्यपनपो रूजा समन ।।१३॥ यकार: सर्वाभिचार कर्म विकल्पेनाकृष्टि ॥ कृतरुग्नधोनधः प्रति विधानमूच्चाटनं च विद्वेषः । ह्री ऊ ही मृत्युनाशन ह्रीं प्रां ह्रीं पाकर्षणं । स्तभन: शांतिः पुष्टिवश्यंस्त्र्याकर्षण नर्म्य ॥१४॥ ह्री इं ह्रीं पुष्टिकर ही ई ह्रीं आकर्षणं । ___ जैन धर्म में पद्मावती, अम्बिका, चक्रेश्वरी, ज्वाला
ह्रीं उ ह्रीं बलकर ही ऊं ह्रीं उच्चाटनं ॥यादि।।
तीसरे परिच्छेद में मन्त्र साधन की विधि दी हई है। मालिनी, सच्चियमाता, सरस्वती एवं कुरूकुल्ला आदि आराध्यदेविया है । जो जिनशासन की देवियाँ कहलाती
मन्त्र साधक की क्रिया के प्रारम्भ में स्नान करके शुद्ध
वस्त्र पहन कर, मौन रह कर तथा गुरू वन्दना करके है। विद्यानुशासन में ज्वालामालिनी पद्मावती, अम्बिका
मन्त्र साधन करना चाहिए। मन्त्र साधन जिन मन्दिर में देवियों के अतिरिक्त पाम्र कुष्माड देवी का स्तोत्र एवं
अथवा नदी के किनारे, पर्वत पर, वन में अथवा शून्य मन्त्र आदि है । अम्बिका देवी के लिए ग्रंथकार ने निम्न
भवन में करना चाहिए। पद्य लिखा है।
शिष्यो मत्र क्रियारम्भे स्नानः शुद्धांवर दधत् । पुत्ररत्नवती पुत्रवर्द्धनी पुत्ररक्षिणी।
ममाहितमना मौनी प्रयुक्तगुरु वंदन ॥१॥ जैनाधिदेवता जैनमाता शामनदेवता ।
जिनालये सरित्तीरे पुलिनेपर्वने वने। अथ में २४ समुद्देश है जैमा कि पहिले कहा जा भवनेऽन्यत्र वा दशे शुभे जतु विज्जिते ।।२।। चका है। प्रारम्भ मे ग्रथकार ने परिच्छेदो की सज्ञा दी है विद्यानशासन का चतुर्थ परिच्छेद सबसे बड़ा है और तथा फिर उसे समुद्देश के नाम से सम्बोधित किया गया इसमे सकलीकरण, रक्षा, स्तम्भ, निविष, आवेश, परविद्या है। प्रथम परिच्छेद में विषय प्रतिपादन के अतिरिक्त छेदन, शाकिनी निग्रह, विषहर, स्त्री पाकर्षण, राजमन्त्र साधन का कौन सा व्यक्ति अधिकारी होता है। पूरुपादिवशीकरण, शिरोरोग, कर्णरोग, खामीनासक, इसका उल्लेख किया है मन्त्र साधक को निर्भयी, निगभि- कवित्व पडित बद्धिकारक आदि के कितने ही मन्त्र दिये मानी, धैर्यवान, अल्पाहारी, स्वच्छ हृदयवान, पापभीरू, हए है। विपहरमय इस प्रकार है - दढवत्ति, धर्म एवं दान में तत्पर, मत्राराधन में चतुर, ॐ नमो भगवते पार्श्वनाथाय धरणेंद्र पद्मावती महिमेधावी, प्रशस्तचित्त, वाग्पटु प्रादि लक्षणों से युक्त होना ताय फणामणिमंडिलाय कमठविध्वमनाय सर्वग्रहोच्चाटनाय चाहिए।
मर्व विषहगय मर्व शातिकाति च कुरु: कुरु. ऊ ह्रा ह्रीं निर्भयो निर्मदो मंत्रजपहोमरतः सदा ।
ह. ह्रौं ह्र. असिग्राउमा मय मवंशांति कुर २ स्वधा धीर: परमिताहार: कषायरहितः मुधी ॥७॥
स्वाहा। मदृष्टिविगतालस्यः पापभीरुदृढव्रतः ।
इसी परिच्छेद में ही कार, ज्वालामालिनी, पद्मावती, शीलेन बास सयुक्त: धर्मदानादि तत्परः ।।८।।
स्जीवशीकरण, कर्णपिशाचिनी मन्त्र, शाकिनीभयोपशाति,
पार्श्वनाथ मन्त्र, गणधरवलय, कलिकुण्डकल्प, आदि के मंत्राराधनशगे धर्मदयास्वगुरुविनय शीलयुतः ।
मण्डल दिये हए है जो बहुत ही सुन्दर लिखे हुए है तथा मेधावीगतनिद्रः प्रशस्तचित्तोभिमानरतः ॥६॥
मन्त्र साधन में जिनका प्रयोग किया जाता है। देवजिनसमयभक्तः सविकल्पः सत्य वाग्विदग्धश्च ।
पांचवे समय में मन्त्र साधनविधान का वर्णन वाक्पटुरगगत शकः शुचिगमना विगतकायः ॥१०॥ किया गया है। छठे और मातवं परिच्छेद में गर्भधारण
दूसरे परिच्छेद में अक्षरों की शक्ति का दर्णन किया से लेकर जन्म तक और उमके पश्चात् भी बालक की गया है। बीजाक्षरों में कितना सामथ्र्य है इसका अथ कर्ता रक्षा के मन्त्र दिये हये हैं । गर्भरक्षामन्त्र देखिए :ने विस्तृत वर्णन किया है।
ॐ नमो भगवति गर्भावधारिणी गर्भविधृते इमं रक्ष पफकार । शांतिपौष्टिकरं वभकारस्तो भस्तंभन करोति । रक्ष स्वाहा ।
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अनेकान्त
बाल चिकित्सा का भी अच्छा वर्णन है। तथा अन्य द्वारा एक ही मन्त्र की सिद्धि करने से विभिन्न संकटों का मायुर्वेदिक ग्रंथों से बालचिकित्सा वाले पद्या का सभी नाश होता है ऐसा वर्णन मिलता है। अन्त में त्रिपुरसंकलन किया गया है। पाठवे अध्याय में विभिन्न ग्रहो के सुन्दरी यत्र दिया है जिसकी सिद्धि का फल निम्न प्रकार निग्रह के विधान एव मन्त्र दिए हुए है। १०वे से लकर दिया हुआ है। १२वे समुद्देश तक विभिन्न जीव जन्तुप्रो के विष दूर इदं त्रिपुरं सुन्दरी यन्त्र यस्य कस्यापि दीयते । करने के मन्त्रो का समावेश है। इसी तरह सोलहव समु- तस्य नाम लिखित्वा कंठे वा सिरसि अक्वा वाही देश तक विभिन्न रोगो का उपचार किया हमा है।
__ वा धारयेत् सर्वेषा प्रियो भवति ।
.. ग्रंथ के शेष अध्यायो में उच्चाटन, विद्वेषण समवन, शान्तिविधान, पुष्टिविधान, वश्यविधान, प्राकपणविधान
दुर्भगा शुभगा भवति भर्तरि वशमानयतिराज्यवश्य
भवतिषट्वार मंत्र लिखनीयं यंत्रमध्ये । त्रिपुरसुन्दरा यत्र एवं नर्म विधान आदि का विस्तृत वर्णन है। कवि न अन्त में प्रय समाप्ति इस प्रकार की है।
देवानामपि दुर्लभं भवति । तावत्स रचि शास्त्ररत्न ममलं स्थेयादिद मन्त्रिणां। मन्त्र इस प्रकार है:गंभीरे मतिसागरे पृथुतरे विद्यासरित्संमतम् ।।१३८॥ एक्ली हौ त्रिपुरमख्य नमः ।
भैरव पद्मावती कल्प:-यह मल्लिषेण मुरी की मोकार मन्त्र के विभिन्न फल इस प्रकार दिये कृति है । इममें १० अध्याय है और उनमें कवि के शब्दो हुए है। में निम्न विषयों का वर्णन है।
ऊँ नमो अरहंताणं धरणु धणु महाधगु स्वाहा एनं मम आदी साधकलक्षणं सुसकल देव्यच्चनामा कृत । स्वललाटे ध्यायेत् चौरस्तंभो भवति । तथैनं यंत्र खटिपश्चात् द्वादश पंचभेदकयन स्तभाऽनाकर्षणम् ।।
काया लिखित्वा वामहस्तेन भत्कामुष्टिर्वध्यते वामहस्ते यन्त्रं वश्यकरं नि मेनमपरं वश्यौवधं गारुड ।
धनुरस्तीति ध्येय चौरा मंत्रिणं न पश्यति स तु चौरान् वक्ष्येऽहं क्रमशो यया निगदिता' कल्पेऽधिकरास्तथा ॥५। पश्यति ।
देवी पदमावती का जैन तन्त्र मन्त्र माहित्य में विशेष बर्द्धमान विधाकल्प :-यह सिंह तिलक सूरी की स्थान है । वह चार हायों बाली देवी है। इन चारो रचना है यद्यपि श्री सूरी ने कितने ही अध्याय लिखे है हायों में से एक हाथ वरद मुद्रा में उठा रहता है। लेकिन जयपुर के महावीर भवन में संग्रहीत प्रति मे तीन
और दूसरे में अकुश रहता है। वायु और एक हाथ में ही अधिकार है। यह प्रति सवत् १४८६ की अणिहल्लदिव्य फल और दूसरे में पाशय रहता है। पद्मावती देवी पाटण प्रदेश में श्रीपत्तन में लिखी गई थी कल्प में विभिन्न के तीन नेत्र होते है और तीसरा नेत्र क्रोध के समय ही प्रकार के मन्त्र दिये हुए हैं और उनके जाप करने की खुलता है। मल्लिपण ने प्रारम्भ में देवी का निम्न प्रकार विधि एवं उनका फल भी दिया हुआ है। कुछ उदाहरण स्तवन किया है।
देखिये :पाशफल वग्दगजवशकरण करापमविष्टरापद्या ।
(१) ॐ ह्रीं बाहुबलि महाबाहुबलि प्रचण्डबाहुबलि मा मा रक्षतु देवी त्रिलोचनारक्तपुष्पाभा ॥३॥
शुभाशुभं कथय कयय स्वाहा । पिंड शुद्धि उपवास कीजइ प्रस्तुत कल में पद्मावती देवी को सिद्ध करने के रात्रिह वार १०८ कीजई स्मरणस्वप्ने शुभाशुभं कथयति लिए विविध मन्त्रों की रचना की है।
सही भोगम्मु जंपीई। ॐ ह्रीं ह्रों कनों पद्मकरिनि नमः ।
(२) ऊँ नमो श्रीपाश्वनाथाय कामरूपिणी कामाक्षीको लाल कमल अथवा लाल केसर के फूलों पर तीन देवी जनरंजनी राजाप्रजा प्रमुइ वशमानय २ स्वाहा । लाख बार जपने से देवी मिद्ध हो जाती हैं। इसमें ॐ ह्रीं अनेक बार १०८ कर्माफलादि अभिमंध्य पश्य दीपते सवप्रादि के विभिन्न मन्त्र दिये हर हैं और विभिन्न प्रगोगों शीभवति ।
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श्री छोटेलाल जैन अभिनन्दन ग्रन्थ
सम्पादक मण्डल
डा.कालीदास नाग, पण्डित चैनसुवदास न्यायतीर्थ
श्रो छोटेलाल जैन अभिनन्दन ग्रन्थ पं० कैलापाचन्द्र शास्त्री, डा. कस्तूरचन्द कासनीवाल,
विषय-सूची श्री टी. एन. गमचन्द्रन, श्री अगरचन्द नाहटा, डा० रात्यरंजन बनर्जी।
१आपको यह जान कर प्रसन्नता होगी कि सुप्रसिद्ध १. जन्म, परिवार, मातापिता, शिक्षा, विवाह एवं ममा नगेवी, इतिहास एव पुरातत्त्ववेता श्री छोटेलाल जी व्यसन । जैन कलकला के ७०वे वर्ष की ममाप्ति पर उनका सार्व- २. धर्मपत्नी का संक्षिप्त परिचय (सचित्र) । जनिक अभिनन्दन करी का निश्चय किया गया है। इस ३. बाबू सा० का व्यक्तित्व एवं कृतित्व । अवगर पर उन्हे एक अभिनन्दन ग्रन्थ भी भेंट किया ४. समाज सेवा के कुछ अनुभव । जावेगा।
५. सामाजिक संस्थानों के प्रमुख कार्यकर्ता के रूप अभिनन्दन ग्रन्थ में देश के प्रख्यात लेखकों, विचारकों में उनका जीवन । एवम् विद्वानों के गवेषणापूर्ण लेख होंगे। ग्रन्थ हिन्दी, ६. समाज की सस्थाओं के विकास में योगदान । अग्रेजी एन बगला तीनो भाषाम्रो में प्रकाशित होगा। ७. बाबू मा० द्वारा मस्थापित एव संरक्षित सस्थान । कृपया पाप अपना मौनिक लेख किसी एक भाषा में सूची ८. वीर मेवामन्दिर के विकास में उनका योगदान । के विषय या अन्य विषय पर ३१ मई ६५ तक भेज कर ९. भारत भ्रमण । अनुगहीन करे। अभिनन्दन ग्रन्थ में लेख प्रकाशित होने २. साहित्य एवं पुरातत्त्य सेवा : पर पाको लख की २० प्रतियां अतिरिका भेज दी १. बाबू सा० की कृतियो का मूल्यांकन । जावेगी।
२. हृदय से सच्चे साहित्य सेवी । कृपया आप जिम विषय को चुने उमकी स्वीकृति ३. प्रकाशित एवं अप्रकाशित साहित्य । शीघ्र ही भिजवाने का कष्ट करे।
४. पुरातत्व की खोज मे। (३) ऊँ ह्री श्री क्लीं ब्लू ह्रीं ह्न.. कलिकुडास्वामिने हिन्दी अनुवाद सहित एक प्रति जयपुर के दिगम्बर अमति चक्रे जय विजये अर्थ सिद्धि कुरु ३ स्वाहा। नित्य जैन मन्दिर तेरहपथी के शास्त्र भण्डार में संग्रहीत है । प्रभात १०८ स्मरण लाभे।
भट्टारक सिंहनन्दी कृत णमोकारकल्प की भी एक प्रति (४) ॐ नमो भगवते श्री पार्श्वनाथाय क्षुद्रोपद्रव उसी भण्डार में संग्रहीत है। इसकी रचना मंवत् १६६७ नाशाय नागराजोपशमनाय क्षेत्रपालाधिष्टिताय ऊँ ह्रा ह्री में की गई थी। घण्टाकरणकल्प, घण्टाकर्णमन्त्र, चिन्ताह्य ह्रः सर्वकल्याण दुष्ट हृदयपाषाण जीवरक्षाकारको मणियंत्र, चौमठयोगिनी कल्प, पद्मावतीकल्प, विजययत्रदारिद्रद्राविको प्राभाक भवसि स्वाहा । अनेन मंत्रण विधान प्रादि पचासों रचनाएं है जो जैन भण्डारी में वांछितफलं लभ्यते पाखडभोजन वस्त्र रुप्य सौभाग्य संपद संग्रहीत है जिनके अध्ययन की प्रत्यावश्यकता है। श्री पारिकति ।
उक्त प्रथों के अतिरिक्त इन्द्रनंदियोगीन्द्र कृत ज्वाला- १. संस्कृत विश्वविद्याल वाराणसी की ओर से आयोजित मालिनी कल्प भी इस विषय का अच्छा ग्रंथ है इसको तन्त्र सम्मेलन में पढ़े गये निबन्ध का एक भाग ।
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अनेकान्त
३-संस्मरण:
३. प्राकृत के प्रमुख महाकाव्य । ४-शुभकामनाएं:
४. जैनेतर विद्वानों द्वारा प्राकृत भाषा की सेवा ।
५. आ० कुन्दकुन्द एवं उनकी प्राकृत रचनायें। १. जनसमाज : एक परिचय ।
६. प्राचार्य नेमिचन्द्र व्यक्तित्व एवं कृतित्व । २. भारतीय समाज और जैनसमाज ।
७. प्राकृत का धर्मकालीन साहित्य । ३. भारतीय समाज गत ५० वर्षों में ।
२-संस्कृत साहित्य : ४. जैन समाज का स्वातन्त्र्य संग्राम में योगदान ।
१. संस्कृत भाषा के जैन महाकाव्य । ५. उत्तरी भारत की प्रमुख जैन शिक्षण संस्थाएँ ।
२. संस्कृत भाषा के जैन पुराण साहित्य । ६. जनी के विविध सामाजिक आन्दोलन ।
३. संस्कृत भाषा के जैन काव्य साहित्य । ७. बंगाल में जैन धर्म एवं उसका विकास ।
४. संस्कृत भाषा के जैन अमर कवि । ८. कलकत्ता जैनसमाज ।
५. जैन स्तोत्र साहित्य । ६. कलकत्ता नगर की जैन संस्थायें ।
६ प्राचार्य सोमदेव का व्यक्तित्व एवं कृतित्व । १०. कलकत्ते का कार्तिक महोत्सव एक सास्कृतिक
७. संस्कृत माहित्य के विकास में जैनों का योगदान । पर्व। ११. नगर के दर्शनीय मन्दिर ।
३-अपभ्रंश साहित्य : १२. राजस्थान प्रवासियों का बंगाल प्रदेश के विकास १. अपभ्रंश के प्रमुग्व प्रवक्ता । में योगदान ।
२. हिन्दी के विकास में अपभ्रश का योगदान । १३. महात्मा गांधी और जैन-धर्म।
३. राजस्थान में अपभ्रश ग्रन्थों की खोज । १४. अग्रवाल जैनों द्वारा साहित्य सेवा में योग । ४. अपभ्र श के सूर्य और चन्द्रमा स्वयभू और
१५. २०वीं शताब्दी के कुछ प्रमुख जैन सन्त, प्राचार्य पुष्पदन्त । सूर्यसागर जी, वर्णी जी, ब्रह्मचारी शीतलप्रसाद आदि। ५. अपभ्रंश साहित्य में खोज की आवश्यकता ।
१६. वर्तमान के प्रतिनिधि जैन विद्वान प्रमी जी, ६. अपभ्रंश का प्रकाशित साहित्य । उपाध्याय जी, सी० आर० जैन, हीरालालजी, जिनविजय ७. अपभ्रंश के प्रमुख महाकाव्य । जी, सुखलालजी, कैलाशचन्दजी आदि ।
४-हिन्दी साहित्य : १७. देश के प्रौद्योगीकरण में जैन उद्योगपतियों का
१. हिन्दी के प्रादिकाल के जैन प्रबन्ध काव्य । स्थान । १५. भारत के प्रमुख जैन उद्योग पति ।
२. हिन्दी जैन साहित्य के प्रमुख कवि ।
३. हिन्दी के प्रचार एवं प्रसार में जैन विद्वानों का १६. भारत की प्रमुख जैन बस्तियां ।
योगदान । २०. भारत के प्रमुख जैन तीर्थ एवं उनका परिचय। २१. शिल्प एवं वस्तुकला मे जैनों का योगदान।
४. गजस्थान के जैन ग्रन्थ संग्रहालयो में उपलब्ध
हिन्दी साहित्य । खण्डग
५. हिन्दी की अज्ञात जैन रचनाएँ। 'साहित्य और दर्शन'-साहित्य
६. हिन्दी साहित्य की सुरक्षा मे जैनों का योगदान । १-प्राकृत साहित्य :
७. हिन्दी के वर्तमान जैन लेखक । १. प्राकृत साहित्य के विकास में जैन आचार्यों का ८. जैनों का हिन्दी गद्य साहित्य । योगदान।
५-अन्य साहित्य : २. प्राकृत भाषा में विविध जैनागम ।
१. जैन गुजराती साहित्य :
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अहिंसा का वैज्ञानिक प्रस्थान
श्री काका कालेलकर
जैन-दृष्टि की जीवन-साधना में, अहिंसा का विचार उत्पत्ति हो और फिर उनको मरना पड़े। अगर हमने काफी सूक्ष्मता तक पहुँचा है। उसमें अहिंसा का एक आस-पास की जमीन अविवेक से गीली कर दी, कीचड़ पहलू है-जीवों की करुणा और दूसरा है, म्वयं अहिंमा इकट्ठा होने दिया, तो वहाँ कीट-सृष्टि पैदा होने के बाद से बचने की उत्कट भावना । दोनों में फर्क है । करुणा में उसे मरना ही है । वह सारा पाप हमारे सिर पर रहेगा। प्राणों के दुःख-निवारण करने की शुभभावना होती है। इसलिए हमारी मोर से जीवोत्पत्ति को प्रोत्साहन न मिले, प्राणों का दुःख दूर हो, वे सुखी रहें, उनके जीवनानुभव उतना तो हमें देखना ही चाहिए। यह भी हिसा की में बाधा न पडं । जिस इच्छा के कारण मनुष्य जीवों के साधना है। प्रति अपना प्रेम बढाता है, सहानूभुति बढ़ाता है और इस दृष्टि से ब्रह्मचर्य का पालन भी अहिंसा की जितनी हो सके सेवा करने दौडता है।
साधना ही होगी । जीव को पैदा नहीं होने दिया, तो इसके विपरीत दूसरी दृष्टि वाला कहलाता है, कि उसे पैदा करके मरणाधीन बनाने के पाप से हम बच सृष्टि मे असंख प्राणी पैदा होते है, जीते हैं, मरते है, एक- जायेगे। दूसरे को मारते हैं, अपने को बचाने की कोशिश करते करुणा इससे कुछ अधिक बढ़ती है। उसमें कुछ है। यह तो सब दुनियाँ में चलेगा ही। हर एक प्राणी प्रत्यक्ष सेवा करने की बात आती है। प्राणियों को दुःख अपने-अपने कर्म के अनुसार सुख-दु.ख का अनुभव करेगा। से बचाना, उनके भले के लिए स्वयं कष्ट उठाना, त्याग हम कितने प्राणियों को दुख से बचा सकते है ? दु.ख से करना, समय का पालन करना । यह सब क्रियात्मक बातें बचाने का ठेका लेना या पेशा बनाना अहंकार का ही एक अहिंसा में आ जाती है। रूप है । इस तरह का ऐश्वर्य कुदरत ने या भगवान ने आजकल जैन समाज में चिन्ता नहीं चलती कि हम मनुष्य को दिया नही है। मनुष्य स्वयं अपने को हिंसा से हिंसा के दोष से कैसे बचे । जो कुछ जैनों के लिए प्राचार बचावे । न किसी प्राणी को मारे, मरवावे और न मारने बताया गया है उसका पालन करके लोग सन्तोष मानते में अनुमोदन देवे । अपने पापको हिंसा के पाप से बचाना हैं। धर्म-बुद्धि जाग्रत है । लेकिन पार्मिक पुरुषार्थ कम है। यही है-अहिंसा।
तो साधक अणुव्रत का पालन करेंगे। इस दूसरी दृष्टि में यह भी विचार आ जाता है, कि अब जिन लोगों ने जीव दया के हिमक आधार का हम ऐसा कोई काम न करें कि जिसके द्वारा जीवो की विस्तार किया, उन लोगों ने अपने जमाने के ज्ञान के २. मराठी भाषा का जैन साहित्य ।
४. जैन दर्शन का भारतीय दर्शनों में स्थान । ३. दक्षिण भारतीय भाषामों का जनसाहित्य ।
५. जैन दर्शन में ईश्वर की परिकल्पना। ६-दर्शन :
लेखादि भेजने का पता१. जनदर्शन के सर्वव्यापी सिद्धांत ।
डा. कस्तूरचन्द कासलीवाल २. जैन दर्शन के प्रमुख प्रवक्ता समन्तभद्र प्रकलङ्क,
महावीर भवन, विद्यानन्दि, हरिभद्र सूरि आदि ।
मानसिंह हाईवे, सवाई ३. जैन दर्शन मे अध्यात्मवाद ।
जयपुर।
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है।
प्रनमार बताया कि पानी गरम करके एक दम ठंडा करके उत्कृष्ट प्रादर्श उपस्थित किया, उमी के कारण उन्हें पीना चाहिए। माल, बैगन जैसे पदार्थ नहीं खाने उच्चतम पद व प्रनिष्ठा प्राप्त हई यौर जन मामान्य के चाहियें। क्योंकि हर एक बीज के साथ पर हर एक अकुर लिए वे उपास्य बन गए। इस माधना को ब्रह्मचर्य नाम
माथ जीवोत्पत्ति की सम्भावना होती है। एक पालू दिया गया और प्रणवनों तथा महावतों में उसका भी खाने से जितने अंकूर उतने जीवों की हत्या का पाप पांचवे व्रत के रूप में समावेश किया गया। वैसे तो अपरिलगेगा। मक्ष्मातिमूक्ष्म जीवों की हत्या से बचने के लिए ग्रह में भी इन्द्रिय निग्रह की भावना निहित थी। परन्तु इतना सतर्क रहना पड़ता है, कि वही जीव व्यापी साधना उसका सम्बन्ध सामान्य जनो के लिए जैसा चाहिए, वैमा बन जाती है। पानी गरम करके एकदम ठडा करना आन्तरिक निग्रह के साथ नही था। प्रान्तरिक निग्रह के महपत्ति लगाना है, शाम के बाद भोजन नहीं करना आदि बिना इन्द्रिय निग्रह पूर्णता पर नहीं पहुँच सकता। इस रीति-धर्म का विकास हुना।
प्रकार बीतगग भावना का समावेश होने पर जैनधर्म की शुरु-शुरू में यह वैज्ञानिक शोध-खोज थी। हमारा
परिकल्पना को पूर्णता प्राप्त हुई और जन मामान्य ने माया उसके प्रातसारमा हिमामहावीर को ही लोकोत्तर माधना से जैनधर्म को जो नाम धर्म भी। कपिल ने जब साम्य-दृष्टि और प्रात्मौपम्य व रूप प्राप्त हुया, वह अवश्य ही भगवान महावीर की भावना के रूप में धर्म-व्यवस्था कायम की, तब उमका विगमत है। नाम तक जन धर्म नही था । यह कहा जा सकता है, कि
भगवान ऋषभदेव में भगवान महावीर तक जैनधर्म इस धर्म व्यवस्था का श्रीगणेश हुअा, उम माम्य भावना म "
मे निरन्तर जो उत्क्रान्ति हई, उमको क्रमश: माम्य, से जिमका सम्बन्ध था, मानव के पारस्परिक बाहरी व्यव- प्रात्मौपम्य, हिमा, अपरिग्रह तथा ब्रह्मचर्य शब्दों में हार के माथ । प्रात्मतत्त्व की जीव मात्र में अनुभूति होने व्यक्त किया जा सकता है। इन्हीं को अणुव्रत तथा महापरमात्मौपम्य भावना जागत हुई। इस दृष्टि और भावना
व्रत का रूप मिला । माम्य का ही नाम सत्य और आत्मीमें से ही अहिंसा तत्त्व का प्रादुर्भाव हा। तब तक जैन पम्य का अस्तेय हो गया। क्योंकि सत्य के विना साम्य धर्म निर्ग्रन्थ धर्म कहा जाता था। भगवान नेमिनाथ और अस्तेय के बिना आत्मौपम्य तत्त्वों का पालन नही पौर भगवान पाश्र्वनाथ ने उसमें अपरिग्रह भावना का किया जा सकता । विकास का यह क्रम भगवान महावीर समावेश किया, क्योंकि इसके बिना सामान्य जन के लिए के बाद भी जारी रहा । ऐतिहासिक आधार पर यह नहीं अहिंसा धर्म का पूर्ण रूपेण पालन कर सकना सम्भव न कहा जा सकता कि जैनधर्म मे मन्दिर मूनिमार्ग का समाथा। भगवान पार्श्वनाथ के बाद वे 'जिन' प्रकट होते है, वेश कब और कैसे हुआ, परन्तु यह सष्ट है कि इस मार्ग जो वीतरागता पर जोर देते है। उनकी दृष्टि यह होती मे विकार पैदा होने के कारण जो पाखण्र, आडम्बर है कि कठोर इन्द्रिय के निग्रह बिना राग-द्वेष कलह, तथा प्रपच उत्पन्न होते है, उसमे जैनधर्म भी नही बच वैमनस्य तथा बिरोध भाव पैदा करने वाली दुर्वासनाओं मका । मध्यकाल में मन्दिर मूर्तिमार्ग के विरोध में एक पर विजय प्राप्त नहीं की जा सकती। ऐसा विचार करने जबरदस्त लहर पैदा हुई । जैनधर्म में वह लहर स्थानकवाले जिनों में भगवान महावीर का स्थान सर्वोपरि है वासी शाखा के रूप में प्रकट हुई। उसके प्रवर्तक वीर लो'जिन' का अभिप्राय है जितेन्द्रियता । इन्द्रिय निग्रह की का शाह ने अपने गम्भीर अध्ययन के आधार पर यह मत की कठोर साधना को जीवन-व्यवहार में पूरा उतारने व्यक्त किया, कि जैन आगमों में मन्दिर-मूर्तिमार्ग का वाले "जिन" कहे गये हैं और उन्ही के नाम पर 'जिन' विधान नहीं है। उनको यह मत प्रकट करने पर बड़े शब्द से 'जैन' शब्द का प्रादुर्भाव हुमा । भगवान महावीर विरोध का सामना करना पड़ा और अन्य अनेक क्रान्तिने ३०-३१ वर्ष की प्रायु में गड़े बारह वर्ष में लोकोत्तर कारी सुधारकों की नरह धोखे से आहार में दिए गए विप तपस्या की, कठोरतम साधना में वीतराग स्थिति का जो से उनका प्राणान्त हुआ । वे जैनधर्म मे बहुत बड़ी क्रान्ति
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अहिंसा का वैज्ञानिक प्रस्थान
करने में सफल हुए। उसके रूप को वे ऐसा पखार गए मनमानी व्यवस्था धर्म के नाम पर जनता के सिर बलात् कि वह उस समय की एक जबरदस्त लहर को भेल गया। पोप दी जाती है। दान-दक्षिणा और पुरोहितार्य पर इसी प्रकार वर्तमान युग में पश्चिम में वैसी ही एक और निर्मर ब्राह्मण वर्ग समस्त धर्म-कर्म के लिए 'दलाल' लहर उठी। सनातन हिन्दूधर्म को उस लहर से बचाने के बन गया था। स्वयं निठल्ला बनकर उसने सारे समाज लिए जो काम ब्रह्मसमाज, रामकृष्ण मिशन, प्रार्थनासमाज को भी धर्म-कर्म की दृष्टि से निठल्ला बना दिया था। तथा मार्यसमाज मादि ने किया, वही काम जैनधर्म में धर्म को इम ठेकेदारी पौर दलाली के विरुद्ध भगवान प्रस्फुटित स्थानकवासी धर्म ने किया। इस प्रकार जैनधर्म महावीर ने विद्रोह कर दिया। धार्मिक कर्म काण्ड के को प्रपंच ब प्राडम्बर से और अधिक बचा लिया गया। भोगेश्वर्य का निमित्त बन जाने के कारण उसका रूप उसको विशुद्ध रूप में जीवन व्यवहार का धर्म बनाने नितांत निवृत्त हो गया था। इस हिंसा का समावेश यहां का एक और सफल प्रयत्न किया गया । दुख यह है कि तक हो गया कि नरबलि भी उनमें दी जाने लगी। इस इस उत्क्रान्ति मूलक विकास क्रम को संकीर्ण सांप्रदायिक हिंसा काण्ड का भी भगवान महावीर ने तीव्र प्रतिवाद दृष्टि से देखा गया और उसके महत्व को ठीक-ठीक आंका किया । वर्ण धर्म को जड़ता व मूढ़ता के कारण अन्यगत नहीं गया । यह एक ऐतिहासिक तथ्य है। कि जैनधर्म जाति-पांत के ऊंच-नीच तथा भेद-भाव का ही रूप मिल उस भीषणकाल में इस उत्क्रान्तिमूलक विकास क्रम के
गया था। भगवान महावीर ने इस रूढ़िगत सामाजिक ही कारण अपने अस्तित्व को बनाये रखने में सफल हो व्यवस्था को भी जढमूल से झकझोर दिया । "स्त्री शूद्रो सका। जिसमें श्रमण संस्कृति की बौद्ध धर्म सरीखी ना धीयताम" अर्थात् स्त्री और शूद्र को पढ़ने पढ़ाने का अनेक शाखाएं प्राय नाम शेष हो गई और सनातन वैदिक अधिकार नहीं हैं, इस ब्राह्मण व्वयस्था के विरुद्ध भी संस्कृति से सम्बन्ध रखने वाली अनेक शाखाएं भी लुप्त क्रांति का शंख फूक दिया। प्राध्यात्मिक साधना का होने से बच न सकी। जैनधर्म के विकास के इतिहास मार्ग उनके लिये प्रशस्त बना दिया। इसी कारण सन्त का एक बड़ा ही सुन्दर रोचक और महत्वपूर्ण अध्याय विनोबा ने बुद्ध की अपेक्षा महावीर को कहीं अधिक है, जिसका अध्ययन क्रान्तिकारी दृष्टि से किया जाना महान सामाजिक एवं धार्मिक क्रान्तिकारी कहा है। चाहिए और प्रकाश में विविध धर्मों के उत्थान व पतन उनका मत यह है कि भगवान श्री कृष्ण के बाद स्त्रियों के के मर्म को समझने का प्रयत्न किया जाना चाहिए। लिये प्राध्यात्मिक पथ को प्रशस्त बनाने वाले भगवान
__ महावीर ही थे। यह कहा जाता है कि उनके संघ में भगवान महावीर की विरासत का जो लाभ सामान्य
पचास हजार में चौदह हजार भिक्षुणियां थीं । इस प्रकार भारतीय जनता को प्राप्त हुआ, वह भी उल्लेखनीय है।
भगवान महावीर ने भारतीय जीवन की प्रमुख श्रमण उनकी लोकोत्तर साधनामयी तपस्या का जैसा लाभ श्रमण
तथा ब्राह्मण दोनों ही सांस्कृतिक धारामों को निखारने सस्कृति को प्राप्त हमा, वैसा ही उनके धर्म प्रचार का
का सफल क्रान्तिकारी प्रयत्न किया । वह उनकी भारतीय सनातन वैदिक-संस्कृति को पखारने के रूप में सामान्य जीवन के लिए सबसे बड़ी विरासत है। भारतीय जीवन भारतीय जनता को प्राप्त हुमा । धर्म-कर्म पर ब्राह्मणों के प्रवाह को नियंत्रित रखने वाली ये दोनों धाराएं नदी का एकाधिकार था। धर्मशास्त्र सामान्य जनता के लिए के दो किनारों के समान है। उन दोनों को निखारकर अगम्य तथा दुर्बोध वैदिक संस्कृत भाषा में होने के कारण सुधारने और सुदृढ़ बनाने वाले भगवान महावीर को उन पर भी ब्राह्मणों का ही एकाधिकार था। उनकी हमारे शत-शत प्रणाम हैं ।
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आत्म-दमन
मुनिश्री नवमल
भारतीय दर्शन प्रात्म-दमन पर विशेष बल देते रहे विकसित हो गए हैं। उनमें दीखती है तपश्चर्या, पर है हैं। प्राण के मनोविज्ञान से प्रभावित मानव को यह वस्तुत: हिंसा का रस-दमन और प्रतिरोध का सुख । यह अप्रिय लगता है। मैं औरों की बात क्या कहूँ। मैं अपने तप नहीं, मात्मवंचना है।" (क्रान्तिबीज पृष्ठ १०६) मन की बात आपको बताऊँ। मैंने जब-जब उत्तराध्ययन के निम्न दो श्लोक पड़े तब-तब मेरा मन माहत-सा हुआ।
आज दमन का अर्थ बदल गया है, इसलिए यह प्रयोग वे श्लोक ये हैं
चुभता सा लगता है। किन्तु इसका मूल अर्थ मनोविज्ञान
के प्रतिकूल नहीं है। दमन शब्द दम धातु से निष्पन्न अप्पा चेव दमेयन्वो अप्पा खलु दुद्दमो।
हुआ है। उसका अर्थ है उपशम-शमु-दमु उपशमे । अप्पा दन्तो सुही होइ आइसं लोए परत्थ य ॥१।१५।।
शान्त्याचार्य ने प्रात्मदमन का अर्थ किया है-यात्मिकवरं मे अप्पा दन्तो संजमेण तवेण य ।
उपशमन । माहं परेहि दम्मतो बन्धणेहि वहेहि य ॥१।१६।।
महाभारत (पापद्धर्म पर्व, अध्याय १६०) में दमन प्रात्मा का ही दमन करना चाहिए क्योंकि मात्मा की बहुत सुन्दर परिभाषा मिलती है । वहाँ लिखा हैही दुर्दम है । दमित प्रात्मा ही इहलोक और परलोक में
क्षमा धृतिरहिंमा च समता सत्यमार्जवम् । सुखी होता है।
इन्द्रियाभिजयो दाक्ष्यं च मार्दवं ह्रीरचापलम् ॥१५॥ अच्छा यही है कि मैं संयम और तप के द्वारा अपनी
अकार्पण्य संरम्भः सन्तोष: प्रियवादिता । मात्मा का दमन करूं। दूसरे लोग बन्धन और वध के
अविहिंसावसूया चाप्येषां समुदयो दमः ॥१६॥ द्वारा मेरा दमन करें-यह अच्छा नहीं है।।
क्षमा, धीरता, अहिसा, समता, सत्यवादिता सरलता, मेरे साथी और भी बहत होंगे? दमन शब्द मेरी
इन्द्रिय-विजय, दक्षता, कोमलता, लज्जा, स्थिरता, उदातरह उनके मन को भी पाहत करता होगा? आचार्य
रता, क्रोध-हीनता, सन्तोष, प्रियवचन बोलने का स्वभाव, रजनीश जी का मन भी इसी शब्द से आहत हपा है।
किसी भी प्राणी को कष्ट न देना और दूसरो के दोष न उन्होंने लिखा है-"एक प्रवचन कल सुना है। उसका
देखना-इन सद्गुणों का उदय होना ही दम है। सार था : प्रात्म-दमन । प्रचलित रूढ़ि यही है। सोचा जाता है कि सबसे प्रेम करना है पर अपने से-अपने से
दान्त का अर्थ है उपशान्त । जो उपशान्त होता है
वह निम्न दोषों से अपना बचाव करता है। महाभारत घृणा करनी है, स्वयं अपने से शत्रुता करनी है, तब कहीं। पात्म जय होती है। पर यह विचार जितना प्रचलित है ।
(मापद्धर्म पर्व, अध्याय १६०) में लिखा हैउतना ही गलत भी है। इस मार्ग से व्यक्तित्व दैन में
गुरुपूजा च कोरव्यं दया भूतेष्व पैशुनम् । टूट जाता है और प्रात्महिंसा की शुरुवात होती है और
जनवादं मृषावादं स्तुति निंदा विसर्जनम् ॥१७॥ हिंसा सब कुरूप कर देती है ।
काम क्रोधं च लोभं च दर्प स्तम्भं विकत्थनम् । मनुष्य को वासनाएँ इस तरह दमन नहीं करनी हैं न
सेषमीविमानं च नैव दान्तो निषेवते ॥१८॥ की जा सकती हैं। यह हिंसा का मार्ग धर्म का मार्ग नहीं कुरुनन्दन ! जिसने मन और इन्द्रियों का दमन कर है। इसके परिणाम में ही शरीर को सताने के कितने लिया है, उसमें गुरुजनों के प्रति आदर का भाव, समस्त
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महर्षि बाल्मीकि और श्रमण-संस्कृति
मुनि श्री विद्यानन्द
आदिनाथ भगवान् ऋषभदेव के विषय में जैनेतर रहा हैसाहित्य के शोध विद्वानों को हिन्दू पुराणों, उपनिषदों योगवासिष्ठ से उद्धत अंश उसके निर्णयसागर प्रेस और उनके मूल उद्गमस्रोत वेदों में पुष्कल सामग्री उप- बम्बई से प्रकाशित प्रथम-द्वितीय भाग, सन १९३७ से लब्ध हुई है। यह विपुल सामग्री इस बात का मुखर संकलित हैं तथा रामायण के उद्धरण गीता प्रेस, गोरखपुर साक्ष्य उपस्थित करती है कि प्राचीन समय में श्रमण के प्रकाशित मूल संस्करण से लिये गये हैं। संस्कृति की अभिज्ञता माज की अपेक्षा अधिक थी और श्रीरामचन्द्र ने ससार से अपना वैराग्य व्यक्त करते वैदिक उमे श्लाघा की दष्टि से देखते थे। राष्ट्र में एक हुए कहा है कि मैं जिनेन्द्र के समान अपने मात्मा में ही उत्साह था और मनीषी एक राष्ट्र में प्राणवन्त होकर लीन रहना चाहता है। बहती हई अन्य संस्कृति का परिज्ञान अपनी पूर्णता के नाह रामा न म व
र नाहं रामो न मे वाच्छा भावेषु च न मे मनः । लिए आवश्यक समझते थे। महर्षि बाल्मीकि के योग- शान्त,
. शान्त प्रासितुमिच्छामि स्वात्मनीव जिनो यथा ॥१॥१५॥ वासिष्ठ तथा रामायण का हिन्दू जगत् में बहुत समादर है
जिन नामक किसी जनपद का उल्लेख करते हुए और इन आर्ष ग्रन्यों को प्राप्त वाक्यता प्राप्त है। जिस
लिखा है कि
जिननामैप तत्रास्ति श्रीमान् जनपदो महान् । भावप्रवणता के साथ उन्होंने अपने ग्रन्थों मे श्रमण संस्कृति के पारिभाषिक शब्दो का व्यवहार किया है उससे १
वल्मीकोपरि तत्रास्ति विहारी जनसंश्रयः ।।६।६।। निस्सन्देह यह प्रमाणित होता है कि उनके मानस में
वीतराग शब्द अपने मूल अर्थ में अनक बार प्रयुक्त श्रमणों की विचारधारा के प्रति पर्याप्त सम्मान था और
हया है। उदाहरण है
विगतेच्छाभयक्रोधो वीतरागो निरामयः ।।६।४७ विस्तृत जानकारी तो थी ही। सहस्रातिसहस्र वर्ष प्राचीन
यदनन किलोदारमुक्त रघुकुलन्दुना। इन ग्रन्थो में उल्लिखित सामग्री का यह चयन देश की दो
वीतरागतया तद्धि वाक्पतेरप्यगोचरम् ॥१२३२।२५ विशाल संस्कृतियों की भावात्मक एकता के लिए शृंखला
वीतरागो निरायासो विमो वीतकल्मषः ॥१५॥४७ समान हो और श्रमणधारा की व्यापक गतिविधि की
समः शान्तमनः मौनी वीतरागो विमत्सर. ॥६।६७।१० अभिन्नता का निर्देश करे इस दृष्टि से उपर्युक्त दोनों ग्रथो
चित्वाद् दृष्टात्मना नून संत्यत्तमननौजसा । का संक्षिप्त सकलन नीचे की पक्तियों में प्रस्तुत किया जा मनसा वीतरागेण स्वयं स्वस्थेन भूयते ॥५॥५३॥५८ प्राणियो के प्रति दया और किसी की भी चुगली न खाने उभवेषामिन्द्रियाणां, स दम: परिकीर्तितः॥ की प्रवृत्ति होती है। वह जनापवाद, असत्य भाषण, निदा इसका अर्थ है इन्द्रियों को विषयों से हटाकर अपनेस्तुति की प्रवृत्ति, काम, क्रोध, लोभ, दर्प, जड़ता, डींग अपने गोलक में स्थापित कर देना दम है। हॉकना, रोष, ईर्ष्या और दूसरो का अपमान-इन दुर्गुणों में अनुभव करता हूँ कि दमन का मूल अर्थ समझने का कभी सेवन नहीं करता।
के पश्चात् अब मेरा मन प्रात्म-दमन का प्रयोग सुन कर दमन की परिभाषा शकराचार्य ने बहुत ही मूल पाहत नहीं होता है । प्रात्म-दमन की प्रक्रिया मनोविज्ञान स्पर्शी की है। उनके मतानुसार
के प्रतिकूल है-इस माल्यता में भी मैंने संशोधन कर विपयेभ्यः परावर्त्य, स्थापनं स्वस्थगोलके । लिया है।
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जैनी दीक्षामुपादत्त यस्यां काये पि हेयता, जैनों ने मुनि मनसे परिचालित विषयों के अधीन नहीं होता काय को भी हेय तथा परपदार्थ माना है । इसे स्व मानना इत्यादि निरूपण पूर्ण वीतराग धर्म का प्रतिपादन करते मिथ्याज्ञान है। योगवासिष्ठ की उक्ति है किमिथ्याज्ञानविकारेस्मिन् स्वप्नसम्भ्रम-पत्तने ।
सम्यगविज्ञानवान् शुद्धो योन्तः शान्तिमना मुनिः । काये स्फुटतरापाये क्षणमास्था न मे द्विज ॥१॥१८६० न बाध्यते स मनसा करिणेव गजाधिपः ॥२६॥
अर्थात् यह शरीर स्वप्न में देखे गये पत्तन के समान सम्यग्ज्ञानं विना राम सिद्धिमेत्ति न कांचन ।।२।२०३० हैं। इसका अपाय वियोग अवश्यम्भावी है। श्रीरामचन्द्र न मोक्षो नभसः पृष्ठे न पाताले न भूतले । कहते हैं कि इस पर मेरी क्षणिक प्रास्था भी नहीं है। मोक्षो हि चेतो विमलं सम्यग्ज्ञानविबोधितम् ।।५।७३।३५ ___ सम्यग्ज्ञान से ही मनुष्य ज्ञातज्ञेय होता है और भोगा- दिगम्बरत्व का प्रतिपादन करनेवाले निम्न दो पद्यों सक्ति का क्षय करता है। इस प्राशय को बड़े हृद्यरूप में में दिगम्बरत्व को महात्याग कहा है। वीतराग और महर्षि ने प्रस्तुत किया है
निर्ग्रन्थ मुनियों के उपस्थित रहते तीर्थतपसंग्रहों की चरिसम्यक पश्यति यस्तज्ज्ञो ज्ञातशेयः स पण्डितः ।
तार्थता स्वयंसिद्ध है, इस प्राशय का निरूपण पठनीय हैन स्वदन्ते बलादेव तस्मै भोगा महात्मने ।२।२७ दिगम्बरो दिक्सदनों दिक्समो य महं स्थितः ।
सम्यग्दर्शनविषयक निरूपण अनेक स्थलों में करते देवपुत्र, महात्यागात् किमन्यदवशिष्यते ॥६।६३।११ हुए बाल्मीकि लिखते हैं
नीरागाश्छिन्नसन्देहा गलितग्रन्थयोनघ । किं कुर्वन्तीह विषया मानस्यो वृत्तयस्तथा।
साधवो यदि विद्यन्ते किं तपस्तीर्थ-संग्रहैः ।।२।१६।११ माधयो व्याधयो वापि सम्यग्दर्शन-सन्मतेः ॥१९३३५
केवलीभाव के निरूपण करने वाले तीन श्लोक इस सम्यग्दर्शनमायान्ति नापदोन च सम्पदः ।।१६५ प्रकार हैअसम्यग्ज्ञानसम्भूता कल्पना मृगतृष्गिका ।।५।१३।६६
अनपाय निराशंकं स्वास्थ्यं वि-तविभ्रमम् । असम्यग्दर्शनं त्यक्त्वा सम्यक् पश्य सुलोचन ।
न विना केवलीभावाद् विद्यते भुवनत्रये ।।२।१३।३७ न क्वचिन् मुह्यति प्रौढः सम्यग्दर्शनवानिह ॥१८२१३२ यद् द्रष्टुरस्याद्रष्टुत्वं दृश्याभावे भवेद् बलात् । यदा तु ज्ञानदीपेन सम्यगालोक पागतः ।
तत् विद्धि केवलीभावं तत एवासतः सतः ॥३४१५३ संकल्पमोहो जीवस्य क्षीयते शरदभ्रवत् ।।६।२।१८ त्रिजगत् त्वमहं चेति दृश्ये सत्तामुपागते ।
ऊपर के पद्यों में श्रमणसंस्कृति का पारिभाषिकपद द्रष्टुः स्यात् केवलीभावस्तादृशो विमलात्मनः ॥३१४१५६ प्रयोग ही नहीं किया गया है अपितु उसका सजीव चित्रण मिथिला के राजा जनक जो उपनिषदों के महान् भी हुमा है। भगवान महावीर की विषय पराडमखता विद्वान् तथा ऋषि-महर्षियों के साथ तत्वचर्चा करने वालों तथा उन पर आये उपसर्ग, परीषहसहिष्णुता इत्यादि का में प्रमुख हुए हैं उनके यहाँ श्रमण मुनि आहार लेते थे उल्लेख ५५६३५ वें पद्य में समासोक्ति से किया गया इसका उल्लेख करते हुए बाल्मीकि ने रामायण में लिखा प्रतीत होता है। सम्यादर्शन और सन्मतेः दोनों पद है किसामान्य प्रर्थ से ऊपर सन्मति भगवान महावीर के जान- ब्राह्मणा भुञ्जते नित्यं नाथवन्तश्च भुजते । बूझ कर किए गए नामोल्लेख से प्रतीत होते हैं। तापसा भुञ्जते चापि श्रमणश्चैव भुजते ॥२१४११२
सम्यग्ज्ञानपरक पद्यों में सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि प्राचार्य कुन्दकुन्द ने लिखा है कि 'भावस्य पत्थिमोक्षमार्गः सूत्र का ही जैसे विवेचन किया गया है। णासो णत्थि प्रभावस्स चेव उप्पादो तथा एवं सदो सम्यग्ज्ञान से प्रबुद्ध किया हुमा चेतन का निर्मलभाव ही विणासो असदो जीवस्य णत्यि उप्पादो।' इसी माशय को मोक्ष है और हे श्रीराम, सम्पज्ञान के बिना मनुष्य सिद्धि व्यक्त करने वाला योगवासिष्ठ का श्लोक इस प्रकार हैको प्राप्त नहीं होता तथा सम्यग्ज्ञानवान् शान्त एवं शुद्ध नासतो विद्यते भावो माभावो विद्यते सतः।
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साहित्य-समीक्षा
१. करिकण्ड चरित-(हिन्दी अंग्रेजी अनुवाद के लिए सम्पादक महानुभाव और ज्ञान पीठ के संचालक सहित) मुनिकनकामर सम्पादक अनुवादक डा. हीरालाल गण धन्यवाद के पात्र हैं। जैन एम. ए. डी. लिट् । प्रकाशक भारतीय ज्ञानपीठ २. कर्म प्रकृति-(संस्कृत हिन्दी टीका सहित) काशी। पृष्ठ ३६४ मूल्य सजिल्द प्रति का १०) रुपया। नेमचन्द्राचार्य, सम्पादक अनुवादक पं० हीरालाल शास्त्री
प्रकाशक भारतीय ज्ञानपीठ काशी, मूल्य छह रुपया। प्रस्तुत ग्रन्थ का विषय उसके नाम से स्पष्ट है। इसमें १९ कडवकों में राजा करकंड का जीवन-परिचय भारतीय विचारधारा में कर्म सिद्धान्त का महत्वअंकित किया गया है। ग्रन्थ में अनेक प्रावान्तर कथानक पूर्ण स्थान है, जैनधर्म का तो वह महत्वपूर्ण सिद्धान्त है दिए हुए हैं, जिससे मूल कथानक को समझने में कुछ ही । इस सिद्धान्त का प्रतिपादक विपुल जैन साहित्य उपकठिनाई अवश्य होती है। पर गौर से दृष्टि पात करने लब्ध है । षट् खण्डागम आदि ग्रन्थों में इसका व्यवस्थित पर विषय सुलभ हो जाता है। ग्रन्थ में करकण्डु का जीवन- और सुविस्स्तृत सूक्ष्म विवेचन पाया जाता है। नेमिचन्द्र परिचय, जीवन-घटनाएँ तथा पूर्व जन्म-सम्बन्धी वृत्तान्त सिद्धान्त चक्रवर्ती ने गोम्मटसार जीवकाण्ड कर्मकाण्ड भी दिया हुआ है। डा० साहब ने पहले इस ग्रंथ को लब्धिसार क्षपणासार प्रादि में इस विषय के शास्त्रों का सम्पादित कर कारंजा सीरीज में प्रकाशित किया था, सार लेकर सागर को गागर में समाविष्ट करने की कहाउस सस्करण में हिन्दी अनुवाद नहीं था। अब इस वत को चरितार्थ किया है। संस्करण में हिन्दी अनुवाद भी साथ में दे दिया गया है प्रस्तुत कम प्रकृति नामक ग्रन्थ में संक्षिप्त एवं सरल और अंग्रेजी प्रस्तावना में जहां-तहां संशोधन-परिवर्तन रूप से कर्म सिद्धान्त का विवेचन किया गया है। हिन्दी तथा परिवर्धन भी किया है। परिशिष्ट में नोट्स और अनुवाद के साथ परिशिष्टों में विभिन्न प्रकृतियों के रेखा शब्दकोष भी दिया है। जिससे पाठकों को वस्तु स्वरूप चित्र देकर विषय को स्पष्ट करने का प्रयत्न किया गया समझने में अत्यन्त सुविधा हो गई है। इससे अप- है। इस कारण कर्म प्रकृति का यह संस्करण जिज्ञासु भ्रंश साहित्य के प्रचार में सुविधा मिलेगी। प्राकृत और विद्यार्थियों के लिए उपयोगी बन गया है। अपभ्रश के क्षेत्र में डा० साहब की साहित्य-सेवाएं महत्व- कुछ वर्ष पूर्व मैंने इस संग्रह की गाथानों से गोम्मटपूर्ण हैं। अपभ्रंश के अनेक ग्रंथों का उन्होंने सम्पादन सारकर्मकाण्ड की त्रुटि पूर्ति करने के लिए लेख लिखा था। किया है और भविष्य में भी उनसे अन्य अनेक ग्रथों के उस सम्बन्ध में डा. हीरालाल जी से उत्तर प्रत्युत्तर भी सम्पादन की प्राशा है। इस सुन्दर संस्करण के प्रकाशन हुए। परन्तु उन्होंने उसकी त्रुटि को स्वीकार नहीं किया, यत्तु नास्ति स्वभावेन कः क्लेशस्तस्य मार्जने ॥३७॥३८ ब्रह्मव स्फुरितं तदात्मकलया तादात्म्यनित्यं यतः । यही श्लोक श्रीमद्भगवद्गीता में है जिसकी द्वितीय पंक्ति तेषां चात्मविदोनुरूपमखिलं स्वर्गम् फलं तद्भवेपरिवर्तित रूप में इस प्रकार है
दस्य ब्रह्मण ईदृगेव महिमा सर्वात्म यत्तद् वपुः ॥ उभयोरपि दृष्टोन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदशिभिः॥
(उत्तरार्द्ध ६।१७३।३४) ब्रह्मा का निरूपण अपने-अपने ढंग से सभी ने किया उस अपने युग के तत्वचिन्तक मनीषी और राष्ट्रहै। बाल्मीकि ने उन अलग-अलग सम्प्रदायों का नाम कवि महर्षि बाल्मीकि द्वारा प्रणीत ग्रन्थों का अवलोकन निर्देश करते हुए लिखा है
करने वालों को सम्भवतः इससे भी अधिक जैन-चाङ्मयवेदान्ताईतसांख्यसौगतगुरुत्र्यक्षादि सूक्तादृशो
विषयक जानकारी मिल सकेगी। इत्यलम्
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अनेकान्त
जबकि अन्य विद्वानों ने स्वीकार किया था परन्तु श्रीजुगल- का अलग-अलग अर्थ देते हुए साथ में भावार्थ द्वारा पद्य किशोर जी मुख्तार ने 'गोम्मटसार और नेमिचन्द्र' नाम. के हार्द को स्पष्ट करने का प्रयत्न किया गया है। पं० के अपने लेख में (अनेकान्त वर्ष ८ किरण ८-६) में मूड- फूलचन्द जी सिद्धान्त शास्त्री का नाम सम्पादक में देना बिद्री की पुरानी ताडपत्रीय प्रति से कर्मकाण्ड के उन चाहिए था अनुवादक में नहीं ।
टित अंशों में प्राकृत के गद्य सूत्र यथा स्थान निबद्ध ग्रन्थ का प्रकाशन अत्यन्त सुन्दर हुमा है । मोटा पुष्ट दिखलाये थे, जिनका अनुवाद संस्कृत टीकाकार ने दिया कागज और भक्ति के साथ पद्य लाल और सुनहरी स्याही है। उससे कर्मकाण्ड की त्रुटि की पूर्ति हो जाती है। मे छपाए गए हैं। इससे ग्रन्थ की लागत ५) रुपया पाई अस्तु । ग्रन्थ का प्रकाशन सुन्दर हुमा है, इसके लिए ज्ञान और
न है। परन्तु दातारों द्वारा घाटे की पूर्ति कर २) रुपया मात्र पीठ के संचालक धन्यवाद के पात्र हैं।
मूल्य में दिया जा रहा है। दिगम्बर जैन समाज में इतना ३. समयसार कलश ( सटीक )-मूल-प्राचार्य सस्ता और सुन्दर प्रकाशन भक्ति भाव से शायद ही किया अमतचन्द्र अनुवादक पं० फूलचन्द जी सिद्धान्त शास्त्री, गया हो। प्रकाशक दिगम्बर जैन स्वाध्याय मन्दिर ट्रस्ट सोनगढ़ ४. प्रवचनसार :-(संस्कृत हिन्दी टीका सहित) (सौराष्ट्र) कागज छपाई सफाई उत्तम मूल्य सजिल्द प्रति मुलकर्ता प्राचार्य कुन्दकुन्द, संस्कृत टीकाकार प्राचार्य का २) रुपया।
अमृतचन्द्र, हिन्दी अनुवादक पं० परमेष्ठीदास न्यायतीर्थ, श्री कुन्दकुन्दाचार्य विरचित समयसार पर प्राचार्य ललितपुर । प्रकाशक श्री दिगम्बर जैन स्वाध्याय मंदिर प्रमतचन्द्र ने संस्कृत गद्य में प्रात्मख्याति नाम की टीका ट्रस्ट सोनगढ़ (सौराष्ट्र) पृष्ठ ४३५ सजिल्द प्रति का बनाई है उसमे बीच बीच में संस्कृत पद्य भी हैं जिनमे ४) रुपया। मूलगाथा का पूरा भाव समाविष्ट है । और वे पद्य समय
प्रस्तुत ग्रन्थ का विषय उसके नाम से स्पष्ट है, ग्रन्थ सार कलश के नाम से अलग लिए गये है। उनकी दुढारी तीन अधिकारों में विभक्त है । ज्ञान, ज्ञेय और चरित्र भाषा में टीका पाडे राजमल ने बनाई थी। उस टीका इन तीनों ही अधिकारों मे वस्तुनत्त्व का स्पष्ट विवेचन पर से पं० बनारसीदास ने नाटक समयसार की हिन्दी किया गया है। ग्रन्थ की मूल गाथाए कुन्दकुन्दाचार्य के पद्यों में रचना की थी। यह टीका अपने मूलरूप से ब्र. परिपक्व अनुभव की मूचक है और इसीसे वे गम्भीर अर्थ शीतल प्रसाद जी के हिन्दी सार के साथ सूरत से प्रका- की प्रपक हैं । प्राचार्य अमृतचन्द्र ने गाथानों की विशद शित हो चुकी है। और उसमें नाटक समयसार के पद्य व्याख्या की है। उसीका अविकल हिन्दी अनुवाद संस्कृत भी मुद्रित हुए हैं। परन्तु प्रस्तुत संस्करण उस ढुढारी टीका के साथ दिया गया है । प्रवचन सार के पठन-पाठन भाषा का प्राज़ की भाषा में परिवर्ति रूप है। मूल भाषा की पद्धति पुरातन काल से चली आ रही है, आगरा, के साथ उसके रूपान्तर का मिलान बहुत सावधानी से जयपूर, सागानेर, कामा प्रादि प्रसिद्ध नगरों की प्राध्याकिया गया है, जिससे अभिप्राय में अन्तर न पड़े। म शैलियों में वाचन-चिन्तन होता रहा है। इसके तीन ___ इस टीका के कर्ता वही राजमल है जो पचाध्यायी हिन्दी पद्यानुवाद भी कवियों द्वारा लिखे गये हैं, जिनमे प्रादि ग्रन्थों के कर्ता हैं, चूकि उनकी इस भापा की कविवर वृन्दावन का पद्यानुवाद तो 'प्रवचन परमागम' पहली टीका थी, इसलिये इसमें कुछ कमी हो सकती के नाम से छप चुका है, परन्तु शेष दो अनुवाद अभी तक है। हम प्रत्येक विद्वान की कृति को उसके परिपक्व प्रकाशित नही हो सके, उनको प्रकाश में लाने की अनुभव की कृति के साथ मापने का प्रयत्न करते जरूरत है। इस ग्रन्थ की प्राकृत भाषा प्रौढ़ और हैं । इसी से हमें उसके एक कर्तृत्व पर सन्देह होने महत्वपूर्ण है, और उसकी प्राचीनता श्वेताम्बरीय प्रागमलगता है। पर गहरी दृष्टि से छानबीन करने पर वह दूर सूत्रों की भाषा से भी अधिक है। इस विषय पर डा० हो जाता है । टीका में खण्डान्वय के साथ एक-एक शब्द सत्यरंजन बनर्जी ने अपने लेख में पर्याप्त प्रकाश डाला
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साहित्य-समीक्षा
है, जो बीकानेर की दर्शन परिषद में पढ़ा गया था। पड़ी है । छपाई सफाई सुन्दर और आकर्षक है। इसके ___ ग्रन्थ का प्रकाशन सुन्दर हुमा है, और वह भक्तिवश लिए सम्पादको को अधिक परिश्रम करना पड़ा है जिसके दो स्याही में छापा गया है। और प्रचार की दृष्टि से वे धन्यवाद के पात्र हैं। प्रचार की दृष्टि से स्मारिका का उसका मूल्य भी कम रक्खा गया है। इस सुन्दर सस्करण मूल्य कम है । प्राशा है समाज उसे अपनाएगी। के लिए दिगम्बर जैन स्वाध्याय मन्दिर ट्रस्ट धन्यवादाह ६. सार्ड शताब्दी स्मृति अन्य :-प्रकाशक श्री हैं । वास्तव में सिद्धान्त ग्रन्थों के प्रकाशन इसी तरह जैन श्वेताम्बर पचायती मंदिर साई शताब्दि महोत्सव होना चाहिये।
समिति १३६, काटन स्ट्रीट कलकत्ता ७। पृष्ठ संख्या ५. सिलवर जुबली स्मारिका एवं हू इज :- १४२ मूल्य सजिल्द प्रति का २) रुपया। सम्पादक चक्रेश कुमार बी. काम एल. एल-बी. और प्रस्तुत स्मृति ग्रन्थ में कलकत्ता के श्वेताम्बर जैन मुनीन्द्र कुमार एम. ए. बी. एस-सी. एल. एल. बी. । प्रका- पंचायती मन्दिर का इतिहास देते हुए वहां के अन्य शक, मत्री जैन सभा नई दिल्ली, मूल्य ५० नया पंसा। श्वेताम्बर जैन मन्दिरों का सचित्र परिचय दिया है. साथ प्रस्तुत पुस्तिका जैन सभा नई दिल्ली के सिल्वर में दिगम्बर मंदिरों का यथा स्थान उल्लेख एवं संक्षिप्त
सन के पतमा 7 प्रकाशित हई है। इसके परिचय अंकित है। कलकत्ता के कार्तिकी महोत्सव का प्रारम्भ में नए मन्दिर धर्मपुरा दिल्ली की मूलवेदी में भी परिचय दिया गया है। विराजमान सं० १६६१ की प्रतिष्ठित भगवान आदिनाथ स्मारिका में कई लेख महत्वपूर्ण और सुन्दर है। जैन की मूर्ति का चित्र अंकित है। बाद में राष्ट्रपति राधा सिद्धान्त में पुद्गल द्रव्य और परमाणु सिद्धान्त दुलीचन्द कृष्णन का चित्र दिया है, और पश्चात् अन्य पदाधि- जैन मुगावली का यह लेख पठनीय है। बिहार का ताम्र कारियों के चित्रों के साथ उनकी सभा के प्रति शुभ शासन बाबू छोटेलाल जी का लेख भी पठनीय है। कामनाएं दी हुई हैं । उसके बाद डा० ए. एन उपाध्ये हिन्दी के प्राचीन नीति-काव्य में जैन विद्वानों का योगदान एम- ए. डी. लिट का भगवान महावीर के जीवन और डा० राम स्वरूप का लेख और जैन स्तोत्र साहित्य आदि शासन पर प्रकाश डालने वाला महत्वपूर्ण लेख दिया है, के लेख भी महत्व पूर्ण है। इस तरह यह स्मृति ग्रन्थ पश्चात् अन्य लेखकों के हिन्दी अग्रेजी के संक्षिप्त सरल सचित्र और आकर्षक भी है। एवं पठनीय लेख दिये है। और अन्त में जैन सभा नई ग्रन्थ का चयन और प्रकाशन सुन्दर हरा है इसके दिल्ली के सदस्यो और पदाधिकारियों का परिचय लिये सार्द्ध शताब्दी महोत्सव समिति के सदस्यगण धन्यदिया हुआ है . इन सबके कारण स्मारिका सुन्दर बन वाद के पात्र हैं।
-परमानन्द शास्त्री
अनेकान्त की पुरानी फाइलें
अनेकान्त की कुछ पुरानी फाइलें अवशिष्ट हैं जिनमें इतिहास, पुरातत्व, दर्शन और साहित्य के सम्बन्ध में खोजपूर्ण लेख लिखे गए हैं जो पठनीय तथा संग्रहणीय है। फाइलें अनेकान्त के लागत मूल्य पर दी जावेंगी, पोस्टेजखर्च अलग होगा। फाइलें वर्ष ८, ९, १०, ११, १२, १३, १४, १५, १६, १७ वर्षों की हैं । थोड़ी ही प्रतियां अवशिष्ट हैं। मंगाने की शीघ्रता करें।
मैनेजर 'अनेकान्त' वीरसेवामन्दिर २१ दरियागंज, दिल्ली।
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श्री सम्मेद शिखर तीर्थ रक्षा
तीन मई सन् १९६५ के ऐतिहासिक जलूस ने, जहाँ समाज में नई जागृति और क्रान्ति उत्पन्न की है। नया जोश, नया उत्साह और नया जीवन दिया है। वहां सरकार पर भी अपना प्रभाव अंकित किया है, किन्तु अभी तो समाज को आगे बहुत कुछ काम करना शेष है। दिगम्बर जैन समाज को अब पूर्णतया संगठित हो जाना चाहिए।
और उस एक पक्षीय इकरारनामे को रद्द कराने का पूरा प्रयत्न करना चाहिए। उक्त पैक्ट एक पक्षीय और अत्यन्त साम्प्रदायिक है, उसमें दिगम्बरत्व को कोई स्थान नहीं है, किन्तु उसमें दिगम्बरत्व के प्राचीन अधिकारों को उखाड़ फैकने का पूरा प्रयत्न किया गया है। करार के छठे नम्बर का सारा ही वाक्य विन्यास अत्यन्त आपत्तिजनक है। सम्मेद शिखर को श्वेताम्बरों से भी अधिक पूज्य मानने वाले तथा अर्चना पूजा करने वाले दिगम्बरों का उसमें कोई स्थान नहीं रहा, यह सब जान-बूझ कर किया गया है। फिर भावनगर से प्रकाशित 'श्वेताम्बर जैन' पत्र उल्टी वकालत करता है, जब कि उक्त पैक्ट स्पष्ट शब्दों में उसे श्वेताम्बर सम्प्रदाय का बतला रहा है, और विहार सरकार की स्वी. कारिता वास्तविकता के बिल्कुल प्रतिकूल है।
प्रधान मंत्री ने जलूस में जैन जनता को जो आश्वासन दिया है, उससे बहुत सम्भव है कि उक्त पैक्ट रद्द हो जाय। मुझे पूर्ण विश्वास है कि शास्त्री जी अपनी घोषणा के मूल्य को प्रांकते हुए उसे रद्द करने का पूरा प्रयत्न करेंगे। जिससे साम्प्रदायिक तनाव न बढ़े और एकता तथा सौहार्द्र बना रहे।
दिगम्बर जैन समाज का कर्तव्य है कि वह अपने अधिकार की रक्षार्थ अपनी अमूल्य सेवाएं प्रस्तुत करने के लिए तय्यार रहे। समाज अपने उत्साह को और भी संगठित तथा सुदृढ़ करने का प्रयत्न करे। और तीर्थ रक्षार्थ अर्थ का प्रबन्ध करे । क्योंकि श्वेताम्बर मूर्ति पूजकों से तीर्थ क्षेत्रों को लेकर चलने वाले द्वन्द्व कभी समाप्त नहीं होंगे। प्रतः दिगम्बर समाज को भी प्रानन्द कल्याण की पीढ़ी की तरह 'तीर्थ रक्षा फन्ड ट्रस्ट' कायम करना होगा, उसके बिना सुरक्षा सम्भव नहीं हो सकती। आशा है समाज 'तीर्थ रक्षा फण्ड ट्रस्ट' को कायम करने के लिए पूरा प्रयत्न करेगी। 'यही दिगम्बर नारा है सम्मेद शिखर हमारा है' इस नारे के पीछे जो भक्ति का अमित स्रोत अंकित है, वह तीर्थ रक्षा के प्रभाव से सराबोर है। युवक-युवतियों को श्रद्धा के साथ उसकी भावना करनी चाहिए, और अपने कर्तव्य की ओर दृष्टि डालनी चाहिए।
सेठ करतूर भाई लाल भाई का वह भ्रामक वक्तव्य अब दिगम्बर समाज को अपने पथ से विचलित नहीं कर सकता, और न उनकी मीठी बातों के भ्रमजाल में अपना सनातन हक ही छोड़ सकता है। सभी क्षेत्रों पर कब्जा करने की बात सभी को विदित है। अतः उस दष्टि को बदल देनी चाहिए। दनिया बदल गई, पर जैन स बदला, उल्टा उसमें विरोध उत्पन्न करने का प्रयत्न किया गया है।
धर्म वीरो! जागो और सचेत हो जामो! धर्म पर आने वाली आपदामों को हटा कर धर्म रक्षा करना परम कर्तव्य है । आशा है समाज उक्त करार को रद्द कराने में अपने प्राणों का बलिदान करने से भी नहीं हिचकिचायेगा । और अपने संगठन के संतुलन को बनाये रक्खेगी ।
-प्रेमचन्द जैन
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रा० ब० सेठ लालचन्द जी सेठी का स्वर्गवास
जैन समाज के प्रसिद्ध कार्यकर्ता और समाज सेवी सेठ लालचन्द जी सेठी का हृदय गति बन्द हो जाने से १७ अप्रेल को स्वर्गवास हो गया। पाप अनेक जैन संस्थानों के संचालक थे। और बड़े ही लोकप्रिय थे । अन्त समय में आपने डाक्टरी उपचार भी नहीं कराया और भगवान महावीर का नाम लेते-लेते इस नश्वर शरीर का परित्नग किया। यद्यपे यह आपके पौत्र भूपेन्द्रकुमार जी और तेजकुमार जी पर गहरा वजाघात है। पर विधि का विधान ही ऐसा है, इसमे किसी का वश नहीं चलता। भगवान से प्रार्थना है कि दिवंगत प्रात्मा परलोक मे सुख-शान्ति प्राप्त करे और कुटम्बी जनों को वियोग जन्य दु.ख सहने की क्षमता प्राप्त हो।
सेठ स हब के परिवार ने सेठ साहब की स्मति में दो लाख रुपये के दान की घोषणा की है। आशा है उससे कोई ठोस कार्य सम्पन्न होगा।
-अनेकान्त परि।
वीर-सेवा-मन्दिर और “अनेकान्त" के सहायक
१०००) श्री मिश्रीलाल जी धर्मचन्द जी जैन, कलकत्ता | १५०) श्री चम्पालाल जी सरावगी, कलकत्ता १०००) श्री देवेन्द्रकुमार जैन, ट्रस्ट,
१५ ) , जगमोहन जी सरावगी, कलकत्ता श्री साहु शीतलप्रसाद जी, कलकत्ता
१५०) , कस्तूरचन्द जी मानन्दीलाल कलकत्ता ५००) श्री रामजीवन सरावगी एण्ड संस, कलकत्ता] १५०) , कन्हैयालाल जो सीताराम, कलकत्ता ५० ) श्री गजराज जी मरावगी, कलकत्ता
१५०) , पं.बाबुलाल जी जैन, कलकत्ता ५००) श्री नयमल जी सेठो, कलकत्ता
१५०) , मालीराम जी सरावगी, कलकत्ता ५००) श्री वंजनाय जी धर्मचन्द जी, कलकत्ता
१५०) , प्रतापमल जी मदनलाल पांड्या, कलकता ५००) श्री रतनलाल जी झांझरी, कलकता
१५०) , भागचन्द जी पाटनी, कलकत्ता २५१) श्री रा० बा० हरखचन्द जी जैन, रांची १५०) , शिखरचन्द जी सरावगी, कलकत्ता २५१) श्री अमरचन्द जी जैन (पहाडचा), कलकता १५०) , सुरेन्द्रनाथ जी नरेन्द्रनाथ जी कलकत्ता २५१) श्री स० सि० धन्यकुमार जी जैन, कटनी १० ) , मारवाड़ी वि. जैन समाज, व्यावर २५१) श्री सेठ सोहनलाल जी जैन,
१०१) , दिगम्बर जैन समाज, केकड़ी मैसर्स मुन्नालाल द्वारकादास, कलकत्ता १०१) ,, सेठ चन्दूलाल कस्तूरचन्दजी, बम्बई नं. २ २५१) श्री लाला जयप्रकाश जी जैन
१०१) , लाला शान्तिलाल कागजी, बरियागंज बिल्ली ___ स्वस्तिक मेटल बस, जगाधरी
१०१) , सेठ भंवरीलाल जी बाकलीवाल, इम्फाल २५०) श्री मोतीलाल होराचन्द गांधी, उस्मानाबाद १०१) , शान्ति प्रसाद जी जैन २५०) श्री बन्शीवर जी जुगलकिशोर जो, कलकता
जैन बुक एजेन्सी, नई दिल्ली २५०) श्री जुगमन्दरदास जी जैन, कलकत्ता
१०१) , सेठ जगन्नाथजो पाण्ड्या झूमरोतलया २५०) श्री सिंघई कुन्दनलाल जी, कटनी
१००) , बद्रीप्रसाद जो प्रात्माराम जी, पटना २५०) श्री महावीरप्रसाद जी अग्रवाल, कलकत्ता १००) , रूपचन्दजी जैन, कलकत्ता २५०) श्री बी. पार० सी० जैन, कलकत्ता
१००) , जैन रत्न सेठ गुलाबचन्द जी टोंग्या २५०) श्री रामस्वरूप जी नेमिचन्द्र जी, कलकत्ता
इन्दौर १५०) श्री बजरंगलाल जी चन्द्रकुमार जी, कलकत्ता । १००), बाबु नपेन्द्रकुमार जी जैन, कलकता
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वीर-सेवा-मन्दिर के उपयोगी प्रकाशन
सभी ग्रन्थ पौने मूल्य में (१) पुगतन-जैनवाक्य-सूची-प्राकृत के प्राचीन ४६ मूल-ग्रन्थों की पद्यानुक्रमणी, जिसके साथ ४८ टीकादिग्रन्थों में
उद्धृत दूसरे पद्यों की भी अनुक्रमणी लगी हुई है। सब मिलाकर २५३५३ पद्य-वाक्यो की सूची। सम्पादक मुख्तार श्री जुगलकिशोर जी की गवेषणापूर्ण महत्व की ७० पृष्ट की प्रस्तावना से अलकृत, डा. कालीदास नाग, एम. ए. डी. लिट् के प्राक्कथन (Foreword) और डा. ए. एन. उपाध्ये एम. ए. डी.लिट् की भूमिका
(Introduction) से भूपित है, शोध-खोज के विद्वानों के लिए अतीव उपयोगी, बड़ा साइज, मजिल्द १५) (२) प्राप्त परीक्षा--थी विद्यानन्दाचार्य की स्वोपन सटीक अपूर्व कृति, प्राप्तो की परीक्षा द्वाग ईश्बर-विषय के
सुन्दर विनेचन को लिए हुए, न्यायाचार्य पं० दरबारीलालजी के हिन्दी अनुवाद से युक्त, सजिल्द । ८) (३) स्वयम्भूस्तोत्र-ममन्तभद्र भारती का अपूर्व ग्रन्थ, मुख्तार श्री जुगलकिशोरजी के हिन्दी अनुवाद तथा महत्व ___की गवेषणापूर्ग प्रस्तावना मे सुशोभित ।। (४) स्तुतिविद्या-स्वामी समन्तभद्र की अनोखी कृति, पापो के जीतने की कला, मटीक, मानवाद और श्री जगल
किशोर मुख्तार की महत्व की प्रस्तावनादि से अलंकृत मुन्दर जिल्द-महित । (५) अध्यात्मकमलमार्तण्ड–पचाध्यायोकार कवि गजमल की मुन्दर प्राध्यात्मिकरचना, हिन्दी-अनुवाद-सहित १॥) (६) युक्यनुशासन-तत्वज्ञान से परिपूर्ण समन्तभद्र की अमाधारण कृति, जिसका अभी तक हिन्दी अनुवाद नहीं
हुअा था । मुख्तार श्री के हिन्दी अनुवाद और प्रस्तावनादि से अलंकृत, मजिल्द । ... ॥) (७) श्रीपुरपार्श्वनाथस्तोत्र-प्राचार्य विद्यानन्द रचित, महत्व की स्तुति, हिन्दी अनुवादादि सहित । ... ) (८) शामनचतुस्थिशिका-(तीर्थपरिचय) मुनि मदनकीर्ति की १३वी शताब्दी की रचना, हिन्दी-अनुवाद-महित ।।।) (8) समीचीन धर्मशास्त्र-स्वामी ममन्तभद्र का गृहस्थाचार-विषयक अत्युत्तम प्राचीन ग्रन्थ, मुख्तार श्रीजुगलकिशोर
जी के विवेचनात्मक हिन्दी भाष्य और गवेपणात्मक प्रस्तावना से युक्त, मजिल्द । ... ३) (१०) जैनग्रन्थ-प्रशस्ति मग्रह - संस्कृत और प्राकृत के १७१ अप्रकाशित ग्रन्थों की प्रशस्नियों का मगन चरण महित
अपूर्व संग्रह उपयोगी ११ परिशिष्टों की और प० परमानन्द शास्त्री की इतिहास-विषयक माहित्य परिचयात्मक
प्रस्तावना मे अलंकृत, मजिल्द । (११) अनित्यभावना-पा० पद्मनन्दी की महत्व की रचना, मुन्नार श्री के हिन्दी पद्यानु गद और भावार्थ अहित ।) (१२) तत्वार्थमूत्र-(प्रभाचन्द्रीय)---मुख्तार श्री के हिन्दी अनुवाद तथा व्याख्या से युक्त। (१३) श्रवणबेलगोल और दक्षिण के अन्य जैनतीर्थ । (१४) महावीर का मर्वोदय तीर्थ =), (१५) ममन्तभद्र विचार-दीपिका =), (१६) महावीर पूजा (१७) बाहुबली पूजा---जुगलकिशोर मुख्तार कृत। (१८) अध्यात्प रहस्य--१० अागाधर की मुन्दर कृति मुख्नार जी के हिन्दी अनुवाद महित (१६) जैनग्रन्थ-प्रशस्ति मग्रह भा० २ अपभ्रश के १२२ अप्रकागिन ग्रन्थोंकी प्रशस्तियोका महत्वपूर्ण सग्रह ५५
ग्रन्कारों ऐतिहासिक ग्रंथ-परिचय और परिशिष्टो महित । म०प० परमानन्द शास्त्री सजिल्द १२) (२०) जैन साहित्य और इतिहास पर विशद प्रकाश, पृष्ठ मख्या ७४० सजिल्द (वीर-शामन-मध प्रकाशन ... ५) (२१) कसायपाहुड सुत्त--मूल ग्रन्थ की रचना आज से दो हजार वर्ष पूर्व श्री गुणधराचार्य ने की, जिस पर श्री
यतिवपभाचार्य ने पन्द्रह सौ वर्ष छह हजार श्लोक प्रमाण चूणिमूत्र लिखे । सम्पादक पं० हीरालाल जी सिद्धान्त शास्त्री, उपयोगी परेशिष्टो और हिन्दी अनुवाद के माथ बड़ी साइज के १००० से भी अधिक . पृष्ठों में । पुष्ट कागज और कपड़े की पक्की जिल्द ।
२०) .. (२२) Reality ग्रा० पूज्यपादं की मर्वार्थमिद्धि का अग्रेजी में अनुवाद बड़े आकार के ३०० पृष्ठ पक्को जिल्द मू०६)
प्रकाशक -प्रेमचन्द जैन, वीरगेवा मन्दिर के लिए, रूपवारणी प्रिंटिग हाउस, दरियागज दिल्ली से मुद्रित
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जून १६०
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Dajoblue
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श्री पार्श्वनाथ को एक खण्डित मूर्ति, बजरंग गढ़
छाया-नीरज जैन
समन्तभद्राश्रम (वीर-सेवा-मन्दिर) का मुखपत्र
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द्वमासिक
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विषय
१. सुमति-जिन स्तुति समन्तभद्राचार्य
२. यशस्तिलक कालीन आर्थिक जीवनगोकुलचन्द जी जैन एम. ए. धाचार्य
विषय-सूच
३. परीक्षामुख के सूत्रों और परिच्छेदों का विभाजन एक समस्या पं० गोपीलाल 'अमर', एम. ए. साहित्य शास्त्री
७.
८.
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५६
४. भूपाल चौबीसी की एक महत्वपूर्ण सचित्र प्रति - अगरचन्द नाहटा
५६
५. जैन दर्शन में प्रर्थाधिगम- चिन्तन
पं० दरबारीलाल न्यायाचार्य कोठिया एम. ए. ६१ ६. बजरंगगढ़ का विशद् जिनालय ----
श्री नीरज जैन
क्षपणासार के कर्ता मामचंद श्री पं० मिलापचन्द कटारिया, केकड़ी
-
- पृष्ठ १७. साहित्य-समीक्षा - परमानन्द शास्त्री *
૪૨
५०
३८वें ईसाई तथा उवं बौद्ध विश्व-सम्मेलनो की श्री जैन सघ को प्रेरणा - श्री कनकविजय जी मामूरगंज, वाराणसी
९. श्री बाबू छोटेलाल जी जैन का सक्षिप्त जीवन
परिचय
१४. जयपुर की संस्कृत-साहित्य को देन 'श्री पुण्ड
रोक विठ्ठल ब्राह्मण' डा० श्री प्रभाकर शास्त्री एम. ए. पी. एच. डी
१५. शोध कण-परमानन्द जैन शास्त्री.
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६७
७०
१०. श्री छोटेलाल जैन अभिनन्दन प्रप
-डा० कस्तूर चन्द कासलीवाल एम. ए. ७८ ११. श्रीपुर पार्श्वनाथ मन्दिर के मूर्ति यंत्र लेख - सग्रह - पं० नेमचन्द पन्नूसा जैन, देवलगांव १२. ब्रह्म नेमिदत्त और उनकी रचनाएँपरमानन्द जैन शास्त्री
१३. दो ताड़-पत्रीय प्रतियों की ऐतिहासिक प्रशस्तयां श्री भंवरलाल नाहटा
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८५
८७
१६. जैनधर्म और जातिवाद - कमलेश सक्सेना, मेरठ
६०
अनेकान्त को सहायता
५) बा० देवकुमार जी जैन पानीपत ने अपने पिता पं० मुनिसुव्रतदास की मृत्यु समय निकाले हुए दान में से
सधन्यवाद प्राप्त ।
-व्यवस्थापक 'अनेकान्त'
६३
६५
⭑
सूचना
जिन ग्राहकों ने १८वें वर्ष के 'अनेकान्त' का वार्षिक मूल्य अब तक भी नहीं भेजा है वे शीघ्र ही मनीभार्डर से अपना वार्षिक मूल्य ६ ) भेज दें, अन्यथा तीसरा अंक उन्हें ६-६० पैसे की बी० पी० से भेजा जायेगा ।
-व्यवस्थापक अनेकान्त
वीर सेवा मन्दिर २१ दरियागंज, दिल्ली ।
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सम्पादक मण्डल
डा० प्रा० ने० उपाध्ये डा० प्रेमसागर जैन श्री यशपाल जैन
अनेकान्त का वार्षिक मूल्य ६) रुपया एक किररण का मूल्य १ रुपया २५ पै०
अनेकान्त में प्रकाशित विचारों के लिए सम्पादक मण्डल उत्तरदायी नहीं हैं।
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मोन पहन
अनेकान्त
परमागस्य बीजं निषिद्ध जात्यन्धसिन्धुरविधानम्। सकलनयविलसितानां विरोषमयनं नमाम्यनेकान्तम् ॥
वर्ष १८ किरण-२
बीर-सेवा-मन्दिर, २१ दरियागंज, दिल्ली-६ वीर निर्वाण संवत् २४६१, वि० सं० २०२२
सन् १९६५
सुपार्श्व-जिन-स्तुति
स्तवाने कोपने चैव समानो यन्न पावकः । भवाने कोपि नेतेव त्वमायः सुपार्श्वकः ॥२९॥
-समन्तभद्राचार्य
अर्थ-हे भगवन् ! सुपार्श्वनाथ ! आप, स्तुति करने वाले प्रोर निन्दा करने वाले दोनों के विषय में समान हैं-राग-द्वेष से रहित हैं ! सबको पवित्र करने वाले हैं। सत्रको हित का अदेश देकर कर्म-बन्धन से छुटाने वाले हैं । अतः आप एक असहाय (दूसरे पक्ष में प्रधान) होने पर भी नेता की तरह सबके द्वारा प्राश्रयणीय हैं-सेवनीय हैं।
भावार्थ-जिस तरह एक ही नेता अनेक भादमियों को सम्यक् मार्ग का प्रदर्शन कर इष्ट स्थान पर पहुंचा देता है उसी तरह आप भी अनेक जीवों को मोक्ष मार्ग बतला कर इष्ट स्थान पर पहुँचा देते हैं, स्वयं भी पहुंचे हैं। प्रतः आप हम सबकी श्रद्धा और भक्ति के भाजन हैं ॥२६॥
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यशस्तिलक कालीन आर्थिक जीवन
गोकुलचन्द जी जैन एम. ए. प्राचार्य
सोमदेव ने यशस्तिलक (६५९ ई.) में कृषि, वाणिज्य लुटाती थी।७ इतनी उपज होती थी कि बोये हुए खेत सार्थवाह, नौसन्तरण और विदेशी व्यापार, बिनिमय के की लुनाई करना, लुने धान की दौनी करना और दौनी साधन, न्यास इत्यादि के विषय में पर्याप्त जानकारी दी किए धान को बटोरकर संग्रह करना मुश्किल हो जाता है। संक्षेप में उसका परिचय निम्न प्रकार है - या। कृषि
खेत में बीज डालने को वप्त कहा जाता था। पके
खेत को काटने के लिए लवन कहते थे तथा काटी गयी कृपि के लिए अच्छी और उपजाऊ जमीन, सिंचाई
धान की दौनी को विगाना कहा जाता था। के साधन, सहज प्राप्य श्रम और साधन आवश्यक हैं। सोमदेव ने यौधेय जनपद का वर्णन करते हुए लिखा है कि
पर्याप्त धान से समृद्ध प्रजा के मन में ही यह विचार वहाँ की जमीन काली थी। सिंचाई के लिए केवल वर्षा
सम्भव था कि हमारी यह पृथ्वी मानो स्वर्ण के कल्पद्रुमों
की शोभा को लूट रही है । के पानी पर निर्भर नहीं रहना पड़ता था ।२ श्रमिक भी। सहज रूप में उपलब्ध हो जाते थे। कुछ श्रमिक ऐसे होते अनुपजाऊ जमीन ऊपर कहलाती थी। जैसे मूखों को ये जो अपने-अपने हल इत्यादि कृषि के औजार रखते थे तत्त्व का उपदेश देना व्यर्थ है, उसी प्रकार ऊपर जमीन तथा बुलाये जाने पर दूसरों के खेत जोत-बो पाते थे। का जतिना-बाना और उसमें पानी देना व्यर्थ है? सोमदेव ने ऐसे श्रमिकों के लिए 'समाश्रित प्रकृति' पद का वाणिज्यप्रयोग किया है।३ श्रुतसागर ने इसका अर्थ अठारह वाणिज्य की व्यवस्था प्रायः दो प्रकार की होती थीप्रकार के हलजीवि किया है। इस प्रकार क हलजाविया स्थानीय तथा जहाँ दूर-दूर के व्यापारी जाकर धंधा करें। की कमी नहीं थी।
स्थानीय व्यापार के लिए हर वस्तु का प्रायः अपनाखेती करने में विशेषज्ञ व्यक्ति क्षेत्रज्ञ कहलाता था। अपना बाजार होता था। केसर, कस्तूरी आदि सुगन्धित उसकी पर्याप्त प्रतिष्ठा भी होती थी।५ कृषि की समृद्धि वस्तुएँ जिस बाजार में बिकती थीं वह सौगन्धियों का
एक कारण यह भी था कि सरकारी लगान उतना ही बाजार कहलाता था११ । वास्तव में यह बाजार का एक लिया जाता था, जितना कृषिकार सहज रूप में दे सके। भाग होता था, इसलिए इसे विपणि कहते थे। इस बाजार यही सब कारण थे कि कृषि की उपज पर्याप्त होती थी - और वसुन्धरा पृथिवी चिन्तामणि के समान शस्य सम्पत्ति ७. वपत्रक्षेत्रसंजातसस्यसम्पत्ति वन्धराः ।
चिन्तामणिसमारम्भाः सन्ति यत्र वसुन्धराः ॥ पृ०१६ १. कृष्ण भूमयः, पृ० १३
८. लवने यत्र नोप्तस्य लूनस्य न विगाहने । २. प्रदेवमाष्टका, वही। सुलभजलः, वहीं
विगाढस्य च धान्यस्य नालं संग्रहणे प्रजाः ।। पृ०१६ ३. समाश्रित प्रकृतयः, वही
६. प्रजा प्रकामसस्याढ्या सर्वदा यत्र भूमयः । ४. हलबहुलः, वही
मुष्णन्तीवामरावासकल्पद्रुमवनश्रियम् ।। पृ० १६८ ५. क्षेत्रज्ञप्रतिष्ठाः, वही
१०. यद्भवेनमुग्धबोधानामूषरे कृषिकर्मवत्, पृ० २८२ उत्त० ६. भर्तृकरसंवाघसहाः, पृ० १४
११. सौगन्धिकानां विपणिविस्तारेषु, पृ० १८ उत्त.
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मशस्तिलक कालीन प्राधिक जीवन
११
में केसर, चन्दन, भगुरु मादि सुगन्धित वस्तुओं का ही लेन- कनाते तानकर अलग-अलग दुकानें बनाई गई थीं। सामान देन होता था१२।
की सुरक्षा के लिए बड़ी-बड़ी खोड़ियां या स्टोर हाउस जिस बाजार में माली पुष्पहार बेचते थे, उसे सोमदेव थे। पोखरों के किनारे पशुधन की व्यवस्था थी। पानी, ने श्रमजीवियों का पापण कहा है१३ । श्रमजीवी मालाएं अन्न, ईन्धन तथा यातायात के साधन सरलता से उपलब्ध हाथों में लटका-लटका कर ग्राहकों को अपनी पोर हो जाते थे । सारा पेण्ठास्थान चार मील के घेरे में फैला प्राकृष्ट करते थे१४।
था। चोरों आदि से सुरक्षा के लिए अहाता और खाई बाजार प्रायः आम रास्तों पर ही होते थे। सोमदेव ने लिखा है कि सायंकाल होते ही राजमार्ग खचाखच भरी
थे। सैनिक सुरक्षा का समुचित प्रबन्ध था। हर गली में
माया जाते थे१५। भीड में कुछ तो ऐसे नागरिक होते थे, जो भोजनालय सभाभवन पर्याप्त थे। जमाडी. चोररात्रि के लिए सम्भोगोपकरणों का इन्तजाम करने उत्साह- चपाटों और बदमाशों पर खास निगाह थी कि वे भीतर पूर्वक इधर-उधर घूम रहे होते१६ । कुछ रूप का सौदा नमाने पावें । शल्क भी यथोचित लिया जाता था। नाना करन वाला वारनवलाासानया घमण्डपूवक अपन हाव- देशों के व्यापारी वहाँ व्यापार के लिए पाते थे१६ । भाव प्रदर्शित करती हुई कामुकों के प्रश्नों की उपेक्षा करती टहल रही होतीं१७ । कुछ ऐसी दूतियाँ जिनके हृदय यह पेण्ठास्थान श्रीभूति नामक एक पुरोहित द्वारा अषने पतियों द्वारा सुनाई गयी किसी अन्य स्त्री के प्रेम संचालित था और उसकी व्यक्तिगत सम्पत्ति प्रतीत होता की घटना से दुःखी होते, अपनी सखियों की बातों का
है। किन्तु प्राचीन भारत में राज्य द्वारा इस प्रकार के उत्तर दिए बिना ही चहलकदमी कर रही होती१८ ।
पेण्ठास्थानों का संचालन होता था। स्वयं सोमदेव ने पेण्ठा स्थान
नीतिवाक्यामृत में लिखा है कि न्यायपूर्वक रक्षित पिण्ठा ___ व्यापार की बड़ी-बड़ी मंडियां पेण्ठा स्थान कहलाती या पेण्ठास्थान राजाओं के लिए कामधेनु के समान है२० । थी। पेण्ठा स्थानों में व्यापारियों को सब प्रकार की नीतिवाक्यामृत के टीकाकार ने पिण्ठा का अर्थ 'शुल्कसुविधाओं का प्रबन्ध रहता था। यहाँ दूर-दूर तक के स्थान किया है तथा शुक्राचार्य का एक पद्य उद्धृत किया व्यापारी आकर अपना धन्धा करते थे। सोमदेव ने एक है कि व्यापारियों से अधिक शुल्क नहीं लेना चाहिए और पेण्ठोस्थान का सुन्दर वर्णन किया है। उस पेण्ठास्यान में यदि पिण्ठा से किसी व्यापारी का कोई माल चोरी चला १२. परिवर्तमानकाश्मीरमलयजागुरुपरिमलोद्गारसारेषु, ।
१९. स किल श्रीभूतिविश्वासरसनिघ्नतया परोपकार१३. स्रगाजीविनामापणरंगभागेसु, पृ० १८ उत्त० ।
निध्नतया च विभक्तानेकापवरकरचनाशालिनीभि१४. करविलम्बितकुसुमसरसौरभसुमनेषु. वही
महामाण्डवाहिनीभिर्गोशालोपशल्याभिः कुल्याभिः १५. समाकुलेषु समन्ततौ राजवीथिमण्डलेषु, वही
समन्वितम्, प्रतिसुलभजलयवसेन्धनप्रचारम्, भण्डना१६. ससंभ्रममितस्ततः परिसर्पता संभोगोपकरणा
रम्भोद्भटभरीरपेटकपक्षरक्षासारम्, गोरुतप्रमाण हितादरेण पौरनिकरण, वही
वप्रप्राकारप्रतोलिपरिखासूत्रितत्राणं प्रपासत्रसमास१७. निजविलासदर्शनाहंकारिमनोरथाभिरवधीरित
नाथवीथिनिवेशनं पण्यपुटभेदनं विदूरितकितवविटविटमुधाप्रश्नसंकयाभिः पण्यांगनासमितिभिः,
विदूपकपीठमर्दावस्यानं पेण्ठास्थानं विनिर्माप्य नानापृ० १९ उत्त०
दिग्देशोपसर्पणयुजां वणिजां प्रशान्तशुल्कभाटकभाग१८. प्रात्मपतिसंदिष्टघटनाकुपितहृदयेनावधीरित
हारव्यवहारमचीकरत् । पृ० ३४५ उत्त. सखीजनसंभाषणोत्तरदानसमयेनसंचरितसंचा- २०. न्यायेनरक्षिता पण्यपुटमेदिनिपिण्ठा राज्ञां कामधेनुः । रिकानिकायेन, वही
नीति० १९२१
वही
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जाए तो उसे राजकीय कोष से भरना चाहिए२१। सुरक्षा करते हुए उसे गन्तव्य स्थान तक पहुँचाये । सार्थ
सोमदेव ने पिण्ठा को पण्यपुटभेदिनी कहा है । टीका- वाह कुशल व्यापारी होने के साथ-साथ अच्छा पथ-प्रदर्शक कार ने इसका अर्थ वणिकों की कुंकुम, हिंगु वस्त्र प्रादि भी होता था। माज भी जहाँ वैज्ञानिक साधन नहीं पहुंच वस्तुओं को संग्रह करने का स्थान किया है२२ । यशस्ति- सके हैं, वहाँ सार्थवाह अपने कारवां वैसे ही चलाते हैं, लक के विवरण से ज्ञात होता है कि पेण्ठा स्थान व्यापार जैसे हजार वर्ष पहले । कुछ ही दिनों पहले शिकारपुर के के बहुत बड़े साधन थे और व्यापारिक समृद्धि में इनका साथ (सार्थ के लिए सिंधी शब्द) चीनी तुकिस्तान पहुंचने महत्वपूर्ण योगदान था।
के लिए काराकोरम को पार करते थे। पाज दिन भी सार्यवाह:
तिव्बत का व्यापार सार्थों द्वारा होता है२५। यशस्तिलक में सार्थवाह के लिए सार्थ (१६) सार्थ- प्राचीनकाल में कोई एक उत्साही व्यापारी सार्थ पार्थिव (२२५ उत्त०) तथा सार्थानीक (२९३ उत्त०) बनाकर व्यापार के लिए उठता था। उसके साथ में और शब्द पाये हैं। समान या सहयुक्त अर्थ (पूंजी) वाले भी लोग सम्मिलित हो जाते थे। इसके निश्चित नियम व्यापारी जो बाहरी मण्डियों से व्यापार करने के लिए थे। सार्थ का उठना व्यापारिक क्षेत्र की बड़ी घटना टांडा बांध कर चलते थे, सार्थ कहलाते थे। उनका नेता होती थी। धार्मिक यात्रा के लिए जिस प्रकार संघ निकज्येष्ठ व्यापारी सार्थवाह कहलाता था२३ । इसका निकट- लते थे और उनका नेता संघपति (संघवई, संघवी) तम मंगरेजी पर्याय कारवान लीडर है। हिन्दी का सार्थ होता था, वैसे ही व्यापारिक क्षेत्र में सार्थवाह की स्थिति शब्द संस्कृत के साथ से ही निकला है, किन्तु उसका वह थी। डा. वासुदेवशरण अग्रवाल ने लिखा है कि भारतीय प्राचीन अर्थ लुप्त हो गया है। प्राचीनकाल में यात्रा व्यापारिक जगत में जो सोने की खेती हुई उसके फले करना उतना निरापद नहीं था, जितना अब हो गया है। पुष्प चुनने वाले सार्थवाह थे। बुद्धि के धनी, सत्य में डाकूमों और जंगली जानवरों से घनघोर जंगल भरे पड़े निष्ठावान, साहस के भण्डार, व्यापारिक सूझ-बूझ में पगे, थे, इसलिए अकेले-दुकेले यात्रा करना कठिन था। मनुष्य उदार, दानी, धर्म और संस्कृति में रुचि रखने वाले, नई ने इस कठिनाई से पार पाने के लिए एक साथ यात्रा स्थिति का स्वागत करने वाले, देश-विदेश की जानकारी करने का निश्चय किया, और इस तरह किसी सुदूर भूत के कोप, यवन, शक, पल्लव, रोमक, ऋषिक, हण मादि में सार्थ की नींव पड़ी। बाद में तो यह दूर के व्यापार का विदेशियों के साथ कन्धा रगड़ने वाले, उनकी भाषा और एक साधन बन गया२४ ।
रीति-नीति के पारखी भारतीय सार्थवाह महोदधि के तट सार्थवाह का कर्तव्य होता था कि वह सार्थ की पर स्थित ताम्रलिपति से सीरिया की अन्ताखी नगरी तक
यव द्वीप-कटाहद्वीप (जावा और केडा) से चोलमण्डल के २१. तथा च शुक्र:-प्राह्य नेवाधिकं शुल्कं चौरर्यच्चाहृतं सामुद्रिक पत्तनों और पश्चिम में यवन, बर्बर देशों तक भवेत् । पिण्ठायां भुभुजा देयं वणिजां तत स्वकोशतः के विशाल जल, थल पर छा गये थे२६ ।
वही, टीका
यशस्तिलक में सुवर्णद्वीप और ताम्रलिप्ति के व्यापार २२. पण्यानि वणिम्जनानां कुंकुमहिंगुवस्त्रादीनि क्रयाण. का उल्लेख है। पचिनी खेटपट्टन का निवासी भद्र मित्र कानि तेषां पुटाः स्थानानि भिद्यन्ते यस्यां सा पण्य
अपने समान धन और चरित्र वाले वरिणक् पुत्रों के साथ, पुटमेदिनी। वही, टीका
सुवर्णद्वीप के लिए गया। वहां उसने बहुत धन कमाया २३. समानधनचारित्रर्वणिकपुत्रः । पृ० ३४५ उत्त०
और मन वांछित सामग्री लेकर लौट पड़ा। रास्ते में तुलना-सार्थन् सधनान् सरतो वा पान्यान वहति
सार्थवाहः, अमरकोष ।३९७८ सं० टी०। २५. मोतीचन्द्र-सार्थवाह, पृ० २६ । २४. अग्रवाल-सार्थवाह, प्रस्तावना पृ० २।
२६. अग्रवाल-बही पृ०२।
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यशस्तिलक कालीन साविक जीवन
दुर्दैव से असमय में ही समुद्र में तूफान भा गया मोर पुष्पक कन्या के रूप सौन्दर्य को देखकर मोहित हो गया। उसका जहाज डूब गया। प्रायु शेष होने के कारण वह अनेक तरह के लोभ देकर उसे वश में करने लगा, किन्तु प्रकेला जिन्दा बच गया और एक फलक के सहारे जैसे जब वश में नहीं हुई तो अयोध्या में लाकर एक वेश्या तैसे पार लगा२७॥
को दे दिया ३२। । दूसरी कथा में पाटलिपुत्र के महाराज यशोध्वज के
जो जिस तरह भारतीय सार्थ विदेशी व्यापार के लिए लड़के सुवीर ने घोषणा की कि जो कोई ताम्रलिप्ति पत्तन
न जाते थे, उसी तरह विदेशी सार्थ भारत में भी व्यापार के सेठ जिनेन्द्र भक्त के सतखण्डा महल के ऊपर बने करने के लिए आते थे। पहले लिखा जा चुका है कि जिन-भवन में से छत्रत्रय के रूप में लगे अद्भुत वड्यं
सोमदेव ने एक अत्यन्त समृद्ध पेण्ठा स्थान (बाजार) का मणियों को ला देगा, उसे मनोभिलसित पारितोषक दिया वर्णन किया है जहाँ पर अनेक देशों के व्यापारी व्यापार जायेगा । सूर्य नाम का एक व्यक्ति साधु का वेष बना के लिए प्राते थे३३ । कर जिनदत्त के यहां पहुंचा और एक दिन वहाँ से रत्न विनिमय के साधनचुरा कर भाग निकला२८ ।
सोमदेव ने विनिमय के दो प्रकार बताए है। वस्तु का इसी कथा के अन्तर्गत जिनभद्र की विदेश यात्रा का मूल्य मुद्रा या सिक्के के रूप में देकर खरीदना या वस्तु भी उल्लेख है। सोमदेव ने इसे वहिन-यात्रा कहा है। का वस्तु से विनिमय । मुद्रा या सिक्कों में सोमदेव ने जिनभद्र वहित्र-यात्रा के लिए जाना चाहता था। घर निष्क, कार्षापण और सुवर्ण का उल्लेख किया है३४ । किसके भरोसे छोड़े, यह समस्या थी। अन्त मे वह उसी ये उस युग के बहु प्रचलित सिक्के थे। इनके विषय में सूर्य नामक छद्म वेषधारी साधु पर विश्वास करके उसके संक्षिप्त जानकारी इस प्रकार हैजिम्मे सब छोड़कर विदेश यात्रा के लिए चल देता - है२६
निष्क के प्राचीनतम उल्लेख वेदों में मिलते हैं। उस अमृतमति का जीव एक भव में कलिंग देश में भैसा
समय निष्क एक प्रकार के सुवर्ण के बने आभूषण को कहा हुा । किसी सार्थवाह ने उसके सुन्दर और मजबूत शरीर
जाता था, जो मुख्य रूप से गले में पहना जाता था और को देखकर खरीद लिया और अपने काफले के साथ
जिसे स्त्री पुरुष दोनों पहनते थे ३५ । उज्जयिनी ले गया३०।
वैदिक युग के बाद निष्क एक नियत सुवर्ण मुद्रा बन सोमदेव ने लिखा है कि यौधेय जनपद को कृषक
गयी, ऐमा बाद के साहित्य से ज्ञात होता है। जातक, वधुएँ अपनी नटखट चाल और नाना विलासों के द्वारा
महाभारत तथा पाणिनी में निष्क के उल्लेख पाये हैं३६ । परदेशी सार्थी के नेत्रों को क्षण भर के लिए सुख देती
मनुस्मृति में निष्क को चार सुवर्ण या तीन सौ बीस हुई खेतों में काम करने चली जाती थीं३१।। रत्ती के बराबर कहा है ३७ ।
चम्पापुर के प्रियदत्त श्रेष्ठी की रूपसी कन्या विपत्ति --- -- -- - - - की मारी शंखपुर के निकट पर्वत की तलहटी में पहुँची। ३२. पृ० २६३ उत्त० । वहाँ पूष्पक नाम के वणिक-पति का सार्थ पडाव डाले था। ३३. पृ० ३४५ उत्त०।
३४. परं साशयिकायनिष्कादसांगयिक: कापिणः । २७. पृ० ३४५ उत्त०।
पृ० ६२ उत्त० २८. पृ० ३०२ उत्त।
पत्रव्यवहार : सुवर्णदक्षिणासु । पृ० २०२ २६. वही।
३५. अग्रवाल-पाणिनिकालीन भारतवर्ष । पृ० २५० ३०. पृ० २२५ उत्त०।
३६. वही, पृ० २५१-५२ ३१. पृ० १६ ।
३७. मनुस्मृति ११३७
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कापण
वजन बताया है। बहुत प्राचीन सुवर्ण उपलब्ध नहीं होते कार्षापण प्राचीन भारत का सबसे प्रसिद्ध सिक्का था। फिर भी गुप्त युग के जो सुवर्ण सिक्के मिले हैं उनका यह चांदी का बनता था। मनुस्मृति में इसे ही धरण और वजन प्रायः इतना ही है४३ । राजत पुराण (चांदी का पुराण) भी कहा है३८ । पाणिनि
सुवर्ण के उल्लेख प्राचीन साहित्य और शिल्प समान ने इन सिक्कों को राहत कहा है३६ । उसी के अनुसार ये रूप से पाये जाते हैं । श्रावस्ती के प्रनाथ सिंडक की कथा अंगरेजी में पंच मावई के नाम से प्रसिद्ध हैं। ये सिक्के प्रसिद्ध है। अनाथपिंडक बौद्ध सघ के लिए एक विहार बुद्ध युग से भी पुराने हैं तथा भारतवर्ष में प्रोर से छोर बनाना चाहता था। इसके लिये उसने जो जमीन पसन्द तक पाये जाते हैं । अब तक लगभग पचास सहन से भी की वह जेत नामक एक राजकुमार की सम्पत्ति थी। अधिक चांदी के कार्षापण मिल चुके हैं४० ।
मनाथपिडक ने जब जेत से उस जमीन का दाम पूछा तो मनुस्मृति के अनुसार चांदी के कार्षापण या पुराण का
उसने उत्तर दिया कि आप जितनी जमीन लेना चाहें, वजन बत्तीस रती था। सोने या तांबे के कर्ष का वजन
उतनी जमीन पर मूल्य स्वरूप सुवर्ण बिछाकर ले लें। अस्सी रत्ती था।
अनाथपिंडक ने अठारह करोड़ सुवर्ण बिछाकर उस जमीन
को खरीद लिया। कार्षापण की फुटकर खरीज भी होती थी। अष्टाध्यायी, जातक तथा अर्थशास्त्र में इसकी सूचियाँ आई हैं।
भरहत के बौद्ध स्तूप में इस कथा का अंकन प्रा है। अष्टाध्यायी में कापिण को केवल पण कहा है। इसके
एक परिचारक छकड़े पर से सिक्के उतार रहा है। एक अर्घ, पाद, त्रिमाप, हिमाष, अध्यर्ध या डेढ़ माप, माप
दूसरा उन सिक्कों को किसी चीज में उठाकर ले जा रहा और अर्धमाप का उल्लेख है । कात्यायन ने इनमें काकणी
है। दूसरे दो परिचारक उन सिक्कों को जमीन पर बिछा और अर्धकाकड़ी नाम और जोड़े हैं , जातकों में कहा पण
रहे है ४४ । बौद्धगया के महाबोधि मन्दिर के स्तम्भों में अड्ढ, पक्ष या चनारोमासका, तयोमासका, द्वैमासका,
भी इसी तरह के चित्र है४५ । एकमासका और अड्ढमासका नाम आए हैं । अर्थशास्त्र में
सोमदेव के उल्लेख से ज्ञात होता है कि दशमी शती पण, अर्धपण, पाद, अष्टभाग, माणक, अर्धमाणक, काकणी
तक सुवर्ण मुद्रा का प्रचार था। सोमदेव ने लिखा है कि तथा अर्धकाकडी नाम आये हैं४१ ।
पल का व्यवहार सुवर्ण दक्षिणा में था४६ । सुवर्ण
वस्तु-विनिमयनिष्क की तरह सुवर्ण एक सोने का सिक्का था।
वस्तु विनिमय में एक वस्तु देकर लगभग उसी मूल्य मनगढ़ सोने को हिरण्य कहते थे और उसी के जब सिक्के
__ की दूसरी वस्तु ले ली जाती थी। भद्र मित्र सुवर्ण द्वीप के
का दूसरा पर ढाल लेते तो वे सुवर्ण कहलाते थे४२।
व्यापार के लिए गया तो वहाँ से अपनी पसन्द की अनेक सुवणं का वजन मनुस्मति के अनुसार प्रस्सी रत्ती या वस्तुओं को वस्तु विनिमय में संग्रहीत किया४७ । सोलह माशा होता था। कौटिल्य ने एक कर्प अर्थात एक अन्य प्रसंग में आया है कि एक गड़रिया एक प्रस्सी गुजा (लगभग १५० ग्राम) के बराबर सुवर्ण का बकरा लिये था। यज्ञ करने के इच्छुक एक पंडित ने पूछा,
३८. द्वे कृष्णले समधृते विज्ञेयो गैप्यमापक, ते पोडश ४३. अग्रवाल-पाणिनिकालीन भारतवर्ष, पृ० २५३ ।
स्याद्धरणं पुगणश्चंव राजत । ८।१३५-३६ ४४. कनिंघम-स्तूप प्रॉव भरहुत, पृ०६४। ३६. अष्टाध्यायी, श२।१२०
४५. कनिवम-महाबोधि, पृ० १३ । ४०, अग्रवाल, पाणिनिकालीन भारतवर्प, पृ० २५६ ४६. पलव्यवहारः सुवर्णदक्षिणासु, पृ० २०२। ४१. वहीं
४७. प्रगण्यपण्यविनिमयेन तत्रत्यमचिन्त्यमात्माभिमतवस्तु४२. भण्डारकर-प्राचीन भारतीय मुद्रा शिल्प, पृ०५१ स्कन्धमादाय, पृ० ३४५ उत्त०।
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यशस्तिलक कालीन प्राधिक जीवन
अरे भाई, बेचना हो तो इधर लामो। 'सरकार, वेचना अपने सात बहुमूल्य रत्न रखकर विदेश यात्रा के लिए ही तो है। माप अपनी अंगूठी बदले में मुझे दे दें, तो मैं गया था; किन्तु दुर्भाग्य से लौटते में उसका जहाज समुद्र इसे दे दूं। उसने उत्तर दिया और उस पंडित ने अंगूठी में डूब गया। संयोग से वह बच गया और पाकर श्रीभूति देकर बकरा ले लिया।
से अपने रत्न मांगे । श्रीभूति ने न्यास को तो नकारा ही, वस्तु विनिमय की सबसे बड़ी कठिनाई यही थी कि
साथ ही भद्रमित्र को बहुत ही बुरा-भला कहा और उल्टा
ले जाकर राजा के पास पेश कर दिया५१ । जो वस्तु आपके पास है उस वस्तु की अावश्यकता उस व्यक्ति को हो जिस व्यक्ति की वस्तु पाप लेना चाहते हैं। भूति : इसी आवश्यकता की तीव्रता या मन्दता के आधार पर भूति या नौकरी के प्रति माधारणतया लोगों की वस्तु विनिमय का आधार बनता था।
धारणा मच्छी नहीं थी, प्रत्युत इसे निद्य माना जाता न्यास:
था ५२ । इसका मुख्य कारण यह था कि भृत्य या सेवक
कार्य करने के विषय में अपने मालिक के निर्देश पर प्रवसोमदेव ने न्यास या धरोहर रखने का उल्लेख
लंबित रहता है और उसका अपना मन या विवेक वहाँ किया है । भद्रमित्र विदेश यात्रा के लिए गया तो प्राचार,
काम नहीं देता। अनेक प्रसग ऐसे भी पाते हैं जब भत्य व्यवहार और विश्वास के लिए विश्रुत श्रीभूति के पास उसकी पत्नी के समक्ष सात अमूल्य रत्न न्यास रख
को अपनी इच्छा के विपरीत भी कार्य करने पड़ते हैं। गया४६।
उसी समय यह धारणा बनती है कि नौकरी करने वाले
का सत्य जाता रहता है । करुणा के साथ धर्म भी समाप्त न्यास रखते समय यह अच्छी तरह विचार लिया
हो जाता है, केवल नीच वृत्तियों के साथ पाप ही शाप की जाता था कि जिस व्यक्ति के पास न्यास रखा जा रहा है
तरह चिपटा फिरता है५३ । वह पूर्ण प्रामाणिक और विश्वासपात्र व्यक्ति है। इतना होने पर भी न्यास रखते समय साक्षी अपेक्षित समझी
वास्तव में बात यह है कि नौकरी तो एक प्रकार का जाती थी५०।
सौदा है। नौकर अपने सौजन्य, मैत्री और करुणा-रूप
मणियों को देता है, तो मालिक में उसके बदले में धन कभी-कभी ऐसा भी होता था कि जिस व्यक्ति के
पाता है। यदि न दे तो उसे धन भी न मिले क्योंकि धन पास न्यास रखा गया है, उसकी नियत खराब हो जाए
ही धन कमाता है५४ । और वह यह भी समझ ले कि न्यासकर्ता के पास ऐसा कोई प्रमाण नहीं है जिससे वह कह सके कि उसने उसके ५१. कल्प २७ । पास अमुक वस्तु रखी है, तो वह न्यास को हड़प जाता ५२. ग्राः कष्टा खलु शरीरिणां मेवया जीवनचेष्टा, था। भद्रमित्र सब सोच-समझ कर श्रीभूति के पास पृ०१३९ ।
सेवावृत्तः परमिहपरं पातक नास्ति किचित्, वही ४८. अरे मनुष्य, समानीयतामित इतोऽयं छागस्तव चेदस्ति ५३. सत्यं दूरे विहरति गम साधुभावेनपुमां, विक्रेतुमिच्छा इति । पुरुषः भट्ट, विचिक्रीपुरवैन यदि
धर्मदिचत्तात्महकरुणया याति देशान्तगणि । भवानिद मे प्रसादी करोत्यगुलीयकम् ।
पापं शापादिव च तनुने नीचवतन माई, पृ० १३१ उत्त।
सेवावृनै पमिह परं पातक नास्ति किचित् ॥ वही ४६-५०. विचार्य चाति चिरमुपनिधिन्यासयोग्यमावासम् ५४. सौजन्यमैत्रीकरुणामणीनां व्ययं न चेत् भृत्यजन: उदिताचारसेव्योऽवधारितेतिकर्तव्यस्तस्याखिललोकश्ला
करोति। ध्यविश्वासप्रसूतेः श्रीभूतेर्हस्ते तत्पत्नीसमक्षमनर्घकक्ष- फलं महीशादपि नव तस्य यतोऽर्थमेवार्थनिमित्तमाहु॥ मनुगताप्तकं रत्नसप्तकं निधाय, पृ० ३४५ उत्त० ।
वही
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परीक्षामुखके सूत्रों और परिच्छेदोंका विभाजन : एक समस्या
___पं. गोपीलाल 'अमर', एम. ए. साहित्य शास्त्री
जैन न्याय से तनिक भी परिचित व्यक्ति परीक्षामुख१ रत्नालंकारः। प्रमेयरत्नमाला पर प्राचार्य अजितसेन१० को अवश्य जानता है । यह जन न्याय का प्रथम सूत्रग्रन्थ ने न्यायमणिदीपिका११ और न्यायमरिणदीपिका पर है और प्राचार्य माणिक्यनन्दीर के यश को अक्षत रखने उपर्युक्त पण्डिताचार्य जी ने न्यायमणिदीपिकाप्रकाश १२ के लिए, उनकी एकमात्र कृति३ होकर भी पर्याप्त है। नामक टीकाएं लिखी हैं । परीक्षामुख की लघुतम इकाई इसकी तीन टीकाएँ हैं : प्राचार्य प्रभाचन्द्र४ की प्रमेय- है सूत्र१३ और तीन से सन्तानवे सूत्रों तक१४ के रह कमलमार्तण्ड५, प्राचार्य लघु-अनन्तवीर्य६ की प्रमेयरल- अध्याय हैं जिन्हें परिच्छेद नाम दिया गया है। प्रमेयमाला७ और पण्डितार्य अभिनव-चारुकीर्ति की, प्रमेय- -
६. इसे पहिले प्रमेयरत्नमालालंकार समझकर प्रमेयरत्न१. इसका प्रकाशन विभिन्न संस्थाओं से सटीक या माला की टीका माना जाता रहा है। विशेष विवरण सानुवाद लगभग पन्द्रह बार हो चुका है।
के लिए देखिए, उपर्युक्त ।। २. इनका समय ९१३ से १०३५ ई० तक माना जाता
१०. इसका समय १३वीं शती ई. के प्रासपास होना है। देखिये पं० दरबारीलाल जी कोठिया : माप्त
चाहिए। देखिए,पं० के० भुजबली शास्त्री:प्रशस्तिपरीक्षा, प्रस्ता., पृ० ३३ ।
संग्रह, पृ. २। ३. इनकी कोई अन्य कृति हो या न हो, पर उपलब्ध
११. यह अभी तक अप्रकाशित है और मैं स्वयं इसका नहीं है।
सम्पादन कर रहा हूँ। विशेष परिचय के लिए ४. समय १८० से १०६५ ई. तक। देखिये, स्व.
देखिए, उपर्युक्त तथा जैन सन्देश के शोधांक (१४ पं. महेन्द्र कुमार जी : प्रमेयकमलमार्तण्ड, प्रस्तावना,
मार्च '६३ के पृ० १९३) में मेरा लेख। पृ. ६७ और भागे। ५. इसके दो संस्करण, निर्णयसागर प्रेस बम्बई से १२. इसके और प्रमेयरलालंकार के लेखक एक ही निकले है : प्रथम स्व. पं० बंशीधर जी शास्त्री
व्यक्ति हैं । उन्होंने अपनी, प्रमेयरत्नमाला की टीका द्वारा संपादित होकर १९१२ ई० में और द्वितीय स्व.
अर्थ प्रकाशिका (जैन सिद्धान्त भवन, पारा की पं० महेन्द्र कुमार जी द्वारा संपादित होकर १९४१
प्रति, के पत्र १०, पार्श्व १ पर लिखा है, 'न्याय
मणिदीपिकाप्रकाशे एतत्सूत्रव्याख्यायां च विस्तरेणाई० में। ६. समय ११वीं शताब्दी ई० । देखिए, सिद्धिविनिचश्य
स्माभिरभिहितो वेदितव्यः ।' इसकी पाण्डुलिपि जिन टीका, प्रस्ता. पृ०८०।
विद्वान् महानुभावों की दृष्टि में हो वे कृपया मुझे
सूचित करें ऐसी प्रार्थना है । ७. इसका प्रकाशन विभिन्न संस्थाओं से लगभग पांच वार हो चुका है।
१३. विस्तृत अर्थ और संक्षिप्त शब्दों के कारण ये सूत्र ८. श्रवणवेलगुल के मठाधीशों का यह परम्परागत नाम
महर्षि पाणिनि और प्राचार्य उमास्वामी के सूत्रों की है। प्रस्तुत टीकाकार का समय १८वीं शती ई० कोटि म बात है। माना जाता है । देखिए, जैन सन्देश का शोधांक, १४. छहों परिच्छेदों में क्रमशः १३, १२, ६७, ६, ३ १४ मार्च '६३, पृ० १६३ ।
और ७६ तथा कुल मिलाकर २१० सूत्र हैं।
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परीक्षामुख के सूत्रों और परिच्छेदों का विभाजन : एक समस्या
कमलमार्तण्ड और प्रमेयरत्नालंकार में यही नाम स्वीकृत है जबकि प्रमेयरत्नमाला में समुद्देश ।
परिच्छेदों के विभाजन में प्रमेयरत्नमाला श्रौर प्रमेयरत्नालंकार एकमत हैं और वैज्ञानिक भी । परन्तु प्रमेयकमलमार्तण्ड में, कह नहीं सकते किस उद्देश्य से प्राचार्य प्रभाचन्द्र ने पंचम परिच्छेद के तीनों सूत्रों को चतुर्थ परिच्छेद में ही सम्मिलित किया है । और पष्ठ परिच्छेद को उसका अन्तिम सूत्र छोड़कर पंचम परिच्छेद माना है तथा षष्ठ परिच्छेद के केवल अन्तिम सूत्र को पष्ठ परिच्छेद के अन्तर्गत रखा है। इस विभाजन में कोई विशेषता दृष्टिगोचर नहीं होती, कदाचित् इसीलिए इस विषय में स्व० पं० महेन्द्रकुमार जी १५ भी१६ मौन रहे हैं। यदि प्राचीन प्रतियों से छानवीन की जाय तो मेरा यह अनुमान पुष्ट हो सकता है कि लिपिकार ने किसी पान्डुलिपि में, परिच्छेद के समाप्तिसूचक पद्यों और पुष्पिका वाक्यों को तितर-बितर कर दिया हो और उसी प्रति या उसकी परम्परागत प्रतियों पर से प्रमेयकमलमार्तण्ड के मुद्रित संस्करण निकाले गये हों। यदि हम पंचम परिच्छेद के समाप्तिसूचक पद्य १७ को पष्ठ परिच्छेद का समाप्तिसूचक मान लें और षष्ठ परिच्छेद के प्रारम्भ सूचक पद्य १८ को पंचम परिच्छेद का समाप्तिसूचक १६ १५. प्रमेयकमल मार्तण्ड के सम्पादक के रूप में । १६. और स्व० पं० वंशीधर जी शास्त्री भी । १७. प्रभासं गदितं प्रमाणमखिलं संख्याफलस्वार्थतः
सुव्यक्तेः सकलार्थ सार्थविषयैः स्वल्पः प्रसन्नैः पदैः । येनासी निखिलप्रबोध जननो जीयाद् गुणाम्भोनिधिः aranीत्यः परमालयोऽत्र सततं माणिक्यनन्दिप्रभुः ॥ स्व० पं० महेन्द्रकुमार जी न्याया० प्रमेयकमलमार्तण्ड, पृ० ६७५ ।
१८. प्राचां वाचाममृनतटिनीपूरकर्पूरकल्पान् बन्धान्मन्दा नवकुकवयो नूतनीकुर्वतो ये । ते यस्काराः सुभटमुकटोत्पाटिपाण्डित्यभाजं भित्वा खड्गं विदधति नवं पश्य कुण्ठं कुठारम् ॥ वही, पृ० ६७६ । १६. प्रमेयकमलमार्तण्ड में षष्ठ परिच्छेद के अतिरिक्त किसी भी परिच्छेद में आरम्भसूचक पद्य नहीं है, यह उल्लेखनीय है ।
५७
मान लें; और फिर यह विभाजन प्रमेयरत्नमाला प्रादि के अनुसार कर दें अर्थात् चतुर्थ परिच्छेद में सम्मिलित किये गये पंचम परिच्छेद के तीनों सूत्रों को पञ्चम परिच्छेद ही मान लें भौर षष्ठ परिच्छेद के सूत्रों को श्रात्मसात् करने वाले पञ्चम परिच्छेद तथा एक सूत्रीय षष्ठ परिच्छेद को मिलाकर पष्ठ परिच्छेद ही मान लें तो वह समस्या तुरन्त हल हो जाती है। ऐसा करने में ग्रन्थकार का एक भी शब्द बाधक नहीं बनता २०, बल्कि लिपिकार की ही त्रुटि और भी स्पष्टतर हो उठती है । परन्तु प्राश्चर्य है कि प्रमेयकमलमार्तण्ड के किसी भी संस्करण में इस इतने महत्त्वपूर्ण विषय पर विचार नहीं किया गया ।
परिच्छेदों के अनन्तर सूत्रों का विभाजन उल्लेखनीय है। तृतीय परिच्छेद का पांचवां सूत्र है 'दर्शनस्मरणकारणकं संकलनं प्रत्यभिज्ञानं तदेवेदं तत्सदृशं तद्विलक्षणं, तत्प्रतियोगीत्यादि ।' और छठवां सूत्र, 'यथा स एवायं देवदत्तः, गोसदृशी गवयो, गोविलक्षणो महिप, इदम् अस्माद्दूरं वृक्षोऽयमित्यादि ।' प्रमेयकमलमार्तण्ड और प्रमेयरत्नमाला के प्रायः सभी संस्करणों में, इस छठवें सूत्र को एक न मानकर पांच माना गया है अतः जहां मेरे मत से छठवां ही क्रमांक आना चाहिए वहां उक्त संस्करणों में दसवां क्रमांक आ जाता है२१ । इन तथा कथित पांच सूत्रों को एक ही माना जाना चाहिए, क्योंकि ये सभी (१) एक ही सूत्र के उदाहरण हैं, (२) एक ही निर्देशवाचक सर्वनाम 'यथा' और एक ही विशेषण 'इत्यादि से संबद्ध है, (३) यदि एक ही माने जायं तो, जिसके ये उदाहरण हैं वह पांचवां सूत्र भी एक न माना जाकर पांच माना जाना चाहिए, (४) एक ही उत्था
२०. टिप्पणियों के उपर्युक्त दोनों श्लोकों की शब्दावली द्रष्टव्य है ।
२१. यथा स एवायं देवदत्तः ॥६ गोसदृशो गवयः ॥७ गोविलक्षणो महिषः ॥८ इदम् अस्माद् दूरम् ॥६ वृक्षोऽयमित्यादि ॥ १०
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५८
भनेकान्त
भी है।
निका वाक्य२२ द्वारा निर्दिष्ट किये गये हैं और उस षष्ठ परिच्छेद में भी दो स्थल ऐसे हैं जिन पर वाक्य में भी तीनों टीकाकारों, प्राचार्य प्रभाचन्द्र, प्राचार्य विचार होना चाहिए। दसवें और ग्यारहवें सूत्रों२४ अनन्तवीर्य और प्राचार्य चारुकीर्ति द्वारा एक वचन का को प्रमेयकमलमार्तण्ड और प्रमेयरलमाला के अधिकांश ही प्रयोग२३ किया गया है, यदि उनका पांचों को पृथक्- संस्करणों में एक ही सूत्र माना गया है, कदाचित् इसलिए पथक मानने का भाव रहा होता तो बहुवचन का ही कि दसवें सूत्र के पश्चात, दोनों ग्रन्थों में कोई व्याख्या प्रयोग किया जाना चाहिए था, (५) तीनों टीकाकारों द्वारा नहीं है। दो या दो से अधिक सूत्रों के बीच व्याख्या न प्रव्याख्यात छोड़ दिये गये हैं, इसलिए नहीं कि वे अन्यत्र होने से उनमें एकता स्थापित नहीं हो जाती और फिर भी ऐसा करते हैं बल्कि इसलिए कि वे इन्हें पृथक्-पृथक् दो टीकानों में न सही, एक टीका-प्रमेयरत्नालंकारमानते ही नहीं थे अतः उनकी पृयक्-पृथक व्याख्या करने में तो दसवें सूत्र के पश्चात् भी व्याख्या है। अतः उसे का प्रश्न ही उनके सामने नहीं था।
पृथक् सूत्र माना हो जाना चाहिए। ठीक यही स्थिति
इसी परिच्छेद के तीसवें और इकतीसवें सूत्र२५ के साथ २२. (१) [तदेवोक्तप्रकारं प्रत्यभिज्ञानम् ] उदाहरण द्वारे।
णाखिलजनावबोधार्थं स्फुटयति । स्व. पं. महेन्द्रकुमार जी: प्रमेयकमल मार्तण्ड,
परीक्षामुख जैन न्याय का प्रतिनिधि ग्रन्थ है। उसके पृ० ३४०1
विषय में ऐसी समस्याएँ कायम रहना उचित नहीं। यही (२) एषां [क्रमेणोदाहरणं] दर्शयन्नाह ।
सोचकर यह, अपना समाधान प्रस्तुत किया है। विद्वान् श्रीमान् पं० बालचन्द्र जी शास्त्री : प्रमेयरत्नमाला
महानुभावों से प्रार्थना है कि वे इस विषय पर विचार पृ० ८३।
करें और अपनी राय जाहिर करें तो बड़ी अच्छी बात (३) [उक्त प्रत्यभिज्ञान] मखिलजनावबोधार्थ
होगी। मुदाहरणद्वारेण स्पष्टयति । प्रमेररत्नालंकार : मेरे द्वारा सम्पादित पाण्डुलिपि, २४. असम्बद्ध तज्ज्ञानं तकभिासम् ॥१० पृ० १२६ ।
यावांस्तत्पुत्रः स श्यामो यथा ॥११ २३. इससे पहले वाली टिप्पणी में कोष्ठांकित शब्द २५. विपरीतनिश्चिताविनाभावो विरुद्धः ॥३० द्रष्टव्य हैं।
अपरिणामीशब्दः कृतकत्वात् 1,३१
अनेकान्त के ग्राहक बनें
'भनेकान्त' पुराना ख्यातिप्राप्त शोष-पत्र है। अनेक विद्वानों और समाज के प्रतिष्ठित व्यक्तियों का अभिमत है कि वह निरन्तर प्रकाशित होता रहे। ऐसा तभी हो सकता है जब उसमें घाटा न हो और इसके लिए प्राहक संख्या का बढ़ाना अनिवार्य है हम विद्वानों, प्रोफेसरों, विद्याषियों, सेठियों, शिक्षा-संस्थानों, संस्कृत विद्यालयों, कालेजों और जैनबुत की प्रभावना में श्रद्धा रखने वालों से निवेदन करते हैं कि 'अनेकान्त' के प्राहक स्वयं बनें और दूसरों को बनायें।
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भूपाल चौबीसी की एक महत्वपूर्ण सचित्र प्रति
अगरचंद नाहटा
भक्ति-भावना मानव के हृदय की एक सहज और तरह का है । जैन और जैनेतर पाराध्य उपास्य देव भिन्न उदात्त भावना है। अपने से विशिष्ट गुणवान व्यक्ति के भिन्न हैं और उनकी उपासना के उद्देश्य में भी बहुत बड़ा प्रति प्रादर की भावना होनी ही चाहिए। जिस व्यक्ति में अन्तर है। उन गुणों का चरमोत्कर्ष होता है वह अवतार या भगवान
जैन दर्शन के अनुसार देवलोक के देवी-देवताओं का के रूप में पूजा जाने लगता है। ऐसे व्यक्तियों की स्तुति या स्तवन रूप में बहुत बड़ा साहित्य रचा गया है । वेदों
इतना महत्व नहीं, जितना परिहंत और सिद्ध महापुरुषों की ऋचाएं भी अधिकतर प्रकृति या विशिष्ट शक्तियां या
का है। तीर्थङ्कर प्रात्मा की उच्चतम अवस्था को प्राप्त देवताओं के स्तुति के रूप में ही रची गई है अर्थात् स्तुति
करते हैं और जगत् को कल्याण का मार्ग दिखाते हैं । उन या स्तोत्र साहित्य का प्रारम्भ प्राचीनतम ग्रंथ वेद जितना
वीतरागी पुरुषों की उपासना किसी ऐहिक कामना से है ही। समय-समय पर देवी-देवतामों के नाम व रूप
करना व्यर्थ है । क्योंकि वे किसी को कुछ भी देते नहीं न बदले । पुराने देवी-देवता भला दिए गए और अनेकों नये
वे स्तुति से प्रसन्न होते हैं और न निन्दा से रुष्ट । जैनधर्म
में तीर्थङ्करों को 'देवाधिदेव' की संज्ञा दी गई है क्योंकि देवी-देवताओं की पूजा और उपासना प्रारम्म होती गई।
स्वर्ग के इन्द्रादि देव भी उनकी सेवा करके अपने को धन्य इस तरह भारत में असंख्य देवी-देवताओं की अनेक प्रकार की उपासना देखने को मिलती है। देवी-देवताओं की संख्या
मानते हैं। इसलिए जैन उपासना में देव के रूप में
तीर्थङ्करों की उपासना ही सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। जैन ततीस करोड़ तो सामान्य रूढ़ सी हो गई। इन देवी
सिद्धान्त के अनुसार ईश्वर या परमात्मा कोई एक ही देवतामों के महात्म्य और उपासना विधियों के सम्बन्ध में
व्यक्ति नहीं है । अनन्त जीव अपनी उच्चतम अवस्था को सैकड़ों हजारों छोटी-मोटी रचनाएं प्राप्त हैं। इतना बड़ा
प्राप्त करके अरिहंत व सिद्ध हो चुके हैं। वे सभी ईश्वर साहित्य देवी-देवताओं की इतनी बड़ी संख्या भारत के
या परमात्मा हैं। उनमें कोई एक विशिष्ट या ज्येष्ठ सिवाय विश्व में अन्यत्र कहीं नहीं मिलेगी।
नहीं। सिद्ध अवस्था में सब की अवस्था समान है। इसभारतीय साधना मार्ग में ज्ञान, भक्ति और योग को लिए सभी की उपासना की विधि व फल भी एक ही है। बहुत प्रधानता दी गई है। इनमें से भक्ति हृदय का एक अनन्त काल की अपेक्षा तो जैनधर्म के प्रवर्तक तीर्थङ्कर भी भाव है अतः सर्वसुलभ और सहज है। भारत में भक्तिमार्ग अनेक हो गये हैं। भरतक्षेत्र में इस काल में चौबीस को महत्ता लम्बे समय से ही दी जाती रही है। यद्यपि तीर्थङ्कर हो गये हैं। उनकी प्राचीनतम स्तुति प्राकृतभाषा भक्ति का स्वरूप सदा एक-सा नहीं रहा । जिस तरह देवी में चौबीसत्यो [चतुर्विंशतिस्तव] के नाम से प्रसिद्ध है । देवताओं के नाम व रूप बदलते गये उसी तरह भक्ति के प्रावश्यक में दूसरा प्रावश्यक चतुर्विशतिस्तव का है। प्रकार भी अनेक हैं और समय-समय पर भावों में विभि- दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों समाज में 'लोगस्स उज्जो नता एवं परिवर्तन भी होता आया है। जिस प्रकार वेदों आदि पद से प्रारम्भ होने वाला चतुर्विशति स्तव प्रसिद्ध के समय में जिस उद्देश्य का दृष्टिकोण से जिस विधि या है। श्वेताम्बर समाज में तो नित्य प्रतिक्रमण-देव वन्दनशब्दों द्वारा स्तुति की जाती थी पागे चलकर उसमें काफी चैत्य वन्दन आदि में इसका पाठ किया जाता है। इसके परिवर्तन प्राया। उसी तरह अलग-अलग देवी-देवताओं बाद तो चौबीस तीर्थंकरों के सैकड़ों स्तुति स्तोत्र स्वतन्त्र की भक्ति व पूजा का उद्देश्य विधि-विधान भी अलग-अलग या सामूहिक स्तवना के रूप में रचे गये। जिनमें से
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अनेकान्त
दिगम्बर समाज में सर्वाधिक प्रसिद्ध
चौबीसी"
पुत्र उदेभानजी, नन्दकिशोर जी, प्राणवल्लभजी। नामक स्तोत्र है।
५. सेठ माणकचन्द-भार्या माणकदेवी जी (सुहाग२७ श्लोकों के इस स्तोत्र पर संस्कृत में अचलकीर्ति की देवजी) तयो पुत्र: सेठ फतेहचन्द भार्या सुपारटीका और कई भाषानुवाद प्रादि समय-समय पर रचे देवी पुत्र प्रानन्दचन्द जी, दयाचन्द जी। गये हैं । प्रस्तुत स्तोत्र की एक विशिष्ट व सचित्र प्रति का
६. अमीचन्द-पुत्र सोमचन्द्र, पुत्र पूर्णचन्द्र, उदोतपरिचय प्रस्तुत लेख में दिया जा रहा है। यह प्रति कलकत्ते के पूर्णचन्द्र जी नाहर के संग्रह में हैं।
७. साह दीपचन्द पुत्र ४-धर्मचन्द, मेहरचन्द, भूपाल चौबीसी की सचित्र प्रति पुस्तकाकार है।
अलपचन्द, कीर्तिचन्द्र ।। उसमें चौबीसी तीर्थकरों के चौबीस चित्र उनके जन्मोत्सव
एतेषां मध्ये सेठ माणकचन्दजी भार्या श्रीमती ज्ञानमादि के पूरे पृष्ठ के चित्रों के साथ दिगम्बर विनयचन्द्राचार्य और राजा भूपाल प्रादि के चित्र भी उल्लेखनीय
वती अनेक गुण मण्डित माणिकदेवी जी तेनेदं भूपालहै। मूल स्तोत्र सुनहरी स्याही में लिखा हया है। प्रत्येक चतुविशति लिखापितां स्वपठनाय किंवा परोपकाराय । बलोक के बाद प्रचलकीति की संस्कृत टीका मोर तदनन्तर सुभ भूयात् लेख (क) पाठकयो।
प्रस्तुत प्रति जिस माणकदेवी की लिखवाई हुई है हिन्दी गद्य की भाषा टीका भी दी हुई है। यह प्रति
उसके सम्बन्ध में मुनि निहालचन्द ने स० १७८८ में एक बंगाल के सुप्रसिद्ध जगत सेठ के घराने के होने से विशेप रूप से उल्लेखनीय है। प्रति के अन्त में जगत सेठ के
राजस्थानी काव्य बनाया है, उसका सक्षिप्त सार फिर
कभी दिया जायगा । उससे मालम होगा कि जगत सेठ की पूर्वजों की वंशावली दी गई है, जो ऐतिहासिक दृष्टि से
माता माणकदेवी कितनी धर्मनिष्ठा थीं। महत्वपूर्ण है। सेठ माणकचन्द की धर्मनिष्ठा भार्या माणकदेवी ने अपने पूर्वजों के लिए यह प्रति लिखवाई है। प्रति भूपाल चौबीसी दिगम्बर सम्प्रदाय को रचना हैइस प्रकार है :
फिर भी उसे श्वेताम्बर मारणकदेवी ने अपने पढ़ने के लिए ___ "साह श्री हीरानन्द जी तस्य भार्या सुजाणदेवजी
टीका और भावार्थ सहित एक विशिष्ट सचित्र प्रति तैयार
करवाई, यह विशेष रूप से उल्लेखनीय है। भूपाल तयो पुत्र सप्त-१. गुलालचन्द जी, २. गोवर्धन दास जी, ३. मलूकचन्द जी, ४. सदानन्द जी, ५. सेठ माणक
चौबीसी की अन्य भी कोई सचित्र प्रति कही प्राप्त हो चन्द जी, ६. अमीचन्द जी, ७. दीपचन्द जी।
तो उसकी जानकारी प्रकाश में पानी चाहिए। प्रस्तुत
प्रति मम्भव है किसी प्राचीन प्रति के अनुकरण में लिखाई (इन सात पुत्रों का परिवार इस प्रकार है-)
व चित्रित की गई है। १. गुलालचन्द भार्या-तत् पुत्री भावति ।
दिगम्बर ग्रंथ श्वेताम्बरों की अपेक्षा चित्रित कम २. गोवर्धनदास-पुत्र सेवादासजी, पुत्र रामजीवन, मिलते है और जो थोड़े से प्राप्त हैं उनके भी चित्रों के जगजीवन ।
ब्लाक बहुत ही कम प्रकाशित हुए हैं। इसलिए सारा भाई ३. मलूकचन्द-पुत्र रूपचन्द भार्या देवकुरु पुत्र प्रकाशित जैन चित्र कल्पद्रुम की तरह दिगम्बर सचित्र ज्ञानचन्द।
प्रतियों के चुने हुए चित्रों का एक अलबम प्रकाशित ४. सदानन्द-पुत्र लालजीशाह, पुत्र महानन्द, होना चाहिए।
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जैन दर्शन में अर्थाधिगम-चिन्तन
पं० दरबारीलाल कोठिया न्यायाचार्य एम. ए.
भारतीय दर्शन में अर्थाधिगम का साधन : प्रमाण :
अन्तः और बाह्य पदार्थों के ज्ञापक साधनों पर प्रायः सभी भारतीय दर्शनों में विचार किया जाता है और सब ने उनका ज्ञापक एकमात्र प्रमाण को स्वीकार किया है । 'प्रमाणाधीना हि प्रमेय व्यवस्था', 'मानाधीना मेयस्थितिः', 'प्रमेयसिद्धिः प्रमाणाडि' जैसे प्रतिपादनों द्वारा यही बत लाया गया है कि प्रमाण से प्रमेय की व्यवस्था, सिद्धि अथवा ज्ञान होता है, उसके ज्ञान का और कोई उपाय नहीं है।
जैन दर्शन में अर्थाधिगम के साधनः प्रमाण और नय :
पर जैन दर्शन में प्रमाण के अतिरिक्त नय को भी पदार्थों के अधिगम का साधन माना गया है । दर्शन के क्षेत्र में अधिगम के इन दो उपायों का निर्देश हमें प्रथमतः 'तत्त्वार्थ सूत्र' में मिलता है । तत्त्वार्थ सूत्रकार ने लिखा है कि तत्त्वार्थ का अधिगम दो तरह से होता है १. प्रमारण से और २. नय से । उनके परवर्ती सभी जैन विचारकों का भी यही मत है उन्हीं के सम्बन्ध में यहाँ कुछ विचार किया जाता है,
प्रमाण :
अन्य दर्शनों में जहाँ पद्रिय व्यापार, व्यापार कारक साकल्य, सन्निकर्ष आदि को प्रमाण माना गया है और उनसे ही ग्रर्थ प्रमिति बतलाई गई है वहाँ जैन
१. 'प्रमाणनयेरधिगम तत्त्वार्थ सू० १-६। २. (क) 'तत्वज्ञानं प्रमाणं ते युगपत्सर्वभासनम् ।
*मभावि च यज्ञानं स्याद्वाद नय-संस्कृतम् ॥ समन्तभद्र, प्राप्तमी० का० १०१ । (ख) प्रमाणनयाभ्यां हि विवेचिता जीवादयः सम्प गधिगम्यन्ते । तद् व्यतिरेकेण जीवाद्यधिगमे प्रकारान्तरासम्भवात् ।'
अभिनव धर्मभूषण, न्यायदी० पृ० ४।
दर्शन में स्वार्थ व्यवसायि ज्ञान को प्रमाण कहा गया है और उसके द्वारा अर्थ परिच्छित्ति स्वीकार की गई है। इन्द्रिय व्यापार आदि को प्रमाण न मानने तथा ज्ञान को प्रमाण मानने में जैन चिन्तकों ने यह युक्ति दी है कि ज्ञान अर्थ- प्रमिति में अव्यवहित- साक्षात् करण है और इन्द्रिय व्यापार आदि व्यवहितपरम्परा करण हैं तथा मव्यवहित करण को ही प्रमाजनक मानना युक्त है, दहित को नहीं। उनकी दूसरी मुक्ति यह है कि प्रमिति अर्थ- प्रकाश अथवा अज्ञान-निवृत्ति रूप है वह ज्ञान द्वारा ही सम्भव है, प्रज्ञानरूप दन्द्रिय व्यापार आदि के द्वारा नहीं । प्रकाश द्वारा ही अन्धकार दूर होता है, घटपटादि द्वारा नहीं । तात्पर्य यह कि जैन दर्शन में प्रमाण ज्ञानरूप है और वही सर्व परिच्छेदक है।
इस प्रमाण से दो प्रकार की परिहित होती है१ स्पष्ट ( विशद ) और २ स्पष्ट (मविदाद) जिरा ज्ञान में इन्द्रिय, मन, प्रकाश आदि पर की अपेक्षा नही होती वह ज्ञान पष्ट नहीं होता है तथा असन्दिग्ध, मविप रीत एवं निर्णयात्मक होता है। जैन दर्शन में ऐसे तीन ज्ञान स्वीकार किए गए हैं। ये अवधि मन:पर्यय मौर केवलज्ञान । इन तीन ज्ञानों की मुख्य अथवा पारमार्थिक प्रत्यक्ष कहा गया है । पर जिन ज्ञानों में इन्द्रिय, मन, प्रकाश आदि पर की अपेक्षा रहती है व ज्ञान असष्ट होते हैं तथा जितने यों में वे व्यवहाराविरावादी होते हैं उसने शों में वे सन्दिग्ध, प्रविपरीत एव निर्णयात्मक होते हैं। शेष अशों में नहीं। ये ज्ञान दो-१ मति और २ श्रुत। इन दोनों ज्ञानों में पर की अपेक्षा होने से उनकी परोक्ष संज्ञा है२ । स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, धनुमान,
१-२ मतिश्रुतावधिमनः पर्यय केवलानि ज्ञानम्', 'तत्प्रमाणे', आद्ये परोक्षम् ' 'प्रत्यक्षमन्यत्तस्या सू० १-२, १०, ११, १२ ।
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मागम जैसे परापेक्ष ज्ञानों का समावेश इसी परोक्ष (मति उसका वह ज्ञान अथवा वचन 'नय' कहा जाता है और
और श्रुत) में किया गया है। इस तरह प्रत्यक्ष और जब पदार्थ में अंश कल्पना किये बिना उसे समग्ररूप में परोक्षरूप इन मति, श्रुत, अवधि, और केवलज्ञान से ग्रहण करता है तब वह ज्ञान प्रमाण रूप से व्यवहृत होता अधिगम होता है। स्मरण रहे कि इन्द्रियादि की है। ऊपर हम देख चुके हैं कि मति, श्रुत, अवधि, मनः अपेक्षा से होने वाले चाक्षुस प्रादि ज्ञान प्रवृत्ति-निवृत्तिरूप पर्यय और केवल इन पांच ज्ञानों को प्रमाण कहा गया है लोक संव्यवहार के कारण होते हैं और उन्हें लोक में और उन्हें प्रत्यक्ष तथा परोक्ष इन दो भेदों (वर्गों) में 'प्रत्यक्ष' कहा जाता है। अतः इन ज्ञानों को लोक व्यव- विभक्त किया गया है। जिन ज्ञानों में विषय स्पष्ट एवं हार की दृष्टि से जैन चिन्तकों ने सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष अपूर्ण झलकता है उन्हें परोक्ष तथा जिनमें विषय स्पष्ट भी कहा है। वैसे वे हैं परोक्ष ही।
एवं पूर्ण प्रतिविम्बित होता है उन्हें प्रत्यक्ष निरूपित किया प्राषिगम का हेतु नय और प्रमाण से उसका कथंचित् गया है। मति और श्रुत इन दो ज्ञानों में विषय स्पष्ट प्रार्थक्यः
एवं अपूर्ण झलकता है, इसलिए उन्हें 'परोक्ष' कहा गया अब प्रश्न है कि नय भी यदि अर्थाधिगम का साधन है तथा शेष तीन ज्ञानों (अवधि, मनः पर्यय और केवल) है तो वह ज्ञान रूप है या नहीं? यदि ज्ञानरूप है तो वह में विषय स्पस्ट एवं पूर्ण प्रति फलित होता है। अत: उन्हें प्रमाण है या अप्रमाण ? यदि प्रमाण है तो उसे प्रमाण 'प्रत्यक्ष प्रतिपादन किया है। से पृथक प्राधिगम का उपाय बताने की क्या प्रावश्य
प्रतिपत्ति-भेद से भी प्रमाण-भेद का निरूपण किया कता थी? अन्य दर्शनों की भांति एकमात्र 'प्रमाण' को
गया है। यह निरूपण हमें पूज्यपाद देवनन्दि की सर्वार्थही अधिगमोपाय बताना पर्याप्त था? यदि अप्रमाण है
सिद्धि में उपलब्ध होता है। पूज्यपाद ने लिखा है कि तो उससे यथार्थ अर्थाधिगम कैसे हो सकता है, अन्यथा संशयादि मिथ्याज्ञानों से भी यथार्थ प्रर्थाधिगम होना
प्रमाण दो प्रकार का है:-१ स्वार्थ और २ परार्थ । श्रुत
ज्ञान को छोड़कर शेष चारों (मति, अवधि, मनः पर्यय चाहिए? और यदि नय ज्ञान रूप नहीं है तो उसे सन्नि
और केवल । ज्ञान स्वार्थ प्रमाण हैं, क्योंकि उनके द्वारा कर्षादि की तरह ज्ञापक स्वीकार नहीं किया जा सकता?
स्वार्थ (ज्ञाता के लिए) प्रतिपत्ति होती है, परार्थ (श्रोता ये कतिपय प्रश्न हैं, जो नय को प्राधिगमोपाय मानने वाले जैन दर्शन के सामने उठते हैं । जैन मनीषियों या विनय
या विनेय जनों के लिए) नहीं। परार्थ प्रतिपत्ति के तो ने इन सभी प्रश्नों पर बड़े ऊहापोह के साथ विचार एकमात्र साथ
एकमात्र साधन वचन हैं और ये चारों ज्ञान वचनात्मक
नहीं हैं। किन्तु श्रुत प्रमाण स्वार्थ और परार्थ दोनों प्रकार किया है।
इसमें सन्देह नही कि नय को अर्थाधिगमोपाय के का ह । ज्ञानात्मक प्रमाण का पराथ-प्रमाण कहा गया है। रूप में अन्य दर्शनों में स्वीकार नहीं किया गया है और
वस्तुतः श्रुत-प्रमाण के द्वारा स्वार्थ-प्रतिपत्ति और परार्थजैनदर्शन में ही उसे अंगीकार किया गया है। वास्तव में
प्रतिपत्ति दोनों होती हैं। ज्ञानात्मक श्रुत-प्रमाण द्वारा 'नय' ज्ञान का एक अंश है। और इसलिए वह न प्रमाण
१. 'तज्जयति परं ज्योतिः समं समस्तैरनन्तपर्यायः । है और न अप्रमाण, किन्तु ज्ञानात्मक प्रकरण का एक देश
दर्पणतल इव सकला प्रतिफलति पदार्थमालिका यत्र ।।' है। जव ज्ञाता या वक्ता ज्ञान द्वारा या वचनों द्वारा
अमृतचन्द्र, पुरुषार्थसि० का० १। पदार्थ में अंश कल्पना करके उसे ग्रहण करता है तो
२. तत्र प्रमाणं द्विविधं स्वार्थ परार्थं च । तत्र स्वार्थ १. 'मतिः स्मृतिः संज्ञा चिन्ताभिनिबोध इत्यनन्तरम्' प्रमाणं श्रुतवय॑म् । श्रुतं पुनः स्वार्थ भवति परार्थ तत्त्वार्थ मू०१-१३ ।
च । ज्ञानात्मक स्वार्थ वचनात्मकं परार्थम् । तद्वि२. 'प्रमाणक देशाच नयाः.........' पूज्यपाद, सर्वार्थ- कल्पा नयाः ।
१-३२ ।
-पूज्यपाद, सर्वार्थसि०१-६।
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जंन वर्शन में अधिगम-चिन्तन
स्वार्थ प्रतिपत्ति और वचनात्मक परार्थ श्रुत-प्रमाण द्वारा वह न अज्ञान रूप है, न प्रमाण रूप है और न परार्थ प्रतिपत्ति होती है । ज्ञाता-वक्ता जब किसी वस्तु का प्रमाण रूप । अपितु प्रमाण का एक देश है । इसीसे उसे दूसरे को ज्ञान कराने के लिए शब्दोच्चारण करता है तो प्रमाण से पृथक् अधिगमोपाय निरूपित किया गया है। वह अपने अभिप्रायानुसार उस वस्तु में ग्रंश कल्पना (घट, अंश प्रतिपत्तिका एक मात्र साधन वही है। अंशी वस्तु पट. काला, सफेद, छोटा, बड़ा आदि भेद) द्वारा उसका को प्रमाण से जानकर अनन्तर किसी एक अंश अबस्था श्रोता या विनेयों को ज्ञान कराता है। ज्ञाता या बक्ता द्वारा पदार्थ का निश्चय करना नय कहा गया है। का यह शब्दोच्चारण उपचारतः वचनात्मक परार्थ श्रुत- प्रमाण और नय के पारस्परिक अन्तर को स्पष्ट करते प्रमाण है और श्रोता को जो वक्ता के शब्दों से बोध होता हुए जैन मनीषियों ने कहा है कि प्रमाण समप्र को विषय है वह वास्तव में परार्थ प्रमाण है तथा ज्ञाता या वक्ता का करता है भोप नय प्रसमगन को। जो अभिप्राय रहता है और जो अंशग्राही है वह जानात्मक स्वार्थ श्रुत-प्रमाण है। निष्कर्ष यह कि ज्ञानात्मक
गृहीतस्यार्थस्यांशे नया प्रवर्तन्ते, तेषां निःशेष देशस्वार्थ श्रुत-प्रमाण मोर वचनात्मक परार्थ श्रुत-प्रमाण दोनों
कालार्थगोचरत्वात् मत्यादीनां तदगोचरत्वात् । न हि
मनोमतिरप्यशेषविषया करणविषये तज्जातीये वा नय हैं। यही कारण है कि जैन दर्शन-ग्रंथों में ज्ञान-नय और वचन-नय के भेद से दो प्रकार के मयों का भी
प्रवृत्तेः। विवेचन मिलता है।
त्रिकालगोचराशेष पदार्थाशेषु वृत्तितः ।
केवलज्ञानमूलत्वमपि तेषा न युज्यते ॥२६॥ उपर्यक्त विवेचन से स्पष्ट है कि नय श्रुत प्रमाण का
परोक्षाकारतावृत्तेः स्पष्टत्वात् केवलस्य तु । अंश है, वह मति, अवधि तथा मनः पर्यय ज्ञान का प्रश
श्रुतमूला नयाः सिद्धा वक्ष्यमाणाः प्रमाणवत् ॥२७॥ नहीं है, क्योंकि मत्यादि द्वारा ज्ञान सीमित अर्थ के अंश
यथैव हि श्रुतं प्रमाणमधिगमज सम्यग्दर्शनं निबन्धमें नय की प्रवृत्ति नहीं होती , नय तो समस्त पदार्थों के
नतत्त्वार्थाधिगमोपायभूतं मत्यवधिमनः पर्ययकेवलाअंशों का एकैकशः निश्चायक है, जब कि मत्यादि तीनों शान उनको विपय नहीं करते । यद्यपि केवलजान उन
त्मकं च वक्ष्यमाणं तथा श्रुतमूला नयाः सिद्धास्तेषां
परोक्षकारतया वृत्तः । केवलमूला नयास्त्रिकालसमस्त पदार्थों के अंशों में प्रवृत्त होता है और इसलिए
गोचराशेपपदार्थाशेपु वर्तनादिति न युक्तमुत्पश्याम नय को केबलज्ञान का अंश माना जा सकता है किन्तु
स्तद्वत्तेषां स्पष्टत्व प्रसंगात् ।' नय तो उन्हें परोक्ष (अस्पष्ट) रूप से जानता है
--विद्यानन्द, तत्त्वार्थ श्लो०१-६, पृ० १२४ । और केवलज्ञान प्रत्यक्ष (स्पष्ट) रूप से उनका साक्षात्कार करता है अत: नय केवल मूलक भी नहीं १ (क) एवं हि उक्तम्-'प्रगृह्य प्रमाणतः परिणति है। वह सिर्फ परोक्ष श्रुत प्रमाण मूलक ही है२।।
विशेषादर्थावधारणं नयः ।'
-सवार्थ सि. १-६। १. 'ततः परार्थाधिगमः प्रमाणनयैर्वचनात्मभिः कर्त्तव्यः
(ख) 'वस्तुन्यनेकान्तात्मन्यविरोधेन हि हेत्वर्पस्वार्थ इव ज्ञानात्मभिः (प्रमाणनयः) अन्यथा
णात् साध्यविशेषस्य याथात्म्य प्रापणप्रवण प्रयोगो कात्स्न्येनैकदेशेन तत्त्वार्थाधिगमानुपपत्तेः ।'
नयः।' -विद्यानन्द, तत्त्वार्थ श्लोक वा० पृ० १४२ ।
सर्वा०सि०१-३३ । २. 'मतेरवधितोवापि मन: पर्ययतोऽपि वा।
२. (क) सकलादेशः प्रमाणाधीनो विकलादेशो नयाज्ञातस्यार्थस्य नाशेऽस्ति नयानां वर्तनं ननु ॥२४॥ धीनः । निःशेष देशकालार्थ गोचरत्व विनिश्चयात् ।
-स०सि०१-६॥ तस्येति भाषितं कैश्चिद्यक्तमेव तथेष्टितः ॥२५॥ (ख) 'अर्थस्यानेकरूपस्य धीःप्रमाणं तदंशधीः । न हि मत्यवधिमनः पर्ययाणामन्यतमेनापि प्रमाणेन नर्योधर्मान्तरापेक्षी दुर्नयस्तन्निराकृतिः ॥
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अनेकान्त
और जिस प्रकार समुद्र
उपसंहार :
प्रखर ताकिक विद्यानन्द ने तो उपर्युक्त प्रश्नों का उनका समन्वय प्रादि कोई भी नहीं बन सकता। स्वार्थ युक्ति एवं उदाहरण द्वारा समाधान करके प्रमाण और नय प्रमाण गगा है। वह बोल नहीं सकता और न विविध पार्थक्य का बड़े अच्छे ढंग से विवेचन किया है। वे जैन वादों एवं प्रश्नों को सुलझा सकता है। वह शक्ति नय में दर्शन के मूर्धन्य ग्रन्थ अपने तत्त्वार्थ श्लोक वार्तिक में ही है । अतः जैन दर्शन का नयवाद एक विशेष उपलब्धि में कहते हैं कि नय न प्रमाण है और न अप्रमाण, अपितु है और भारतीय दर्शन को अनुपम देन है। प्रमाणक देश है। ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार समुद्र से लाया गया घडाभर पानी न समुद्र है न असमुद्र अपितु समुद्रक देश है। यदि उसे समुद्र मान लिया जाय तो शेष
वस्तु अनेक धर्मात्मक है, उसका पूरा बोध हम इन्द्रियों सारा पानी असमुद्र कहा जायगा और यदि उसे समुद्र या वचनों द्वारा नहीं कर सकते। हां नयों के द्वारा एककहा जाय तो बहुत समुद्रों की कल्पना करना पड़ेगी। एक धर्म का बोध करते हुए अनगिनत धर्मों का ज्ञान कर ऐसी स्थिति में किसी को 'समुद्र का ज्ञाता' नहीं सकते हैं। वस्तु को जब द्रव्य या पर्याय रूप, नित्य या कहा जाएगा अपितु उसे समुद्रों का ज्ञाता माना अनित्य एक या अनेक प्रादि कहते हैं तो उसके एक अंश जायगा।
का ही कथन या ग्रहण होता है। इस प्रकार का ग्रहण
नय द्वारा ही सम्भव है, प्रमाण द्वारा नहीं। प्रसिद्ध जैन प्रतः नय को प्रमाणकदेश मानकर उसे जैन दर्शन
तार्किक सिद्धसेन ने नयवाद की आवश्यकता पर बल देते में प्रमाण से पृथक् अधिगमोपाय बताया गया है । वस्तुतः हुए लिखा है कि जिनते वचन-मार्ग हैं उतने ही नय हैं । अल्पज्ञ ज्ञाता, वक्ता और थोता की दृष्टि से उसका प्रतएव मूल में दो नय स्वीकार किये गये हैं२:पृथक् निरूपण अत्यावश्यक है । संसार के समस्त व्यवहारों १. द्रव्याथिक और २. पर्यायाथिक । द्रव्य, सामान्य, और वचन प्रवृत्ति नयों के प्राधार पर ही चलते हैं। अन्वय का ग्राहक द्रव्याथिक और पर्याय विशेष, व्यतिरेका अनन्त धर्मात्मक वस्तु के एक-एक अंश को जानना या का ग्राही पर्यायाथिक नय है। द्रव्य और पर्याय ये सब कह कर दूसरों को जनाना नय का काम है और उस पूरी मिल कर प्रमाण का विषय । इस प्रकार विदित है कि वस्तु को जनाना प्रमाण का कार्य है। यदि नय न हो तो प्रमाण और नय ये दो वस्तु-अधिगम के साधन हैं और विविध प्रश्न, उनके विविध समाधान, विविध वाद और दोनों ही अपने-अपने क्षेत्र में वस्तु के ज्ञापक एवं व्यवस्था
१. (क) ना प्रमाणं प्रमाणं वा नयो ज्ञानात्मको मतः । स्यात्प्रमाणैकदेशस्तु सर्वयाऽप्यविरोधतः ॥
१. 'जावइया वयपहा तावइया चेव होंति णयवाया' त० श्लो० पृ० १२३ ।
-सन्मति तर्क गा० । (ख) 'नायं वस्तु नचा वस्तु वस्त्वंशः कथ्यते यतः। २. 'नयो द्विविधः, द्रव्याथिकः पर्यायाथिकश्च । पर्यायानासमुद्रः समुद्रो वा समुद्रांशो यथोच्ते ।
थिकनयेन भावतत्त्वमधिगन्तव्यम् । इतरेषां त्रयाणां द्रव्यातन्मात्रस्य समुद्रत्वे शेपांसस्या समुद्रता।
थिकनयेन, सामान्यात्मकत्वात् । द्रव्यमर्थः प्रयोजनमस्येत्यसो समुद्रबहुत्वं वास्यात्तच्चेत्कास्तु समुद्रवित् ।। द्रव्याथिकः । पर्यायोऽर्थः प्रयोजनमस्येत्यासौ पर्यायाथिक:
ते० श्लो० पृ० ११८ । तत्सब समुदितं प्रमाणेनाधिगन्तव्यम् । सर्वार्थसि० १-३३ ।
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बजरंग गढ़ का विशद् जिनालय
श्री नीरज जैन
मध्य प्रदेश के गुना नगर के समीप लगभग ५ मील अंकित हैं जो अब अत्यन्त अस्पष्ट हो जाने से पढ़े नहीं पर बजरंग गढ़ नाम का छोटा सा ग्राम है। छोटी-छोटी जाते हैं। शासन देवियों के द्वारा ये तीर्थंकर पहिचाने जा सुन्दर पहाड़ियों से घिरा हुमा यह ग्राम पहले इस इलाके सकते हैं। इस तोरण में प्रादि मंगल-स्वरूप भगवान का प्रमुख नगर था। व्यापार की दृष्टि से इसका बड़ा आदिनाथ का भी मनोहर अंकन है। परिक्रमा में बाह्य महत्त्व था और एक वैभवशाली केन्द्र के रूप में यह स्थान भित्ति पर बायीं ओर एक खडा हा यक्ष तथा प्रद प्रसिद्ध था। कालान्तर में यहाँ की श्री विनष्ट होती गई, पर्यक आसन बैठी हई यक्षी मूर्ति है। पीछे की ओर एक इस ग्राम के अधिकांश व्यवसायी कुटुम्बों ने गुना तथा चतभजी यक्षिणी है जिसके हाथों में कमल, नाग पाश, अन्य समीपवर्ती नगरों में अपना निवास बना लिया और कमण्डल और अभय मुद्रा हैं। इसी के ऊपर एक प्रस्पष्ट यह स्थान दिनों दिन छोटा और उपेक्षित होता गया । चक्र तथा नवग्रह बने हैं। दोनों ओर दो-दो हाथ ऊंची
इतना होते हुए भी यह स्थान इतिहास के पन्नों से दो मूर्तियां देवी अम्बिका और उनके यक्ष की हैं। सर्वथा लोप नहीं हुआ तथा आज भी अपनी अहमियत अम्बिका की गोद का बालक, सवारी का सिह और उनके बनाये हुये है उसका श्रेय यहाँ के मध्य कालीन विशाल गले में बैजयंती माल स्पष्ट दृष्टव्य है । दाहिनी ओर दिगम्बर जैन मन्दिर को ही है। इसी मन्दिर का परिचय आदिनाथ की देवी चक्रेश्वरी की ललितासन, चतुर्भुज, इस लेख में दिया जा रहा है।
सुन्दर मूर्ति है। इसके हाथों के चक्र दर्शनीय बन पड़े हैं। यह मन्दिर मूलतः नागर शैली का पचायतन मन्दिर ।
पार्श्व में इनका यक्ष गोमुग्व भी अपने प्रायुध और वाहन रहा होगा। खजुराहो, ऊमरी, देवगढ़, अहार, बानपुर
के साथ अंकित है। इस यक्ष युगल के ऊपर एक अन्य आदि की तरह इसका निर्माण भी पापाण से हरा होगा यक्षिणी मूर्ति दो हाथ ऊँची, अष्टभुजी, खड़ी हुई बनी है और शिखर संयोजना कभी इसकी धवन कीति पताका से जो अपने रूप, सज्जा और अनुपात के कारण अत्यन्त अलंकृत रही होगी। बाद में इसका शिखर नष्ट हो जाने।
सुन्दर और मनोहारिणी लगती है। शरीर का त्रिभंग तो पर मन्दिर के उसी अधिष्ठान पर वर्तमान गुम्बद वाले
दर्शनीय है। हाथों में अक्षमाला, तूणीर, नागपाश, शख, शिखर महित आज मे लगभग दो सौ वर्ष पूर्व इम मन्दिर
अंकुश, धनुष, तथा श्रीफल धारण किये हुये इस प्रतिमा का जीर्णोद्वार या पुननिर्माण हुआ होगा।
के अलंकरण में पग-पायल, कटिबन्ध, हार, कुण्टल, भुज
वन्ध, मणि वलय, मोहन माला, बैजयतीमाला तथा जटा____धरातल से लगभग १५ फुट तक का मन्दिर का
मुकुट यादि सब स्त्र स्थान पर अंकित है। मूर्ति का एक अधिष्ठान ग्राज भी अपनी अपरिवर्तित अवस्था में देखा
दाहिना हाय खंडित है तथा दोनों ओर नारियल से ढके जा सकता है। मन्दिर की छन तथा द्वार का जारी
हुए कलश स्थापित हैं जो मंगल के प्रतीक है , तोरण भी मन्दिर का वही प्राचीन तोरण है जो मन्दिर के साथ बनाया गया था। इन अवशेषों की कला से और
गर्भगृह में तीनों चक्रवतों तीर्थकरी गांति कुथु और मूर्ति लेखों से इस मन्दिर का निर्माण काल तेरहवी अरहनाथ को विशाल खड्गासन प्रतिमाएं स्थापित हैं। शताब्दी का प्रारम्भ माना जा सकता है।
शांतिनाथ की पीठिका में "स० १२३६ फाल्गुन सुदि ५ द्वार तोरण पर दोनों ओर दो-दो हाथ ऊँची खड्- प्रतिष्ठापितम " यह लेख अकित है। सिंहासन के बीच मे गासन प्रतिमाएँ अवस्थित हैं। इन पर कुछ लेख भी धर्मचक्र तथा दोनों ओर क्रमशः गज, सिह, अश्व आदि
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अनेकान्त
का अंकन है। तीनोंप्रतिमानों के सिंहासन पृथक्-पृथक् हैं अति विशिष्ट स्थान रखती हैं। ये मूर्तियां केवल छह हैं, बडी मूर्ति के नीचे शासन देवी की छवि भी अंकित है। शेष नष्ट हो गई प्रतीत होती हैं। एक हाथ ऊंची इन पर उस पर पोते गये सिंदूर के कारण उसका स्वरूप सभी प्रतिमाओं का आकार, प्रकार, गठन, सज्जा और अस्पष्ट हो गया है। इन प्रतिमाओं की एक विशेषता यह परिकर प्रायः समान है और इनमें चिह्न भी अंकित नहीं है कि इन तीनों में अपने-अपने चिह्नों के अतिरिक्त हिरण किये गये हैं । पर शासन देवियों के कारण इनकी निश्चित का अंकन भी पाया जाता है। मूर्तियों के गले की रेखाएँ पहिचान बहुत आसान है। सभी मूर्तियों में नीचे धर्मचक्र तथा उदर भाग की त्रिबली का उभार साधारण से कुछ और सिंह बने हैं तथा उनके नीचे एक पृथक् कोष्ठक में अधिक लगता है तथा श्रीवत्स का भी अंकन इसी अत्यधिक वाहन और प्रायुध सहित इन शासन देवियों का स्पष्ट उभार के कारण अपनी उत्तर मध्यकालीन कला का सही अंकन हुआ है । यदि यह चौबीसी पूरी उपलब्ध होती तो प्रतिनिधित्व करता है।
निश्चित ही मूर्ति शास्त्र की इस विद्या का एक सबल और
जीवन्त प्रमाण यहाँ उपलब्ध हुमा होता। इन छोटी प्रतिप्रतिमानों के दोनों ओर हाथी पर खड़े हुये चामर
मानों के पार्श्व में तथा ऊपर भी अन्य छोटी तीर्थकर धारी इन्द्रों का अंकन है। ऊपर की ओर पुष्पमाल हाथ
भार पुष्पमाल हाथ मूर्तियां अंकित हैं तथा छत्र के ऊपर गजाभिषेक और फिर में लेकर उड़ते हुए विद्याधर दोनों मूर्तियों में हैं पर बड़ी
शिखर का प्रतीक देकर हर मूर्तियों को एक स्वतन्त्र मन्दिर प्रतिमा में इनका प्रभाव है। छत की पद्मशिला से स्पष्ट का प्रतीक ram M ज्ञात होता है कि वहाँ तक यह मग्दिर अपनी प्रादि स्थिति
इस विशाल मन्दिर की अधिकांश सामग्री नष्ट हो में ही अवस्थित है।
गई है जो आस-पास दबी ही पड़ी हो सकती है। किसी इस मन्दिर की एक अन्य उल्लेखनीय विशेषता इसमें शोधक के कुदाल से उद्धार और प्रकाश पाने तक तो हमें प्राप्त चौबीसी की वे कतिपय प्रतिमाएं हैं जो अपनी इस स्थान विपयक इतनी ही जानकारी पर सन्तोष करना पीठिका में अंकित शासन देवी मूर्तियों के कारण अपना होगा।
आत्म-सम्बोधन
मिथ्यामति-रनमांहि ग्यान-भान उदै नाहि प्रातम प्रनादि पंथी भूलो मोख घर है। नरभौ सराय पाय भटकत वस्यो प्राय काम-क्रोध प्रावि तहां तसकर को थर है। सोवेगो अचेत सोई खोवेगो धरम धन तहां गुरु पाहरू पुकारें दया कर है। गाफिल न हजै भ्रात ऐसी है अंधेरी रात, जाग-जागरे बटोही यहां चोरन को डर है। नर भी सराय सार चारों गति चार द्वार, प्रातमा पथिक तहाँ सोबत अघोरी है। तीनों पन जाय प्राव निकस वितीत भए अजों परमाद-मद-निद्रा नाहि छोरी है। तो भी उपगारी गुरु पाहरू पुकार कर हा! हा! रे निवाल कैसी नोंद जोरी है। उठे क्यों न मोही दूरि देश के बटोही, प्रब जागि पंथ लागि भाई रही रन थोरी है।
-भूधरवास
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क्षपणासार के कर्ता माधवचन्द्र
श्री पं० मिलापचन्द कटारिया, केकड़ी
किन्तु हमारी समझ इस विपय में कुछ और है । हम "यह ग्रन्थ पहिले नेमिचन्द्र ने राजा भोज से सम्बन्धित दोनों माधवचन्द्र को अभिन्न समझते हैं और दोनों के श्रीपाल मंडलेश्वर के राजसेठ सोम के निमिन २६ गाया समय की संगति इस तरह बैठाते हैं कि क्षपणासार का जो प्रमाण लघु द्रव्यसंग्रह बनाया था। फिर विशेष तत्त्वसमय शक सं० ११२५ दिया है उसे शालिवाहन संवत् न ज्ञान के लिए बड़ा द्रव्यसंग्रह बनाया।" इस कथन से मानकर विक्रम स० ११२५ मानना चाहिए। चूंकि भी सिद्ध होता है कि राजा भोज के समय श्री नेमिचन्द्र माधवचन्द्र ने त्रिलोकसार गाथा ८५० की टीका में शक- हुए हैं । राजा भोज का समय विक्रम की ११वीं सदी का राज का प्रर्य विक्रम किया है। इसलिए उनके मत के चौथा चरण इतिहास से सिद्ध है। जो प्रमाण द्रव्य-संग्रह अनुसार क्षपणासार में दिए गए शक संवत् को भी विक्रम और गोम्मटसार के कर्ता को भिन्न सिद्ध करने के लिए संवत् ही मानना चाहिए। सही भी यही है कि किसी दिए जाते हैं वे भी कुछ विशेष दृढ़ नहीं हैं जैसे किभी ग्रन्थकार के कथन को उसी के मत के अनुसार माना “गोम्मटसार के कर्ता नेमिचन्द्र तो सिद्धान्त चक्रवति थे जावे । इस तरह मानने से दोनों के समय में जो भारी और द्रव्यसंग्रह के खासतौर से कर्ता नेमिचन्द्र सिद्धांतदेव अन्तर पड़ता है वह हलका-सा रह जाता है। इस हलके थे।" यह हेतु ऐसा कोई भिन्नता का द्योतक नहीं है। अन्तर को तो हम किसी तरह बैठा सकते हैं । इसके लिए क्योंकि त्रिलोकसार की टीका में स्वयं माधवचन्द्र ने ग्रंथ हमें नेमिचन्द्र पोर चामुण्डराय के समय को कुछ भागे की के प्रारम्भ और अन्त में अपने गुरु नेमिचन्द्र का 'सद्धांतदेव' भोर लाना पड़ेगा अर्थात् ये दोनों विक्रम की ११वीं नाम से उल्लेख किया है। और दूसरा हेतु भिन्नता के शताब्दी के चौथे चरण में भी मौजूद थे ऐसा समझना लिए यह दिया जाता है कि "द्रव्य संग्रह में प्राथव के भेदों होगा। वह इस तरह कि बाहुबलि चरित्र में गोम्मटेश्वर में प्रमाद को गिना है जब कि गोम्मटसार में प्रमाद को की प्रतिष्ठा का समय कल्कि सं० ६०० लिखा है। प्रोफे- नहीं लिया है।" यह हेतु भी जोरदार नहीं है। क्योंकि सर पं० हीरालाल जी ने जन-शिलालेख संग्रह भाग १ की इस विषय में शास्त्रकारों की दो विवक्षा रही हैं । तत्त्वार्थ प्रस्तावना में इस कल्कि संवत् को विक्रम सं० १०८६ सिद्ध सूत्र और उनके भाष्यकार प्रादिकों ने आश्रव के भेदों में किया है । यह तो निश्चित ही है कि बाहुबलि मूर्ति की प्रमाद को लिया है, मूलाचार प्रादि में प्रमाद को नहीं स्थापना चामुण्डराय ने की थी। इसके अलावा चामुण्डराय लिया है। ये दोनों ही विवक्षाएँ नेमिचन्द्र के सामने थीं कृत चारित्रसार खुले पत्र पृ० २२ में "उपेत्याक्षाणि और दोनों ही उन्हें मान्य भी थीं इसीलिए उन्होंने जहाँ सर्वाणि..." यह श्लोक उक्तं च रूप से उद्धृत हुया है। वह द्रव्य संग्रह में प्राथव-भेदों में प्रमाद को लिया है वहाँ यह श्लोक अमितगति श्रावकाचार परिच्छेद १२ का लघ द्रव्यसंग्रह की १६वी गाथा में प्रमाद को नहीं भी ११९वां है। इसमें उपवास का लक्षण बताया गया है। लिया है। (देखो अनेकान्त वर्ष १२ किरण ५) अमितगति का समय विक्रम की ११वीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध तक है । इत्यादि हेतुओं से चामुण्डराय का समय संभवतः अलावा इसके उन्होंने द्रव्यसंग्रह को समाप्त करते हुए विक्रम की ११वीं शताब्दी के चौथे चरण तक पहुँच जाता जिस ढंग से अपनी लघुता प्रदर्शित की है। वही ढंग है । और नेमिचन्द्र भी श्री बाहुबलि स्वामी की प्रतिष्ठा के उन्होंने त्रिलोकसार की समाप्ति के समय में भी अपनाया वक्त मौजूद होंगे ही। इसके अतिरिक्त नेमिचन्द्र कृत द्रव्य है। दोनों के वाक्यों को देखिएसंग्रह की ब्रह्मदेव कृत टीका के प्रारम्भ में लिखा है कि इदि णेमिचंद मुणिणा अप्पसुदेणाभयणंदिवच्छेण ।
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अनेकान्त
रइयो तिलोयसारो खमंतु तं बहुसुदाइरिया ॥
दुन्दुभि नाम के शुभ संवत्सर में बाहुबलि मन्त्री की ज्ञप्ति
"त्रिलोकसारे" के लिए यह क्षपणासार ग्रन्थ बनाया है वह पृथ्वी में चन्द अद्यावधि माधवचन्द्र विद्यदेव की दो कृतियाँ उपलब्ध तारे रहें तब तक जयवन्त रहे । हैं । उनमें से एक त्रिलोकसार ग्रन्थ की संस्कृत टीका है इस प्रशस्ति के साथ यहीं पर इस क्षपणासार का माद्य जो छप चुकी है। और दूसरी संस्कृत में बना क्षपणासार भाग मंगलाचरण का मय टीका के एक श्लोक भी छपा ग्रन्थ जो अभी तक छपा नहीं है। उक्त त्रिलोकसार ग्रन्थ है। उसमें भी नेमिचन्द्र पौर चन्द्र (सकलचन्द्र) का प्राकृत में गाथाबद्ध प्राचार्य नेमिचन्द्र का बनाया हुआ है। उल्लेख करते हुए उन्हें माधवचन्द्व और भोजराज के मंत्री उसी की संस्कृत टीका माधवचन्द्र ने लिखी है। इस टीका बाहबलि द्वारा स्तूत बताए गये हैं। की प्रशस्ति में माधवचन्द्र ने इतना ही लिखा है कि
इन उल्लेखों से पता लगता है कि ये माधवचन्द्र "मेरे गुरु नेमिचन्द्र सिद्धांतचक्री के अभिप्रायानुसार इसमें
त्रिलोकसार की टीका की तरह क्षपणासार में भी अपने को कुछ गाथाएँ कहीं कहीं मेरी रची हुई हैं वे भी प्राचार्यों
विद्य और नेमिचन्द्र का शिष्य लिखते हैं अतः दोनों द्वारा अनुसरणीय हैं।" इसके सिवा माधवचन्द्र ने यहाँ
अभिन्न हैं । हाँ, क्षपणासार में उन्होने सकलचन्द्र को भी अपने विषय में और कुछ अपना विशेष परिचय नहीं दिया
अपना गुरु लिखते हुए यह स्पष्ट कर दिया है कि सकलहै किन्तु क्षपणासार की प्रशस्ति में उन्होने अपना परिचय
चन्द्र उनके दीक्षा-गुरु थे और नेमिचंद्र उनके विद्या-गुरु थे। कुछ विशेष तौर पर दिया है। वह प्रशस्ति वीर सेवा
किन्तु इसमें बड़ी बाधा यह पाती है कि उक्त प्रशस्ति में मन्दिर देहली से प्रकाशित "जैन अन्य प्रशस्ति संग्रह" के
क्षपणासार का रचनाकाल शक सं० ११२५ दिया है जिसमें प्रथम भाग के पृ० १६६ पर छपी है। इस प्रशस्ति में
१३५ जोड़ने से विक्रम सं० १२६० होता है। समय की प्रथम से लेकर पांचवें पद्य तक क्रमशः यति वृषभ, वीर
की यह संगति त्रिलोकसार के कर्ता नेमिचन्द्र के समय के सेन, जिनसेन, मुनि चन्द्रसूरि, नेमिचन्द्र और सकलचन्द्र
साथ नही बैठती है। नेमिचन्द्र का समय विक्रम संवत् भट्टारक को नमस्कार करने के बाद दो पद्य निम्न
१०५० के लगभग माना जा रहा है। इसीलिए प्रेमीजी प्रकार हैं
आदि इतिहासज्ञ विद्वानों ने उक्त क्षपणासार के कर्ता माधव तपोनिधि महायशस्सकलचन्द्र भट्टारक
चन्द्र को त्रिलोकसार की टीका कर्ता माधवचन्द्र से भिन्न प्रसारित तपोबलाद् विपुलबोधसच्चक्रतः ।
प्रतिपादन किया है। श्रुतांबुनिधि नेमिचन्द्र मुनिपप्रसादा गतात्,
दवसंगहमिणं मुणिणाहा, दोससंचयचुदा सुदपुण्णा। प्रसाधितमविध्नतः सपदि येन षट्खंडकम् ॥
मोधयतु तणुसुत्तधरेण णेमिचंद मुणिणा भणियं जं ॥ अमुना माधवचन्द्र दिव्यगणिना विद्यचक्रेशिना,
"द्रव्यसंग्रह" क्षपणासारमकारि बाहुबलिसन्मन्त्रीशसंज्ञप्तये ।
इनमे अप्पसुद-तणुसुत्तधर, सुदपुण्णा-बहुसुदा ये वाक्य शककाले शरसूर्यचन्द्रगणिते जाते पुरे क्षुल्लके,
अर्थ-साम्य को लिए हुए हैं। इससे दोनों को अभिन्न शुभदे दुन्दुभिवत्सरे विजयतामाचन्द्रतारं भुवि ।।
मानने की पोर हमारा मन जाता है। इस प्रकार जबकि इन पद्यों में कहा है कि जिसने तपोनिधि, महा- नेमिचन्द्र का समय विक्रम की ११वीं शताब्दी के तीसरे यशस्वी सकलचन्द्र भट्टारक से दीक्षा लेकर तपस्या की चरण तक पहुँच जाता है तो उनके शिष्य माधवचन्द्र का उसके बल से तथा श्रुतसमुद्र पारगामी नेमिचन्द्र मुनि के समय भी विक्रम सं० ११२५ में जीवित रहना संभव हो प्रसाद से जिसे विशाल ज्ञानरूपी उत्तम चक्र मिला, उस सकता है । माधवचन्द्र ने त्रिलोकसार की टीका गोम्मटसार चक्र से जिसने षट्खण्डमय सिद्धान्त को जल्दी ही निविघ्नता की रचना के बाद बनाई है। क्योकि त्रिलोकसार गाथा से साध लिया ऐसे विद्य, दिव्यगणि और सिद्धान्तचक्री २५० की टीका में एक गाथा "तिण्णसय जोयणाणं..." इस माधवचन्द्र ने क्षुल्लकपुर में शक सं० ११२५ में उद्धृत हुई है वह गोम्मटसार जीवकांड की है।
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क्षपणासार के कर्ता माधवचंद
त्रिलोकसार टीका और क्षपणासार की शैली एवं तत्त्व स्वामी की जब वृद्धावस्था थी तब उनके शिष्य माधवचंद्र विवेचन का तुलनात्मक अध्ययन करने पर भी दोनों के युवा थे और इससे माधवचंद्र का अस्तित्व वि० सं० ११२५ एक कर्तृत्व का निश्चय किया जा सकता है इस ओर में माना जा सकता है। इस समय के साथ एक बाधा साहित्यिक विद्वानों को ध्यान देना चाहिए।
अगर यह उपस्थित की जावे कि क्षपणासार की प्रशस्ति में क्षपणासार की प्रशस्ति में माधवचन्द्र ने अपना दीक्षा
उसकी रचना राजा भोज के मन्त्री बाहबली के निमित्त गुरु सकलचन्द्र को बताया है। इस पर विचार उठता है
बताई है और इतिहास में राजा भोज का समय वि० सं० कि उनके विद्यागुरु नेमिचन्द्र के होते हुए उन्होंने सकलचंद्र
११२५ से पहिले का है। इसका समाधान यह हो सकता से दीक्षा क्यों ली ? ऐसा लगता है कि दीक्षा के वक्त हक क्षप
है कि क्षपणासार की समाप्ति के समय तक राजा भोज शायद नेमिचंद्र दिवंगत हो गए हों। इसी से उनको नहीं भी रहे हो तब भी बाहुबली भूतपूर्व का प्रपेश मन्त्री सकलचंद्र के पास से दीक्षा लेनी पड़ी हो। साथ ही ऐसा तो उसी का कहला सकता है। भी मालूम पड़ता है कि त्रिलोकसार की टीका की समाप्ति के समय तक वे दीक्षित ही नहीं हए थे। क्योंकि टीका इस लेख में मैंने जो विचार प्रगट किए है वे कहां तक की प्रशस्ति या टीका में यत्र-तत्र ऐसा कोई उल्लेख नहीं ठीक है ? इसका निर्णय मैं इतिहास के खोजी विद्वानों पर पाया जाता है जिससे उनका मुनि होना प्रगट होता हो। छोड़ते हुए उनसे निवेदन करता हूँ कि उन्होने इस सम्बन्ध क्षपणासार में तो शुरू में ही वे अपने को मूनि लिखते हैं। में अब तक जो निर्णय दिया है उस पर वे पुनः विचार इन सब बातों से यही निष्कर्ष निकलता है कि नेमिचन्द्र करने की कृपा करे ।
उपदेशक पद
कविवर जगतराम
प्रोसर नीको बनि प्रायो रे॥ नर भव उत्तम कुल शुभ सगति, जैन धरम ते पायो रे ॥१॥ दीरघ आयु समझि हू पाई, गुरु निज मंत्र बतायो रे । वानी सुनत सुनत सहजै ही, पुण्य पदारथ भायो रे ॥२॥ कमी नहीं कारण मिलिवे को, अब करि ज्यों सुख पायो रे। विषय-कषाय त्यागि उर सेती, पूजा दान लुभायो रे ॥३॥ 'जगतराम' मति है गति माफिक, पर उपदेश जतायो रे ॥४॥
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३८वें ईसाई तथा ७वं बौद्ध विश्व-सम्मेलनों की
श्री जैन संघ को प्रेरणा श्री कनकविजय जो मामुरगंज, वाराणसी
बौद्ध सम्मेलन की कार्यवाही का निरीक्षण करने के वार्तालाप करते हुए श्री धर्मपालजी इस निष्कर्ष पर पहुँचे पूर्व न केवल भारत में अपितु सम्पूर्ण विश्व में भी बुद्धदेव थे कि "बौद्ध धर्म का निष्कासन भारत के हिन्दुओं से नहीं की महान ज्योति को पुनः प्रज्वलित करने में अनागारिक हुआ था बल्कि भारत में बौद्ध धर्म का नाश मुसलमान श्री धर्मपाल जी ने कितना महत्वपूर्ण पुरुषार्थ किया है ? आक्रमणकारियों के द्वारा हुमा था। सर्वप्रथम उसे देखें:-क्योंकि इसी कारण से विश्व-बौद्ध
अनागारिक धर्मपाल स्वामी श्री विवेकानन्द जी के सम्मेलन के संयोजकों ने २८-११-६४ को सर्वप्रथम श्री मित्र थे। वे श्री विवेकानन्द से केवल एक ही वर्ष छोटे थे धर्मपाल जी की जन्म-शताब्दी मनाने के बाद ही १९-११ जबकि महात्मागांधी जी से श्री धर्मपाल पांच वर्ष बड़े थे। ६४ से ४-१२-६४ तक विश्व बौद्ध-सम्मेलन मनाया था।
शिकागो अमेरिका के विश्व मेले के भीतर विश्व धर्म अनागारिक धर्मपाल
सम्मेलन के लिए श्री धर्मपालजी को स्थविरवादी हीनयान देवमित्र श्री धर्मपाल जी का वास्तविक इंग्लिश नाम बौद्धधर्म का प्रतिनिधित्व करने का सन् १८६३ में पामंत्रण डेविड हेवावितरण था । वे जन्म से क्रिश्चियन थे। उनकी मिला तब कर्नल प्रोलकाट जैसे अत्यन्त स्नेही बुद्धिमान जन्मभूमि सिलोन थी। वे अत्यन्त सम्पन्न परिवार के थे। व्यक्ति की सम्मति न होने पर भी आप विश्व धर्मसम्मेलन आपके पूर्वज भी अत्यन्त बुद्धिमान, सेवाभावी, विद्वान् तथा के लिए अमेरिका गये । उस विश्व धर्म सम्मेलन में श्री धनाढ्य थे। भारत की वर्तमान राजनीति में जो गौरव मती एनीवेसेन्ट तथा श्री चक्रवर्ती (थिजोसोफी),पूर्ण स्थान नेहरू परिवार का है वैसा ही गौरवपूर्ण स्थान प्रतापचन्द्र मजुमदार तथा श्री नागरकर (ब्रह्म समाज), न केवल लंका में अपितु विश्व में बौद्ध धर्म के संबन्धन श्री वीरचन्द्र राघवजी गाधी तथा बैरिस्टर श्री चम्पतराय तथा प्रचार में हेवावितरण परिवार का है। डेविड हेवा- (जैन धर्म), स्वामी श्री विवेकानन्द जी (हिन्दू धर्म) वितरण बाल्यकाल में क्रिश्चियन स्कूल में दाखिल आदि भारत से गये थे। स्वामी श्री विवेकानन्द जी के हए। तब उन्होंने देखा कि ईसाई शिक्षक मदिरा पान भापण में प्रोज था तो श्री धर्मपाल जी का भापण "विश्व तथा पशुपक्षियों का वध भी करते हैं । बाल्यकाल से उनके को श्री बुद्ध की देन' में दर्शन की ऊंची उड़ानों से रहित अन्तःकरण में करुणा. मैत्री, प्रादि अनेकों महत्व के गुण किन्तु सीधी सादी भाषा में बौद्ध धर्म का महत्वपूर्ण परिचय थे। वैसा होने के कारण उनके मन में ईसाइयों से संतोष था। स्वामी श्री विवेकानन्द के विचारों को सुनकर एक नहीं होता था । और परिणामतः अनेक वर्षों तक संघर्ष अमेरिकी सज्जन सभा में ही तत्काल हिन्दू बन गया था। करते करते अन्त में डेविड हेवावितण बौद्ध अनागारिक तब श्री धर्मपालजी के भाषण का वह प्रभाव पड़ा था कि धर्मपाल बन गये । २५ अक्टूबर सन् १८९१ के दिन उसी सभा में न्यूयार्क के व्यापारी तथा दर्शन के विद्यार्थी कलकत्ते में आपने "हिन्दू धर्म के हाथ में बौद्ध धर्म का श्री सी. टी. स्टाल ने बौद्ध धर्म की दीक्षा ली थी। समन्वय" विषय पर सर्व प्रथम भाषण करते हुए कहा था श्री विवेकानन्द की तुलना "शिष्ट किन्तु प्रोजस्वी पोथेलों' कि-"हिन्दू धर्म और बौद्ध धर्म में बहुत ही कम अन्तर से करने में प्रायी। जब श्री धर्मपाल जी को "साक्षात् है।" कलकत्ते में श्री शरत चन्द्रदास के साथ विस्तृत ईसा मसीह के समान कहने में पाया था। स्वामी श्री
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३८ ईसाई तथा
बौद्ध विश्व-सम्मेलनों की श्री जन संघको प्रेरणा
विवेकानन्द के द्वारा जून १८९६ का लंदन से लिखे रक्षण एवं प्रगति संभव है। श्री विनोवाभावे मादि महानुहए पत्र में श्री धर्मपालजी को खास प्रेरणा थी कि भावों का कथन भी उस बात की ही प्रतीति कराते हैं 'अमेरिका में बौद्ध धर्म का अवश्य प्रचार करना चाहिए।' कि "विज्ञान और धर्म का समन्वय जरूरी है इसके बिना सचमुच यह बात उन दोनों धर्म प्रचारकों में कसा हार्दिक मानव समाज का अस्तित्व भी टिकना मुश्किल है।" मिलन था वह दिखाने के लिए पूरता है। सन् १८१८ में सन १९०२ में श्री धर्मपाल जी ने तीसरी बार श्री धर्मपाल जी ने केवल साम्प्रदायिक बौद्ध धर्म के प्रचार अमेरिका यात्रा की और वहां दो वर्ष ठहरे। भारत वापस की अपेक्षा प्रार्य धर्म का वास्तविक प्रचार करना इष्ट लौटते समय वे लन्दन में अराजकतावादी प्रिंस पीटर माना। श्री धर्मपाल जी ने १८९६ के अासपास में ६ महीने द्रोपोटनिक आदि समाजवादी विचारधारा वाले विचारकों तक लका के बौद्धों में मांस भक्षण का निपेध, जाति भेद के साथ खले दिल से वार्तालाप किया। हालैण्ड में उन्होंने की समाप्ति तथा विदेशी वेश भूपा के त्याग का विशिष्ट वहां के ही प्राइमरी स्कूलों का निरीक्षण किया। स्वीडेन प्रचार किया। इसी उद्देश्य के प्रचार के लिए उन्होंने जाकर वहां के ग्रह उद्योगों की जानकारी प्राप्त की। बंगाल से पेशावर तक की तीर्थ यात्रा भी की।
हालैण्ड के एक स्कूल मे श्री धर्मपाल जी का महापुरुषोचित लन्दन की श्री मती मेरी एलिजाबेथ की श्री धर्मपाल स्वागत करने में पाया। क्योंकि कुछ दिन पूर्व ही वहां जी के प्रति अत्यन्त घनिष्ठ श्रद्धा बढ़ती जा रही थी के एक ज्योतिष शास्त्रीय ने भविष्य वाणी की थी कि इस क्योंकि श्री धर्मपाल जी के उपदेशानुसार मेरी एलिजावेथ स्कूल में "पूर्व का महान व्यक्ति प्राएगा।" ने साधना की थी। उस साधना के फलस्वरूप श्रीमती बेथ के कांगडा का एक तरुण सिक्ख सन् १९०४ में श्री स्वभाव का चिड़चिड़ापन दूर हया था। फलस्वरूप उसने धर्मपाल जी से मिलने के लिए खास काशी प्राया था। अपने जीवन के अन्त तक अर्थात् सन् १९३० तक करीब काशी कैण्ट स्टेशन से इक्का में सारनाथ की पोर जाते दस लाख रुपये श्री धर्मपाल जी को धर्म के प्रचार, स्कूल हए उस युवक को इक्कावान् ने कहा कि-'जिस साधु हास्पिटल, पुस्तकालय, प्रादि के लिए दिए थे।
को मिलने के लिए आप सारनाथ जा रहे हैं उप्त साधु को सन् १९०१ में अनागारिक श्री धर्मपाल जी ने इस ओर के लोग पागल समझते हैं।' सारनाथ पहेचते ही अपनी माता श्रीमती मल्लिका हेवावितरण द्वारा प्राप्त तरुण ने देखा कि मारनाथ बिल्कुल उजाड़ स्थान है। उसे ६००) रुपयों से सारनाथ में एक जमीन का टुकड़ा देखते ही युवक के मन में बड़ी निराशा हुई। किन्तु खरीदा था । वर्मा और लंका से प्राप्त चन्दे के द्वारा इस अनागारिक श्री धर्मपाल जी के दर्शन होते ही वह सारी जमीन के ऊपर एक मकान बनाया गया। जिसमें छोटे निराशा दूर हो गई। युवक ने धर्मपाल जी के उद्देश्य में बच्चों को शिक्षा देना शुरू की। जिसके द्वारा बालकों उच्चता, संकल्प में शक्ति तथा उनकी आँखों में अन्तरतम के व्यक्तित्व का विकास हो। यह संस्था चलाने का पूरा की प्रवल प्राग का प्रत्यक्ष दर्शन किया। वह सिक्ख युवक खर्च श्रीमती फोस्टर ने दिया। उसीने श्री बौद्ध मदिर अप्रतिम पत्रकार सन्त निहालामह के नाम से प्राज ससार के निर्माणार्थ चन्दे में १५००) रुपया दिया। उसके बाद में प्रसिद्ध है। अतः यह अनुभव किया जा सकता है कि मेनमा के राजा श्री उदय प्रतापसिह ने भी २०००) रुपये किस लगन और निष्ठा से अकेले हाथ से श्री धर्मपाल जी दिये । उसमें अन्य भी सहायताए हुई थी। इस तरह ने भारत तथा विश्व में बौद्ध धर्म की सेवा की। सारनाथ में दस बीघा जमीन खरीदने में पायी।
नवम्बर मन् १९०४ में अनागारिक श्री धर्मपाल जी विदेशों के विस्तृत परिभ्रमण तथा वहां की अनेक ने लंका महाबोधि सोसाइटी के अनुरोध से लंकावासियों में संस्थाओं के सूक्ष्म निरीक्षण के पश्चात् श्री धर्मपाल जी ने पुनर्जागरण के निमित्त विशेष अभियान किया । लंका द्वीप निर्णय किया कि पश्चिम के शिल्प. विज्ञान आदि को पूर्व के एक छोर से लेकर दूसरे छोर तक जिस मोटर गाड़ी में के अध्यात्म के साथ में समन्वय हो तब ही विश्व का वे घूमे थे उस मोटर गाडी में लिखा हुआ था कि-'गो
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७२
अनेकान्त
मांस मत खामो, मांस मदिरा के सम्पूर्ण त्याग के साथ ही में श्रीमती मेरी एलिजावेथ फोस्टर का निधन भी श्री उन्होंने पश्चिमी वेश भूषा एवं पश्चिमी नाम न रखने की धर्मपाल जी के लिए वज्रपात के समान ही हुआ। घूमने भी जनता से अपील की। श्री धर्मपाल जी को माता फिरने में अशक्त श्री धर्मपाल जी ने धर्मप्रचार के निमित्त पहली सिंहली महिला थी। कि जिन्होंने गाउन छोड़कर श्रीमती फोस्टर से प्राप्त धन एवं हिस्से की सम्पति का साड़ी धारण की। श्री धर्मपाल जी के हृदयंगम भाषणों भी टस्ट किया। कुर्सी पर बैठा करके श्री धर्मपाल जी का प्रभाव लंकावासियों पर खूब पडा और परिणाम को स्टीमर पर पहुँचाया गया। श्री धर्मपाल जी कलकत्ता स्वरूप विदेशी पोशाक एवं इंग्लिश नाम त्यागने की जनता होते हुए सारनाथ पाए । ११ नबम्बर १९३१ के मूलगंध में लहर आ गई।
कुटी विहार सारनाथ के उत्सव में श्री धर्मपाल जी को
सचल कुर्सी पर बैठाकर लाया गया । प्रायोजन में पंडित सन् १९०६ में पिता श्री जान केरोलिस हेवा वितरण
जवाहरलाल नेहरू भी उपस्थित थे। श्री प्रकाश जी ने के निधन से श्री धर्मपाल जी को काफी प्राघात लगा।
धर्मपाल जी का भाषण पढ़कर सुनाया। जीवन का अन्त क्योंकि अपने पिता द्वारा ही श्री धर्मपाल जी को धर्म
नजदीक देखते हुए श्री धर्मपाल जी ने श्रामणोर दीक्षा प्रचार की प्रवृत्तियों में पूर्ण सहायता प्राप्त होती थी।
ली। और दो साल बाद उपसम्पदा अर्थात् भिक्षु दीक्षा तीन बार के अमेरिका यात्रा पर हुए १८०००) का खर्च
भी ली। अप्रैल सन् १९३३ में उनको ठंड लगी और श्री धर्मपाल जी ने महाबोधि सभा में से नहीं लिया था।
ज्वर आया। भक्त लोग इकट्ठे हए और दवाई देने लगे। किन्तु श्री धर्मपाल जी के पिता जी ने स्वयं दिया था।
किन्तु श्री धर्मपाल जी दवाई लेने से इन्कार करते गए। प्राविधिक शिक्षा के लिए सिहनी युवकों को जापान भेजने
उन्होने कहा 'अब इस शरीर पर किसी प्रकार का खर्च का व्यय भार भी श्री धर्मपाल जी के पिता ने ही किया
मत करो।' साग खर्च व्यर्थ है। २८ अप्रैल सन् १९३४ था। पिता के निधन की सूचना श्री धर्मपाल जी ने धी
में उनका शरीर छूट गया। मती एलिजावेथ फोस्टर को दी। तब श्रीमती फोस्टर ने उत्तर दिया कि-'पाज से मैं आपकी फोस्टर तो है ही पडित जवाहर लाल नेहरू श्री धर्मपाल जी को सन् स.थ ही साथ जान केगेलिस हेवा वितरण अर्थात् पिता १८६६ से जानते थे। श्री मोतीलाल नेहरू के बड़े भाई भी। श्रीमती फोस्टर ने पिता के प्रभाव से सम्भावित पंडित वंशीधर नेहरू आदि नेहरू परिवार के साथ में श्री आथिक कठिनाई श्री धर्मपाल जी के सामने नही पाने धर्मपाल जी का स्नेह बहुत पुराना था। गाधी जी के
साथ में श्री धर्मपाल जी का परिचय सन् १९१७ से था।
गांथी जी का धर्मराजिक महा विहार कलकत्ते मे भाषण सन् १९२२ में श्री धर्मपाल जी का स्वास्थ्य काफी गिर गया था । सन् १९२५ में उनके अस्वास्थ्य ने भक्तो
हमा था। सारनाथ जाकर गांधी जी ने बुद्धदेव के दर्शन में पर्याप्त चिन्ता बढ़ाई । परिणामत: श्री धर्मपाल जी
भी किये थे। श्री प्रकाश जी का सम्बन्ध धर्मपाल जी के को स्वीइजर लैण्ड ले जाया गया। जहाँ उनका साटिका
साथ अत्यन्त निकट का था। डा. भगवान दास तथा
पंडित श्री मदन मोहन मालवीय जी श्री धर्मपाल जी के का सफल आपरेशन भी हुमा। लंका लौटने के माय ही श्री धर्मपाल जी ने जीवन के कप्टमय चरण में प्रवेश
मित्रों के समान थे । राष्ट्र रत्न श्री शिवप्रसाद गुप्त के किया। तीन वर्ष तक पेट विकार के कारण बिस्तर में
द्वारा श्री धर्मपाल जी को अनेकों प्रकार की सुविधाएँ ही पड़े रहे। तीन वर्ष के बाद वे कुछ ठीक हुए और
मिलती थीं। हृदय के रोग से भी मुक्त हुए। किन्तु उतने में ही उनके श्री धर्मपाल जी बडे भारी विचारक या विद्वान् नही सबसे छोटे भाई डा. चार्ल्स अल्विस हेवावितरण की ट्रेन थे किन्तु धर्म उनके चरित्र में उतर आया था । बाल्यकाल दुर्घटना में मत्यु हो गई। उनके द्वारा श्री धर्मपाल जी को में उनको ईसाई धर्म के अत्याचारों का प्रत्यक्ष दर्शन तथा धर्मप्रचार में काफी सुविधाएं मिलती थीं। सन् १९३० अनुभव हुआ था। युवावस्था में गया के महन्त के द्वारा
दी।
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३८ ईसाईतवा
बोर विश्व-सम्मेलनों की श्री जनसंघको प्रेरणा
हए अत्याचारों के प्रत्यक्ष अनुभव ने श्री धर्मपाल जी के जीवन बिताया, परिणामतः ज्ञान की परम ज्योति प्राप्त जीवन में प्रशान्ति उत्पन्न कर दी थी। वृद्धावस्था में की और मानव समाज को अपने-अपने ढंग से कल्याण के स्वास्थ्य जिस तरह गिरा था उसके कारण के रूप में परम मार्ग का भी उपदेश दिया। इस तरह जनों के लिए निश्चित रूप से यही मन : स्थिति हेतु रूप थी। धर्म के बौद्ध एक प्रत्यन्त प्रात्मीय भारतीय बन्धुधर्म ही है। कर्णधारों में उनकी तुलना मात्र स्वामी विवेकानन्द से ही प्रगति के पथ पर चले हुए दोनो बन्धु पों के हजारों हो सकती है।
वर्षों के भूतकाल के इतिहास पर सूक्ष्म दृष्टि डाल कर गिनती के ही वर्षों पूर्व सम्पूर्ण भारत में एक भी एक दूसरों की सफलता प्रसफलता, त्रुटि, कमजोरी, मादि बौद्ध नहीं था । जबकि वर्तमान में करोड़ों बौद्ध भारत में अनेक बातों का मूल्यांकन करें वह इच्छनीय है । बौद्धों के हैं। सैकड़ों की संख्या में बौद्ध भिक्षुएं भी हैं। न केवल लिए हाल वर्तमान में खास कुछ कहने की आवश्यकता भारत में अपितु समग्र विश्व के कोने-कोने में बौद्ध प्रचार नहीं है। आवश्यकता मात्र श्री जैन संघ तथा समाज के का सूत्रपात एकमात्र एकांकी अनागारिक श्री धर्मपाल लिए ही है। क्योंकि इस लेख का उद्देश्य ही 'श्री जैन संघ जी ने ही किया था। श्री धर्मपाल जी ने घोषित किया कुछ प्रेरणा लेगा?' यही है। लेख के अन्त में उस पर था कि 'भौतिकवाद और अध्यात्मवाद के बीच में सन्तुलन भी विचार करेंगे। करने से ही संसार मे कुछ उपयोगी कार्य हो सकता है मैं धर्म की सेवा के लिए २५ बार जन्म लूंगा। मेरा वर्तमान विश्व में तीन धर्मों का अधिक प्रचार है। जन्म वाराणसी के ही एक ब्राह्मण परिवार में ही होगा।' ईसाई, बौद्ध एवं इस्लाम । सबसे पहला व्यवस्थित संगठन श्री शामा प्रसाद जी प्रदीप कहते हैं कि-श्री धर्मपाल जी ईसाइयों का था। जो आज तक बराबर बढ़ता ही जा ने भारत में बौद्ध धर्म का पुनरुद्धार ही नहीं किया बल्कि रहा है। विभिन्न देश, परम्परा एवं स्थानों में मात्र मानव विशुद्ध धर्म प्रचार करके उन्होंने विश्व में सबसे बड़े सेवा के लक्ष्य को लेकर ही वह व्यवस्थित रीति से प्रागे मिशनरी होने का गौरव भी प्राप्त किया।' डा. श्री प्रगति कर रहा है। ईसाई विश्व सम्मेलनों के विभिन्न कैलाशनाथ काटज़ ने श्री धर्मपाल जी के लिए कहा कि- देशों में ३८ महान् अधिवेशन हुए हैं। करोड़ों की संख्या 'जिस तरह आनन्द बुद्धदेव को कपिलवस्तु वापस ले गये में ईसाई बढ़ गये हैं वह ईसाइयों की व्यवस्थित कार्य थे उसी तरह श्री धर्मपाल जी भारत में बौद्ध धर्म को शक्ति का ज्वलंत उदाहरण है। बम्बई में हुए. ३८वें वापस ले पाए।' महाबोधि सोसाइटी के जनरल सेक्रेटरी विश्व ईसाई सम्मेलन की व्यवस्थिता, स्पष्टता तथा अनूब्रह्मचारी श्री देवप्रिय बलिसिंह जो श्री प्रनागारिक धर्म- शासन प्रादि जगजाहिर है। विश्व ईसाई सम्मेलन की पाल जी के प्रधान शिष्य हैं उन्होंने १-१२-६४ को कहा तुलना में विश्व बौद्ध सम्मेलन इतना सुन्दर, आकर्षक था कि-'अनागारिक धर्मपाल बौद्ध धर्म के पनरुद्धारक तथा प्रेरक नहीं था। वेसा प्रत्यक्ष दशियों का अनुभव है। ही नहीं, अपितु सम्राट अशोक के बाद सबसे बड़े बौद्ध फिर भी ईसाइयों के व्यवस्थित प्रचार से प्रेरित होकर श्री धर्म के प्रचारक भी थे।'
धर्मपाल जी के गृहस्थ शिष्य लंका के वर्तमान कालीन इतनी प्रारम्भिक जानकारी प्राप्त करने के पश्चात्
ब्रिटेन के हाई कमिश्नर श्री मलाल शेखर जी एवं इंग्लैंड अब अपने सातवें विश्व बौद्ध सम्मेलन की प्रेरक कार्य
के सुप्रसिद्ध विद्वान् श्री किस्मल हम्फे आदि बौद्ध महान
भावों ने मिलकर बौद्ध समाज की तत्कालीन सारी परिवाही की ओर आयें।
स्थितियों का विचार किया । और एकमात्र बौद्ध धर्म के सातवां विश्व बौद्ध सम्मेलन, सारनाथ, काशी:
प्रचार की मंगल कामना से स्वयं हीनयान परम्परा के भगवान् महावीर तथा श्री बुद्धदेव दोनों समकालीन उपासक होते हुए भी विश्व में फैले हुए बौद्धों के प्रमुख राजकुमार थे। दोनों महापुरुषों ने अन्तिम ज्ञान की प्राप्ति भेद महायान्, हीनयान् तथा वजयान रूम तीनों प्रधान के लिए सम्पूर्ण राज्यवैभव का त्याग किया, कष्टमय . परम्पराओं का समन्वय करते हुए सन् १९५० में सर्व
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अनेकान्त
प्रथम विश्व भ्रातृत्त्व संघ की स्थापना की। प्रथम सम्मेलन तो समझ में प्राता है किन्तु २६ जनवरी १९६५ के दिन भी लंका में ही किया उसके बाद प्रति दूसरे वर्ष विश्व दक्षिण भारत में केवल हिन्दी राष्ट्र भाषा न होनी चाहिए बौद्ध सम्मेलन विभिन्न देशों में हुए हैं। क्रमशः जापान, इतने ही मात्र के लिए, हिन्दी के विरोध में, दो व्यक्तियों वर्मा, नेपाल, थाईलैण्ड तथा कम्बोडिया में हुए हैं। सातवाँ का जीते जी जल मरना वह समझ में नहीं पाता। ऐसी ६ दिन का विश्व बौद्ध सम्मेलन सारनाथ में हुमा। इतना ही एक विशाक्त हवा लंका से भी पाई थी कि वहाँ के जानना जरूरी है कि धर्मपाल जी के अनेकों शिष्य भिक्षु एक बौद्ध भिक्षु ने कहा है-'सरकार द्वारा यदि समाचार होते हुए भी श्री धर्मपाल जी के अनुरागी भक्त गृहस्थ पत्र अपने अधिकार में ले लिए जायेंगे। तो वियतनाम के श्री मलाल शेखर जी ने श्री क्रिस्मस हम्फे जैसे बहुश्रुत बौद्ध भिक्षुओं की तरह मैं भी जीवन कुर्वान करके विद्वान का अमूल्य सहयोग लेकर प्रागे भाए और विश्व अग्नि में जल मरूंगा। प्रत्येक शुभ प्रादर्श का मानव बौद्ध सम्मेलन की स्थापना की । स्थापना से लेकर माज समाज कितना भयंकर दुरुपयोग भी कर सकता है ? लंका तक ब्रिटेन में लंका के हाई कमिश्नर प्रादि अनेक उत्तर- और दक्षिण भारत के दोनों उदाहरण इस बात के साक्षी दायित्व पूर्ण पदों की जिम्मेदारियों को निभाते हुए उन है। दोनों महानुभावों ने अनेक सहयोगियों के साथ मिलकर
विश्व बौद्ध सम्मेलन में विश्व के ३२ देशों में से प्रधान्त गति से विश्व बौद्ध सम्मेलन की गाड़ी मागे
चीन, पाकिस्तान, हिन्देशिया एवं वर्मा को छोड़कर २८ खींचते ही जा रहे हैं। श्री जैन संघ के लिए सचमुच वह राष्टों के बौद्ध प्रतिनिधि इकट्ठे हुए थे। सम्मेलन के उद्प्रेरणा लेने योग्य है।
घाटन के पूर्व डा० राधाकृष्णन् ने बुद्धदेव की मूर्ति की विश्व बौद्ध सम्मेलन का उद्देश्य राज्यनीति में भाग पूजा की थी। फूल चढ़ाए थे। धूप भी किया था। लेने का नहीं है केवल पार्मिक तथा सांस्कृतिक प्रवृत्तियों सम्मेलन में उपस्थित खास व्यवितयों में तिब्बत के श्री तक ही अपना कार्य क्षेत्र सम्मेलन ने सीमित रखा है। दलाई लामा, लद्दाख के श्री पणछेन लामा, महाराज यद्यपि बौद्ध देशों में प्रापसी वैमनस्य तथा विरोध भी है। सिक्किम, सम्मेलन की अध्यक्षा थाइलण्ड की राजकुमारी वियतनाम तथा लामोस और थाईलण्ड एवं कम्बोडिया में श्री मती पून पिस्मइ टिस्कुल, लामोस सरकार के सांस्कृप्रापसी विरोष है। वर्मा एक बौद्ध देश होते हए भी वहाँ तिक मन्त्री, काशी नरेश, राजमाता विजया नगरम, उत्तर की सरकार के पहले बौद्ध अधिकारी इस समय जेल प्रदेश सरकार की प्रधान मन्त्रिणी श्रीमती सुचेता कृप
लानी, भारत सरकार के परराष्ट्र मन्त्रालय की श्रीमती वियतनाम में अमेरिकन शासन के सामने बौद्धों ने
लक्ष्मी मेनन, लंका में भारत के राजदूत श्री भीमसेन
सच्चर, ब्रिटेन में लंका के राजदूत श्री मलाल शेखर जी, जो विरोध व्यक्त किया था उसके फोटू स्लाइड चित्र और खून से तर वस्त्र प्रादि भी सारनाथ में दिखाने में पाए
इंग्लण्ड के श्री क्रिस्मस हम्फे आदि अनेकों विशिष्ट
व्यक्ति उपस्थित थे। विश्व सम्मेलन के लिए ही सारनाथ थे। भारत ने गांधी जी के नेतृत्व में अहिंसक सत्याग्रह
में खास रिजर्व बैंक की शाखा खोलने में आई थी। विश्व तो देखा ही है किन्तु वियतनाम में अमेरिकनों के सामने
और भारत में समाचार भेजने के लिए टेलीप्रिंटरों की भिक्षुमों का जीते जी अग्नि में जल जाने के अनेकों प्रसंग
खास व्यवस्था करने में आई थी। सचमुच मानव समाज के सामने महत्वपूर्ण उदाहरण हैं। वियतनाम का वह विरोष प्रभी समाप्त नहीं है वर्तमान विश्व बौद्ध सम्मेलन में बौद्ध भिक्षों एवं प्रतिनिधि में भी चल रहा है। दो चार दिन ऊपर के पत्र में पढ़ने गण अनेक प्रकार की बेश भूपामों में उपस्थित था। में पाया था कि कोई बौद्ध भिक्षुणी सरकार के विरोध कत्थई वस्त्र में तिब्बत, मंगोलिया तथा लद्दाखी भिक्षुमों के निमित्त अग्नि में जल मरी है। यद्यपि वियतनाम में के साथ रूसी उपासिकाएं भी थीं। पीत वस्त्र में स्थविर बौद्ध भिक्षु एवं भिक्षुणियों का मात्म बलिदान प्रेरक प्रसंग वादी भिक्ष, काले पोशाक में जापानी धर्माचार्यों, श्वेत
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३८वें ईसाई तथा ७ बौद्ध विश्व-सम्मेलनों को भी बन संघ को प्रेरणा
वस्त्र में वियतनामी उपासिकाएँ रंग विरंगे पोशाकों में सुविधा नहीं करती। सरकार ईसाई सम्मेलन को पूर्ण भारत तथा दक्षिण पूर्व एशिया के प्रतिनिधि तो थे ही सुविधा देती है प्रादि । पश्चिमी सभ्य पोशाकों में प्रास्ट्रलिया, योरोप तथा प्रमेरिका के प्रतिनिधि भी थे।
थाइलण्ड की प्रतिभाशालिनी राजकुमारी पुन पिस्मइ
टिस्कुल सातवें विश्व बौद्ध सम्मेलन के प्रमुख पद पर पुनः इस सार प्रसग पर सम्पादकाय लख लिखत ३११ प्रतिष्ठित हुई। उन्होंने विभिन्न प्रसंगों पर जो कुछ कहा ६४ के 'प्राज' दैनिक में कहने में पाया था कि इस वह सचमुच उल्लेखनीय है । २५ सौ वर्षों से बोड धर्म सम्मेलन में ऐसे निर्णय (ठहराव) करने में पाए जो बौद्ध
मानव समाज की सेवा समयानुसार कर रहा है। सब धर्म के प्रचार में ही नहीं समस्त मानवता के कल्याण में
धर्मों का मन्तिम लक्ष्य एक ही है कि मानव को पशु के भी सहायक हों। सचमुच सातवें बौद्ध सम्मेलन में जो भी
स्तर से ऊपर उठाना ।" मानव समाज की तथाकथित नई निर्णय किए हैं वह बड़े ही महत्वपूर्ण हैं । सम्मेलन ने
पीड़ी प्रायः सब धर्मों को हेय दृष्टि से देखती है। क्योंकि विश्व के बौद्धों को प्रेरणा दी है कि:-(१) प्रत्येक धर्मो वे अन्ध विश्वास की विरोधिनी है इसीलिए हमको बोट के साथ सद्भाव और मित्रता रखना (२) प्रत्यक बाद्ध धर्म की बुद्धिग्राही ढंग से व्याख्या करनी पड़ेगी किन्तु संगठन विश्व शान्ति की रक्षा के लिए हर एक धर्म तथा वैसा करने के पूर्व सबसे पहले हमें स्वयं उसे अच्छी तरह उसके धार्मिक संगठनों के साथ सहयोग पूर्वक कार्य करें समझ लेना होगा । हमें (बोड) अन्य धर्मानुयायिनों से (३) बौद्धों के दो प्रमुख भेद महायान तथा थेर (स्थविर)
मा भिमानता र वादी शाखामों में पारस्परिक सम्बन्ध और घनिष्ठता वैसा अभिमान प्रतिस्पर्धा का सर्जक हो जायगा । हमको स्थापित हो (४) बौद्धों और हिन्दुनों में गहरा सद्भाव प्राशा है कि सब धर्मों में सहयोग और एकता होगी और आवश्यक है (५) विश्व राष्ट्रसंघ को विश्व के निशस्त्री- इस तरह साथ-साथ कार्य करते हुए शान्ति, सामाजिक करण के लिए अपील की (६) परमाणु शस्त्रों का उपयोग दढता तथा प्रगति की उपलब्धि भी होगी। बोड और कोई राष्ट्र न करे (७) परमाणु शक्ति का उपयोग निर्माण हिन्दनों में गहरे सद्भाव की प्रावश्यकता है। हम सब कार्य में ही होना चाहिए (८) निश्चित याजनामा का (बौद्ध) महान् हिन्दू प्रतिनिधित्व के सदस्य हैं। हिन्दू चरितार्थ करने के लिए विशाल रूप से धन संग्रह करना लोग दोनों एक ही हैं। हिन्दू धर्म प्राचीन है। बौद्ध धर्म मादि।
का ईसवी पूर्व छठी शताब्दी में जन्म हुआ। बौद्ध धर्म सारनाथ के सातवें विश्व बौद्ध सम्मेलन के लिए और हिन्दू धर्म का लक्ष्य समान है । वह लक्ष्य है मोक्ष थाइलैण्ड के श्री सुद्धिमाणिक्य ने डेढ़ लाख रुपया दिया प्राप्त करना अर्थात् स्वतन्त्रता प्राप्त करनी। (उनके था। उसके बदले में सम्मेलन ने उनको खास धन्यवाद विकास में) मापके जो कोई प्रयत्न होंगे उसमें हमार: दिया था। १-२-६४ के दिन बौद्ध मन्दिर में तीन भार- (बौद्धों का) पाएवं सहयोग मिलेगा। (१.१२-६४ का तीय बालकों को तथा ६ महाराष्ट्र के वयस्कों को श्रामणेर काशी विद्यापीठ का भाषण) वाराणसी के साथ मेरा दीक्षा देने में आयी थी । सन् १९५४ में उत्तरप्रदेश राज्य (राजकुमारी का) सम्बन्ध जन्म से है इत्यादि अनेक तथा केन्द्रीय सरकार ने ३५ लाख रुपया तो केवल सार- भाषणों से भी मागे बढ़कर राजकुमारी प्रमुख व्यक्तियों नाथ के हो विकास के लिए खर्चे थे। अन्य स्थानों के के समूह के साथ श्री तुलसो मानस मन्दिर में गई और लिए तो अलग अलग रकमें भी थीं। सन् १९५६ के पहले वहाँ जाकर के हिन्दू विधि से पूजन भी किया। काशी तथा बाद में भी अनेकों सहायता बौद्ध केन्द्रों को सरकार हिन्दू विश्व विद्यालय के श्री विश्वनाथ मन्दिर में भी के द्वारा मिली है। इतना होने पर भी मान्य भिक्ष श्री प्रमुख व्यक्तियों के साथ श्री विश्वनाथ जी का बैदिक धर्मरक्षित जी प्रायः २५-११-६४ के 'माज' में लिखते हैं मन्त्रों से पूजन किया । लंका के ब्रिटेन में हाई कमिश्नर कि सरकार बौद्ध सम्मेलन के प्रति उपेक्षा रखती है। कोई तथा विश्व बौद्ध सम्मेलन के सर्जक श्री मलाल शेखर जी
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आदि भी उस पूजन में सम्मिलित थे । उन्होंने अपने एक भाग में निम्नलिखित वाक्य उद्धृत किया था कि'बुद्ध देव कहते हैं कि बुद्धि के बल पर चलो । प्राप्त के बचन पर नहीं ।' मलेशिया के प्रधान मन्त्री श्री तुर्क रहमान ने अपने सन्देश में कहा था कि 'प्राज के संसार में भौतिकवाद ने अध्यात्मिकता को चुनौती दे रखी है । सम्मेलन उस चुनौती का उत्तर दे वैसी आशा रखता है ।'
मूलगंध कुटीविहार के सामने दिखाए गए सिंहली चलचित्र 'लंका में बौद्ध धर्म' में एक प्राश्चर्यजनक कथा बताने में आई थीं। वह कथा ऐसी थी कुशीनगर में भगवान बुद्ध का जब महापरिनिर्वाण हो रहा था तब उन्होंने इन्द्र को बुलाया और श्रादेश दिया कि हमारे धर्म को लंका में ले जाओ और वहाँ उसकी रक्षा एवं व्यवस्था करो । इन्द्र ने लंका में जाकर विभीषण देव को बुलाया मौर कहा कि वह बौद्ध धर्म की रक्षा करें। लंकावासियों का विश्वास है कि भगवान बुद्धदेव तीन बार लंका में आए हैं और इन्द्र की प्राज्ञा से वहाँ विभीषणदेव बौद्ध धर्म की रक्षा करते हैं ।
महाबोधि सोसाइटी के प्रधान भिक्षुत्रोंका महाबोधि सोसाइटी को ही दान सचमुच एक महत्व का बिचारणीय प्रसंग है । महाबोधि सोसाइटी के संस्थापक भिक्षु श्री धर्मपाल जी के उल्लेखनीय शिष्य भिक्षु श्री संघरत्न जी रायक स्थविर जो वर्षों से महाबोधि सोसाइटी के सुयोग्य चालक भिक्षु श्री धर्म-रक्षित जी घोर नालंदा के विद्वान
अनेकान्त
भिक्षु श्री यू धर्मरत्न जी का क्रमशः १००) रुपयों का दान धौर यह सारी भी छपी है। भिक्षुत्रों को कार्यसेवा के बदले में उचित पुरस्कार तथा मासिक भी मिलता है ।
१०१ ), १०० ), बाल रिपोर्ट में
लेखक पहले के अन्त में बम्बई के क्रिश्चियन में जिस तरह चोरों और बदमाशों को पकड़ने में आए थे उस पर हमने जैसी चिन्ता व्यक्त की थी वैसी चिन्ता यहाँ भी व्यक्त करनी ही पड़ेगी। कि अखिल भारतीय श्री महाबोधि सोसाइटी के प्रधान मन्त्री, स्वर्गवासी भिक्षु श्री धर्मपाल जी के शिष्य, ब्रह्मचारी श्री देवप्रिय बलिसिंह जी का ८००) रुपयों का सामान चोरी हो गया । जिसमें विश्व बौद्ध सम्मेलन के कितनी ही फाइले भी थीं। यह चोरी कलकत्ता के हावड़ा स्टेशन पर हुई थी । सारनाथ के सम्मेलन स्थल पर भी कितनी ही चोरियाँ ऐसी हुई कि जिनका विचार करते हुए ऐसा लग रहा है कि जिस बुद्धि या कला का प्रयोग मनुष्य पतन के मार्ग पर करता हैं उसी बुद्धि या कला का शतांश नहीं, सहस्त्रांश भी उपयोग यदि उन्नति के मार्ग में करें तो ? न जाने इतना साधारण-सा शुभकर्म करने से मनुष्य कितना ऊँचा उठ सकता है । परन्तु वैसा बने ही क्यों ? कलिकाल ही तो है।
जब अपने दोनों विश्व सम्मेलनों की समालोचना के साथ श्री जैन संघ को प्रेरणा वाले अत्यन्त उपयोगी भ्रंश की ओर भावें ।
अनेकान्त की पुरानी फाइलें
अनेकान्त की कुछ पुरानी फाइलें अवशिष्ट हैं जिनमें इतिहास, पुरातत्व, दर्शन और साहित्य के सम्बन्ध में लोजपूर्ण लेख लिखे गए हैं जो पठनीय तथा संग्रहणीय हैं। फाइलें अनेकान्त के लागत मूल्य पर दी जायेंगी, १२, १३, १४, १५, १६, १७ वर्षों की हैं। थोड़ी ही
पोस्टेजलचं अलग होगा। फाइलें वर्ष ८, ६, १०, ११, प्रतियां अवशिष्ट हैं। मंगाने की शीघ्रता करें ।
मैनेजर 'अनेकान्त' बोरसेवामन्दिर २१ दरियागंज, दिल्ली ।
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श्री बाबू छोटेलाल जी जैन का संक्षिप्त जीवन-परिचय
बाबू छोटेलाल जी जैन की गणना देश के प्रमुख कारवां जीवन यात्रा की मोर बढ़ने लगा। अपने व्यापार समाज एवं साहित्य सेवियों में की जाती है। देश की के पश्चात् जो भी प्रापको समय मिलता उसे पाप समाज विभिन्न संस्थानों से उनका निकट सम्बन्ध रहा है और एवं देश सेवा में व्यतीत करने लगे । शनैः शनैः पाप सेवा उनके माध्यम से वे गत ५० वर्षों से देश, समाज एवं के क्षेत्र में अधिक तत्परता से बढ़ने लगे और कुछ समय साहित्य सेवा में अनुबद्ध हैं। सन् १९१७ में कलकत्ता में पश्चात् पाप पूरे समाज सेवी बन गये । इस प्रकार मापका जब इन्फ्लुएंजा का भीषण प्रकोप हुमा तब उन्होंने पीडित सारा जीवन ही देश एवं समाज सेवा में समाप्त हो चला व्यक्तियों के लिए भोजन, औषधि प्रादि की खब सहायता है। बाबू जी कितनी ही संस्थाओं के अध्यक्ष, मन्त्री एवं की थी और यही उनका सर्वप्रथम सार्वजनिक सेवा में ट्रस्टी हैं । वर्तमान में आप कलकत्ता जैन मन्दिर के दृष्टी। प्रवेश का अवसर था। सन् १९४३ में जब बंगाल में भीषण कार्तिक महोत्सव कमेटी एवं भातीर्थ क्षेत्र कमेटी अकाल पड़ा और जिसने लाखों इन्सानों की जान ले ली थी के सक्रिय सदस्य हैं तथा बंगाल, बिहार, उड़ीसा तीर्थक्षेत्र। उस समय बाबू जी ने तन मन धन से सारे बंगाल में घूम- कमेटी के मन्त्री रह चुके हैं। समाज के सभी सुधार का . घूम कर अकाल पीडितों की जो सेवा की थी वह अविस्मर- मान्दोलनों एवं सम्मेलनों में प्रापका प्रमुख हाथ रहा है गीय रहेगी। इसी तरह पूर्वी पाकिस्तान के नोपाखाली मापके निर्देशन में समाज के बहुत से विकास के कार्य क्षेत्र में जब भीषण साम्प्रदायिक दंगे हए और मनुष्य का चलते रहते हैं। मसुष्य दुश्मन बन गया उस समय भी मापने जीवन का साहित्य एवं पुरातत्व के माप विशेष प्रेमी हैं। देश की खतरा मोल लेकर वहां रिलीफ कैम्प खोले और सैकड़ों प्रमुख साहित्यिक संस्था वीर सेवा मन्दिर देहलीके वर्षों हिन्दुओं के जीवन की रक्षा की । स्वयं कलकत्ता में हिन्दू से
से पाप अध्यक्ष हैं। मनेकान्त पत्र के संचालन में आपका मुस्लिम दंगों के समय बाबू जी ने पीडितों की प्रशंसनीय
प्रमुख हाथ रहा है और उसके काफी समय तक सम्पादक सेवा की। सरदार पटेल की अपील पर सोमनाथ मन्दिर
भी रहे हैं। रायल एशियाटिक सोसाइटी के प्राप सन्
भा रहह। राप के पुनरुद्वार के लिए कलकत्ता नगर के गनी एसोसिएशन
१९२१ से सम्मानित सदस्य हैं खण्डगिरि के पुरातत्व के द्वारा जो दो लाख की भारी रकम एकत्रित हुईथी उसमें महत्व को प्रकाश में लाने में प्रापका विशेष हाथ रहा। बाबू जी का पूरा सहयोग था।
पुरातत्व की खोज में मापने दक्षिण भारत के अतिरिक्त
विहार, उडीसा, बंगाल, राजस्थान आदि प्रदेशों में भ्रमण सन् १९१७ में आप कांग्रेस के सक्रिय सदस्य बने ।
किया है और यहाँ से महत्वपूर्ण सामग्री को खोज निकाला और काग्रेस के विशेष अधिवेशन पर मापने अखिल भारतीय
है। सर्वप्रथम आपकी पुस्तक 'कलकत्ता जैन मूर्ति यंत्र जैन राष्ट्रीय कान्फ्रेंस का कलकत्ते में अधिवेशन आमंत्रित
संग्रह' सन् १९२३ में प्रकाशित हुई। फिर जैन विविलियोकिया। श्री बी. खापर्डे इसके मध्यक्ष थे तथा लोकमान्य
ग्राफी का प्रथम भाग सन् १९४५ में प्रकाशित हुमा मौर तिलक जैसे उच्च नेताओं ने इस सम्मेलन में भाग लिया
दूसरा भाग भी पीघ्र प्रकाशित होने की स्थिति में है। था। बाबू जी सी० आर० दास के अनुयायियों में से थे मोर
पुरातत्व एवं शिलालेखों के सम्बन्ध में मापने एक महत्वइस कारण उन्हें काफी परेशानियां उठानी पड़ी पर भापने
पूर्ण पुस्तक का संग्रह किया है जिसका प्रकाशन भावश्यक कभी भी दास बाबू का साथ नहीं छोड़ा।
है। देश विदेश के विद्वानों के जैन साहित्य पर शोष कार्य कलकत्ते के सम्पन्न जैन परिवार में प्रापका ७० वर्ष में पाप बराबर सहयोग देते रहते हैं। डा०विन्टर निन, पूर्व जन्म हमा और शिक्षा प्राप्ति के पश्चात् मापका ग. ग्लासिनव, श्री मार०डी०बनर्जी, रायबहादुर पार.
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अनेकान्त
पी.चन्द्रा, श्री एन० जी० मजमदार, श्री के एन. दीक्षित दर्शन देने तथा व्यवसाय धन्धे में लगाने में पाप सतत अमूल्य चन्द्र विद्याभूषण, डा. विभूतिभूषणदत्त, डा. ए. प्रयत्नशील रहते हैं। कलकत्ते के बंगाली एवं जैनेतर मार भट्टाचार्य, डा. एस. आर. बनर्जी आदि सैकड़ों समाज में भी पाप विशेष प्रिय हैं तथा वहाँ के प्रतिष्ठित विद्वानों ने मापसे जैन साहित्य एवं पुरातत्व में पूरा सहयोग साहित्य सेवियों एवं समाज सेवियों से आपका विशेष लिया है।
सम्बन्ध है। बाबू जी सदैव सफल व्यापारी रहे हैं। एक लम्बे समय तक माप कलकत्ता की प्रसिद्ध ट्रेड एसोसियेसन के लेकिन दुःख है कि आपका स्वास्थ्य प्रापका साथ प्रमुख सदस्य रहे। इस संस्था के प्राप वर्षों तक मन्त्री नहीं देता और बीमारी चाहे जब आपको परेशान करती एवं अध्यक्ष भी रहे हैं। पापकी व्यवसायिक योग्यता देख रहती है। अस्वस्थ रहने पर भी उत्साह एवं लगन के कर बंगाल चैम्बर आफ कामर्स एण्ड इन्डस्ट्रीज तथा साथ प्राप समाज एवं देश की सेवा में व्यस्त रहते हैं। इण्डियन चैम्बर आफ कामर्स एण्ड इन्डस्ट्रीज ने अपनी हमारा कर्तव्य है कि ऐसे देश सेवी, समाज सेवी एवं मोर से प्रापको पंच नियुक्त किया।
साहित्य सेवी महानुभावों का समुचित सत्कार किया इन सब के अतिरिक्त प्राप दानी, परोपकारी, एवं जाय । ऐसे साधक एवं संस्कृति के अनन्य सेवक के सत्कार कर्मठ कार्यकर्ता हैं। अब तक आपने मिलाकर विभिन्न का प्रायोजन वस्तुतः अपने पापको गौरवान्वित करना है सामाजिक संस्थानों को लाखों रुपये का दान दिया होगा। और इसीलिए आपके अभिनन्दन का आयोजन किया जा पापको समाज के नवयुवकों का बड़ा ख्याल है। उन्हें मार्ग रहा है।
श्री छोटेलाल जैन अभिनन्दन ग्रन्थ
सम्पादक मण्डल
कृपया आप अपना मौलिक लेख किसी एक भाषा में सूची
के विषय या अन्य विषय पर ३१ मई ६५ तक भेज कर डा. कालीदासी नाग, पण्डित चैनसुखदास न्यायतीर्थ
अनुगृहीत करें । अभिनन्दन ग्रन्थ में लेख प्रकाशित होने पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री डा. कस्तूरचन्द कासलीवाल,
पर पापको लेख को २० प्रतियाँ अतिरिक्त भेज दी श्री टी. एन. रामचन्द्रन, श्री अगरचन्द नाहटा, डा. सत्य
जावेंगी। रंजन बनर्जी।
कृपया आप जिस विषय को चुने उसकी स्वीकृति प्रापको यह जान कर प्रसन्नता होगा कि सुप्रसिद्ध शीघ्र ही भिजवाने का कष्ट करें। समाजसेवी, इतिहास एवं पुरातत्त्ववेत्ता श्री छोटेलाल जी जैन कलकत्ता के ७०वे वर्ष की समाप्ति पर उनका सार्व
श्री छोटेलाल जैन अभिनन्दन ग्रन्थ जनिक अभिनन्दन करने का निश्चय किया गया है। इस
विषय-सूची अवसर पर उन्हें एक अभिनन्दन ग्रन्थ भी भेट किया
खण्डक जावेगा।
अभिनन्दन ग्रन्थ में देश के प्रख्यात लेखकों, विचारकों १. जन्म, परिवार, मातापिता, शिक्षा, विवाह एवं एवम् विद्वानों के गवेषणापूर्ण लेख होंगे। अन्य हिन्दी, व्यसन । अंग्रेजी एवं बंगला तीनों भाषाओं में प्रकाशित होगा। २. धर्मपत्नी का संक्षिप्त परिचय (सचित्र)।
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३. बाबू सा० का व्यक्तित्व एवं कृतित्व ।
४. समाज सेवा के कुछ अनुभव ।
५. सामाजिक संस्थानों के प्रमुख कार्यकर्ता के रूप में उनका जीवन ।
६. समाज की संस्थाओं के विकास में योगदान
२ - साहित्य एवं पुरातत्त्व सेवा :
श्री छोटेलाल जैन प्रभिनन्दन ग्रन्थ
७. बाबू सा० द्वारा संस्थापित एवं संरक्षित संस्थान ८. वीर सेवामन्दिर के विकास में उनका योगदान । ६. भारत भ्रमण ।
१. बाबू सा० की कृतियों का मूल्यांकन |
२. हृदय से सच्चे साहित्य सेवी । ३. प्रकाशित एवं अप्रकाशित साहित्य | ४. पुरातत्त्व की खोज में ।
३- संस्मरण :
४ - शुभकामनाएँ :
पर्व ।
खण्ड ख -
१. जैन समाज एक परिचय ।
२. भारतीय समाज और जैनसमाज ।
३. भारतीय समाज गत ५० वर्षों में । ४. जैन समाज का स्वातन्त्र्य संग्राम में योगदान |
५. उत्तरी भारत की प्रमुख जैन शिक्षण संस्थाएं ।
६. जैनों के विविध सामाजिक भान्दोलन । ७. बंगला में जैन धर्म एवं उसका विकास । ८. कलकत्ता जैनसमाज |
६. कलकत्ता नगर की जैन संस्थाएँ ।
१०. कलकत्ते का कार्तिक महोत्सव एक सांस्कृतिक
११. नगर के दर्शनीय मन्दिर ।
१२. राजस्थान प्रवासियों का बंगाल प्रदेश के विकास में योगदान ।
१३. महात्मा गांधी और जैन धर्म ।
१४. अग्रवाल जैनों द्वारा साहित्य सेवा में योग । ११. २०वीं शताब्दी के कुछ प्रमुख जैन सन्त, प्राचार्य सूर्वसागर जी वर्णी जी, ब्रह्मचारी शीतलप्रसाद शादि ।
१६. वर्तमान के प्रतिनिधि जैन विद्वान प्रेमी जी, उपाध्याय जी, सी० मार जैन, हीरालालजी, जिनविजय
जी, सुखलालजी, कैलाली धादि
१७. देश के प्रौद्योगीकरण में जैन उद्योगपतियों का
स्थान ।
१८. भारत के प्रमुख जैन उद्योग पति । १९. भारत की प्रमुख जैन बस्तियों ।
२०. भारत के प्रमुख जैन तीर्थ एवं उनका परिचय । २१. शिल्प एवं वस्तुकला में जैनों का योगदान ।
खण्ड ग
'साहित्य और वर्शन' -साहित्य
१- प्राकृत साहित्य :
१. प्राकृत साहित्य के विकास में जैन माचायों का योगदान |
७
२. प्राकृत भाषा में विविध जैनागम ।
३. प्राकृत के प्रमुख महाकाकाव्य ।
४. जैनेतर विद्वानों द्वारा प्राकृत भाषा की सेवा ।
५. म्रा० कुन्दकुन्द एवं उनकी प्राकृत रचनाएँ ।
६. आचार्य नेमिचन्द्र व्यक्तित्व एवं कृतित्व । ७. प्राकृत का धर्मकालीन साहित्य | संस्कृत साहित्य
१. संस्कृत भाषा के जैन महाकाव्य । २. संस्कृत भाषा के जैन पुराण साहित्य । ३. संस्कृत भाषा के जैन काव्य साहित्य | ४. संस्कृत भाषा के जैन ग्रमर कवि । ५. जैन स्तोत्र साहित्य ।
६. आचार्य सोमदेव का व्यक्तित्व एवं कृतित्व ।
७. संस्कृत साहित्य के विकास में जैनों का योगदान ।
३- प्रपभ्रंश साहित्य :
१. अपभ्रंश के प्रमुख प्रवक्ता ।
२. हिन्दी के विकास में अपभ्रंश का योगदान
३. राजस्थान में अपभ्रंश ग्रंथों की खोज ।
४. अपभ्रंश के सूर्य और चन्द्रमा स्वयम्भू धीर पुष्पदन्त ।
५. अपभ्रंश साहित्य में खोज की आवश्यकता । ६. अपभ्रंश का प्रकाशित साहित्य | ७. अपभ्रंश के प्रमुख महाकाव्य ।
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४-हिन्दी साहित्य:
२. मराठा भाषा का जैन साहित्य । १. हिन्दी के मादिकाल के जैन प्रबन्ध काव्य ।
३. दक्षिण भारतीय भाषामों का जैन साहित्य । २. हिन्दी जैन साहित्य के प्रमुख कवि।
६-र्शन: ३. हिन्दी के प्रचार एवं प्रसार में जैन विद्वानों का१.जनदर्शन के सर्वव्यापी सिद्धांत । योगदान।
२.जैनदर्शन के प्रमुख प्रवक्ता समन्तभद्र प्रकलङ्क, ४. राजस्थान के जैन ग्रन्थ संग्रहालयों में उपलब्ध विद्यानन्दि, हरिभद्र सूरि प्रादि । हिन्दी साहित्य ।
३. जैनदर्शन में अध्यात्मवाद । ५. हिन्दी की प्रज्ञात जैन रचनाएँ।
४. जनदर्शन का भारतीय दर्शनों में स्थान । ६. हिन्दी साहित्य की सुरक्षा में जैनों का योगदान ।
५. जैन दर्शन में ईश्वर की परिकल्पना। ७. हिन्दी के वर्तमान जैन लेखक ।
लेखादि भेजने का पता८. जनों का हिन्दी गद्य साहित्य ।
डा. कस्तूरचन्द कासलीवाल ५-अन्य साहित्य:
महावीर भवन, सवाई मानसिंह हाईवे, १. जैन गुजराती साहित्य ।
जयपुर
श्रीपुर पार्श्वनाथ मंदिर के मूर्ति यंत्र लेख संग्रह
पं० नेमचन्द पन्नूसा जैन, देउलगांव
[गत किरण से आगे] (१) पवली मंदिर जो प्रथम दर्शनी घन्टा है-दिगंबरी (क) पीतल पार्श्वनाथ ऊंची २"-विमलचन्द्र जैनमंदिर पवली संस्थान शिरपुर ।
उपदेशात् । (२) उत्तर दिशा का घन्टा-'श्री अन्तरिक्ष पारिसनाथ (ख) पीतल पद्मावती ऊँची ५"-श्री. मू० सं० मीति कातिक सुध पोरणीमा १४ सं० १९३६
भट्टारक इशाल (विशाल) कीर्ति श्रीपुर (३) सभामण्डप में का बड़ा घण्टा होनासा रामासा
(२) भगवंग सइतपाल । दिगंबर जैन धाकड यांनी प्रदान केला। प्रों श्री (२) श्री. सुन्दरसा देवमणसा के गृह मेंदिगंबर जैन मन्दिर पवली शिरपुर ॥
(क) पीतल पाश्वनाथ ऊंची १॥"-१२२५ श्री (४) गर्भगृह में वेदी के सामने पायथली फरसी के एक
मूलसंधे) सेनगन १२२५ पत्थर पर-श्री. मिश्रीलाल दि. जैन झावरा
(ख) पी. पार्श्वनाथ ऊंची ४"-श्री मूलमंघ सं० पाटनवाला मु. निगबी (नांदेड) तरफ से रु० १५ ।
११२४ (११३४) शिरपुर के गहचैत्याल्य के कुछ निवडक मूर्ति (३) अण्णा रावजी बोरालकर के गृहमेलेख:
(क) पीतल पाश्र्वनाथ ऊंची ३"-१७१७ फाल्गुन (१) श्री. प्रात्माराम राघोजी बेलेकर के गृह में
सु० ३ श्रीपुर।
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श्रीपुर पार्श्वनाथ मन्दिर के मूति यंत्र लेख संग्रह
(४) मादिनाथ मल्हारजी बिटुडे के गृहमें
२९१४ में मुम्बई से पानाचंद हिराचंद झवेरी ने प्रसिद्ध (१) लक्ष्मी यंत्र-श्री मु०सं० भ० अ० श्री की है। उसमें 'अन्तरिक्ष पार्श्वनाथ' इस पतिशय क्षेत्र का विशालकीति तु पदे श्रीपुरे भगवंत का० सइ० उल्लेख अनुक्रम से पान ३२ से ३७ और २४४ से २५० मन्नतव्रत द्या।
के ऊपर पाया है। दोनों में मजकूर एक ही है । उसमें (५) मनोहर माधव संघई के गृहमें
लिखा है की "शिरपुर ग्राम में दिगंबर जैनियों के ४२ -१-मूर्ति हरा काला पाषाण ऊंची ४"
गृह तथा १८८ भादमी है। और दो दिगंबर मंदिर जी
शिखरबन्द है। उसीमें एक पुराणा मन्दिर है जिसके भोयरे संम (वत)-७४७ रविवार कार्तिक......... श्रीपुर'......"
में कुल २६ प्रतिमा है और ऊपर के मन्दिर में भी (कुछ),
जो कुल ५१ प्रतिमा मौजूद है। वे सब दिगंबरी है जिनका (६) देवभणसा रामासाके गृहमें
संवत प्रादि मागे के कोष्टक में दिया हुमा है। (मागे (क) पीतल नंदीश्वर ऊँची २"-श्री विमल।
कोष्टक है जिसमें मूर्ति, पादुका, यंत्र, देवी के लेख-काल (७) तुकाराम नारायण मनाटकर के गृहमें
का संक्षिप्त विवरण है।) (क) आदिनाथ, हरा पाषाण ऊंची ७"-शके
इनके सिवाय ४ नशियां है, जो सब दिगंबरी १५९६ श्रीमूल-स...... श्रीपुर (रे)
आम्नाय की हैं । इस प्रकार जो मूर्ति, पादुका, यंत्र, (उ) पदेशात् ।
पद्मावती है वे सब प्रकाशित किये हैं।" श्री गंगाराम गोकुलसा महाजन रा० कारंजा
इस कोष्टक में एक ही सफेद पाषाण के पद्मावती के गृहमें
देवी का उल्लेख है। उसके प्रतिष्ठा का संवत् १९३० पीतल की पदमावती देवी ऊंची ७॥"
स्पष्ट लिखा है तथा एक सफेद पाषाण के पाश्वनाथ का (पीछे से) सके १५६१ फाल्गुण वदी स (ष)ठी संवत १९३० भी बताया है। (ष्ठी) श्रीमूलसंघे सेनगणे भट्टारक सोमसेनः तुक इस कोष्टक से यह स्पष्ट प्रमाणित होता है कि, गणासा वगोसा व वोपासा । उपदेशात् नित्यं प्राज जो ऊपर के मंदिर में पीतल की पद्मावती देवी है प्रणमति ।। कारंजा नगरे :
वह ई० सं० १९०७ में (क्योंकि यह कोष्टक १९०७ में सामने के बाजु में बैठक पर-प्रतिष्ठा श्रीपुर नगरे लिखा गया है।) वहां नहीं था। बाद में किसी गृह विधान ।
चैत्यालय से वहां रखी गयी होगी। इस पीतल की देउलगांव राजा के श्रीचन्द्रनाथ दिगम्बर जैन- पद्मावती मूर्ति का ही हर कार्तिक पूनम को यात्रा और जुलूस मन्दिर में
निकलता है। जो कि बड़े मन्दिर से निकल कर पवली पीतल पावनाय ऊंची१'-सामने के बाज-श्रीपूरे। मन्दिर में जाता है। वहां के पार्श्वप्रभु का अभिषेक पूजन
थीमूलसंघे त्रिभूवनक स्वामीभ्यो : श्री पार्श्वनायेभ्यो भजन कर वापिस लौटता है। नवरात्र में दोनों देवियां नित्य नम : । प्रतिष्ठा ।
ऊपर चौक के काठ पर एक जगह विराजमान होती हैं । पीछे से-सं(ब)त १५७८ बैशाख सुदी द्वादशी गुरौ अनेकांत के गतांक में पृष्ठ २७ पर लेख नं० २ तांबे मूल० सर० बलात्कारगणे थी कुन्दकुन्दाचार्यान्वये भ० का यंत्र-इसका लेख मैंने इस तरह दिया था-"विवाह विद्यानंदी पट्टे भट्टारक श्री मल्लीभूषण पट्ट भ. श्री नाम संवत्सरे पोप वदी पंचमी शुक्रवारे प्रतिष्ठा सीरपुर लक्ष्मीचन्द्र गुरुभ्रात सु(सूरि श्रीश्रुतसागर पाठिताचार्य श्री अन्तरीक्ष पार्श्वनाथ चैत्यालये दीक्षाग्रहण प्रतीसन पर(?) सिंहनन्दी गुरुपदेशात् ब्रह्म महेन्द्रदत्त नेमीदत्तो श्री संघः लेकिन यात्रा दर्पण तथा डिरेक्टरी में उसका वाचन इस प्रणमन्ति ।
तरह से किया है और यह कोष्टक का उतारा ही बराबर हाल ही में पता चला की, श्री भारतवर्षीय दिगंबर जैन समझना वह इस प्रकार है-तांबे का यंत्र-'अन्तरिक्ष 'यात्रा दर्पण११० सं० १९१३ मौर डिरेक्टरी इ० सं० पार्श्वनाथ चैत्यालय (ये) दीक्षा ग्रहण प्रतिष्ठा सं. १२२५
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भनेकान्त
विवाह नाम संवत्सरे (पोप वदी पंचमी) शुक्रवासरे पादुका लेख मुझे शिरपुर व इतरत्र मिले वह मैंने प्रसिद्ध प्रतिष्ठा सिरपुर ।)
किये है प्राशा है इन मूर्ति लेखों से कुछ इतिहास पर या प्रमाणे शिरपुर सम्बन्धित जो मूर्ति, देवी, यंत्र व विशेप प्रकाश पड़ेगा।
गत किरण में जो मूर्ति लेख प्रकाशित हुए थे, उनमें निम्न सुधार वांछनीय हैपृष्ठ २५ के पहले कालम की ४थी पंक्ति में मुकर्जी की जगह गुरुजी। दूसरे कालम की पंक्ति १३ में १३'
ऊंची के स्थान पर १॥' ऊंची। पृ० २६ के पहले कालम में भ० श्री १०७ के स्थान पर श्री १०८, तथा भ० श्री १०७ के स्थान पर १०८
जिनसेन (कुबड़े स्वामी) पढ़ें। पृ० २८ पर दूसरे कालम की पंक्ति १३ में सन् १८६७ के स्थान पर १२६७ फसली चाहिए। मराठी में लिखे अंकों के कारण छपने में अशुद्धि हुई है।
ब्रह्म नेमिदत्त और उनकी रचनाएँ
परमानन्द जैन शास्त्री ब्रह्म नेमिदत्त मूल सघ सरस्वती गच्छ बलात्कार गण मिलता है, जो नेमिदत्त के सहपाठी हो सकते है। के विद्वान् भ० मल्लिभूपण के शिष्य थे। इनके दीक्षा ब्रह्म नेमिदत्त मस्कृत हिन्दी और गुजराती भाषा के गुरु भट्टारक विद्यानन्द थे, जो भट्टारक देवेन्द्रकीर्ति के विद्वान थे । आपकी संस्कृत भाषा मे १० रचनाएँ शिष्य थे। इन्हीं विद्यानन्द के पट्ट पर प्रतिष्ठित होने वाले उपलब्ध है, वे सब चरित पुराण और कथा मल्लिभूषण गुरू थे, जो सम्यग्दर्शन जान चरित्र रूप रत्न- सम्बन्धी है। पूजा सम्बन्धि साहित्य भी आपका चा त्रय से मुशोभित थे । और विद्यानन्द रूप पट्ट के प्रफुल्लित हा होगा, पर वह मेरी जानकारी में नहीं है। प्रापकी करने वाले भास्कर थे१ । ब्रह्म नेमिदत्त के साथ मूर्ति ये सब रचनाएँ सं० १५७५ मे १५८५ तक रची गई लेख में ब्रह्म महेन्द्रदत्त नाम का और उल्लेख जान पड़ती है। इससे आप १६वी शताब्दी के प्रतिभा
सम्पन्न विद्वान थे। आपकी रचनाओं की भापा अन्यन्त १. श्रीमज्जैनपदाब्ज सारमधुकृच्छीमूलसंधाग्रणीः । सरल और सुगम है । रचनात्रों के नाम इस प्रकार हैं.-- सम्यग्दर्शनसाधुबोधविलसच्चारित्रचूडामणिः ।
१. पाराधना कथा कोष सं० १५७५, २. नेमिनाथ विद्यानन्दि गुरु प्रपट्ट कमलोल्लासप्रदो भास्करः।
पुराण सं० १५८५। ३. धर्मोपदेश पीयूषवर्ष श्रावकाचार। श्रीभट्टारकमल्लिभूषणगुरुर्भूयात्सतां शर्मणे ॥ ४. रात्रि भोजन त्याग कथा, ५. सुदर्शन चरित, ६. श्री.
-आराधना कथाकोष-प्रशस्ति पाल चरित, ८. प्रीतिकर महामुनि चरित, ८. धन्यकुमार
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ब्रह्म नेमिवत्त और उनकी रचनाएँ
चरित, ९. नेमिनिर्वाण काव्य (ईडर) और १०. नाग- माल लेकर अपनी कीति को उज्ज्वल बनायो। श्री कथा (जयपुर)।
रचना इस प्रकार है :इनके अतिरिक्त दो रचनाएँ हिन्दी भाषा की और प्राप्त सकल जिणेसर पय-कमल, पणविवि जगि जयकार । हुई हैं । मालारोहिणी (फुल्लमाल) और प्रादित्य व्रतरास फुल्लमाल जिणवरतणी, पभणउं भवियण ताइ॥१ इन दोनों रचनाओं का संक्षिप्त परिचय देना ही इस लेख वृषभ अजित संभव अभिनंदन, का प्रमुख विषय है । इनमें मालारोहिणी एक सुन्दर सरस
सुमति जिणेसर पाप निकंदन । रचना है, जो महत्त्वपूर्ण जान पड़ती है, कविता सरल और पद्म प्रभु जिन नामें गज्जउं, श्री सुपास चंदप्पह पुज्ज।२ प्रभावक है । यद्यपि कहीं-कहीं कुछ अंश त्रुटित मिला है, पुप्फयंतु सीयलु पुज्जिज्जइ, फिर भी वह भावपूर्ण और सुगम है। इसी से अनेकान्त
जिणु सेयंसु महिं भाविज्जइ । के पाठकों के अवलोकनार्थ यहां दी जा रही है। वासु पुज्ज जिण पुज्ज करेप्पिणु, बुन्देलखण्ड वर्तमान (मध्य प्रदेश) में जहा कहीं भी
विमल प्रणंत धम्मझाएप्पिणु ।३ जिनेन्द्रोत्सव, कलशाभिषेक, बृहत्पूजा पाठ और प्रतिष्ठादि सांति कुंथ पर मल्लि जिणेसर, कार्य सम्पन्न होते हैं उस समय कविवर विनोदीलाल की मुणिसुव्वउं पुज्जउं परमेसर । फूलमाल पच्चीसी अवश्य पढ़ी जाती है और उसकी बोली
नमि नेमीसर पय पूजेसउं, भी बोली जाती है और जो अधिक से अधिक बोली लगा भव-सायर हडं पाणिय देसउं ॥४ कर लेता है माल उसे ही प्राप्त होती है। कवि विनोदी- पासणाह भव-पास-निवारण, लाल ने उसमें ८४ उपजातियों का समुल्लेख किया है। वडढमाण जिण तिहुवण तारण । यह माल १८वीं शताब्दी की है। जब कि प्रस्तुत माला
ए चउवीस जिणेसर बंदि वि, रोहिणी १६वीं शताब्दी की रचना है। इससे ज्ञात होता
शिव गामिण सारद अभिनंदिवि ॥५ है कि गुजरात प्रादि देशों में उस समय भी यह प्रथा मूलसंघ महिमा रयणायर, प्रचलित थी, इससे भी पुरातन अन्य प्राचार्यों की रचनाओं गुरु निग्गंथु नमउं सुथ-सायर । का अन्वेषण होना चाहिए।
सिरि जिण फुल्लमाल बक्खाणउं, इस 'माला रोहिणी' के प्रारम्भ में वृषभादि चौबीस
नरभव तणउ सार फल माणसं ॥ तीथंकरों की स्तुति है उसके बाद मूलसंघ के रत्नाकर
भवियण भव-भय-हरण, तारण तरण समत्यु । निर्ग्रन्थ गुरु श्रुतसागर को नमस्कार कर फूलमाल को
जाती कुसुम कांजलिही पुज्जहुँ जिण बोहत्य ॥७ कहने की प्रतिज्ञा की है। और उसे मनुष्य भव का सार
जाती सेवंती वर मालती, चंपय जुत्ती विकसंती।
विमला श्रीमाला गंध विसाला, कुज्जय धवला सोभंती॥ फल बतलाया है। पश्चात् मोगरा, पारिजात, चपा, जुही, चमेली, मालती, मचकुद, कदब तथा रक्तकमल आदि
रत्त प्पल फुल्लहिं कमल नवलहि जूही हुल्लहि जयवंती। सुगंधित पुष्प समूहो से गुफित जिनेन्द्रमाल को स्वर्ग-मोक्ष- मचकुंद कयबहि बमणय कुंदहि नाना फुल्लहि महकती। सुख कारिणी बतलाया है। साथ ही सकल सुरेन्द्रों के
सग्ग-मोक्ख-सुह-कारिणी माल जिणिवह सार । द्वारा पूजित धन-कण सम्पत्ति दायक और दु.खों का अन्त विणउ करेपिणु मग्गियह जिम लगभद्द भव-पार ॥१० करने वाली बतलाया है। साथ में यह भी उदघोपित सुमोग्गर फुल्ल महक्क माल, मधुकर ढक्का गंध रसाल। किया है कि यह सुअवसर बार-बार नहीं मिलता, धन सुपाडल पारिय जाइ विचित्त, सम्पदा चंचल है, धन, यौवन, कंचन, रत्न, परिजन और
जिणेसर पुज्जिय लेय पवित्त ॥११ भवन आदि सभी चीजें जल के बुदबुदे के समान अस्थिर सकल सुराषिप पुज्जियउ पुज्जहु सिरि जिणदेउ । एवं विनाशीक हैं। इनका कभी गर्व न करो और निर्मल धण-कण-जण संपह लहह, दुक्ख तणउ होइ छेउ ॥१२
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૪
सुरासुर किनर लेयर भूरि, जिवि पयचर्चाहं णचहिं णारि । सुरप्रप्छर गावहि सोक्खह घाम, जिfणवह सोहइ मोत्तिय दाम ॥ १३ भी भवियण जिण-पय-कमल, माल महग्धिय लेहु । नियलच्छि फल करि करहु, दुक्ख जलंजल बेहु ॥ १४
तुल बेह जसंजलि जिण,
कुसुमावलि पुज्जहु भवियण सुक्ख कर । जिण भवण पवित्त निम्मल,
fai लिय चविह संघुवर ॥१५
अनेकान्त
एह अवसर गुणह नविलम्भई बहु पुष्य विण । जिनवर पथ कमल लिज्जइ चंचल जाणि घण ॥१६ घणु जोब्वणु कंचणु रयणु परियणु भवणु वि सब्बु । जल बुम्बु करि कण्ण जिय चंचल म करहु गब्बु ॥ १७ मा जाहू गब्बु बेहु बब्बु लेहु माल निम्मली । तुवार हार चंद गोर कित्ति होइ निम्मली ॥ सुरेन्द्र विन्द भूनरेन्द्र खेचरव पुज्जिया । जिवि पाय पोममाल सव्व दोस वज्जिया ॥ १८ नित नित भवियण जिण भवणि करहु महोच्छव साद । मन वांछित संपय लहिवि पुणु पावहु भव-पारु ॥१९ भवसेय पारं महादुववहारं त्रिलोकं कसारं जणाणंवकारं । परं देव वेवं सुरवेण सेवं, निणिवं प्रणिदं जजों धम्मकंबं ॥ २० बलि बलि अवसर णवि मिलइ णवि दीसह थिर काइ । जिण धम्महि मणु दिदु करहु कालु गलंतहु जाइ ॥२१ गलति झत्ति जाइ कालु मोह जाल वट्टए, सुहोहि जाणु भव्य भाणु श्रग्गि जेम कढए । जिणिव चंद पाय पुज्ज धम्मकज्ज किज्जए, सुपत्तदाणु पुण्णठाणु वयणिहाणु लिज्जए ॥२२ लिज्जइ फल नियकुल तणउ लच्छिय चपल, श्री जिन पुज्ज करे वि लहू मणिधरि णिम्मल, मणि भाव घरेष्पिणु पुज्ज करेष्पिणु माल महोच्छव केरउ ।
जिण भवणि करिज्जइ घणु वेविज्जद्द...
"रहि सुरगंधी रहि भेरी भंभा सद्द सुहोकंसालहि तालहि मंगल घवलहि माल जिणिदह लेहु लहु । माल निणिदह तणिय लेहु तिहूवण तारइ । रोग - सोग - बालि दुक्खु णवि णीहुउ प्रावइ । जिणवर पाय पसाह जीव वांछित फल पावइ ।
श्रीमूलसंघ मंगल करण मल्लिभूसण गुरु गुण विमल । सनं प्रभिनंद कर नेमिदत्त पर्ण सकल ॥
1
कवि की दूसरी रचना 'आदित्यव्रतरास' ( रविब्रत कथारास) है। जिसकी पद्य संख्या १०९ है । इस रास की भाषा में अनेक गुजराती भाषा के शब्दों का अंकन हुआ है, नमीएचंगनु, बखाणसु श्रादि । जिनसे स्पष्ट मालूम होता है कि रचना गुजरात प्रदेश में हुई है । इन रचनाओं में रचना काल दिया हुआ नहीं है । फिर भी ये दोनों रचनाएँ अपनी रचना पर से विक्रम की १६वीं शताब्दी की जान पड़ती हैं। और देव पल्ली में लिखी गई हैं। रचना का श्रादि श्रन्त इस प्रकार है :आदि भाग
-
पास जिनेसर पथकमल प्रणमिवि परमानंदन, भव- सायर-सरण- तारण भवोयण सुहतरु कंबनु ॥ १ श्री सारदा सहि गुरु नमीए निर्मल सौख्य निधाननु । प्रादित्यव्रत बखाणसुं ए जिन शासन परधाननु ॥ २
कथा वही है, जो अन्य रविव्रत कथा में पाई जाती है । अन्त भाग
श्री जिनवर चरण कमल नभीएब्रह्म नेमिदत्त भणिचंगनु । ए व्रत जे भवियण करिए ते लहि सौख्य प्रभंगनु ॥ मन वांछित सम्पदा लहिये ते नर नारी सुजाणनु । इम जाणि पास जिण तणु ए रविव्रत कर भुवि जाणतू ॥
आपकी अन्य रचनाएं भी अभी ज्ञान भण्डारों में श्रन्वषरणीय है ।
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दो ताड़-पत्रीय प्रतियों की ऐतिहासिक प्रशस्तियां
श्री भंवरलाल नाहटा
ऐतिहासिक साधनों में शिलालेखों की तरह प्रश- जैन ग्रंथों की वर्तमान में जो भी प्रतियां उपलब्ध स्तियों का भी महत्वपूर्ण स्थान है। क्योंकि दोनों की है उनमें सबसे प्राचीन प्रति जैसलमेर के बड़े ज्ञान भंडार उपयोगिता व महत्व द्वारा शिलालेख पत्थरों पर में विशेषावश्यक भाष्य' की मानी जाती है जिसका खोदे जाते हैं और प्रशस्तियां ताड पत्र या कागज की समय १०वीं शताब्दी का है। संवतोल्लेख वाली प्रतियां प्रतियों पर लिखी जाती हैं पर दोनों ही समकालीन लिखे ।
प्रायः १२वीं शताब्दी से ही अधिक मिलने लगती है। जाने से समान रूप से प्रामाणिक ऐतिहासिक साधन हैं।
दि० ताड़-पत्रीय प्रतियों में षट् खण्डागम की दक्षिण मन्दिरों और प्रतिमा लेखों के संग्रह एवं महत्व की ओर
भारत की ताड़-पत्रीय प्रतियां ही सबसे प्राचीन हैं। कागज जितना ध्यान दिया गया है उतना जैन ग्रन्थों की प्रश
की प्रतियां १३वीं शताब्दी के प्रारम्भ की जैसलमेर स्तियों और संग्रह की पोर नहीं दिया गया। प्रशस्तियां
भण्डार में ही प्राप्त हुई हैं अन्यत्र १४वीं से ही मिलने प्रधानतया दो प्रकार हैं-एक ग्रन्थ रचना संबंधी और
लगती है। दूसरी ग्रन्थ लिखने सम्बन्धी । ग्रंथ रचना प्रशस्ति तो
ताड-पत्रीय प्रतियों के श्वे. भण्डार जैसलमेर, पाटण, एक ग्रंथ की एक ही होती है पर लेखन प्रशस्तियां एक
खम्भात, बड़ौदा, सूरत, आदि स्थानों में है पर प्रधानतया ग्रन्थ की अनेकों मिलती हैं क्योंकि समय-समय पर एक
जैसलमेर, पाटण, खम्भात के भण्डारों की ही समझिये । ही ग्रथ की अनेकों प्रतिलिपियां होती रही हैं और लिखने
इन तीनों भण्डारों की ताड़-पत्रीय प्रतियों का विवरणात्मक की प्रशस्तियां भिन्न-भिन्न होंगी ही।
सूची-पत्र बड़ौदा से छपे है। खम्भात भण्डार की प्रतियों जैन ग्रंथों की रचना-प्रशस्तियां प्राचीन भागमादि
का दूसरा भाग अभी प्रेम में है। जैसलमेर भण्डार की ग्रंथों में तो नहीं मिलती पर चरित और प्रकरणादि ।
नई व्यवस्था मुनि पुण्य विजयजी ने करके व्यवस्थित सूची ग्रंथों में परवर्ती ग्रंथ कारों ने लिखनी प्रारम्भ कर दी।
प्रथ तयार किया है वह कई वर्षों से छपा पड़ा है पर स्वी शताब्दी के पहले की प्रशस्तियां थोड़ी सी है और
अभी प्रकाशित नही हुआ। वे बहुत संक्षिप्त है। पर हवीं शताब्दी से. लम्बी-लम्बी मुनि जिन विजय जी ने ताड़-पत्रीय लेखन प्रशस्तियों और महत्वपूर्ण प्रशस्तियां ग्रंथ के अन्त में लिखी हई का एक संग्रह प्रकाशित किया है । ताड़-पत्रीय और कागज पाई जाती हैं। यह तो ग्रंथकार की रुचि का प्रश्न है कि की ग्रंथ प्रशस्तियों के दूसरे भाग के कुछ पृष्ठ ही छपे है। कोई तो केवल अपना नाम ही दे कर संतोप कर लेता देश विरति धर्माराधक सभा, अहमदाबाद से कई वर्ष हैं (प्राचीन लेखक तो वह भी नहीं देते थे) और कोई पूर्व एक "प्रशस्ति मंग्रह प्रकाशित हुआ था। अपनी गच्छ-वंश-परम्परा, रचनाकाल, रचना स्थान, एक दि० ग्रंथ प्रशस्ति सग्रह पहले आरा से निकला प्रेरक संशोधक, आदि की जानकारी भी विस्तार से दे फिर वीर सेवा मन्दिर से भी दो भाग निकल चुके हैं। देते हैं। वि० अपभ्रंश ग्रंथों की जितनी लम्बी प्रशस्तियां वैसे श्वेताम्बर दिगम्बर अन्य कई सूची पत्रों में भी हैं उतनी दि० प्राकृत, संस्कृत ग्रंथों की कम ही मिलती प्रशस्तियां छपी हैं और कई अभिनन्दन और स्मृति ग्रंथों हैं । पर श्वे० प्राकृत, संस्कृत ग्रंथों की प्रशस्तियां बहुत तथा पत्र-पत्रिकाओं में भी निकली है। पर अभी तक विस्तृत और महत्व की मिलती हैं।
हजारों ग्रंथ-प्रशस्तियां अप्रकाशित हैं जिनके प्रकाशन से
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अनेकान्त
जैन इतिहास के ही नहीं, भारतीय इतिहास के भी गोत्रा धारो जिन गुरु पदाभ्यर्चन प्रहचेतानये तथ्य प्रकाश में प्रायेंगे।
स्तात्तीयाकस्तदनु तनुजः पलणाख्योबभूव ॥२१ कुछ महिने पूर्व भारत जैन महामण्डल, की ओर से पाश्वदेवस्य संजज्ञे पद्मश्री नामिका प्रिया कलकत्ता में जैन कला प्रदर्शिनी हुई थी उसमें दो ताड़- यस्याः पतिव्रतात्वेन स्वकूलं निर्मली कृतं ॥२२ पत्रीय प्रतियों के अन्तिम पत्र भी प्रदर्शित किये गये थे। अयांवड़स्योचितकृत्यदक्षा मंदोदरी नाम बभूव पत्नी उनकी पूरी प्रतियां तो अब कहां है ? पता नहीं, पर सु......द्विवेकोज्वल सार हारा स्वमन्दिरे मूर्तिमतीन प्राप्त पत्रों में जो प्रशस्तियां लिखी मिली हैं उन्हें यहां
लक्ष्मी ।।२१ प्रकाशित की जा रही हैं । पहली प्रशस्ति सवत १४११ हरेरिव भुजा दण्डाश्चत्वारस्तनयास्तयोः (दिल्ली) की है व छोटी-सी है। इस प्रति के अन्तिम प्रजायन्त सदाचार गहभार धुरन्धराः ॥२४ पत्र में 'अंबिका के चित्र विशेष रूप से उल्लेखनीय है। प्रथमो जनिष्ट तेषां पावकूमाराभिधे गुणः प्रथमः दूसरी प्रशस्ति के प्रारम्भिक १७॥ श्लोक वाला पत्र प्राप्त विनय हमाल वाल पित्राज्ञा पालनप्रवण. ॥२५ नहोने से उसके बाद के ही श्लोक दिये जा सके हैं। बभूव प्रय....."प्रथिवि देवीति नाम्ना इस प्रति में भी एक देवी का चित्र है। इन दोनों चित्रों विनीत विनया नित्यनौचित्य प्रियकारिणी ॥२६ के फोटो प्रकाशित किये जाने चाहिये।
तदनु तनयो द्वितीयः समजनि धनसिंह नामको विनयी (१) ज्ञाता सूत्र वृति-अभयदेव सूरि (अंतिम पत्र निर्मलकलाकलापस्त्रणक्रीडाद्रि रभिरामः ॥२७ ताड़ पत्रीय) संवत् १४११ माघ सुदि १५ श्री योगिनीपुर नाम्ना धांधलदेवी सजज्ञे तस्य गेहिनी । वास्तव्य श्रीमालकुल संभव चंड गोत्रीय ठ० थिरदेव पुत्र पुण्यार्जनाजित श्लाघ'"ध्य कर्माभि रंजिका ॥२८ सा० लोला सुश्रावक भगिन्या दानशील तपोभावना निर- ततस्तृतीयो जनि रत्नसिहः सन्ताप कारिन्यसनेसिंहः तया विवेकिन्या सुधाविकया स्वपुण्यार्थ श्री ज्ञाता धर्म दूरं परित्यक्त विरुद्धमंग: श्रीमज्जिनेन्द्रक्रम कथा सिद्धान्त पुस्तके मूल्येन गृहीतं । वाचनाय खरतर
पद्मभृगः ॥२६ गच्छ शृङ्गार श्रीमज्जिनचन्द्रसूरि पादग्ना समर्पित। तस्या जनिष्ट दयिता नाम्ना राजलदेविका
अंबिका चित्र पत्रांक २६५ पेथुका ख्यातयोः पुत्री समस्तानंददादिनी ॥३० २. आदिनाथ चरित्र की ताड़पत्रीय प्रति का अन्तिम अनन्य सौजन्य जना विवेकलीलोज्वलचित्तवत्ति. पत्र:
सर्व त्रिकौचित्य विधि प्रवीणो जज्ञे जगत्मिह (चित्र १-१८ भुजावाली देवी का लाल पृष्ठभूमि
सुतश्चतुर्थ ।।३१ पर पीला चित्र काले वस्त्र)
पत्नी जाल्हण देवीति नाम्ना तस्य समजनि । .................."स्त्रयो मुणे :। कुत्राप्य तुन्मेकवती प्रधान विनयान्विता ॥३२ । प्रानन्द दायिनःपित्रो, रन्यान्यं प्रीति शालिन ॥१८॥ सोलुकाभ्यातत पुत्री बभूव प्रियवादिनी । प्राद्यः सुतः संश्रित धर्म कर्मा, विवेकवेश्माजनिपाश्र्वदेवः यस्या शीलजल. शुद्ध: पुण्यवल्ली प्रवद्धिता ॥३३॥ अभ्यर्थन...... निभीरु. प्रकल्पित श्री जिननाथ सेवः ॥१६ पत्नी नतो जात'''हणस्य अन्योबभूवांबड नाम घेय कस्याप्य संपादितचित्तपीड:
माणिक्यमाला स्फुरदंशुशीला । स्वकीय सन्तान धुरा धुरीणः स्ववेश्म लक्ष्मी
जिनोपदेशश्रुतिकर्णपूरा कृपा प्रपा हृदयक हारः ॥ ०
माणिकि नामधेया ॥३४॥ सौचित्या चरणनिपुण: प्रीतिपूर्वाभिलापी
समजनि ठयोस्तनूजो धरणिग नामा समस्तगुणपात्रां सुस्वाजित्याजित गुरु मुणः सिद्धि वै.. वेश्म
निखिल सुकुलक धुरा धुरन्धरः स्मित मधुरभाषी ॥३५॥
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'जयपुर' की संस्कृत साहित्य को देन-"श्री पुण्डरीक
विट्ठल ब्राह्मण" डा० श्री प्रभाकर शास्त्री एम. ए. पी-एच. डी.
फर्जन्दे दौलत-मिर्जाराजा मानसिंह (प्रथम) का नाम इतिहास में प्रसिद्ध नहीं है और आपकी वास्तविक ख्याति न केवल 'आमेर' या 'जयपुर' के इतिहास में ही प्रसिद्ध श्रीमान सिंह सरीखे 'सूर्य' की ज्योति में 'प्रमावस्या के है, अपितु भारतवर्ष के अथवा संसार के इतिहास में बड़े चन्द्र के समान साथ रहने पर उसी में अन्तः प्रविष्ट हो गौरव के साथ लिया जाता है। आप यवन सम्राट् श्री गई है। यों श्री मानसिंह का दरबार न केवल योद्धाओं जलालुद्दीन खान 'अकबर' के प्रधान सेनापति एवं दक्षिण का ही प्राश्रय स्थान था, वहां सभी विषयों के कलाकार हस्त थे । वास्तव में यदि निष्पक्ष रूप से देखा जाय तो रहा करते थे और इसका पूर्ण श्रेय कला प्रेमी विद्वान् श्री अकबर की विस्तृत ख्याति के मूल पाप ही थे। आपकी माधवसिंह (प्रथम) को है। इनकी रसिकता एवं विद्या वीरता की धाक भारत की सभी दिशाओं में व्याप्त थी। प्रेम ने भारत के प्रसिद्ध एवं प्रकाण्ड विद्वानों को सम्मान
मिर्जाराजा मानसिंह के एक भाई और भी थे, जिनका प्रदान किया था।-इन सम्मानित एवं सुप्रतिष्ठित नाम 'माधवसिंह' था। ये वीरयोद्धा नहीं थे। मानसिंह विद्वानों में से श्री पुण्डरीक विट्ठल ब्राह्मण का नाम चिरके इतस्ततः युद्धों में व्यस्त रहने के कारण ये प्रायः अपनी स्मरणीय है । यहां इनके विषय में कुछ सूचनाएं प्रस्तुत राजधानी 'मामेर' (वर्तमान राजस्थान की राजधानी- करते हैं। 'जयपुर' से ६ मील उत्तर मे स्थित एक लधु नगर) में ही संगीताचार्य श्री पुण्डरीक विट्ठल ब्राह्मण कर्णाटक रहते थे तथा वहाँ की रक्षा के अतिरिक्त अन्यान्य शास- ब्राह्मण थे। आप 'खान देश' प्रान्त में 'सतनुवं' नामक कीय कार्य सम्पन्न किया करते थे। आपका नाम ग्राम के निवासी थे। इनका गोत्र 'जामदग्न्य' था। सर्वबभूव प्रेयगी तस्य धनदेवीति विथुना।
सानन्तमुग्यनिदानी धोपि ज्ञायते श्रुनान् । दाक्षिण्योज्वलशीलेन हृदयानन्ददायिनी ॥३६॥
श्रुत च पुस्तकाधीनं तत्कार्यः पुस्तकोद्यमः ॥४२॥ अजायन्त ततस्तिस्रः गीलालङ्करणा. मुताः ।
पुस्तक लेषयामास स्वसु श्रेयोर्थमाबड. । कर्पग्देवी भौपलदेव्यो वील्हण देव्यपि ॥३७॥
सन्ताप नाम्न्या. स्नहेन पल्हण भ्रातृ संयुतः ॥४३॥ अभूदेव कुमारस्य प्रेयसी छाडकाभिधा।
प्रोद्यनियावदः सौवित्ति नपनः प्राची पृरन्ध्री मुखे पतिव्रता नमाचार चातुर्याजित सद् यशाः ॥३८॥
कान्ति व्यक्तदिश मुवणंतिलक थी ग-विभ्रमे । कुमारपाल सुतोभूत पितुराज्ञोद्यत स्तयो ।
थीनाभेय जिनस्य चार चरितं तावत्कथाश्चर्य कृत् जिनशाम (ना)नुगगी विगगी दोष.....॥३६।।
नंद्यादत्रे विचार्यमाणमनघप्रनः मदा कोविदः ॥४४॥ विवेकरवि रन्येधु स्फुरतिस्मेति निर्मलः । सन्तोसाया मानमाद्री विद्रावयन तमस्थति ॥४०॥
ताड़पत्रीय प्रति का पत्र २६६वां लम्बा इंच धातस्तत्रस्चनुरगमाग तरलाः सम्पन्नयोत्पूजिताः ।
३०+२। चोड़ा] लुभ्यल्लुब्धक विभ्यदर्भक मृगीदृग् चचल यौवनम् ।।
प्रशस्ति महत्वपूर्ण है पर प्रारम्भ मे तथा प्राचार्य बन्धु प्रेम तडिल्लताद्युतिचलं चैतत्तथा जीवितं
संवत् परम्परादि होनी चाहिये । सवत् वाला वह पत्र मत्वेव जिनमर्म कम्मणि मतिः कार्य'शाश्वते ॥४॥ कहीं प्राप्त हो जाय, तब पूरा महत्व प्रगट हो सकेगा।
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अनेकान्त
प्रथम ये दक्षिण भारत में विद्यमान - " पारू किवंश" जिसे इतिहास 'फरत वंश' (Pharata Dynesty ) बतलाता है, के बादशाह (राजा) 'महमदखान' के वंशज 'बुरहानखान' के राज्याश्रय में रहे थे । 'दी हिस्ट्री आफ क्लासिकल संस्कृत लिटरेचर' (The History of Classical Sanskrit Literature) के लेखक श्री एम. कृष्णामाचारीयर 'संगीत शास्त्र का इतिहास प्रस्तुत करते हुए (१०२८ क्रमांक, पृष्ठ ८६५ ) पुण्डरीक विट्ठल के विषय में संक्षिप्त उल्लेख करते हैं। इसके 'फुटनोट में लिखते हैं कि - 'फरत वंश' की सत्ता खानदेश के 'प्रानन्दल्ली' नामक ग्राम में १३७०-१६०० ई० के मध्य मानी जाती है । (This dynasty ruled at Anandwalli in Khan - desh in 1370 – 1600 AD.)
स्व० पं० श्री नन्दकिशोर शर्मा नामावल, जयपुर निवासी ने 'नृसिंह प्रसाद' नामक धर्मशास्त्रीय रचना के प्रायश्चित्तसार' भाग के प्रकाशन के साथ लिखे विद्वत्तापूर्ण लेख में उपर्युक्त ब्रहमदशाह के वंश का कुछ उल्लेख प्रस्तुत किया है। उन्होंने बतलाया है कि निजामशाही राज वंश का प्रतिष्ठापक, बहमनी नामक यवन राज्यवंश के मन्त्री बेहरी निजाम उल्मुक का ज्येष्ठ पुत्र और विजय नगर स्थित 'बहमनी' राज वंश में उत्पन्न ग्रहमदशाह निजामशाह हुआ था । 'निजामशाह' इनका गोत्र माना गया है और इसीलिए इस शब्द का प्रयोग सभी राजाओंों के साथ होता रहा है । इस निजामशाही राज परम्परा मे१. निजाम उल्मुक ( बहमनी राजवंश मन्त्री ) । २. ग्रहमदशाह या निजामशाह (निजामशाही राज्य का प्रतिष्ठापक १४९० - १५०८ ई०) ३. बुरहान निजाम (१1०८१५५३) ४. हुशेन निजाम ( १५५३ - १५६५ ) ५. सलावत खां (१५६५ - १५८९ ) ६. बुरहान निजाम द्वितीय ( १५८ - १५६४ ) इन ६ राजाओं के नाम प्रसिद्ध है । इनमें अन्तिम राजा मुगल वंश के अधीन हो गया था । उस समय हिन्दुस्तान का बादशाह 'अकबर' था। जैसा कि हम अभी बता चुके हैं, मिर्जाराजा मानसिंह प्रथम अकबर के प्रधान सेनापति थे और उन्हीं के समय हमारे चरितनायक श्री पुण्डरीक विट्ठल ब्राह्मण निजाम वंशीय अन्तिम स्वाधीन राजा बुरहान खान द्वितीय के सभासद
एवं सम्मानित संगीतज्ञ थे । इस विषय में एक प्रमाण प्रस्तुत करते हैं । श्री पुण्डरीक विट्ठल अपनी 'राग चन्द्रोदय' नामक रचना के प्रारम्भ में श्राश्रयदाता का वर्णन करते हैं
"वंशः पारूकिभूपतेः सुसरलो भूभारधारक्षमः, श्रीमद् सद्गुण-दानिशूर - विमल क्ष्मापालशाखाभिभूत् । विख्यातो भुवि यत्र काव्यरसिकाः सत्कीर्तिवल्ली श्रिता, चित्र संचरतीति विश्वमखिलं के वर्ण्ययन्तीह तत् । "
तदनन्तर 'अहमदखान' शासक का वर्णन करते हुए अपने आश्रयदाता का वर्णन कर रहे हैं"श्रीमद् दक्षिणदिङ्मुखस्य तिलके श्री खानदेशे शुभे, नित्यं भोगवतीव भोगिवसती रम्या सुपर्वादिभिः । प्रस्ति स्वस्तिकरी नरेन्द्र नगरी त्वानन्दवल्लीति या, तत्र श्री बुरहानखान नृपतिर्वासं करोति ध्रुवम् ॥ तत्र श्री करणप्रयोग चतुरः सल्लक्ष्मलक्ष्यान्विर्तः, देशीमार्गविवेकगायकवरैः साहित्य संकोविदैः । नानावाद्यविधाननर्तनविधिप्राज्ञैः रसज्ञैः समं, रंगे श्री बुरहानखान नृपतिः संगीतमाकर्णयत् ||" इत्यादि
यह 'रागचन्द्रोदय' नामक रचना अनूप संस्कृत पुस्तकालय, लालगढ़ पैलेस, बीकानेर में संगीत विषयक पुस्तकों मे ३४२४ क्रमांक पर उपलब्ध है यह २८ पत्रात्मक रचना है। प्रारम्भिक पद्यों में अपने श्राश्रयदाता का उल्लेख करने के पश्चात् ग्रन्थ समाप्ति पर वे स्वयं का परिचय प्रस्तुत करते हैं
"कर्णादेशोवतांगाभिधनगनिकटे सा तनूव वियो यो, ग्रामस्तत्राप्रजन्मप्रवरनिकरराट् जामदग्न्योऽस्तिवंश: । तत्र श्री विलाय भवदमितयशा सद्गुणाख्यायुतस्य, वत्सूनो 'रामचन्द्रोदय' इति मतिमत्वरवारणां मुदेसु ॥"
' इति श्री कर्णाटजातीय पुण्डरीक विट्ठल विरचिते राग चन्द्रोदये आलप्तिप्रसादस्तृतीयः । - इससे स्पष्टतः कहा जा सकता है कि इनके पिता का नाम 'विट्ठल' था और इनका नाम 'पुण्डरीक' । ये कुछ समय तक बुरहान खान के अधीन रह कर, उसके राज्य के अकबर के अधीन होने पर कुछ समय के लिए बादशाह अकबर की सभा में चले गये थे । वहां इन्होंने "रागनारायण" नामक ग्रन्थ की रचना की थी। श्री एम. कृष्णामाचारियर लिखते हैं
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'जयपुर' की संस्कृत साहित्य को देन-"श्री पुण्डरीक विठ्ठल बाह्मण"
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"After Khandesh was annexed by Akabar लाया कि यहां सभी विषयों के विद्वान् विद्यमान हैं परन्तु about 1699 A.D., He went to his Court at मगीत शास्त्री नही है। इस पर पुण्डरीक (?) ने 'रागDelhi & there wrote 'Raguararan at the
मजरी' का निर्माण किया। देखिएinstance of cbiet Madhavas:n ha." (Pared65
"सभा--ब्रह्माविष्णुमहेश्वरः परिचिता संपूर्णविद्या सभा, Historv). यहां से ये 'अामेर' ही गये थे। मिर्जागजा मानसिह
श्रीमन्माधवसिहराजरुचिरा शृगारहारा सभा ॥ ने इनकी संगीतकला में प्रवीणता देखकर बादशाह से इन्हे
अगणितगणकविचिकित्सक-वेदान्त-न्याय-शब्दशास्त्रज्ञाः । अपने दरबार के लिए माग लिया था और इस प्रकार ये
दृश्यन्ते बह्व. संगीती नात्र दृश्यतेप्येकः ॥ माधवसिंह के प्राधीन भी रहे। यहाँ इन्होंने 'रागमाला' इत्युक्ने माधवसिंह विट्ठलेन (?) द्विजन्मना । नामक पुस्तक की रचन" की, जिमकी प्रति तंजोर पुस्त
नत्वा गणेश्वरं देव रच्यते रागमजगै॥" कालय १६-७२४२, ७२४५ तथा अनूप संस्कृत पुस्तकालय
यहाँ एक मन्देह उपस्थित होता है-'गगमजरी' का बीकानेर में क्रमाक ५७५ (मगीत) पर उपलब्ध है। यह
लेखक पुण्डरीक है या विट्ठल ? क्योंकि 'पुण्डरीक' का ही
माधवसिंह की सभा में होना माना गया है। परन्तु उपबम्बई से प्रकाशित हो चुकी है। इसके अतिरिक्त 'राग
युक्त पद्यो में लेखक का नाम 'विट्रल' मिलता है। इसकी मजरी' नामक रचना की पाण्डुलिपि देखने से यह विषय
पुष्टि ग्रन्थान्त की पुष्पिका द्वारा भी होती है। सष्ट हो जाता है। यह भी माधवासह (प्रथम) के आश्रय
दूसरा पद्य हैमें लिखी गई रचना है। इसके प्रारम्भ मे लेखक अपने
"दमकजननी निजसुत 'विट्ठल कृत रागमञ्जरी केयम् । आश्रयदाता का उल्लेख करता है
सन्दरनिविचित्र-वागदेवी श्रवणमडना भवतु ॥२॥ "श्रीमत्कच्छपवंशदीपकमहाराजाधिराजेश्वरः,
संगीतार्णवमन्दिग्प्रतिदिनं साहित्यपद्माकरतेजः पुञ्जमहाप्रतापनिकरो भानु. क्षितौ राजते ।
प्रोदभूनप्रबलप्रबोधजनको भासां निधिः साम्प्रतम् । तस्यासीद् भगवानदासतनयो वीराधिवीरेश्वर.,
विद्यावादविनोदिनामतितराम् अग्रेमर: केसरी, क्षोणीमडलमडनो विजयते भूमंडलाखण्टल ॥"
सोयं माधव मह राजतिलको जीयाच्चिर भूतले ॥३॥" इसके पश्चात् कुछ पद्यों में इस वश का वर्णन कर अपने प्राथयदाता का उल्लेख करते है--
इसमे स्पष्ट हो जाना चाहिए कि यह रचना पुत्र "तस्य द्वौ तनयो सुशीलविनयो शूरो महाधामिको, 'पृण्डरीक' की नहीं है अपितु पिता 'विट्ठल' की है, परन्तु जातौ पक्तिरथात्मजौ त्वकबरक्षोणीपतेः द्वौ भुजौ।
ममाप्ति पर उल्लिग्विन पक्ति पुनः मदेहान्वित करती सिहो माधवमानपूर्वपदको सग्रामदक्षानुभो, तेगत्यागसह सहस्रकलितो श्रीसर्वभूमिश्वरौ।।"
___ "इति श्री कर्णाटकजातीय पुण्डरीक विठ्ठल कृत 'राग"अकबरनुपधर्मा राज्यतश्चातिधर्मा,
मञ्जरी' समाप्लेति शुभ भवतु ।" धरणिगगनमध्ये जगमो मध्य मेकः ।
विचार विनिमय के उपरन्त यही कहा जा मकना हे सकलनृपतिताराश्चन्द्रसूर्याविभी द्वौ,
कि यह रचना "विठ्ठल' की है। यह मभव है कि पुत्र के जगति जयनशीलौ माधवामानामहो ॥३॥ साथ पिता भी राज्य मम्मानित हो। ग्रन्थान्त की पवित तत्र माधमसिहोऽयं राजा परम वैष्णवः ।
को लिपिकार को भ्रान्ति भी मान मकते है परन्तु अथ मे सर्वदा विष्णुभक्त्यर्थ नाद्यारम्भं करोति हि ॥४॥" उल्लिखित दोनों स्थानो के उपर्युक्त संकेतों को अशुद्ध
इस प्रकार वश परिचय प्रस्तुत करते हा पुण्डरीक नहीं मान सकते। इस विषय मे अन्यान्य प्रमाण भी कवि ने 'रागमञ्जरी' का उपक्रम वर्णित किया है। उमने शोध्य है। लिखा है कि एक दिन महाराज माधवसिंह सभा मे बैठे श्री पुण्डरीक विट्ठल की अन्यान्य मंगीतशास्त्री रचथे। राजा ने अपनी सभा की प्रशंसा की। सभा ने बत- नाएं भी उपलब्ध होती हैं, परन्तु उसके प्रादि या अन्त में
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शोध-कण
परमानन्द जैन शास्त्री
पं० श्री मिलापचन्द जी कटारिया केकड़ी का 'कुछ दृढ़ नहीं' ऐमा लिखकर अपने अभिमत को पुष्ट 'क्षपणासार के कर्ता माधवचन्द्र' नाम का एक लेख अनेकान्त करने का प्रयत्न किया गया है। के १८वें वर्ष की इसी किरण दो में अन्यत्र छपा है। आपका उक्त लेख कुछ गलत कल्पनाओं पर आधाजिसमें क्षपणासार गद्य के कर्ता माधवचन्द्र विद्यदेव और रित है, मालूम होता है पडित जी को एक नाम के दो त्रिलोकसार टीका के कर्ता नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती भिन्न व्यक्तियो के कारण यह भ्रम हुमा जान पड़ता है। के शिष्य माधवचन्द्र विद्यदेव दोनों को अभिन्न [एक] अन्यथा दोनों की एकता के उन्हे कुछ ठोस ऐतिहासिक प्रमाण ठहराने का प्रयत्न किया गया है। साथ ही क्षपणासार उपस्थित करने चाहिये थे। पर ऐसा कुछ भी नहीं किया गद्य की प्राद्य प्रशस्ति में उल्लिखित भोजराज को, जो गया । केवल शक का विक्रम अर्थ देखकर दुदुभि शकशिलाहार कुल के है प्रसिद्ध परमारवशी भोजदेव के साथ संवत्सर ११२५ को विक्रम मानने का अनुरोध किया अभिन्नता व्यक्त करने का उपक्रम किया है। और गया है। नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती के समय को भी आगे लाने 'भोज' नाम के दोनों व्यक्ति भिन्न-भिन्न हैं। एक का प्रयत्न किया है। इतना ही नहीं किन्तु त्रिलोकसार भोज मालवा के परमार वंशी राजा हैं जिनकी उपाधि की ८५० नम्बर की गाथा की टीका मे लिखित 'शक' सरस्वती कठाभरण थी, जो धारानगरी के प्रसिद्ध विद्वान शब्द का अर्थ [विक्रमांक शकराज] विक्रम देखकर शक और कवि थे। इनका समय विक्रम की ११वी शताब्दी दुभि संवत्सर ११२५ को विक्रम संवत् मानने और उसे का उत्तरार्ध है । इन भोजदेव के साथ क्षपणासार गद्य के पुष्ट करने का प्रयत्न किया गया है। इसी प्रसंग में कर्ता का और गोम्मटसार के कर्ता नेमिचन्द्र सिद्धान्त द्रव्यसंग्रह और गोम्मटमार को भिन्नता सूचक प्रमाणों को चक्रवर्ती का कोई सामंजस्य ठीक नहीं बैठता । क्षपणामार
किसी भी प्रकार की पुष्पिका उपलब्ध नहीं होती है।
'संगीतवृत्तरत्नाकर' के लेखक विट्ठल एवं पुण्डरीक एक ही
म अतः उनका ममय एवं आश्रयदाता का उल्लेख प्रामाणिक व्यक्ति है। इसके विवेचन मे उन्हें संदेह है-और वे रूप में सम्भव नहीं। वे रचनाएं निम्नलिखित हैं
इसका पूर्ण निर्णय नहीं कर सके है। १. 'नर्तन-निर्णय'--अनूप संस्कृत पुस्तकालय, बीका
इममे पूर्ण शका का समाधान हो जाता है। विट्टल' नेर, क्रमांक ३४०७ पत्र-४३ (पूर्ण)।
भी सगीत शास्त्री थे और गेमा लगता है कि इनका पूरा २. 'दूती प्रकाश'-( कामशास्त्र) अनूप सस्कृत
वंश ही इस कला में निष्णात रहा होगा। वंशानुक्रम में पुस्तकालय, बीकानेर, क्रमांक ३८०१ (पूर्ण)। श्री एम. कृष्णमाचारियर ने इनकी रचनाओं का
यह विद्या 'पुण्डरीक' को भी प्राप्त हुई होगी। अतः 'गग
मञ्जरी' का लेखक भी 'विट्ठल' को ही मान लिया जाय उल्लेख करते हुए लिखा है-ये उत्तर भारतीय संगीत के विद्वान थे-१. रागमाला, २. नर्तन निर्णय, ३. राग
तो किसी प्रकार का सन्देह नही रहेगा। यह सभव है कि मञ्जरी एवं ४. सद्रागचन्द्रोदय के लेखक थे। इनकी
'विट्ठल' को इस प्रथ के निर्माण मे 'पुण्डरीक' का भी ५वी रचना 'रागनारायण' दिल्ली में तैयार हुई है। पाप
दिल्ली में भी योग रहा हो। दक्षिणी एवं उत्तरी संगीत का साधिकार समालोचकात्मक इस प्रकार हम महाराज माधवसिह प्रथम के सगीत भेद इनकी रचनामों का विषय है। उनकी दृष्टि में- शास्त्रीय प्रेम का ज्वलन्त प्रमाण प्रस्तुत कर सकते हैं।
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शोष-कण
के कर्ता तो विक्रम की १३वीं शताब्दी के विद्वान है। द्वितीय के सेनापति और मत्री चामडराय के लिए और नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती दक्षिण भारत के विद्वान गोम्मटसार प्रादि ग्रथों की रचना की थी। चामुण्डराय ने थे. न कि कि मालवा के, और समय भी विक्रम की ११वीं अपना कन्नड भापा का पूराण शक सं० ६०० वि० सं० शताब्दीका पूर्वाद्ध है. उक्त राजा भोज का समय उनसे १०३५ में बना कर समाप्त किया था, प्रतः माधवचन्द्र बाद का है। ऐसी स्थिति में उनके साथ इनका सामंजस्य और नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती का समय भी वि० सं० कैसे बिठलाया जा सकता है।
१०३५ के आस-पास का होना चाहिए । अर्थात् वे विक्रम दुसरे भोजराज देव शिलाहार वंश के शासक थे। की ११वीं शताब्दी के मध्य काल के विद्वान थे। चामुण्डउनका राज्य क्षुल्लकपुर [कोल्हापुर और उसके मास- राय गंगे नरेश राचमल्ल के प्रधान प्रामात्य थे, जिनका पाम के प्रदेश पर था। इस वंश में अनेक शासक हुए हैं राज्यकाल वि० सं० १०३१ से १०४१ तक बताया
और उनके समय में जैनधर्म की अच्छी प्रगति हुई हैं। गया है। वहां की भट्टारकीय गद्दी पर अनेक विद्वान् भट्रारक हए कन्नड भापा के प्रसिद्ध कवि रन्न ने अपना 'पुराण है, जो विद्वान और प्रभावशाली थे। इन्हीं भोजराज के तिलक' अजितपुराण नामक ग्रंथ शक सं० ११५ वि० सं० मंत्री बाहुबली थे, जिनका उल्लेख 'क्षपणासार गद्य की १०५० में समाप्त किया था, उमने अपने पर चामुण्डप्रशस्ति में
राय की विशेष कृपा होने का उल्लेख किया है। इन सब "भोजराजाज्यसमुद्धरणसमर्थबाहुबलयुक्तदानादिगुणो
उल्लेखों की रोशनी में नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती स्कृष्टमहामात्यपदवीलक्ष्मीवल्लभ वाहुबलि धानेन ।"
का समय मागे नहीं बढ़ाया जा सकता । और न नेमिचन्द्र
सिद्धान्त चक्रवर्ती के शिष्य माधवचन्द्र विद्यदेव का उल्लिखित उक्त वाक्यों में बाहुबली मंत्री को उन्हें भोज
क्या म बाहुबला मत्रा का उन्हें भाज- सम्बन्ध क्षपणासार गद्य के कर्ता के साथ ही जोड़ा जा राज के राज्य का समुद्धार करने में समर्थ बतलाया है, और सकता है। दानादि गुणों में उत्कृष्ट महामात्य पदवी तथा लक्ष्मी- दमरे माधवचन्द्र विद्यदेव भट्टारक सकलचन्द्र के वल्लभ विशेषणों द्वारा उनका खुला यशोगान किया गया है। शिष्य थे। उन्होंने उक्त शिलाहारवंशी राजा वीर भोजराज इससे उनकी महना का स्पष्ट भान हो जाता है। बाहु- के महामात्य बाहबली प्रधान की संज्ञप्ति के लिए क्षपणाबली मत्री क्षल्लकपुर [कोल्हापुर] या उसके पास-पास के सार गद्य की रचना शक सं० ११२५ के दुंदुभि मंवत्सर के निवामी थे। राजनीति में दक्ष तथा राज्य के संरक्षण में की थी। पण्डित जी ने इस शक सं० (११२५) को में सावधान थे और धर्म-कर्म निष्ठ थे । इन्ही की संनप्ति विक्रम संवत माना है। उसका कोई पुष्ट प्रमाण नहीं के लिये क्षपणासार गद्य की रचना की गई थी। इन वीर दिया, केवल शक-शब्द का विक्रम अर्थ बतला कर इसे भोजदेव के साथ भी नेमिचन्द्र सिद्ध चक्रवर्ती और उनके विक्रम संवत मान लिया गया है। यदि इन सब शक शिष्य माधवचन्द्र विद्य देव का सामञ्जस्य नहीं बैठाया संवतों को विक्रम संवत मान लिया जाय तो जो इन जा सकता। क्योंकि इनका ममय पश्चाद्वर्ती है। इमी राजानों और विद्वानों आदि में शक संवत प्रचलित है उसे तरह माधवचन्द्र भी भिन्न-भिन्न समय के विद्वान है। विक्रम मान लेने पर इतिहास में बड़ी गड़बड़ी उत्पन्न हो उनका कार्य क्षेत्र भी भिन्न-भिन्न ही है।
जायगी। उसे कैसे दूर किया जा सकेगा ? उनमें प्रयम माधवचन्द्र देव वे है, जो प्रभयनन्दि वीरनन्दि १. अमुनामाधवचन्द्र दिव्यगणिना विद्य चक्रशिना, इन्दनंदी के शिष्य नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती के शिष्य थे । क्षपणासारमकारि बाहुबलि सन्मंत्रीश सज्ञप्तये । जिन्होंने त्रिलोकसार की टीका बनाई थी, और उसमें शक काले शर सूर्यचन्द्र गणिते (११२५) जाते पुरे कतिपय गाथा गुरु की अनुमति से रच कर शामिल कर दी
क्षुल्लके, थी। प्राचार्य नेमिचन्द्र ने गंगवंश के राजा प्रसिद्ध राचमल्ल शुभ दे दुंदुभि बत्सरे विजयतामाचन्द्रतारं भुवि ॥१६
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अनेकान्त
प्रस्तुत सकलचन्द्र मूलसंघ काणरगण तिन्त्रणीगच्छ अर्जुरिका स्थान में सोमदेव ने शक संवत ११२७ में के विद्वान थे और महादेव दण्ड नायक के गुरु थे। उन शब्दार्णवचन्द्रिका नामक ग्रन्थ की रचना की थी। महादेव दण्ड नायक ने 'एरग' जिनालय बनवा कर उसमें इस सब विवेचन पर से स्पष्ट है कि दोनों माधवचंद्र शान्ति भगवान की मूर्ति को प्रतिष्ठित कर शक वर्ष विद्यदेव भिन्न-भिन्न हैं, वे एक नहीं हो सकते। और न १११६ (वि० सं० १२५४) में उक्त मकलचन्द्र भट्टारक गद्य क्षाणामार के कर्ता को त्रिलोकसार की टीका का के पाद प्रक्षालन पूर्वक हिडगण तालाब के नीचे दण्ड से कर्ता बनाया जा सकता है दोनों भिन्न-भिन्न समयवर्ती है। नाप कर ३ मत्तल चावल की भूमि, २ कोल्ह और एक दोनों भोजदेव भी भिन्न-भिन्न हैं। उनका समय भी भिन्नदुकान का दान किया था२ । प्रस्तुत सकलचन्द्र मुनिचन्द्र भिन्न है।सी स्थिति में पण्डित जी ने जो विचार उपऔर कुलभूषण के शिष्य थे।
स्थित किया है, वह मेरी दृष्टि में उचित प्रतीत नहीं दुदुभि शक ११२५ (वि० सं० १२६०) में होने
होता। माशा है पण्डित जी ऐतिहासिक दृष्टि से उस पर वानी क्षपणासार की रचना दो वर्ष बाद इन्हीं शिलाहार
विचार करेंगे। श्रद्धय प्रेमी जी की राय का उन्होंने स्वयं वंशी वीर भोजदेव राज्य में कोल्हापूर के देशान्तवर्ती
ही उल्लेख किया है। अन्य विद्वान भी इस पर विचार कर
वस्तुस्थिति को मामने लाने का यत्न करेंगे। २. देखो, जैन शिलालेव मग्रह भा० ३ लेव नं० ४३१। ३. देखो, जैन ग्रंथ प्रशस्ति मं० भा० १ पृष्ठ १६६ ।
वीर-शासन-जयन्ती महोत्सव
इस वर्ष वीरशासन-जयन्ती का उत्सव वीर सेवा मन्दिर की ओर से श्री दिगम्बर जैन लालमन्दिर जी में प्राचार्य श्री देश भूपण जी के सानिध्य में मनाया गया था। जनता की उपस्थिति अच्छी थी। १० परमानन्द शास्त्री के मंगलाचरण के पश्चात् प० बालभद्र जी न्यायतीर्थ, प० जीवधर जी न्यायतीर्थ इन्दौर पं० राजेन्द्रकुमार जी न्यायतीर्थ मथग, ब्रह्मचारी सरदारमल जी मिरोज और आचार्य श्री का भाषण हुआ। सभी भाषण मक्षिप्त सार गभित तथा महत्वपूर्ण थे, उनमे भगवान महावीर के सिद्धान्तो का विश्लेषण करते हुए उनकी महता पर अच्छा प्रकाश डाला गया। माथ ही अपने जीवन में उन्हें यथा शक्ति अपनाने पर भी बल दिया गया । और विश्व की अशान्ति को दूर करने के लिए महावीर के हिसा अनेकान्त और अपरिग्रह आदि सिद्धान्तों का लोक में प्रचार एवं प्रसार करने की प्रेरणा की। और धर्म रक्षा के लिए अपना सर्वस्व अर्पण करने की विशेष प्रेरणा दी गई। अन्त में वीर-सेवा-मन्दिर के उपाध्यक्ष राय साहब उलफतराय जी ने आगन्तुक सज्जनों का आभार प्रदर्शन किया और महावीर की जय ध्वनि पूर्वक उत्सव समाप्त हुप्रा।
-प्रेमचन्द जैन
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"जैनधर्म और जातिवाद"
श्री कमलेश सक्सेना, मेरठ
जैन धर्म का उदय कुछ ऐसे महान पादों को लेकर न मानते हुए भी उसको वृहत सामाजिक हित में मान्यता हना था जिसके कारण यह शीघ्र ही सम्पूर्ण भारत में देने का प्रयत्न करते हुए दीखते हैं। पर दूसरी मोर ऐसी फैल गया । रूढ़िवादिता एवम् यज्ञ, अनुष्ठानों के विरोधी व्यवस्था जैनधर्म के प्रतिकूल होने के कारण कुछ समय होने के साथ ही यह धर्म जातिवाद का कटु शत्रु था। तक उनके द्वारा कटु आलोचना का क्षेत्र बनी रही। पार्श्वनाथ और उनके पश्चान् महावीर ने ब्राह्मणों के वरागचरित में जटासिंह नन्दी लिखते हैं कि-सम्पूर्ण प्राणीधार्मिक विश्वासों और पद्धतियों पर सफलतापूर्वक प्राक्षेप मात्र एक 'सर्व शक्तिमान' की सन्तान होते हुए विभिन्न किए थे। आगमों में किसी भी स्थान पर जातिवाद को जाति के कैसे हो सकते है । उदाहरणार्थ एक उदम्बर के अच्छा नहीं बतलाया गया। परन्तु समय के परिवर्तन के वक्ष पर उदम्बर फल के अतिरिक्त कोई भिन्न जाति का साथ-साथ जैन धर्म की मान्यताओं में परिवर्तन आने फल नहीं लगता४ । परन्तु ये वस्तु स्थिति मध्यकालीन युग लगा और जैन आचार्यों ने जातिभेद को स्वीकृति देनी में बदलने लगी और जैन समाज चारों वर्गों को स्वीकार प्रारम्भ कर दी।
करने लगा। यह पृथक् बान है कि उस समय तक यह वैसे तो जैन आचार्य प्रारम्भ से ही समाज का
जाति के कठिन बन्धन से मुक्त रहे, क्योंकि जैन धर्म विभाजन चार वर्षों में मानते चले आए है। परन्तु जैन
निरन्तर कर्मों की प्रधानता पर बल देता । यही धर्म में इस वर्ण भेद को पुस्तकों में स्थान देने वाले सर्व
कारण था कि एक ब्राह्मण को जैन समाज उसी समय तक प्रथम आदि पुराण के लेखक जिनसेन प्राचार्य हुए । उनके
ब्राह्मण मानने को तैयार था जब तक कि वह अपने वर्ण मतानुगार वृषभदेव ने सबसे पहले तीन वर्णों की रचना
के कर्तव्य का पालन करता या अन्यथा वह चांडाल था५ । की। जो लोग रक्षा का कार्य करते थे उनको क्षत्रिय की
इस प्रकार से जैनमतानुसार ब्राह्मण केवल वही व्यक्ति था संज्ञा दी, जो लोग खेती-बाड़ी कर जीवकोपार्जन करते ।
जो कि व्रत, तपस्या और ब्राह्मणों के अनुरूप कर्तव्य का थे व वैश्य कहलाते थे तथा जो मेवा कार्य करते थे वे पाल' शद्र कहलाते थे२ । आगे चलकर ब्राह्मण वर्ण का जन्म इसी प्रकार से जो व्यक्ति रक्षा कार्य में संलग्न थे दूसरे वर्णो के धार्मिक कृत्यों के लिए हुमा ।
उन्हें क्षत्रिय की संज्ञा दी जाती थी। सोमदेवसूरी के परन्तु यह ध्यान देने का विपय है कि जैन धर्म जन्म अनुमार क्षत्रियों का कर्तव्य था कि वे कमजोर, अपाहिज, पर आधारित जाति को मानने को तैयार उस समय तक अन्धे, रोगी और अनाथ व्यक्तियों की महायता करे६ । नही हुया था। प्राचार्य अमितगति भी जन्म को वर्ण में विशेष ध्यान देने की बात यह है कि क्षत्रिय धर्म के कोई महत्ता नहीं देते थे वरन उनके अनुसार एक व्यक्ति अन्तर्गत जैन प्राचार्य शस्त्रों का प्रयोग निर्वाध रूप से का जीवनयापन का साधन ही उसके वर्ण का द्योतक करने के पक्ष में नहीं है। उदाहरण के लिए कुछ व्यक्तियों है३ । परन्तु नवीं व दसवीं शताब्दी के प्राचार्य जाति को को बचाने के लिए किसी निर्दोप व्यक्ति को मारना सर्वथा
१ सोमदेव सूरी-पशसतिलकचम्पू. ७ पृष्ठ ३७३ ४ . वरांगचरित-२५. २-४. २. जिनसेन-प्रादि पुराण पर्व १६. १८४ पृ० ३६२५. रविपण प्राचार्य-पद्म पुराण ११. २०३. ३. धर्म परीक्षा-१७. २४.
६. नीतिवाक्यामृत-७. ८.
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अनेकान्त
अनुचित समझा जाता था । ब्राह्मणों की भांति क्षत्रियों समय के व्यतीत होने के साथ-साथ जैन समाज इस जातिको कोई विशेष अधिकार प्राप्त नहीं थे। जैनधर्मावलम्बियों वाद से अछूता नहीं रह सका। उसमें भी जन्म के आधार को क्षत्रिय वर्ण अपनाने की मनाही नहीं थी यद्यपि वे पर आगे चलकर वर्ण बनने लगे । २०वीं शताब्दी मे यह अहिंसा के पोषक थे।
वर्ण उपजातियों में विभाजित हो गए। विभिन्न विद्वानों वश्य जाति के लोग अधिकतर व्यापार और कृषि के द्वारा संकलित इन उपजातियों की संख्या १०० से भी कार्य करते थे। इसके अतिरिक्त पशुपालन का व्यवसाय अधिक पहुँचती है। इसके अतिरिक्त कुछ ऐसे भी वर्ग है भी इस वर्ण के लोग कर सकते थे। व्यापारी होने के जो कि जैन रीति-रिवाजों को मानते हैं और उनकी कारण यह वर्ग धनी था । खजुराहो के एक जैन मन्दिर से गणना उपजातियों में नहीं की गई है और यह वर्ग रत्नप्राप्त अभिलेख से पता चलता है कि वैश्य लोग राजा के गिरि जिले में मिलता है१० । मुख्यतया जैन उपजातियांद्वारा भी धनी होने के कारण सम्मान पाते थे। सोमदेव प्रोसवाल, श्रीमाल, अग्रवाल, खण्डेलवाल, संतवाल, ने वैश्यों के लिए शिक्षा संस्थानों के लिए दान देना और परवार, चतुर्थ और पंचम है। इनमें से कुछ के रीतिमाश्रयगृह खुलवाना मुख्य धर्म बतलाया है।
रिवाज तो समान है और कुछ के भिन्न हैं, जिसके लिए जैन प्राचार्यों ने हिन्दू धर्म की भांति शूद्रो का कर्तव्य धर्म में प्रांतरिक विभाजन भी उत्तरदायी है । इस प्रकार द्विजाति की सेवा बतलाया है। जैन धर्म के अनुसार कोई से आज वर्गों के स्थान पर उपजातिया ही रह गई हैं। भी व्यक्ति अछूत नहीं कहा जा सकता। परन्तु व्यवहार मे फिर भी इतना आवश्य है कि जैन समाज में जातिवाद सत् और असत् शूद्रों का वर्णन मिलता है। द्विजातियों को बंधन कठोर नही हुए हैं और एक वर्ग से कार उठने के सेवा कार्य के अतिरिक्त शुद्र मूर्तिकार, चित्रकार, गायक लिए द्वार सदैव ही खुला हुपा है । इस क्रिया को 'वर्णतथा चारण का कार्य भी करते थे। जैन प्राचार्यों के लाभ' क्रिया कहते है११।। अनुसार एक शूद्र भी यदि शुभ कर्म करे तो मोक्ष को
संसार को अहिंसा का सदेश देने वाले जैन धर्म को प्राप्त कर सकता है।
इस समय में न केवल अपने समाज में एकता लाने का उपरोक्त विवरण से स्पष्ट है कि जैनधर्म ने हिन्दुओं
प्रयत्न करना चाहिए अपितु सम्पूर्ण भारतवर्ष में जटासिंह के जातिवाद को मान्यता नवीं एम दसवीं शताब्दी में
नन्दी के उपदेश को प्रतिपादित करना चाहिये जिससे कि देनी प्रारम्भ कर दी थी। केवल इतना ही नही वरन सम्पूर्ण प्राणीमात्र एकता के सूत्र मै बँधकर एक-दूसरे की ७. आदिपुराण-४२. १३.
सहायता करे। ८. एपीग्राफी इंडिका-५. पृ० १३६.
१०. विलास प्रादिनाथ संघवे-जैन कम्युनिटी, पृ०७३-७४ ६. नीतिवाक्यामृत-७ ६.
११. प्रादिपुगण-३६. ७१
उपदेशक पद
भैया भगवतीदास प्रोसवाल जो जो देल्यो वीतराग ने सो सो होसी वीरा रे । विन देख्यो होसी नहिं क्यों ही, काहे होत अधीरा रे ॥१॥ समयो एक बढ़े नहि घटसी, जो सुख दुख की पौरा रे । तू क्यों सोच कर मन कड़ो, होय वन ज्यों हीरा रे ॥२॥ लगे न तीर कमान बान कहुं, मार सके नहिं मीरा रे। तुं सम्हारि पौरुष बल अपनो, सुख अनंत तो तीरा रे ॥३॥ निश्चय ध्यान बरह वा प्रभु को, जो टार भव-भीरा रे। 'भैया' चेत परम निज अपनो जो तार भव-नीरा रे ॥४॥
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साहित्य-समीक्षा
१. जैन भारती-(समन्वयांक) सम्पादक बच्छराज दिया गया है। उन दर्शनीय वस्तुओं मे से वोटेनिकल मंचेती प्रकाशक-श्री जैन श्वेताम्बर तेरापंथी महासभा, ३ गार्डन, नेशनल लायब्ररी, चिड़िया खाना, प्रादि हैं जनतो. पोर्चगीज चर्च स्ट्रीट कलकत्ता-१ वार्षिक मूल्य १२) पयोगी चीजों में पोस्ट आफिस, हस्पताल, मुख्य ट्राम रास्ते रु०, इस प्रक का मूल्य ७५ पंसा।
आवश्यक बसे, आदि का दिग्दर्शन कराया गया है। पुस्तक प्रस्तुत अंक महावीर जयन्ती के उपलक्ष में "विशेषांक'
यात्रियों के लिए उपयोगी है, प्रत्येक यात्री को उसे पास में रूप में प्रकाशित किया गया है। समन्वय की दिशा में यह रखना चाहिए जिमसे उमे कलकत्ता में कोई असुविधा
यास है, परन्तु समन्वय का कान नहीं चाहता, सभा नहीं हो। पुस्तक की भापा मुगम और मुहावरेदार है। विरोध मे डरते है, हिताभिलाषी है, फिर भी उनमे विरोध हो जाता है यह आश्चर्य है । समन्वय के लिए युक्ति परीक्षा
३. दस वेवालियं [बीमो भागो]--दश वैकालिक और मध्यस्थ भाव आवश्यक है। इनके होने पर समन्वय
दूमरा भाग वाचना प्रमुख प्राचार्य तुलसी, प्रकाशक श्री होना सुलभ है, विचार वैषम्य दूर होकर ही समता ओर
जैन श्वेताम्बर तेरा पथी महासभा, ३ पोर्चुगीज चर्च सह-अस्तित्व बन सकते है। जैन समाज के नेतागण यदि स्ट्रीट कलकत्ता-१, पृष्ठ ८००, बड़ा साइज, मूल्य सजिल्द जीवन में अनेकान्त को अपना लें, तो समन्वय दष्टि सफल प्रति का २५ रुपया। हो सकती है।
प्रस्तुत ग्रन्थ में दश अध्ययन हैं और वह विकाल में प्रस्तुन अंक में ३३ लेख दिये गये है, जिनमें समन्वय रचा गया है इसलिए इसका नाम दश वैकालिक है इसके एवं एकता के विषय में चर्चा की गई है तथा उदार दृष्टि- कर्ता शय्यभव है, कहा जाता है कि उन्होने अपने शिष्य कोण अपनाने की भी प्रेरणा दी गई है। जैन मस्कृति मनक के लिये इसकी रचना की थी। दश वकालिक अग को उज्जीवित रखने के लिए ममन्वय की अत्यन्त आवश्य- बाह्य पागम ग्रन्थ है इसमें आचार और गोचर विधि का कता है। परन्तु जब तक साम्प्रदायिक व्यामोह कम नहीं वर्णन किया गया है। इस ग्रन्थ पर नियुक्ति चुरिणया और हो जाता, नब तक अनेकान्त की ममुदार दृष्टि जाग्रत नहीं हारिभद्रीय वृत्ति उपलब्ध है। श्वेताम्बर परम्परा में इस हो मकती। विद्वानों और ममाज-सेवकों को विचार कर ग्रन्थ का बड़ा महत्व है । ममन्वय को जीवन का अंग बनाने का प्रयत्न करना प्रस्तुत ग्रन्थ का सम्पादन और हिन्दी अनुवाद मूल्य चाहिए। आचार्य तुलसी गणी का यह प्रयास बहुत ही के अनुरूप करने का प्रयत्न किया गया है और विषय को मून्दर और समयानुकूल है। प्राशा है ममाज इस पर गहरा स्पष्ट करने के लिए जहा तहा टिप्पणियां दी गई है। विचार कर मनेकान्त को जीवन में लाने का यत्न करेगी। एक पृष्ठ के नीन कालम करके प्रथम कालम मे मूल, दूसर
२. यह कलकत्ता है-लेखक धर्मचन्द्र मगवगी कल- में उमकी मस्कृत छाया और तीसरे में हिन्दी अनुवाद कना । प्रकाशक, एक्मे एण्ड कम्पनी पुस्तकालय विभाग, जैन दिया गया है । एक अध्ययन के बाद उसके प्रत्येक श्लोक हाउम ११ एस्प्लेनेड रोड, ईष्ट कलकत्ता-१ । पृष्ठ ६४ के शब्दों पर टिप्पणिया दी हुई है, जो अध्ययन पूर्ण है मूल्य १) रुपया।
और उनके नीचे पाद टिप्पण में ग्रन्थों के उद्धरण आदि प्रस्तुत पुस्तक में कलकत्ता का सजीव परिचय कराया का निर्देश है इसी क्रम से सम्पूर्ण ग्रन्थ का विवेचन दिया गया है । कलकत्ता को कब और किसने बसाया है और हमा है। इस ग्रन्थ के सम्पादन में प्राचार्य तुलमी के उसकी क्या-क्या प्रगति हुई। उसके क्या दर्शनीय स्थान प्रमुख शिष्य मुनि नथमल जी और अन्य सहायक साधुप्रो हैं, कहा हैं, उनकी क्या-क्या महत्ता है, इसका विवरण ने ग्रन्थ को पठनीय एवं संग्रहणीय बनाने में खूब श्रम
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अनेकान्त
किया है। श्वेताम्बर तेरा पन्थ के उदय को लगभग दो सौ वर्ष का समय हुआ है, इतने समय में इस पन्थ ने अच्छी प्रगति और प्रतिष्ठा प्राप्त की है। उसकी इस प्रगति का मूलकारण प्राचार्य तुलसी की शालीनता और उदार दृष्टि है। प्राचार्य श्री जब गत वर्ष दिल्ली पधारे थे तब उन्होंने मुझे दश वैकालिक की प्रति दिखलाई थी, ग्रन्थ का अध्ययन करके ही उसका पूरा मूल्य भाका जा सकता है।
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४. मालवा की माटी - लेखक सम्पतलाल पुरोहित युगछाया प्रकाशन २५५१ धर्मपुरा दिल्ली-६ पृष्ठ संख्या १५६, मूल्य सजिल्द प्रति का ३ रुपया ।
प्रस्तुत पुस्तक ऐतिहासिक व राजनीतिक उपन्यास है। यह एक ऐतिहासिक घटना पर आधारित है। घटना बड़ी सजीव और अन्याय की पराकाष्ठा को चुनौती देने वाली थी। सम्राट् विषमादित्य के पिता गन्धर्वसेन की पुरातन जीवन घटना को नये साज-सज्जा के साथ चित्रित किया गया है । गन्धर्व सेन गर्दभी विद्या के कारण मदोन्मत हो अन्याय पर उतारू हो रहा था, उसकी सैन्य शक्ति बढी हुई थी। उस समय के लोगों ने उसे बहुत समझाया, परन्तु उसने किसी की एक न सुनी। कामाथ विवेक रहित होता है उसने जैनाचार्य कालक की बहिन भायिका सरस्वती का प्रपहरण
करके कालक को प्रतिशोध के लिए बाध्य किया था । उक्त घटना चक्र पर ही आगे का कथानक वृद्धिगत हुआ है । घटनाओं ने कही कही कुछ ऐसा मोड़ लिया, जिसमें धार्मिक दृष्टिकोण दबता गया और राष्ट्रीय दृष्टिकोण
उभरता हुआ नजर आता है। लेखक ने राष्ट्रीय दृष्टिकोण को पल्लवित करने के लिए ही उक्त कथानक का सहारा लिया है कुछ पात्रों का भी नया चुनाव करना पडा है। प्राचार्य कालक के सम्बन्ध में भी कुछ स्वच्छन्दता वर्ती गई है। फिर भी कथानक में कोई अन्तर नहीं था पाया है। फिर उपन्यास में तो घटनाचक्र का रूप ही दूसरा होता है । उसमें कल्पना की प्रधानता होती है, तो अन्य में घटनाचक्र की देश की सुरक्षा के लिए पुरोहित जी का यह प्रयास प्रशंसनीय है ।
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श्रमणोपासक - ( जनदर्शन, साहित्य धर्म अक ) सम्पादक जुगराज सेठिया और देव कुमार जैन, वार्षिक मूल्य छह रुपया । इस प्रक का मूल्य दो रुपया ।
प्रस्तुत प्रक प्रखिल भारती साधु मार्गी जैन संघ बीकानेर का मुख पत्र है । यह तीसरे वर्ष का प्रवेशाक है। इस अंक में ३६ लेख कविता व कहानी आदि है। साधुमार्गी समाज का यह प्रयास स्तुत्य है । लेखो का चयन अच्छा हुमा है। ऐसे विशेषाको में उच्च कोटि के लेखकों के लेख होने चाहिए थे जो तुलनात्मक दृष्टि से लिखे जाकर जैन संस्कृति को महत्ता प्रदान करत । ऐसा करने में जहा पत्र के प्रकाशन में विलम्ब होता वहा उससे पत्रिका का स्टेन्डर्ड ही न बढता किन्तु जैन दर्शन और साहित्य पर महत्वपूर्ण नेम सामग्री का धन भी विज्ञ पाठको को अवश्य मुखरित किये बिना न रहता, फिर भी एक अच्छा है, छपाई सफाई माधारण है ।
- परमानन्द शास्त्री
मानव अत्यधिक स्वार्थी हो गया है, वह जहाँ अपने स्वार्थ की पूर्ति देखता है उसी घोर प्रवृत्ति
करता है मानों स्वार्थ ही उसका सब कुछ है, वह स्वायं के बिना दूसरों से बात भी नहीं करता। ग्रतः
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उसका जीवन ऊंचा उठने के बजाय नीचा ही होता जाता है ।
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प्रात्म-निरीक्षण
मात्मा से प्रात्मा को देखो। भगवान महावीर का यह वाक्य प्रात्म-निरीक्षण का मूल मंत्र है। जो भी मनुष्य जीवन में उत्थान का मार्ग प्राप्त करना चाहता है, उसके लिए इससे बढ़कर दूसरा कोई मार्ग नहीं है।
___ "मेरा कौन-सा प्राचार-व्यवहार पशुओं के समान है और कौन-सा महापुरुषों के समान, इस तरह प्रतिदिन आत्म-निरीक्षण करना चाहिए।"
संसार में दूसरों को देखने वाले बहुत है, किन्तु स्वयं को देखने वाले थोड़े है। दूसरे के दोषों की ओर बारबार ध्यान जाता है, अपने दोषों की पोर कभी भी नहीं जाता।
जब स्वयं के दोष देखता है तो दृष्टि छोटी हो जाती है और जब दूसरों के दोष देखता हूँ तो वह बड़ी बन जाती है।
-मुनिश्री राकेश
वीर-सेवा-मन्दिर और "अनेकान्त" के सहायक
१०००) श्री मिश्रीलाल जी धर्मचन्द जी न, कलकत्ता । १५०) श्री चम्पालाल जी सरावगी, कलकत्ता १०००) श्री देवेन्द्रकुमार न, ट्रस्ट,
१५०) , जगमोहन जो सरावगी, कलकत्ता श्री साहु शीतलप्रसाद जी, कलकत्ता
१५०) , कस्तूरचन्द जी मानन्दीलाल कलकत्ता ५००) श्री रामजीवन संगवगी एण्ड संस, कलकत्ता १५०) , कन्हैयालाल जो सीताराम, कलकत्ता ५० ) श्री गजराज जी सरावगी, कलकत्ता
१५०) , पं० बाबूलाल जी जैन, कलकत्ता ५००) श्री नथमल जी सेठी, कलकत्ता
१५०), मालीराम जी सरावगी, कलकत्ता ५००) श्री वैजनाथ जी धर्मचम जी, कलकत्ता १५०) , प्रतापमल जी मदनलाल पांड्या, कलकत्ता ५००) श्री रतनलाल जो झांझरी, कलकत्ता
१५०) , भागचन्द जी पाटनी, कलकत्ता २५१) श्री रा. बा० हरख बन्द जो जैन, रांची १५०) , शिखरचन्दनी सरावगी, कलकत्ता २५१) श्री अमरचन्द जी जंन (पहाइया), कलकत्ता १५०) , सुरेन्द्रनाथ जी नरेन्द्रनाथ जी कलकत्ता २५१) श्री स० सि० धन्यकुमार जी जैन, कटनी ०१) , मारवाड़ी दिजैन समाज, व्यावर २५१) श्री सेठ सोहनलाल जी जैन,
१०१) , दिगम्बर जैन समाज, केकड़ी मैसर्स मुन्नालाल द्वारकादास, कलकत्ता १०१) , सेठ चन्दूलाल कस्तूरचन्दजी, बम्बई नं. २ २५१) श्री लाला जयप्रकाश जी जैन
१०१) , लाला शान्तिलाल कागजी, दरियागंज विलनी स्वस्तिक मेटल वर्क्स, जगाधरी
१०१) , सेठ भंवरीलाल जी बाकलीवाल, इम्फाल २५०) श्री मोतीलाल हीराचन्द गांधी, उस्मानाबाद १०१) , शान्ति प्रसाद जी जैन २५०) श्री बन्शीवर जी जगलकिशोर जी, कलकत्ता
जैन बुक एगेन्सी, नई दिल्ली २५०) श्री गमन्दरदास जी जैन, कलकता
१०१) , सेठ जगन्नाथजी पाण्ड्या अमरीतलैया २५.) श्री सिंबई कुन्दनलाल जी, कटनी
१००) , बद्रीप्रसाद जी प्रास्माराम मी, पटना २५०) श्री महावीरप्रसाद जी अग्रवाल, कलकता १००) , रूपचन्दजी जैन, कलकत्ता २५०) श्री बी. प्रार० सी० जैन, कलकत्ता
१००) , जैन रत्न सेठ गुलाबचन्द भी होंग्या २५०) श्री रामस्वरूप जी नेमिचन्द्र जी, कलकता
इन्दौर १५.) श्री बजरंगलाल जी चन्द्रकमार जो, कलकत्ता | १००), बाबू नुपेन्द्रकुमार जी जैन, कलकता
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वीर-सेवा-मन्दिर के उपयोगी प्रकाशन
सभी ग्रन्थ पौने मूल्य में (१) पुगतन-जैनवाक्य-सूची-प्राकृत के प्राचीन ४६ मूल-ग्रन्थों की पद्यानुक्रमणी, जिसके साथ ४८ टीकादिग्रन्थों में
उदधृत दूसरे पद्यों की भी अनुक्रमणी लगी हुई है। सब मिलाकर २५३५३ पद्य-वाक्यों की सूची । सम्पादक मुख्तार श्री जुगलकिशोर जी की गवेषणापूर्ण महत्व की ७० पृष्ठ की प्रस्तावना से अलकृत, डा. कालीदास नाग, एम. ए. डी. लिट् के प्राक्कथन (Foreword) और डा. ए. एन. उपाध्ये एम. ए. डी. लिद की भूमिका
(Introduction) से भूपित है, शोध-खोज के विद्वानों के लिए अतीव उपयोगी, बड़ा साइज, सजिलद १५) (२) प्राप्त परीक्षा--श्री विद्यानन्दाचार्य की स्त्रीपज्ञ सटीक अपूर्व कृति, प्राप्तों की परीक्षा द्वारा बर-विपय के
मुन्दर विवेचन को लिए हुए, न्यायाचार्य प० दरबारीलालजी के हिन्दी अनुवाद से युक्त, सजिस्व । ८) (३) स्वयम्भूस्तोत्र--समन्तभद्र भारती का अपूर्व ग्रन्थ, मुख्तार थी जुगलकिशोरजी के हिन्दी अनुवाद तथा महत्व
की गवेषणापूर्ण प्रस्तावना में सुशोभित । (४) स्तुतिविद्या-स्वामी समन्तभद्र की अनोखी कृति, पापों के जीतने की कला, सटीक, सानुवाद पौर श्री जुगलकिशोर मुख्तार की महत्व की प्रस्तावनादि से अलंकृत मुन्दर जिल्द-महित ।
१॥) (५) अध्यात्मकमलमार्तण्ड-पचाध्यायीकार कवि गजमल की सुन्दर आध्यात्मिकरचना, हिन्दी-अनुवाद सहित ) (६) युक्यनुगासन-तत्वज्ञान से परिपूर्ण समन्तभद्र की असाधारण कृति, जिसका अभी तक हिन्दी अनुवाद नही
हुअा था । मुख्तार श्री के हिन्दी अनुवाद और प्रस्तावनादि से अलकृत, सजिल्द । ... १॥) (७) श्रीपुरपार्श्वनाथस्तोत्र-प्राचार्य विद्यानन्द रचित, महत्व की स्तुति, हिन्दी अनुवादादि महित । ... ) (5) गासनचतुस्त्रिशिका-(तीर्थपरिचय) मुनि मदनकीति की १३वी शताब्दी की रचना, हिन्दी-अनुवाद-सहित ) (E) समीचीन धर्मशास्त्र-स्वामी समन्तभद्र का गृहस्थाचार-विपयक प्रत्युनम प्राचीन ग्रन्थ, मुख्तार श्रीजुगलकिशोर
जी के विवेचनात्मक हिन्दी भाष्य और गवेपणात्मक प्रस्तावना से युक्त, मजिल्द । ... जैनग्रन्थ-प्रशस्ति सग्रह-संस्कृत और प्राकृत के १७१ अप्रकाशित ग्रन्थों की प्रशस्तियों का मंगलाचरण महित अपूर्व संग्रह उपयोगी ११ परिशिष्टों की और प० परमानन्द शास्त्री की इतिहास-विपयक साहित्य परिचयात्मक
प्रस्तावना से अलकृत, सजिल्द । (११) अनित्यभावना-पा० पद्मनन्दी की महत्व की रचना, मुख्तार श्री के हिन्दी पद्यानुवाद और भावार्थ अहित ।) (१२) तत्वार्थमूत्र--(प्रभाचन्द्रीय)-मुख्तार श्री के हिन्दी अनुवाद तथा व्याग से युक्त। (१३) श्रवणबेलगोल और दक्षिण के अन्य जैनतीर्थ । (१४) महावीर का सर्वोदय तीर्थ =), (१५) ममन्तभद्र विचार-दीपिका =), (१६) महावीर पूजा ) (१७) बाहुबली पूजा-जुगलकिशोर मुख्तार कृत (१८) अध्यात्म रहस्य-५० आशाधर को मुन्दर कृति मुख्तार जी के हिन्दी अनुवाद महित (१६) जैन ग्रन्थ-प्रशस्ति मंग्रह भा० २ अपभ्रंश के १२२ अप्रकाशित ग्रन्थोंकी प्रशस्तियोका महत्वपूर्ण संग्रह ५५
ग्रन्थकारों ऐतिहासिक ग्रंथ-परिचय और परिशिष्टों महित। सं०५० परमानन्द शास्त्री सजिल्द १२) (२०) जैन साहित्य और इतिहास पर विशद प्रकाश, पृष्ठ मख्या ७४० सजिल्द (वीर-शासन-संघ प्रकाशन ... ५) (२१) कसायपाहुड सुत्त--मूलग्रन्थ की रचना आज से दो हजार वर्ष पूर्व श्री गुणधराचार्य ने की, जिस पर श्री
यतिवृषभाचार्य ने पन्द्रह सौ वर्ष पूर्व छह हजार श्लोक प्रमाण चुणिसूत्र लिखे । सम्पादक पं० हीरालाल जी सिद्धान्त शास्त्री, उपयोगी परेशिष्टों और हिन्दी अनुवाद के साथ बड़ी साइज के १००० से भी अधिक
पृष्ठों में । पुष्ट कागज और कपड़े की पक्की जिल्द । (२२) Reality प्रा० पूज्यपाद की सर्वार्थमिद्धि का अंग्रेजीमें अनुवाद बड़े आकार के ३०० पृष्ठ पक्को जिल्द मू० ६)
प्रकाशक-प्रेमचन्द जैन, वीरसेवा मन्दिर के लिए, रूपवाणी प्रिंटिंग हाउस, दरियागज दिल्ली से मुद्रित
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(अगस्त १९६५
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3ণকান
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मनस्वी महा-मानव गणेशवी
भाद्रपद कृष्ण ११ सं० २०१८
अवसान:
छाया-नीरज जैन Xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx समन्तभद्राश्रम (वीर-सेवा-मन्दिर) का मुखपत्र
असोज कृष्ण ४ सं० १९३१
Patnak
जन्म:
***
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दैमासिक
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पृष्ठ
विषय-सूची
अनेकान्त को सहायता विषय
११) श्री नाथूलाल जी गंगवाल (सेठ नन्दराम १. अहरंत-स्तवनम-समन्तभद्राचार्य
६७ | नाथूलाल जी) इन्दौर के स्वर्गवास पर २०००) के २. अर्थप्रकाशिका : प्रमेयरत्नमाला की द्वितीय टीका-निकाले हए दान मे से ग्यारह रुपया अनेकान्त को पंडित
[पं. गोपीलाल 'अमर' एम. ए. साहित्य-शास्त्री १८ नाथूलाल जी शास्त्री इन्दौर की मार्फत सपन्यवाद प्राप्त ३. अन्तरिक्ष पार्श्वनाथ श्रीपुर तथा श्रीपुर पार्श्वनाथ Iए। आशा है दूसरे दानी महानुभाव भी अनेकान्त को
स्तोत्र-[पं० नेमचंद धन्नूसा जैन, देउलगाँव] ९९ अपनी सहायता भेज कर अनुगृहीत करेंगे। ४. प्राचार और विचार-[डा. प्रद्युम्नकुमार जैन,
-~-व्यवस्थापक ज्ञानपुर] १०३
'अनेकान्त' ५. 'मोह विवेक युद्ध : एक परीक्षण
[डा. रवीन्द्रकुमार जैन, तिरुपति] १०७ ६. दिगम्बर और श्वेताम्बर परम्परा में महाव्रत अणुव्रत, समिति और भावना-[मुनि श्री
भूल सुधार रूपचन्द जी] ७. भूधरदास का पार्श्व पुराण : एक महाकाव्य
अनेकान्त के जून मास के अंक में श्री छोटेलाल जैन [श्री सलेकचन्द जैन एम. ए. बड़ौत ११६
अभिनन्दन ग्रन्थ के सम्पादक मण्डल में कुछ नाम गलती ८. वर्णीजी का आत्म-आलोचन और समाधि
से रह गए थे । सम्पादक मण्डल के विद्वानों को नामावली सङ्कल्प-[श्री नीरज जैन]
१२५ / पुनः प्रकाशित की जा रही है६. बोध प्रामृत के सन्दर्भ में प्राचार्य कुन्दकुन्द
पं० चैनसुखदास जी न्यायतीर्थ [साध्वी श्री मंजुला, शिक्षाविभाग अग्रणी १२८ डा० ए. एन. उपाध्ये एम. ए. डी. लिट १०. जीव का अस्तित्व जिज्ञासा और समाधान
पं. कैलाशचद जी शास्त्री [मुनि श्री नथमल जी
डा० सत्यरंजन बनर्जी ११ हेमराज नाम के दो विद्वान् -[परमानन्द जैन
श्री अगरचन्द जी नाहटा शास्त्री]
डा० कालीदास नाग १२. ३८३ ईसाई तथा ७वे बौद्ध विश्व-सम्मेलनों
डा. के. सी. काशलीवाल की श्री जैन संघ को प्रेरणा-श्री कनकविजय
-व्यवस्थापक मामूरगंज, वाराणसी १४०
अनेकान्त १३. शोध-कण महत्वपूर्ण दो मूर्ति-लेख
वीर सेवा मन्दिर २१ बरियागंज, दिल्ली । नेमचंद धन्नूसा जैन न्यायतीर्थ
अनेकान्त का वार्षिक मूल्य ६) रुपया
एक किरण का मूल्य १ रुपया २५ पै० सम्पादक-मण्डल म०मा० ने० उपाध्ये
अनेकान्त में प्रकाशित विचारों के लिए सम्पादक डा०प्रेमसागर जैन
मण्डल उत्तरदायी नहीं है। श्री यशपाल जैन
१३५
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वर्ष १८ किरण- ३
}
प्रोम् अर्हम्
अनेकान्त
परमागस्य बीजं निषिद्ध जात्यन्ध सिन्धुरविधानम् । सकलनयविलसितानां विशेषमयनं नमाम्यनेकान्तम् ॥
वीर-सेवा-मन्दिर, २१ दरियागंज, दिल्ली-६ वीर निर्वाण सवत् २४६१, वि० सं० २०२२
अरहंत-स्तवनम्
fuaa - मोह - तरुणी वित्थिष्णारणारण - सायरतिष्णा । हिय- रिग - विग्ध-वग्गा बहु-बाह-विणिग्गया प्रयला ॥ दलिय - मरण-प्यावा तिकाल-विसएहि तीहि ायणेहि । विट्ठ-सयल ट्ठ- सारा सदद्ध-तिउरा मुणि-व्वइरणो ॥ ति-रयरण-तिसूलधारिय मोहंघासुर-कबंध-विद-हरा । सिद्ध-सयलप्प वा श्ररहंता तुम्गय-कयंता ॥
{
अगस्त सन् १९६५
समभावार्थ वीरसेन
अर्थ- जिन्होंने मोहरूपी वृक्ष को जला दिया है, जो विस्तीर्ण प्रज्ञानरूपी समुद्र से उत्तीर्ण हो गए हैं, जिन्होंने अपने विघ्नों के समूह को नष्ट कर दिया है, जो अनेक प्रकार को वाधाओंों से रहित हैं, जो प्रचल हैं, जिन्होंने कामदेव के प्रताप को दलित कर दिया है, जिन्होंने तीनों कालों को विषय करने रूप तीन नेत्रों से सकल पदार्थों के सार को देख लिया है, जिन्होंने त्रिपुर---मोह, राग और द्वेष को अच्छी तरह से भस्म कर दिया है, जो मुनि व्रती अर्थात् दिगम्बर अथवा मुनियों के पति — ईश्वर हैं, जिन्होंने सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र इन तीन रत्न रूपी त्रिशूल को धारण करके मोहरूपी अन्धकासुर के कवन्ध वृन्द का हरण कर लिया है। जिन्होंने सम्पूर्ण ग्रात्म स्वरूप को प्राप्त कर लिया है और जिन्होंने दुर्नय का अन्त कर दिया है, ऐसे अरिहंत परमेष्ठी होते हैं, उन्हें नमस्कार है ।
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अर्थप्रकाशिका : प्रमेयरत्नमाला की द्वितीय टीका
पं० गोपोलाल 'अमर' एम. ए. साहित्य शास्त्री
प्राचार्य माणिक्यनन्दी का परीक्षामुख जैन न्याय का व्याख्याएँ हैं तथापि पण्डिताचार्य की व्याख्या ही विद्वानों एक प्रतिनिधि ग्रन्थ है। इसकी तीन टीकाएँ उपलब्ध हैं- को ग्राह्य है । तृतीय पद्य में प्रन्थकार कुछ नम्र होते हैं प्रमेयकमलमार्तण्ड, प्रमेयरत्नमाला और प्रमेयरलालंकार। और कहते हैं कि सपूर्ण समार के प्रकाशक मूर्य के देदीप्यइसके प्रथम सूत्र की व्याख्या के रूप में एक लघु पुस्तिका मान रहते हए भी क्या लोग हाथ में छोटा-सा दीपक नहीं प्रमेयकण्ठिका भी उपलब्ध है। प्रमेयरत्नमाला की भी दो लेते, अवश्य लेते हैं। तब, अन्य टीकानों की भाति, पडिनाटीकाएँ हैं-न्यायमरिणदीपिका और अर्थप्रकाशिका। चार्य जी वाक्यों और वाक्यांशों प्रादि प्रथम पद को
अर्थप्रकाशिका के लेखक पण्डिताचार्य अभिनवचारु- नतामरेत्यादि, श्रीमदित्यादि-मे लेते चलते है और उनकी कीति हैं। ये अठारहवीं शती ई० में कभी, श्रवणबेलगुल व्याख्या करते चलते हैं। परिच्छेदों की ममाप्ति पर उपके मठाधीश रहे हैं । वहां के मठ की यह पद्धति थी पोर संहारात्मक श्लोक आदि न लिखकर 'इति प्रथम. परिभी विद्यमान है कि उसके भट्टारक की गद्दी पर जो भी च्छेदः' जैमा संक्षिप्त वाक्य ही लिख देते है और तत्काल पासीन हो उसी का नाम पण्डिताचार्य चारुकीति हो जाता 'अथ द्वितीयः परिचन्द्रद' जैसे संक्षिप्त वाक्य से ही अग्रिम है। इस नाम के एक या अनेक विद्वानों द्वारा लिखे गये नौ परिसटेट पार
पीसी दो परिमोटों के ग्रन्थों का उल्लेख मिलता है-न्यायमणिदीपिकाप्रकाश, मन्धिस्थल पर 'वद्धतां जिनशासनम' और 'भद्र भूयात् अर्थप्रकाशिका, प्रमेयरलालंकार, पार्वाभ्युदयकाव्य टीका आदि वाक्य लिखकर पूर्ण किये जाते है। ग्रन्थ के अन्त |सुबोधिका], चन्द्रप्रभचरितव्याख्यान [विद्वज्जनमनो- में कोई श्लोक, समाप्तिवाक्य या प्रन्थकार की प्रशस्ति वल्लभ], नेमिनिर्वाणकाव्य टीका, प्रादिपुराण, यशोधर
आदि कुछ भी नहीं है। प्रारम्भ के तीन परिच्छेद, समच चरित मौर गीतवीतराग। प्रस्तुत पण्डिताचार्य जी ने
ग्रन्थ के तीन चतुर्थांशों में समाप्त होते हैं और शेष तीन अपना परिचय स्वयं नहीं दिया है। यह खेद का विषय है परिच्छेद अपेक्षाकृत संक्षिप्त कर दिये है। कि इतने निकट प्रतीत-लगभग डेढ़ सौ वर्ष पूर्व में हुए
व्याख्या के अन्तर्गत, विषय का विस्तार कम और विद्वान् का हम समूचा परिचय नहीं जुटा पा रहे है। यह स्पष्टीकरण अधिक हमा है। व्याख्येय ग्रंथ प्रमेयरत्नमाला भी खेद का विषय है कि श्रवणबेलुगुल के वर्तमान भट्टारक के प्रारम्भिक पद्यों की पूर्णतः साहित्यिक व्याख्या प्रस्तुत जी महोदय से अनेक बार नम्र निवेदन करने पर भी इस की गई है। यहां तक कि उनमें विद्यमान छन्दों और सम्बन्ध में कोई सहायता, कोई उत्तर भी मुझे प्राप्त नहीं अलंकारों का भी सलक्षण निर्देश किया गया है। स्थानहो सका। क्या ही अच्छा होता कि श्रवणबेलुगुल के भट्टा- स्थान पर 'तदुक्त' प्रादि द्वारा शतशः उदधरण दिये गये रकों की परम्परा इतिहासबद्ध की जाती और उससे है पर उनके मूल स्थलों का निर्देश कदाचित् ही हमा है। विद्वत्समाज लाभान्वित होता।
नव्यन्याय की शैली में होने से एक अनोखापन तो हम ग्रंथ अर्थप्रकाशिका का प्राकार प्रमेयरत्नमाला से लगभग में अवश्य है परन्तु कुल मिलाकर न्यायमणिदीपिका की द्विगुणित और न्यायमणिदीपिका का दो तिहाई, अर्थात् भांति यह न तो अर्थबोधक ही बन सका है और न विषयतीन हजार चार सौ मनुष्टुप श्लोकों के बराबर है। ग्रन्थ विश्लेषक ही । इसका कारण यह प्रतीन होता है कि यह का प्रारम्भ भगवान् नेमिनाथ की वन्दना से किया गया पण्डिताचार्य जी की प्रारम्भिक कृति रही होगी। हम है। फिर कहा गया है कि प्रमेयरत्नमाला की हजारों व्याख्या के माध्यम से प्रमेयरत्नमाला को और प्रमेयरन
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अंतरिक्ष पार्श्वनाथ श्रीपुर तथा श्रीपुर पार्श्वनाथ स्तोत्र
पं० नेमचन्द धन्नूसा जैन, देउलगांव अप्रैल के अनेकान्त के अंक में 'श्रापुर, निर्वाणभक्ति कथानको के बारे में मेरा अनुमान है कि जितनी भी पौर कुन्दकुन्द' यह लेख डा. विद्याधर जी ने लिखकर इस क्षेत्र की बाबत कथा उपलब्ध हैं उनमें एक भी पर्याप्त निर्वाणभक्ति के समय और कर्तृत्व पर तथा शिलालेख नहीं हैं। कई कथाएँ सिर्फ इस क्षेत्र का महात्म्प सुनकर मंग्रह से उद्धृत श्रीपुर पर जो प्रकाश डाला उसके लिए अन्य स्थान से ही लिखी गयी हैं। कई कथाएँ एक-दूसरे मैं उनका आभारी हूँ।
का अनुमरण करके या प्रभाव में प्राकर के लिखी गई फरवरी के अनेकान्त में मैंने जो लेख दिया था, उस हैं। सो भी उन कथामों का पूरा प्रादर करते हुए उनके का उद्देश्य था-अं० पा० श्रीपुर (शिरपुर) क्षेत्र के समय आधार पर 'समय और स्थान' पर प्रकाश डाला है। तथा स्थान पर प्रकाश डालना । लेकिन उस पर अभिप्राय हमारा कथन विरुद्ध बताने के लिए जिनप्रभ सूरि की देते हुए विद्याधरजी लिखते है-'श्रीपुर मे खरदूषण कथा का उल्लेख किया है। उस कथा में ही वर्णन पाया राजा के समय में पार्श्वनाथ भगवान की प्रतिष्ठा हुई यह है किबात पुराने कथा लेखकों से एकदम विरुद्ध जान पडती (१) पोखर या कूप में से जो प्रतिमा निकली वह है। आदि।
भावी तीर्थंकर पार्श्वनाथ की थी।
माला के माध्यम से परीक्षामुख को अच्छी तरह हृदयंगम श्रीमन्नेमिजिनेन्द्रस्य वन्दित्वा पदपङ्कजम् । करके ही उन्होंने प्रमेयरत्नालंकार लिखा होगा तभी तो प्रमेयरत्नमालार्थ. संक्षेपेणः विरच्यते ॥१॥ उममें इनकी प्रखर विद्वत्ता सामने आई है।
प्रमेयरत्नमालाया व्याख्यास्सन्ति सहस्रशः । अर्थप्रकाशिका अभी तक-मुद्रित नहीं हुई है। इसकी तथापि पण्डिताचार्यकृतिािंव कोविदः ।।२।। एक हस्तलिखित प्रति मेरे पास है। यह श्री जैन सिद्धात भानी देदीप्यमाने ऽपि सर्वलोकप्रकाशके। भवन, पारा की संपत्ति है और वहां इसका वेष्टन नं. न गृह्यते किं भुवने जनेन करदीपिका ॥३॥ म्व २२१ है। इस प्रति में ८॥"+६॥" प्राकार के २४६॥ और यह देखिये अंतिम ग्रंशपत्र हैं और प्रत्येक पत्र में २२ पंक्तियां तथा प्रति पंक्ति "श्रीमत्सुरासुर वृन्दवन्दितपादपाथोज श्रीमन्नेमीश्वर लगभग २० प्रक्षर है । कागज मोटा, चिकना और काफी समुत्पत्ति पवित्री कृतगौतमगोत्रसमुद्भूताहतविज श्री ब्रह्माअच्छी स्थिति में है। इसके लिपिकार हैं श्री विद्यार्थी सूरि शास्त्रितनूज श्रीमद्दोलि जिनदास शास्त्रिणामन्ते विजयचन्द्र जैन क्षत्रिय । ये, गौतम-गोत्रीय प्राहंत ब्राह्मण वासिनामेरूगिरिगोत्रोत्पन्न वि. विजयचन्द्राभिषेन जैनश्री ब्रह्मदेव मूरि शास्त्री के सुपुत्र श्री बाहुबली जिनदास क्षत्रियेणालेखीति ॥ भद्रं भूयात् ॥ श्री ।।.॥श्री॥" शास्त्री के शिष्य थे। श्री विजयचन्द्र ने लिपि की तिथि जैसा कि कहा जा चुका है, परिच्छेदों के अंत में नहीं दी है परन्तु वह पचास वर्ष से अधिक प्राचीन नहीं 'इति परिच्छेदः' के अतिरिक्त कोई पुष्पिका वाक्य प्रादि प्रनीन होती। ये अधिक प्रौढ़ भी नहीं रहे दिखते क्योंकि नहीं है। उन्होंने लिपि में बहुत-सी अशुद्धियां की हैं। इस प्रति का इसमें सन्देह नहीं कि अर्थप्रकाशिका नव्यन्याय की प्रारम्भिक अंश यह रहा है
एक महत्वपूर्ण कृति है। यह प्रभी अप्रकाशित है पर "श्री वीतरागाय नमः ॥ प्रमेयरत्नमाला ॥ अर्थ प्रकाशित होते ही विद्वन्मण्डल को इससे कुछ नवीन
प्रकाशिका ॥ सामग्री अवश्य मिलेगी।
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भनेकान्त
नहीं हो
पात किया की प्रतिम
(२) वह प्रतिमा जहां मिली वहां ही राजा ने अपने हा, यहां एक सवाल पैदा हो सकता है कि यह नाम का उल्लेख करने वाला पीपुर नगर बसाया। उल्लेख सिर्फ अकेले श्रीपुर का नहीं तो उन ८५ दिव्य
(३) अंबादेवी और क्षेत्रपाल का प्रसंग प्रादि मौर नगरों का भी है। अत: वहां भी ऐसी अंतरिक्ष प्रतिमा भी बातें हैं । इन बातों से डा० विद्याधर जी असहमत तो होने को मानना पड़ेगा । तो इसका समाधान यह ही है नहीं हो सकते, क्योंकि उन्होंने ही इस कथा को प्रमाण कि भगवान नेमिनाथ के उस जमाने में वैसा था ऐसा के जरिय उद्धृत किया है। और सहमत हैं तो बताइये कि माने तो उसमें कोई बाधा या मापत्ति नहीं पाती। भावी तीर्थकर पार्श्वनाथ की प्रतिमा मिलने वाले वह मद्रास के पास का मइलपुर (मैलपुर) एक अतिशय श्रीपाल दसवीं सदी के कैसे हो सकते है ?
क्षेत्र के नाम से जैन साहित्य में उल्लिखित है। वहां के मूलश्वे. मुनि सोमप्रभगणी (सं० १५०५) भी उस नायक भगवान नेमिनाथ 'गगन स्थित, होने का वहां के श्रीपाल का समय भ. पाश्वनाथ के पूर्व का ही मानते स्तोत्र में स्पष्ट सूचित किया है। देखो उस स्तोत्र के हैं। फिर प्रतिमाजी की स्थापना कब की ?
पहले श्लोक का उत्तर चरण यह है-'हेमनिमितमंदिरे बाबू कामताप्रसादजी-अंतरिक्ष पार्श्वनाथ क्षेत्र के 'गगन स्थितं' हितकारणं, नेमिनाथमहं चिरं प्रणमामि नील स्थान पर भगवान पाश्वनाथ का ममवशरण महित पाग- महत्विषम् ॥१॥ मन होने को सूचित करते हैं । तो फिर श्रीपुर कब का? अतः भारत में ऐसे अनेक स्थल रहें तो उसमें बाधिक
"माज जहां भगवान विराजमान हैं उसी भोयरे में कुछ भी नहीं। इसलिए मैंने जो अनुमान किया कि इस मूर्ति की स्थापना संवत ५५५ के वैशाख शु० ११ को
अंतरिक्ष पार्श्वनाथ श्रीपुर का अस्तित्व भ. पार्श्वनाथ के
. हुई थी।" ऐसा अकोला जिले के सन १९११ के गॅजेटियर
पहले से है तो इसमें कथा का विरोध कैसे पाया ? में निश्चित लिखा है। तो क्या उस लेखक के पास इस
शिलालेखांतर्गत श्रीपुर का उल्लेख इस क्षेत्र बावत बाबत कोई प्रमाण नहीं पाया होगा?
नहीं होगा तो जाने दो, उसके लिए हमारा कोई हट श्रीपुर नाम के अन्य दो नगरों का मापने उल्लेख नहा है। किया, और संदर्भ देखकर कथन करने को सूचित किया। अब दूसरा मुद्दा है 'स्थान' का-कहीं उस धारवाड़ इसके लिए ऋणी हूँ। धीपुर नाम के उतने ही गांव नहीं जिले का श्रीपुर इस मूर्ति का मूल-स्थान है (जहां एक और भी हैं। एक नन्दुरबार के पास (गुजरात में) श्रीपुर राजा को मिली) बताते हैं। तो कहां लिखा जाता है कि (शिरपुर) है कि जहां के खेतों में श्वेताम्बर मूर्तियां अं० पा० श्रीपुर मैमूर या धारवाड़ जिले में कहीं होगा। मिली है। एक सोलापुर (महाराष्ट्र) के पास श्रीपुर है इस बाबत पं० दरबारीलाल जो कोठिया से पत्र व्यवहार
और एक वर्षा के पास श्रीपुर का उल्लेख यादव माधव किया और मुलाकात भी हुई। मगर अापने लिखाकषि करते हैं।
'माप अपने विचार प्रकाशित कीजिए। उस पर मैं विचार फिर कौन से श्रीपूर का उल्लेख ग्रन्थों में मिलता है करूंगा।' प्रतः मुझे भनेकान्त का प्राश्रय लेना पड़ा। यह कैसे समझना ? जिनसेन भाचार्य (८वीं सदी) जिन माश्चर्य यह था कि सन् १९६२ में आप कारंजा पधारे दिव्य नगरों में श्रीपुर का उल्लेख करते हैं वहां वे लिखते थे और मथुरा जैन संघ के अधिवेशन में इस क्षेत्र की हैं कि उस नगर में एक जिनालय होता है, वहां की चर्चा हुई है और जातिया आप अंतरिक्ष भगवान का प्रतिमा माकाश में प्रघर होती है
दर्शन ले पाये हैं तो भी मांखों देखे दृश्य पर आपको "तत्रस्थापि शान्दिनिष्क्रिम्य नमस्यमी। विश्वास नहीं पाया। बस यही हाल पुराने कथा लेखक .. बपोपदिष्टा दृश्यन्ते सन्मुखीभूय पश्यताम् ॥"११
के हुए होंगे, थोड़ा भी कथन वे टाल नहीं सके। इसको
१३६.५७ चर्चा पागे कर रहा है। तो क्या यह श्रीपुर अंतरिक्ष का श्रीपुर नहीं हो कोई विद्वान यह मूर्ति एलोरा से एलिचपुर जाते
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अंतरिक्ष पार्वनाम भीपुर तथा बीपुर पाश्र्वनाम स्तोत्र
समय जहां रुकी वहां ही आज अंतरिक्ष पार्श्वनाथ श्रीपुर पीछे देखा कि क्यों रुकी। ऐमा मानने में कोई मापत्ति हैं, ऐसा मानते हैं।
नहीं पाती । ऐसे कई उदाहरण हैं कि मूर्ति दूसरे स्थान जहां तक इस क्षेत्र के केवल माज के स्थान का संबंध पर से अपने स्थान परया गांव में प्रा गई। तो वहां है, वहां तक यह निविवाद है, कि यह अंतरिक्षजी का ही अचल हो गई। इसके लिए वे अपने गांव का भी धीपुर महाराष्ट्र स्टेट के अकोला जिले में है और उसका उदाहरण देते थे। अस्तित्व कम से कम दसवीं शताब्दी से तो आज तक इस तरह अंतरिक्ष पाश्वनाथ के अस्तित्व का समय, प्रखंड है।
स्थान तथा घटना इस पर कथानकों के आधार से ही प्रकाश अब विवाद है कि दसवीं शताब्दी के एक श्रीपाल डाला गया है। लेकिन एक प्रसंग का विरोध भी किया राजा ने अगर यह नगर बसाया तो पहले इस मूर्ति का है। वह प्रसंग है-'खरदूषण (कहीं माली मुमाली) राजा वह कूप या पोखर (जहां यह मूनि राजा को मिली और ने बालू की प्रतिमा बनाकर पूजन के बाद उसको जलकूप उस जल स्नान से राजा का कोड़ गया) कहां था? में विसजित कर दी। और इसका विरोध करने का डा० विद्याधरजी के ही शब्दों में 'पौर प्रतिमा मिलने महत्वपूर्ण कारण
र महत्वपूर्ण कारण यह है कि, वह प्रतिमा मजबूत पाषाण पर राजा ने 'वहा' अपने नाम से श्रीपर नगर जमाया की है यह अनेक प्रसंगों में और अनेक प्रमाणों से सिद्ध (यहां प्रतिमा रुकने 'पर' नहीं है), तथा जिनप्रभ मूरि।
हमा है। अतः वह प्रतिमा बालू की बनाई थी इस पर के उद्धृत शब्दों मे 'तत्थेव' (तत्रैव) इस शब्द से तो यह
विश्वास नही बैठता और जहाँ वह प्रतिमा पाषाण की सुनिश्चित होता है कि, जहां राजा का कोड गया और
ठहरती, वहां वह उतने कम समय में और बिना शिल्पकार प्रतिमा मिली वहां ही उस प्रतिमा की स्थापना हुई।
के नहीं बन सकती। अतः इस पर अधिक सोचने पर याने वह कप या पोखर कहीं मैसूर, धारवाड या एलोरा मालूम पड़ता
मालूम पड़ता है कि वह कथन कोई एक की ही कल्पना जैसे दूर अन्य स्थान में नहीं हो सकता। अतः वह प्रतिमा
होगी या भक्ति तथा सम्यक्त्व का महिमा बढ़ाने के लिए राजा को श्रीपुर के ही पौली मंदिर के कूप मे मिली राम
रचित कथा होगी और उसका ही अनुकरण शेष लेखकों होगी इस अनुमान में कथा का विरोधी कहां पाया? न
? ने किया होगा। विनयराज ने भी (संवत् १७३८) यही बतलाया है कि कालक्रम से इस क्षेत्र का प्रथम उल्लेख करने वाले राजा ने उद्यान के कूप से यह प्रतिमा निकाली। महाप्रामाणिक चूडामणि दिगंबराचार्य मुनि मदनकीर्ति
तीसरी बात-'प्रचीकरच्च प्रोत्तुग प्रासादं प्रतिमो- इस क्षेत्र के उत्पत्ति और समय पर नहीं लिखते इसका परि ।' इस सोमप्रभ गणी के कथन के अनुसार ही मेरा भी पर्थ उस समय इस क्षेत्र के नये उत्पत्ति की भ्रामक अनुमान है कि मूर्ति एलिचपुर ले जाते समय वह जहा कल्पना नहीं थी। रुकी (वह उसकी पहली जयह होगी जैसा कि गॅजेटिभर अपरंच, श्रीपुर पार्श्वनाथ स्तोत्र के श्रीपुर के साथ में उल्लेख है) वहां से वह चलायमान नहीं हुयी। और पं० दरबारीलाल जी ने जो सम्बन्ध इम राजा के कथाराजा मंदिर वहां न बांधते बगीचे में पौली मंदिर नक के साथ जुड़ाया है, मानना होगा कि एक तो वह बंधाया इसलिए प्रतिमा उसमें विराजमान नहीं हुई। प्रतः सम्बन्ध गलत होगा, या तो वह श्रीपुर भी यही विदर्भ का गांव में प्रतिमा के ऊपर ही मंदिर बांधा गया। यहां श्रीपुर होगा । जैसा कि पं० जिनदास पार्श्वनाथ फडकुले राजा को गर्व होने का सवाल ही पैदा नहीं होता। वह ने इम स्तोत्र के श्रीपुर को विदर्भ का श्रीपुर अंतरिक्ष भ्रामक कल्पना बाद में शामिल हुई होगी। क्योंकि गर्व पार्श्वनाथ ही माना है । इसका दूसरा पहलू यह भी है होने का उल्लेख प्राचीन कथा में नहीं है। प्रो. खुशाल- कि इस स्तोत्र का रचना समय तथा कर्तृत्व भी प्रभी चन्दजी गोरावाला कहते थे कि, मूर्ति अपने मूलस्थान अनिश्चित या विवादस्थ है। श्री० पा० स्तोत्र के प्रकाशपर मायी तब रुक गयी और रुकी इसीलिए राजा ने कीय वक्तव्य में पं० जुगल किशोर जी मुख्तार लिखते हैं
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१०२
अनेकान्त
कि "प्रतः मेरी राय में इस..स्तोत्र का कर्तृत्व विषय प्रभी का उल्लेख तो कई पट्टावली में है। लेकिन यहां प्रथम विशेप विचार के लिए खुला है और उस तरफ विशेष अमरकीति और उनके शिष्य वादि विद्यानन्दी स्वामी का अनुसंधान कार्य होना चाहिए।"
उल्लेख विशेष है । वि.विद्यानन्द की मृत्यु सं० १५९८ जिंतूर (जिला परभणी) की एक पुरानी पोथी में से
में हुई है । वे पट्ट पर ७५ साल तक होंगे ऐसा समझ लिया हुमा बलात्कारगण पट्टावली का कुछ भाग आगे
तो भी अलाउद्दीन खिलजी का काल सं० १५२३-२४ देता हूँ। प्राशा है वह इस संबंध में कुछ उपयुक्त होगा।
__यह नहीं है। खिलजी अलाउद्दीन को अलाउद्दीन सुलतान
यह नहा 'श्री मूलसंघ श्रीमालतिलकाय वरेण्यानां, परपरा- भी कहते हैं। वह सं० १३५१ से १३७१ तक गद्दी पर प्रवर्तित मलयखेड महिसिंहासनयोग्यानां, श्रीमदराय राज- था। अर्थात् पलाउद्दीन मान्य विद्यानन्दी स्वतन्त्र है, और वे गुरू वसुन्धराचार्यवयं महावादवादीश्वररायवादी पितामह- अमरकीर्ति के शिष्य भी है। प्रतः श्रीपुर पार्श्वनाथ स्तोत्र सकलविद्वज्जन चक्रवर्तीना, 'श्रीमदमरकीति' राऊला याग्र
इनकी ही कृति होगी, जैसाकि इस स्तोत्र के अंतिम पुष्पिका मुख्यानां । स्वभुजो पगक्रमोपाजित जयरमाविराजमान
वाक्य में बताया है-इति श्रीमदमरकीतियतीर प्रिय चारुदोर्दण्डमंडित-प्रशस्त - समस्त-वैरिभूपाल - मानमर्दन
शिष्य श्रीमद्विद्यानन्दस्वामीविरचित श्रीपुर पार्श्वनाथ प्रचंडाशेप तुरखराजाधिराज अलावदीन सुलतान मान्य।
स्तोत्र संपूर्णम् । श्रीमदभिनव 'वादिविद्यानंदी' स्वामीनां । तत्पट्टोदय
इन प्रथम विद्यानन्दी का काल इससे सं० १३६० से दिवाकर 'श्रीमदमरकीति' देवानां । तत्पट्टोदयाद्रि दिवा
I सं० १४०० तक हो सकता। और इनके शिष्य अमरकीति करायमान प्रथमवचनवण्डय 'वादीन्द्र विशालकीति' भट्टा
- (द्वि०) तथा विशालकीति इनका काल एकेकका ६०रकानां तत्पट्रोदयाद्रि दिवाकरायमान श्रीमदभिनव वादि
६५ साल मानो तो विद्यानन्दी और विद्यानन्द ये दो विद्यानन्द' स्वामीनां । तत्पद्रोदयाद्रि दिवाकरायान-नित्या
स्वतन्त्र व्यक्ति ठहरते है। वैसे तो विद्यानन्दी और द्यकांत वादि प्रथम वचन खण्डन प्रवचण रचनाडम्बर
विद्यानन्द नाम में खास फरक नहीं हैं, क्योंकि एक षड्दर्शन स्थापनाचार्य षट् तर्क चक्रेश्वर श्रीमंत्रषादि
ही लेख में एकही व्यक्ति के लिए दोनों नाम आते हैं। 'श्रीमद्देवेंद्रकीति' देवानां। तत्पट्रोदय देवगिरि-परमत...
प्रतः काल भिन्नता से ही ये स्वतन्त्र दो व्यक्ति सिद्ध होते ..'सार्थकनाम भट्टारक श्रीमद् धर्मचन्द्र देवानां । तत्पट्टो
है । प्रस्तु, दयाचल...."भट्टारक 'श्रीधर्मभूषण' देवानां । तत्पट्ट... 'श्रीमद्देवेन्द्रकीति' देवानां । तत्प?............"भट्टारक प्रसंगवश यहा यह निवेदन करना उचित 'श्रीकुमुदचन्द्र' देवानां । तत्पट्ट भास्करायमान ''भट्टारक समझता हूँ कि रामगिरि शब्द के वाच्य जैन साहित्य 'श्रीधर्मचन्द्र' देवानां । तत्प? श्री....... दिवाकरायमान में अनेक हैं । जैसे-रामटेक, रामकुण्ड, रामकोण्ड, भट्टारक श्रीमलयखेड सिहासनाधीश्वर भट्टारक 'श्रीधर्म- गिरणार प्रादि । इसका समर्थन प्रेमीजी करते हैं भूषण' देवानां 'श्रीमद्देवेन्द्रकीति' तपोराज्याभ्युदय समृद्धि कि-'हमारे देश में राम शब्द इतना पूज्य है कि उसे सिद्धिरस्तु ।
किसी भी पूज्य तीर्थ के लिए विशेषण रूप से देना अनुइसमें दो प्रमरकीति तथा दो विद्यानन्द का उल्लेख चित भी नहीं।' प्रतः लक्ष्मी मठः स्तोत्र का उल्लेख है। द्वितीय अमरकीति-विशालकीति-विद्यानन्द मादि शिरपुर के बाबत करना अनुचित नहीं होगा।
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आचार और विचार
डा० प्रद्युम्नकुमार जैन, ज्ञानपुर
[ आज मानवता के सामने यह समस्या है : क्या जीवन की भिन्न-भिन्न धार्मिक पद्धतियां परस्पर असंगत है ? क्या उनमें समन्वय लाने का कुछ प्राधार सम्भव नहीं ? लेखक के विचार से वह समन्वय विचार की प्रनैकान्तिक तात्विकता को ग्रहण करने से हो सकता है और एक विश्व-धर्म का प्राधार सम्भव बनाया जा सकता है । - लेखक ]
'
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कहा जाता है कि पर्व ही जीवन है। संघर्ष और जीवन का तादात्म्य है। इस कहावत में केवल दो पद ही विचारणीय है-संघर्ष और जीवन कहावत का मूल प्राय यही लगता है कि इन दोनों पदों में अर्थ-भिन्य नहीं है। दोनों एक ही चीज के दो नाम हैं। संघर्ष एक प्रक्रिया का द्योतक है। इस प्रक्रिया में दो बातें है एक पर का निरोध और दूसरी स्व का विकास तो कहावत के अनुसार, यह पर का निरोध और स्त्र का विकास ही जीवन है। स्य और पर के परस्पर अभियोजन का नाम जीवन है। इसमें एक प्रक्रिया है, अभियोजन जिसका हेतु है। इस अभियोजनशील प्रक्रिया के दो किनारे है-स्व और पर जब तक वह प्रक्रिया स्व-अनुभूत है, । यह जीवन है और जीवन का विकास भी परानुभूत प्रक्रिया मौत है, पतन है यतः जीवन और मौत इस प्रक्रिया के पहलू हैं। जीवंत प्रक्रिया में पर का निराकरण है और मृत प्रकिया में स्व का निराकरण । 'पर' पर 'स्व' की विजय जीवन और 'स्व' पर 'पर' की विजय मौत है। मौत स्व का पूरा निराकरण है । प्रतः स्वानुभूति मौत में निराधित है। अब चूंकि मौत में स्व की अनुभूति नहीं, अतः स्व के प्रभाव में संघर्ष की इति है। इस प्रकार स्वानुभूति ही संघर्ष की घात्री है। स्व की विजय ही जीवन है। स्व इस तरह जीवन का प्रतीक हुमा मौर स्वानुभूति जीवन का आधार इसीलिए स्वानुभूति पर प्राचित जीवन और संघर्ष का तादात्म्य है। और तब यह कि संघर्ष ही जीवन है-एक सत्य धारणा है।
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अब चूंकि जीवन स्वानुभूति पर भाषित है और
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स्वानुभूति पर प्रमङ्गाश्रित है, क्योंकि 'पर' 'स्व' का एक विरोधी विकल्प है और 'पर' की अपेक्षा ही 'स्व' स्व है । अतः पर और स्व के बारे में कोई भी निर्णय तभी वैध होगा, जबकि वह स्वानुभूति परक हो योंकि निर्णय में धान्यचेतन है और ग्रात्मचेतना स्वानुभूति में ही निहित है। स्वानुभूति इस प्रकार हमारे सम्पूर्ण निर्णयों की मूलाधार है। तर्क-प्रवाह की यह मूल-उद्गम अथवा प्रस्थान विन्दु है। स्वानुभूतिपरक होने के नाते ही सम्पूर्ण तर्क-प्रणाली जीवंत है और शीला भी वह संघर्षशीला । स्व और पर की निर्णायिका है, जिसका आदि और अंत स्वानुभूति में ही निहित है। अब चूंकि जीवन में स्वानुभूति है, और जीवन एक प्रक्रिया है अतः जीवंत प्रक्रिया में स्वानुभूति अवश्य है। यह क्रिया जब स्व की ओर उन्मुख है तो वह विकास है और जब पर की मोर, तो पतन । जिन्दादिल व्यक्ति का प्रत्येक प्रयत्न विकास की छटपटाहट है । धर्म श्रौर आचार इमी छटपटाहट का नतीजा है।
अब हम कह सकते हैं कि आचार एक अभिप्रेरित प्रक्रिया है। अभिप्रेरण में एक ध्येय है और एक भावश्यकता की अनुभूति भी ध्येय विचार पर माथित है। अतः निश्चय ही, आचार और विचार में नियत साहचर्य है एतदर्थ धाचार एक अभिप्रेरित विचार प्रक्रिया है। आचार प्रक्रिया में अवश्य ही विचारालोक अपेक्षित है। किया बिना विचार के बंधी होती है। ऐसी क्रिया प्राचार के अंतर्गत नहीं आती। यह भी सही है, कि यदि कोई प्रचारगत प्रकिया बाद में विचारशून्य हो जाए,
तो वह
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अनेकान्त
रूढ़ि हो जाता है। रूढ़ि माचार का जनाजा है। रूढ़ि उन क्रियामों को प्राचार की श्रेणी में नहीं रखा जा को धर्म समझने वाले व्यक्ति प्रज्ञानी है, मदांध (fantic) सकता, जिससे विकास रुद्ध हो। पाचरणगत धारामों के हैं। इसीलिए भारतीय मनीषियों की निगाह में धर्म और क्रियान्वय में प्रत्येक पग पर विचार का समर्थन मावश्यक दर्शन भिन्न चीजें नहीं, तस्वतः एक ही हैं। शुद्धाचार है। इस समर्थन में यह निर्णय निहित रहना अनिवार्य है, इनमें से किसी की उपेक्षा नहीं कर सकता।
कि अमुक क्रिया प्रस्तुत देश-काल-परिस्थिति में व्यक्ति विचार स्व की प्रात्मचेतना का परिणाम है। चेतना की वर्तमान अवस्था से संगति रखती है। एक समुद्र है, विचार उसकी लहरें और अनुभूति उसकी अपने उपरोक्त विचार को अब हम और अधिक गहराई। प्रात्मचेतन स्व अपनी उच्छ्वसित गहराई से स्पष्ट करते हैं। प्राचार का मूलभूत प्रेरक तत्त्व है 'व्यक्ति मुक्त पाकाश और उन्मुक्त काल की परिधि में अपनी की जीने की इच्छा ।' जो जिस स्तर पर है वह उसी के सामानों की संरचना करता है। क्योंकि जब वह अपनी अनुसार अमर हो जाने की इच्छा रखता है। उस अमरत्व गहराई से बाहर निकल उस भीमाकाश को झाँकता है, की इक्छा से 'शक्ति सम्पन्न होने की इच्छा' उद्भूत होती तो अपनी व्यापक गहनता को भूल इस बाह्य की विरा- है। जितनी ही शक्ति-सम्पन्नता बढ़ती है, उतनी ही टता से अभिभूत हो जाता है। अपने को तुच्छ समझने अन्तर में प्रानन्द तत्व की वद्धि होती है। इसी प्रकार का भाव मम्पूर्ण स्व में व्याप्त हो जाता है। एतदर्थ भय व्यक्ति में विकास प्रक्रिया जीने की इच्छा से प्रारम्भ का संचार होता है और स्व शून्य से घबड़ा कर प्रात्मरक्षा होकर अधिकाधिक प्रानन्द-वदि के लक्ष्य में प्रबुद्ध होती में संलग्न होना प्रारम्भ कर देता है। उसकी महत्वा- रहती है। प्राचार इसी प्रक्रिया का सिंचन प्रपनी विभिन्न काक्षाएं दबने लगती है। तभी विचार की लहरों पर धारामों से करता है। अतः प्राचार्य की सम्पूर्ण कार्यनाचता हुमा प्राचार का कलरव प्रात्मगौरव का भूला प्रणाली विकास-प्रक्रिया की अभिवृद्धि हेतु है जिसकी राग पुनः प्रलापता है; और उसके उद्बोधन पर दबती कसौटी आनन्द वृद्धि है। अतः सम्पूर्ण प्राचार शास्त्र हई महत्वाकांक्षाएं पुनः जागरुक हो उठती हैं। परन्तु जीवन के इस मुलभत तत्त्व से सापेक्ष है। उसका सत्य प्राचार का उद्बोधन देश-काल-सापेक्ष होता है। स्व-सत्ता निरपेक्ष नहीं. जो किसी व्यक्ति को एकान्तिक रूप से सब के साथ पर सत्तागत महत्वाकांक्षाओं की प्रतियोगिता कालों और स्थानों में एक तरह कुछ करने के लिए मजहोती है। उनके रलन चलन से नई-नई परिस्थितियां बर करे । इसीलिए हम देखते हैं कि भिन्न-भिन्न स्थानों उत्पन्न होती है। प्रत्येक सत्ता उन्हीं नवजात परिस्थितियों और समयों में उत्पन्न हए धर्मों के प्राचार शास्त्रों में में मात्मरक्षा के उद्देश्य से अपने-अपने प्राचार शास्त्र का काफी भिन्नता है । इस्लाम धर्म का प्राचार शास्त्र भारनिर्माण करती हैं और अपने प्रात्मगौरव का निशान ऊँचा तीय धर्मों के प्राचार से बिल्कुल भिन्न है। कारण स्पष्ट करने का उद्योग करती है।
हैं। यहाँ तक कि बौद्धधर्म का प्राचार जो भारत में रहा .. प्रस्तु, प्राचार का तात्विक कलेवर अनेकान्तिक है, बिल्कुल उसी रूप में विदेशों में कार्यान्वित नहीं हो सका। कान्तिक (Absolute) नहीं। माचार की कोई धारा बौद्धाचार्यों को उसमें देश-काल-परिस्थिति के अनुसार जो एक स्थान विशेष अथवा समय विशेष के लिए मनू- सशाषन करना पड़ा। जनाचार म भा पारास्थात क अनुकूल है अथवा प्रात्मोकर्ष में सहायक है, यह आवश्यक कूल बाद में संशोधन हुप्रा और उसी आधार पर उसमें नहीं, वह उतनी ही अनुकूल अन्य स्थान विशेष अथवा सम्प्रदाय उत्पन्न हुए। तात्पर्य यह, कि प्राचार के तथ्य समय-विशेष के लिए भी होगी। प्राचार तो केवल जीवन ऐकान्तिक सत्य नहीं हो सकते। की प्रांतरिक शक्तियों के विकास के लिए होता है। जीने की इच्छा प्रत्येक व्यक्ति में समान रूप से पाई शाक्तियों के विकास द्वारा व्यक्ति के अंतरंग में प्रानन्द- जाती है, परन्तु फिर भी उसकी अभिव्यक्ति के प्रतिमान तत्व का प्रस्फुरण होता है जो स्वानुभूति परक है। प्रतः प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में उनके विचार परिपक्वण के
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प्राचार और विचार
भिन्न-भिन्न स्तरों के आधार पर भिन्न-भिन्न उपलब्ध होते हैं। मनुष्यों में मोटे रूप से हम तीन स्तरों को मान्य किए लेते हैं । एक स्तर वह है जिसमें मनुष्य शारीरिक मावश्यकताओं से अधिक कुछ सोचने में समर्थ नहीं है। इसे शारीरिक या भौतिक स्तर भी कह सकते है । दूसरा स्तर वह है, जिसमें व्यक्ति स्कंधों के मध्य विभिन्न प्रकार के कारण कार्य सम्बन्धों के प्रति जिज्ञासु हैं। इसे मानमिक स्तर कह सकते हैं और तीसरा स्तर वह जिसमें व्यक्ति स्व की समस्याओं के समाधान में और अपनी निरपेक्ष इकाई की ग्वोज में लीन दिखाई पड़ता है । इसे आध्यात्मिक स्तर कह सकते है प्रत्येक स्तर पर मनुष्य ग्रानन्द की खोज में रत है और विकास करने के लिए उद्यत । अतः प्रत्येक स्तर का आचार शास्त्र अपना-अपना होगा । श्रौर वह वहीं पर अनुकूल भी होगा । इसीलिए सार्वभौमिक आचार शास्त्र में श्रेणी बढना का होना अनिवार्य है और यह श्रेणी - विभाजन विचार जनित विभाज्य धर्मो के आधार पर ही हो सकता है। विचार प्रचार का अनन्य सहचर है ।
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जो जीव जिस स्तर पर है वह स्तर उसके जीने का आधार है । अतः उसके जीने की स्पृहा का पूरा रूवाल रखते हुए उसके लिए प्रचार का प्रणयन होना चाहिए । भौतिक स्तर के मनुष्य को साध्यात्मिक स्तर की बात
जगत होगी। ऐसे मनुष्य को यह उपदेश, कि यह प्रात्मसाधना करे और पूर्ण त्यागी हो जाए, अनुकूल नहीं पड़ेगा। उसके लिए तो यही उपदेश कि वह किस प्रकार अपनी व्यवस्थित ढंग से रोटी कमाए और अन्य लोगों के साथ कैसे सद्व्यवहार करे काफी होगा उसी प्रकार धन्य-धन्य स्तरों के प्राणियों के लिए भी वस्तुतः हम किसी भी प्राचारगत नियम को एकान्त रूप से स्थापित कर ही नही सकते एक कसाई को जब पहिया का उपदेश दिया जाएगा, तो यह कि वह कम से कम अपनी श्रावश्यकता के अनुसार जीव हिसा करे। एक योद्धा से युद्धविरत होने रूप हिंसा का उपदेश नहीं किया जा सकता। यह उसके स्तर के अनुकूल नहीं है। उससे यही कहा जा सकता है कि वह न्यायपूर्ण युद्ध करे जैनाचार में एक सल्लेखना का व्रत है, जिसमे साधु इच्छापूर्वक
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मरण स्वीकार करता है। यह व्रत आध्यात्मिक स्तर की पराकाष्ठा पर पहुँचे हुए साधक के लिए ही संगत है । जो साधक स्थूल शरीर से परे अपने सूक्ष्म शरीर के माध्यम से जीने में समर्थ हो गया है, जिसने अपनी निर पेक्ष इकाई की पूर्ण अनुभूति कर ली है, उसके लिए स्थूल शरीर एक खोल मात्र है, जिसे वह सल्लेखना के द्वारा जब चाहे छोड़ सकता है। परन्तु यदि कोई प्राणी निम्न स्तर पर है तो वह सल्लेखना व्रत पाल ही नहीं सकता । और यदि वह भावावेश में पालने को तैयार ही हो जाए तो वह कृत्य आत्महत्या के अतिरिक्त और कुछ नहीं होगा । इसीलिए भगवान बुद्ध ने कहा कि वह पात्र की पापता देख कर ही उसे अदनुसार उपदेश करते हैं। आचार शास्त्र की सत्ता वस्तु सत्य से परे नही हो सकती, इसीलिए उसका एकान्त सत्य भी कदापि सम्भव नहीं । परन्तु व्यवहार में हम प्रायः यह भूल जाते हैं। अभी हाल में कुछ नैतिक आन्दोलनों की चर्चा सुनने व देखने में आई है। उनमें भी यही भूल पूर्णरूपेण देखने को मिलती है। प्रायः आन्दोलनका प्राचार्य बिना पात्र की प पर विचार किए हुए सामूहिक रूप से व्रतों की प्रतिज्ञा करवाता है, जो उस समय तो भावावेश में, तथा प्राचार्य के प्रभावशाली व्यक्तित्व के कारण हो जाती है परन्तु उन प्रतिज्ञानों का पालन प्रागे होगा ही, यह न तो सम्भव है पर देश-काल की बदली परिस्थिति में मावश्यक ही है । हम प्रायः एकान्त में बैठ कर पहले अच्छे-अच्छे सिद्धान्तों की सारिणी तैयार करते हैं और तब उसे जन
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जीवन में लागू करने निकलते हैं। परन्तु कार्य की यह निगमनात्मक पद्धति अधिक सार्थक नहीं लगती । वस्तुत: जन जीवन में उतर कर ही आचार शास्त्र के नियम विकमित होना अधिक श्रेयस्कर होता है, जैसा कि युग पुरुष साथी ने किया। प्राचार्य भावे भी बहुत कुछ महात्मा गांधी के मार्ग पर हैं । अतीत में भगवान बुद्ध भगवान महावीर उधर अरब में पैगम्बर मुहम्मद ने इसी श्रागमन पद्धति से काम लिया और वे सफल भी हुए। महावीर अपने मुख्य उपदेश देने से पूर्व एक लम्बे समय तक मोनावस्था में जन जीवन का अध्ययन करते हुए बिहार करते रहे। इस मौन का अपना एक महत्व है जिसे
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भुलाया नहीं जा सकता ।
जब पात्र की पात्रता पर विचार किए बिना उसे किसी ऊँची आाचार पद्धति की देशना दी जाती है, तो वह बेचारा शब्द प्रमाण को प्रास्वानुसार अपनी वर्तमान स्थिति से विरत होकर किसी ( उसके लिए ) काल्पनिक स्थिति में विचार करने की निष्फल चेष्टा करने लगता है। उस मृगमरीचिका की दौड़ में वह तरह-तरह के ढोंग रचता है धौर अन्ततः उस धर्म की सम्पूर्ण धात्मा को बदनाम करके ही छोड़ता है। मनोवैज्ञानिक दृष्टि से वह अपनी ऐहिक मनोवासनाएँ दमित करता है और उन सब दमित वासनाओं का रूपांतरण करने की क्षमता उसमें नहीं होती। फलतः उसका अज्ञात उत्तरोत्तर प्रप्ति की अवस्था में जाता हुआ पागलपन की दिशा में प्रगति करता है । और धर्म के इस गलत व्यवहार में उसका परिणाम पागलपन होता है मस्तु मेरे सम्पूर्ण कथन का आशय यही है कि धर्म की देशना में बहुत ही सतर्कता की आवश्यकता है । इस सम्बन्ध में मैं निम्नलिखित निष्कर्षो पर पहुँचता हूँ :
अनेकान्त
१. धर्म की प्राचार पद्धति बहुत ही विशद होनी चाहिए और उसकी प्रत्येक धारा की सापेक्षता पूरी तरह स्पष्ट होनी चाहिए।
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२. धार्मिक या प्राध्यात्मिक गुरुमों की मान्यता द्यावश्यक है। गुरू ही पात्रों की पात्रता के यथार्थ निर्णायक होते हैं जो तदनुसार देशना करते हैं।
२.
प्राचार के क्षेत्र में गुरुधों की निरंकुशता न हो। यथार्थ गुरु की परख आवश्यक है। वही गुरू, मेरी निगाह में, यथार्थ है जो स्वयं वीतराग हो धौर जन साधारण के विवेक का स्वागत कर उसे उचित दिशा दे । जन साधारण अपने जागृत विवेक से गुरू की प्रत्येक बात को स्वयं तौले धौर विवेक से समझने की कोशिश करे। विवेकहीन प्राचार, चाहे वह कितने ही बड़े गुरू से क्यों न दिया गया हो, अधिक लाभकर नहीं हो सकता। इस प्रकार ग्राचार का जनतन्त्रीकरण बहुत श्रावश्यक है।
संसार के सभी आचार शास्त्रों में निहित उसकी विचार - सापेक्षता का विशद शिक्षण जन साधारण में किया जाए और सभी का यथार्थ मूल्यांकन हो ।
४.
अस्तु, इस आधार पर मुझे विश्वास है कि संसार के सभी धर्मों का समन्वय वैज्ञानिक ढंग से हो सकता है। वही विचार जो द्वैत का व्यञ्जक है यदि भाचार में ठीक प्रकार से संघटित किया जाए तो विश्व जीवन के अद्वैत सत्य की प्राप्ति का माध्यम हो सकता है ।
सम्बोधक पद
कविवर रूपचन्द नाहि न तन को तोकों चनु ।
व्यापत हि बाहार परिग्रह, मद व्यापत भयो मेनु ।
तीनो नंनु ।
यह नुसार रहित जड़ जानहि, जैसे जल को फैनु । वृथा मरत विषयनि लपटानों, जा महि लेनु न वैनु ॥२॥ पुत्र कलत्र मोह मद छायो सुमत नाहीं दिन दश भीतर चरम छांड़ि कछु काम न ग्राह रूपचंद चित चेतहि काहि न
तेरो यह सबहू है रंनु ॥ २॥ तनु धन संपति सेनु । सुनि सद्गुव के बेनु ॥३॥
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'मोह विवेक युद्ध' : एक परीक्षण
डा० रवीन्द्रकुमार जैन, तिरुपति
'बनारसी नाममाला', 'बनारसी विलास', 'समयसार उन्हें रूपक में रूपान्तरित करने की परम्परा ऋग्वेद से एवं अर्धकथानक के अतिरिक्त 'बनारसी' नामावली कुछ अद्यावधिक साहित्य में किसी न किसी रूप में प्रचलित
और भी रचनाएँ बताई जाती हैं। इन रचनामों के विषय रही है । यद्यपि हृद्गत अमूर्त भावों को मूर्त पात्रों के रूप में विद्वानों में मतभेद है। कुछ विद्वान् इन्हें प्रसिद्ध कवि में प्रस्तुत करना, उनमें एक दृश्य काव्य की योजना भरना बनारसीदास कृत मानते हैं और अन्य विचारक इस मत और सम्बादों को श्रुतिमधुर झड़ी लगा देना बहुत ही का विरोध करते हैं। 'मोह विवेक युद्ध', कुछ स्फुट पद कठिन है, परन्तु प्रौढ-प्रतिभा और अनोखी संयोजनाऔर 'माझा' (१३ पद्यों की एक रचना) में तीन रच- पटुता से हमारे वरेण्य कवियों ने यह भी अत्यन्त सफलता नाएँ विवादास्पद हैं।
पूर्वक कर ही दिखाया है। ऋग्वेद मे देवासुर संग्राम, ___ 'मोह विवेक युद्ध' नामक रचना २२० दोहा चौपा- पुरुरवा-उर्वशी पाख्यान, श्रीमद् भागवत के चतुर्थ स्कन्ध इयों में वरिणत एक छोटा सा सम्बादमय काव्य है। यह में पुरजनोपाख्यान अपनी रूपक रचना के लिए प्रसिद्ध ही एक लघु खण्ड काव्य भी कहा जा सकता है। इसमें मोह हैं। जैन ग्रन्थों में कविवर सिद्धषि की 'उपमिति भवप्रपञ्च प्रतिनायक और विवेक नायक है। दोनों में विवाद हो कथा' विश्व साहित्य की अनुपम निधि है। आदि से अन्त जाता है। अपनी-अपनी काम क्रोध, लोभादि तथा सरलता तक इस ग्रंथ में रूपक का असाधारण ढंग से निर्वाह किया दया, क्षमा एवं प्रेमादि की सेनाएँ लेकर दोनों में संग्राम गया है। होता है और अन्त में विवेक विजयी होता है। इस कृति हिन्दी में इन संवाद-रूपकों का प्रचलन श्री कृष्ण के प्रारम्भ मे कहा गया है
मिश्र (भद्र) द्वारा संस्कृत में रचे गये 'प्रबोध चन्द्रोदय' बपु मैं बरणि बनारसी, विवेक मोह को सेन। नाटक के अनुकरण से प्रारम्भ हुआ । इसकी रचना बारताहि सुनत स्रोता सबै, मन में मानहि चैन । हवीं शताब्दी में हुई। हिन्दी में कविवर मल्ल ने मर्व पूरब भये सुकवि मल्ल, लाल दास, गोपाल । प्रथम (१६हवीं शती में) इसका भावानुवाद प्रस्तुत मोह विवेक किये सु तिन्ह, वाणी बचन रसाल॥ किया । 'ज्ञान सूर्योदय नाटक' भी इसी समय का कुछ तिन तीनहु ग्रन्यनि महा, सुलभ सुलभ संषि देख। इसी प्रकार का प्रसिद्ध नाटक है। मल्ल कवि ने अनुवाद सारभूत सक्षेप अब, साधि लेत हों सेष ॥ का नाम 'प्रबोध चन्द्रोदय मोहविवेक युद्ध' रखा। यह
अर्थात् मेरे पूर्ववर्ती कवि मल्ल, लालदास और गोपाल अनुवाद इतना लोकप्रिय सिद्ध हुग्रा कि इसके पश्चात् द्वारा पृथक् पृथक् रचे गये मोह विवेक युद्ध के माधार पर कविवर लालदास और गोपालदास ने भी इसी के माधार उनका सार लेकर इस ग्रन्थ की संक्षेप में रचना करता पर 'मोह विवेक युद्ध' नामक रचनाएँ की । कहा जाता है है। उक्त तीनों ही कवियों की रचनाओं के मध्ययन के आगे चलकर प्रसिद्ध जैन कवि बनारसीदास ने भी उक्त लिए, हमें ऐसी भावात्मक रचनामों की एक विस्तृत तीनों कवियों (मल्ल, लालदास और गोपाल) की रचपरम्परा जो ऋग्वेद से ही प्रारम्भ होती है समझनी होगी, नामों के माधार पर 'मोह विवेक युद्ध' की रचना की। तभी हम इस 'मोह विवेक युद्ध के कर्ता का निर्णय भी जहाँ तक इन रूपकों की कथा वस्तु की बात है, वह इन समुचित रूप से कर सकेंगे।
___ सभी में प्रायः एकसी है, उसके संयोजन में अवश्य ही कहीं गभीर भावों को सरल एवं जनग्राह्य बनाने के लिए कहीं नाम मात्र का स्थानान्तरण हो गया है।
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अनेकान्त
विवेक नायक और मोह प्रतिनायक है। प्रतिनायक धर्म उदै मन निर्मल माज, सब सुख लिए विवेक को राज। अपनी पूरी सैन्य शक्ति लगा कर विवेक को परास्त करना लालवास परकास रस, सफल भयो सब काज॥ चाहता है। परन्तु विवेक भी असाधारण शान्ति और विस्नु भक्ति मानन्द बढयो, अति विवेक के राज । अहिंसामय सैन्य-शक्ति से सम्पन्न है, अतः मोह के प्रत्येक तब लगि जोगी जगत गुरु, जब लग रहे उदास । आक्रमण को असफल कर देता है। प्रारम्भ में मोह और जब जोगी प्रासा लग्यो, जग गुरु जोगी दास । विवेक दो नपतियों के रूप में मिलते हैं। मोह विवेक को काशी नागरी प्रचारिणी की सं० १९८० की खोज अपनी अधीनता स्वीकार कराना चाहता है। विवेक मोह रिपोर्ट में दो लालदास नामक कवियों का उल्लेख है। को अपना सेवक कहता है । बात बढ़ जाती है और दोनों एक के सम्बन्ध में लिखा है 'अयोध्या निवासी' थे, पहले नपति अपनी-अपनी सेनाए लड़ाते हैं और अन्त में मोह बरेली में रहते थे। संवत १७२३ के लगभग वर्तमान थे। परास्त होकर विवेक की अधीनता स्वीकार कर लेता है। इनके विषय मे कुछ और ज्ञात नहीं। दूसरे लालदास के काम, क्रोध, माया, ममता आदि मोह की शक्तियाँ क्रमशः सम्बन्ध में लिखा है कि प्रागरा निवासी बादशाह अकबर निष्काम, दया, सरलता और उदारता आदि की शक्तियों के समकालीन, संवत १६४३ के लगभग वर्तमान, जाति से परास्त होती हैं।
के वैश्य, स्वामी अवधदास के पुत्र थे। विचारास्पद 'मोह जहाँ तक इन कृतियों की मौलिकता का प्रश्न है, विवेक युद्ध' (बनारसीकृत) में कवि ने अपने पूर्ववर्ती इनमें इसका एक लम्बी सीमा तक अभाव है। मल्ल ने जिन लालदास का उल्लेख किया है वे आगरा निवागी तो अनुवाद मात्र किया है जो मूल कृति [संस्कृत] के लालदास ही हो सकते है। इनसे ही कवि को अपनी सम्मुख उच्छिष्ट सा लगता है। यह अनुवाद ऐसा ही है रचना के लिए प्रेरणा मिली होगी। अयोध्या और बरली जैसा राजा लक्ष्मणसिंह का 'अभिज्ञान शाकुन्तलम्' का। प्रागर से पर्याप्त दूर भी है। जिन्हें शाकुन्तल का यह अनुवाद पढ़ने का अवसर मिला तीसरा 'मोह विवेक युद्ध' कविवर गोपालकृत है इसे है, और जो मूल कृति भी पढ़ चुके है, वे जानते है कि भी दादू महाविद्यालय जयपुर में मुझे देखने का सौभाग्य इससे उन्हें कितनी निराशा होती है ? फिर भी कथानक प्राप्त हुना। इसकी लिखाई पर्याप्त स्वच्छ है । छन्द सख्या उत्तम होने से कुछ प्राकर्षण है ही। उक्त 'मोह विवेक १३१ है । अन्तिम पंक्तियाँ ये है :युद्ध' मूल रचना की तुलना में ही छोटा पड़ता है, वैसे तो गुरु दादू परसाद थे, मोह विवेक सुनाई। यह एक श्रेष्ठ रंचना ही कही जाएगी। उक्त रचना की वक्ता श्रोता भगतिफल, जन गुपाल गुन गाई ॥ हस्तलिखित प्रनि देखने का सौभाग्य मुझे जयपुर के दि. इति श्री मोह विवेक संवादे संग्राम भगति योगिनाम जैन शोध संस्थान में मिला था। लालदासकृत 'मोहविवेक प्रताप सम्पूर्ण समाप्तं । अन्य संख्या ६३३ । इस कृति का युद्ध' मल्ल कविकृत का ही संक्षिप्त रूप है-भावानवाद लिपि संवत् नहीं दिया गया है। सम्भवतः अठारहवीं शती मात्र है। इसमें १३५ चौपाइयाँ कुछ दोहों सहित है। में इमकी लिपि की गई होगी। गोपाल कवि भी बनारसी इसमें नाटक जैसी अक आदि की पद्धति नहीं है। संवादों दास जी के पूर्ववर्ती या समकालीन थे। दादू सम्प्रदाय के का क्रम प्रादि से अन्त तक रखा गया है। लालदास की संक्षिप्त परिचय में (पृ० ७६ में) श्री मंगलदास जी रचना १७वीं शती के प्रथम चरण की प्रतीत होती है। स्वामी ने गोपाल कवि की मोहविवेक रचना का उल्लेख मुझे इसकी संवत् १६६७ की एक हस्तलिखित प्रति फर किया है और संवत् १६५० से १७३० के अन्तर्गत जयपुर वरी १९५८ में श्री अगरचन्द नाहटा के विशाल ग्रन्थालय
के पास-पास उनकी स्थिति का उल्लेख किया है। इस ' में देखने को मिली थी। इस कृति की अन्तिम पंक्तियाँ कवि की रचना भी प्रबोध चन्द्रोदय के प्राधार पर ही
है-उसीका संक्षिप्त भावानुवाद है। वही वर्णन, वे ही सहज सिंहासन बैठि विवेक, सुर नर मुनि कोनी अभिषेक। दष्टान्त, उपमाएं, वे ही संवाद और कथन शैली भी प्रायः विमल बाजे लगत नीसान, सबको पावै सुख को दान॥ वही है।
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'मोह विवेकयुद्ध' : एक परीक्षण
चौथा 'मोहविवेक युद्ध' प्रसिद्ध जैन कवि बनारसी- माया मोह तजे घर वार, मोते भागि जाहि बनवास ।। दास के नाम से विख्यात है। यह वीर पुस्तक भण्डार कन्दमूल जे भछन कराही, तिनहूँ को मैं छाड़ों नाहीं। जयपुर से मुद्रित रूप में प्रकाशित भी हो चुका है । इसमें इक जागत सोवत मारू, जोगी, जती, तपी संहार। ११० चौपाइयां-दोहे हैं । वीरवाणी के वर्ष ६ के अङ्क
महादेव और मोहनी, ब्रह्मा और उनकी कन्या, इन्द्र २३-२४ में थी मगरचन्द नाहटा ने भी इसे पूरा प्रका- और उनकी गुरुपत्नी, शृंगी ऋपि और कन्दमूल फलादि गित कर दिया था। जयपुर के बड़े मन्दिर के शास्त्र
दिया था। जयपुर क बड़ मान्दर क शास्त्र का भक्षण करने वाले जोगी, जती, तपी इत्यादि की चर्चा भण्डार में इसकी पांच प्रतियाँ हैं, तीन गुटकों में और दो
जैन पुराणों में कहीं नहीं आती। ऐसे ही लोभादिक स्वतन्त्र । जयपुर में उक्त प्रतियों में से एक प्रति मुझे
(६६-६९) के अनेक प्रसंग है जिनका विवरण जैन ऐसी भी मिली जिसमें ११६ छन्द है। इस कृति का लिपि
आम्नाय से रंचमात्र भी मेल नहीं खाता । अतः निश्चित है संवत् नहीं दिया गया है। सम्भवतः १८वीं शती की
कि यह रचना प्रसिद्ध जैन कवि बनारसीदासकृत नहीं
होगी।
जैन विद्वानों में इस 'मोह विवेक युद्ध' के सम्बन्ध में इस कृति के बनारसीदासकृत होने में श्री अगरचन्द पर्याप्त मतभेद है। कुछ इसे बनारसीदासकृत मानते है नाहटा कुछ युक्तियां देते है। यथाहैं। पंडित नाथूराम प्रेमी और श्री अगरचन्द नाहटा ये
श्री जिनक्ति सबढ़ जहां, सबंव मुनिवर संग। दो विद्वान इस सम्बन्ध में उल्लेखनीय है। प्रेमी जी उक्त रचना को प्रसिद्ध कपि बनारसीदासकृत नहीं मानते, जब
कहै क्रांध तहां मैं नहीं, लग्यो सुप्रातम रंग:५८॥ कि नाहटा जी बनारसीदासकृत ही मानते हैं । उक्त दोनों
अविभचारिणी जिनभगति, प्रातम अंग सहाय । विद्वानों ने इस सम्बन्ध में अपने अपने तर्क भी प्रस्तुत
कहै काम ऐसी जहां, मेरी तहां न बसाय ॥५६॥ किये है। प्रेमी जी की मान्यता है कि बनारसीदास जी
इन पंक्तियों में जैनत्व की स्पष्ट छाप है साथ ही की अन्य रचनाएँ सभी दृष्टियो से पुष्ट हैं जबकि मोह विवेक युद्ध में भापा, विषय और शैली का भारी शैथिल्य
अन्त में 'वर्णन करत बनारसी समकित नाम सुहाय' से
भी जैन कवि बनारसीदास ही ध्वनित होते हैं। इसी दृष्टिगोचर होता है। प्रत. यह रचना उक्त कवि की
सम्बन्ध में एक बात और कही जाती है कि बनारसीदास कदापि नहीं हो सकती। हां, इसी नाम के किसी अन्य बनारसी की भले ही हो। बनारसीदास जी की प्रारम्भिक
कृत मोह विवेक युद्ध की सभी प्रतियां जैन भण्डारों में ही रचना के रूप में भी वे इसे स्वीकार नहीं करते है।
मिली है अतः इसके रचयिता जैन कवि बनारसीदास ही
हो सकते हैं। इसी प्रकार की कुछ और भी युक्तियां हैं कविवर की रचनाओं के साथ इसकी कोई तुलना नहीं हो
जिनका अब कोई महत्व नहीं रह गया है। सकती। न तो इसकी भाषा ही ठीक है और न छन्द ही। इसे उनकी प्रारम्भिक रचना मानना भी उनके साथ अभी कुछ समय पूर्व तक न जाने क्यों, संस्कारवश अन्याय करना है।" फिर बनारसीदास जी की अन्य रच- या श्रद्धावश कुछ बुधली सी ऐसी ही धारणा मेरी भी नामों में दृष्टान्त, उपमाएँ तथा पौराणिक उल्लेख प्रायः
प्रायः बंध चली थी कि उक्त रचना बनारसीदास जी की ही
- जैन पुराणों से ही पाये हैं, जबकि मोह विवेक में जितने
होनी चाहिए। इस प्रकार सम्भवतः एक रचना को भी पौराणिक उदाहरण पाये हैं वे जैन शास्त्रों-पुराणों में
बनारसीदासकृत बना कर मैंने उसके प्रति विशेष श्रद्धा कहीं नहीं आते । काम कहता है
का परिचय देना चाहा था; परन्तु ऐसा करने से मेरा महादेव मोहनी नचायो, घर में ही ब्रह्मा भरमायो। विवेक और मेरी आत्मा सदैव हिचकते भी रहे । मैं इसी सुरपति ताकी गुरु की नारी, और काम को सके संहारी॥ प्रयत्न में रहा कि जब तक कोई पुष्ट प्रमाण न मिल जाय सिंगी रिषि सेवन महिमारे, मोतें कौन कौन नहि हारे। मुझे अपना मत निश्चित नहीं करना है। जब भी मैं
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अनेकान्त
रचना पढ़ता तो मेरी उक्त आस्था उसके कलेवर रचना जन गोपालशैली एवं भाषा शैथिल्य को देख कर डिग जाती थी और स्वामी सेवक सिख गुरु, संत मंत सबवाव । यही सोचता था कि यह रचना बनारसीदास जैसे प्रौढ हंसी चिकारी जब बगी, जन गोपाल उपाय। प्रतिभा सम्पन्न कवि की कदापि नहीं हो सकती। बनारसी
स्वामी सेवक सिख गुरू, संत मंत मम काज । सन् १९५८ के प्रारम्भ में जब मैंने दादू महाविद्यालय
लागी लोभ सारी दुनी, तिनके धरम न लाज ||७२।। जयपुर में गोपालकविकृत 'मोह विवेक युद्ध' की हस्तलिखित प्रति देखी और उससे बनारसादासकृत 'मोह
इस प्रकार के दोहे जिनमें कहीं-कहीं रंचमात्र का विवेक' को मिलाया तो मेरे पाश्चर्य का ठिकाना न रहा।
भाषा में अथवा अर्थ में अन्तर है, मुश्किल से पूरी कृति इन दोनों कृतियों में १०-२० दोहा, चौपाइयों को छोड़
में ४-६ ही हैं। कुछ दोहे बनारसी नामावली कृति में से कर पाद्यन्त अक्षरश: साम्य है। दोहों में जहाँ गोपाल । स्वतन्त्र भी हैं यथा-६, १०, ११ १८, ३०, ३२, ३६, कवि की छाप है वहां बनारसी की कर दी गई है और ४३, ४७, ६१, ५४, ८४, ९६ । कुछ चौपाइयां गोपालसब ज्यों का त्यों रख दिया गया है, यदि कहीं किसी कृत में से बनारसी नामाङ्कित कृति में नहीं ली गई हैं। वैष्णव देवता का नाम पाया है तो उसे बदलकर जैन
शेष सम्पूर्ण कृति में पूर्णतया (अक्षरशः) साम्य है । स्पष्ट
शप सम्पूर्ण कृात म पूर्णतया (3 देवता या जिन शब्द का प्रयोग किया गया है।
है कि पूर्ववर्ती गोपाल कवि की इस कृति में पूरी नकल
की गई है। देखिए
इस प्रकार इन दोनों कृतियों का मिलान करने के जन गोपाल
पश्चात् यह तो निश्चित है ही कि यह कृति मौलिक नहीं प्रविभचारिणी भक्ति जहां, गुरु गोविनय सहाय। है। इसमें भावों की ही नहीं अपितु भाषा, शैली आदि
जन गोपाल फल को नहीं, तह पं कहूँ न बसाय ॥ सभी की पूरी नकल है। बनारसी
जयपुर के दादू मन्दिर से जब मैं दोनों कृतियों की अविभचारिणी जिन भगति, प्रातम अंग सहाय। तुलना करके लोट रहा था तो मेरा मन, मेरी तर्कशक्ति
कहै काम ऐसी जहां, मेरी तहं न बसाय ॥ और हृदय न जाने कितने प्राबेग, आवेश, चिन्तन और जन गोपाल
घृणा में डूबने लगा, मुझे अन्त में अनेक दृष्टियों से विचार हालाहलु खाहै मर, जल में बूढ़े जीव । करने पर यह स्पष्ट लगा कि बनारसीदास जैसे अध्यात्म प्रमवा देखत ही मर, जन गोपाल बिन पीव ॥ संत एवं प्रौढ प्रतिभा सम्पन्न कवि इस निन्द्य कर्म के
सम्बन्ध में सोच भी न सके होंगे । निश्चित रूप से किसी बनारसी
मूर्ख जैन ने 'बनारसी' के नाम को छप लगा कर और विष मुख माहीं मेले मरई, जल में बूढ़ पावक जरइ।
दो चार स्थानों पर जैन परक परिवर्तन करके गोपाल हण्यार लगे व्याप विष ज्याला, दृष्टि देखते मार बाला॥
कवि की नकल मात्र की है और इस प्रकार बनारसीदास जन गोपाल
जी के प्रति अपनी भक्ति प्रकट करने का ढोंग किया है। राम भगति स्वाति जहां, सोतल साधु अंग
___ अतः अब निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि बनारसी
उक्त 'मोह विवेक युद्ध' के रचयिता प्रसिद्ध कवि बनारसीश्री जिन भक्ति सबढ़ जहां सदैव मुनिवर संग दास जी नहीं हैं।
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दिगम्बर और श्वेताम्बर परम्परा में महाव्रत, अणुव्रत,
समिति और भावना
(शब्द-भेद और अर्थ-भेद)
मुनिश्री रूपचन्द्र
भारत की तीनों साधना-धारामों मे महाव्रतों का में प्राचार्य कुन्दकुन्द ने अस्तेय के स्थान पर तितिक्षा समान महत्व रहा है। महिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह के स्थान पर संगविरति२ शब्द का प्रयोग और अपरिग्रह ये पांच व्रत साधना-विधि के आधारस्तंभ भी किया है। यह अवश्य है कि शब्द-भेद होते हुए भी रहे है। पतंजलि ने अपने अष्टांग योग में इन्हें यम के इनके अभिधेय में कोई अन्तर नहीं रहा है । तितिक्ख-यूले रूप में, बुद्ध ने पंचशील के रूप में और महावीर ने महा- का अर्थ स्थूल चौर्य का परिहार ही किया गया हैव्रतों के रूप में स्थान दिया। किन्तु जैन-परम्परा में इनका तितिक्ख-थूले या तितिक्षा-स्थूले चौर्य-स्थूले परिहार । जो स्वरूप प्रौर विस्तार प्राप्त होता है, वह अन्यत्र नही। इसी तरह संग-विरति का अर्थ भी परिग्रह-विरति ही इनकी समालोचित विस्तृत व्याख्याएँ, इनकी ही पोषित किया गया है-संगे परिग्रहे विरतिश्च परिग्रहाद् विरमण समितियाँ और गुप्तियाँ और व्रतों को स्थर्य देने वाली मित्यर्थः । वस्त्र रखना परिग्रह है या नहीं यह परम्परा भावनाएँ, यह समस्त विस्तार हमें जैन-वांगमय में ही
भेद तो स्पष्टतः है ही किन्तु इससे महावत की परिभाषा उपलब्ध होता है।
में कोई अन्तर नहीं पाता।
भावना महावत
मुमुक्षु साधना के प्रारम्भ में पांच महाव्रतों को साधन किन्तु यह विस्तार आज तक की जैन-परम्परा में के रूप में स्वीकार करता है। किन्तु साथ ही वे साध्य क्या एकरूपता लिए है या इसमें शब्द और मर्थ की दृष्टि भी है । साधक को उनका भी पुनः पुनः अभ्यास करना से भेद भी मिलता है, यह प्रस्तुत निबन्ध का विषय है। पड़ता है। महाव्रतों में स्थिरता पाए इस दृष्टि से प्रत्येक उत्तराध्ययन सूत्र में पंच महाव्रतों का नामोल्लेख इस महाव्रत के लिए पांच-पांच भावनाओं का विधान दिया प्रकार मिलता है-अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और गया ।३ जिन चेष्टामों और संकल्पों के द्वारा मानसिक अपरिग्रह१। अहिंसा के लिए कहीं-कहीं प्राणातिपाति- विचारों को भावित-वासित किया जाता हैं, उन्हें भावना विरति शब्द का प्रयोग भी हप्रा है। दिगम्बर परम्परा कहते हैं ।४ श्वेताम्बर परम्परा में भावनामों का वर्णन
१. २।१२: अहिस सच्चं च प्रतेणगं च, ततोय पशि पडिज्जिया पंच महब्वयाणि... ... ... ...॥ २. उत्तराध्ययन १९२५
समया सव्व भूएसु, सत्तु-मित्तेसु वा जगे। पाणाइवाय-विरई, जावज्जीवाए दुक्करा ॥
१. चारित्र-प्राभूत २६
थूले मोसे तितिक्ख-थूले य। २. चारित्र-प्राभृत ३०, अष्टपाहुड पृ० १००
तुरियं प्रबंभ-विरई पंचम संगम्मि विरई य । ३. तत्वार्थ राजवातिक ७१३
तस्य स्थर्यार्थ भावना पंच पंच। ४. पासणाह चरियं, पृ० ४६०
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अनेकान्त
मावासंग, समवायांग और प्रश्न-व्याकरण में मिलता है सीमा परिज्ञान, ३. स्वयं ही प्रवग्रह की अनुग्रहणता, ४. किन्तु उनके क्रम तथा नामों में एक-रूपता नहीं है। साधर्मिकों के अवग्रह का याचना तथा परिभोग, ५. साधाप्राचागंग के अनुसार पांच महाव्रतो की पच्चीस भावनाएं रण-भोजन प्राचार्य प्रादि को बताकर परिभोग करता। क्रमशः इस प्रकार है
४. ब्रह्मचर्य महावत-१. स्त्री, पशु और नपुसक से अहिंसा महावत की पांच भावनाएं-१. ईर्या-समिति संसक्त शायन प्रासन का वर्जन, २. स्त्री-कथा वर्जन, ३. २. मन परिज्ञा, ३. वचन परिज्ञा, ४. आदान-निक्षेप स्त्रियों की इन्द्रियों के अवलोकन का वर्जन, ४. पूर्व-भक्त समिति, ५. मालोकित-पान-भोजन ।
तथा पूर्व-क्रीड़ित काम-भोगों का स्मरण न करना, ५. ___ सत्य महावत की पांच भावनाएँ-१. अनु-वीचि
प्रणीत-आहार का वर्जन् ।। भाषण, २. क्रोध-प्रत्याख्यान, ३. लोभ प्रत्याख्यान, ४.
५. अपरिग्रह महावत-१. श्रोत्रेन्द्रिय-रागोपरति,
२. चक्षुरिन्द्रिय-रागोपरति, ३. घ्राणेन्द्रिय-रागोपरति, अभय (भय-प्रत्याख्यान), ५. हास्य-प्रत्याख्यान ।
४. रसनेन्द्रिय-रागोपरति, ५. स्पर्शनेन्द्रिय-रागोपरति । प्रचौर्य महावत की पांच भावनाएँ-१. अनुवीचि
प्रश्न व्याकरण के अनुसार भावनाओं का वर्गीकरण मितावग्रह-याचन, २. अनुज्ञापित-पान-भोजन, ३. प्रवग्रह का अवधारण, ४. अभीक्षण-अवग्रह-याचन, ५. सार्मिक
१. अहिंसा महाव्रत-१. ईर्या-समिति, २. अपाप के पास से अवग्रह का याचन ।
मन, ३. अपाप-वचन, ४. एपणा-समिति, ५. प्रादानब्रापचयं महवितकी पांच भावनाएँ-१. स्त्री-कथा- निक्षेप समित । वर्नन, २. स्त्रियों के अंग-प्रत्यंगों को न देखना, ३. पूर्व
२. सत्य महाव्रत-अनुवी चि-भाषण, २. क्रोधभुक्त भोगों का स्मरण न करना, ४. अति-मात्र और
प्रत्याख्यान, ३. लोभ-प्रत्याख्यान, ४. भय प्रत्याक्यान, ५. प्रणीत भोजन का वर्जन, ५ स्त्री प्रादि से संसक्त-शयना
हास्य प्रत्याख्यान । सन का वर्जन।
३. प्रचौर्य महाव्रत-१. विविक्त-वास वसति, २. अपरिग्रह महावत की पांच भावनाएं-१. मनोज्ञ
अभीक्षण-अवग्रह-याचन, ३. भय्या-समिति, ४. साधारणऔर अमनोज्ञ गध में समभाव, २. मनोज्ञ और अमनोज्ञ
पिण्ड-मात्र लाभ, ५. विनय-प्रयोग । रूप में समभाव, ३. मनोज्ञ और अमनोज्ञ स्पर्श में समभाव,
४. ब्रह्मचर्य महाव्रत-१. असंसक्त-वाम-वमति, ४. मनोज्ञ और अमनोज्ञ रस में समभाव, ५. मनोज और
(यसंपृक्त-वास वमति), २. स्त्री-जन में कथा-वजन. ३. अमनोज्ञ शब्द में समभाव ।
स्त्रियों के अंग-प्रत्यंग और चेष्टानों के अवलोकन का समवायांग के अनुसार भावनामो का वर्गीकरण क्रमश:
वर्जन, ४. पूर्व-मुक्त भोगों की स्मृति का वर्जन, ५. प्रणीति इस प्रकार मिलता है
रस भोजन का वर्जन । १ अहिंसा महाव्रत-१. ईया-समिति, २. मनोगुप्ति,
५. अपरिग्रह महाव्रत-भावानंग में प्रतिपादित ३. वचन-गुप्ति, ४. मालोक भाजन-भोजन, ५. आदान
भावनाओं की तरह ही है। मड मात्र-निक्षेपणा ममिति ।
२. सत्य महाव्रत-१. अनुवीचि-भाषणता, विचार तीनों वर्गीकरणों में प्राचागंग और प्रश्न-व्याकरण के गर्वक बोलना, २. क्रोध-विवेक, ३. लोभ-विवेक, ४. भय- वर्गीकरण में काफी साम्य है समवायांग का वर्गीकरण 1वेक, ५. हास्य-विवेक ।
नाम और क्रम दोनों ही दृष्टियो से कुछ भिन्नता लिए है ___-. प्रचीर्य महावत--१. अवग्रहानुज्ञापता, २. अवग्रह पर भाव और प्रतिपाद्य सबका एक ही है ।
___आचार्य कुन्दकुन्द ने पट्-प्राभृत ग्रन्थ में भावनाओं १. ११४१४०२ ले० ने ग्रन्थ का नाम यहीं दिया। २ समवायाग २५
१. प्रश्न व्याकरण, मंवरद्वार
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दिगम्बर और श्वेताम्बर परम्परा में महाव्रत, प्रणुव्रत, समिति और भावना
का स्वरूप इस प्रकार दिया है१
हिंसा महाव्रत – वचन-गुप्ति, मनो-गुप्ति, ईर्षा - समिति, सुदान- निक्षेप र अवलोकित-पान-भोजन ।
सत्य महावत प्रक्रोम, अभय, ग्रहास्य, प्रलोभ, श्रमोह ।
परधनुवीच भावण के स्थान पर समोह-भावना का उल्लेख हुआ है। टीकाकार ने भगवान गौतम का एक श्लोक उद्धृत करते हुए इसका धयं भी अनुवोचि भापण कुलता ही किया है२ अवीचि भाषणता से तात्पर्य हैबीची बाग्लहरी तामनुस्य या भाषा वर्तते सानुवीचि भाषा, जिन सूत्राणुसारिणी भाषा, अनुवीचि भाषा पूर्वाचार्य-सूत्र-परिपाटी मनुल्लन्ध्य भाषणीय मित्यर्थः । पूर्वाचार्य और सूषानुसारिणी भाषा श्वेताम्बर परम्परा में वीचि भाषणता का अर्थ प्रायः अनु विचिन्त्य भाषणं विचार पूर्वक बोलना ही किया गया है। प्राचार्य उमास्वाति ने तस्वार्थ मे दोनों वर्षो का ग्रहण किया है।
प्राची महाव्रतन्यावार निवास, विमोचितावास पर उपरोध न करना, एपणा शुद्धि, साधर्मी-संविसंवाद, सामिकों के साथ विसंवाद न करना ।
ये पांचों भावनाएं श्वेताम्बर परम्परा से सर्वथा भिन्न मिलती है-
ब्रह्मचर्य महाव्रत, महिला अवलोकन विरति, पूर्वभुक्त का का स्मरण न करना, संसक्त वसति विरति, स्त्री-राग कया विरति और पौष्टिक रस विरति ।
धाचार्य उमास्वाति ने ब्रह्मचर्य की पांच भावनामों का उल्लेख इस प्रकार किया है१. स्त्री-राग-कथावर्जन, २. मनोहर अगनिरीक्षण-विरह, ३. पूर्वरतानुस्मरण परित्याग ४. वेष्ट-रस-परित्याग और ५. स्व शरीर-संस्कार-याग ॥४
१
२. चारित्र प्राभृत- ३२ :
भूरिप्रभूतके ३१-३५
कोहो अलोहोय, भय-हस्स - विवज्जिदो । प्रणुवीचि भास कुसलो य, विदयं वद मस्सिदो ॥
३. स्वार्थ ७५
४. सरचार्य ७६
अपरिग्रह महाव्रत - मनोज्ञ और अमनोश शब्द, रूप, रस, गन्ध, स्पर्श में राग द्वेष का वर्जन । समिति
उत्तराध्ययन में पाँच समितियों का विधान इस प्रकार मिलता है ईय समिति, भाषा समिति, एषणा समिति, प्रदान निक्षेप समिति और उच्चार व्युत्सर्ग समिति १ ।
-
आचार्य कुन्दकुन्द ने उच्चार-व्युत्सर्ग समिति का उल्लेख नहीं किया है। उनके अनुसार पाँच समितियां ये है ईर्ष्या, भाषा, एषणा, बादान और निक्षेप २ धरन ही निक्षेप का अर्थ उच्चारपरित्याग ही किया है।
किन्तु प्राचार्य उमास्वाति और वट्टकेर कुन्दकुन्द का अनुसरण करते दिखलाई नहीं पड़ते। उन्होंने उत्सर्गसमिति का मन से विधान दिया है ।३ संभव है इन पर श्वेताम्बर परम्परा का प्रभाव रहा हो ।
प्रणुव्रत
११३
उपासक दशाग प्रथम अध्ययन में हमें गृहस्थ धर्म के बारह प्रकारों का उल्लेख मिलता है। मानन्द उन बारह व्रतों को स्वीकार कर भगवान् महावीर का उपासक बनता है। वे व्रत इस प्रकार है-१. स्थूल प्राणातिपात प्रत्याख्यान, २. स्थूल मृषावाद प्रत्याख्यान, ३. स्थूल अदत्तादान प्रत्याख्यान, ४. स्वदार संतोप परिमाण, इच्छा विधि परिमाण, ६. दिग् देश विरति, ७ उपभोगपरिभोग विरति, ८ अनर्थ दण्ड विरति ६. सामायिक, १०. देशाकाशिक संवर, ११ पौषधोपवास, १२ अतिथि संविभाग व्रत ।
५.
इनमें प्रथम पांच अणुव्रत तीन गुणवत, और शेप चार शिक्षा के रूप में विहित किए गए है। सन को बारह व्रतों से ऊपर अलग से स्थान दिया गया है ।४ दिगम्बर परम्परा में भी श्रावक के बारह व्रतों का
१. उत्तरा० २४/२
२.
३.
पारिव प्रात ३६
स्वार्थ २४
भाषेपणादान निक्षेपोत्सर्गाः समितयः
मूलाचारे मूलगुणाधिकारः १० :
इरिया भासा एसरणा णिक्खेवदाणमेव समिदियो । पदियावणिया य वहा उच्चारादोण पंचविहा ॥
४. उपासक दशा, अध्ययन १
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अनेकान्त
विधान हमें पांच अणुव्रत, तीन गुणवत और चार शिक्षा २-तत्वार्थ सूत्र में गुणत्रत पोर शिक्षाबत ये भेद न व्रत के रूप में मिलता है। किन्तु व्रतों के क्रम और करके सात शील बतलाए हैं-दिग विरति, देश विरति, नामों में पर्याप्त मतभेद हैं । बारह व्रतों में सर्वप्रथम अणु अनर्थदण्डविरति, सामयिक, प्रोषधोपवाम, उपभोग-परिव्रत पाते हैं। इनमें उल्लेखनीय नाम-भेद इस प्रकार हैं- भोग परिमाण और अतिथि संविभाग । श्वेताम्बर परंपरा
१-प्राचार्य कुन्दकुन्द ने चारित्र प्राभूत पाँचवें अणु- की तरह सल्लेखना को इसमें बारह बतों से अलग बताया व्रत का नाम परिग्गहारंभ परिमाण रखा है। जिसका गया है। सर्वार्थ सिद्धि टीका में शुरू के तीन व्रतों का तात्पर्य है परिग्रह और प्रारंभ दोनों का परिमाण करना। नाम गुणव्रत दिया है, किन्तु शेष चार का कोई नामोल्लेख चतुर्थ अणुव्रत का नाम रखा है परपिम्म परिहार-इसका नहीं किया। अर्थ टीकाकार श्रुतसागर सूरि ने पर-स्त्री त्याग किया ३-रत्न करण्ड श्रावकाचार में दिग्वत, अनर्थ दण्ड है। तथा प्रथम अणुव्रत का नाम उन्होंने स्थल त्रसकाय अत और भोगोपभोगपरिमाण अत ये तीन गुणव्रत बतपरिहार रखा है।२
लाये है और देशावकाशिक, सामायिक, प्रोषधोपवास २-स्वामी समन्तभद्र ने चतुर्थ अणुव्रत का नाम
और वयावृत्य-ये चार शिक्षाबत बतलाए है, सल्लेखना परदार निवृत्ति और संतोष रखा है। पांचवें प्रणवत का का पृथक उल्लेख है। नाम परिग्रह पग्मिाण के साथ इच्छा परिमाण भी रखा ४-पद्म चरित में अनर्थ दण्ड व्रत, दिग् विदिक्
त्याग, भोगोपभोग संख्यान, ये तीन गुणव्रत और सामा३-प्राचार्य रविषेण ने चतुर्थ व्रत का नाम परदार- यिक, प्रोषधोपवास, प्रांतथि संविभाग और मलेखना ये समागम विरति तथा पांचवें का नाम अनन्त गर्दा विरति- चार शिक्षाव्रत बतलाए है। (अनन्त तष्णा विरति) रखा है।४
५-प्रादि पुराण में दिग्नत, देश अत और अनर्थ दण्ड ४--हरिवंशपुराण में पहले व्रत का नाम दया है। व्रत को गुणवन तथा मामायिक, प्रोषधोपवास, अतिथि
५-पादि पुराण में पांचवे व्रत का नाम तृष्णा सविभाग और मल्लेखना को शिक्षा व्रत बतलाया गया है।४ प्रकर्ष निवृत्ति और चौथे का नाम पर-स्त्री सेवन-निवृत्ति ६-वसुनन्दि श्रावकाचार में गुणव्रत तो तत्वार्थ के रखा है।५
अनुसार है और शिक्षा व्रत इस प्रकार हैं-भोग-विरति. --40 आशाधर जी ने चौथे व्रत का नाम स्वदार परिभोग-विरति. अतिथि-संविभाग और मल्लेखना । संतोप रखा है।
इन सबका वर्गीकरण हम इस प्रकार कर सकते हैंअणवत और शिक्षाव्रतों में नाम-भेद इस प्रकार
१-दिग्व्रत और अनर्थ दण्ड व्रत को गुण व्रत सबने मिलता है
माना है। सामायिक, प्रोषधोपवास और अतिथि सविभाग ५-प्राचार्य कुन्दकुन्द ने दिशा-विदिशा, अनर्थ दण्ड ।
को वसुनन्दि के सिवाय सबने शिक्षा व्रत में स्वीकार किया त्याग और भोगोपभोग परिमाण ये तीन गुणत और
है। वसुनन्दि सामायिक और प्रोषधीपवास के स्थान में सामायिक, प्रोषधोपवास, अतिथि पूजा और सल्लेखना ये
भोग विरति और परिभोग विरति पढ़ते है।
तो चार शिक्षाबत बतलाए हैं।१
२-शेष रह जाते है-देशवत (देशावकाशिक).
भोगोपभोग-परिमाण और सल्लेखना । २. चारित्र प्राभृत २३
१. अध्ययन ७, सूत्र २१ ३. रत्नकरण्ड, श्लोक १३, १४
२. श्लोक ६७, ६१ ४. पाचरित्र प० १४ श्लोक १८४, १८५
३. पर्व १४, पृ० १९८, १६९ ५. मादि पुराण पर्व १०, श्लोक ६३
४. पर्व १०, पृष्ठ ६५, ६६ ६. चारित्र प्राभूत, गा० २४,२५
५. गाथा २१३ मादि
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विगम्बर और म्वेताम्बर परम्परा में महावत, अणुव्रत, समिति और भावना
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श्वेताम्बर परम्परा ने देशावकाशिक को शिक्षा व्रतों वार्तिक में समय का अर्थ एकत्व रूप से गमन किया है में स्थान दिया है । प्राचार्य कुन्दकुन्द देशवत नहीं मानते। और उसे ही सामायिक कहा है । अर्थात मन, वचन और समन्तभद्र इमे शिक्षा व्रतों में ही गिनते हैं, जबकि तत्वार्थ काया की क्रियाओं से निवृत्त होकर एक प्रात्म-द्रव्य में में देश-व्रत को गुण व्रतों में गिना गया है, यद्यपि उसमें ही लीन होना सामायिक है। आचार्य सोमदेव ने उपा. गुण ब्रत और शिक्षा व्रत व्रतों के ये दो भेद नहीं किए सकाध्ययन में 'समय' का अर्थ प्राप्त सेवा का उपदेश किया गए।
है। और उसमें जो क्रिया की जाती है, वह सामायिक ३-भोगोपभोग परिमाण व्रत को श्वेताम्बर परम्परा है। इसके अनुसार स्नान, अभिषेक, पूजन, स्तवन, जप, ने गुण व्रतों में ही गिना है। दिगम्बर परम्परा मे कई ध्यान आदि सब सामायिक के अंग है। वस्तुतः मन, इसे गुण व्रत रूप में स्वीकार करते हैं, कई शिक्षा व्रत मे। वचन और काया को एकाग्र करके साम्यभाव की वृद्धि के ४-सल्लेखना को सभी मानते हैं। किन्तु श्वेताम्बर लिए
लिए ही सामायिक का विधान किया गया है। पराम्परा इसे अतों में नहीं, बतों से ऊपर अलग से इसका देशावकाशिक में दिग्नत और उपभोग-परिभोग बत उल्लेख करती है । प्राचार्य कुन्दकुन्द की परम्परा इसे का ही विस्तार प्रोषधोपवास है। प्रोषधोपवास का अर्थ हैशिक्षा व्रतों में स्थान देती है, जबकि तत्वार्थ सूत्र और उपवास रखकर प्रोषध का अभ्यास करना। इसमें सम्पूर्ण रत्नकरण्ड इसे श्वेताम्बर परम्परा की तरह ही मानते है। दिन-रात्रि के लिए चारों प्रकार के माहार का प्रत्याख्यान
अणु व्रतों का ही गुण वर्धन करने वाले प्रतों को होता है। इसके साथ ही अब्रह्मचर्य, रत्न स्वर्ण माला, रंग, गुणव्रत कहा गया है ।१ रत्नकरण्ड और सागार धर्मामृत विलेपन, शस्त्र प्रादि सावध व्यापार का प्रत्याख्यान होता में भी गुण बतों की व्याख्या इसी प्रकार मिलती है। है। रत्नकरण्ड में प्रोपच का अर्थ एक बार भोजन किया
है और उपवास का अर्थ चारों प्रकार के प्राहार का परिजो अभ्यास के लिए हों, वे शिक्षाअत हैं। गुणवत
त्याग किया है। जो उपवास करके एक बार भोजन करता और शिक्षावत में स्पष्टतः अन्तर यह है कि शिक्षाव्रत
है वह प्रोषधोपवास के दिन पांचों पापों का प्रलंकार, स्वल्प कालिक होते हैं, और अणवत प्राय जीवन पर्यन्त+ होते है।
प्रारम्भ, गन्ध, पुष्प, स्नान प्रादि का त्याग किया जाता पहला शिक्षाव्रत है सामायिक । वह सावद्य-योग
सर्वार्थ सिद्धि (७२१) मे प्रोषध का अर्थ पर्व किया विरति रूप होता है। हरिभद्र ने प्रावश्यक वृत्ति में सामायिक किसके होती है, का विश्लेषण देते हए कहा है
है और जिसमें पांचों इन्द्रियां अपने-अपने विषयों से विमुख जिसकी आत्मा संयम, नियम और तप में सामायिक
. होकर रहती हैं, उसे उपवास कहा है। उसमें कहा गया सन्निहित है, उसके सामायिक होती है। सामायिक का है।
PART है-"अपने शरीर संस्कार के कारण स्नान, गन्ध, माला, काल-मान एक मुहूर्त है। रत्नकरण्ड में सामायिक का
आभरण प्रादि को त्यागकर शुभ स्थान में साधुओं के
आम विधि निर्देश इस प्रकार दिया गया है-एकान्त स्थान में,
निवास स्थान में, चैत्यालय में अथवा अपने उपवास गृह वन मे, मकान या चैत्यालय में बाह्य व्यापार से मन को में धम कथा म मन एकाग्र कर श्रावक का उपवास करना हटाकर तथा पर्यकासन में स्थिर होकर अन्तरात्मा में चाहिए पार किसा प्रकार का प्रारम्भ नहा करना लीन होना सामायिक है।
चाहिए।"
इस प्रकार दिगम्बर और श्वेताम्बर परम्परा में और पूज्यपाद ने सर्वार्थ सिद्धि में और अकलंक ने तत्त्वार्थ
कही-कहीं एक ही परम्परा में भी महाबत, समिति, ६. जैन सिद्धात दीपिका,
भावना और अणुव्रतों में चले पा रहे शब्द-भेद और अर्थ+ अणुव्रतानां गुण वर्षकत्वाद् गुणवतम् ।
भेद का एक चित्र हमारे समक्ष आ जाता है।
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भूधरदास का पार्श्वपुराण : एक महाकाव्य
श्री सलेकचन्द जैन एम० ए०, बड़ौत
कविवर भूधरदास ने पार्श्व पुराण की रचना वि० मुनि जिनविजय जी का भी ऐसा ही कथन है। इसमें प्रेम सं० १७८९ आषाढ़ सुदी ५ को आगरा में की थी। की गम्भीरता और विनय की महत्ता, रस और भाव की, भूधरदास आगरा के रहने वाले थे । उनका जन्म खण्डेल- सौन्दर्य के साथ, अभिव्यक्ति हुई है। वाल नाम की एक जैन उपजाति में हुआ था। वे मध्य
इसी भाँति अपभ्रश की 'भविसयत्त कहा' (धनपाल), कालीन हिन्दी के सिद्धहस्त कवि थे। उनकी रचनायें
'णायकुमार चरिउ' (पुफ्फयंत), 'सुदंसण चरिउ' (नयनंदि) प्रसाद गुण की साक्षात् प्रतीक हैं। उनमें हृदय की गहरी
आदि रचनाये भी रोमांचक शैली में ही लिखी गई है। अनुभूति है। उनकी अनेकानेक मुक्तक कृतियां उपलब्ध
आगे चलकर जायसी का पद्मावत, रायचन्द का सीता हुई हैं, जिनका संकलन 'जैन शतक' और 'भूधरविलास'
चरित और लालचन्द लब्धोदय का पानी चरित्र इसी के नाम से बहुत पहले ही प्रकाशित हो चुका हैं। उन्होंने होली की देन है। 'पार्श्वपुराण' नाम का केवल एक ही महाकाव्य लिखा है।
पौराणिक शैली में लिखे गये जन महाकाव्य दो यह चरित काव्य है. इसकी प्रशंसा करते हुए पण्डित
भागों में विभक्त किये जा सकते है-एक तो वे जिनमें ६३ नाथूराम प्रेमी ने लिखा था, "हिन्दी के जैन साहित्य में
शलाका महापुरुपों का जीवनचरित पूर्वभवों के साथ यह ही एक चरित ग्रन्थ है, जिसकी रचना उच्च श्रेणी
प्रस्तुत किया गया है । एक ही महापुरुप के जीवन चरित की है और जो वास्तव में पढ़ने योग्य है।"२ अब तो
को रखने के भी दो ढग थे--एक तो गमायण और महाअन्वेषण के फलस्वरूप मध्यकालीन जैन हिन्दी के अनेक
भारत-जैसा और दूसग रघुवंश-मरीखा । रामायण और महाकाव्य प्राप्त हुए है। वे उनम काव्य के निदर्शन है,
महाभारत में महाकाव्यों का विकसनशील रूप दृष्टिगोचर किन्तु उनमें 'पार्श्वपुराण' जैसी मग्नता नहीं है।
होता है, उनमें अलकृत रूढिबद्ध काव्यात्मक शैली के पूर्व परम्परा और शैली
दर्शन नहीं होते। राम और कृष्ण को लेकर लिखे गये प्राकृत और अपभ्रंश के जैन महाकाव्यों में दो प्रकार
जैन महाकाव्यों में अनेक काव्यरूढ़ियाँ प्राकृत और सस्कृत की शैली अपनाई गई है-गेमाचक और पौराणिक ।
की देन हैं, फिर भी स्वयभू के 'पउमचरिउ' और पुप्पदत गेमांचक शैली के महाकाव्यों में युद्ध और प्रेम को विविध
के महापुराण में अनेक ऐसी प्रवृत्तियों ने जन्म लिया, जिनमें प्रवृत्तियों का वर्णन हुमा है। डा० आदिनाथ नेमिनाथ
हिन्दी के महाकाव्य, यहाँ तक कि तुलमी का मानस भी उपाध्ये ने 'ऐनसाईक्लोपीडिया ग्राफ लिटरेचर' में 'लीला
प्रभावित है। राहुल माकृत्यायन ने 'मानस' को 'पउमवईकहा' को प्राकृत का पहला रोमांचक काव्य कहा है३ ।
चरिउ' ने प्रभावित माना है ।* मूरसागर के अनेक प्रय १. मंवत् सतरह मै समय, और नवासी लीय । मुदी भाषाढ़ तिथि पचमी, अथ समापत कीय ॥
"तुलमी बाबा ने स्वयंभू रामायण को देखा था, मेरी (पाश्वपुराण, अन्तिम दोहा)
इस बात पर आपत्ति हो सकती है, लेकिन मैं नम२. पं० नाथूराम प्रेमी, हिन्दी जैन साहित्य का इतिहास, झता हूँ कि तुलमी बाबा ने 'क्वचिदन्यतोपि' से
जैन ग्रंथ रत्नाकर कार्यालय, बम्बई, जनवरी १९१७, स्वयंभू रामायण की ओर ही संकेत किया है।" पृ०५६ ।
राहुल साकृत्यायन-हिन्दी काव्यधारा, प्रथम संस्करण 3. Encyclopaedia of Literature, Vol. 1. P-489 १९४५-प्रकाशक किताब महल, इलाहाबाद, पृ० ५२
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भूधरदास का पाश्र्वपुराण: एक महाकाव्य
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पुष्पदंत के महापुराण की छाया भर-से प्रतीत होते हैं। वाया । वह अपने जेठ को देखने वहां चली गई। उसके पौराणिक शैली में लिखा गया विमलसूरि (पहली साथ कामचेष्टायें की गई। शताब्दी विक्रम का 'पउमचरिय' पहला जैन महाकाव्य है। लौटने पर राजा को सभी समाचार विदित हुए। एक ही महापुरुष के जीवनचरित को लेकर चलने
उसने मरुभूति के इन्कार करने पर भी कमठ को अपमान वाले दूसरे महाकाव्य वे हैं जो जैन परम्परा में स्वीकृत
के साथ देश से निकाल दिया। वह एक पर्वत पर जाकर ढंग को लेकर चले हैं, उनकी शैली रूढिबद्ध है। उनकी
पाखण्डी साधु बन गया। मरूभूति ने जब यह सुना तो कथा को कवि अपनी कल्पना शक्ति से, मनचाही दिशा की
भ्रातृ-प्रेम से अनुप्राणित हो उसके पास गया। उसने एक पत्थर
जा मोर नहीं मोड़ सकता। सभी में नायक के पूर्वभव और
डाल कर मरूभूति को मार डाला। मागे नौ भवों तक यदि तीर्थकर हुआ तो पंच कल्याणकों का निरूपण अवश्य
दोनों भाइयों का बैर निरन्तर चलता रहा। एक भाई रहता है । यद्यपि इनके विषय प्रतिपादन का उद्देश्य बोध
कभी देव, कभी विद्याधर, कभी चक्री नरेश और कभी प्रदान होता है, किन्तु नायक के जीवन से सम्बन्धिन
इन्द्र बनता रहा तो दूसरा कभी दुष्ट सर्प, कभी अजगर, घटना और पात्रों का काव्यात्मक तथा अलंकृत ढग से कभी नारकी, कभी दुर्दान्त सिंह और कभी क्रूर मानव के वर्णन रहता है, अतः उनमें सरसता और आकर्पण की भी रूप में जन्म लेता रहा। पाश्वपुराण के तीन अध्याय इन कमी नहीं रह जाती है। वीरकवि का 'जम्बूस्वामीचरिउ' नो भत्रो का वणन करने में खप गये है। (अपभ्रंश) और हरिभद्र का नेमिनाह चरिउ (अपभ्रंश)
दसवे भव में मरुभूति का जीव, आनत स्वर्ग के इन्द्र इस शैली के जीवन उदाहरण हैं। भूधरदास का पार्श्व
पद से चल कर, बनारम के राजा अश्वसेन की पत्नी वामा पुराण भी इसी परम्परा का प्रतीक है। उसमें जनों के २३ ।
देवी के गर्भ में अवतरित हुआ। कमठ का जीव भी पंचम वें तीर्थकर पार्श्वनाथ का जीवनचरित रूढ़िवद्ध रूप से
नरक से निकल कर महीपालपुर का नृप हुआ। वामाही निरूपित किया गया है। कथा में कहीं यत्किचत् भी
देवी उमी की पुत्री थी। मरूभूति के जीव ने तीर्थङ्कर प्रनानि परिवर्तन नहीं है। उसमें प्रसाद गुण, उपमा, उत्प्रेक्षा, रूपक
का बन्ध किया था, अत: वामादेवी के गर्भ में प्राने छ. दष्टान्त और अनुप्रासों की स्वाभाविक छटा प्राकृतिक
माह पहले से ही इन्द्र के आदेश से धनपति ने साढ़े तीन अश्यों का नैसर्गिक चित्रण, और विविध भावों का चित्र
करोड़ रत्नों की प्रतिदिन वर्षा की और बनारम नगरी वत् उपस्थित करना नितान्त मौलिक है। इसी कारण
को अनुपम रूप में सजाया। वामादेवी ने १६ स्वप्न देखे पार्चपुराण, पुराण होते हुए भी महाकाव्य है।
जो तीर्थङ्कर के उत्पन्न होने का मकेत चिह्न थे। वैशाख के कथानक
कृष्णपक्ष मे, द्वितीया के दिन निशावमान में, भगवान् गर्भ पार्श्वनाथपुराण में दो भाइयों के बैर की कथा है। भरत
में पाये। इन्द्र के द्वारा प्रेरितरुचिकवामिनी देवियाँ तीर्थङ्कर क्षत्र के प्रसिद्ध नगर पादनपुर के राजा अरविन्द के मन्त्री की मां को विविध भांति सेवा कर उठी। विप्र विश्वभूति थे। उनके दो पुत्र हए-कमठ और मरु- वामादेवी के पौष मास, एकादशी, श्याम पक्ष, शुभ भूति । पहला कपूत था और दूसरा सपूत । विश्वभूति के बार मे पुत्र उत्पन्न हुआ। इन्द्र देव परिवार सहित जन्मोउपरान्त मरुभूति ही मन्त्री बना। एक बार मरुभूति गजा त्मव मनाने पाया। उसने बाल भगवान् को मुमेरूपर्वत अरविन्द के साथ राय वज्रवीग्ज पर आक्रमण करने नगर पर ले जाकर, क्षीरसागर के १००८ कलशों से स्नान के बाहर चला गया। राज्य कमठ के हाथ में रहा । उसने कगया। लौटने पर महाराज अश्वसेन के घर इन्द्र के तांडव अत्याचार किए। मरुभूति की पत्नी विसुन्दरी उस समय नत्य और अानन्द नाटक अद्भुत थे। महाराज ने स्वयं भी की सर्वोत्कृष्ट सुन्दरी थी। किसी भांति कमठ ने उसे देख पुत्र जन्मोत्सव धूमधाम से मनाया । बालक शनैः शनैः लिया । कमठ उद्यान-स्थित महल में चला गया और वहां बढ़ने लगा और विविध बालचेष्टानों में समय भी सरकता से अपनी बीमारी का समाचार विसुन्दरी के पास भिज- गया। यौवन पाया, विवाह के लिए इन्कार कर दिया।
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भनेकान्त
राजकुमार पार्श्वनाथ अपने साथियों के साथ वन के लिए कथा से दूसरी कथा निकलती गई है और इस भाँति रस भी जाया करता था। एक बार वे वन केलि से लौट रहे की गति अवरुद्ध होकर मृतप्रायः सी हो गई है। पावथे कि एक साधु को अग्नि कुण्ड में डालने के लिए लकड़ी पुराण मे एक भव के लिए एक ही कथा है। कोई-कोई चीरते हुए देखा। उन्होंने कहा कि इस लकड़ी में एक नाग कथा तो एक चित्रसी प्रतिभासित होती है। यद्यपि मुख्य जोड़ा है इसे मत चोरो, किन्तु वह न माना और नाग कथानक में पार्श्वनाथ के पंच कल्याणकों का विवेचन रूढि दम्पत्ति के प्राण समाप्त हो गये । वह साधु पार्श्वनाथ का बद्ध ही है, किन्तु धरणेन्द्र और पद्मावती की कथा के नाना राजा महीपाल था, जिसने अपनी पत्नी की मृत्यु से संयोग से उसमें रुचिरता उत्पन्न हुई है। कथा के परम्पराबैराग्य धारण कर लिया था और बनारस के समीपस्थ वन नुगत होने पर भी, प्रस्तुत करने के ढग और विशेषकर में तप कर रहा था । पार्श्वनाथ को देखते ही उसका पूर्व चित्रमयता तथा दृष्टातों की छटा ने ग्रन्थ को मौलिक वैर उदित हो पाया और वह क्रोध में भरकर लकड़ी चीर बना दिया है। अंग्रेजी के प्रसिद्ध नाटककार शेक्सपियर उठा। क्रोधवशात् ही उसने राजकुमार के कथन को नहीं के नाटकों में कथानक किसी न किसी प्राचीन कथा से लिए माना। नागदम्पत्ति मरकर धरणेन्द्र और पद्मावती हए गये हैं। किन्तु नायकों के केवल स्वगत कथनों ने उन नाटको जो नागलोक के राजा और रानी थे। कालान्तर मे साधु को मौलिकता प्रदान की है। पावपुराण की घटनामों मरकर ज्योतिषी देव हुआ।
का चित्रवत् प्रस्तुतीकरण दृष्टान्तों की सहायता से विस्तार समय पाकर पार्श्वनाथ में वैराग्य का भाव उदित
का परिहार, भाषा की सरलता और प्रवाहमयता ही
उसकी नवीनता है। हमा । लौकातिक देवों ने उसे और भी पुष्ट किया। वे चार निकायों के इन्द्रों के द्वारा मनाये गये महोत्सवों के
चित्रांकनसाथ जिन दीक्षाधारण कर, वन में तप करने चले गये।
मरुभूति का जीव सल्लकी वन में वज्रघोष नाम का एक बार पाना योगदानामा परि हस्ती हुपा। उधर राजा अरविन्द वैराग्य धारण कर
। उधर से कमठाजीव सानी दिगम्बर मुनि बन गये। एक बार वे 'सारथ वाही' के संग निकला। पूर्वभव के बैरस्मरण से उसने घोर उपसर्ग
शिखर सुमेरु की वंदना के लिए चले। सल्लकी वन में किया । फणीश धरणेन्द्र का पासन कापा। वह पद्मावती पहुंचे और कुछ समय के लिए संघ सहित ठहर गये । को लेकर रक्षा करने प्राया। ज्योतिषी देव भाग गया।
गजराज वज्रघोष ने गर्जना करते हुए संघ पर आक्रमण
" भगवान् को केवल ज्ञान उत्पन्न हुना। धनपति ने समोसरण ।
कर दिया। काल के समान क्रोधित हाथी को देखकर संघ की रचना की । भगवान् ने दिव्य उपदेश दिया और फिर
में खलबली मच गई। लोग भागने लगे। गज का जिसे विहार किया। अन्त में प्रायुकर्म के क्षीण हो जाने पर
भी धक्का लग गया, वह परलोक पहुँच गया। मार्ग के थके उनका निर्वाण हो गया।
हुए घोडे, बल और गधों को उसने मार डाला। इस
प्रकार संहार करता हुआ वह हाथी विकराल रोष विष इस महाकाव्य की कथा में पार्श्वनाथ के जन्म से ही से भरा हा मुनि के सम्मुख पाया। उसने ज्यों ही सुदनहीं, अपितु नौ भवपूब से निर्वाण पर्यन्त का वर्णन है। र्शन मेरु के समान और वृक्ष है चिह्न जिसके वक्षस्थल में नोभवों की कथानों में से प्रत्येक कथा सरस है। इन ऐसे मनिराज को देखा और शान्त हो गया। मुनि के उपदेश कथानों को ही प्रवान्तर कथा कहा जा सकता है । उनके से उसने प्रणवत धारण किये । संयोग से मुख्य कथानक में और अधिक सरलता पाई है। - पं० रामचन्द्र शुक्ल के अनुसार अवान्तर कथायें रस की
1. Shakespeare in almost every instance -
derived his plots from Somebody else's पिचकारियाँ होती हैं । इन कथानों ने भी रस की वर्षा की
work. DAVID DAICHES A critical है। संस्कृत, अपभ्रंश और हिन्दी के अनेक महापुराणों में
His story of English Literature Valume 1 ये प्रवान्तर कथायें एक जटिल जालसा बन गई हैं। एक Ed. 1960-Page 249.
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भूषरवास का पावनपुराण: एक महाकाव्य
कमठ का जीव नरक में गया । नारकियों ने ज्यों ही धारण करने वाली सीप थी। नये नारकी को देखा, मारने के लिए दौड़े। वे विविध
जब इन्द्र ने यह जाना कि वामादेवी के गर्भ में तीर्थकर मायुधों से उसके शरीर को खंड-खड कर देते थे और वे
उतरने वाले हैं तो कुलगिरि कमलवासिनी देवियों को खडित टुकड़े पारे के समान फिर मिल जाते थे। नारकी
उनके पास भेजा। उनमें 'श्री' नाम की देवी को लेडी डा. उसके चरणों को कभी तो कांटों से छेद डालते थे, कभी
ही कहना चाहिए। उसे वामादेवी के गर्भ को शुद्ध बना उसके अस्विजाल को चूर-चूर कर देते थे और कभी
देना था। उसका कांतिवान शरीर लावण्य से भरा था। उसकी खाल को उधार कर कुचल डालते थे। कभी कुठार महाराज अश्वसेन के प्रसाद में आकाश से उतरती हुई वे पकड़ कर उसको काठ के समान चीर देते थे, कभी उदर
ऐसी मालूम पड़ती थी, मानो नभदामिनी ही उतर रही को विदीर्ण करके अन्तरमालिका तोड़ डालते थे, कभी कोल्ह में पेल देते थे, कभी कांटों की शय्या पर सुलाते थे। आश्चर्यजनक रूपसम्पदा थी। उनके माथे पर चड़ामणि
और कभी शूली पर रख देते थे। इस भांति इस महाकाव्य जगमगा रहा था। में रूढिबद्ध होते हुए भी नरक का वर्णन साक्षात् कर दिया जिसे देख चकाचौधसी लगती थी। उनके वक्षस्थल पर गया है।
कल्पवृक्षों के पुष्पों की माल थी, जिसकी सुगन्धि दशों बनारस के राजा अश्वसेन की पत्नी का नाम था दिशामों में फैल रही थी। उनके पैरों से घुघुरुषों की वामादेवी उसका रूप अनुपम था, वह सब गुणों से भरपूर 'श्रवण सुखद' झंकार उठ रही थी, उसकी मधुरता थी। ऐमा प्रतीत होता था जैसे रूप जलधि की बेला ने प्रवर्णनीय है। ही जन्म ले लिया हो। उसमें नख से शिख तक अकृत्रिम भगवान के गर्भ में अवतरित होने पर इन्द्र ने रुचिक मुहाग पुलकित हो रहा था। उसकी देह सब सुलक्षणों से वासिनी देवियों को जिन-जननी की सेवा के लिए भेजा। मडित थी, वह तीन लोक की स्त्रियो का शृङ्गार थी। ये देवियाँ तेरहवे रुचक नाम के द्वीप मे, रुचक पर्वत के वह मधुर भारती का तो अवतार ही थी। उसके आगे शिखर कुटों में रहती थीं। उन्होंने इस सेवा को अपना गम्भा दीन सी प्रतिभासित होती थी। रोहिणी का रूप परम सौभाग्य ही माना। कोई माँ का स्नान-विलेपन क्षीण हुआ मा प्रतीत होता था और इन्द्रवधु ऐसी प्रतीत करती थी और कोई शृंगार मजाती थी। कोई भूषण होती थी, जैसे रविद्युति के आगे दीपक की लौ१ । वह वसन पहनाती थी, कोई भोजन कराती थी, कोई पान गील-मम्पदा की निधि थी; सज्जनता की अनुपम अवधि खिलाती थी और कोई सुन्दर गाना गाती थी३ कोई माँ थी कला और सुबुद्धि की सीमा थी। उसका नाम लेने से हर हो जाते थे क्योंकि वह महापाप रूपी मक्ता को १-मज्जनता की अवधि अनुप ।
कला सुबुधि की सीमा रूप ॥ पावपुराणपं० भूधरदास, प्र. जिनवाणी कार्यालय कलकत्ता नाम लेत अघ तजै समीप । १-नखशिख मुहागिनी नार।
महापुरुप मुक्ता फल सीप ॥ तीन लोक तिय तिलक सिंगार ॥
-पंचम अधिकार, पृ० सं० ४५ सकल मुलच्छन मंडित देह ।
२-महाकांत तन लावन भरी। भाषा मधुर भारतीय येह ॥
मानो नभ दामिनी अवतरी ।। रम्भा रति जिस आगे दीन ।
अंग अंग सब सजे सिंगार । रोहिनि रूप लगे छवि छीन ॥
रूप मम्पदा अचरज कार । इन्द्र वधु इमि दीसे सोय।।
३. पार्श्वपुराण भूधरदास जिनवाणी कार्यालय, कलकत्ता । रवि दुति पागे दीपक लोय ॥ आई भक्ति नियोगिनी देवी, जिन जननी की सेव भजे । -पंचम अधिकार पृष्ठ सं० ४५ कोई नहान विलेपन ठान, कोई सार सिंगार सर्ज।
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अनेकान्त
राजकुमार पार्श्वनाथ अपने साथियों के साथ वन के लिए कथा से दूसरी कथा निकलती गई है और इस भाँति रस भी जाया करता था। एक बार वे बन केलि से लौट रहे की गति अवरुद्ध होकर मृतप्रायः सी हो गई है। पार्श्वथे कि एक साधु को अग्नि कुण्ड में डालने के लिए लकड़ी पुराण में एक भव के लिए एक ही कथा है। कोई-कोई चीरते हुए देखा । उन्होंने कहा कि इस लकड़ी में एक नाग कथा तो एक चित्रसी प्रतिभासित होती है। यद्यपि मुख्य जोड़ा है इसे मत चोरो, किन्तु वह न माना और नाग कथानक में पार्श्वनाथ के पंच कल्याणकों का विवेचन रूढि दम्पत्ति के प्राण समाप्त हो गये । वह साधु पार्श्वनाथ का बद्ध ही है, किन्तु धरणेन्द्र और पद्मावती की कथा के नाना राजा महीपाल था, जिसने अपनी पत्नी की मृत्यु से संयोग से उसमें रुचिरता उत्पन्न हुई है। कथा के परम्परावैराग्य धारण कर लिया था और बनारस के समीपस्थ वन नुगत होने पर भी, प्रस्तुत करने के ढग और विशेषकर में तप कर रहा था। पार्श्वनाथ को देखते ही उसका पूर्व चित्रमयता तथा दृष्टातों की छटा ने ग्रन्थ को मौलिक वैर उदित हो पाया और वह क्रोध में भरकर लकड़ी चीर बना दिया है। अंग्रेजी के प्रसिद्ध नाटककार शेक्सपियर उठा। क्रोधवशात् ही उसने राजकुमार के कथन को नहीं के नाटकों में कथानक किसी न किसी प्राचीन कथा से लिए माना । नागदम्पत्ति मरकर धरणेन्द्र और पद्मावती हए गये हैं१ किन्तु नायकों के केवल स्वगत कथनों ने उन नाटकों जो नागलोक के राजा और रानी थे। कालान्तर मे साधु को मौलिकता प्रदान की है। पार्श्वपुराण की घटनाओं मरकर ज्योतिषी देव हुआ।
का चित्रवत् प्रस्तुतीकरण दृष्टान्तों की सहायता से विस्तार समय पाकर पार्श्वनाथ में वैराग्य का भाव उदित
का परिहार, भाषा की सरलता और प्रवाहमयता ही
उसकी नवीनता है। हुमा । लौकातिक देवों ने उसे और भी पुष्ट किया। वे चार निकायों के इन्द्रों के द्वारा मनाये गये महोत्सवों के
चित्रांकनसाथ जिन दीक्षाधारण कर, वन मे तप करने चले गये।
मरुभूति का जीव सल्लकी वन में वजघोष नाम का एक बार पार्श्वनाथ योगमुद्रा में कायोत्सर्ग धारण किये हस्ती हुमा। उधर राजा अरविन्द वैराग्य धारण कर खड़े थे। उधर से कमठ का जीव सम्बर नाम का ज्योतिपी दिगम्बर मुनि बन गये। एक बार वे 'सारथ वाही' के संग निकला। पूर्वभव के बैरस्मरण से उसने घोर उपसर्ग
शिखर सुमेरु की वंदना के लिए चले। सल्लकी वन में किया। फणीश धरणेन्द्र का प्रासन कांपा। वह पद्मावती पहुंचे और कुछ समय के लिए संघ सहित ठहर गये । को लेकर रक्षा करने पाया । ज्योतिषी देव भाग गया। गजराज व
गजराज वज्रघोष ने गर्जना करते हए संघ पर आक्रमण भगवान् को केवल ज्ञान उत्पन्न हया । धनपति ने समोसरण ।
कर दिया। काल के समान क्रोधित हाथी को देखकर संघ की रचना की । भगवान् ने दिव्य उपदेश दिया और फिर
में खलबली मच गई। लोग भागने लगे। गज का जिमे विहार किया। अन्त में आयुकर्म के क्षीण हो जाने पर
भी धक्का लग गया, वह परलोक पहुँच गया। मार्ग के थके उनका निर्वाण हो गया।
हए घोड़े, बैल और गधों को उसने मार डाला। इस
प्रकार संहार करता हुआ वह हाथी विकराल रोष विष इस महाकाव्य की कथा में पार्श्वनाथ के जन्म से ही है
हा से भरा हुमा मुनि के सम्मुख अाया। उसने ज्यों ही सुदनहीं, अपितु नौ भवपूर्व से निर्वाण पर्यन्त का वर्णन है। शंन मेरु के समान और वक्ष है चिह्न जिसके वक्षस्थल में नौभवों की कथानों में से प्रत्येक कथा सरस है। इन ऐसे मनिराज को देखा और शान्त हो गया। मुनि के उपदेश कथानों को ही अवान्तर कथा कहा जा सकता है। उनके से उसने अणवत धारण किये। संयोग से मुख्य कथानक में और अधिक सरलता पाई है।
1. Shakespeare 11. almost every instance पं० रामचन्द्र शुक्ल के अनुसार अवान्तर कथायें रस की
derived his plots from Somebidy else's पिचकारियाँ होती है । इन कथाओं ने भी रस की वर्षा की
work, DAVID DAICHES A critical है। संस्कृत, अपभ्रंश और हिन्दी के अनेक महापुराणों में
His story of English Literature Valume 1 ये अवान्तर कथायें एक जटिल जालसा बन गई हैं। एक Ed. 1960-Page 249.
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कमठ का जीव नरक में गया । नारकियों ने ज्यों ही नये नारकी को देखा, मारने के लिए दौड़े। वे विविध आयुधों से उसके शरीर को खंड-खड कर देते थे और वे डित टुकड़े पारे के समान फिर मिल जाते थे। नारकी उसके चरणों को कभी तो काँटों से छेद डालते थे, कभी उसके अस्थिजाल को चूर-चूर कर देते थे और कभी उसकी खाल को उधार कर कुचल डालते थे। कभी कुठार पकड़ कर उसकी काठ के समान चीर देते थे कभी उदर को विदीर्ण करके अन्तरमालिका तोड़ डालते थे, कभी कोल्हू में पेल देते थे, कभी काँटों की शय्या पर सुलाते थे। प्रौर कभी मूली पर रख देते थे। इस भांति इस महाकाव्य में रूढिबद्ध होते हुए भी नरक का वर्णन साक्षात् कर दिया गया है ।
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मूषरवास का पार्श्वनपुराण एक महाकाव्य
बनारस के राजा अश्वसेन की पत्नी का नाम था वामादेवी उसका रूप अनुपम था, वह सब गुणों से भरपूर थी। ऐसा प्रतीत होता था जैसे रूप जलधि की बेला ने ही जन्म ने लिया हो उसमें नल से शिख तक अकृत्रिम सुहाग पुलकित हो रहा था। उसकी देह सब सुलक्षणों से मडित थी, वह तीन लोक की स्त्रियों का शृङ्गार थी । वह मधुर भारती का तो अवतार ही थी । उसके आगे रम्भा दीन मी प्रतिभासित होती थी। रोहिणी का रूप क्षीण हुआ सा प्रतीत होता था और इन्द्रवधु ऐसी प्रतीत होती थी, जैसे रविद्युति के धागे दीपक की लौ वह शील-सम्पदा की निधि थी; सज्जनता की अनुपम अवधि थी कला और मुबुद्धि की सीमा थी। उसका नाम लेने से पाप दूर हो जाते थे, क्योंकि वह महापुरुय रूपी मुक्ता को
पार्श्वपुराणपं भूरदास, प्र० जिनवाणी कार्यालय कलकत्ता १ नखशिख सुहागिनी नार ।
तीन लोक तिय तिलक सिंगार ॥ सकल मुलच्छन मंडित देह
भाषा मधुर भारतीय येह ॥
रम्भा रति जिम धागे दीन
रोहिनि रूप लगे छवि छोन ॥
इन्द्र वधु इमि दीसे सोय
रवि इति भागे दीपक लोय ॥ - पंचम अधिकार पृष्ठ सं० ४५
धारण करने वाली सीप थी।
जब इन्द्र ने यह जाना कि वामादेवी के गर्भ में तीर्थंकर उतरने वाले हैं तो कुलगिरि कमलवासिनी देवियों को उनके पास भेजा। उनमें 'थी' नाम की देवी को लेडी डा० ही कहना चाहिए। उसे वामादेवी के गर्भ को शुद्ध बना देना था। उसका कांतिवान शरीर लावण्य से भरा था । महाराज प्रश्वसेन के प्रसाद में प्राकाश से उतरती हुई वे ऐसी मालूम पड़ती थी, मानो नभदामिनी ही उतर रही हो२, उसका अंग-अंग श्रृंगार सजा हुआ था, उनके पास आश्चर्यजनक रूपसम्पदा थी । उनके माथे पर चूड़ामणि जगमगा रहा था ।
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जिसे देख चकाचौधसी लगती थी। उनके वक्षस्थल पर कल्पवृक्षों के पुष्पों की माल थी, जिसकी सुगन्धि दशों दिशाओं में फैल रही थी। उनके पैरों से घुंघुरुत्रों की 'श्रवण सुखद' भंकार उठ रही थी, उसकी मधुरता अवर्णनीय है ।
भगवान के गर्भ में अवतरित होने पर इन्द्र ने रुचिक वासिनो देवियों को जिन-जननी की सेवा के लिए भेजा । ये देवियाँ तेरहवें चक नाम के द्वीप में, रुचक पर्वत के शिखर कूटों में रहती थीं। उन्होने इस सेवा को अपना परम सौभाग्य ही माना कोई मां का स्नान-विलेपन करती थी और कोई श्रृंगार सजाती थी । कोई भूषण वसन पहनाती थी, कोई भोजन कराती थी, कोई पान खिलाती थी और कोई सुन्दर गाना गाती थी ३ कोई माँ
१ -- सज्जनता की अवधि अनुप |
कला सुबुधि की सीमा रूप ॥ नाम लेत अघ तजै समीप ।
महापुरुष मुक्ता फल सीप ॥ - पंचम अधिकार, पृ० सं० ४५
२- महाकांत तन लावन भरी।
मानो नभ दामिनी भवतरी ॥
अंग अंग सब सजे सिंगार
रूप सम्पदा अचरज कार ॥
३. पार्श्वपुराण भूधरदास जिनवाणी कार्यालय, कलकत्ता । आई भक्ति नियोगिनी देवी, जिन जननी की सेव भजें । कोई नहान विलेपन ठाने, कोई सार सिगार सर्ज ।
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अनेकान्त
को रत्न सिंहासन पर विराजमान करती थी और कोई छबि को देख कर संसार विमोहित हो जाता था। उस चंवर ढुलाती थी कोई सुन्दर सेज बिछाती थी, कोई हाथी पर शची सहित इन्द्र ऐसा प्रतीत होता था, जैसे चरण दावती थी। कोई चन्दन से घर सींचती थी और उदय.चल मस्तक पर भानु ।। समूचे महल को सुगन्धि से भर देती थी। कोई कल्पतरुवर सद्यः जात भगवान को सुमेरु पर्वत पर स्नान के लिए के फूलों की माला गूंथ कर माता की भेंट चढ़ाती थी। ले गए। वहाँ पाण्डुक बन की ईशान दिशा में पाण्डुक
भगवान का जन्म हवा । नभ की दशों दिशायें निर्मल शिला पर-जो अर्धचन्द्राकार आकृति वाली थी-हेमदिखाई दे उठीं। पाँधी मेंह और धूल का लेश भी नहीं सिंहासन रख दिया और उस पर भगवान को विराजमान रहा । शीतल मन्द और सुगन्धित वायु वहने लगी। सब कर दिया। वहाँ भगवान ऐसे शोभायमान हो रहे थे जैसे सज्जन लोग विशेष रूप से हर्षित हो गये, जैसे दिनेश के मानों रत्नगिरि पर मेघ विराजे हों। एक हजार आठ निकलने पर कमलखंड विकसित हो जाते हैं१ देवलोक मे कलशों से भगवान का स्नान हुआ। प्रत्येक कलशे का घंटा स्वतः बज उठे, ज्योतिषियों के यहाँ केहरि नाद होने मुख एक योजन का और गहराई पाठ योजन की थी। लगा, भवनालय में सहज शंख ध्वनित हो उठे और कुबेर ने सुमेरुपर्वत की चोटी से क्षीर सागर तक रत्नध्यंतरों के यहाँ असंख्य भेरियो का निनाद होने लगा। जड़ित पंड़ियों की रचना की थी। इन्द्र ने भगवान के इन्द्रासन काँप उठे। देवराज परिवार सहित जन्मोत्सव अभिषेकार्थ सहस्र भुजाएँ बना ली थी। उसने जिन स्तवन मनाने चला । वह ऐरावत हाथी पर सवार था। उसकी प्रारम्भ किया। भगवान के मस्तक पर महाधार गिरी, मानों रचना विक्रिया ऋद्धि के द्वारा की गई थी। उसके सौ मुख नभगंगा ही अवतरित हुई हो। असंख्य देवगण जयजयकार थे। मुख में आठ-पाठ दाँत थे, प्रत्येक दांत पर एक सौ कह उठे। बहुत कोलाहल हुपा । दशों दिशाएँ बहरी पच्चीस कमलिनियाँ थी। हर एक कमलिनी पर पच्चीस हो गई। पच्चीस कमल थे और प्रत्येक कमल में एक सो प्राठ पत्त जिस धार रो शिखर खड खंड हो सकते हैं, वह धारा थे। पत्ते-पत्ते पर देव नारियाँ नृत्य करती थी। उनकी
जिनदेह पर फूल-कनी सी प्रतिभासित होती थी। तीर्थकर ---... -- -
'अप्रमान वीरजधनी' होते है। अत: उनकी शक्ति की कोई भूपन वसन समप्पे, कोई भोजन सिद्ध कर।
समता नहीं हो सकती। प्रभु की नील वर्ण देह पर कलश कोई देय तंबोल ज खाने कोई सुन्दर गान करें।
के जल की छवि, नीलाचल सिर पर हेम के बादल की -पंचमोऽधिकार, पृ० सं० ४६
वर्षा की भांति प्रतीत होती है१ । स्नवन जल की छटा १. जनम्यो जब तीर्थकर कुमार,
तिहुँ लोक बढयो आनन्द अपार । एकेक कमलनी प्रति महान, दीव नभ निर्मल दिशि अशेश,
पच्चीस मनोहर कमल ठान। कहिं आँधी मेंहन धूलि लेश ।
प्रति कमल एक सो आठ पत्र, अति शीतल मन्द सुगन्धि वाय,
शोभा वरनी नही जाय तत्र । सो वहन लगी सुख शांति दाय। पत्रन पर नाचें देव नार, सब सुजन लोक हरष विशेष,
जग मोहत जिनकी छवि निहार । ज्यों कमलखंड प्रगटत दिनेश ।
-षष्ठोऽधिकार पृ० सं० ५२ -पप्टोऽधिकार, पृ० सं०५१ पाश्र्वपुराण भूधरदास जिनवाणी कार्यालय, कलकत्ता२. पार्श्वपुराण-भूधरदास जिनवाणी कार्यालय, कलकाता १ नील वरन प्रभु देह पर, कलश नीर छवि एम । प्रति दन्त सरोवर इक दीस,
नीलाचल सिर हेम के, बादल बरपै जेम ।। सरसर हंस कमलनी सौ पचीस ।
पष्ठोऽधिकार पृ० स० ५४
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भूषरबास का पाश्र्वपुराण: एक महाकाव्य
उछल कर प्राकाश में चली मानो स्वामी-संगति से वह जैसे कल्पवृक्ष को कल्पलताओं ने घेर लिया हो।। भी पाप रहित हो गई, प्रतः उसकी गति भी उध्वं हो दीक्षा लेने के उपरान्त, एक दिवस पार्श्वनाथ कायोगई है।
त्सर्ग मुद्रा धारण किये योग में तल्लीन थे संवर नाम के स्नानोपरांत देवसंघ भगवान को लेकर प्रश्वसेन ज्योतिषी देव का विमान प्राकाश में रुक गया। यह देव महाराज के घर वापिस पा गया। वहां उसने 'मानन्द' पूर्व कथित कमठ ही था। उसे पूर्व भव का वर स्मरण नाम के नाटक का आयोजन किया। उसमें देवराज का हो आया। उसके नेत्र लाल हो गये, शरीर क्रोध से जल ताण्डव नृत्य प्राश्चर्यजनक था। पुष्पांजलि क्षेपण के उठा । उसने महान उपसर्ग प्रारम्भ किया। चारों ओर साथ ही ताण्डव प्रारम्भ हुआ। मांगलिक शृङ्गार के अंधकार छा गया। बादल गरज-गरज कर वर्षा कर उठे। साथ उसने संगीत और ताल के नियमों के अनुकूल रंग- पानी मूसलाधार होकर गिरने लगा, भयंकर बिजली धरा पर पैरो का संचालन किया। देवगण कुसुम वर्षा तिरछी होकर झलक उठी । प्रति वर्षा के कारण, भूमि कर उठे । किन्नरियो ने मंगल गान किया, गीत के अनुसार महोदधि के समान हो गई, उसमें गिरवर, विशाल वृक्ष ही विविध वाद्ययत्र बजने लगे । नृत्य के समय इन्द्र ने और वन समूह डूब गये । काले यमराज की छवि को सहस्र भुजायें बना ली थीं। वे सब भूषण-भूषित होकर धारण किये हुए बंताल किलकिलाने लगे। उनकी भी शोभायमान हो रही थीं। इन्द्र के चपल चरणों की गति विकगल थी, वे मदमस्त गज की भाँति गरज रहे थे। से पृथ्वी और पर्वत काँप रहे थे। चकफेरी लेते समय उनके गले में मानवों की मुण्डमाला पड़ी थी+। उनके मुकुट की रत्नप्रभा वलयाकृति में इस प्रकार झलकती थी मुख से स्फुलिंगों के साथ फूत्कार निकल रही थी। जैसे चक्राकार अग्नि ही हो। वह क्षण में एक, क्षण में वे हन हन की निर्दय ध्वनि कर रहे थे। इस प्रकार अनेक बहुत तथा क्षण में सूक्ष्म तथा क्षण में स्थूल स्वरूप को दुर्वेषों को धारण करके कमठ के जीव ने उपसर्ग किये धारण करता था। क्षण में निकट और क्षण में दूर किन्तु वे सब व्यर्थ हुए। भगवान अपने ध्यान से टले नहीं, दिखाई देता था । क्षण मे आकाश में घूमता हुआ विदित जैसे मानिक के दीप को पवन को झकोर बुझा नही होता था और क्षण में पृथ्वी पर नत्य करता हुमा दृष्टि पाती। गोचर होता था । इस प्रकार अमरेश ने इन्द्रजाल की स्वाभाविकता भांति अपनी ऋद्धि प्रकट की। उसके हाथ की अगुलियों
मध्यपुग के महाकाव्यों में देव, यक्ष और विद्याधरों के पर अप्सराएँ नृत्य करती थीं। उनके अंग-अंग में भूषण
द्वारा किए गए प्राश्चर्यो का विवेचन आवश्यक था, किन्तु झलक रहे थे । उनके नेत्र खिले हुए थे और मुख मुस्करा
अनेक महाकाव्यों में वणित पाश्चर्य धार्मिक विश्वास की रहे थे। नृत्य के नियमों के अनुसार वे पैर चला रही थीं।
सीमा का भी प्रतिक्रमण कर गये है। पार्श्वपुराण में उन्हीं और उनके कटाक्ष विविध भावो को प्रकट करने में समर्थ
आश्चर्यों को उपस्थित किया गया है जो जैन सिद्धान्त के थे। सुर कामनियों से संयुक्त इन्द्र ऐसा प्रतीत होता था
अनुकूल हैं। तीर्थकर पार्श्वनाथ के ३४ प्रतिशयों का
भावात्मक विवेचन है। उनमें जन्म के दश, केवल ज्ञान के १. सहस भुजा हरि कीनी तब भूषण भूषित सोहैं सबै।
दश और चौदह देवकृत हैं । जन्म के साथ ही भगवान का धारत चरणचपल अति चल, पहमी काप गिरवर हल। षष्ठोऽधिकार पृ० सं० ५७
शरीर मल-मूत्र रहित और रुधिर दुग्धवत श्वेत होता है। २. छिन में एक छिनक बहु रूप,
+ किलकिलात बेताल, काल कज्जल छवि सज्जहिं । छिन सूच्छम छिन थूल सरूप। भी कराल विकराल, भाल मद गज जिमि गजहि॥ छिन आकाश माहिं संचर,
मुण्डमाल गल धरहिं, लाल लोचन निडरहिं जन । छिन में निरत भूमि पर करै ।। मुख फुलिंग फुकरहिं, करहिं निर्दय धुनि हन हन । षष्ठोऽधिकार पृ० सं०५७-५८
अष्टमोऽधिकार पृ०६८
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अनेकान्त
केवलज्ञान के उत्पन्न होते ही, चार मुखों का विखना, सम्यक्त्व और मिथ्यात्व का युद्ध है । प्रशुभ के द्वारा शुभ केवल ग्रास प्रादि पाश्चर्यों का विवेचन भूधरदास ने नहीं के मार्ग में अनेक बाधाएँ उपस्थित की गई, किन्तु जीत किया है । देवों के १४ प्रतिशय भक्तों की भक्ति ही कही शुभ ही की हुई । सबसे बड़ी विजय तो यह थी कि अंतमें जा सकती है। तीर्थकर के गर्भ मे पाने के छ: मास पूर्व अशुभ भी शुभ-रूप में परिणत हो गया। मरुभूति शुभ का से ही साड़े तीन करोड़ रत्नों की वर्षा का विवेचन भक्त प्रतीक था और कमठ अशुभ का। अशुभ भी साधारण हृदय की ही देन है। यह सच है कि किसी महापुरुष के कोटि का नहीं था। नरको के तीव्र दुखों से भी वह बदल उत्पन्न होने के पूर्व से ही मां-बाप वैभव सम्पन्न हो उठते न सका । सद्गुरुषों के उपदेश और महापुरुषों के दर्शन से हैं । संवर का उपमर्ग और नाग दम्पत्ति का आगमन पूर्व भी उसका चेतनहारा चेतन परिवर्तित न हुआ। तीर्थकर भव से सम्बन्धित किये जाने के कारण अविश्वास की भूमि पाश्वनाथ के समवशरण में ही वह चेता । पुण्य और पाप को स्पर्श नहीं कर पाता।
का युद्ध यद्यपि दस भवों तक चलता रहा, किन्तु पुण्य के जैन संस्कृत और अपभ्रश के महाकाव्यों में प्रायः अहिसक रहने से वीर रस पूर्ण रूप से कभी-कभी प्रकट स्थान-स्थान पर धार्मिक उपदेश बहत लम्बे हैं। उनके न हो सका उसके मूलस्वर का हाल शान्त रस की ओर कारण पाठक ऊब जाता है । उनमे यत्किचित भी सरसता ही बना रहा । पार्श्वपुराण का मुख्य रस शांत ही है, वैसे नहीं है । पावपुराण में केवल दो स्थानो पर मुनियों के शृङ्गार और वात्सल्य भी कतिपय अंशों में फलीभूत हुए उपदेश हैं । सल्लकी वन मे मूनि अरविन्द ने वनजंघ हैं। प्रारम्भ में ही कमठ अपने छोटे भाई मरुभूति की हाथी को सम्यक्त्व का उपदेश दिया है। दूसरा स्थान वह पत्नी विसुन्दरी के प्रति काम चेष्टाओं का प्रदर्शन करता है जब आनन्दकुमार जैन दीक्षा लेने मुनि सागरदत्त के है। उसी में सम्भोग शृङ्गार देखा जा सकता है। अन्यत्र पास गये हैं। वहाँ १२ प्रकार के तपो, १६ प्रकार की कहीं भी काम की विह्वल दशा का चित्र नही खींचा गया भावनाओं, २० प्रकार के परीषहों, दशलक्षण धर्मों और है। विविध रानियो के सौदर्य वर्णन है, स्वगों की सुषमा १२ अनुप्रेक्षाग्री का विवेचन किया गया है। किन्तु इनमे में देव और देवांगनायों द्वारा सम्पन्न महोत्सवों में, नगकाव्यत्व होने के कारण रूक्षता नही पा पाई है। १२ रियों की साज सज्जा में और समवशरण की रचना में ही अनुप्रेक्षाओं का वर्णन करते हुए
शृङ्गार के दर्शन होते हैं । इन सब में शृङ्गार शांत रस राजा राणी छत्रपति, हाथिन के प्रसवार । का स्थायीभाव सा प्रतीत होता है। शृङ्गार के मुख्य अग मरना सब को एक दिन, अपनी-अपनी बार ॥ विप्रलम्भ का तो कहीं नाम ही नहीं है। इतना सरस है कि इसका घर-घर में प्रचार है और
पार्श्वपुराण में वात्सल्य रस पार्श्वनाथ के गर्भ और इसका अंग्रेजी अनुवाद भी प्रकाशित हो चुका है। पाश्वं
जन्म कल्याणकों में प्रतिफलित हुया है। उस समय किये नाथ की दिव्यध्वनि के द्वारा जैन सिद्धांत का जन्म
गये विविध महोत्सव वात्सल्य रस को पुष्ट बनात हैं । इन हुमा । यहाँ पर भी नवे अधिकार के अन्त में सप्तभग,
महोत्सवों की परम्परा अजन काव्यो में नहीं थी। सूर ने समुद्धात प्रादि का वर्णन है, किन्तु दृष्टान्त, उपमा और
कृष्ण के जन्म की अानन्द बधाई के उपरांत ही 'यशोदा उत्प्रेक्षाओं की सहायता से उनकी रूक्षता का पर्याप्त
हरि पालने झुलावे' प्रारम्भ कर दिया है । जैनों के प्राकृत परिहार हुआ है । ऐसा प्रतीत होता है कि भूधरदास को
सस्कृत और अपभ्रश के तीर्थकर संबंधी सभी महाकाव्यो भी इन स्थलों को सक्षेप मे कह कर मुख्य कथा पर माने
में गर्भ और जन्म कल्याणकों का ऐसा ही विवेचन है। की शीघ्रता थी। भूधरदास का कवि प्रमुख था अपेक्षाकृत
किन्नु पार्वपुराण में प्रसाद गुण और उत्प्रेक्षाओं के कारण उपदेष्टा के।
वह मौलिक सा प्रतिभासित होता है। जैन हिन्दी में रस विवेचन
कुमुदचन्द्र के ऋषभ विवाहिता भट्टारक ज्ञानभूषण के पाश्वपुराण में शुभ और अशुभ पुण्य और पाप, प्रादीश्वरफाग, हरचन्द्र के पंच कल्याण महोत्सव, भट्टारक
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भूभरवास का पाश्र्यपुराण : एक महाकाव्य
१२. धर्मचन्द की मादिनाथ बेलि, रूपचन्द का पंचमंगल पौर क्षत्रिय कुल में हमा है। वे धीरोदात्त हैं, तीर्थकर हैं। जगतराम के लघुमंगल से भी अधिक सरसता पार्श्वपुराण उन्होंने विवाह नहीं किया, माजन्म ब्रह्मचारी रहे। इस में है । इन्द्राणी प्रसूति-गृह में पहुँची। वहाँ उसने सुतराग प्रकार नायिका का प्रभाव है। वैसे उन्होंने तप और में रंगी मां को सुख सेज पर लेटे देखा, वह ऐसी प्रतीत साधना के द्वारा शिवरमणी के साथ विवाह किया। वह हो रही थी मानों बालक भानु सहित सध्या ही हो। ही उनका प्रथम और अन्तिम विवाह था। इस महाकाव्य इन्द्राणी ने माँ को सुख नींद में सुला दिया और एक माया- में शिवरमणी के रूप का विवेचन हुमा है। जहाँ तक मयी बालक उसके पास लिटा दिया। बालक जिनेन्द्र को भौतिक नायिकानों का सम्बन्ध है वे नायक को पूर्व भवों अपने कर कमलों में उठा लिया। बालक की छवि में उपलब्ध हुई है। वहां यथा-प्रसग उनके सौन्दर्य और करोड़ों सूर्यो को ज्योतिहीन बना रही थी। बालक के विलास का भी यत्किचित निरूपण हमा है। शान्त रस मुख कमल को देखकर सुररानी के हृदय में विशेष हर्ष प्रधान होने के कारण जैन महाकाव्यो की नायिकानो का हमा । इन्द्र ने तो भगवान की सौन्दर्य सुधा पीने के लिए विलास और सौन्दर्य सदेव शालीनता की मर्यादा में बंध सहस्र नेत्र कर लिए। सुमेरु पर्वत पर स्नवन के उपरात रहता है। पाश्वपुराण की नायिकाएँ भी, भले ही वे इन्द्राणी ने जिनवर के अंगों को पोंछकर निर्जल बनाया। मानवी हों या देवांगनाये, इस मर्याद का उल्लंघन नहीं प्रभु की देह पर कुकुमादि अनेक विलेपन किये, ऐसा कर सकी है। प्रतीत होता था जैसे नीलगिरी पर संध्या फूली। शची ने सर्ग और छन्द त्रिलोकीनाथ को और भी अनेक प्रकार से मजाया । उनके प्राचार्य विश्वनाथ के साहित्य दर्पण के अनुसार महासिर पर मणिमय मुकुट रखा, माथे पर चूड़ामणि सुशो- काव्य में कम से कम ८ सर्गों का होना अनिवार्य है। भित किया, स्वाभाविक रूप से अजित नेत्रों में भी अंजन पावपुगण में 6 अधिकार है। कोई भी 'अधिकार' अनलगाया। मणि जड़ित कुन्डल कानों में पहनाये तो ऐसा पयुक्त या अतिरजित नहीं कहा जा सकता। उसमें पार्श्वमालम हा कि चन्द्र और सूर्य ने ही अवतार लिया हो। नाथ की कथा एक प्रवाह में निबद्ध है । महाकाव्य का एक भुजात्रों में भुजबंध, कमर में कर्धनी व परों में रत्नजडित नियम यह भी है कि एक सर्ग एक ही छन्द में हो, अन्तिम नूपुर भी सजा दिये। अंग-पग में आभूषण पहने भगवान् छन्द बदला हुअा हो उस बदले हुए छन्द में ही प्रागामी की शोभा उस कल्पवक्ष के समान थी, जिसकी डाले भूषण सगं प्रारम्भ हो । पाश्वपुराण में इस नियम का पालन भूषित हों। बाल भगवान कुछ बडे हए। अनेक मुख से नहीं किया गया । यद्यपि अधिकाशतया चौपाई और दोहे निकलने वाली कोमल हँसी तात-मात को मानन्दित
को शान्ति का प्रयोग है किन्तु बीच-बीच में मोरठा, अडिल्ल, छप्पय, करती थी। भगवान मणिमय प्रांगन में घटनो के बल कवित्त, पद्धड़ी और गीता नाम के छन्दो का भी मनिवेश
मे नत्र गगन में हुआ है। चौपाई और दोहे वाला म भी रामचरितमानस निशिनाथ ही विचर रहे हों। वे कांपते हए चरणो से जसा नहा है । इसम एक या कई चौपाइयो के उपरान्त चलते थे, वह इस शंका से शायद धरती मेरे बोझ को ।
एक या कई दोहे पाये हैं। कही-कही चौपाइयाँ ही हैं, सहन न कर सके । मुट्ठी बांधे और अटपटे पैरों से चलते
दोहे नहीं। कही दोहे ही हैं, चौपाइयाँ नही। भूधरदास भगवान की छवि अवर्णनीय है । इस भाँति बालकोचित
छन्दों के निर्माण में अत्यधिक निपुण थे । कथानक, चरित्र,
घटना और प्रसंग के अनुकूल ही छन्दों को चुना गया है। अनेक चेष्टानों का वर्णन है। किन्तु भूधरदास सूरदाम
वे महाकाव्य की गति के लिए प्रशस्त मार्ग से प्रतीत जैसी बालक की विविध मनोदशानों का चित्रण नहीं कर सके हैं।
होते हैं।
अलंकार नायक
सरल भाषा में अलंकागे का निर्वाह भी सहज ही इस महाकाव्य के नायक पाश्र्वनाथ हैं। उनका जन्म हमा है। ऐसा प्रतीत होता है कि भूधरदास अलंकारवादी
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नहीं थे। उन्होंने अलंकार लाने के लिए कोई प्रयास नहीं किया है। उनके सभी काव्यों में अलंकारों की छटा स्वाभाविक है। पार्श्वपुराण में उत्प्रेक्षा का प्रयोग सबसे अधिक हुआ है। १६ स्वप्न देखने के उपरान्त यामादेवी जयी तो उनका तन रोमांचित था और मुख प्रमुदित, जो ऐसा प्रतीत होता था मानो निशा के अवसान में सकंटक कमलिनी विकसित हुई हो । १ माँ की सेवा करने के लिये कुलगिरि कमल वासिनी देवियाँ ग्राकाश से उतर रही है, तो ऐसा मालूम होता है मानो नभदामिनी ही उतर रही हो उत्प्रेक्षा के उपरान्त दृष्टान्तानकार का भी अधिक प्रयोग है। जैसे कि सीप मे मोती धाकर उत्पन्न होता है, निर्मल गर्भ मे निराबाध भगवानर एक दूसरे स्थान पर अचेतन जिन बिब के सुख प्रदाता रूप की व्याख्या करते हुए कवि ने कहा है कि जैसे चिन्तामणि मनवांछित पदार्थों को देता है. वैसे ही यह जिन बिम्ब मनोवांछान को पूरा करता है। भूधरदास छोटे-छोटे रूपको के निर्माण में भी कुशल थे। जगवासी मोहनिद्रा में निमग्न है, कर्म चोर उनका सर्वस्व लुटने के लिए चारों ओर घूम रहे हैं ३ | सतगुरु के जगाने पर मोह निद्रा दूर हो जाती है और बाते हुए कर्मचोरों को रोकने का कुछ उपाय बनता है। जब ज्ञानरूपी दीपक मे तपरूपी तेल भरकर, घर के भ्रमरूपी कोनो को शोध डाला, तभी वं कर्मरूपी चोर निकल सके४ सूधरदास ने शब्दालंकारों पर ध्यान नहीं दिया है। भैया भगवतीदास और कवि बनारसीदास जैसी अनुप्रास छटा पार्श्वपुराण में नहीं है।
धनेकान्त
१ जिन जननी रोमांचि तन, जर्ग मुदित मुल जान किधौ सकंटक कमलनी विकसी निसि अवसान ॥ पंचमोऽधिकार पृ० सं० ४७
२ जथा सीप सम्पुट विषं, मोती उपजं प्रान । त्योंही निर्मल गर्भ में, निराबाध भगवान ॥
३ मोह नीद के जोर, जगवासी घूमें सदा । कर्मयोग और सरवस लूटे सुध नहीं ॥ ४ ज्ञान दीप तप तेल भरि घर सोधे भ्रम छोर । या विध बिन निकसे नहीं, पैठे पूरब चोर ॥ धिकार
३०
प्रकृति निरूपण
महाकाव्यों में प्राकृतिक दृश्यों का अकित किया जाना भी आवश्यक है। हिन्दी के कतिपय महाकाभ्यों में प्रकृति वर्णन केवल परम्परा निर्वाह के लिए ही करते हैं। अतः धन, पर्वत, समुद्र, मेघ, वृक्ष प्रादि का चित्र किसी असफल चित्रकार की रचना सा प्रतीत होता है। यह ही कारण है कि वनों में फैली ऋतुराज की सुषमा, पर्वतों पर निर्झरों का कलनाद, समुद्र में चंचल तरंगों का नृत्य, मेघ का रिमझिम बरसना तथा वृक्षों की डालों पर पल्लवों का विकास काव्य में नहीं उतर पाता। पार्श्वपुराण में वन और परंतों का सर्वाधिक वर्णन है। इन्हीं दो स्थानों पर मुनिराज तप करते हैं प्रथवा तीर्थकरों का समवशरण विराजता है आरम्भ में ही वनमाली, महाराज श्रेणिक को सूचना देता है कि विपुलाचल पर भगवान महावीर का समवशरण पाया है। इस श्रागमन से छः ऋतुस्रों के फलों से बन सुशोभित हो गया है। थागे चल कर काशी देश के गांव खेटपुर पट्टन का वर्णन है । उसके समीप अगाध जल से भरी नदियां बहती है। उनमें घनेक जलचर जीव नित्य रहते हैं। ऊंचे पर्वतों पर करने भरते हैं, जो मार्ग में जाते हुए पथिकों के मन को श्रापित कर लेते हैं। पर्वनों की कन्दराधों में मुनिजन निश्चल देह से ध्यान धारण करते हैं। वहाँ बड़े बड़े निर्जन वनो के समूह भी है जिनमे विविध प्रकार के विशाल वृक्ष लगे है। केला, करपट, कटहल, कैर, केथ, करोंदा, कोच, कनेर आदि लगभग ७० वृक्षो के नाम गिनाये हैं, किन्तु अनुप्रास के प्रवाह में वृक्षों के नामों की सूची भी सरस सी प्रतिमामित होती है १ ।
1
पार्श्वपुराण भूषरवास जिणवाणी कार्यालय कलकत्ता १. जहाँ बड़े निर्जन वन जल
जिनमें बहुविधि विरद्ध विशाल ॥
केला करपट कटहल कैर ।
कंथ करोदा कोंब कर्नर ॥
किरमाला ककोल कल्हार ।
कमरख कज कदम कचनार ॥ खिरनी खारक पिंडखजूर । संर
लिरहूटी बेजड़ भूर ॥
पंचमोधिकार पृ० सं० ४३
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वर्णी जी का आत्मालोचन और समाधि - संकल्प
श्री नीरज जैन
पूज्य वर्गीजी अपनी साधना के प्रति सदैव जागरुक, परम निस्पृह और एक सतर्क साधक थे। उन्होंने जिस निर्भीकता पूर्वक समय समय पर अपनी स्वयं की समालोचना की है और जिस दृढतापूर्वक ग्रात्मनिग्रह का संकल्प किया है वह साधकों के लिये सदैव अनुकरणीय और श्रादर्श रूप रहेगा। वे प्रायः प्रतिदिन बड़ी स्पष्टतापूर्वक अपने विचारों का लेखा-जोखा लगाकर अपनी उपलब्धियों को तौल कर, हानि-लाभ का अन्दाजा लगाया करते थे। उनकी यह ग्राम थालोचना की कथा जहाँ तहाँ उनके समीप चर्चा वार्ता में तो प्रकट होती ही थी, कभी कभाक लेखनी से भी उसका प्रकटीकरण हो जाता था। उनकी बहुत नियमित निसी जाने वाली नंदिनी में तो अनेक स्थानों पर ऐसी सामग्री देखी जा सकती है ।
करने में भी समर्थ हुई हो। यद्यपि धाप सावधान है परन्तु जबतक इस शरीर से ममता है तब तक सावधानी का भी ह्रास हो सकता है । आपने बालक पन से ऐसे पदार्थों का सेवन किया है जो स्वादिष्ट थे और उत्तम थे । इस का मूल कारण यह था कि आपके पूर्व पुण्योदय से श्री
रोजाबाई का संसर्ग हुआ। तथा धीयुत सर्राफ मूलचन्द्र जी का संसर्ग हुआ । जो सामग्री आप चाहते थे, इनके द्वारा आपको मिलती थी आपने निरन्तर देहरादून से चावल मगाकर खाये, उन मेवादि का भक्षण किया जो धन्य होन पुण्य वालों को दुगंभ थे तथा उन तैलादि का उपयोग किया जो धनाढ्यों को हो सुलभ थे । तुमने यह धनुचित कार्य किया किन्तु तुम्हारी धारमा में चिर काल से एक बात प्रति उत्तम थी कि तुम्हें धर्म की दृढ़ श्रद्धा और हृदय में दया थी। उनका उपयोग तुमने सर्वदा किया। तुम निरन्तर दुखी जीव देखकर उत्तम से उत्तम वस्त्र तथा भोजन उनको देने में संकोच नहीं करते थे, यही तुम्हारे श्रेयमार्ग के लिये एक मार्ग था । न तुमने कभी मनोयोग पूर्वक अध्ययन किया, न स्थिरता से पुस्तकों का अवलोकन ही किया, न चरित्र का पालन किया और न तुम्हारी शारीरिक क्षमता चरित्र पालन की थी। तुमने केवल आवेग में आकर व्रत ले लिया । व्रत लेना और बात है और उसका श्रागमानुकूल पालन करना अन्य बात है । हुमा था। केवल महाकाव्य ही नहीं, साहित्य के सभी अगों का उद्देश्य उत्तम चरित्र की जीत दिखाना था । पार्श्वपुराण में भी उत्तम और निकृष्ट चरित्रों की कशमकश दिखाई गई है। यदि इसे हिंसा और महिला का युद्ध कहें तो भी ठीक ही है। धन्त मे जीत उत्तम पात्र की हुई। यह जीत भौतिक नहीं है शिवरमणी के साथ विवाह हो उसकी जीत है। प्रतिद्वन्दी भी भाग कर पलायन नहीं करता, न मरता ही है परन्तु पार्श्वनाथ के मत में
उद्देश्य -
उस समय 'कला के लिए कला का धाविर्भाव नहीं दीक्षित होकर, उन्हीं के मार्ग पर चल पड़ता है।
व जी का पत्र, वर्णों जी के नाम :---
सर्वप्रथम इस प्रकार की सामग्री उनके एक पत्र के रूप में मिलती है जो उन्होने अपने श्राप को माघ शुक्ला १३ मं० १६६६ को लिखा था :
श्री मान् वर्णी जी, योग्य इच्छाकार
बहुत समय से भाप के समाचार नहीं पाये, इससे चित्तवृत्ति सदिग्ध रहती है कि प्रापका स्वास्थ्य अच्छा नहीं है । सम्भव है आप उससे कुछ उद्विग्न रहते हों और यह उद्विग्नता आपके अन्तस्तत्व की निर्मलता के कृश
संवर ज्योतिषीदेव के उपसर्ग में प्रकृति की दशा विश्यत उपस्थित की गई है। चारों घोर अंधकार छा गया । बादल गरज गरज कर घनघोर वर्षा कर उठे । नीर मूसलोपम घार में भर उठा, भयंकर बिजली चक्ररूप में चमक उठी । अत्यधिक वर्षा मे गिरि, तरुवर और वनजाल डूब गये और प्रभजन विकराल होकर वह उठा ।
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अनेकान्त
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लोग तो भोले हैं वाचाल और बाह्य से संसार प्रसार है, ऐसी कायकी चेष्टा से जनाते हैं उन्हीं के चक्र में श्रा जाते हैं। उन्हीं को साधुपुरुष मानने लगते हैं और उनके तन, मन, धन से प्राज्ञाकारी सेवक बन जाते हैं। वास्तव में न तो धर्म का लाभ उन्हें होता है और न श्रात्मा में शान्ति ही का लाभ होता है। केवल दभिगणों की सेवा कर अन्त में दम्भ करने के ही भाव हो जाते हैं। इससे श्रात्मा प्रधोगति का ही पात्र होता है ।
इस जीव को मैंने बहुत कुछ समझाया कि तू परपदार्थों के साथ जो एकत्वबुद्धि रखता है उसे छोड़ दे परन्तु यह इतना मूढ़ है कि अपनी प्रकृति को नहीं छोडता, फलतः निरन्तर धाकुलित रहता है। क्षणमात्र भी चैन नहीं
पाता ।"
आपका शुभचिन्तकगणेश वर्णी- (वर्णी वाणी, ४-२ )
क्षुल्लक वेष धारण कर लेने के उपरान्त भी अपने गत समस्त जीवन का सिंहावलोकन करते हुए एक जगह उन्होंने लिखा है
"अन्य की कथा कहाँ तक लिखे ? हमारी ८० वर्ष की धायु हो गई और ५० वर्ष से निरन्तर इसी प्रयत्न में तत्पर हैं कि मोह शत्रु को परास्त करें, परन्तु जितनी बार प्रयास किया बराबर धनुत्तीर्ण होते रहे। बालकपन में तो माता पिता के स्नेह में दिन जाते थे, मेरी दादी मुझ पर बहुत स्नेह करती थी। इसी तरह रात्रि दिन काल व्यतीत करते थे । परलोक का कोई विचार न था। जब कुछ पण्डितों का समागम हुआ। तब कुछ व्यवहार धर्म में प्रवृत्ति हुई । भगवान की पूजा और पद्मपुराण का श्रवण कर अपने को धर्मात्मा समझने लगे। कुछ दिन बाद वन करने लगे, रात्रि भोजन त्याग दिया, कभी उस परित्याग करने लगे ।
व्रत
इतने में पिता जी ने विवाह कर दिया। कुछ ही दिनों में मेरी माँ ने मेरी पत्नी को ऐसे रंग में रंग दिया कि वह हमसे कहने लगी कि अपनी परम्परा में अपने धर्म का परित्याग कर तुमने जो धर्म अंगीकार किया उसमें बुद्धिमता नहीं की । हम भौर हमारी पत्नी में ३६ का सा ( परस्पर विरुद्ध ) सम्बन्ध हो गया । फिर हम
टीकमगढ़ प्रान्त में चले गये और वहीं एक पाठशाला में अध्यापकी करने लगे । दैवयोग से वही पर श्री चिरोंजा बाई के सिमरा गये । धर्ममूर्ति बाई जी ने बहुत सान्त्वना दी तथा एक प्रपढ़ क्षुल्लक के चक्र से रक्षा की। पढ़ने की सम्मति दी किन्तु कहा शीघ्रता मत करो, मैं सब प्रबन्ध कर भेज दूंगी। परन्तु मैंने शीघ्रता की छा न हुन । अन्त में अच्छा ही हुआ । अच्छे अच्छ महापुरुपो और पण्डितों का समागम हुआ, तत्वज्ञान के व्याख्यान सुने, व्यवहार धर्म में प्रवृत्ति हुई, तीर्थयात्रा श्रादि सब कार्य किये; परन्तु शान्ति का श्रास्वाद न श्राया । मन में यह आया कि सबसे उत्तम कार्य विद्या प्रचार करना, जो जाति से युत हो गये हैं उन्हें पंचायत द्वारा जाति मे मिलाना, जो दस्से हैं उन्हें मन्दिरों में दर्शन करने में जो प्रतिबन्ध है उन्हें हटाना तथा जो बाई जी द्वारा मिले उसे परोपकार में दे देना चादि सब किया भी परन्तु शान्ति का अंश भी न श्राया । इन्ही दिनों में बाबा भागीरथ जी का समागम हथा, प्रापके निर्मल त्याग का आत्मा के ऊपर बहुत ही प्रभाव पड़ा। मैं भी देखा-देखी निरन्तर कुछ करने लगा परन्तु कुछ मफलता नहीं मिली ।
अन्त मे यही उपाय सुभा जो सप्तम प्रतिमा के व्रत अंगीकार किये । यद्यपि उपवासादिक की शक्ति न थी बहुत फिर भी यद्वा तद्वा निर्वाह किया। वार्ड की मे विरोध किया- ' बेटा तुम्हारी शक्ति नही परन्तु एक न मानी; फल जो होना था नहीं हुआ। लोग न जाने क्यो मानते रहे । काल पाकर बाई जी का स्वर्गवास हो गया । तब मैं श्री मोतीलाल जी वर्णों और कमलापति सेठ के समागम में रहने लगा । रेल की मवारी त्याग दी । मोटर की सवारी श्री पहिले ही त्याग दी थी। अन्त मे यह विचार हुआ कि बी गिरिराज की यात्रा करना चाहिए।
कुछ माह बाद शिखर जी की बन्दना की। वहाँ पर कई वर्ष बिताए, परन्तु जिसे शान्ति कहते है, नहीं पाई। प्रायः बिहार में भ्रमण भी किया। श्री वीर प्रभु के निर्वाण क्षेत्र श्रीराजगृही में ४ माह रहे, स्वाध्याय किया, वन्दनायें कीं । शक्ति के अनुकूल परस्पर तत्त्वचर्चा भी की, परन्तु जिसको शान्ति कहते है प्रणुमान भी उसका स्वाद न प्राया । कुछ दिनों बाद मन में प्राया कि क्षुल्लक हो
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वर्णी जी का प्रात्म-मालोचन पोर समाधि-संकल्प
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जामो। नट की तरह इन उत्तम स्वांगों की नकल की- श्रवण में प्रानन्द मानता है। जिसे पर की निन्दा में प्रर्थात् क्षुल्लक बन गये । इस पद को धारण किये ५ वर्ष प्रसन्नता होती है उसे प्रात्मनिन्दा में स्वयंमेव विषाद होता हो गये परन्तु जिस शान्ति के हेतु यह उपाय था, उसका है। जिसके निरन्तर हर्ष विषाद रहते हों वह सम्यग्ज्ञानी लेश भी न पाया, तब यही ध्यान में पाया कि तुम अभी कैसा । यद्यपि मात्मा ज्ञान दर्शन का पिण्ड है फिर भी न उसके पात्र नहीं। किन्तु इतना होने पर भी व्रतों के जाने क्यों उसमें राग द्वेष होते हैं। वस्तुतः इनका मूल त्यागने का भाव नहीं होता। इसका कारण केवल लोकषणा कारण हमारा संकल्प है अर्थात् पर में निजत्व कल्पना है । है। अर्थात् जो व्रत का त्याग कर देवेगे तो लोक में यही कल्पना राग द्वेष का कारण है। जब पर को निज अपवाद होगा। प्रतः कष्ट हो तो भले ही हो, परन्तु मानोगे तब अनुकूल में राग और प्रतिकूल में देष करना अनिच्छा होते हुये भी व्रत को पालना । जब अन्तरंग में स्वाभाविक ही है। प्रतः स्वरूप में लीन रहना उत्तम बात कषाय है बाह्य में प्राचरण भी व्रत के नकल नहीं तब है। अपना उपयोग बाहर भ्रमाया तो फंसे। होली के यह आचरण केवल दम्भ है।
दिन लोग घर में छिपे बैठे रहते है। कहते हैं कि यदि श्री कुन्दकुन्द स्वामी का कहना है कि यदि अन्तरंग
बाहर निकलेगे तो लोग कपड़े रग देगें। इसी प्रकार तप नहीं तब बाह्य वेष केवल दु.ख के लिये है । पर यहाँ
विवेकी मनुष्य सोचता है कि मैं पपने घर में अपने तो बाह्य भी नहीं अन्तरंग भी नही । तब यह वेष केवल
स्वरूप में लीन रहूँगा तो बचा रहूँगा अन्यथा संसार के दुर्गति का कारण है तथा अनन्त ससार का निवारक जो
राग रग में फस जाउगा। सम्यग्दर्शन है उसका भी घातक है । अन्तरंग में तो यह
जग में होगे हो रही, बाहर निकले कूर । विचार प्राता है कि इस मिथ्या वेप को त्यागो, लौकिक
जो घर में बैठा रहे, तो काहे लागे धूर ॥
-मेरी जीवन गाथा प्रतिष्ठा में कोई तत्त्व नहीं परन्तु यह सब कहने मात्र को
२-२८६ है। अन्तरंग में भय है कि लोग क्या कहेंगे? यह विचार समाधि संकल्पनहीं कि अशुभ कर्मका बन्ध होगा। उसका फल तो एकाकी
ध हागा । उसका फल तो एकाकी बाबा जी का जीवन जिस प्रकार एक निश्चित योजना तुमको ही भोगना पड़ेगा । यह भी कल्पना है। परमार्थ का परिणाम था उसी प्रकार उन का मरण भी योजनाबद्ध किया जावे तब आगे क्या होगा सो तो ज्ञानगम्य नही था. और उसके लिये उन्होने खूब तैयारी कर रखी थी । किन्तु इस वेष मे वर्तमान में भी कुछ शान्ति नही। जहाँ उनके मन्त समय प्रत्यक्षदर्शियों ने जिस लोकोत्तर शान्ति शान्ति नही वहाँ सुख काहे का ? केवल लोगो की दृष्टि और स्थिरता का दर्शन उनके हृदय में और पानन पर में मान्यता बनी रहे इतना ही लाभ है।"
किया है, निश्चित ही उमका उपार्जन बाबा जी ने साधना -वर्णी वाणी-३-२६३
पूर्वक किया था। समाधि ग्रहण करने के बहुत पूर्व उन्होंने शान्ति की खोज करने पर भी क्या उसका साक्षात् जो संकल्प किया था वह एक पत्र के रूप में मुझे उनकी करना प्रासान होता है। जब तक कछुए के हाथ परों की पुस्तकों के बीच प्राप्त हुआ था। इस पत्र से सहज ही जाना तरह अपनी वृत्तियों को समेट कर दृष्टि को अन्तमुखी न जा सकता है कि मृत्यु के प्रागमन के पूर्व से ही उसके किया जाय तब तक क्या उस शान्ति की उपलब्धि का स्वागत के लिये वे कितने चैतन्य, कितने सतर्क, पोर मपना भी देखा जा सकता है। इस प्रसग पर उन्होंने कितने मन्नत थे। वह पत्र मेरे संग्रह में सुरक्षित है जा लिखा
इस प्रकार है"लोग शान्ति शान्ति चिल्लाते हैं और मैं भी निरन्तर "यद्यपि हमारा रोग दो वर्ष से हम अनुभव कर है उसी की खोज में रहता हूँ पर उसका पता नहीं चलता। है। यह निष्प्रतिकार है, परन्तु जो साधर्मी भाई हैं, वह परमार्थ से शान्ति तो तब प्रावे जब कषाय का कुछ भी कहते है कि पाप सौ वर्ष जीवेगे। यह उनका कहना उपद्रव न रहे। कषायातुर प्राणी निरन्तर पर निन्दा के तथ्य हो वा प्रतथ्य हो बहज्ञानी जाने या जो कहते है ।
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बोध प्राभृत के संदर्भ में आचार्य कुन्दकुन्द
साध्वी श्री मंजुला, शिक्षा विभाग अग्रणी
प्राचार्य कुन्दकुन्द, दिगम्बर परम्परा में एक विशिष्ट पड़ा जो धीरे-धीरे कुन्दकुन्द हो गया। प्रापका तीमग और विख्यात प्राचार्य हो गए हैं। दिगम्बर परम्परा में नाम एलाचार्य भी प्रसिद्ध है। जो तिरुकुरल के रचयिता जो स्थान उन्हें प्राप्त है वह किसी दूसरे ग्रन्थकार को का है। इसी नाम और काल साम्य से तिरुकुरल को नहीं। भगवान महावीर और गौतम के बाद तीसरा कुन्दकुन्द की रचना संभावित रूप में माना गया है। हो इन्हीं का नाम स्तवनीय के रूप में प्राता है।
सकता है तिरुकुरल जनाचार्य कुन्दकुन्द की रचना हो "मंगलं भगवान् वीरो, मंगलं गौतमो गणी। लेकिन उनके अभी तक के उपलब्ध ग्रन्थों में तिरुकुरल मंगलं कुन्दकुन्दार्यो, जैनधर्मोस्तु मंगल ।" का नाम नहीं पाता है। कई कहते है कुन्दकुन्दाचार्य ने
प्राप दिगम्बर परम्परा के प्राचार्य होते हुए भी ८४ पाहुडो की रचना की उनमें से अब नौ ही प्राप्त है श्वेताम्बरत्व और दिगम्बरत्व के भेद भावों में कभी नहीं लेकिन १. दर्शन प्राभृत, २. चारित्र प्राभूत, ३. सूत्र उलझे । सदा तटस्थभाव से सत्य को निष्पक्ष अभिव्यक्ति प्राभूत, ४. बोध प्राभृत, ५. भाव प्राभूत, ६. मोक्ष प्राभृत, देना चाहते थे । दक्षिण के शिलालेखों में प्रापका नाम ७. समयमार, ८. प्रवचनसार, ६. पचास्तिकाय, कोंडकुन्द पाया जाता है। जिससे उनके तमिल देशवासी १०. नियमसार । इन नौ-दस के अतिरिक्त रयणसार, होने का अनुमान लगाया जा सकता है। श्रुतावतार के दस भक्ति, अष्ट प्राभूत, वारस अणुवेक्खा भादि और भी कर्ता ने उन्हें कोंडकुन्डपुर वासी कहा है। मद्रास कई ग्रन्थ उपलब्ध हैं। आपकी सभी रचनाएँ प्राकृत भाषा
राज्य में गुंतकल के समीप कुन्डकुन्डी नामक ग्राम है। में है। वहाँ की एक गुफा में कुछ जैन मूर्तियां स्थापित हैं। आपके समय के बारे में विद्वानों मे कई मतभेद हैं । प्रतीत होता है कि यही कुन्दकुन्दाचार्य का मूल निवास मापके ग्रन्थ में आपका कोई परिचय नहीं मिलता। स्थान व तपस्या भूमि रहा होगा। कइयों का अभिमत है केवल एक बारस-अणुवेक्खा का एक ही प्रति के अन्त में "द्रविड देश के कोंडकुन्ड ग्राम के थे कुन्दकुन्दाचार्य । और उसके रचयिता श्रुतकेवली भद्रबाहु के शिष्य हो गए हैं । उसी कोण्डकुण्ड के आधार पर इनका कोण्डकुण्ड नाम इसके अनुसार कवि का कालमान ई० ५, तीसरी, चौथी ही जानें । मुझे विश्वास है चाहे वह तथ्य हो या प्रतथ्य देंगे अथवा इसे अनुचित समझे तो जो उचित हो उसे हो, अब समाधि मरण के उपायों का अविलम्ब अवलम्बन उपयोग में लावें। अब केवल सन्तोष कराने से मेरा तो करना श्रेयस्कर है। इसका उपाय पेय पदार्थ है। पाहार कल्याण दुर्लभ होगा। को छोड़कर स्निग्ध पान करना बहुत ही उपयोगी होगा।
आपका शुभचिन्तक दूध प्राधा सेर और दो अनार का रस (जो पाव सेर से
गणेश वर्णी अधिक न हो) माठ दिन इसका प्रयोग करना चाहिए। इस प्रकार हम देखते हैं कि पूज्य बाबा जी ने सदैव यदि यह उपयोग ठीक हो, समाधि मरण के अनुकूल पड़ कठोर प्रात्मालोचन द्वारा अपने जीवन को संवारा, उसे जावे तो अगाड़ी सात छटाक दूध और प्राधा पाव अनार गति दी, तथा एक सुनियोजित समाधि संकल्प के माध्यम के रस का उपयोग करना चाहिए। और इस उपयोग में से उन्होंने अपना अवसान काल अद्भुत शान्ति और प्रात्मसफल हो तो पागामी काल में तक इत्यादि का प्रयोग चिंतन के मानन्द से अभिभूत करके समता पूर्वक यह करना चाहिए । रोमी गाणा है कि माधर्मी भाई सम्मति शरीर त्याग किया।
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बोध प्राभूत के संदर्भ में प्राचार्य कुनकुन
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शताब्दी ठहराता है। कई विक्रम की प्रथम शताब्दी को सभी अन्य प्राकृत में हैं जबकि जन परम्परा में तीसरी कन्दकन्दाचार्य का अस्तित्व काल मानते हैं । लेकिन डा. शताब्दी से ही उमास्वाति प्रादि संस्कृत ग्रन्थों के रचयिता हीरालाल जी ने निम्नोक्त तर्क देकर इस कालमान को हो गए फिर पांचवीं शताब्दी तक पहुँचने वाले कुन्दकुन्द भप्रमाणित सिद्ध किया है कि "एक तो वीर निर्वाण से संस्कृत में क्यों नहीं अपनी रचना प्रस्तुत करते ? खैर ! ६५३ वर्ष की जो प्राचार्य परम्परा-सुसंबद्ध और सर्व- हमारे पास कोई प्रामाणिक निष्कर्ष नहीं है कि हम कुन्दमान्य पाई जाती है उसमें कुन्दकुन्द का नाम नहीं पाता। कुन्द का निश्चित समय बता सकें फिर भी विकीर्ण और दूसरे भाषा की दृष्टि से उनकी रचना इतनी प्रमाण सामग्री के आधार पर वे ई० सन् बाद के और प्राचीन सिद्ध नहीं होती उनमें प्रघोष वर्गों के लोप, चौथी शताब्दी से पूर्व के होने चाहिएं । एक बात और है या श्रुति का प्रागमन आदि ऐसी प्रवृत्तियाँ पाई उनका जो समन्वयात्मक दृष्टिकोण है वह भी उन्हें जाती हैं जो उन्हें ई. सन से पूर्व नहीं किन्तु उससे पांचवीं, छठी शताब्दी से पूर्व ही ले जाता है इसके बाद पश्चात कालीन सिद्ध करती है। पांचवीं शताब्दी में हुए का काल, खण्डन-मण्डन और अभिनिवेश का काल है। प्राचार्य देवनन्दि पूज्यपाद ने अपनी सर्वार्थसिद्धि टीका में प्रस्तु ! कुछ गाथाएँ उद्धृत की हैं जो कुन्दकुन्द की वारस अणु- प्रासङ्गिक विश्लेषण काफी लम्बा हो चला है। वेक्खा में भो पाई जाने से वहीं से ली हई अनुमान की प्रकृत लेख का विश्लेष्य केवल 'बोध प्राभूत के संदर्भ में जा सकती हैं । मर्करा के शक संवत् ३८८ के ताम्रपात्रों प्राचार्य कुन्दकुन्द' है। में उनके पाम्नाय का नाम पाया जाता है किन्तु अनेक प्राचार्य कुन्दकुन्द का दृष्टिकोण, निश्चियात्मक और प्रबल कारणों से ये ताम्रपत्र जाली सिद्ध होते हैं। अन्य समन्वयात्मक अधिक रहा है। वे किसी भी वस्तु या तथ्य शिला लेखों में इस आम्नाय का उल्लेख सातवी, आठवीं
के बाह्य रूप में नहीं उलझे । अन्तस् में उतर कर शताब्दी से पूर्व नहीं पाया जाता प्रतएव वर्तमान प्रमाणों यथार्थता तक पहुंचने की कोशिश की, उन्होंने भगवान के प्राधार पर निश्चियतः इतना ही कहा जा सकता है महावीर के अनेकान्तात्मक दृष्टिकोण को प्रात्मगत् ही कि वे ई० की पांचवीं शताब्दी के प्रारम्भ व उससे पूर्व नहीं व्यवहारगत भी किया। उनके जीवन की सबसे बड़ी हुए हैं।
व्यवस्था, वे एक सम्प्रदाय में बंधे होकर भी सम्प्रदायातीत
होकर रहे। उनके ग्रन्थों से भी यही झलकता है कि कई विक्रम की छठी या आठवीं शताब्दी को कुन्दकुन्द
उन्होंने अपने सम्प्रदाय के साथ अव्यवहारिकता नहीं की का काल मानते हैं। नहीं कह सकते सच्चाई किसमें है
सत्य के साथ भी अन्याय नहीं किया। इस तथ्य को लेकिन इतना तो निश्चित है कि डा. हीगलालजी के
जानने के लिए उनका बोध प्राभूत साक्षात् पठनीय है। तर्क काफी प्रबल हैं और कुछ भी हो लेकिन ई०पू० तो
बोध प्राभूत, उनके ८४ पाहूडों में से एक है। जिस हम कुन्दकुन्द आचार्य को नहीं ले जा सकते । फिर
में उन्होंने प्रायतन, चैत्यगृह, प्रतिमा१, दर्शन, विम्ब, भी ताम्रपात्रों के जाली सिद्ध होने से और शिलालेखों के
जिनमुद्रा, ज्ञान, देव. तीर्थ, प्रर्हत् और प्रव्रज्या इन ग्यारह उल्लेखों के आधार पर हम उन्हें पांचवीं, छठी और
तत्त्वों के सच्चे स्वरूप का निरूपण किया है। पाठवीं शताब्दी तक भी नहीं ले जा सकते। क्योंकि उनकी भाषा व शैली ई०पू० जितनी प्राचीन नहीं है तो १. प्रायदण चेदिहरं जिणपडिमा दसणं च जिण विम्ब । उतनी सद्यस्क भी नहीं है। उनकी प्राकृत पर संस्कृत का भरिणयं सुवीयरायं जिणमुद्दा णाणमादत्थं ॥ अधिक प्रभाव नहीं है। (ऐसा उनके ग्रन्थों में प्रयुक्त
(श्लो० ३ शब्दों से जाना जाता है जैसे ढील्ल, हेट्ट, पोल्ल आदि) २. परहंतेण सुदिटुंजं देवं तित्यमिह य परहंतं । जबकि चौथी, पांचवीं शताब्दी के बाद की प्राकृत पर पावज्ज गुण विसुद्धा इय णायव्या जहा कमसो॥ स्पष्ट संस्कृत का प्रभाव पड़ा है। दूसरे में कुन्दकुन्द के
(श्लो० ४ बोध प्राभृत)
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अनेकान्त
बोष प्राभृत में आपकी एक विशेषता विशेष रूप से गए हैं तथा जो विशुद्ध ध्यान और ज्ञान से युक्त है वह व्यंजित हुई है जो पूर्व और पश्चात् के प्राचार्यों में सिवायतन है। अपवाद रूप ही कहीं निखर पाई होगी। मापने जड़ इसी तरह साधारणतया चैत्यगृह शब्द मन्दिरों और शब्दों को प्रर्थ ही नहीं दिया वह प्रात्मादी जिसके बिना वृक्षों के लिए प्रयुक्त होते हैं लेकिन कुन्दकुन्द ने उस पंच१ अस्तित्व शून्य थे । आप चाहते तो अपने अर्थों के लिए महावतों से पवित्र और ज्ञानमय प्रात्मा को चैत्यगृह कहा नए शब्द गढ़ लेते लेकिन आपने उन्हीं शब्दों को प्राध्या- है जो स्वयं की और पराई चेतना को वोधिलाभ से भावित त्मिक अर्थ दिया जिन्हें पहले कई तरह के अर्थ दिए जा करता है । तथा जोर स्वयं के बंध-मोक्ष. सुख दुःख का चुके थे। हो सकता है उसमें उनका व्यावहारिक कौशल सर्जक स्वयं ही है ऐसी प्रात्मा जो छक्काय के लिए हितकर रहा हो कि शब्दंग्राही लोग शब्दो को तत्त्वरूप देखकर है उसे चैत्यगृह कहा है। भड़के वहीं या फिर उनका दृष्टिकोण ही अन्तर्मुख रहा
साधारणतया जिन प्रतिमा शब्द मन्दिरों में होने हो कि उनके समक्ष जो कुछ भी पाता उसमें उन्हें वाली मूर्तियों के लिए व्यवहत होता है। पहले भी इसी अध्यात्म के ही दर्शन होते। इसी का यह परिणाम है कि अर्थ में होता था और आज भी। जैसे यह एक जैनधर्म उन्होंने जो भी पारिभाषिक या लोक प्रचलित शब्द का पारिभाषिक शब्द हो और इसका अन्यथा अथं करना सामने आए उन्हें अध्यात्मपरक अर्थ दिया । यह उनकी
अपराध में परिगणित होता है। जैनेतर प्राचीन ग्रन्यो मे अपनी सूझ थी। इनसे पूर्व पायतन, चैत्यगृह आदि शब्द ।
भी प्रतिमा शब्द जड़ मूतियों के लिए ही व्यवहार में जैन, बौद्ध व वैदिक साहित्य में उन्हीं बाह्य अथों में प्रयुक्त लाया गया। लेकिन कन्दकन्द ने जिन प्रतिमा उसे कहा होते थे।
जो शुद्ध ३ ज्ञान, दर्शन और चारित्र युक्त, निर्ग्रन्थ वीतराग, जहाँ मायतन शब्द का प्रचलित अर्थ मकान या भाव जिन हैं। स्थान है वहाँ मापने उस संयमी आत्मा१ को प्रायतन
संयत प्रतिमा-उन मुनियों को बताया जो शुद्ध बताया जो प्रवृज्या गुण से समृद्ध, ज्ञान गुण से सम्पन्न
चारित्रमय हैं तथा शुद्ध सम्यक्त्व को जानते और प्रात्मगत मन, वचन व काय तथा इन्द्रियों के विपयो के अपराधीन
करते है। हैं। अर्थात् वशवर्ती नहीं हैं। तथा उस संयत रूप को भी प्रायतदा र सी व्युन्सर्ग प्रतिमा सिद्धों को कहा है। जो निरुपम हैं। लाभ आदि से अपराजित है, व पंच महाव्रतधारी महर्षि अचल है। मक्षुभित है, जंगम रूप से निर्मापित है तथा
सिद्धायतन की नई व्याख्या करते हुए उन्होंने बताया
१. बुद्ध जं बोहंतो, अप्पाणं चेइयाण अण्णं च । -जिस मुनि वृषभ के समग्र३ पदार्थ सदर्थ सिद्ध हो
पंच महन्वय सुद्धं, णाणमयं जाण चेदिहरं ।।
(बो० श्लो० ८) १. मण-वयण-काय दव्वा, आ सत्ता जस्स इंदिया विसया। २. चेइय बधं मोक्खं, दुःखं सुक्खं च अप्यय तस्स । प्रायदणं जिणमग्गे, णिद्दिळं सजयं रूवं ॥ इहरं जिण मग्गे, छक्काय हियंकरं भणियं ॥ (श्लो०५)
(बो० श्लो०६) २. मय राग दोस मोहो, कोहो लोहो य जस्स मायत्ता। ३. सपरा जंगमदेहा, दंसणणाणेण सुद्ध चरणाणं । पंच महव्वय धारा, प्रायदणं महरिसी भणियं ॥ निग्गंथ वीयराया, जिणमग्गे एरिसा पडिमा ।। (श्लो०६)
(बो० श्लो०१०) १. सिद्धं जस्स सदत्थं, विमुद्धा झाणस्स णाणजुत्तस्य। ४. जं चरदि सुद्धचरणं, जाणइ पिच्छेइ सुद्धसम्मत्तं । सिद्धायदणं सिद्ध, मुणिवर वसहस्स मुणिदत्यं ॥ सा होइ बंदणीया, निग्गंथा संभा पडिमा ॥ (बोध श्लो. ७)
(बो० श्लो० ११)
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सिद्ध स्थान में स्थित हैं१ । दर्शन शब्द की बड़ी विचित्र परिभाषा की है । यों दर्शन शब्द के अनगिन अर्थ किए जा चुके हैं। उनके कई आत्मपरक अर्थ भी है लेकिन वहाँ भी आत्मा के एक
विशेष को दर्शन कहा गया है। पर कुन्दकुन्दाचार्य ने तो समूचे श्रात्मा को ही दर्शन की संज्ञा दे दी। जो श्रात्मा सम्यकत्व,२ संयम और सुधर्म रूप मोक्षमार्ग को दिखाता है उस ज्ञानमय निर्ग्रन्थ को दर्शन कहा गया है ।
शुद्ध संयम और ज्ञान-मय बीतराग की३ मुद्रा को जिन बिम्ब कहा गया है जो कर्म क्षय की हेतुभूत शिक्षाएँ देते हैं । जो तप और व्रतों के गुणों से शुद्ध हैं शुद्ध४ सम्यक्त्व को जानने वाले व ग्रात्मगत करने वाले हैं तथा शिक्षा दीक्षा देने वाले हैं उनकी मुद्रा को जिन मुद्रा कहा गया है । इसी तरह५ दृढ़ संयम मुद्रा, इन्द्रिय मुद्रा, कषायमुद्रा आदि नाना मुद्राओंों को जिनमुद्रा कहा गया है। तथा अर्थ (प्रयोजन) धर्म और काम (इप्सित ) व ज्ञान को देने वाले को गुरु और उसी के व्रत, सम्यक्त्व
बोध प्राभूत के संदर्भ में प्राचार्य कुन्दकुन्द
१. निरुवममचलमखोहा, निम्मिविया जंगमेण रूवेण । सिद्धट्ठणम्मि ठिया, वोसरपडिमा धुवा सिद्धा || ( बो० श्लो० १३ ) संजमं सुधम्मं च । दंसणं भणियं ॥
( बो० श्लो० १४ )
२. दंसेइ मोक्खमग्गं सम्मत्त निग्गंथं णाणमयं जिणमगे
३. जिनबिम्बं णाणमयं संजम सुद्धं सुवीयरायं च । जं देइ दिवख, सिक्वा कम्मक्खय कारणे सुद्धा ॥ ( बो० श्लो० १९ ) ४. तव वय-गुणेहि सुद्धो, जाणदि पिच्छेइ सुद्ध सम्मत्तं । अरहंत मुद्द एसा दायारी दिक्ख- सिक्खा य ॥ ( बो० श्लो० १७ ) कसायदढमुद्दा । एरिसा भणिया ॥
( बो० श्लो० १८ ) ६. सो देवो जो प्रत्थं, धम्मं कामं सुदेश णाणं च । सो देइ जस्स श्रत्थि, अत्थो धम्मो य पवज्जा ॥ (बो० श्लो० २४)
५. दढसंजम मुद्दाए, इंदियमुद्दा, मुद्दा इह पारणाए जिणमुक्ष
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से विशुद्ध, पंच इन्द्रियों में संयत व निरपेक्ष रूप को तीर्थ १ कहा गया है। उस तीर्थ में स्नान करने का अर्थ किया है उनसे दीक्षाएँ और शिक्षाएँ लेना ।
प्रव्रज्या का अर्थ यों कोई नया नहीं है लेकिन एक ही गाथा में जो प्रव्रज्या के सर्वांश का स्पर्श किया है वह अवश्य ही विलक्षण है। तथा कई जो प्रव्रज्या का अर्थ बाह्यलिङ्ग ( चिन्ह - वेशभूषा ) करते हैं उनके लिए नया भी है । उन्होंने प्रव्रज्या की परिभाषा करते हुए कहा है। जो शत्रु-मित्र, प्रशंसा-निन्दा, २ लब्धि - श्रलब्धि का तृण और स्वर्ण में समभाव हैं । उन स्वभावों का नाम ही प्रव्रज्या है । इस बोध प्राभृत ( या कर्ता ने जिसका नाम 'छक्का सुहंकर' रखा है) में ग्यारह तत्त्वों का वर्णन है । उनमें से ज्ञान, अर्हत् आदि एक दो ( जिनकी परिभाषाओं में विशेष अपूर्वता नहीं है) को छोड़कर शेष सभी की सार्थ व्याख्या उल्लिखित करने का प्रयास किया है। इतना अवश्य है कि एक ही तत्व की कुन्दकुन्द ने अनेक परिभाषाएं की हैं जिनका कुल मिलाकर आशय एक हैं उन सबको उल्लिखित न करके केवल एक-एक को ही यहाँ अवकाश मिल सका है ।
कुन्दकुन्द के इन ग्यारह विषयों के विवरण से ज्ञात होता है कि उस समय नाना प्रकार के प्रायतन माने जाते थे । नाना प्रकार के चैत्यों, मूर्तियों, मन्दिरों व बिम्बों की पूजा होती थी । नाना मुद्राओंों में साघु दिखाई देते थे । तथा देवतीर्थ व प्रव्रज्या के भी नाना रूप पाए जाते थे । यही कारण है कि इन लोक प्रचलित सभी विषयों का कुन्दकुन्द ने सच्चा स्वरूप दर्शाया । जो 'बोधपाहड़' के रूप में हमारे सामने है ।
बोध प्रामृत के आधार पर कुन्दकुन्द के प्रन्तर मानस का काफी स्पष्टता से विश्लेषण होता है। फिर भी अव शेष इतना रह जाता है कि जो उनके अन्यान्थ ग्रन्थों के अन्तः स्पर्शी अध्ययनों से ही गम्य किया जा सकता है । १. वय - सम्मत्त विशुद्धे, पंचिदियसंजदे णिरावेक्खे । हाएउ मुणी तित्थे, दिक्खा - सिक्खा - सुण्हाणेण || (बो० श्लो० २६) २. सत्तूमित्ते व समा पसंसर्गिदाग्रलद्विलद्धिसमा । तणकणए समभावा, पव्वज्जा एरिसा भणिया || ( बो० श्लो० ४७ )
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जीव: का अस्तित्व जिज्ञासा और समाधान
मुनि श्री नथमल
बालचंद जी नाहटा को मैं लम्बी अवधि से जानता पर्याय माना गया है और जीव में संकोच-विस्तार होने से हूँ। पुनर्भवी मात्मा में उन्हें विश्वास नहीं है। फिर भी सौम्य स्थौल्य स्पष्ट है, तथा 'प्रात्म-प्रवाद' पूर्व में जीव इस विषय की खोज में वे अपना समय लगाते हैं। प्राचार्य का नाम 'पुद्गल' भी दिया है। जैसा कि उक्त पूर्व का श्री तुलसी वि. २०२० का चातुर्मास जब लाडणू में विता वर्णन करते हुए 'धवला' सिद्धान्त टीका के प्रथम खण्ड में रहे थे, तब वे वहाँ आए। उन्होंने मुझे भनेकान्त (जून 'उक्तं च' रूप से जो दो गाथाएं दी हैं उनके निम्न अंश से सन् १९४२) का एक पत्र दिया और कहा इस प्रश्नावली तथा वहीं 'पोग्गल' शब्द के प्राकृत में ही दिए हुए निम्न पर आप अपना अभिमत लिखे। मैंने उसे पढ़ा और कहा अर्थ से प्रकट हैकि अभी मैं उत्तराध्ययन के सम्पादन कार्य मे बहुत व्यस्त जीवो कत्ताय वत्ताय पाणी भोत्ताय पोग्गलो।" हैं, इसलिए इस पत्र को अपने पास रख लेता हूँ। समय "छब्विह संठाणं बह विह देहेहि पूरदिगलदित्ति पोग्गलो।" पर लिख सकंगा। लगभग १।। वर्ष के बाद उस पर मैं श्वेताम्बरों के भगवती सूत्र में भी जीव को पृद्गल अपना अभिमत लिख रहा हूँ।
नाम दिया है। कोशों में भी "देहे चात्मनि पुद्गलः" रूप प्रस्तुत प्रश्नावलि जुगल किशोर जी मुख्तार की है। से पुद्गल का आत्मा अर्थ भी दिया है। बौद्धों के यहाँ बे स्वतः तत्त्वविद् व्यक्ति हैं। उनके मन में कुछ प्रश्न तो आम तौर पर पुद्गल नाम का प्रयोग पाया जाता है। उठे हैं। उन्होंने जिज्ञासु भाव से प्रस्तुत किए है। २३ तब जीवों को पौद्गलिक क्यों न माना जाय ? वर्ष पुरानी प्रश्नावली पर लिखू, यह लगता कैसा ही है ५. जीव को 'परंज्योति' तथा 'ज्योतिस्वरूप' कहा गया पर एक व्यक्ति ने चाहा, तब मेरा कर्तव्य हो गया कि है और ध्यान द्वारा उसका अनुभव भी 'प्रकाशमय' बतउस पर कुछ लिखू । इस प्रश्नावलि मे दस प्रश्न हैं मोर लाया गया है-प्रन्तः करण के द्वारा वह प्रत्यक्ष भी होता वे परस्पर सम्बद्ध हैं । इसलिए मैं अविभक्त रूप से उनकी है। सब बाते भी उसके पौद्गलिक होने को सूचित करती समीक्षा करना चाहूँगा
हैं-उद्योत और प्रकाश पुद्गल का ही गुण माना गया १. चैतन्य गुण विशिष्ट सूक्ष्माति सूक्ष्म प्रखण्ड पुद्- है। ऐसी हालत में भी जीव को पोद्गलिक क्यो न माना गल पिण्ड (काय) को एदि 'जीव' कहा जाय तो इसमें जाय? क्या हानि है-युक्ति से कौन सी बाधा माती है ?
६. प्रमूर्ति का लक्षण पंचाध्यायी के "मूर्त स्यादि२. जीव यदि पौद्गलिक नहीं है तो उसमें सौम्य- न्द्रिय ग्राह्य तद्ग्राह्यममूर्तिमत्" (२-७) इस वाक्य के स्थौल्य अथवा संकोच-विस्तार, क्रिया और प्रदेश परिस्पन्द अनुसार यदि यही माना जाय कि जो इन्द्रियगोचर न हो कैसे बन सकता है?
_वह प्रमूर्तिक, तो जीव के पौद्गलिक होते हुए भी उसके ३. जीव के अपौद्गलिक होने पर प्रात्मा में पदार्थों प्रमूर्तिक होने में कोई वाधा नहीं पाती। असख्य पुद्गलों का प्रतिबिम्बित होना-दर्पण तलवत् झलकना-भी के प्रचयरूप होकर भी कार्माणवर्गणा जैसे इन्द्रियगोचर कैसे बन सकता है? क्योंकि प्रतिबिम्ब का ग्राहक पुद्गल नहीं है और इसलिए प्रमूर्तिक है, ऐसा कहा जा सकता ही होता है-उसी में प्रतिबिम्ब ग्रहण की अथवा छाया है। इसमें क्या बाधा आती है ? यदि निराकार ही होना को अपने में अंकित करने की योग्यता पाई जाती है। प्रमूर्तिक का लक्षण हो तो उसे खरविषाणवत प्रवस्तु क्यों
४. तस्वार्थ सूत्रादि,में सोक्षम्य-स्थौल्य को पुद्गल की न समझा जाय?
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जीव का अस्तित्व जिज्ञासा र समाधान
७. पुद्गल के यदि दो भेद किये जायें-एक चैतन्य- आपत्ति के योग्य हो सकता है? गुण विशिष्ट और दूसरा चैतन्य गुण रहित, चैतन्यगुण- १०. रागादिक को 'पौद्गलिक' बतलाया गया है विशिष्ट पुद्गलों को केवल 'वर्णवन्तः'-वह भी 'चक्षुर- (अन्ये तु रागाद्याः हेयाः पौद्गलिका प्रमी', (पंचा. गोचरवर्णवन्तः' माना जाय और दूसरों को 'स्पर्श रस २-४५७) और रागादिक जीव के प्रशुद्ध परिणाम हैगन्धवर्णवन्त:' माना जाय और उन्हीं में रूपादि की रसादि बिना जीव के उनका अस्तित्व नहीं। यदि जीव पौगलिक के साथ व्याप्ति स्वीकार की जाय तो इसमें क्या हानि नहीं तो रागादिक पौगलिक कैसे सिद्ध हो सकेगे? है? ऐसा होने पर प्रथम भेदरूप जीवों को तत्त्वार्थ सार रागादिक का अस्तित्व क्या जीव से अलग सिद्ध किया जा के कथनानुसार (८-३२) 'ऊर्ध्व गौरव धर्माणः' और सकता है? इसके सिवाय प्रपौदगलिक जीवात्मा में कृष्ण द्वितीय भेदरूप पुद्गलों को 'अधो गौरव धर्माण.' कहना नीलादि लेश्याएँ भी कैसे बन सकती हैं ? भी तब निरापद हो सकता है। अन्यथा, अपोद्गलिक में चैतन्यगुणविशिष्ट सूक्ष्माति सूक्ष्म प्रखण्ड पुद्गल गौरव का होना नहीं बनता। गुरुता-लघुता यह पुद्गल पिण्ड (काय) को जीव मानने पर निष्पन्न क्या होगा। का ही परिणाम है।
कुछ पुद्गल चैतन्य गुण विशिष्ट हैं और कुछ पुद्गल ८. यदि पुद्गल मात्र को स्पर्श-रस-गन्ध-वर्ण इन चैतन्यगुण रहित हैं-यह श्रेणि विभाग वैसे ही रहा, चार गुणों वाला माना जाय-उसी को मूर्तिक कहा जाय जैसे माना जाता है कि जीव चैतन्य गुण विशिष्ट है और और जीव में वर्ण गुण भी न मानकर उसे प्रमूर्तिक स्वी- पुद्गल चैतन्य गुण रहित हैं। सब पुद्गल चैतन्य-गुणकार किया जाय तो ऐसे अपोद्गलिक और अमूर्तिक विशिष्ट होते तो स्थिति में अन्तर पाता। कुछ पुद्गलों जीवात्मा का पौद्गलिक तथा मूर्तिक कर्मों के साथ बद्ध को चैतन्य गुण विशिष्ट मानने से नामान्तर मात्र हुमा, होकर विकारी होना कैसे बन सकता है ? इस प्रकार के अर्थान्तर कुछ भी नहीं। बन्ध का कोई भी दृष्टात उपलब्ध नहीं है। और इसलिए मल प्रश्न यह है कि चेतन और अचेतन के बीच एक ऐसा कथन (अनुमान) अनिदर्शन होने से (माप्तपरीक्षा भेद-रेखा अवश्य है। और वह वर्तमानिक सत्य है। प्रतीत की 'ज्ञानशक्त्यैव नि.शेषकार्योत्पत्तो प्रभुः किल । सदेश्वर और भविष्य का सत्य क्या है ? इति ख्यातेऽनुमानमानदर्शनम्' इस प्रापत्ति के अनुसार) १. क्या चेतन अचेतन से चेतन के रूप में विकसित अग्राह्य ठहरता है--सुवर्ण और पापाण के अनादि बध का 'हमा है या सदा चेतन ही रहा है ? जो दृष्टान्त दिया जाता है वह विषम दृष्टान्त है और एक
२. क्या चेतन कभी अचेतन के रूप में परिवर्तित हो प्रकार से सुवर्ण-स्थानी जीव के पौद्गलिक होने को ही
जाएगा या सदा चेतन ही रहेगा?
. सूचित करता है-यदि ऐसा कहा जाय तो इस पर क्या
३. क्या पहले चेतन हो था और अचेतन उससे मापत्ति खड़ी होती है ?
सृष्ट हुमा? ९, स्पर्श-रस-गन्ध-वर्ण में से कोई भी गुण जिसमें ४. क्या पहले अचेतन ही था और चेतन उससे हो उसे मूर्तिक मानने पर (स्पर्शा रसश्च गन्धश्च वर्णोऽमी सृष्ट हुआ? मूर्तिसंज्ञकाः' आदि पंचाध्यायी २-६) और जीव को ५. क्या चेतन और अचेतन दोनों स्वतन्त्र थे? वर्ण गुण विशिष्ट स्वीकार करने पर (जिसका कुछ अद्वैतवाद के अनुसार चेतन से अचेतन अस्तित्व में अभ्यास 'शुक्लध्यान' शब्द के प्रयोग से भी मिलता है) पाया है। चार्वाक और कुछ वैज्ञानिकों के अनुसार प्रचेतन जीव भी मूर्तिक ठहरता है और तब मृतिक जीव का . से चेतन अस्तित्व में आया है। मूर्तिक कर्मों के साथ बद्ध होकर विकारी होने में कोई जैन तत्त्व-विद्या के अनुसार दोनों का अस्तित्व स्वबाधा नहीं पाती। वह सजातीय-विजातीय-पुद्गलों का तन्त्र है। तीनों मत हमारे लिए प्रत्यक्ष नहीं हैं, इसलिए ही बन्ध ठहरता है यदि ऐसा कहा जाय तो वह क्यों कर इनके सम्बन्ध में सत्य क्या है ? नहीं बता सकते।
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अनेकान्त
मैं अपनी बात कहै-चेतन तत्त्व के विषय में मैंने विस्तार (देखें प्रश्नांक ४) प्रकाशमय अनुभव (देखें दर्शन-शास्त्र के जितने स्थल पड़े उनसे न तो मेरी यह प्रश्नांक ५) ऊर्ध्व गौरव धर्मता (देखें प्रश्नांक ७) राग प्रास्था बनी कि जीव है और न यह आस्था बनी कि जीव आदि (देखें प्रश्नांक १०) नहीं हो सकते । नहीं है। जो जीव का अस्तित्व स्वीकार रहा है, वह भी संस्कारगत सत्य है और जो उनका प्रस्त्वि नहीं स्वीकार मैं जहाँ तक समझ सका हैं कोई भी शरीरधारी रहा है, वह भी संस्कारगत सत्य है। वास्तविक सत्य वह जीव अपोद्गलिक नहीं है। जिन प्राचार्यों ने उनमें संकोचहोगा कि जब हम मानेंगे नहीं कि जीव है या नहीं है विस्तार, बन्धन प्रादि माने हैं। अपौद्गलिकता उसकी किन्तु यह जान लेंगे कि वह है या नहीं है ?
अन्तिम परिणति है, जो शरीर-मुक्ति से पहले कभी प्राप्त यदि आप कहें कि वास्तविक सत्य है, इसे क्या हम नहीं होती। और वह हमारी परीक्षानुभूति का विषय नहीं जानते हैं ? नही जानते हुए भी जब हम मानते हैं कि है। जहाँ तक हमारी प्रत्यक्षानुभूति का प्रश्न है जीव का वह है तो फिर इसी को वास्तविक सत्य क्यों न मान लें भूत और भविष्य दोनों प्रज्ञात हैं। वर्तमान जो ज्ञात है कि जीव है या नहीं है ? जो मेरे लिए रहस्य है उसे मैं उसे प्रश्नकर्ता चैतन्य गुण विशिष्ट पुद्गल कहना चाहते हैं मान रहा है, जान तो नहीं रहा है। यदि मैं उसे जान और मैं पुद्गल-युक्त चैतन्य कहना चाहता हैं। पदगल रहा होता तो वह मेरे लिए रहस्य ही नहीं होता। आज और चैतन्य ये दोनों दोनों में हैं। प्रश्नकर्ता को चैतन्य हम सबके सामने प्रतीत और भविष्य तथा बहलांश में को गौण और पुद्गल को मुख्य स्थान देना इष्ट है। इस वर्तमान भी इतनापूर्ण है कि उनके विषय में हम अपनी रेखा पर पहुंचते ही हमारी दूरी केवल गौणता और मान्यताएं ही स्थापित कर सकते हैं। तो मेरी मान्यता यह मुख्यता तक सीमित हो जाती है। जिन चैतन्य की प्रक्रिया है कि हमारा वर्तमान व्यक्तित्व न सर्वथा पौद्गलिक ही से ही शरीर दूसरे पुद्गलों का ग्रहण, स्वीकरण (प्रात्महै और न सर्वथा अपोद्गलिक ही है। यदि उसे सर्वथा सात् करण) और विसर्जन करता है और अपनी हर
सालिक मानें तो उसमें चैतन्य नहीं हो सकता और प्रवृत्ति मे जिसकी अधीनता स्वीकार करता है, क्या उसे यदि उसे सर्वथा अपोद्गलिक मानें तो उसमें संकोच- गौण स्थान दिया जा सकता है ?
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अनेकान्त के ग्राहक बनें
'अनेकान्त' पुराना ख्यातिप्राप्त शोध-पत्र है। अनेक विद्वानों और समाज के प्रतिष्ठित व्यक्तियों का अभिमत है कि वह निरन्तर प्रकाशित होता रहे। ऐसा तभी हो सकता है जब उसमें घाटा न हो और इसके लिए प्राहक संख्या का बढ़ाना अनिवार्य है हम विद्वानों, प्रोफेसरों, विद्याषियों, सेठियों, शिक्षा-संस्थानों, संस्कृत विद्यालयों, कालेजों और नधुत को प्रभावना में श्रद्धा रखने वालों से निवेदन करते हैं कि वे 'अनेकान्त' के ग्राहक स्वयं बनें और दूसरों को बनावें।
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हेमराज नाम के दो विद्वान
परमानन्द जैन शास्त्री
हिन्दी जैन साहित्य के कवियों का अभी तक जो उन्होंने तत्काल पत्र में उसे मानते हुए लिखा था कि यह इतिवृत्त संकलित हुआ है उसमें बहुत से कवियों का इति- भूल डा० कस्तूरचन्द के कारण हुई है। दोहाशतक का वृत्त संकलित नहीं हो सका, इतना ही नहीं किन्तु उनका परिचय उन्होंने मुझे भेजा था। अस्तु, उसे परिमाजित नाम और रचनादि का भी कोई परिचय नहीं लिखा गया। करने के लिए भी मैंने लिखा था, पर वे बीमारी के कारण उसका प्रधान कारण तद्विषयक अनुसन्धान की कमी है। उसे कर न सके। उसके बाद अब डा. प्रेमसागर जी के अन्य भाषाओं की तरह हिन्दी भाषा में जैनियों का बहत- "हिन्दी जैन भक्ति काव्य और कवि" नामक रचना के सा साहित्य रचा गया है जिस पर अनेक तुलनात्मक और पृ० २१४ पर, जो पांडे हेमराज' नाम से देखने में पाई है समालोचनात्मक निबन्धों के लिखे जाने की आवश्यकता उसमें एक व्यक्ति मानकर ही सारा परिचय दिया गया है, है । अस्तु, माज हिन्दी जैन साहित्य के पांडे हेमराज और और उनकी उपलब्ध कृतियों को भी एक विद्वान् की कृति हेमराज गोदिका नाम के दो कवियों का परिचय दिया जाता मान लिया गया है । भविष्य में इस भूल का प्रसार न हो है, जिन्हें भ्रम से विद्वान् लेखकों ने एक ही मान लिया है। इसी से इस लेख द्वारा प्रकाश डाला जा रहा है। यद्यपि दोनों कवि भिन्न भिन्न जाति के हैं। एक की प्रथम हेमराज वे हैं, जो आगरा के निवासी थे और जाति अग्रवाल है तो दूसरे की जाति खडेलवाल । एक प्राकृत संस्कृत तथा हिन्दी के अच्छे विद्वान् थे। इनकी पांडे हेमराज नाम से ख्यात है तो दूसरे हेमराज गोदिका जाति अग्रवाल और गोत्र 'गर्ग' था। इनके 'जैनी' नाम नाम से । एक हिन्दी गद्य पद्य के अच्छे लेखक और अध्या- की एक पुत्री थी जो रूपवान होने के साथ साथ शीलादि त्म के विशेष विद्वान है, तो दूसरे केवल पद्य के लेखक सद्गुणों में प्रवीण थी। पिता ने उसे खुब विद्या पढ़ाई
और तत्त्वचर्चा के प्रेमी हैं। रचनाएं भी दोनों की जुदी थी, वह बड़ी विदुषी, व्युत्पन्न और बुद्धिमती थी। पाण्डे जुदी हैं प्रथम ने प्रवचनसार की टीका सं० १७०६ में हेमराज ने अपनी पुत्री का विवाह बयाना वासी श्रवणदास बनाई थी किन्तु दूसरे ने उनकी टीका का अध्ययन कर के पुत्र नन्दलाल जी के साथ किया था, जो उस समय उसका पद्यानुवाद स० १७२४ में बनाकर समाप्त किया आगरा में ही रह रहे थे। उससे बुलाकीदास नाम का पुत्र था। इतना होने पर भी उन दोनों को एक मान लिया उत्पन्न हुमा या२ । जिसने माता की आज्ञानुसार पाण्डवगया है । इस भूल में प्रथम कारण डा० कस्तूरचन्द जी
विशेप मालूम हुई कि उनका जन्म सांगानेर में हा काशलीवाल हैं, उन्होंने अनेकान्त वर्ष १४ कि० १० में जो
था और यह दोहाशतक कामगढ़ (कामा, भरतपुर) 'उपदेश दोहाशतक' का परिचय दिया है, वह द्वितीय
में कीतिसिंह नरेश के समय में बनाया गया। हेमराज की कृति है जिसे भूल से प्रथम हेमगज की कृति
अर्घकथानक पृ० १०८ मान लिया गया है। उसके बाद श्रद्धेय नाथूराम प्रेमी
१. यह ग्रन्थ अभी भारतीय ज्ञानपीठ काशी से मुद्रित द्वारा सम्पादित अर्धकथानक के परिशिष्टों में हेमराज का
हुआ है। परिचय देते हए वहाँ इसे प्रथम की कृति बतलाया गया
हेमराज पंडित बस, तिसी आगरे ठाइ । है। जब मैंने अर्धकथानक का दूसरा एडीसन देखा तो
गरग गोत गुन अागरी, सब पूजे तिस पाइ। प्रेमी जी को उस भूल की ओर आकर्षित किया । तब
उपजी ताके देहजा, जैनी नाम विख्याति । १. प्रेमी जी ने लिखा है कि-दोहाशतक ले यह बात शील रूप गुण मागरी, प्रीति नीति की पांति ॥
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अनेकान्त
पुराण की रचना हिन्दी पद्य में की थी।
टीका है पांडे हेमराज की नहीं। गोम्मटसार कर्मकाण्ड कवि हीरानन्द ने अपने समवसरण विधान (१७०१) (कर्मप्रकृति) की टीका सं० १७१७ में बनाई गई है। में इन हेमराज का उल्लेख किया है। यह मागरे की जो अब भारतीय ज्ञानपीठ काशी से प्रकाशित हो चुकी अध्यात्म शैली के विद्वान् थे और तत्वचर्चा करने में है। कवि की भक्तामर स्तोत्र की रचना का जैन समाज में प्रत्यन्त निपूण थे। हिन्दी गद्य लेखक और कवि थे। बहुत समादर है, सहस्रों व्यक्तियों को वह कण्ठाग्र है।
पाण्डेदेमराज ने अपनी दो रचनामों में कविवर कवि ने उस में अपनी लघता व्यक्त करते हुए लिखा हैबनारसीदास के साथी कवि कुंवरपाल का उल्लेख किया कि हे भगवन् ! मैं शक्तिहीन होते हुए भी भक्ति-भाववश मोर उन्हें 'ज्ञाता' बतलाया है। सितपट चौरासी बोल में प्रापका स्तवन करता हूँ। जिस तरह कोई हिरिणी बललिखा है
हीन होते हुए भी अपने पुत्र की रक्षार्थ मृगपति के सम्मुख नगर प्रागरे में बस कॉरपाल सग्यान ।
चली जाती है । जैसा कि कवि के निम्न पद्य से स्पष्ट हैतिस निमित्त कवि हेम ने कियो कवित्त बखान ।
सो मैं शक्तिहीन युति करू', भक्ति-भाव-वश कछु न रह
र पौर प्रवचनसार की बालबोध टीका प्रशस्ति में
ज्यों मगि निजसुत पालन हेत, मृगपति सन्मुख जाय अचेत लिखा है-जिससे स्पष्ट ज्ञात होता है कि उन्होंने कुवर
यहाँ यह बात विचारणीय है कि डा० साहब ने पांडे पाल की प्रेरणा से ही प्रवचनसार की यह बालबोध टीका
हेमराज को सांगानेर का निवासी मानकर बुलाकीदास के बनाई है।
पाण्डव पुराणानुसार अग्रवाल और गर्ग गोत्री लिखा है। बालबोष यह कीनी जैसे, सो तुम सुणहु कहूँ मैं तैसे।
जबकि सांगानेरवासी हेमराज खडेलवाल थे। और इनका मगर मागरे में हितकारी, कारपाल ज्ञाता अधिकारी
परिचय में अनेकान्त वर्ष ११ कि० १० में दे चुका था. तिनि विचारि जिय में यह कीनी, जो भाषा यह होइनवीनी
फिर भी उस पर दृष्टि नहीं गई। या उन्होंने उसे देखा अलपवृद्धि भी परथ बखान, अगम अगोचर पद पहिचान ॥५ .
ही नहीं होगा, इसी से उन पर विचार नहीं हो सका। यह विचार मन में तिनि राखी, पांडे हेमराज सौं भाखी। ।
सोनी दूसरी गलती कवि नन्दलाल का परिचय देते हुए हो अब जो प्रवचन की है भाखा, तो जिनधर्म बढ़ सौ साखा। गई है। नन्दलाल श्रावक और कवि नन्दलाल दोनों
भिन्न-भिन्न व्यक्ति हैं। नन्दलाल श्रावक बयानावासी सत्रहस नव मौतरं, माघ मास सित पाख। पंचमि प्रावितबार कौं, पूरन कीनी भाख॥
श्रवणदास के पुत्र थे; जो प्रागरे में ही प्रा बसे थे। किन्तु पांडे हेमराज ने निम्न कृतियों की रचना की है। कवि नन्दलाल गोसना नामक गांव के निवासी थे. यह भी प्रवचनसार टीका सं०१७०९। परमात्म-प्रकाश टीका अग्रवाल गोयल गोत्री थे। इनकी माता का नाम चन्दा सं० १७१६ में, पंचास्तिकाय की टीका सं० १७२१ में, और पिता का नाम भैरो था। इन्होंने यशोधर चरित्र की यह टीका को पांडे रूपचन्द जी के प्रसाद से बनाई थी। रचना सं० १६७० में पौर सुदर्शन चरित्र की रचना सं० सितपट चौरासी बोल सं० १७०६ में बनाया परन्तु वह १६६३ में सम्पन्न की थी। इतनी सब भिन्नता होने मभी अप्रकाशित है। मानतुङ्गाचार्य के भक्तामर स्तोत्र का पर भी कवि नन्दलाल के साथ हेमराज की पुत्री का सुन्दर पद्यानुवाद । नयचक्र की टीका प्रभी तक मेरे देखने विवाह कराना, और बुलाकीदास का जन्म मानना ठीक में नहीं पाई। जो प्रति देखी है वह शाह हेमराज जी की नहीं है। इनके समय में भी अन्तर है। नन्दलाल कवि
१. हिन्दी जन भक्ति काव्य और कवि पृ० १५८ दीनी विद्या जनक ने, कीनी मति व्युत्पन्न ।
२. संवत सोरहसे अधिक सत्तरि सावन मास । पंडित जाप सीख ले, घरणीतल में धन्य ।।
यशोधर चरित्र पाण्डव पुगण संवत सोरहस उपरन्त, प्रेसठ जाहु बरम महन्त । १. हेमराज पंडित परवीन ।-समवसरण विधान ८३॥
सुदर्शन चरित्र
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का समय पूर्ववर्ती है। और नन्दलाल श्रावक का अपेक्षाकृत एक सभा अथवा शैली थी, जिसमें स्थानीय अनेक सज्जन अर्वाचीन । प्राशा है डाक्टर साहब इस पर विचार प्रतिदिन भाग लेते थे। इस शैली का प्रधान लक्ष्य करेगे। पांडे हेमराज का सम्बन्ध प्रागरा से है जब कि अध्यायात्म ग्रन्थों का पठन-पाठन करना और तत्व चर्चा दूसरे हेमराज का सम्बन्ध कामा और सांगानेर से है। द्वारा उलझी हुई गुत्थियों को सुलझा कर जैनधर्म के आगरा से नहीं।
प्रचार के साथ-साथ प्रात्म उन्नति करना था। उस समय दूसरे हेमराज वे हैं, जो सांगानेर (जयपुर) के भारत में जहाँ-तहाँ इस प्रकार की अध्यात्म शैलियां विद्यनिवासी थे। उनकी जाति खडेलवाल और गोत्र भांवसा मान थीं, जिनसे जनता प्रात्मबोध प्राप्त करने का प्रयत्न है । परन्तु उनका व्यक 'गोदी का' कहा जाता था। करती थी। इनके प्रभाव एवं प्रयत्न से जहाँ लोक हृदयों कुछ समय बाद वे सांगानेर से कामा चले आये थे२, जो में जैनधर्म के प्रति आस्था और प्रेम उत्पन्न होता था भरतपुर स्टेट का एक कस्बा है। उस समय कामा में वहाँ अनेकों का स्थिति करण भी होता था-उनकी चल जयसिंह के पुत्र कीर्तिकुमार सिंह का राज्य था, जिसने श्रद्धा में सुदृढ़ता मा जाती थी। उस समय जयपुर, देहली, अपनी तलवार के बल से शवों को जीत कर वश मे किया प्रागरा, सांगानेर प्रादि में ऐसी शैलियाँ अपना कार्य
जो निम्न पदा से प्रकट है :- सूचारु रूप से सम्पन्न कर रही थीं। इससे जहाँ स्थानीय कामागढ़ सूवस जहां, कीरतिसिंह नरेश। लोगों का जैनधर्म के प्रति धर्मानुराग बढ़ता था वहाँ अपने खड्ग बल बसि किये, दुर्जन जितके देश । प्रागन्तुक सज्जनों को धर्मोपदेश का यथेष्ट लाभ भी
और उनके कायस्थ जाति के गजसिंह नामक एक मिलता था। इनके प्रभाव से अनेक व्यक्ति जैनधर्म की सज्जन दीवान थे, जो बड़े ही बहादुर और राजनीति में शरण को प्राप्त हुए थे। शैली के सदस्यों में परस्पर धामिदक्ष थे३ । उन दिनों कामा में अध्यात्म प्रेमी सज्जनों की कता, सदाचारता, वात्सल्य और दूसरों के प्रति प्रादर
पौर प्रेम का भाव रहा करता था, जनता को अपनी १. हेमराज श्रावक खंडेलवाल जाति गोत भावसा प्रगट।
ति भावसा प्रगट और प्राकृष्ट करने में समर्थ होता था उन दिनों कामा व्योंक गोदी का बखानिये ।
की इस शैली के कवि हेमराज भी एक सदस्य थे, जो -प्रवचनसार प्रश० देखो, अनेकांत वर्ष ११ कि०१० निरन्तर
निरन्तर सैद्धान्तिक ग्रन्थों का पठन-पाठन करते हुए तत्त्व२. (क) "सांगानेरि सुथान को हेमराज वस वान। चर्चा के रस मे निमग्न रहते थे। कामा की इस शैली में अब अपनी इच्छा सहित वस कामागढ़ थान ॥" जिन दिनों प्राचार्य कुन्दकुन्द के प्रवचनसार का वाचन
वही प्रशस्ति। हो रहा था, उन दिनों प्राचार्य अमृतचन्द्र की सस्कृत टीका (ख) "उपजी सांगानेरि को, अब कामागढ़ वास।। का भाव लेकर बनाई हुई हिन्दी टीका का काफी प्रचार वहां हेम दोहा रचे, स्व-पर बुद्धि परकास ॥" था। उस अध्यात्म शैली में जीवराज नाम के एक सज्जन
दोहा शतक जो दया धर्म के धारक तथा प्रवचनसार ग्रन्थ के रसा३. सोभित जयसिघ महासिंह सुत काम,
स्वादी थे। उन्होंने मन में विचार किया कि यदि इस अवनी के भारसौ सुभार पीठ बनी है। प्रवचनसार का पद्यानुवाद हो जाय तो सभी जन उसे ताके घर कीर्तिकुमार ने उदा चित्त,
कंठ कर सकेगे। इसी पवित्र भावना से उन्होंने हेमराज कामागढ़ राजित ज्यों दिन मही है ॥ को प्रेरित किया और हेमराज ने उसका पद्यानुवाद शुरू जहां काम करता दिवान गजसिंधु जाति, किया और उसे संवत् १७२४ में बना कर समाप्त किया।
कायस्थ प्रवीन सबै सभानीति सनी है ॥ पद्यानुवाद में कवि ने कवित्त, अरिल्लछन्द, वेसरी, पद्धड़ी, तहां छहों मनको प्रकाश सुखरूप सदा,
रोड़क, चौपाई, दोहा, गीता, कुण्डलिया, मरहठा छप्पय कामागढ़ सुन्दर सरस छवि बनी है। पौर सवैया तेईसा आदि छन्दों का प्रयोग किया है।
--प्रवचनसार प्रशस्ति जिनके कुल पद्यों की संख्या ७२५ है। जिनका व्योरा
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अनेकान्त
किया है।
कवि के शब्दों में निम्न प्रकार है :
कारण अग्नि से तपे हुए धी से सिंचन करने से उनसठ कवित्त परिल्ल बत्तीस सुबेसरि छंव निवै भरतीन। समुत्पन्न देह-दाह के समान इन्द्रि-सुखों को प्राप्त करता बस पढरी चारि रोडकमानि, सब चालीस चौपई कीन। है। यही सब भाव टीकाकार ने अपने पद्यों में व्यक्त बोहा छन्द तीनस साठा तामें एक कीजिए हीन। गीता सात पाठ कुंडलिया एक मरहठा मिनहु प्रवीन ॥ दोहा-शुद्ध स्वरूपाचरणते, पावत सुख निरवान । छप्पय-बाईसा भनि चारि पांचसौ चौईसा कहिए।
शुभो पयोगी प्रात्मा, स्वर्गादिक फल जान ।। इकतीसा बत्तीसा एक पच्चीसौं लहिए ।
वेसरि छन्दछप्पय गनि तेईस छन्द फुनि सामबिलंवित ।
विषय-कषायी जीवसरागी, कर्मबन्ध की परिणति जागी। जानह बस पर सात सकल तेईसा परमित ॥
तह शुद्ध उपयोग विवारी, तात विविध भांति संसारी ॥ सोरठा-छन्द तेतीस सब सात सतक पच्चीस हुव।।
तपत घोव सींचत नर कोई, उपजत दाह शान्ति-नहि होई। प्रवचनसार एक सैद्धान्तिक ग्रन्थ है, जिसमें तीन स्योंही शभ उपयोग दुख माने, देव-विभूति तनक सुख मानं ॥ मधिकार हैं, उनमें ज्ञान ज्ञेयरूप तत्त्वज्ञान के कथन के सभोपयोगी सकति मुनिराई, इंद्रियाधीन स्वर्ग सुखदाई। साथ जैन यत्याचार का बड़ा ही रोचक और सुन्दर कथन छिनमें होई जाय छिनमाह, शुद्धाचरण पुरुष क्यों चाहै ।। दिया हुआ है। ग्रन्थ की भाषा प्राचीन प्राकृत है, और इसयमादसमुत्थं विषयातीदं प्रणोवम मणतं । बड़ी ही परिमाजित है। और वह प्राचार्य कुन्दकुन्द के अध्यच्छिण्णं च सुह सुद्धवप्रोगप्पसिद्धाणं ॥११२॥ अन्य सभी ग्रन्थों की भाषा से प्रौढ़ है। और गाथाएँ
इस गाथा में शुद्धोपयोग का फलनिदिष्ट करते हए गम्भीर प्रर्थ की द्योतक है। इसमें प्राचार्य कुन्दकुन्द की दार्शनिक दृष्टि के दर्शन होते है। इसका दूसरा अधिकार
बतलाया गया है कि परमवीतराग रूप सम्यक्चारित्र से 'ज्ञेयाधिकार' नाम का है, जिसमें ज्ञेयतत्त्वों का सुन्दर
निष्पन्न अगहन्त सिद्धों को जो सुख प्राप्त है वह इन्द्रादि विवेचन किया गया है। कथन-शैली अत्यन्त प्रौढ़, तथा
के इन्द्रियजन्य सुखों से अपूर्व आश्चर्यकारक पंचेन्द्रियों के गम्भीर एवं संक्षिप्त है । ऐसे कठिन प्रन्थ का कवि ने जो
विषयों से रहित, अनुपम, प्रात्मोत्थ, अनन्त (अविनाशी)
प्रव्युच्छिन्न (वाधारहित) है-उस सुखामत के सामने पद्यानुवाद करने का प्रयत्न किया है वह उसमें कहाँ तक। सफल हुआ है । उसके सम्बन्ध में यहाँ कुछ न कहते हुए
संसार के सभी सुख हेय एवं दुःखद प्रतीत होते है, क्योंकि
वे सुग्वाभास हैं। इसी भाव को कवि ने निम्न पद्यों मे पाठकों की जानकारी के लिये कुछ गाथाम्रो का पद्यानुवाद दिया जाता है, जिससे पाठक कवि को कविता और
अकित किया है :उसके प्रयत्न की सफलता का विचार करने में समर्थ सबही सुखतें अधिक सुख, है प्रातम प्राधीन। हो सकें।
विषयातीत बाधारहित, शुद्धचरण शिव कोन ॥ घम्मेण परिणदप्पा अप्पा अदि सुद्ध-संपयोगजुदो।
शुद्धाचरण विभूतिशिव, अतुल प्रखण्ड प्रकाश । पावदि णिब्याणसुहं सुहोवजुत्तो व सग्ग-सुहं ॥१॥
सदा उ नये करम लिये. दरसन ज्ञान विलास ॥ इस गाथा में बतलाया गया है कि जब धर्मस्वरूप वेसरिपरिणत यह पात्मा शुद्ध उपयोग से युक्त होता है तब जो परमातम शुद्धोपयोगी, विषयकषाय रहित उरजोगी। मोक्ष सुख प्राप्त करता है। किन्तु जब वह धर्मपरिणति करननऊतम पुरवभान, सहज मोक्षको उद्यम ठानं ।। के साथ शुभोपयोग में विचरण करता है-रागवर्द्धक इन्द्रिय निस्यंव पुण्य-सुख, सबै इन्द्रियाधीन । दान, पूजा, व्रत संयमादि रूप भावों में प्रवृत्त होता है तब शुद्धाचरण प्रखण्डरस, उद्यम रहित प्रवीन । उसके फलस्वरूप वह स्वर्गादिक मुखों का पात्र बनता जाहं होमि परेसि ण मे परे सन्ति गाण हमेको । है-वह विषय कषायरूप सरागभावों में प्रवृत्त होने के इदि जो झायवि झाणे सो प्रप्पाणं हववि झावा ॥२-६६
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हेमराज नाम के दो विद्वान
इस गाथा में शुद्ध नय से शुद्ध प्रात्मा को लाभ एक सौ एक दोहे अंकित हैं । कवि ने इन दोहों को स्व-पर बतलाया गया है और लिखा है कि मैं शरीरादि परद्रव्यों बुद्धि प्रकाशार्थ रचा है। सभी दोहे सरस मोर उपदेश का नहीं हैं। और न शरीरादिक परद्रव्य मेरे हैं । किन्तु की गुट को लिये हुए हैं। कवि ने यह दोहा शतक संवत् मैं सकल विभाव भावों से रहित एक ज्ञान स्वरूप ही हूँ। १७२५ में कार्तिक सुदी पंचमी को बनाकर समाप्त इस प्रकार भेद विज्ञानी जीव चित्त की एकाग्रता रूप- किया है। ध्यान में समस्त ममत्वभावों से रहित होता हया अपने कवि कहता है कि हे पात्मन, तू अन्धा और अज्ञानी चैतन्य प्रात्मा का ध्यान करता है वही पुरुप प्रा.मध्यानी बनकर इधर-उधर तीर्थस्थानों मन्दिरों आदि में निरंजन कहलाता है। इसी भाव को निम्न पद्यों में अनूदित किया देव को ढूंढ़ता फिरता है। तू अपने घट की पोर क्यों गया है
नहीं देखता जिसमें निरंजन देव बसा हुआ है। मैं न शरीर शरीर न मेरो, हों एकरूप चेतना केरो,
ठोर ठौर सोधत फिरत, काहे अन्ध प्रवेव । जो यह ध्यान धारना धार, भेदज्ञान बलकरि निरवार।
तेरे ही घट में बसो, सवा निरंजन देव ॥२५॥ सो परमातम ध्यानी कहिये, ताकी दशा ज्ञान में लहिये।
प्रस्तुत दोहा अध्यात्म रस से प्रोत-प्रोत है तो अन्य तजि अशुद्धि नय शुद्ध प्रकाश, ता प्रसाद नोह विनाश॥ दोहे में शरीर को दुर्जन की उपमा दी है।
असन विविध विजन सहित, तन पोषत थिर जानि । ताते तजि व्यवहार नय, गहि निहचे परवान।
दुरजन जनकी प्रीति ज्यों, देह वगो निदानि । तिन्ह केवल सौं पाइये, परमातम गुनन्यान॥ मोह गांठ को भेदने वाला ही मुक्ति प्राप्त करता है
__जिस तरह दुर्जन को कितना ही खिलाया पिलाया
जावे तथा उसे प्रसन्न रखने का भरसक प्रयत्न किया जो णिहद मोहगंठी रागपदोसे खवीय सामण्णे।
जाय तो भी वह अन्त में अवश्य धोखा देता है। उसी होज्जं सम-सुह-दुक्खो सोक्खं अक्खयं लहदि ॥
तरह शरीर का कितना ही लालन पालन किया जाय और इस गाण में बतलाया गया है कि जो पुरु मोह रूपी
उसे स्वथ्य एवं स्वच्छ रखने का प्रयत्न किया जाय। गाठ का भेदन करता है वह यति अवस्था में होने वाले
तो भी वह स्थिर नहीं रहता-विनष्ट हो जाता है। गग-द्वेष रूप विभावभावों को विनष्ट करके सुख-दु.ख में
अतएव दुर्जन की प्रीति के समान ही शरीर की प्रीति मम दृष्टि होता हुमा अक्षय सुख को प्राप्त करता है।
जाननी चाहिए । शरीर चूंकि पर वस्तु है जड़ है, अतएव यही भाव निम्न पद्य में कवि ने निहित किया है।
उससे राग उचित नहीं है । राग तो प्रात्म-गुणों से करना जब जिय मोह गांठि उर भानी,
आवश्यक है। रागढष तजि समता पानी।
इस तरह लेख में प्रयुक्त प्रमाणों के आधार पर यह ममता जहां न सुख-दुख व्याप ,
सुनिश्चित हो जाता है कि दोनों हेमराज भिन्न-भिन्न हैं। तहाँ न बन्ध पुण्य अरु पापै ।
वे एक नहीं है। हेमराज नाम के और भी कई विद्वान् सो मनिराज निराकुल कहिये ,
हए हैं। पर उनका इस लेख से कोई सम्बन्ध न होने से सहज प्रात्मीक सुख लहिये ।
उनके परिचय का संवरण किया गया है। इस तरह यह पद्यानुवाद गाथानों के यथार्थ अर्थ का परिचायक है।
१. सतरह सौ पच्चीस को वरतै संवत् सार। कवि की दूसरी कृति 'उपदेश दोहा शतक' है जिसमें कातिक सुदी तिथि पंचमी, पूरन भयौ विचार ॥१०॥
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३८वे ईसाई तथा ७वे बौद्ध विश्व-सम्मेलनों को
श्री जैन संघ को प्रेरणा श्री कनकविजय जो, मामूरगंज, वाराणसी
वर्तमान जैन संघ की दुःखद स्थिति :
देखा जाय तो यह बात भी बिल्कुल ठीक है। विश्व का विश्व में अनेकों प्रकार के प्रचार कार्य चल रहे हैं। कोई भी बुद्धिमान् विचारक उससे इन्कार कर ही नहीं और चलते भी रहेंगे। उन सबकी ओर अपने को दृष्टि सकता । घर जला कर प्रकाश करना उचित है ही नहीं। देने की जरूरत नहीं है। किन्तु जो कोई प्रचार कार्य घर में रहने वालों को सुविधा हो इतने मात्र के लिए ही मानव समाज की उन्नति के लिए, और सो भी आध्या- तो प्रकाश करने में आता है। और वास्तव में यह त्मिक उन्नति के लिए वर्तमान विश्व में हो रहे हों उनकी बिल्कुल सीधी सादी स्पष्ट बात ही न्याय सगत है। भोर तो प्रवश्य ही अपने को कुछ दृष्टि करनी ही पड़ेगी। इतनी मूल बात को स्थिर करने के पश्चात् अब क्योंकि काल या परिस्थिति के बल अपने को मजबूरन अपनी उस बात पर पाते हैं कि ईसाई, बौद्ध, हिन्दू उसकी ओर दृष्टि करने के लिए बाध्य करे उसके पूर्व ही मूस्लिम प्रादि धर्म विश्व के मानव समाज की कुछ उपअपने समय की गति को पहले से ही पहचान ले और योगी सेवा करते है कि नहीं ? और यदि करते हैं । तो बुद्धिमत्ता से वर्तमान में ही उसका विचार कर ले वह उसके अनुसार जनों को भी ऐसा ही कोई उल्लेखनीय उचित गिना जायगा । एक दृष्टि यह भी है कि माध्या- महत्त्वपूर्ण सेवा का मार्ग अपनाना चाहिए की नहीं ? कि त्मिक उन्नति और भौतिक उन्नति दोनों एक दूसरे के जिसके द्वारा विश्व की अमूल्य संचित निधि समान श्री पूरक है विरोधिनी नहीं। और वास्तव में उन्नति को जैन संघ जैसे रत्न तुल्य महा संध का भी प्रकाश विश्व में उसके असली रूप में देखने मे प्रावे तो सत्य भी यही है। फले। यथा शक्य मानव समाज का विशाल रूप में मात्मस्वरूप की अन्तिम स्थिति में पहुँचे हुए महापुरुष श्री कल्याण तो हो ही, और उस तरह अपने अस्तित्व को भी तीर्थकर देवों के समीप प्रकृति या भवितव्यता भी दासी चरितार्थ करने के साथ विश्व की समग्र विचारधारा एवं बन कर रहती है। ३४ अतिशय तथा वाणी के ३५ दष्टि विन्दयों का समन्वय करने वाले जैनों का सक्रिय गुणों को व्यक्त करने के रूप में प्रकृति स्वयं परमविशुद्ध अनेकान्तवाद केवल जीवित ही नहीं अपितु विश्व को मात्म स्वरूप की अर्थात् श्री तीर्थकर देवों की सेवा ही महत्त्वपूर्ण उन्नति की प्रेरणा देता है जैसा विश्व को अनुकरती है। फलतः वह स्पष्ट है कि प्रात्म स्वरूप में पूर्णतः भव भी हो। स्थिति और उसका अलौकिक भौतिक प्रभाव दोनों एक ही हजारों वर्ष के इतिहास में थी जैन संघ ने सामाजिक सिक्के के दो पहलुओं के समान हैं।
आदि दृष्टियों से अनेकों बार उत्क्रांतियां एवं अपक्रान्तियां श्री जैन शिक्षा का मूल उद्देश्य यही है कि हर एक भी देखी। इतने सुदीर्घ कालीन अनुभवों के पश्चात् उन व्यक्ति को सर्वप्रथम अपना कल्याण करना चाहिए। अनुभवो का विश्लेषण करते हुए उसमें कुछ हुई गल्तियां, स्वात्म कल्याण के साथ पर उपकार हो जाय तो वह त्रुटियां प्रादि का परिमार्जन करके युगानुरूप कुछ नई इच्छनीय है। किन्तु परोपकार के लिए ही प्रवृत्ति करने दृष्टि एवं कार्य प्रणाली को अपना कर श्री जैन संघ को में पावे और परिणामतः स्वात्मा का ही भहित हो यह प्रवृत्ति के क्षेत्र में आना चाहिए। जैनधर्म के साथ वाले श्री जैन परम्परा को स्वीकार नहीं है, और वास्तव में धर्म ही नहीं, पीछे से शुरू हुए और मो भी विदेशी धर्मों
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३८ ईसाई तथा ७वें बौर विश्व-सम्मेलनों की श्री जन संघ को प्रेरणा
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ने भारत में प्राकर अपना कितना महत्वपूर्ण स्थान कर नागों विश्व में जैन धर्म का प्रचार, प्रसार तथा 'सवी लिया है ? वह देखने एवं अनुभव करने जैसा है । क्या जीव करूं शायन रसी' प्रादि महान् दिव्य भावनाओं को जैन जैसा पवित्र संध भी वर्तमान विश्व के मानव समाज अलग रखते हुए यदि जैन संघ को अपना सुदृढ़ अस्तित्व के लिए कुछ उपयोगी कार्य नहीं कर सकता? सचमुच भी टिकाए रखना हो तो समग्र भेद, प्रभेद, पेटाभेदों को में यह विचारणीय है कि अविभक्त श्रीजनसंघ के अग्रणी
अलग रख कर सम्पूर्ण श्री जैनसंघ को हृदय से प्रापसी प्राचार्य, विद्वान मुनिवर एवं धर्मनिष्ठ सद्गहस्थों को इस ।
ऐक्य का अनुभव करना चाहिए। इस प्रसंग में करीब बात का अविलम्ब विचार करना चाहिए।
वर्ष पूर्व बना हुमा एक महत्त्वपूर्ण प्रसंग याद माता है कि श्री जैनसंघ की वर्तमान स्थिति कितनी दुःखद है -'एक विचारक बुद्धिमान माधु ने अपने पाराध्य पाद उस पर अपने विचार उपस्थित करते हुए स्यावाद महा पूज्य गुरुवर की सेवा में विनम्र निवेदन किया कि 'समग्र विद्यालय काशी के प्रधानाचार्य, मर्वेसर्वा, पण्डित थी जैनसंघ के हित की किसी भी प्रवृत्ति में मुक्तमन से रस कैलाश चन्द्र जी शास्त्री जैसे प्रमुख विचारक, विद्वान् तथा लेने की अनुमति अर्थात् आज्ञा मिलनी चाहिए'। गुरू धर्मनिष्ठ महानुभाव मथुरा से प्रकाशित होने वाले १०- महाराज को वह बात मंजूर न थी। फलतः गुरू महाराज १२-६५ के "जैन संदेश" के सम्पादकीय लेख में लिखते शिष्य को छोड़ कर अन्यत्र विहार कर गये। जबकि होना हैं कि 'भगवान् महावीर एवं जैनधर्म का नाम भी भारत यह चाहिए था कि-जंन साधु समाज को जैन अजैन जैसे के सार्वजनिक क्षेत्रों में से दिन प्रतिदिन कम होता जा क्षुद्र मामूली भेदों से भी ऊपर उठकर विश्व के मानव रहा है। अहिंसा की चर्चा या विचारणा के समय भी समाज के साथ ही नहीं, अपितु चौरासी लाख सम्पूर्ण भगवान् महावीर या जैनधर्म को कम याद करने में जीव योनियों के माथ में भी सक्रिय एकाकारता अनुभव पाता है यह सारी परिस्थिति जनों को प्रामविलोपन की करना चाहिए । जो कि उनके जीवन का प्रधान लक्ष्य है। ओर ले जा रही है। यहदियों की तरह जनों को भी क्या श्री जन संघ को युगानुरूप कार्य करना चाहिए अपनी ही जन्मभूमि भारत में क्या अन्यों के माथित रह
अाज भी श्री जैनपघ में संकड़ों त्यागी, तस्वी, कर जीवन यापन करना पड़ेगा ? क्योंकि जनतंत्र बहुमती
विद्वान, बहुश्रुत, प्रतिभासम्पन्न, पूज्य प्राचार्य आदि समाजों के लिए आशीर्वाद रूप है जबकि लघुमति वाले
मुनिवर है। पृथ्वी को पावन करने वाली त्यागी, समाजों के लिए श्राप रूप भी।
तपस्विनी, तथा विदुपी हजारों महान साध्वियां एव ये और ऐसी ही अनेक उपयोगी प्रेरणानों से थी सार्या रत्न हैं। जिनकी मन, वाणी एवं कर्म के द्वारा जैन संघ को अब अविलम्ब सावधान हो जाना चाहिए। प्रमत का प्रवाह निरन्तर बह रहा है। विलक्षण प्रतिभा कुछ समय पूर्व एक प्रति प्रतिष्ठित विद्वान्, विचारक, सम्पन्न, उदार, धर्म प्रेमी साथ ही समाज, राष्ट्र तथा साथ ही अत्यन्त धनवान्, श्वेताम्बर परम्परा एक अग्रणी विश्व का सक्रिय हितचिंतन करने वाला अनुपम गृहस्थ महानुभाव के साथ में वार्तालाप हो रहा था उस समय अर्थात् श्राद्ध रत्न एवं महान् थाविकारत्न भी है। ६-२-६५ उन्होने कहा कि-"जनों और साधु समाज की गतिविधि के 'जन' में पृष्ठ ६८ पर उपधान तप जैसा महान तप यही रही तो भविष्य में श्री जैन एवं समाज का भी विश्व करके माला पहनने वाली दो सगी बहने सात वर्ष की मे नाम शेष हो सकता है"। अत. संघ के हित चिन्तको को कुमारी राजुल तथा पांच वर्ष की कुमारी नीलम का जो अब गहरी निद्रा से सत्वर जग जाना चाहिए। यदि ब्लाक छपा है, वह सचमुच श्री जैन संघ का गौरव बढ़ाने जगने में नहीं पाएगा तो भयंकर विनाश सामने ही दिख वाला ही है। दोनों बालिकाओं का जीवन तो धन्य है ही, रहा है। भावनगर से प्रकाशित होने वाले 'जन' के ६-२- उममे भी आगे बढ़कर हज़ार गुना धन्य उन दोनों के ६५ के अंक में विद्वान तंत्री श्री भी जलते हृदय से श्री धर्मप्रारण माता पिता का है कि जिन्होंने महान त्याग के संघ को यही प्रेरणा दे रहे हैं कि 'कोइक प्राचार्य तो साथ बालिकाओं में ऐसे दित्य संस्कारों का सिंचन किया।
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अनेकान्त
श्री जैन संघ की मोर जब जब दृष्टि जाती है तब तब भारत ग्रादि कुछ प्रान्त ऐसे है कि जहाँ जैन साधु जीवन, ऐसे प्रसंगों को देख पढ़ और सुनकर हृदय हर्प से नाच उनकी वेश-भूपा, प्राचार, विचार, प्रादि से जनता कुछ उठता है। यह एक ही नहीं ऐसे तो अनेकों प्रेरणादायी परिचित है। बाकी भारत में ही ८० प्रतिशत स्थान या प्रसंग श्री जैन संघ में बगबर हुए है, होते हैं, और मागे जनता ऐसी है कि जहाँ जैन साधु जीवन तथा उनके भी होते ही रहेंगे। सचमुच त्याग, तप, सहिष्णुता, प्राचार विचार से जनता को कुछ परिचय भी नही है । सच्चरित्रता प्रादि सैकड़ो गुणों की दृष्टि से बड़भागी सुनने में आ रहा है कि सन् १८६३ के विश्व धर्म श्री जैन संघ माज भी विद्यमान है। किन्तु भविष्य की सम्मेलन चिकागो मे स्वयं युगाचार्य श्री विजयानन्द तथा संसार की उपयोगिता की दृष्टि से विचार करते सूरीश्वर जी महाराज श्री की जैनधर्म का प्रतिनिधित्व हए ऐसा लगता है कि थी जैन संघ अभी काल के बल करने की इच्छा थी किन्तु तत्कालीन समाज की परिको जैमा चाहिए वैसा पहचान नहीं सका है। बिखरे हुए स्थिति को देखते हुए वैसे पूज्य पुरुष भी ऐमा साहस न कोई कोई पहचानते हों तो उनका समाज में कोई उल्लेख- कर मके । और श्री वीरचन्द राघवजी गान्धी को अपने नीय महत्वपूर्ण स्थान ही नहीं है । या स्वय समाज ने वैसे प्रतिनिधि के रूप में भेजे थे। यद्यपि श्री बीरचन्द राघव नर रत्नों का कोई मूल्य प्रांका भी नहीं है। गृहस्थ जी ने विश्व धर्म सम्मेलन पर काफी अच्छा प्रभाव डाला समाज में तो वैसे कितने ही विचलण पुरुप है कि जो काल था । अनेक शहरों में उनके मारगभित भापणो ने जैनधर्म के बल को पहचानत हे किन्तु श्री जन सघ साधु साध्वो को उज्ज्वल बनाया था। परन्तु उतना तो कहना ही प्रधान राघ होने के कारण से गृहस्थों का समाज में कुछ पड़ता है कि श्री जनसंप ने यदि समय को पहचानकर चलता नहीं है। ऊपर जैसा कहा गया वैसा श्री जैन साधु एक युगाचार्य महापुरुप के मार्ग में सरलता कर दी होती तथा साध्वी संघ त्याग तपश्चर्या में विश्व में अन्य सब तो उसका परिणाम सम्पूर्ण श्री जैन मंघ के लिए कितना साधु समाजो से पूर्णतः अग्रणीय है किन्तु उनमें एकमात्र गौरवपूर्ण पाया होता ! सन् १८६३ के शुम्भ से ही एक युगानुरूप दृष्टि न होने के कारण त्यागी, तपस्वी, महान महान् क्रान्ति यदि अविच्छिन्न रूप से चली होती तो माज साधु साध्वी सप भी विश्व एव समाज को मार्ग दर्शन सन १९६५ तक वह कहाँ से कहाँ पहुँच गई होती? कराने में बिल्कुल निरुपयोगी रहा है। इधर-उधर बिखरी एक प्रभावशाली विद्वान् मुनिवर को मैं वर्षों से हैई उपयोगी जन शक्तियों का सगठन भी वे नहीं कर जानता हूँ कि जो धर्मप्रचार के निमित्त विदेशों में भी सके हैं। वहाँ नव निर्माण की तो बात ही कहां से सम्भव जाने को तैयार थे किन्तु धी सघ की परिस्थिति देखते हो । प्रत. आवश्यकता इस बात की है कि प्रादरणीय श्री हुए वे भी माहस न कर सके । अाज तो वे महात्मा काफी जैन साधु साध्वी जी महाराजो का त्याग, तप, प्रधान वृद्ध हो चुके है। इस उम्र में भी वे साहित्य का सर्जन जीवन के साथ ही उनमे कुछ युगानुरूप दृष्टि भी आवे। करत हा जा रहे है किन्तु उनक द्वारा जा पाशा तो यह रखते है कि उनमें कुछ महात्मा पूर्णतः
अन्य विद्वानों को (स्कॉलर) बनाने की जो सम्भावना थी युगानुरूप बनकर प्रन्यो को भी युगानुरूप दृष्टि देने वाले
वह न हो सकी कि जो ग्रन्य अर्थात् विद्वान् पाता ब्दियो हों। और इस तरह से शारत्रों में वर्णित युग प्रधान महा
तक विदेश की सस्कृति को भी प्रभावित करते रहते है। पुरुप के पवित्र पद को भी सुशोभित करे कि जैमी भविष्य
साथ ही साथ भगवान् महावीर एव जैन सस्कृति का नाम वाणी "युगप्रधानगडिका" मादि प्रथकारों ने की है।
उज्ज्वल होता रहता।
भूतकालीन इतिहास में महाराजा सम्प्रति ने जनधर्म अाज विश्व तो दूर रहा भारत में भी ऐमे कितने ही के प्रचार के लिए कितना महत्व का, विरल पुरुपार्थ बड़े-बड़े शहर भी है कि जहां जैन साधु जीवन एवं उनकी किया था? वह अनुभव करने जैसा है। जिनका प्रेरणावेग भूषा से भी जनता अपरिचित है। वहीं देहातो की दायी वर्णन अनेक ग्रन्थों में विस्तार से हुमा है। उस काल तो बात ही क्या ? केवल गुजरात, राजस्थान दक्षिण की भावश्यकता के अनुसार लाखों श्री जिन मन्दिरों की
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३८वें ईसाई तथा ७ बौद्ध विश्व-सम्मेलनों को श्री जैन संघको प्ररणा
१॥
स्थापना की करोड़ों विशाल श्री जिन मन्दिरों का निर्माण वर्तमान परिवर्तित परिस्थिति के अनुसार श्री संघ के सर कराया, जन साधारण के लिए भी अनेकों उपयोगी पर ही वैसे कोई प्रभावशाली महापुरुष को उत्पन्न करने प्रवृत्तियाँ करके करोड़ों का धन खर्च किया था। यह सव की जिम्मेदारी है। तो ठीक, जन साधारण मे विशुद्ध धर्म के प्रचार प्रात्मज्ञान का दिव्य मार्ग : के लिए तत्कालीन परिस्थिति के अनुसार नकनी जेन शताब्दियो का भूतकालीन श्री जैन संघ तथा वर्तमान माधुयों को भी अनार्य देश में भेजे थे। यदि श्री जैनमय कालीन श्री जैन समाज के ऊपर एक विहगम दृष्टि से ने शताब्दियों पूर्व शुरू की गई एक महान प्रतिठिन राजा देखते हुए मुझे तो ऐमा स्पष्ट लग रहा है कि जैन परंश्री सम्प्रति जैन महा पाहत् को महान वर्षप्रभावनाकारी परा ने ज्ञान अर्थात् प्रात्मज्ञान पर अधिक लक्ष्य न देते विशुद्ध प्रवृत्तियों का कुछ भी मूल्याकन किया होता नो हुए केवल क्रिया काण्ट तथा बाह्य प्राचार पर ही विशेष ग्राज मम्पूर्ण विश्व में श्रीनमघ का गौरव तिाना लक्ष्य दिया। ऐसा होने से मात्र क्रिया काण्ड को लेकर अनोखा होता?
ही अनेकों सम्प्रदाय हुए। प्रत्येक सम्प्रदाय में भी क्रिया
के अत्यधिक प्रदर्शन या प्राग्रह के कारण एक दूसरे की ___ यहाँ काश्मीर का एक मामाजिक तथा राष्ट्रीय प्रमग
निन्दा भी होने लगी। और उरा निन्दक स्वभाव के कारण की तुलना करने जैमी है। बात यह है कि काश्मीर के
विश्व मंत्री या विश्व बन्धुत्व कंवल शब्दो में ही रह गया। भूतकालीन नरेश को एक बार लगा कि काश्मीर में जितने
परिणामतः रही गही सघ शक्ति भी क्षीण होने लगी। हिन्दू मे से मुसलमान हो गये है उनको परिवर्तित कराके
दम मार्ग महल की भूतकालीन परिस्थितियो में मैं श्री पुन. हिन्दू बना लिया जाय । हिन्दू मे मे मुसलमान बने जैन मंध को एक महन्य की प्रेरणा लेकर और उसका हए मुसलमान पुनः हिन्दू होने के लिए तैयार भी हो गए. हृदयंगम विचार करके प्रागामी नये मार्ग का अन्वपण थे किन्तु उम ममय के कितने ब्राह्मण पण्डितों ने विरोध करे तब ही थी जैन मध का वास्तविक गौरव भविष्य के किया कि मुसलमान में से हिन्दू बना ही नहीं सकते? काल में भी टि सकेगा। जो वंश अशुद्ध हुमा सो हो गया। फलतः शुद्धिकरण का केवल क्रिया काण्ड तथा प्राचार धर्म की प्रोर भुकाव वह माग प्रसग धरा रह गया। सचिन दृष्टि वाले के कारण ही श्री जैन मघ के बड़े से बड़े माधक का भी ब्राह्मण पण्डितों की उस गलती ने भारत की प्रार्य संस्कृति विकाम अधिकतर व्यवहार गम्ययत्व से यागे देपन में नहीं को कितना महान नुक्सान पहुँचाया है ? उमका अनुभव प्राता। मैं अत्यन्त नम्रता के गाध श्री संघ के सामने मज हर कोई व्यक्ति वर्षों में चली पाती तथा दूर तक प्रश्न करना चाहता हूं कि विशुद्ध निश्चय सम्यक्व अर्थात् चलने वाली काश्मीर, पाकिस्तान प्रादि की ममस्या के देह, इन्द्रिय, बुद्धि, मन से परे दूर-दूर में भी विशुद्ध यात्ममाग में अनभव करता है। यद्यपि यह एक लौकिक उदा- स्वरूप का दर्शन करने वाले महा पुरुप कितने है ? कहो हरण है। किन्तु ार से श्री जैन जैसे महान् सघ के है? यदि हे तो वैसे महापुरुपो रो थी जैन संघ जैमा पग्रणियों को भी उचित सत्रिय हित शिक्षा लेनी चाहिए। महान मघ भी क्या कोई लाभ उठाता है? उन्नति पथ
महान् प्राचार्य श्री उमास्वाति जी महाराज, महान पर प्रांग न बढ़त साधक के लिए देह, इन्द्रिय, बुद्धि मन पाचार्य श्री हरिभद्र मूरि जी महाराज, कलिकाल मवज्ञ मे पर विशुद्ध पात्म स्वरूप का दूर-दूर में ही दर्शन होना प्राचार्य श्री हेमचन्द्र सूरिवर जी महाराज, हिमा धर्म मात्र ही अन्तिम नही है। वास्तव में तो वह अवस्था के उद्मोत करने वाले पूज्य प्राचार्य महाराज श्री विजय अनन्न प्रात्म जीवन का अनुभव कागने वाला प्रवेश द्वार हीर सूरिश्वर जी महाराज, महामहोपाध्याय थी यगो ही है। उस मार्ग पर आगे बढ़ता सापक विशुद्ध यात्मविजय जी महाराज ग्रादि महापुरुपों ने अपनी-अपनी स्वरूप का साक्षात् उनुभव करता है। जैसे देहाभिमानी महान प्रमूल्य शक्तियों का उपयोग उस काल तथा समय व्यक्ति जिह्वा पर मिठाई रखन से मिप्ठता का अनुभव के अनुसार श्री जैनधर्म की उन्नति में ही किया था। करता है वैसा ही साक्षात् प्रात्मानुभव करने वाला साधक
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अनेकान्त
हो, सचमुच निश्चय सम्यक्त्व का पूर्ण अनुभव कर सकता जाकर यात्मा स्वयं भगवान् बन जाता है। और जन्य है। निश्चय सम्यक्त्व के भन्तिम उच्च स्तर का अनुभव मरण के चक्र से भी पूर्णतः मुक्त होकर देह, इन्द्रिय, बुद्धि, करने वाला साधक वास्तव में ब्रह्म रूप हो जाता है। मन से परे एकमात्र पूर्ण भगवत् स्वरूप में अनन्तकाल के देह, इन्द्रिय, बुद्धि, मन रूप सम्पूर्ण दृश्यमान् भाव जगत से लिए स्थित हो जाता है। प्रात्मस्वरूप की उस अन्तिम परे विशुद्ध भावातीत स्वरूप में स्थित हो जाता है। प्राप्ति को देख कर काल जैसा अति भयंकर शत्रु भी मात्मा के इस भावातीत अर्थात् ब्रह्मरूप भवस्था में पाकर अनन्तकाल के लिए निवृत्त हो जाता है। विशुद्ध प्रात्म के "सवी जीव करूं शासन रसी" की दिव्य भावना की स्वरूप की परछाई तक भी वह काल सह नही सकता। और आगे बढ़ता है । जहाँ क्रमश: विशुद्ध प्रात्म स्वरूप में फलतः आत्मा अपने निजी रूप में कालातीत स्थिति करता अनुभव द्वारा आगे बढ़ता साधक क्षपक श्रेणी प्रारम्भ है। जैसे प्रकारान्तर से अनन्तकाल की प्रात्मस्थिति भी करके अन्त मे तेरवे गुणस्थान तक पहुंच जाता है। जहाँ कह सकते है ।
-क्रमश.
शोध-कण महत्वपूर्ण दो मूर्ति-लेख
नेमचंद धन्नूसा जैन, न्यायतीर्थ
जुलाई १९६३ में मुझ वाझीम (जिला अकोला) के -स. १६६० वर्षे जाठ शु० १४ जनौ मूलसंघे ब० गणे दिगम्बर जैन मन्दिर के मूर्ति-यंत्रलेख लेने का मुअवसर भ० सुमतिकीति-भ० गुणकीति-भ० श्री वादीभूपण भ० मिला था। उसमें मुझे यह दो लेख मिले जिससे प० रामकीर्ति तत्पढें भ० श्री पद्मनन्दी उपदेशात् प्राचार्य श्री मेघराज के जीवन और काल पर कुछ प्रकाश मिलता है। श्रीभूपण शिष्य ब्र० श्री भीमा तत् शिष्य ब्र० श्री मेघ. पं० मेघराज के जसोघरगस मगठी तथा तीर्थवंदना और राज नन् शिष्यो ब्र० श्री केशव ब्र० सवजी एते श्रीरत्नपाश्वनाथ भवातर ये तीन ग्रन्थ उपलब्ध है। तथा उनका मय त्रिकाल चतुर्विशतिकां नित्य प्रणमति । स्वगुरु ब्रह्म श्री काल १६वीं सदी का पूर्वाध माना जाता है। स्थल का मेघराज पुण्यार्थ म्बकीय शिष्य ब्रह्म सवजीनेन कारापिता। निर्देश तो उन्होंने खुद ही पाश्वनाथ भवातर के अन्त में पहले लेख से स्पष्ट होता है कि वे हुमड समाज के दिया है। देखिए
भूण्ण थे । अतः उनकी मातृभापा गुजराती रही हो प्रार 'अनेक अतिशयो सभ गुणसागर, प्रतरिक्ष श्रीपूरी ईडर शाखा के गुरू ही इनके गुरू रहे हों तो शंका नही परमेश्वर । वांछित पास जिनेश्वरु, ब्रह्म शाति प्रमादे अत इनका जन्म गुजरात में माना तो वाधा नही माती। मेधा मणे, कर जोडनि वंदना कहा ।" इसमें जैसा विवाहोत्तर ये अतरिक्ष प्रभु का दर्शन करने इधर प्राय गुरु का नाम है वैमा अतरिक्ष श्रीपुर का भी नाम है।
होगे तो इधर ही रमे और साहित्य रचना की। उनम: । अत. यह रचना उन्होंने प्रत्यक्ष 'श्रीपुरी रहकर को
पत्नी का नाम 'राणी था। पं. मगल और मिघ ये उनके होगी। ऐसा मानना अनुचित नहीं होगा। क्योकि अत
दो पुत्र थे। स० १६१७ तक ये दोनों पुत्र विवाह बद्ध रिक्ष पाश्र्वनाथ से १० मील दर ही उनके जीवन मी हुए थ इसका अर्थ उस समय पडित मेधगज जी की प्रार मूर्तिलेख मिले है। देखो
४० से ४५ साल की होगी। अत. उनका जन्म मवन
१५७२ से ७५ (३० सं० १५१७-२०) तक हुआ होगा। १. पि० पद्मावती देवी (चि० पार्श्वनाथ मन्दिर)
दूसरे लेख से यह विदित होता है कि जीवन के उत्तग सं० १६१७ माघ वद्य ३ र (वौ) श्रीमूलमंधे ब्र० श्री.
उन्होंने ब्रह्मचर्य लिया था और उनका वह मंगलमय शांतिदास त०० हस तब. राजपालोपदेशात् हमड
लापदात् हुमड जीवन मं० १६८० के पहले ही खत्म हो गया था। उनके झातीय पं० मेघा भार्या) राणी सु०० मंगल मा०
पवित्र स्मति में सं० १६८० में यह चौबीसी की स्थापना सीता द्वि० सु. सिंध भा० रमा ।
की गई थी। इससे १०-१५ साल भी पहले उनकी मृत्यु २.पि.मि. चौबीसी (ममीझरो) पाव मन्दिर) हुई हो तो भी उनकी मायु सौ साल से कम नहीं होगी
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एक महत्वपूर्ण-पत्र
अनेकान्त का जून का अंक मिला। मुझे पढ़ कर बड़ो प्रसन्नता हुई कि जैन ममाज में यह शोध पत्र बहत ममय से निकल रहा है । पत्र में लेखों का चयन मुन्दर और ऐतिहासिक दृष्टि को लक्ष्य में रख कर किया जाता है। अन्वेषक विद्वानों के लिए यह पत्र बहुत उपयोगी सिद्ध होगा। मैं इस पत्र की प्रगति चाहता है। और सचालकों में अनुरोध करूँगा कि वे इमे और भी समुन्नत बनाने का यत्न करें।
जो सी. एडवोकेट
जालंधर
वीर-सेवा-मन्दिर और "अनेकान्त" के सहायक
१०००) श्री निश्रीलाल जी धर्मचन्द जी न, कलकत्ता । १५०) , जगमोहन जी सरावगी, कलकत्ता १०००) श्री देवेन्द्र कुमार न, ट्रस्ट,
१५०) , कस्तूरचन्द जी मानन्दीलाल कलकत्ता श्री साई शीतलप्रसाद जी, कलकत्ता
१५०) , कन्हैयालाल जो सीताराम, कलकत्ता ५००) श्री रामजीवन सरावगी एण्ड संस, कलकत्ता | १५०) , पं० बाबूलाल जी जेन, कलकत्ता ५० ) श्री गजराज जी सराबगी, कलकत्ता
५०), मालीराम जी सरावगी, कलकत्ता ५००) श्री नथमल जी सेठी, कलकत्ता
१५०) । प्रतापमल जी मदनलाल पांड्या, कलकता ५००) श्री वैजनाय जी धर्मच जी, कलकता १५०) , भागवन्द जी पाटनी, कलकत्ता ५००) श्री रतनलाल जी झांझरी, कलकत्ता
१५०) , शिखरचन जी सरावगी, कलकत्ता २५१) श्री रा० बा हरख बन्द जी जैन, रांची १५०) , सुरेन्द्रनाथ जो नरेन्द्र नाथ जी कलकत्ता २५१) श्री अमरचन्द जी जैन (पहाउचा), कलकत्ता
.) , मारवाड़ी विजन समाज, ज्यावर २५१) श्री स० मि०पन्यकुमार जी जैन, कटनी १०१) . दिगम्बर जैन समाज, केकड़ी २५१) श्री सेठ सोहनलाल जी जैन,
१०१) .. सेठ चन्दूलाल कस्तूरचन्दजी, बम्बई नं०. मैसर्स मुन्नालाल द्वारकावास, कलकत्ता
१०१) , लाला शान्तिलाल कागजी, दरियागंज दिल्ली २५१) श्री लाला जयप्रकाश जी जंन
१०१) ,, सेठ भंवरीलाल जी बाकलीवाल, इम्फाल स्वस्तिक मेटल वर्स, जगाधरी
१०१) , शान्ति प्रसाद जी जैन २५०) श्री मोतीलाल होराचन्द गांधी, उस्मानाबाद
जैन बुक एजेन्सी, नई दिल्ली २०) श्री बन्शी र जी जुगलकिशोर जी, कलकत्ता
१०१) , सेठ जगन्नायजी पापया झमरीतनया २५०) श्री गमन्दरदास जी जैन, कलकत्ता
१०१) ., सेठ भगवानदास शोभाराम जी सागर २५०) श्री सिंघई कुन्दनलाल जी, कटनी
(म०प्र०) २५०) श्री महावीरप्रसाद जी अग्रवाल, कलकत्ता १००) ,, बद्रीप्रसाद जो प्रारमाराम जी, पटना २५०) श्री बी० पार० सी० जन, कलकत्ता
१००) , रुपचन्दजी जैन, कलकता २५०) श्री रामस्वरूप जी नेमिचन्द्र जी, कलकत्ता १०.) , जैन रत्न से गुलाबचन्द जी टोंग्या १५.) श्री बजरंगलाल जी चन्द्रकुमार जी, कलकत्ता
इन्दौर .५०) श्री चम्पालाल जो सरावगी, कलकता । १००) . बाब नपेन्द्रकुमार गी गैन, कलकत्ता
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वीर-सेवा-मन्दिर के उपयोगी प्रकाशन
सभी ग्रन्थ पौने मूल्य में (१) पुगतन-जनवाक्य-मूची-प्राकृत के प्राचीन ४६ मूल-ग्रन्थों की पद्यानुक्रमणी, जिसके साथ ४८ टीकादिग्रन्थो मे
उद्धृत दूसरे पद्यों की भी अनुक्रमणी लगी हुई है। सब मिलाकर २५३५३ पद्य-वाक्यों की सूची। सम्पादक मुख्तार श्री जुगलकिशोर जी की गयेपरणापूर्ण महत्व को ७० पृष्ठ की प्रस्तावना से अलकृत, डा० कालीदाम नाग, एम. ए. डी. लिट् के प्राक्कथन (Foreword) और डा. ए. एन. उपाध्ये एम. ए. डी. लिट् की भूमिका
(Introduction) से भूपित है, शोध-म्बोज के विद्वानों के लिए प्रतीव उपयोगी, बड़ा साइज, मजिल्द १५) (२) प्राप्त परीक्षा-श्री विद्यानन्दाचार्य की स्वोपज्ञ सटीक अपूर्व कृति, प्राप्तों की परीक्षा द्वारा ईश्वर-विपय के
सुन्दर विवेचन को लिए हुए, न्यायाचार्य पं० दरबारीलालजी के हिन्दी अनुवाद से युक्त, सजिल्द । ८) (३) म्वयम्भूस्नोत्र-ममन्तभद्रभारती का अपूर्व ग्रन्थ, मुख्तार श्री जुगल किशोरजी के हिन्दी अनुवाद तथा महत्व
की गवेषणापूर्ण प्रस्तावना मे सुशोभित । (४) स्तुनिविद्या-स्वामी ममन्तभद्र की अनोखी कृति, पापो के जीतने की कला, मटीक, सानुवाद और श्री जुगल
किशोर मुख्नार की महत्व की प्ररतावनादि से अलकृत सुन्दर जिल्द-महित । (५) अध्यात्मकमलमार्तण्ड -पचाध्यायीकार कवि गजमल की मुन्दर आध्यात्मिक रचना, हिन्दी-अनुवाद सहित ) (६) युक्यनुशासन तत्वज्ञान में परिपूर्ण समन्तभद्र की अमाधारण कृति, जिसका अभी नक हिन्दी अनुवाद नहीं
हुआ था। मुरूनार श्री के हिन्दी अनुवाद और प्रस्तावनादि मे अलकृन, मजिल्द। ... १॥) (७) श्रीपुरपार्श्वनाथस्तोत्र -पानार्य विद्यानन्द चित, महत्व की स्तुति, हिन्दी अनुवादादि सहित । ... I) (८) शामनचतृस्त्रिशिका--(नीयपरिचय) मुनि मदनकोति की १३वी शताब्दी को रचना, हिन्दी-अनुवाद सहित ) (8) ममीचीन धर्मशास्त्र--स्वामी ममन्तभद्र का गृहस्थाचार-विषयक अन्युनम प्राचीन ग्रन्थ, मुख्तार श्रीजुगलकिशोर
जी के विवेचनात्मक हिन्दी भाप्य और गबेपणात्मक प्रस्तावना मे युक्त, जिल्द। ... ३) (१०) जैनग्रन्थ-प्रशस्ति मग्रह-मस्कृत और प्राकृत के १७१ अप्रकाशित ग्रन्थों की प्रशस्तियो का मगलाचरण महिन
अपूर्व मंग्रह उपयोगी ११ गरिशिष्टो की और प० परमानन्द शास्त्री की इतिहाम-विषयक साहित्य परिचयात्मक
प्रस्तावना मे अलंकृत, मजिल्द । (११) अनित्यभावना-ग्रा०पयनन्दी की महत्व की रचना, मुन्नार श्री के हिन्दी पद्यानुराद और भावार्थ अहित ।) (१२) तत्वार्थमूत्र--(प्रभाचन्द्रीय)-मुख्तार श्री के हिन्दी अनुवाद तथा व्याख्या से युक्त। .." (१३) श्रवणबेलगोल और दक्षिण के अन्य जनतीर्थ । (१४) महादीर का सौदय तीर्थ =), (१५) ममन्नभद्र विचार-दीपिका =), (१६) महावीर पूजा ।) (१७) बाहुवली पूजा ---जगलकिशोर मुख्तार कृत (१८) अध्यात्प रहस्य--10 पाशापर को मुन्दर कृति मुम्नार जी के हिन्दी अनुवाद महित (१६) जैनबन्ध-प्रशस्ति मग्रह भा० २ अपभ्रंश के १२२ अप्रकाशित ग्रन्थोकी प्रशस्तियोका महत्वपूर्ण मग्रह ५५
ग्रन्थ्य कारों के निहामिक ग्रंथ-परिचय और परिशिष्टौं महिन। म०५० परमानन्द शास्त्री मजिल्द १२) (२०) जैन साहित्य और इतिहास पर विशा प्रकाश, पृष्ठ संख्या ७४० सजिल्द (वीर-शामन-मघ प्रकाशन ... ५) (२१) कमायपाहुर मुन- - मूल ग्रन्थ की रचना प्राज मे दो हजार वर्ष पूर्व श्री गुणधराचाय ने की, जिम पर श्री
यतियपभाचार्य ने पन्द्रह सौ वर्ष पूर्व छह हजार श्लोक प्रमाण चूणिमूत्र लिखे । सम्पादक पं० हीगलाल जी मिद्धान्त शास्त्री, उपयोगी परेशिप्टो और हिन्दी अनुवाद के माथ बड़ी माइज के १००० से भी अधिक पृष्ठो में । पुष्ट कागज और कपड़े की पक्की जिल्द ।
२०) (5) Reality प्रा०पूज्यपाद की सर्वार्थसिद्धि का अंग्रेजी में अनुवाद बड़े आकार के ३०० पृष्ठ पक्की जिल्द मू०६)
प्रकाशक -प्रेमचन्द जैन, वीरमेवा मन्दिर के लिए, रूपवाणी प्रिंटिग हाउस, दरियागंज दिल्ली से मुद्रित
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मासिक
अक्टूबर १९६५
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प्रहार क्षेत्र के शांतिनाथ
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समन्तभद्राश्रम (वीर-सेवा-मन्दिर) का मुखपत्र
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विषय-सूची
निवेदन विषय
पृष्ठ वीर-सेवा-मन्दिर एक शोध-सस्था है। इसमें जैन१. श्री मिद्ध-स्तवनम्-धवला टीका ४५ | साहित्य और इतिहास की शोध-खोज होती है, और अने२. विदर्भ में जैनधर्म की परम्परा
कान्त पत्र द्वारा उमे प्रकाशित किया जाता है। अनेक - [डा. विद्याधर जोहग पुरकर] १४ | विद्वान रिमर्च के लिए वीर-मेवामन्दिर के ग्रन्थागार मे ३. यशस्तिलक में चचित-पाश्रम व्यवस्था और पुस्तके ले जाते है। और अपना कार्य कर वापिस करते मन्यस्त व्यक्ति
| हैं। समाज के श्रीमानों का कर्तव्य है कि वे वीर-सेवा-डा. गोकुलचन्द्र जैन एम. पी-एच.डी. १४६ | मन्दिर की लायब्रेरी को और अधिक उपयोगी प्रकाशित ४. सेनगण की-भट्टारक परम्पग
अप्रकाशित साहित्य प्रदान करे। जिससे अन्वेषक विद्वान -[पं० नेमचन्द धन्नसा न्यायतीर्थ] १५३ | पूरा लाभ उठा सके । पाशा है जैन साहित्य और इतिहास ५. नीर्थकर मुपार्श्वनाथ की प्रस्तर प्रतिमा
के प्रेमी सज्जन इस ओर ध्यान देंगे। -ब्रजेन्द्रनाथ शर्मा एम. ए.
प्रेमचन्द जैन ६. भ० विश्वभूपरण की कतिपय अज्ञात रचनाएँ
सं० मन्त्री वीरसेवामन्दिर -थी अगरचन्द्र नाहटा
२१, दरियागज, दिल्ली। ७. अप्रावृत और प्रतिमलीनता
-मुनि श्री नथमल ८. अपराध और बुद्धि का पारस्परिक सम्बन्ध
अनेकान्त के ग्राहकों से -साध्वी श्री मंजना
__ अनेकान्त के प्रेमी पाठकों से निवेदन है कि वे अपना ६. सम्यग्दर्शन-माध्वी श्री संघमित्रा
| वार्षिक मूल्य शीघ्र भेज दे । जिन ग्राहको ने अभी तक १०. कल्पसिद्धान्त को मचित्र स्वर्णाक्षरी प्रशस्ति
अपना वापिक मूल्य नही भेजा है । और न पत्र का उत्तर -कुन्दनलाल जैन एम. एल. टी.
ही दिया है। उनसे सानुरोध प्रार्थना है कि प्राना वे वार्षिक ११. अतिशय क्षेत्र प्रहार-श्री नीरज जैन] १७७ |
मूल्य ६) रु० शीघ्र भेजकर अनुग्रहीत करे। अनेकान्त १२. श्री मोहनलाल जी ज्ञान भडार सूरत की
जैन समाज का ख्याति प्राप्त एक शोध पत्र है, जिसमें ताडपत्रीय प्रनिया
धार्मिक लेखों के शोध-खोज के महत्वपूर्ण लेख रहते -[श्री अगरचन्द नाहना]
१७६] है। जो पठनीय तथा संग्रहणीय होते है। १३. अपभ्रंश भाषा की दो लघु गमो रचनाएँ
-व्यवस्थापक -डा० देवेन्द्र कुमार शास्त्री १८४
अनेकान्त १४. निश्चय और व्यवहार के कपोल पर
वीर सेवा मन्दिर २१ दरियागंज, दिल्ली । षटप्राभृत एक अनुशीलन-मुनिश्री नथमल १८८ १५. साहित्य-समीक्षा-परमानन्द जैन शास्त्री १९२ *
अनेकान्त का वार्षिक मूल्य ६) रुपया सम्पादक-मण्डल
एक किरण का मूल्य १ रुपया २५ पै० डा० प्रा० ने० उपाध्ये
अनेकान्त में प्रकाशित विचारों के लिए सम्पादक डा०प्रेमसागर जैन
मण्डल उत्तरदायी नहीं है। श्री यशपाल जैन
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प्रोम् महम्
अनेकान्त
परमागस्य बीजं निषिद्ध जात्यन्धसिन्धुरविधानम्। सकलनयविलसितानां विरोषमपनं नमाम्यनेकान्तम् ।।
।
वर्ष १८ किरण-४
वीर-सेवा-मन्दिर, २१ दरियागंज, दिल्ली-६ वीर निर्वाण मंवत् २४६२, वि०म० २०२२
4 अक्टूबर । सन् १९६५
श्रीसिद्ध स्तवनम् रिणहय विविहट्ठ-कम्मा तिहुयण-सिर-सेहरा बिहुव-दुक्खा। सह-सायर-मझ-गया गिरजरगा गिच्च प्र-गुरगा ॥१॥ अरणवज्जा कय-कज्जा सव्वावयहिं दिट्ठ-सव्वट्ठा । वज्ज-सिलत्थम्भग्गय पडिमं वाभेज्ज-संठारणा ॥२॥ माणुस संठारणा विहु सव्वावयवेहि णो गुरणेहि समा। सव्विदियारण विसयं जमेग-देसे विजाणंति ॥३॥
अर्थ-जिन्होंने नाना भदरूप पाठ कर्मों का नाश कर दिया है, जो तीन लोक के मस्तक के शेखरस्वरूप हैं, सुखरूपी मंसार में निमग्न हैं, निरंजन है, नित्य हैं, मम्यक्त्वादि पाठ गुणों से युक्त हैं, अनवद्य हैं-निर्दोष है, कृतकृत्य हैं, जिन्होंने मर्वाङ्ग में प्रथवा समस्त पर्यायों सहित सम्पूर्ण पदार्थों को जान लिया है, जो वशिला-निर्मित प्रभग्न प्रतिमा के समान प्रभेच प्राकार से युक्त हैं, जो पुरुषाकार होने पर भी गुणों से पुरुपों के समान नहीं है, क्योकि पुरुष सम्पूर्ण इन्द्रियों के विपयों को भिन्न-भिन्न देश में जानता है, परन्तु जो प्रति प्रदेश में सब विषयों को जानते हैं, वे सिद्ध है, उन्हें मेरा नमस्कार हो।
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विदर्भ में जैनधर्म की परम्परा
डा० विद्याधर जोहरापुरकर, मंडला
१. प्रादेशिक मर्यादा
___ याचार्य श्रीगुणभद्र के उत्तरपुराण (नौवीं शताब्दी) विदर्भ प्रदेश संस्कृति और साहित्य के क्षेत्र में पुरातन
में नौवें तीर्थङ्कर श्रीपुणदन्त के प्रधान गणधर का नाम समय से प्रसिद्ध है। वर्तमान महाराष्ट्र प्रदेश के पूर्वी भाग
विदर्भ बतलाया है पर्व ५५ श्लोक ५२ । इस ग्रन्थ में के पाठ जिले-भडारा, नागपुर, वर्धा, चांदा, अमरावती,
भी श्रीकृष्ण की रानी रुक्मिणी का जन्मस्थान विदर्भप्रदेश यवतमाल, अकोला तथा बुलडारणा--विदर्भ विभाग मे का कुण्डलपुर बतलाया है पर्व ७१ लोक ३४१ जो शामिल होते हैं । मध्य युग मे इस प्रदेश को वराड, वहाड सष्टत उपर्युन कुण्डिनपुर से अभिन्न है। वराट, वैगट (या अंग्रेजी लिपि के कारण बरार, बेरार) महाकवि हरिश्चन्द्र के धर्मशर्माभ्युदय काव्य में भी कहा जाता था। यह वरदातट का रूपान्तर है। भगवान धर्मनाय की पत्नी शृङ्गारवती विदर्भ की राजवरदा [वर्तमान वर्धा नदी इस प्रदेश से संबद्ध जन कन्या थी ऐसा वर्णन है। उमका स्वयम्वर विदर्भ की परम्परा के प्राचीन उल्लेखों का यहाँ सिहावलोकन किया राजधानी कुण्डिनपुर (जो वरदा नदी के तीर पर था) जाता है।
मे हुआ था। सर्ग १६ । २. पौराणिक उल्लेख
भागवतपुराण में भी श्रीभगवान ऋषभदेव के पुत्रों में
एक का नाम विदर्भ बतलाया है। (स्कन्ध ५ अ०४, ६, पुनाट संघ के प्राचार्य श्रीजिनसेन के हरिवंशपुराण [पाठवी शताब्दी] में प्रथम तीर्थङ्कर भगवान ऋषभदेव
___इन पौराणिक उल्लेखों से मालूम होता है कि आठवीं के पुत्रों के राज्यो को नामावली दी है। उसमें विदर्भ का
नौवीं शताब्दी के विद्वानों की दृष्टि में विदर्भ मे जैन भी समावेश है सर्ग ११ श्लोक ६६ । इसी ग्रन्थ मे
परम्परा का सम्बन्ध भगवान ऋषभदेव से ही रहा है। हरिवंश के राजा ऐलय के पुत्र कुणम द्वारा विदर्भ में वरदा नदी के तौर पर कुण्डिनपुर की स्थापना का वर्णन ३. ऐतिहासिक उल्लेख-अचलपुरहै सर्ग १७ श्लोक २३ । कुण्डिनपुर के राजा भीष्मक हेमचन्द्राचार्य के परिशिष्ट पर्व (मर्ग १०) में एक की कन्या रुक्मिणी श्रीकृष्ण की पटरानी थी सगं ४२, कथा है जिसके अनुसार प्रार्य शमित ने प्रचलपुर के निकट तथा श्रीकृष्ण के पुत्र प्रद्युम्न का भी यही ससुराल था
कन्या और पूर्णा नदियों के मध्य में स्थित ब्रह्मद्वीप के बहुत सर्ग ४८ । वरदा नदी के तौर पर यह कुण्डिनपुर छोटे
से तापमों को जन-संघ मे दीक्षित किया था। इनकी से गाँव के रूप में अब भी विद्यमान है। यहाँ एक जिन
परम्परा ब्रह्मद्वीपिक शाखा कहलाई। आर्य शमित पार्य मन्दिर भी है।
वज्रस्वामी के मामा थे अतः उनका समय सन् पूर्व दूसरी सेनसघ के प्राचार्य श्रीजिनसेन के आदिपुराण शताब्दी के अन्त में अनुमानित है। अचलपुर से निकली (नौवी शताब्दी) मे भगवान ऋषभदेव के राज्याभिषेक हुई ब्रह्मद्वोपिक शाखा के आर्य सिंह का उल्लेख नन्दीमूत्र के समय भारतवर्ष के विभिन्न राज्यो की नामावली दी की स्थविरावली गाथा ३६ में मिलता है। वे कालिक है पर्व १९ श्लोक १५३ । इसी ग्रन्थ में चक्रवर्ती भरत श्रुत और अनुयोगों के विद्वान अध्येता थे । आचार्यक्रम के द्वारा जीते गये प्रदेशों में भी विदर्भ का समावेश किया से प्रार्य मिह का समय तीसरी शताब्दी के प्रारम्भ में है पर्व २९ श्लोक ४० ।
अनुमानित होता है । दसवी शताब्दी में पंडित हरिपंण ने
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विवर्भ में जनधर्म की परम्परा
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प्रचलपुर में अपभ्रंश धर्मपरीक्षा की रचना की। उन्होंने तथा रिट्टनेमिचरिउ के कर्ता स्वयम्भूदेव ने भी अपना अचलपुर को जिनगहप्रचर कहा है । हरिषेण के विषय में निवासस्थान नहीं बतलाया है। वह भी नयनन्दि के डा. उपाध्येजी ने एक विस्तृत लेख प्रकाशित किया है। कथनानुसार वराड का वाडगाम मिद्ध होता है। षट्(एनल्सप्रॉफ दि भांडारकर प्रो० रि० इन्स्टीटयूट भा० खण्डागम की टीका धवला की प्रशस्ति में प्राचार्य वीरसेन २३ पृ. ५७२-६०८) । प्रचलपुर इस समय अमरावती ने रचनास्थान नहीं बतलाया है वह भी इस कथन से जिले की एक तहसील का सदर मुकाम है। यहाँ तीन ज्ञात हो जाता है । जिनसेनाचार्य ने जयधवला की प्रशस्ति जिन-मन्दिर हैं । यहाँ से १२ मील उत्तरपूर्व में मुतागिरि में रचनास्थान वाटग्राम ही बतलाया है किन्तु प्रदेश का क्षेत्र है । निर्वाणकांड में वर्णित मेढगिरि से यह अभिन्न
उल्लेख नहीं किया है। इस पर से स्व०५० प्रेमीजी ने है। निर्वाणकाण्ड के कथनानुसार यहाँ साढ़ेनीन कोटि
उक्त वाटग्राम को गुजरात के बड़ौदा से प्रभिन्न माना था मुनि मुक्त हुए थे। गाथा १६ ।।
(जैन साहित्य और इतिहास पृ० १४३) । किन्तु नयनंदि ४. भद्रावती और पद्मपुर
के कथन मे यह कल्पना निरस्त हो जाती है। इतने महान चांदा जिले में भांदक नामक ग्राम है। इसका पुगतन ग्रन्था का रचना
ग्रन्थों की रचना का स्थान यह वाडगाम पाठवीं-नोवीं नाम भद्रावती था। यही जैन, बौद्ध और हिन्दू देवी
हाताब्दी में जैन माहित्य का बहुत बड़ा केन्द्र रहा होगा। दवताओं की मूतियो के बहत मे अवशेष पाये जाते है जो खद है कि इस समय यह प्रासद्ध नहीं है। हमारा अनुमान शिल्प-शैली के आधार पर पांचवी-छठी शताब्दी के माने
है विदर्भ के अकोला के जिले की बालापुर तहमील में जाते है। यहाँ प्राप्त एक पाश्वनाथ-मूति को लेकर लगभग स्थित वाडेगाँव ही प्राचीन वाटग्राम है। यहाँ से थोडी ही ५० वप पहले श्वेताम्बर ममाज ने यहाँ एक विशाल दूरी पर पातूर ग्राम के पाम जैन शिल्पों के बात से मन्दिर का निर्माण किया था। अब यह एक श्वेताम्बर अवशेष मिले हैं जिनका कुछ उल्लेख पागे किया है। तीर्थ के रूप मे प्रनिष्टित हो चुका है।
६. विन्यातटपुरभंडाग जिले में पदमपुर नामक प्राम है। यहां भी पन्नाट गंघ के श्रीहरिषेणाचार्य ने बृहत्कथा कोष जैन हिन्दू मूर्तियों के कई अवशेष पाये गये है। इनकी (दमवी शताब्दी) में शिवशर्मा अपग्नाम वारत्र मुनि का शिल्पशेली सातवीं-आठवी शताब्दी की मानी जाती है। निर्वाणम्थान वगट प्रदेश के वैगकर के पश्चिम में विन्या ५. वाटग्राम
नदी के किनारे विन्यानटपुर बतलाया है (कथा ८० प्राचार्य नयनन्दि ने सकल विधिविधान काव्य (ग्या
श्लोक ७०.७२)। हम पहले एक टिप्पणी में यह अनुमान
व्यक्त कर चुके हैं कि उक्त वर्णन का विन्यातटपुर विदर्भ रहवीं शताब्दी) मे बतलाया है कि वराड प्रदेश के बाड
विभाग में चादा जिले में वैनगंगा नदी के किनारे पर ग्राम में बहुत से जिनमन्दिर है नथा वहाँ श्रीवीरमेन और
स्थित वैरागढ के पास-पास रहा होगा (अनेकान्त वर्ष जिनमेन ने धवल, जयधवल तथा महाबन्ध इन तीन
१६ पृष्ठ २५६)। मिद्धान्त ग्रन्थों की रचना की थी तथा महाकवि धनजय स्वयम्भूदेव ना पुण्डरीक भी इसी वाडग्राम में हुए थे ७. श्रीपुर(जैनग्रन्थ प्रशस्ति मग्रह भा० २ पृ० २७)।
अकोला जिले की वाशिम तहसील में स्थित शिरपुर द्विसन्धान महाकाव्य, नाममाला कोप तथा विषाप- (पुगतन नाम श्रीपुर) मे अन्तरिक्ष पाश्वनाथ का प्रसिद्ध हारस्तोत्र के रचयिता धनंजय ने अपने निवास स्थान का मन्दिर है। कथानो के अनुमार इम मन्दिर का निर्माण कही उल्लेख नही किया है। प्रत. वे वराड विदर्भ के राजा श्रीपाल अपग्नाम एल ने दमवीं शताब्दी में कगया थे यह नयनन्दि का कथन मही मानने में कोई आपत्ति था। इसके विषय में अनेकान्त के पिछले किरणों में काफी नहीं हो सकती। इसी प्रकार स्वयम्भूछन्द उमचरिउ चर्चा हुई है। मदनकीति, जिनप्रभ, उदयकोति, गुणकीति,
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अनेकान्त
मेघराज, राघव मादि विद्वानों ने इस क्षेत्र को वन्दन किया हए। ये परम्पराएं बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ तक चलती है। इनके उल्लेख हमने 'तीर्थवन्दनसग्रह' में संकलित रहीं। सेनगण, बलात्कारगण और काष्ठासंघ के यहाँ के किये हैं।
भट्टारकों का परिचय हमने 'भट्टारक सम्प्रदाय' में विस्तार
से दिया है। विदर्भ के वर्तमान जैन मन्दिरों व मूर्तियों में ६. पातूर
से अधिकांश इन्हीं भट्टारकों द्वारा स्थापित हैं । ये मन्दिर अकोला जिले की बालापुर तहसील में पातूर ग्राम नागपुर, कामठी, कलमेश्वर, केलवद, व्याहाड, बाजारगांव, है। यहां दो मन्दिरों के अवशेषों से कई मूर्तिया प्राप्त हुई कोंढाली. पारशिवनी वर्धा, नांदगाव, अमरावती, मोशी, हैं। इनमें से एक मूर्ति का परिचय श्री बालचन्द्र जैन ने अंजनगांव, बालापुर, भंडाग, मुर्तिजापुर, वाढोना, भातअनेकान्त वर्ष १६ पृष्ठ २३६ में प्रकाशित किया है। कुली, चिखली, वाशिम, मेहकर, देउलगांव, जलगांवसं० १२४५ में स्थापित यह मूर्ति प्राचार्य धर्ममन की है जामोद देउलघाट आदि स्थानो में है। इनका विस्तृत तथा प्रब नागपुर के संग्रहालय में है। इसके लेख में धर्म- अध्ययन अभी नही हमा है। सेन की गुरुपरम्परा इस प्रकार बतलाई गई है-नवीर, सीक्सेन, विषसेन, पतिसेन तथा धमसेन | इन नामों के १० उपसहारशुद्ध रूप सम्भवतः नयवीर, शिवमेन, विष्णुमेन, मतिसेन यहाँ तक हमें विदर्भ में जैनधर्म की परम्पग के जो पौर धर्मसेन हैं। नामों से ये प्राचार्य सेनगण की परपरा पुरातन उल्लेख प्राप्त होते हैं उनमें से कुछ का मग्रह के ज्ञात होते हैं । किन्तु नौवीं शताब्दी मे प्रचलित वीरसेन किया है। इस क्षेत्र में श्वेताम्बर समाज की मस्या भी जिनसेन की परम्परा ने इनका सम्बन्ध स्पष्ट नहीं है। काफी है और उनके कुछ मन्दिर आदि भी है। लेकिन सोलहवी शताब्दी में कारंजा में सेनगण की जो परम्पग इनके परिवय का अवसर हमे कम मिला है। मन १९६१ स्थायी हुई उससे भी इनका सम्बन्ध स्पष्ट नहीं है। की जनगणना के अनुमार विदर्भ क्षेत्र में जनों की मख्या नागपुर सग्रहालय की एक अन्य मूर्ति भी स० १२४५ की लगभग ४५००० है अर्थात् लगभग दस हजार जैन परिवार है जिसके लेख मे माणिकमेन वीरसेन तथा वाजसेन ये इस क्षेत्र में है। इनमे सैतवाल, परवार, खडेलवाल, नाम पाये जाते हैं (जन शिलालेख संग्रह भा. ४ पृष्ठ बघेरवाल, अगरवाल, गंगेरवाल, पद्मावतीपोरवाल, धाकड. २०६)।
जेबी, बदनोरे, अोमवाल, पोरवाल आदि जातियो के लोग
हैं। इस क्षेत्र की शैक्षणिक, आर्थिक तथा राजनीतिक ९ कारजा
प्रगति मे जैनों ने पर्याप्त योगदान दिया है । किन्तु इसका __ सोलहवीं शताब्दी में अकोला जिले के कारंजा नगर मूल्यांकन एक स्वतन्त्र विस्तृत अध्ययन की अपेक्षा में जैन प्राचार्यों की तीन परम्पराओं के केन्द्र स्थापित रखता है।
जातक में अहिंसादृष्टि
यो प्रत्त दुक्खेन परस्स दुक्खं, सुखेन वा प्रत्त सखं बवाति ।
यषेव इदं मयह तथा परेसं, सो एवं जानाति स वैविधम्म ॥२७॥ अर्थ-जो निज के दुःख की तरह पर के दुःख को अनुभूति करता है, मिज के सुख से पर के सुख की
तुलना करता है। जो समझता है, जानता है कि जैसे मुझे सुख-दुःख होता है, वैसे ही अन्य को होता है, वही धर्म को जानता है।
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यशस्तिलक में चर्चित-आश्रम व्यवस्था और संन्यस्त व्यक्ति
डा० गोकुलचन्द्र जैन एम. ए. पो-एच.ओ.
सोमदेव (९५९ ई.) कालीन समाज में पाश्रम ३-वृद्धावस्था में समस्त परिग्रह त्याग कर संन्यस्त व्यवस्था के लिए वैदिक मान्यताएँ प्रचलित थीं। यद्यपि होना प्रादर्श था७ । इस अवस्था में अधिकांशतया लोग यशस्तिलक में स्पाट रूप से ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ घर छोड़कर तपोवन चले जाते थे। चतुर्ष पुरुषार्थ
और मन्याम प्राथम का उल्लेख नहीं है फिर भी आश्रम (मोक्ष) की साधना करना इस अवस्था का मुख्य ध्येय व्यवस्था की पर्याप्त जानकारी प्राप्त होती है।
था । नवयुवक को प्रवजित होने का लोग निषेध करते बाल्यावस्था को विद्याध्ययन का काल, यौवनावस्था थ१०। को अर्थोजन का काल तथा वृद्धावस्था को निवृत्ति का प्रवजित होते समय लोग अपने परिवार के सदस्यों काल माना जाता था।
तथा इष्ट मित्रों आदि से सलाह और अनुमति लेते थे। १--गुरु और गुरुकुल विद्याध्ययन की धुरी थीं। यशोधर कहता है कि नई अवस्था होने के कारण माता. बाल्यावस्था विद्याध्ययन का स्वणकाल माना जाता था। पत्ना महारानी) युवराज (पुत्र) अन्तःपुर की स्त्रियां. यदि बाल्यकाल में विद्या नही पढी तो फिर जीवन भर पुरवृद्ध, मन्त्रिगण तथा मामन्तसमूह प्रवजित होने में तरहप्रयत्न करते रहने के बाद भी विद्या पाना कठिन हे२। तरह से रुकावट डालेगे११ । सम्राट् यशोधर जब प्रजित जिनकी विधिवत शिक्षा नहीं होनी या तो विद्याध्ययन होने लगे तो उन्होने अपने पुत्र को बुला कर अपना मनोकाल में ही प्रभता या लक्ष्मी सम्पन्न हो जाने है, वे बाद रथ प्रकट किया१२। में निरंकुश भी हो जाते है३ । राजपुत्र तथा जन माधारण
पाश्रम व्यवस्था के अपवाद सभी के लिए यह ममान बात है४ ।
यद्यपि सामान्य रूप से यह माना जाता था कि २-बाल्यावस्था या विद्याध्ययन के उपरान्त गादान बाल्यावस्था में विद्याध्ययन, युवावस्था में गृहस्थाश्रम दिया जाना तग विग्विन गहस्थाबम प्रवेश किया जाता
प्रवेश तथा वद्धावस्था में मन्यास ग्रहण करना चाहिए, था५ । युवावस्था में लोग अपने गुरुजनो की सेवा का
किन्तु इसके अपवाद भी कम न थे। यशस्तिलक का विशेष ध्यान रखते थे ।
नायक अभयरुचि तथा नायिका अभयमति अपनो आठ १. बाल्य विद्यागमैयंत्र यौवनं गुरुमेवया।
७. सर्वसगपरित्यागे. सगतं चरमं वयः, पृ० १९८ सर्वसंगपरित्यागः सगत चरम. वय ॥ पृ. १६८
८. कुलवृद्धाना च प्रतिपन्न-तपोवनलोकत्वात्, पृ. २६ २. न पुनगयु स्थितय इवानुपासितगुरुकुलस्य यत्नवत्यो
परवय.परिणतिदूतीनिवेदितनिसर्गप्रणयायाऽपि मरस्वत्यः। पृ० ४३२ ।।
स्तपोवनाश्रमरमाया., पृ० २५४ ३. बालकाल एव लब्धलक्ष्मीममागम.-अमंजातविद्या- ६.चिरायमाथितचतुर्थस्वार्थसमर्थनमनोरथमारा: वृद्धगुरुकुलोपासनः, निरंकुशतां नीयमानः, पृ. २६
पृ०२८४ ४. पृ० २३६.२३७
१०. नवे च वयसि मयि मंजातनिर्वद विधास्यन्त५. परिप्राप्तगोदानावसरश्च, पृ० २२७
अन्तरायः, पृ०७० उत्त. ६. यौवन गुरुसेवया, पृ० १६५
११ पृ. ७०-७१, उत्त० । १२-- पृ० २८४
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अनेकान्त
वर्ष की अवस्था में ही प्रवजित हो गये थे१३ । एक स्थल यशस्तिलक में प्राजीवकों का उल्लेख अत्यधिक पर यशोधर श्रुति की साक्षी देता हमा कहता है कि श्रुति महत्वपूर्ण है, इससे यह ज्ञात होता है कि दशवीं शताब्दी का यह एकान्त कथन नहीं है कि 'बाल्यावस्था में विद्या तक पाजीवक सम्प्रदाय के साधु विद्यमान थे। प्रादि, यौवन में काम तथा वृद्धावस्था में धर्म मोर मोक्ष प्राजीवक सम्प्रदाय के प्रणेता मंखलिपुत्त गोशाल का सेवन करो, प्रत्युत यह भी कथन है कि प्रायु प्रनित्य भगवान महावीर के समसामयिक तथा उनके विरोधी है इसलिए यथायोग्य रूप से इनका सेवन करना थे। जैनागमों में इसके अनेक उल्लेख मिलते हैं१६ । चाहिए१४।'
आजीवकों की अपनी कुछ विचित्र सी मान्यताएं थीं। जैनागमों में बाल्यावस्था में प्रवजित होने के अनेक
गोशाल पूर्ण नियतिवाद में विश्वास करते थे। 'जो होना उल्लेख मिलते है । प्रतिमुक्तककुमार इतनी छोटी अवस्था
है वही होगा' यह नियतिवाद की फलश्रुति है। गोशाल में साधु हो गया था कि एक बार वर्षा के पानी को बान्ध
का कहना था कि सत्वों (जीवों) के क्लेश का कोई हेतु कर उममे अपना पात्र नाव की तरह तैरा कर खेलने नहीं है। बिना हेतू और बिना प्रत्यय के सत्व क्लेश पाते लगा था१५ । गजसुकुमार गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने के
हैं, स्वय कुछ नहीं कर सकते, दूसरे भी कुछ नहीं कर पूर्व ही सन्यस्त हो गये थे१६।
सकते। सभी मत्व भाग्य और संयोग के फेर मे छः जैन धर्म सिद्धान्ततः भी मायु के आधार पर प्राश्रमों
जानियों में उत्पन्न होते है और सुख दुःख भोगते हैं। का वर्गीकरण नहीं मानता। सोमदेव ने इस तथ्य को
सुख दुख द्रोण से तुले हुए हैं, संसार में घटना-बदना. यशस्तिलक में प्रकारान्तर से स्पष्ट किया है१७ ।
उत्कर्ष-अपकर्प कुछ नही होता२० । परिवाजित या मंन्यस्त व्यक्ति
२-कर्मन्दी (१३४, ४०८) परिव्रजित या सन्यस्त हुए लोगों के लिए यशस्तिलक यशस्तिलक में कर्मन्दी का दो बार उल्लेख है। इसका में अनेक नाम पाए हैं। ये नाम उनके अपने धार्मिक
धामिक अर्थ थतदेव ने तपम्वी किया है२१ । पाणिनि ने कर्मन्द सम्प्रदाय का प्रतिनिधित्व करते हैं
भिक्षुषों का उल्लेख किया है२२ । मा-भवतया जिस नरह १-पाजीवक (४०६, उत्त.)
पाराशर के शिष्य पाराशर्य, शुनक के शौनक आदि कहप्राजीवक सम्प्रदाय के साधुओं के साथ जैन श्रावक
लाते थे उसी तरह कर्मन्द मुनि के शिय कर्मन्दी कहलाते को सहालाप, सहावास तथा उनकी सेवा करने का निषेध होंगे। यशस्तिलक के उल्लेख से ज्ञात होता है कि कर्मन्दी किया गया है१८ ।
भिक्षु एकान्त रूप से मोक्ष की साधना में लगे रहते थे १३. अष्टवर्ष-देशीयतयादिरूपायोग्यत्वादिमा देशयतिश्ला- तथा स्वैर-कथा और विषय-सुख में किंचित् भी रुचि नहीं धनीयाशां दशामाथित्य, २६५ उत्त०
दिखाने थे२३। १४. बाल्ये विद्याग्रहणादीनान् कुर्यात्, कामं यौवने, स्थविरे ३. कापालिक-(२१, उत्त०) धर्मम् मोक्ष चेत्यपि नायमेकान्ततो नित्यत्वादायुषो
लिक शंव सम्पनाय की एक शाखा के साधु यथोपपदं वा सेवेतेत्यपि श्रुतिः, ७६ उत्त.
१९. देखिए-मेरा लेख-'महावीर के समकालीन १५. भगवति० ५।४
प्राचार्य', 'श्रमण' मासिक, महावीर जयन्ती १६. अंतगडदशसत, वर्ग ३
मक १९६१ १७. ध्यानानुष्ठानशक्त्यात्मा युवा यो न तपस्पति । २१. कर्मन्दीव तपस्वीब, वही, सं० टी० सः जराजर्जरोंन्येषां तपो विघ्नकरः परम् ।। २२. कर्मन्दकृशाश्वादिनिः, ४१३।११
७७, उत्त.
२३. एकान्ततः परमपदस्पृहयालुतया स्वैरकथास्वपि १८. माजीवकादिमिः । सहावास सहालापं तत्सवां च
कर्मन्दीव न तुप्यति विषविषमोल्ले खेष विषयसुखेषु, विवर्जयेत्, ४०६, ३ .
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पशस्तिलक में चित-प्राश्रम व्यवस्था और संन्यस्त व्य...
११
कहलाते थे। सोमदेव ने कापालिक का सम्पर्क होने पर माराधना करे२८।। जैन साधु को मन्त्र-स्नान बताया है२४ ।
५-कुमारश्रमरण (९२) कापालिक साधु का एक सम्पूर्ण चित्र क्षीरस्वामी ने
बाल्यावस्था में जो लोग साधू हो जाते थे उन्हें अपने प्रतीक नाटक प्रबोधचन्द्रोदय (अध्याय ३) में प्रस्तुन
कुमारश्रमण कहा जाता था। सोमदेव ने कुमारश्रमण के किया है । एक कापालिक साधु स्वय अपने विषय में इस
लिए "प्रसंजातमदनफलमग" विशेषण दिया है। एक प्रकार जानकारी देता है-कणिका, रुचक, कुण्डल,
ह-काणका, रुचक, पुण्डल, स्थान पर श्रमणमघ (६३) का भी उल्लेख है । उक्त शिखामणी, भस्म और यज्ञोपवीत ये छ: मुद्रा-पटक कह
दोनों स्थलों पर श्रमण शब्द जैन साधू के अर्थ में प्रयुक्त लाते है । कपाल और खट्वाक उपमुद्रा है। कापालिक
हुआ है। साधु इनका विशेषज्ञ होता है तथा भगासनस्थ होकर
६.-चित्रशिखण्डि--(९२) प्रात्मा का ध्यान करता है। मनुष्य की बलि देकर शिव चित्रशिखण्डि का अर्थ श्रुतदेव ने सप्तर्षि किया है। के भैरव रूप की पूजा की जाती है। भैरवी की भी खून मरीचि अंगिरा, अत्रि, पूलस्त्य, पुलह, ऋतु, और वशिष्ट के साथ पूजा की जाती है । कापालिक कपाल में से रक्त में सात प्रति माला
| स रक्त ये सात ऋषि सप्तर्षि कहलाते थे। सोमदेव ने इनका पान करते है।५।
विशेषण "मब्रह्मचाग्निा" दिया है। ये सात ऋषि प्राचार, ४–कुलाचार्य या कोल-(४४)
विचार और साधना मे समान होने के कारण ही सभवतया कापालिकों की तरह कौल भी शैव सम्प्रदाय की
एक श्रेणी में बाधे गये । इन ऋषियों के शिष्य भी शायद एक शाखा थी। मोमदेव ने कुलाचार्य का दो बार उल्लेख
चित्रशिखण्डी के नाम से प्रसिद्ध हो गये हों। किया है (४४, पू०, २६६, उत्त०) मारिदत्त को एक
७-जटिल (४०६ उत्त०) कुलाचार्य ने ही विद्याधर लोक को जीतने वाली कग्वाल
यशस्तिलक में जना के लिए जटिलों के साथ पालाप, की शप्ति के लिए चण्डमारी को सभी जीवो के जोड़ों की बग्नि देने की बात कही थी।६।।
आवाम और सेवा का निषेध किया गया है२६ । जटिल
भी गंव मत वाले साधु कहलाते थे। मामदेव के कथन के अनुसार कोल मम्प्रदाय की मान्यताएँ इस प्रकार थीं-'मभी प्रकार के पेय-अपय,
८-देशयति (२६५, ४०६, उन०) भक्ष्य-अभक्ष्य प्रादि म निःशक चिन होकर प्रवृत्ति करने
देशयति या दशवनि एकादश प्रतिमाधारी जैन श्रावक से मोक्ष की प्राप्ति होती है२७ ।
को कहते है । मुनि के एक देश मयम का पालन करने के सोमदेव के अनुसार कापालिक त्रिक मत को मानने कारण इस दशवनि कहा जाता है । यह श्रावक या तो दो थे । त्रिक मत के अनसार मद्य-मास पी खाकर प्रसन्न
चादर रखता है या केवल एक पावर
गोटी मात्र दो चादर सिकरवार
वाले को क्षुल्लक तथा कवल लगोटी वाल को ऐलक कहा और पार्वती के समान पाचरण करता हुआ शिव को जाता है।
E-देशक (३७७, उत्त०) २४. सङ्ग कापालिका यी-पाप्लुत्य दण्डवत्सम्यग्ज- जैन साधु जो पठन पाठन कार्य करते है उन्हें उपा
पेन्मन्त्रमुपोपितः, २८१, उत्त० । २५. उद्धृत-हान्दिकी-यशस्तिलक एण्ड इडियन
२८. तथा च त्रिकमनोनि-'मदिगमोदमेदुरवदनम्तरकल्चर, ३५६
मम्मप्रमन्नहृदयः मव्यपार्श्वविनिवेशितणक्तिः शस्ति२६. विद्यापरलोकविजयिनः करवालस्य सिद्धिर्भवतीति मुद्रामनधर म्बय मुमामहेम्बारायमणः कृष्णया मी.
वीरभैरवनामकान्कुलाचार्यकादुपश्रुष, ४४ णीश्वरमागधयेदिनि, २६६, उत्त. २७. सर्वेषु पेयापेयभक्ष्याभक्ष्यादिषु निःशकचित्ताद्वृत्तात्, २६. जटिलाजीवकादिमि । सहावासं सहालापं तत्सेवा च इति कुलाचार्यकाः, २६६, उत्त.
विवजयन् । ४०६, उन.
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अनेकान्त
ध्याय कहा जाता है । उपाध्याय के अर्थ में यशस्तिलक में मुमक्ष पर्व-त्योहार के दिनों में भी मुट्ठी भर सब्जी या "देशक" शब्द पाया है।
जो के अतिरिक्त और कुछ नहीं खाते थे३४ । १०-नास्तिक (४०६, उत्त.)
१६-यति (२८५, उत्त०, ३७२ उत्त०, ४०६, सोमदेव ने जैनियों के लिए नास्तिकों के साथ प्रावास, उत्त०)। पालाप मादि का निषेध किया है। चार्वाक अथवा वृह- यति शब्द का भी कई बार प्रयोग हुमा है। यह स्पति के शिष्यों के लिए सम्भवतया यहां इस शब्द का शब्द जैन साधु के लिए प्रयुक्त होता है। सोमदेव के प्रयोग हपा है। अन्य साधुओं के लिए निम्नलिखित नाम उल्लेखानमार यति ने . पाए हैं
पक्के होते थे३५ । यति भिक्षा भी करते थे३६ । ११-परिव्राजक (३२७, उत्त०), परिवाट (१३९
२०-यागज्ञ (४०६, उत्त०) । उत्त.) १२-पारासर (६२) : पारासर ऋषि के शिष्य
मम्भवतया यज्ञ करने वाले वैदिक माधु यागज कह
लाते थे । मोमदेव ने यागज्ञों के माथ जैनो को महावाम, पार सर कहलाते थे।
सहालाप तथा उनकी सेवा करने का निषध किया है३७ । १३-ब्रह्मचारी (४०८) ।
१४-भविल (४०८)-भविल शब्द का अर्थ २१-योगी (४०६) श्रुतदेव ने महामुनि किया है३०। भविल नामक साधु ध्यान में मस्त हा माधु योगी कहलाता था। पैदल चलने थे तथा छोटे जीवों के प्रति महाकृपालु होने मोमदेव ने लिखा है कि यह सोचकर कि दूसरे जीव को से लकड़ी की चप्पल (खड़ाऊँ) भी नहीं पहनते थे३१। थोडा-सा भी दुख पहुंचाने पर वह बोये गये बीज की
१५-महाव्रती (४६)-महाव्रती का दो बार तरह जन्मान्तर में सैकड़ों प्रकार से फल देता है, इसलिए उल्लेख है। चण्डमारी के मन्दिर में महाव्रती साधु अपने
दयाभाव से तथा पापभीरू होने से वनस्पति के पल या शरीर का मांस काटकर खरीद बेच रहे ३२ । ये साथ पत्तं भी स्वयं नहीं तोड़ता३८ । हाथ में खट्वांग लिये रहते थे ३३ । कोल-कापालिको की २२. वैखानस (४०८) तरह ये भी शैव मतानुयायी थे।
विशेष क्रियाकाण्ड में विश्वास रखने वाले वैदिक -महासाहसिक (४६)-महासाहसिक लोग साघु गम्भवतया वैखानस कहलाते थे । ये बान भी दीव होते थे। सोमदेव ने इनकी प्रात्मरुधिरपान जैसी . . .. भयंकर साधना का उल्लेख किया है।
३४. पर्वरसेष्वपि दिवसेषु मुमुक्षुरिव न शाकमुष्टेयंव१७-मुनि (५६,४०४ उत्त०) जैन माधु के लिए मुष्टेपिरमाहग्त्याहारम्, ४०६ यशस्तिलक में अनेक बार मुनि पद का प्रयोग हुपा है। ३५. निज नियमानुष्ठानकतामनसि-यतीश्वरे, २८५, उत्त. अभी भी जैन साधु मुनि कहलाते हैं।
३६. गृहस्थो वा यतिर्वापि जैन समयमाश्रितः । १५-मुमुक्षु (४०६) मोक्ष की ओर उन्मुख तथा
यथाकालमनुप्राप्त: पूजनीयः सुदृष्टिभिः ।। ४०६ अनवरत साधना में सलग्न साघु मुमुक्षु कहलाता था।
३७. शाक्यनास्तिकयागजजटिलाजीवकादिभिः । ३०. मविल इव महामुनिरिव, ४०८, मं.टी.
सहावासं सहालापं तत्सेवा च विवर्जयेत् । ४०६ उत्त. ३१. महाकपालुतया सत्त्वसंमर्दभयेन पदात्पदमपि प्रमभविल ३८. ईषदप्यशुभमन्यत्रोत्पादितमात्मन्युप्तबीजमिव जन्माइव नादत्ते दारवं पादपरित्राणम्, ४०८
न्तरे शतशः फलतीति दयालुभावाद् दुरितभीरुभावाच्च ३२. महावतिकवीरस्यविक्रीयमाणस्ववपुर्खनवल्लूरम्, ४६ न दलं फलं वा योगीव स्वयमवचिनोति वनस्पतीन, ३३. सा कालमहावतिना खट्वांगकरतां नीता । १२७ ।
४०६
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सेनगण की-भट्टारक परम्परा
श्री पण्डित नेमचन्द पन्नुसा, न्यायतीर्थ
डा. विद्याधरजी जोहरापुर के 'भट्टारक सम्प्रदाय' के या भट्टारक गुणभद्र (सं० १५७६) तक तो परम्परा ठीक पृष्ठ ३७ पर सोममेन से लगाकर एक पट्ट दिया है। वह है लेकिन दिये गये काल से ४१ नम्बर के तृतीय इस प्रकार है :
सोमसेन का संवत १५६७ होना खटकता है। प्रतः ३०. सोमसेन, ३१. श्रुतवीर, ३२. धारसेन, ३३. स्वयं संग्रहीत देवलगांव राजा, जितूर, वाशीम, शिरपुर, देवसेन (सवत १५१०), ३४. सोमसेन, (स० १५४१), (अन्तरिक्षजी), भातकुली आदि जगह के मूर्ति-यन्त्रलेख ३५. गुणभद्र (स० १५७६), ३६. वीरसेन, ३७. युक्त- से तथा अन्य पावली से इसे जांचा। तब मैं इस निर्णय वीर, ३८. माणिकसेन (स० १५५८), ३६. गुणसेन पर पहुंचा कि, वह पट्टावली भ० गुणभद्र (सं० १५७९) |गुणभद्र), ४०. लक्ष्मीसेन, ४१. सोमसेन (स० १५६७), या उनके गुरू भट्रारक सोमसेन (स० १५४१) के समय ४२. माणिक्यसेन, ४३. गुणभद्र, ४४. सोमसेन (म० में ही विभक्त होती है। १६५६-६६), ४५. जिनमेन (सं० १७१२-४२), ४३. क्योकि भ० वीरसेन का 'कर्णाटक देश स्थापित ममन्तभद्र, ४७. छत्रसेन (सं० १७५४)-नरेन्द्रसेन (म० धर्मामृत वर्पण' मादि विशेपण पट्टावली में (लेखाक २६) १७८७-६०)--शांतिसेन (सं० १८०८-१८१६)- स्पाट है। प्रतः इन्होने विदर्भ की गद्दी से अलग स्वतन्त्र सिद्धसेन (म० १८२६-६६)-लक्ष्मीसेन (स० १८६९- गद्दी कर्णाटक में स्थापित की होगी। और उनकी परम्परा १९२२)-वीरसेन (स. १९३६-९५) ॥इति।। मे युक्तवीर, माणिवसेन ये दो भट्टारक प्राये हों तो
यहाँ प्रथम सोमसेन मे द्वितीय सोमसेन (म०१५४१) युक्तिसगत बंटता है; क्योंकि अन्य पट्टावली में यह क्रम ब्रह्मचारी होते थे तथा स्नान, ध्यान और मन्त्र-जाप खास चिनूचानेन श्रमणसधेन, ६३] गाव, नगर प्रादि मे तौर से अधमर्पण मन्त्रो का जाप करते थे ३६ । विहार करते थे [विहरमण, ८६] संघ में विविध २३. शसितव्रत (४०८)
विषयों में निष्णात अनेक साधु रहते थे [६] । शसितव्रत का प्रथं श्रुतदेव ने दिगम्बर साधु किया है। २५-साधक | ४६] शसितव्रत अशुम का दर्शन या स्पर्श तो दूर रहा मन मे मन्त्र-तन्त्र प्रादि की सिद्धि के लिए विकट साधना उमके विचार मा जाने से भी भोजन छोड़ दंते थे करने वाले साधु माधक कहलाने थे। मोमदेव ने अपने [प्रास्ता तावदशुभस्य दर्शनं च, किन्तु मनसाप्यस्य परा- शिर पर गुल्गुनु जलाने वाले साधको का उल्लेख किया मर्प शसितव्रत इव प्रत्यादिशात्याशम्, ४००] । है४०। ऐमी भयकर माधना कौल...."कापालिक २४-श्रमण [६२, ६३] जैन साधु
सम्प्रदाय के साधकों में प्रचलिन थीं। दिगम्बर मुनि के अर्थ में श्रमण का प्रयोग हया है २६–साधु [१७७, ४०५, ४०७] उत्त. [श्रमणा इव जातरूपधारिणः, १३] श्रमण पूग संघ साघु शन्द का अनेक बार प्रयोग हया है तथा सभी ३६. सर्वदा शुचिरिब ब्रह्मचारी तथापि लोकव्यवहार- स्थानो पर जन साधु का प्रतिपालनार्थ देवोपामनायामपि समाप्लुत्य वैग्वानस
२७-सूरि [३७७] इव जपति जलजन्तूजनजनितकल्मपप्रघर्षणायाधम
जैनाचार्य के प्रथं में इसका प्रयोग हुआ है। पणतन्त्रान्मन्त्रान्, ४०८।४०. साधकलोकनिजशिरोदह्यमानगुग्गलरसम, ४६
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१५४
अनेकान्त
नहीं मिलता, न यह क्रम किमी मूर्तिलेख में अंकित है। तेषां पट्टे गणी जातो श्रुतवीरो गुणाकरः ।
तथा भट्टारक स० लेखांक ६५१-सवत १५३२ वर्षे विद्वज्जन सरोजाना, मुदे रविरिवानिशम ॥४६ बैसाख सुदी ५ रवो काष्ठा सघे नन्दीतटगच्छे भ. श्री तत्पट्ट गुणसेनमूरिविदितो विद्वान् सभा पडितः,
नस्तत्पट्ट सोमकीति प्राचार्य श्रीवीरसेनसूरियुक्त पश्चाच्छी गुणभद्रदेवमुनिपो भव्यांबुजाल्हादकृत् । प्रतिष्ठितं.....।
तर्क व्याकरणादि शास्त्र जलधिः श्रीलक्ष्मीसेन स्ततः और पिछले चोबीमी (देवलगांव राजा)-मं० जीयादिन्दुसमान कीतिरमल. भट्टारकाधीश्वर. ॥४७॥' १५३८ वैसाख शुद्ध १३ शुभे श्रीकाप्ठा सघे नन्दीतटगच्छे
गुरु १३ शुभ श्राकाप्टा संघ नन्दीतटगच्छे इममे भ० सोममेन द्वितीय सं० १५४१ के शिष्य विद्यागणे भ० श्रीभूम (भीम) सेन. तत्पट्ट भ० सोम- भ० गुणभद्र है। उनके पद पर कम से धुतवीर, गुणसन कीतिभिः श्रीवीरमेनयुक्त प्रतिष्टितं, बघेरवाल ज्ञातीय...: गुणभद्र और अभी लक्ष्मीमेन है ऐमा बताया है। अत इन दो मूतिलेम्बों में उल्लेखित भ. बीरमन अगर सेनगण लक्ष्मीसेन संवत १६३८ से ४६ तक यह पट्टावली लिखी के कर्णाटक गद्दी के अधिकारी समझे, तो उनका काल गई होगी । इमीलिए गुणभद्र के शिष्य प्रशिप्य वीरसन, सवत १५३२ से १५३८ के पास-पास निश्चित होता है। युक्तवीर, माग्गिकर्मन न होकर भ. श्रुतवीर, गुर सेन तब इनके शिष्य भ० युक्लवीर और उनके शिष्य भ. आदि निश्चित होने है। और उनका (श्रुतवीरका) समय माणिकसेन का काल सवत १५५८ ठीक लगता है। इनके मंवत १५६३ मे १५९८ तक स्पष्ट है । दग्विाशिष्य भ० नेमसेन हुए है । देखो पिछले पाश्वनाथ (भातु- १. तावे का सोला कारण यन्त्र (जिंतूर)-गवत कुली)-सवत १५१५ मूलसघे सनगणं भ. माणिकसन १५९३ सेनगणं पुष्कर गच्छ वपभ० अन्वये भ० गुणभद्रपट्ट भ० नेमसेन उपदेशात् गुजर पालीवाल मावमेटी.... स्तत्पदें श्री श्रुतवीर गुरुपदेशात् वघरवाल।
इस लेख से भ० वीरगन, युक्तमेन या माणिकमेन २ ताव का दश० यत्र (देवलगांव)-संवत १५६८ इनका भी काल स. १५१५ के पूर्व का ही ठहरता है। व शके १४६३ प्रबर्तमाने कार्तिक शुद्ध ५ रवी श्री मूलपौर शायद वीरसेनने भ० देवमेन के (स० १५१०) समय मघे श्रीवृषभसेनान्वये सेनगणं पुष्करगच्छे भ० धीगुणभद्रसे ही अलग पट्ट स्थापित किया होगा ऐमा लगता है। देवाः तत्प, भ. श्री श्रनवीगेपदेशात् वघेवाल। नेमसेन के बाद की परम्पग यहा अज्ञात है।
३. पीतल की-मूर्ति (जितूर)-मवत १५६८ फिर यहा सवाल उठता है कि यदि भ. बीरमेन को फाल्गन सू० २ गुरु धीमूनम भ० श्रा धुतकातिः कर्णाटक पीठ के अधिकारी माने तो, विदर्भ पीठ के भ० (थनवीर)। गुणभद्र (सं० १५७६) के उत्तराधिकारी कौन है ? इस
इससे भ० गुणभद्र के शिष्य थुतवीर हो थे यह स्पष्ट प्रश्न का उत्तर हमें सन् १९४८ जनवरी के जैन सिद्धान्त होना है। इनके शिष्य गुणमेन थे। भ. श्रीभूपण (काष्ठाभास्कर में प्रकाशित दिगम्बर जैन एण्टीक्वायरी से मिलता संघ) गद्दी पर पाते ममय उनकी प्रशमा करने वाल गुणहै। वहां सेनगण की पट्टावली दी है । और उन-उन भट्टा- सेन को अगर श्रनवीर के शिष्य माने गो इनका समय ग्को के समय के विशेष व्यक्ति का उल्लेख उसमें होन से मवन १६३४ में पूर्व का ही मानना पड़ेगा। दखोपण्डित माशाधर के समय से लेकर भट्टारको का क्रम भ. मं० लेखांक ६९४मुनिश्चित दिया है । उसमे उनका काल जानने में सहा- 'श्रीभूषणमूरिराज दिनकरसम भाज, यता मिलती है । उसका अन्तिम भाग इस तरह है :
अधिक बढुएला जय जय करण । 'श्रीमद्भरि गुणक पानिपुणो भव्याबुजाल्हादकृत्, नेमिजिन स्वामी चग सकल कर्मनु भग, मिथ्यावादिमहेद्र भेदनपविः सच्छास्त्रचंचुरकाम् । शिववधु कियु मंग, गुणसेन सरण ||१०.' वादीन्द्रकसुसोमसेन भुनिराट् पट्टोदयाद्री रवि, गुणसेन के शिष्य श्री गुगणभद्र हुए। कही-कही गुणज्यात श्रीगुणभद्रसूरि गुरुराट नन्द्याचिरं भूतले ॥४५ सेन गुणभद्र ऐसा उल्लेख मिलता है। इससे ये एक ही
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सेनगण की-भट्टारक परम्परा
व्यक्ति होंगे। ऐसा गलत समझना होता है। डा. विद्याधरजी भी गुणसेन और गुणभद्र को एक ही व्यक्ति बताते १६८० तक है । देखिए १. पि. चोवीसी [वाशीम]-शके है और लिखते भी है कि 'गुणसेन का नामांतर गुणभद्र १५२० श्री मूलसंघे सेनगणे श्री गुगभद्र देवास्तत्लट्टे भ. था।' भ० सं० पृष्ठ ३२।
श्रीलक्ष्मीसेन तत्पट्ट भ. श्री सोमसेनः तत्प; भ. श्री लेकिन पट्टावली और मूर्तिलेखों में गुणसेन के शिष्य माणिकगेन उपदेशात् वाशीम नगरे धाकड़जातीय......। गुणभद्र हैं ऐसा स्पाट बताया है। देवो-मल्लिनाथ माणिकसेन के शिष्य गुणभद्र हए। इनका काल स. १६५४ काला पाषाण (देवलगाव)-मवत १६३८ वर्षे शाके से १६८० तक है १ पि. चारित्र तथा ज्ञान यंत्र वाशीम] १५०३ प्रवर्तमाने फाल्गुन मुदो ६ मूलमधे सेनगणे पुष्कर -शके १५२६ पिगल नाम मवत्सरे मार्ग शीर्षशु०५ गच्छे वृषभमेनान्वये भ० श्री मोमसेनस्तत्प? भ. श्रीगुण- श्री मुल. सेन. पूरकर. कारंजे पार्श्वनाथचंत्यालये श्री भद्रस्तत्प? भ० थी श्रुतवीर तत्पट्टे भ० श्री गुण- गुणभद्राचार्याणाम् । २. चद्रनाथ [वाशीम-मं १६८० सनस्तत्पढें भ० श्री गुणभद्रोपदेशाद् वघेरवाल ज्ञातीय। कद्धिरोहागे नाम संवत्सरे मूलमंघे प्रकरगच्छ वषभ. इममे गुणभद्र का काल सं. ११३८ के प्राम-पाम का श्री लक्ष्मी मेन गुरु . तत्पट्टे सोमसेनस्तताट्टे मारिणकसेन ठहरता है। इनके शिष्य लक्ष्मीमेन हये । इनका काल तपट्टे गुणभद्र उपदेशात् धाकडजातीय...... हां इनका मं० १६३८ मे १६४७ के ग्रामपाम का है। देखो - गुणमेन गुगभद्रोमा नाम भी मिलता है-ऋपिमंडल तथा
(१) आदिनाथ (देव लगाव -शायः १५०३ प्रवनमाने दर्शन यंत्र [जितूर]- शके १५३३ विघ्नकृत नाम फाल्गुग्ण मुद ७ बुध श्री मूलगधे पुकर गन्छ वृषभ-भ. मंवन्मरे जेठ मुद ५ शनि. मूल. सेन. पूष्कर. भ. श्री गृणभद्र तत्पटटे भ. श्री लक्ष्मीगन गुरुपदशान्......। लक्ष्मीगेन-मोममेन-माणिकसेन तत्पट्टे भ. गुणसेन (२) पार्श्वनाथ [देठ लगाव - शाके १५१४ नदन सवन्मरे गृणभद्र उपदेशात् ज्ञानमेठी भार्या मानाई पुत्र....... फाल्गुन शुक्लपक्ष दिने ७ श्री मूलगघे मेनगणं पृष्क रगन्छे इममे यह गुणभद्र म १६५४ मे ८० और गुणगेन गुणभद्र वृपभ० पारं पर्यामने गुणभद्र भटटारकाना तत्पट्टे भ. ये एक ही व्यक्ति कहे जा मकते है। श्री लक्ष्मीमेन उपदेशात्.........।
माणिकमन के शिय मोमगेन | चतुर्थ | मं. १६५६इनके शिष्य सोममन [ननीय | मं. १६६२ हप। १६६६ हा है। इन्होंने माहित्य निर्माण भी किया है, चांदीका महामन |जितूर) शके १५२७ म १.६२ इनके माहित्य में श्रीपर 'अतरिक्ष का उलेख पाता है। विरुद्ध कृन्नाम मंवत्सरे भाद्रपद मामे शुक्लपक्ष ३ धीमूल- मं.११६ को प्रनिष्ठा यह उनके जीवन में अनिम घटना मघे मेनगणे वपभगेनगणान्वये भ. श्री गुणभद्र : नत्पट्ट होगी । और यह प्रतिष्ठा श्रीपुर अंतरिक्षपार्श्वनाथ में हुई श्री लक्ष्मीमेनदेवा : नन्पट्टे भ. मोममेन उपदंशात् श्री है। देखिा-१ ग्रादिनाथ मूर्ति [श्रीपर]-शके १५६१ जितुर ग्रामे श्री पार्श्वनाथ चैत्यालये थी बघेरवाल....... प्रमाथी नाम संवन्मरे फाल्गुन मुदी द्वितीया गुरुवारे श्री ___ भ. मं. लेखाक ३६ मे- 'मवत १५६७ श्री मूलमधे मूलमघे वृषभमेनान्वये पुष्कर गच्छे गनगणं भट्टारक श्री मेनगणे भ. मोममेन उपदेशात कालवाडे सघवी....... गुणभद्रम्तन्पट्टे भ. श्री सोममेन उपदेशान् श्रीपुरणाम श्री 'यह लेग्य तनीय मोममेनका है, मा डा विद्याधर जीने प्रतरिक्ष चैत्यालये......। २. पि. पद्मावती (ग. गो. बताया है । लेकिन हमे विश्वास है कि, एक तो वहां महाजन कांग्जा)-शके १५६१ फाल्गुन वदी ६ पष्ठी मंवत वाचनम गलती होगी, वह म. १६६७ होगा, या श्री मूलमंघे मेनगणे भट्टारक मोमगेन : तुक गणामा व. यह लेख द्वितीय सोममेन मं. १५४१ का ही होगा। गोमा व वोपामा। उपदेशात् निन्यं प्रणमंति । कारंजा मं. १६६७ माने तो वह लेख चतुर्थ सोमसेन का नगरे । प्रतिष्ठा श्रीपुर नगरे विधानः । [मं. १६५६ से १६] टहरता है। लेकिन वह द्वितीय सीमसेन के शिष्य जिनमेन हुए। इनका जीवन ११५सोममेनका ही लेख होगा, जिससे उनका काल स १५४१ २० सालका होगा, कारण पट्ट पर ही ये बराबर सौ साल से १५६७ तक ठहरता है।
के थे। देखिए-१. भ. सं.लेखाक ४५-शके १५७७...
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अनेकान्त
पट्टावली और काल जिनसेन गुरूपदेणात् । २. पाश्वनाथ (वाशीम)-शके भट्टारक सोमसेन प्र.) १५७८ फाल्गुन शुद १२ सेनगणे भ. जिनसेन उपदेशात्
महम्मद पातशाह के सम
क.लीन सं० १३८२-१४०८
श्रुतवीर वाशमिग्रामे......प्रगमति ।
धारसेन ३. पि. यंत्र (श्रीपुर)-शके १६०७ क्रोधनाम संवत्सरे मार्गशीर्ष सुदि १० गुरे सेनगणे वृषभसेनान्वये
देवसेन-संवत १५१० भ. सोमसेन देवास्त्पट्टे भ. श्री जिनसेन गुरुपदेशात् जांब ग्राम वास्तव्य धाकड जससा भार्या गोराई पूत्र कोंडा
द्वि० सोमसेन (स० १५४१-१५९७) [कर्णाटक के
पीठ पर] वीरसंघवी भा० चीगाई भ्रात नेमासां (भार्या) सोयराई
गुणसेन (सं० १५७६) सेन स० (१५१५. भ्रात मेयासा भार्या द्वारकाई एते प्रण । ४. पि. दर्शन यंत्र (थीपुर)-शाके १६७६ मार्ग
श्रुतवीर (म० १५९३-१५९८) ।
युक्तवीर सिर सुदी १० दसमी मूलसघे वृषभमेनगण वृपभमेन
गुणसेन (म० १६३४) गण भट्टारक श्रीगुगभद्रदेवास्तत्पट्टे भ. सोमसेन. तत्पट्टे
माणिकसेन भ. श्रीजिनसेनोपदेशात् जाबग्राम धाकड ज्ञाती काण्डासा
गुणभद्र (मं० १६३८) (स० १५५७) भार्या चिगाई एते-[भा.र्या गौराई तयो पुत्रा त्रयः
लक्ष्मीसेन (मं० १६३८-१६४६) नेममेन प्रथम कोंडासा भार्या चिगाई तयो पुत्री प्रथम रतनमा भार्या
(स० १५१५) तुकाई द्वितीय लालासा पुनः संवत नेमासा भार्या सोयराई तृ. सोममेन (मं० १६६२) पुनः संवत नेमासा भा. द्वारकाई एते नित्य प्रणमान्त । इससे शाके १५७७ से १६७६ तक ये पट्टपर थे। ऐमा
माणिक्यमेन (म० १६५५-५६) स्पष्ट है। इनकी मृत्यु श्रीपुर में ही हुई है। इनकी
गुगभद्र (गुणसेन गुणभद्र-सं० १६५४-८०) समाधी पौली मन्दिर के सामने दक्षिण की ओर है। इनके शिष्य समन्तभद्र सं. १७४६ में देवलगांव में थे। च० सोमसेन (१६५६-६६) देखो---हस्तलिखित श्रेणिक चरित्र जितूर-शाके १६११
जिनसेन (मं० १७१२-१८११) संवत १७४६ जप्ठमासे शुक्लपक्षे ५ तिथौ बुधवासरे श्री देउलग्रामे श्रीमूलसघे सेनगणे पुष्करगच्छे वृपभ. पट्टावली समन्तभद्र (म० १७४६-६७) श्री जिनसेन तत्पटटे श्री भ. समन्तभद्रनामधेयान् । ज्ञाति वघेरवालेन.." तथा सेनगण मन्दिर कारंजा-'इति
छत्रमेन (मं० १७५४) श्री हरिवंश. महाग्रन्थ समाप्त: ॥श्रीः।। शुभ भवति,
नरेन्द्रसेन (स० १७८७-१७६०) कल्याणं चास्तु ।। सवत १६३२ वर्षे कार्तिक वदी ३ र [बी] || मुनि श्रीधर्मभूषण पठनार्थ । ब्रह्म मोहन पठनार्थं शांतिसेन (म० १८०८-१८१६) भ. श्री जिनसेन ॥ भ. श्री समन्तभद्र । इति । [. ३६१] । यहां संवत १६३२ को अगर शक सवत माना
सिद्धसेन (सं०१८२६-१८६६) जाय तब ही ठीक बैठता है और उससे भ० समन्तभद्र का
लक्ष्मीसेन (सं० १८२६-१९२२) काल संवत १७४६ से १७६७ तक पाता है।
वीरसेन (सं० १९३६-१९६५) मागे के भट्टारकों का क्रम तथा काल सुनिश्चित ही
टिप्पणी-कर्णाटक पीठ के भट्टारक वीरसेन किसके है। इस सब विवेचन से स्पष्ट है कि सेनगण की पट्टा
शिष्य थे यह निश्चित नहीं कहा जा सकता, अतः यहाँ बली में इस तरह सुधार होना आवश्यक है।
काल के आधार पर ही देवसेन के शिष्य बताए है, हो सकता है कि वे द्वि० सोमसेन के ही शिष्य हो। तब इन सोमसेन का काल भी और पीछे जाता है जो संशोध्य है।
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राष्ट्रीय संग्रहालय में राजस्थान से प्राप्त तीर्थकर सुपार्श्वनाथ की प्रस्तर प्रतिमा
व्रजेन्द्रनाथ शर्मा, एम० ए०
राष्ट्रीय संग्रहालय, नई दिल्ली में भारतवर्ष के विभिन्न तीर्थङ्कर सुपार्श्वनाथ की प्रतिमा की प्रतिष्ठापना की थी भागों से प्राप्त अनेकों जैन प्रतिमाएं संग्रहीत है। इसमें (देखे पूरनचन्द नाहर, जन अभिलेख, ३ संख्या २११४ । चालुक्य, गहड़वाल तथा पाल-कालीन और पल्लव, चोल सुपार्श्वनाथ से ही मिलती-जुलती २३वे तीर्थर तथा विजयनगर-कालीन प्रतिमायें अधिक है जो पाषाण पार्श्वनाथ को भी प्रतिमा होती है। इसी कारण पहले तथा कांस्य दोनों ही में निर्मित हैं। इन्हीं मूर्तियों में से बहुत से विद्वान दोनों प्रकार की प्रतिमानों का विशेष एक प्रस्तर प्रतिमा को जो गहड़वाल काल की है (लगभग अन्तर न जानने से एक प्रतिमा को दूसरे तीर्थपुर की १२वी शताब्दी ईसवी), और विशेष महत्व की है, हम प्रतिमा बता दिया करते थे (देखें : बी०सीद भट्टाचार्य, इस लेख द्वारा पाठकों के सम्मुख प्रस्तुत कर रहे है। 'जन-माइक्नोग्रफी', पृ०६१)। परन्तु इस सम्बन्ध में यह
कुछ समय पूर्व चित्तौडगढ (गजस्थान) से जैनियों उलेखनीय है कि सुपाश्वनाथ की प्रतिमा स के एक, पाँच के ७वें तीर्थदूर मृपाश्वनाथ की एक प्रतिमा प्राप्त हुई थी
अथवा नौ फणो की छाया में होती है जबकि पार्श्वनाथ जो अब राष्ट्रीय संग्रहालय में मुरक्षित है। इसमें भगवान्
की मूर्ति सर्प के तीन, मात या ग्यारह फणों की छाया पद्मामन पर पांच फणो के नीचे शिरीप वृक्ष की छाया में
में मिलती है। दूसरी विशेष बात यह है कि प्रथम तीर्थजिमक नीचे उन्हे कैवल्य की प्राप्ति ही शानदार का चिह्न स्वस्तिक है जब कि द्वितीय का सपं है। विराजमान है। उनके घुधगले केशो के ऊपरी भाग में
सुपार्श्वनाथ की अपेक्षा पाश्र्वनाथ की मूर्तियाँ कहीं उष्णोश है तथा लम्ब कान और वक्षस्थल पर बना 'श्रीवत्स अधिक सख्या में मिली है। (ग्वजराही का तो प्रसिड पूर्ण रूप से स्पष्ट है। 'जिन' के दोनो योर एक-एक अन्य पार्श्वनाथ मन्दिर वहाँ के अन्य गभी जैन मन्दिरों से बड़ा
र प्रतिमा ताखो में कार्यात्म मटा में खडी है। तथा कला की दृष्टि से भी धेष्ठ है)। इसका एक मात्र शीश के दोनों ओर एक-एक माला धारी विद्याधर है। कारण यह प्रतीत होता है कि जैन धर्म में तीन तीर्थरप्रतिमा के सबसे ऊपरी भाग में भी दोनों ओर सपाश्वनाथ ऋपभनाथ, पाश्र्वनाथ तथा महावीर को विशेष महत्व दिया को ज्ञान-प्राप्ति पर हर्प ध्वनि करते हा गजारूढ दिव्य जाता है तीनों तीर्थदूरो को ही समान सख्या में मूर्तियां गायको एव दिव्य बादकों का अंकन है। प्रस्तुत प्रतिमा उपलब्ध हुई है। वैसे अन्य नीथङ्करों की भी प्रतिमाएँ अत्यधिक खण्डित होने पर भी कलाका एक अच्छा नमूना प्राप्त है । अत
प्राप्त है । अतः यही कारण है कि पार्श्वनाथ की सुपार्वहै, जैनियों के दिगम्बर समप्रदाय की है।
नाथ की अपेक्षा पूजा अधिक प्रचलित होने से मन्दिरों में
भी इनकी ही अधिक मूर्तियाँ प्रतिष्ठापित की गई होंगी भगवान् मुपाश्वनाथ की पूजा मध्यकालीन गजस्थान जो आज उपलब्ध है। (देख मेरा लेख : 'पाश्र्वनाथ की में प्रचलित थी जैसलमेर के शासक व्यर सिंह के बासन- अप्रकाशित प्रतिमा. बरदा, बिसाऊ, राजस्थान' की प्रमुख काल सन् १४३६ ई. में पासड़ नामक एक व्यक्ति ने अपने पत्रिका में)। 'अनकान्त' के किसी पागे के प्रङ्क में इस परिवार के अन्य सदस्यों के साथ चिन्तार्माण के मन्दिर में विषय पर हम कछ अधिक प्रकाश डालने का प्रयत्न करेंगे।
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भ० विश्वभूषण की कतिपय अज्ञात रचनाएँ
श्री अगरचंद नाहटा
जैन विद्वानों ने प्राकृत, अपभ्रंश, संस्कृत, हिन्दी, के गुटकों में विश्वभूपण की कई अज्ञात रचनाएं देखने को राजस्थानी गुजगती प्रादि भाषामों में छोटी-छोटी बहुत- मिली। उनका मंक्षिप्त परिचय इस लेख में दिया जा रहा सी रचनाएँ की है पर उनका प्रचार अधिक नहीं हो है। विश्वभूषण नाम के २-३ कवि एवं विद्वानो की संस्कृत पाया। बडे-बड़े ग्रंथों मे से भी बहुत-से ग्रन्थों को प्रति- एवं हिन्दी की रचनाएँ मिलती है जिनमे से एक विश्वलिपियाँ अधिक नहीं हई। इमलिए उनकी एक-दो प्रतियाँ भूपण जगतभूषण के शिष्य (मूल मघ के) और १८वीं किसी ज्ञान-भडार में पड़ी रहती है। जहाँ तक उस ज्ञान- शताब्दी के है । विशालकीति३ शिष्य विश्वभूपण की भी भण्डार का अवलोकन नही किया जाय अन्य भण्डारों में अन्य रचना प्राप्त है। यहाँ तो उनकी अजात रचनात्रों नहीं मिलने के कारण वे अज्ञात अवस्था में पड़ी रहती है। की ही जानकारी दी जा रही है। प्राचीन विद्वानों की छोटी-छोटी रचनाएँ तो अधिकांश भ. विश्वभूषण सतरहवी शताब्दी के कवि है। काष्ठा लुप्त हो चुकी है। मध्यकाल में ऐसी रचनाओं को सुरक्षित मंघ के विशालकीति के वे शिष्य थे । 'लब्धि विधान रास' रखने के लिए कुछ संग्रह प्रतियाँ लिखी जाने लगी। आगे में उन्होंने अपनी गम-परम्परा इस प्रकार दी हैचलकर ऐसी सग्रह प्रतियाँ गुटकों का रूप धारण करने सखी सकल संघ माहे मुख्य काष्ठासघ जग जाणारे। लगीं। क्योंकि पत्रकार प्रतियो के खुले पन्ने इधर-उधर महिमावंत विख्यात रामसेन बखाणइ रे॥३२॥ हो जाते या टूट-फूट जाते और संग्रह प्रतियां नित्य पाठ
___ सखी तास अनुक्रमि सूरि विजयसेन नाइकु रे । या विशेष प्रध्ययन के लिए लिखी जाती थी। गुटकों के
सखी विमल सम काय, कमलकीति तदायकु रे ॥३३॥ द्वारा छोटी कृतियों के संरक्षण एवं स्वाध्याय का कार्य सखी रत्न राशि सम कांति, रत्नकीति ण्ट्रह प्रभु रे। बहत मागे बढा, क्योंकि गुटकों के पत्र सिलाई हो जाने से सखीइन्द्र सदश प्रभा पंज, महेन्द्रसेन मनिगच्छ विभू रे ॥३४ फुटकर पत्रों की तरह बिखरते नही और गुटको को रखने मखी ततपद व्योमि सूर कुमति कुतप नित वारण रे। एवं पढने में भी अधिक सुविधा रहती है। सोलहवी सखी विशालकोति प्रय मरति, सम दम दय धारणु रे। शताब्दी से गुटकाकार प्रतियों का प्रचार बढता ही गया। सखी तदंग्रही कमल शुभ भंग, रंगि चारित्र प्रादरयु रे। और हजारों प्रतियाँ छोटे-मोटे गुटकों के रूप में लिखी गई सखी विश्व जीव प्रतिपाल, नाम श्रीविश्वभूषण वरयं रे। उसमें से बहुत-सी प्राज भी ज्ञान भंडारों में पाई जाती है। सखी तिणि सु कथा कोष, लब्धविधान सुविधि तणी रे ।। पर कुछ समय पहले तक विद्वानों ने उनको इतना महत्व यो छन्द काव्य अलंकार, नवि जाणं व्याकरण भणी रे । नहीं दिया। उनमें फुटकर छोटी-छोटी रचनाएँ हैं-यह रचनाकाल का उल्लेख करते हुए लिखा हैकहकर प्राय. उनकी उपेक्षा की। ज्ञानभडार की सूची सखी संवत सोल गुण च्यार बनाते समय गुटकों को अलग रख दिया जाता। इधर
करयर श्रुत पंचमी बुध दिन निरमली है। कुछ वर्षों में इन छोटी-छोटी रचनाओं का भी महत्व सर्व प्रस्तुत लन्धि विधान रास चार ढालों में है। गाथाओं विदित हो गया। क्योंकि इन गुटकों में हजारो महत्वपूर्ण की संख्या क्रमश ४१, ४३, ४०, ४२ है। प्रारम्भ पौर रचनाएँ ऐसी लिखी मिलती है जो बडी-बडी प्रतियो में अन्त में एक वस्तु छन्द है, दूसरी रचना सोलह कारण राम मिल ही नहीं सकती। प्रभो प्रभी अहमदाबाद जाने पर ७६ पद्यों की है। उसकी प्रशस्ति मे नन्दीतट गच्छ का मागम प्रभाकर सौजन्यमूति मुनि पुण्यविजय जी के संग्रह भी नाम है।
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विश्वभूषण को कतिपय प्रमात रचनाएं
१५९ विशालकीरति गुरू गगधार, नंदीतट गच्छ रायतु। बो-वागण खंड मंडण माह मासपुर सुप्रसिस । उपरगाम के श्रेयांस भवन का भी उल्लेख किया गया श्री जिन भवन सुहट्ट घर, वसि धावक समड ॥॥
इन पांच बड़ी रचनामों के प्रतिरिक्त विश्वभूषण के उपरगाम पुर मंडणु, श्रेयांस भवन सुभासतु ॥७॥ कई पद और गीत इस गुटके में है। उनके गुरु विशाल
तीसरी रचना अाकाश पचमी रास ९६ पद्यों की है- कीर्ति का भी ७ पद्यों का एक गीत और बारह व्रत दुहडा इसकी प्रशस्ति में भी अरगाम के श्रेयांस भवन में संवत् (१४) है। विशालकीति के अन्य शिष्य ब्रह्मचारी भोज१६४० में रचे जाने का उल्लेख है
राज के शिष्य ब्रह्मचारी कचरा ने रत्नभूपण मूरि रचित उपरिगाम श्रेयांम जिन, भुवन नयन मनुहार ।
कक्मणीहरण गीत इस गुटके में लिखा है। प्रशस्ति इस सत सोल चालीस प्रथम, मंगल तेरस शनिवार ॥१॥ प्रकार हैविद्यागण उदयाचल महेन्द्र गुरु सूर ।
बड़वाल शुभ स्थाने श्री प्रादिनाथ चैत्यालये श्री प्रवनि उदउ दय करवि, विशालकीरति रवि नूर ॥१२॥ विशालकीति तत शिष्य न० श्री २ भोजगज शिक्ष श्री तासु शिष्य नर रयण भुव, मंडण महिमा धार ।
कचरा ल (लि)नतम्। इस गुटके म और भी कई महत्वपूर्ण
रचनाएँ है जिनमे कुछ दिगम्बर है कुछ श्वेताम्बर है। भट्टारक विश्वभूषण रचयुं, रास हितकार ॥३॥
श्वे. कवि हीगनन्द रचित विद्याविलास राम (ग्चनाकाल ___ चौथी रचना "मौन ग्यारम रास" ३७, ५६, ५१
मवत् १४८५) मंवत् १६५८ मे कचरा ने लिखा हैहै। रचनाकाल का उल्लेख करते हुए लिखा है
"मवन् १६५८ कानिक वदि इग्यारम ११ सोम दिने संवत सोलइ गुणयालीसिये, वर्ष वैसाख त्रीज श्वेततु। धर्गयाउद शभ स्थाने ब्रह्मचारी श्री २ कचरा लक्षिाम् ।
इमकी रचना भी उपग्गाम के श्रेयांस जिनालय मे फूटकर रचनामों में विश्वभूषण रचिन हियानी गीत ७ की गई है--
पद्यों का उल्लेखनीय है । जिनमेन रचिन ५ पद्यो की एक उपरगाम महिमा घणीए छि श्री जिन श्रेयांस तु। अन्य हियानी भी इस गुटके में लिखी हुई है। गुटके के रसिक रास ऐतिहां किउ ऐ विविध करण श्रेयांस ॥४॥ प्रारम्भ में श्वे० कवि मंवेगमुन्दर का "मार मिग्वामण गम"
पांचवीं रचना "होली चोपई" संवत १६४२ के फागण है। नथा और भी कई श्वे० रचना है। २६३ पत्रों के पूनम को ग्रामपुर के जनभवन में रची गई। इसमे क्रमशः इस गुट के का अन्तिम पत्र खो गया है। इसमे गुटके की ४६, ४६, १.१० गाथाएं हैं। रचनाकाल व स्थान का मूची अधूरी रह गई है। पत्राक २६१.६२ मे दो पृष्ठों में उल्लेख इस प्रकार है
मुन्दर रेखाचित्र दिय हुआ है। प्रथम पृष्ठ में ऋषभदेव संवत सोल बिताला तणी, फागन प्रनिम दिन ए भणी। और दोनो ओर मेविकाय तथा दूसरे पृष्ठ पर मास्वनी शास्त्र श्रम मुझनि कई नथी, तं पिण होली उत्पति कथी। और अम्बिका का चित्र है।
अनेकान्त की पुरानी फाइलें अनेकान्त को कुछ पुरानी फाइलें पशिष्ट है जिनमें इतिहास, पुरातत्व, दर्शन और साहित्य के सम्बन्ध में खोजपूर्ण लेख लिखे गए हैं जो पठनीय तथा सग्रहणीय है। फाइलें अनेकान्त क मागत मूल्य पर दी जावेगी, पोस्टेज खर्च अलग होगा। फाइलें वर्ष ८, ९, १०, ११, १२, १३, १४, १५, १६, १७ वर्षों की है। बोड़ो हो प्रतियो अवशिष्ठ है। मंगाने कोशीप्रवाह।
मैनेजर 'अनेकान्त' पोरसेवामन्दिर २१ रियागंज, दिल्ली।
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अप्रावृत और प्रतिसंलीनता
मुनिश्री नथमल दशवकालिक में मुनि की ऋतु-चर्या का बयान करते इसका अर्थ अनावृत स्थान में स्थिति को किया है। हुए बताया गया है कि वे ग्रीष्म ऋतु में प्रातप सेवन सम्भव है कि वस्त्रों का व्यवहार जब कम था, तब तक करते हैं, हेमन्त ऋतु में प्रपाबूत और वर्षा-ऋतु में प्रति अप्रावत का अर्थ खुला स्थान रहा होगा और जब वस्त्रों संलीन रहते हैं। इनमें पातप-सेवन का अर्थ मूर्य का का व्यवहार अधिक हो गया तब उस (अप्रावृत) का ताप सहन करना है। अग्नि का सेवन मुनि के लिए अर्थ वस्त्र-रहित हो गया। निषिद्ध है२, इसलिए प्रातप-सेवन का अर्थ सूर्य के ताप संभव है कि जब वस्त्रों का व्यवहार कम था तब को सहना ही हो सकता है । प्रप्रावृत और प्रतिसंलीन की
__ अप्रावृत का अर्थ खुला स्थान रहा होगा और जब वस्त्रों परम्परा यहाँ मीमांसनीय है । अप्रावृत अगस्त्यसिंह का व्यवहार अधिक हो गया तब उसका (अप्रावृत) का स्थविर ने प्रप्रावत का अर्थ निवात गृह रहित किया है। अर्थ वस्त्र रहित हो गया। प्राचार्य हरिभद्र ने इसका अर्थ प्रावरण रहित किया है ।
मुनि की ऋतु-चर्या का उल्लेख महाभारत व स्मृतिकिन्तु प्राचारांग और भावप्राभूत के संदर्भ में इस पर
ग्रन्थों मे भी मिलता है। महाभारत मे हेमन्त ऋतु में विचार किया जाए तो यह स्पष्ट ज्ञात होता है कि अप्रा
जल मे रहने का विधान है। मनुस्मति तथा याज्ञवल्क्य वृत का अर्थ वस्त्र-रहित नहीं, खुले गृह मे स्थित होना
स्मृति में भी वस्त्र रखने का विधान है। चाहिए। भगवान महावीर शिशिर व ऋतु में अधोविकट
अप्रावत, जल-संश्रय और आर्द्र-वासा-यह अन्तर (चारों ओर दीवारों से रहित केवल ऊपर से पाच्छन्न
परम्परा-भेद के कारण हुआ है। जैन-परम्परा मे जलअर्थात् प्रप्रावृत) स्थान में स्थित होकर ध्यान करते थे।
स्पर्श निषेध था इसलिए हेमन्त ऋतु में प्रप्रावृत रहने । एक दूसरे प्रसंग में बताया गया है कि वे शिशिर-ऋतु में
विधान किया गया। छाया में ध्यान करते थे ।
पाचार्य कुन्दकुन्द ने बताया है कि मुनि शीतकाल में प्रतिसंलीनता बाहर शयन करे७ । वृत्तिकार श्रुतसागर सूरी ने अगस्त्यसिंह स्थविर जिनदास महत्तर और हरिभद्र
१ दशवकालिक ३१२। २. वही ६३४ मूरि के अनुमार प्रतिसंलीनता का अर्थ है, निवास-गह या ३ वही, पृ० १०३ टि०१क) ४ वही, पृ० १०३ टि. १(ग)
१ महाभारत शान्तिपर्व २४१ ५ प्राचारांग १२।१५
प्रभावकाशा वर्षासु, हेमन्ते जलसंश्रयाः । तंसि भगवं, अपडिन्ने प्रहे बिगड़े महीयासए ।
ग्रीष्मे च पंचतपसः। शश्वच्चाभित भोजनाः ।। दविए निक्खम्म सया राम्रो ठाइए भगवं समियाए २ मनुस्मृति ६।२३ ६ भागरांग २३
ग्रीष्मे पंचतपास्तुस्याद्वार्षास्वम्रवकाशिकः । सिसिरंमि ...या भगवं, छायाए मगहमासीय
पावासास्तु हेमन्ते क्रमशो वर्षयंस्तपः ।। ७ भाव-प्राभूत १११
याज्ञवल्क्य स्मृति, प्रायश्चित्ताध्याय ५२० बाहिर सयण तावण तरुमूलाईणिउत्तरगुणाणि । ग्रीष्मे पंचाग्निमध्यस्थो वर्षासु स्थाण्डिलेशयः । णालहि भाव विसुद्धो पूयालाहं जईहतो ।।
मावासास्तु हेमन्ते, शक्त्या वापि तपश्चरेत् ।।
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अप्रावत और प्रतिसंमीनता
१११
पाश्रय में स्थित रहना३ । यह विधान वर्षाजल के स्पर्श याज्ञवल्क्य स्मृति १ में स्थण्डिले शय [मैदान] में रहने से बचने के लिए किया गया। प्राचार्य कुन्दकुन्द ने वर्षा- का विधान है। काल में तरुमूल में रहने का विधान किया है ।
इस चर्या में भी व्यवस्थामों का हेतु सिमान्त-भेद श्रुतसागर सूरि ने इसकी व्याख्या में लिखा है- है। दिगम्बर और श्वेताम्बर परम्परा में तरु-मूल और मुनि वर्षाकाल में वक्ष के नीचे रहे। वृक्ष के पत्तों पर प्रतिसं लीन रहने का भेद बहुत पाश्चर्यजनक है। उद्यान गिरकर जो जल नीचे गिरता है, वह प्रासुक [निर्जीव] प्रादि में चातुर्मास बिताने वाले मुनि सभवत' वृक्षों के हो जाता है । इसलिए मुनि जल के जीवों की विराधना नीचे ही रहते थे। जब मकानों में रहने का अधिक नहीं करता । वृक्ष के नीचे रहने से वर्षा जनित कष्ट भी प्रचलन हो गया तब प्रतिसलीन रहने को मुख्यता दी होता है। इसलिए मुनि को वर्षाकाल में वृक्ष के नीचे गई। अगस्त्यासह की व्याख्या में निवात-लपन में रहने रहना चाहिए। यदि वह ऐसा नहीं करता है तो उससे का उल्लेख है, लयन शब्द सामान्य घर का वाचक नही उमकी कायरता प्रगट होती है। महाभारत६ और है। वह पहाड़ों को कुरेद कर बनाए गए घर के अर्थ में मनुस्मृति में सन्यासी के लिए वर्षाकाल में अनावकाश है। जिनदास और हरिभद्र ने प्राथय शब्द का प्रयोग [खुले प्राकाश में] रहने का विधान किया है और किया है। वह सामान्य घर भी हो सकता है। इस प्रकार
युग-परिवर्तन के साथ-साथ तरु मूल निवात लयन और ३ दशवकालिक, पृ० १०३, टिप्पण २
माश्रय का भेद हुमा है। (क) अगस्त्य चूणिः सदा इंदियनोइंदियपरिसमल्लीणा विसेसेण सिणेहसंघट्टपरि
___इस सांवत्सरिक-चर्या का जैन परम्परा में प्राचीन
उम्लेख भगवान महावीर के जीवन-प्रसंग में मिलता है। हरणत्थं रिणवातलतणगता वासासु पडिसं.
इस प्रसंग में वर्षा-ऋतु की चर्या का उल्लेख नहीं है। लीणा गामाणुगामं दूतिज्जति ।
दशवकालिक में तीनों ऋतुओं की चर्या का उल्लेख है। (ख) जिनदास चूणि, पृ० ११६ : वसासु पडि
महाभारत पौर स्मृति-ग्रन्थों में भी वार्षिक-चर्या का उल्लेख संलीणा नाम आश्रयस्थिता इत्यर्थः, तब.
है। यह उस समय की स्थिति का प्रभाव था। किसी भी विसेमेसु उज्जमंती, नो गामनगराइसु
सम्प्रदाय का मुनि बहुजन सम्मत चर्या को अपनाए बिना विहरंति।
कैसे रह सकता था? अपनाने का प्रकार अपने ढंग का (ग) हारिभद्रीय टीका, पत्र ११६ : वर्षाकालेषु
होता और अपनाने के साथ-साथ उसे अपने मिढान्तों के संलीनो इत्येकाश्रयस्था भवन्ति ।
अनुसार ढाल लिया जाता । ऋतु-चर्या का प्रकरण इती ४ भाव प्राभूत १११
सत्य का साक्ष्य है। ५ भाव प्राभृत १११ वृत्ति ६ महाभारत, शान्तिपर्व,
१ याज्ञवल्क्य स्मृति-प्रायश्चित्ताध्याय ५८ ७ मनुस्मृति ६०३
२ प्राचाराग ।।
जाता
हम सब को एक सूत्र में बंध कर देश को प्रखण्डता की रक्षा का प्रयत्न करना
चाहिए। तभी हमारी स्वतन्त्रता कायम रह सकती है।
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अपराध और बुद्धि का पारस्परिक सम्बन्ध
साध्वी श्री मंजुला
अपराध-अर्थात् वे 'दूषित क्रिया परिणत मनोवृत्तियाँ दशा में सत् और असत् के बीज स्वयं में समेटे रहता है जो जिस देश, काल, समाज और परिस्थिति में निषिद्ध जो स्वानुकल निमित्तों से उभर पाते हैं। लेकिन शुद्ध व विकृत कहलाती हों। अथवा नैतिक, धार्मिक, सामाजिक, चेतना अवश्य ही स्वभावतः सम्यक् होती है। राजनैतिक और पारिवारिक सभी विधानों एवं मर्यादाओं अपराध और उसके कारणके उलंघन का नाम अपराध है। यह अपराध का व्याव- अपराध का सैद्धान्तिक या अान्तरिक कारण भले ही हारिक रूप है। इन काल्पनिक मानदण्डों के आधार पर हम कर्मावरण को कह दें लेकिन इन अनगिन मनोवैज्ञानिक अपगध की निश्चित परिभाषा नहीं दी जा सकती; इस- और व्यावहारिक कारणों से भी इन्कार नहीं हो सकते । लिए अपराध की शाश्वत व अखण्ड परिभाषा को समझने नीत्से ने कहा-"सारी बुराइयाँ आत्म-दुर्बलता से ही के लिए उसका एक सर्बाङ्गीण रूप प्रस्तुत करना होगा। उत्पन्न होती है" यह तो हमारा सैद्धान्तिक पक्ष है ही हम अपनी उन समस्त मानसिक दुर्बलतामों को अपराध लेकिन अतिरिक्त पक्ष भी अवश्य मीमांसनीय है। की कोटि में परिगणित कर सकते हैं जो जब कभी अनु- मनोविज्ञान यों न्यूनाधिक रूप से सभी कारणो को रूप सामग्री पाते ही सक्रिय हो जाएँ। मानसिक दुर्बलता अपराध का निमित्त व उत्तंजक मानता है लेकिन प्रबलतम का तात्पर्य यहाँ मनोविकृति या बुद्धि-दौर्बल्य नहीं है जैमा कारण वह कुछेक को ही मानता है। उन कारणों का कि कई मनोवैज्ञानिक मानते हैं। मनोदौर्बल्य को यहां विभाजन मनोविज्ञान इस प्रकार करता है--१. मनोप्रात्म दुर्बलता के अर्थ में ही अभिगृहीत किया गया है। वैज्ञानिक कारण, २. व्यावहारिक कारण, आर्थिक कारण अपराधों की उत्पत्ति
और ४. राजनैतिक कारण । अपराधी मनोवृत्तियां जन्मजात होती हैं ऐसा कइयो मनोवैज्ञानिक कारण व्यक्ति की मूल प्रवृत्तियों, का अभिमत है। कई मानते हैं प्रारम्भ मे व्यक्ति न तो स्वाभाविक ग्रन्थियां, मानसिक संतुलन, वंशानुक्रम, वाताअच्छा ही होता है और न बुरा ही। दोनों के बीज विद्य- वरण, प्रतिनियन्त्रण, बौद्धिक झुकाव, मन की प्रास्था, मान रहते हैं। जैसे-जैसे निमित्त मिलते हैं व्यक्ति वैसा ही आदर्श विशेप का मोह, मिथ्या मान्यताएँ, दमित इच्छाएँ बन जाता है। दार्शनिक दचशिन कहता है-"मूल में तो तथा कुण्ठाएँ प्रादि आदि। शारीरिक बनावट का भी नैतिक सूझ ही हमारी स्वजात होती है। जैसे सुन्दर अपराध विशेषों से सम्बन्ध माना जाता रहा है। यद्यपि वस्तुओं के प्रति हमारा सहज आकर्षण होता है वैसे ही आज के मनोवैज्ञानिक इससे सहमत नहीं। फिर भी सत और शुभ के प्रति भी, लेकिन सामाजिक परिस्थिति ग्लुक दंपति प्रादि शरीर की विलक्षणतामों को लक्ष्य अवश्य विकृत या पावृत कर देती है" यही बात कुमारी कर लिखते हैं-"जो गठीले शरीर वाले चुस्त और ग्रीन वी ने अपनी व्यक्तित्व नामक पुस्तक में कही कि आवेशपूर्ण, बहिर्मुखी व प्राक्रमणशील होते हैं वे अपराधी "अधिकांश लोग स्वभावतः ही प्रेम, पौरुष, सौन्दर्य, होते हैं।" लम्बरोजो, हटन व शेडन प्रादि भी शारीरिक सौम्यता और सुन्दर स्वभाव को पसन्द करते हैं। बुद्धि हीनता को अपराध का कारण मानते हैं। वे कहते हैऔर मस्तिष्क को नहीं।" हो सकता है स्वभाव से ही "नीचा माथा, बिगड़े हुए कान, अन्दर धंसी हुई ठुडी, व्यक्ति के मन में अच्छाई के प्रति पाकर्षण हो लेकिन चौड़ी नाक, विलक्षण मुखाकृति ऐसी शकल अपराधियों अधिक सम्भव तो यही लगता है कि हर प्राणी कर्मावृत की होती है।" वृत्तियों की बहिमुखता पौर मात्मदुर्बलता
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अपराध और बुरिका पारस्परिक सम्बन्ध
को भी मनोवैज्ञानिक कारणों के अन्तर्गत लिया गया है। यन्त्रित सवेग पादि प्रादि । इनके अनुसार जहां जहां ये ___व्यावहारिक कारण-दूषित समाज रचना (सामा- उपरोक्त कारण नहीं होते वहां अपराधो की मात्रा बहुत जिक दुर्व्यवस्था) अनुशासन का ढीलापन, स्नेहहीनता, कम होती है। उदाहरण स्वरूप शहरों की अपेक्षा गांवो मर्यादाहीनता, अतिशय नियन्त्रण, दुर्व्यवस्था, गहकलह, की सामाजिक व्यवस्था सुदृढ़, व मानसिक संतुलन पर्याप्त मृत्यु, बीमारी, नैतिक शिक्षण का प्रभाव, प्रादों का रहता है प्रतः अपराध भी वहा अपेक्षाकृत कम व्यवहारगत न होना, उपेक्षा के भाव, अवहेलना, "प्रेम, होते है । स्नेह, सुखद मैत्रीभाव व स्वस्थ मनोरंजन का प्रभाव" ये अपराध के जितने भी अनन्तर व परम्पर कारण मभी समाज विरोधी प्रवृत्तियों को जन्म देते हैं तथा प्रति बतलाए गए है वे निस्सदेह सत्यांश लिए हुए है लेकिन लाड़-प्यार, मिनेमा, रेडियो, अश्लील साहित्य, और संगीत फिर भी इन कारणों को अपराध का जनक नहीं कहा प्रादि भी अपराधों को उकसाते हैं।
जा सकता । ये अपराधो को उत्तेजित अवश्य कर सकते आर्थिक कारण-अभावग्रस्तता, अर्थ बाहुल्य, पुजी- हैं अतः अपराध का जनक कारण अपना स्वयं का पतियों की प्रतिष्ठा, गरीबों की अवहेलना आदि । इन पांतरिक प्रसंयम ही है। "छिद्रष्वनर्था बहुली भवति"
आर्थिक संकटों से चोरी, डकैती, नाजायज संग्रह, जैक के अनुसार फिर तो उस एक प्रसंयम से भोग वाद के मार्केटिग, विलासिता, सुविधाशीलता, स्वार्थपरता प्रादि प्रति झुकाव, मूल्यांकन का विपर्यास, धाराणानों की मे अपराध सहज पनप सकते हैं।
रूढता, रागात्मकता, अतिमोग, प्रतिमाह और क्रूरता राजनैतिक कारण-राजनैतिक अटि यह है कि युग प्रादि वृत्तिया उभरती है जो नाना अपराधों का रूप लेती तीव्रगति से जब परिवर्तित होता है और शासन व समाज रहती है। के नियम ज्यों के त्यों रहते है तब मनों में गड़बड़ी और स्वभावतः हर प्राणी में; पशु पोर वनस्पति तक मे विक्षेप होने लगते हैं। उससे कानून के प्रति असम्मान, भी स्वपोषण और परहनन की वृत्ति रहती है और वही निडरता को बढ़ावा, व शासनप्रणाली की सशक्तता के स्वार्थ वृत्तियां हिसक वृत्ति निमित्तानुकूल रूपान्तरों में प्रभाव में कानून भंग में वद्धि होती है। जब थोडं लोग व्यक्त होती रहती है जो विभिन्न अपराधों की अभिधा कानन भंग करके भी निर्बाध निकल जाते हैं तब दूसरों में पा लेती है। जैसा कि मुनि श्री नथमल जी के अणुव्रत वैसा दुस्साहम पैदा होता है। ऐसी राजनैतिक टियां भी दर्शन मे बताया है कि "हिमक प्रवृत्ति ही जब यथार्थ अपराधों का स्रोत खोल देती है।
पर पर्दा डालती है तो वह प्रसत्य कहलाती है। पदार्थ किसी अपराध विशेष का कोई निश्चित कारण तो संग्रह के लिए प्रयुक्त होती है तो परिग्रह; वाहना का रूप नहीं बताया जा सकता, क्योंकि भिन्न भिन्न परिस्थितियों लेती है तो अब्रह्मचर्य और परवस्तु हरण में प्रवृत्त होती में भिन्न भिन्न कारण बनते रहते है। फिर भी मभी है तो चोरी कहलाती है। सत्य ; हिसा का नैतिक कारणों के मूल में मनोदौर्बल्य अनिवार्य रूप में निहित पहल है। अपरिग्रह तथा प्रचोयं और ब्रह्मचर्य उमी के होता है। मनोदौर्बल्य के तीन पक्ष है । ज्ञानात्मक, सामाजिक पहल है" इससे स्पष्ट फलित है कि मारे भावात्मक और क्रियात्मक । मनोवैज्ञानिको ने एक अपराध इस एक ही हिसक वृत्ति के नाना रूपान्तर व जानात्मक पक्ष को छोड़कर शेष दोनों पक्षों की दुर्बलता उभार हैं तो सारे 'सत्' एक ही पहिसा-परिवार के को अपराध का प्रमुख कारण माना है।
सदस्य हैं। माज के मनोविश्लेपण वादियों के अनुसार मानसिक समस्त अपराधों का समाधान व्यक्ति का अपना दुर्बलता के ये कतिपय कारण हैं-संघर्प, अतृप्त इच्छाएं, आन्तरिक सयम ही है । उसके बिना 'प्रभाव में संग्रहवृत्ति निरोध, दमन, सुरक्षा व मात्म सम्मान का घात, मानसिक जन्य दोष पनपते है और 'भाव' में विलाम जन्य दुचरित्रो अस्थिरता, प्रचेतन-प्रेरणा तथा अपरिपक्व या अनि- की मात्रा बढ़ती है। प्रभाव प्रादि बाह्य परिस्थिति ही
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भनेकान्त
अपराध का कारण होती तो सारे 'शरणार्थी' अपराधी और तर्क नहीं होगा तो भले बुरे का चुनाव कैसे हो होते कोई पुरुषार्थी नहीं बनते।
सकेगा । नैतिकता, जो व्यक्तिगत चुनाव पर निर्भर है मनो वैज्ञानिकों ने इस विषय में अपने शोधपूर्ण उन बुद्धि हीनों के लिए कोई अर्थ और महत्व नहीं रखती। निष्कर्ष प्रस्तुत किए हैं। 'मेरिल' की परीक्षा विधि के चोरी, झूठ लापरवाही, ध्वंसात्मककार्य, लैकिक अनाचार अनुसार तीन सौ अपराधियों और तीन सौ निरपराधियों आदि प्रवृत्तियाँ हर दुर्बल बुद्धि व्यक्ति में थोड़ी बहुत पाई की जांच की गई जिसमें अपराधियों में दो तिहाई निन्न जाती हैं।" ऐसा उनका अनुभव है। घरों के थे पर निरपराधियों में प्राधे निम्न घरों के थे कइयों का चिन्तन है-अपराध अधिक बौद्धिक वर्ग पौर माधे उच्च घरों के" इससे निश्चित है कि प्रभाव में ही होते हैं । जो जितना अधिक जानेगे वे उतने ही कोई अपराध का कारण नहीं निमित्त फिर भी हो सकता चतुराईपूर्ण ढंग बनाना विधाओं से अपराध करेगे। कई है वासना मिटे बिना वातावरण और वंशानुक्रम मादि लोग बौद्धिकता को न तो अपराध का जनक ही मानते हैं की अनुकूलतामों में भी व्यक्ति अपराधी बना रहता है और न विनाशक ही लेकिन परिष्कारक मानते है । अपनेऔर वासना के अभाव में गम्भीर बाधाएं भी विचलित अपने चिन्तन हैं। लेकिन बुद्धि और अपराध का क्षेत्र नहीं कर सकती। फिर भी अपराध से बचने के लिए एक दूसरे से सर्वथा अनपेक्षित है। एक बुद्धिशील व्यक्ति मानसिक, शारीरिक और बौद्धिक सामर्थ्य का परिपूर्ण भी अपराध करता हुमा देखा जाता है और एक दुर्बल और विशुद्ध होना अत्यन्त अपेक्षित है। मानसिक अतुष्टि व्यक्ति भी। यह दूसरी बात है कि दोनों के प्रकार सर्वथा तो अपगध का सीधा कारण बनती है।
भिन्न होते हैं। बुद्धि [शिक्षा और अपराष
बुरे को बुरा जानना एक बात है और न करना शिक्षा और अपराध के बीच कोई अविनाभाव नहीं। दूसरी बात । बौद्धिक ज्ञान से अपराध जाने तो जा सकते शिक्षा; बौद्धिक विकास है और अपराध मानसिक हैं पर मिटाए नहीं जा सकते। जैनी लोग जानते है नादुर्बलता । बुद्धि विचारात्मक होती है, मन भावात्मक । जायज या अति मंग्रह भयंकर पाप है फिर भी करते है ये एक दूसरे को कदाचित् प्रभावित तो कर सकते है क्योकि जानना और करना दोनो दो कारणों पर अबलेकिन किसी प्रकार का प्रतिबन्ध इनके बीच हो लम्बित है। अतः अपराध मिटाने के लिए बुद्धि नहीं सकता।
___ मानसिक एकाग्रता [ध्यान] ही उत्कृष्ट उपाय है। कइयों की धारणा है बुद्धिशील व्यक्ति अपराध नहीं भगवान महावीर ने छद्मस्थ के लक्षणों में एक लक्षण करते। क्योंकि उनमें से कई तो कहते है-अपराध बताया है कि जो दोष को दोप जानता१ हुअा भी सेवन मानसिक दुर्वलता से उत्पन्न होते हैं और मानसिक करे, वह छद्मस्थ होता है । यही बात कौटिल्य ने कहा है दुर्बलता व बौद्धिक दुर्बलता दो नहीं है। जहां यह नहीं कि लोग जानकर भी दोपों का प्राचरण२ कर लेते है। होती वहां अपराध भी नही होते। तथा कइयों का क्योकि औपध३ को जान लेने मात्र से कोई रोगरामन अभिमत है, मानसिक दुर्बलता से बौद्धिक दुर्बलता फलित थोड़ा ही होता है ? इसी को पुष्ट करते हुए आगे उन्होंने होती है और उससे अपराधों का स्रोत खुल जाता है। कहा-विद्वानो में भी दोप४ पाए जाते हैं। तथा कौटिल्य वे मानसिक दुर्बलता को पहली विशेषता मानते हैं- . बुद्धि का प्रभाव । पौर उस बौद्धिक न्यूनता का प्रभाव १. कौटलीय अर्थशास्त्र अध्ययन ६ ॥ व्यक्ति के प्राचरणों पर पड़ता है । यह उनका दृढ़ अभि
३. नहि प्रौपधि परिज्ञाना देव व्याधि प्रशमः (को० प्र० मत है। वे कहते हैं "जब व्यक्ति के पास विवेक, विचार
शा० मंत्रि समुद्देश) १. व्यवहारिक मनोविज्ञान पृष्ठ १६२ 'मेरिल की ४. (को० प्र० ३, पृ. ८) विपश्चितस्वपि सुलभा परीक्षा विधि।
दोषाः ।
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अपराध और बुद्धि का पारस्परिक सम्बन्ध
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ने ब्राह्मणों, क्षत्रियों और वणिकों को भी अपराधी माना रक्षा न करने वाले राजा को कुत्ते की मौत१ मार देना है । जबकि ये बौद्धिक वर्ग में प्राते हैं । सुभाषित संग्रह में चाहिए। ऐसा उल्लेख है। राजा व राजपुत्र दोनों का कहा है सारे अपराध हो जाने पर भी ब्राह्मण प्रदण्डनीय ही शिक्षित होना स्वतः सिद्ध है और भोज व रावण की है । उस समय सर्वोत्कृष्ट विद्वान ब्राह्मण ही माने जाते थे। विधाएँ तो सर्व विश्रुत है ही। फिर भी पाराधी मनोमैगस्थनीज ने भारतीयों को कार्य की दृष्टि से सात श्रेणियों वृत्तियाँ इनमें भी प्रशिक्षितों की भांति ही पाई गई हैं। में बांटा है। उनमें प्रथम श्रेणि ब्राह्मण को विद्वानर कहा ऐसे अनगिन उल्लेख व ऐतिहासिक तथ्य उपलब्ध होते हैं है तथा उस समय की शिक्षा प्रणाली का विवेचन करते जिनसे स्पष्ट है कि शिक्षित व्यक्ति भी प्रशिक्षित की तरह हुए कहा है कि तब शिक्षक या तो ब्राह्मण होते थे अथवा अपराध कर सकता है। व वर्तमान भी इस तथ्य का श्रमण । एक और तो ब्राह्मणों के विद्वान होने का जिक्र साक्षी है। किया गया है, दूसरी ओर वहीं चन्द्र गुप्त के समय का प्रस्तुत प्रसङ्ग को मनोवैज्ञानिक विचारों के संदर्भ में वर्णन करते हुए ब्राह्मणों के अपराधी सिद्ध होने पर दण्ड पढना भी अधिक उपयुक्त होगा। मनोवैज्ञानिकों का व्यवस्था बतलाई गई है कि-"ब्राह्मणों का राजा व प्रजा मन्तव्य है कि "गलत विचार प्रचेतन मन की प्रथियों को द्वारा विशेष मान किया जाता था पर शासन के मामलों पकड़ने पर तर्कर और बुद्धि द्वारा दुरस्त नहीं किए जा में कोई रियायत नहीं थी। अपराधी सिद्ध होने पर उन्हें सकते; जब तब क्रियान्वित होकर ही रहते हैं"। जे. भी साधारण नागरिक की भाति दण्ड भुगतना पड़ता था। एम. ग्राहम ने कहा है-चरित्र निर्माण के लिए जान
एक३ उपयोगी वस्तु है पर अनिवार्य नहीं।" यही बात चन्द्रगुप्त के समय शिक्षा अनिवार्य थी इसलिए
कुमारी ग्रीन ने कही है "शिक्षा यद्यपि महत्त्वपूर्ण वस्तु अब्राह्मणों के शिक्षित होने में तो कोई शक है ही नहीं।
है परन्तु व्यक्तित्व विकास के लिए उननी मावश्यक नहीं"। वार्ता समृद्देश४ में व्यापारियों को डाकू कहा गया है।
हंसराज भाटिया ने अपनी पुस्तक असामान्य मनोविज्ञान सोमदेव के नीति मत्रोंमें राजा को अपने अपराधी५ पुत्र को
में इस विषय को बहुत ही गभीरता व मक्ष्मता में छुपा दण्डित करने के लिए कहा गया है। इसी तरह कोटिल्य
है। वहां बताया गया है-"अपराधी मनोवृत्ति के लोगों अर्थशास्त्र के उपोद्धात में भोज को ब्राह्मण कन्या पर
की बुद्धि और अन्य लोगों५ की बुद्धि में कोई अन्तर नही बलात्कार करने के अपराध में और रावण को सीता
दिखाई देता। वे प्रायः मामान्यतया तीक्ष्ण बुद्धि के हरण के अपराध में सर्वस्व विनाश का दण्ड मिला बत
होते हैं। लाया गया है। नया महाभारत में रक्षा का व्रत लेकर
कुछ अपगधी तो बहुत चतुर और तेज बतलाए जाते मा न ती है। कुछ विद्वानों का मत है कि वे प्रायः निबंन वृद्धि के
होते हैं, पर यह निष्का उन अपराधियों के अध्ययन पर ब्राह्मणः । २. 'महामानव' पुस्तक पृ० १५ (लेखक मत्यकाम
अवलम्बित है जो पकड़े जाते हैं। उन अपराधियों की
अ विद्यालकार)
१. अहं वो रक्षने व्युक्या, यो न रक्षति भूमिपः ३. महागानव पुस्तक पृ० १३,१४)
म मंहत्य निग्न्तव्य श्वेव मोन्माद मातुर. । ४. न सन्ति वणिग्म्य परे पश्यतो दशः (वार्ता ममुद्देश) ५. अपराधानुरूपी दण्डः पुत्रोपि प्रणेतव्य (सोमदेवनीति २. मानसिक चिकित्सा पृ०५७ मूत्र पृ० ७३)
(लेखक लालजीराम शुक्ल एम.ए.बी.टी) ६. दाण्डक्यो नाम भोजः, कामाद् ब्राह्मण कन्या मभि- ३. 'व्यक्तित्व इसके विकास के उपाय' (पृ. ३३,३४)
मन्यमानः सवन्धु राष्ट्री विननाश रावणश्च सीता. ४. 'व्यक्तित्व इसके विकास के उपाय' (पृ.७') (को० उपोद घात)
५. 'असामान्य मनोविज्ञान' (पृ० ३३४)
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अनेकान्त
गणता नहीं करते जो तेज वुद्धि भौर चतुर होने के कारण जैसे छुटपुट अपराध होते हैं वहाँ उन सम्पन्न देशों में बैंकों पुलिस की पकड़ में नहीं पाते । ऐसी अवस्था में बुद्धि को लूटने जैसे भयकर अपराध अधिक मात्रा में होते है। और अपराधी मनोवृत्ति में किसी तरह का वैज्ञानिक यहाँ की अपेक्षा वहाँ की स्त्रियाँ अधिक अपराध करती हैं। सम्बन्ध नहीं माना जा सकता । चाहे जो हो, अपराध करने वाला निश्चित जानता है कि वह बुरा काम करता है पर ।
शिक्षा की दृष्टि से तो यहाँ की स्त्रियाँ कम शिक्षित पादत से लाचार होता है इसलिए जानता हुमा भी छोड़ हा
बोर होती है पर अपराध वहाँ की औरतें ही अधिक करती हैं। नहीं मकता। अगर अपराध करने वाला ना समझ हो तो इसका कारण शायद उनका विशृखलित व प्रमंयमित उमे अपराध का उत्तरदायी बनाकर दण्ड नहीं दिया जा
जीवन हो सकता है। जो विशृखलता और असंयमितता मकता जैसे कि विक्षिप्त और बालक को नहीं दिया जा
अपेक्षाकृत यहाँ की स्त्रियों में कम है। जाता।"
बुद्धि का काम है चिन्तन करना। यह अच्छा भी एक अन्य स्थल पर इसी प्रसङ्ग का उल्लेख देते हुए कर सकती है और बुरा भी। अच्छे चिंतन पर प्रास्था वे लिखते है-"बुद्धि व उसकी होनता को अपराध का जमती है तो अपराध मिट भी जाते हैं और बुरे चितन कारण १ नही माना जा सकता।"
पर प्रास्था जमती है तो अपराध और भी गभीर रूप ___ इन कतिपय अंशों से हम अपने निष्कर्ष को और भी धारण कर लेते है, अतः मानना पड़ता है कि प्राचरण दृन बना सकते हैं कि शिक्षा और अशिक्षा से अपगध का
अन्तः प्रेरणा का परिणाम है; बुद्धि का नही। लेकिन कोई लगाव नहीं हैं। इसलिए हमारा यह कथन कि यह
इसके विपरीत ऐसे भी कुछ अकाट्य तर्क हमारे समक्ष शिक्षित होकर भी गलती करता है अधिक महत्त्व नहीं
पाते हैं कि ज्ञान और शिक्षा से अपराधों का अल्पीकरण रखता जबकि शिक्षा और गलती में कोई अनिवार्य सम्बन्ध व विलयीकरण होता है । वे भी चिन्तनीय हैं। ही नहीं है । मनोविज्ञान ही क्या जैन दर्शन भी तो ज्ञान
ज्ञान व विद्या से अपराधों का विलयीकरणका कारण, ज्ञानावरणीय कर्म के क्षय, क्षयोपशम को मानता है और शुद्ध व सयत क्रिया का कारण; चरित्र अधिक पाश्चयं तो इस बात का है कि जिन्होंने
नीय कर्म के क्षय प्रयोगशाम को शिक्षित समक्ष शिक्षा और अपराध को एक दूसरे से निरपेक्ष माना वे ही क्षिन में इतना अन्तर अवश्य पड़ता है कि शिक्षित अपनी
इनमें घनिष्टता स्वीकार करते है। तब लगता है अवश्य गल्तियो पर चतुराई के परत चढ़ा लेता है और प्रशिक्षित ही यहाँ कोई दूसरी अपेक्षा है और उसे हमें प्रकाश में की बुराई सदा स्पष्ट और अनावृत रहती है। अपगध लाना है। का कटु परिणाम भोगते समय एक बार शिक्षित प्रशिक्षित भगवान महावीर ने जहाँ एक मोर 'पाठ प्रवचन दोनों ही के मनों में अपराध न करने के भाव जगते है माता' के जानने वाले के चरित्र की उत्कृष्ट आराधना यह दूसरी बात है कि कोई उम निर्णय पर दृढ रहता है बतलाकर ज्ञान और प्राचार को एक दूसरे से निरपेक्ष और कोई अपनी पादत की विवशता रो वैसा नही कर बतलाया वहाँ दूसरी पोर (यह कहकर कि द्रष्टा को सकता।
उपदेश की जरूरत नही १ वह स्वयं मे पूर्ण है) ज्ञान और पाश्चात्य देशों में जहाँ न तो प्रभाव जनित परि- प्राचार के बीच पूर्ण तादात्म्य स्थापित कर दिया है। स्थितियों की ही अधिक मात्रा है और न अक्षिक्षित लोग इस तथ्य को पुष्ट करने वाले अनेक स्थल उपलब्ध होते ही, फिर भी अपराधों की मात्रा कोई कम नहीं है । निर्धन है जैसे सम्यक दष्टा पाप नहीं करता। अज्ञानी जो अच्छे और अल्प विकसित देशों में जहाँ दूध में पानी मिलाने बुरे को जानता ही नही वह क्या करेगा ? अज्ञानी तपस्या
- ---- -- १. 'व्यवहारिक मनोविज्ञान' पृ० ५६ से ७०
१. उद्दे सो पासगस्स नत्थि (प्राचाराङ्ग प्र०) (लेखक हंसराज भाटिया) २. सम्मत्त दंसी न करेइ पावं (प्राचाराङ्ग प्र.)
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अपराध और बुद्धि का पारस्परिक सम्बन्ध
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के द्वारा करोड़ों भवों में जितने कर्म१ खपाता है। त्रिगुप्ति प्राचार्य रजनीश "प्रज्ञान को भोग और शान को गुप्त ज्ञानी मन्तर मुहूर्त में उतने कर्मों को खपा देता है। त्याग मानते हैं। वे त्याग को ज्ञान का परिणाम बताते
हैं । वे कहते हैं समस्या काम क्रोध को जीतने को नहीं२ ये तथ्य एक बार हमें चौंका देते हैं। लेकिन जब दूसरे ऐसे तथ्य हमारे सामने पाते हैं कि वह अध्ययन,
जानने की है । जो अन्धकार को जानता है वह पन्धकार
नहीं हो सकता३ । यहाँ उन्होंने ज्ञान के माने बोधिक जान अध्ययन३ ही क्या जो इतना भी न सिखाए कि परपीड़न
को नहीं लिया है जैसाकि मागे उन्होने स्वय कहा हैनहीं करना चाहिए। तथा जो प्रज्ञा के दो भेद किए है
"ज्ञान और ज्ञान में भेद है। एक ज्ञान है केवल जानना४ ज्ञप्रज्ञा और प्रत्याख्यान प्रज्ञा । इन पर से स्पष्ट होता है
जानकारी बौद्धिक समझ है। मोर एक ज्ञान है अनुभूति कि उपर्युक्त तथ्यों में यही अपेक्षा है। वहाँ बौद्धिक ज्ञान
प्रज्ञा, जीवन्त प्रतीति । एक मृत तथ्यों का संग्रह है। एक को ज्ञान न कहकर आत्मज्ञान को ही ज्ञान की परिधि में
जीवित सत्य का बोध । बौद्धिक ज्ञान ज्ञान का भ्रम है। लिया गया है। जहाँ ज्ञाता, ज्ञेय और ज्ञान सभी एकाकार
अन्धे का प्रकाश को जानना ऐसा ही सबका बौद्धिक ज्ञान हो जाते हैं। यद्यपि उस आत्मज्ञान से भी अपराध का
है। उस अनुभूति परक ज्ञान के प्रागमन से ही आचरण कोई सीधा सम्बन्ध नहीं है, पर वह अात्मज्ञान अपराध के
महज उसके अनुकूल हो जाता है । सत्य ज्ञान के विपरीत कारण भूत मोहनीय कर्म के नष्ट होने के बाद होता है
जीवन का होना एक अगभावना है। सामाज तक धग अतः उस ज्ञान के होने पर अपराधों का न होना स्वतः
पर कभी नहीं हुआ है। ज्ञान बुद्धि की उपलब्धि नहीं प्राप्त है।
अनुभूति की सम्पत्ति है।" यही अपेक्षा कौटिल्य और सुकरात प्रादि के पूर्वापर
इन सबने यह सर्वथा स्पष्ट हो जाता है कि ज्ञान और विसंवादी कथनों में जोडनी पड़ेगी। जहाँ कौटिल्य ने एक प्रोर कहा है विद्वानों में भी दोप पाए जाते हैं पौर
प्राचार में जहाँ तादात्म्य माना गया है वहाँ ज्ञान के
बौद्धिक रूप को नहीं प्रात्मानुभूति को ही लिया गया है। दूसरी जगह५ कहा-ज्ञानियों को संसार का भय नही है। इसी तरह सुकरात ने कहा “अच्छे को जानना अच्छे
बौद्धिक ज्ञान भी कुछ प्रशों में अपगधी मनोवृत्ति का को करना है" यही बात गाँधी जी ने दूसरे ढंग से कही- संशोधन करने में सहायक होता है। क्योंकि प्राय: देखा "सच्चरित्रता के प्रभाव में कोरा बौद्धिक ज्ञान शव के जाता है जिस व्यक्ति में जितनी बुद्धि लब्धि होती है उस ममान है" यहाँ उनके कथन से ही स्पष्ट है कि बौद्धिक का मानसिक स्वास्थ्य अपेक्षाकृत उतना ही अच्छा होता ज्ञान का सम्बन्ध सच्चरित्रता मे नहीं मानने ।
है । स्वस्थ व संतुलित मानस का व्यक्ति अधिक अपराध
नहीं करता। दूसरे में हमारे सभी प्राचरण हमारी इच्छा, १. अन्नाणी कि काही किंवा नाही सेय पावयं
भावना, मान्यता व आदर्शों पर निर्भर करते हैं और इन
(द० प्र० ४ श्लो०) सब में संशोधन करना शिक्षा पर बहुत कुछ अवलम्बित २. उग्ग तवेण अन्नाणी, जं कम्म खवेदि वहहि भवेहि। है। मनोवैज्ञानिकों की भी मान्यता है कि व्यक्ति जो कुछ तं णाणी तिहि गुतो खवेदि अन्तो मुहुत्तेण
भी करता है, सामाजिक शैक्षणिक प्रभावों का परिणाम
(मोक्ष प्रा०५३) है। वे अनुभव को भी स्वयं को बदलने में बहुत बड़ा ३. किं ताए पडियाए, पय कोडिवि पलाल भूयाए,
सहायक मानते हैं । जिन मूल प्रवृत्तियों से प्रेरित होकर जइ इत्तो विण जाण, परस पीड़ाण कायदा
१. क्रान्ति बीज पृ०१।
(नियुक्ति)
२. वही, पृ०४।
४. (प्राचाराङ्कप्र०) ५. न संसार भयं ज्ञानवती (को० अर्थ, प्र० पाठवां)
३. वही, पृ०१५। ४. वही, पृ०५८
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अनेकान्त
हम अपराधों की भोर उन्मुख होते हैं उन पर शिक्ष अपराध सिखाने में भी सहायक हो सकता है और मिटाने मार्गान्तरीकरण के द्वारा किस प्रकार काबू पा लेती है वहाँ में भी । शिक्षित को सैनिक तैयारी में जोड़ देती है। इसी तरह अपराधों का इतिहास लड़ने, झगड़ने की मूल प्रवृत्ति द्वारा बीमा, बैक कम्पनियों अपराध का इतिहास बहुत पुराना है। करोड़ों वर्ष
और मकानों का आविष्कार करती है। शिक्षा मनोवृत्तियों पूर्व की दण्ड व्यवस्था 'हाकार' 'माकार' धिक्कार तथा को प्रभावित करती है इस तथ्य से न तो मनोविज्ञान ही इसके बीच की अनगिन दण्ड व्यवस्थाओं तथा वर्तमान इन्कार हो सकता है और न हम ही। शिक्षा से अनुभव मनोवैज्ञानिक दण्ड पद्धतियों के प्राधार पर जान पड़ता है अजित होते हैं । अनुभवों से अच्छे बुरे नगण्य मूल्यवान् कि अपराध हर समय रहे है फिर चाहे वह बौद्धिक युग का भेद ज्ञान होगा और उससे हमारे निर्णय बुद्धिमत्ता हो या अबौद्धिक तथा सभी वर्गों व सभी देशो मे रही हैं। पूर्ण होंगे। अगर ऐसा न माने तो शिक्षा मनोविज्ञान का महाभारत, स्मृतियाँ, उपनिषद् तथा तत्कालीन अन्य कोई अर्थ ही नहीं ! लेकिन फिर भी शिक्षा को हम साहित्य इसका पुष्ट प्रमाण है। छान्दोग्य उपनिषद् में प्रभावोत्पन्न तक ही सीमित रख सकते हैं। इससे शिक्षा अश्वपति कैकेय का यह दप्त कथन कि "न मेरे१ राज्य और पाचरण के बीच गठबन्धन नहीं कर सकते। में चोर है, न मद्यप है, न क्रिया हीन है, न व्यभिचारी
जैन दर्शन ने ज्ञान, दर्शन और क्रिया को सापेक्ष माना और अविद्वान है" निस्मदेह एक प्रकार की प्रत्युक्ति का है । लेकिन इसमें भी तारतम्य है। हमारा शान मस्तिष्क का नमूना है । रमाशंकर त्रिपाठी ने भी अपने प्रथ'प्राचीन की उपज है । प्रास्था प्रात्मा की अवस्था है और क्रिया भारत का इतिहास' में इस विषय का विश्लेपण अनेक उसी की परिणति । इससे भी प्रास्था और क्रिया के बीच प्रमाणों के साथ दिया है । यह दूसरी बात है कि शाश्वत निकटता व्यक्त होती है न कि ज्ञान और क्रिया के बीच। बुराइयों में देश और काल से रूपान्तरण होता रहता ही है।
कई लोग बौद्धिक क्षेत्र में अपराधों की मात्रा अधिक यह एक तथ्य अवश्य ही कुछ मीमांसा चाहता है कि देखकर यह भी अनुमान लगाते हैं कि बुद्धिवाद ने अपराधों प्राचीन, मध्यम मौर वर्तमान युग की दण्डदान-प्रक्रिया में को बढ़ावा दिया है । अनपढ़ या प्रशिक्षित में आस्था के बहुत बड़ा अन्तर पाया जाता है। कौटिल्य ने एक ही भाव प्रबल होते हैं अतः वे अपराध करते हिचकते है और अपराध करने वाले शूद्र हीनों के लिए अपराध के अनुपात शिक्षितों की प्रास्था विघटित होती है इसलिए वे कुछ भी में अधिक दण्ड की व्यवस्था की है वहाँ वही अपराध करते नहीं सकुचाते। ऐसी विचारधारा के लोगों ने ही करने वाले या घोर अपराध करने वाले भी ब्राह्मण आदि सुकरात पर ऐसा लांछन लगाया था कि “सुकरात ने बच निकलते थे या फिर स्वल्प मात्रा में दंडित होते थे। अपनी शिक्षा से एथेन्स के नवयुवकों को पथभ्रष्ट कर दिया मनु ने इससे विपरीत किया है। सामान्य अपराध के है।" लेकिन इस विचारधारा में तथ्य नहीं लगता। लिए एक साधारण नागरिक को एक कार्षापण से दंडित वस्तुत बुद्धिवाद न अपगध का सर्जक है और न विसर्जक बतलाया है और राजा प्रादि प्रभावशाली व विवेकशील ही। वह हमारे सामने प्रच्छाइयों और बुराइयों दोनों का व्यक्तियों को हजार कार्षापण से। लेकिन ब्राह्मणों को ही चित्र उपस्थित करता है। हमारी मनोवत्तियाँ जिसको इन्होंने भी छूट दी है। राजा चन्द्रगुप्त ने सामान्य चाहे पकड़ ले, वह तटस्थ है। फिर भी बुद्धि पर अपगध नागरिक और ब्राह्मण के अपराधी सिद्ध होने पर समान की कुछ जिम्मेवारियाँ अवश्य पाती है। वे ही काम पशु व्यवस्था की है । वैसे ब्राह्मण का सम्मान अधिक भी रखा करते है अपराध की कोटि में नहीं पाते और वे ही जब जाता था।
(शेप पृ० १७४ पर) मनुष्य करते हैं तो अपराधी गिने जाते है। क्योंकि वे --~-- बुद्धिशील प्राणी हैं । अतः हमे मानना चाहिए बद्धि विकास. १. नमे स्तेनो जनपदे, न कदयो न मद्यपः
नाना हिताग्नि नचाविद्वान् न स्वेरी स्वैरिणी कुताः १. धर्मयुग १९६४ अगस्त (पुनर्मूल्यांकन शीर्षक लेख से)
(म० उ०५०,११)
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सम्यग्दर्शन
साध्वी श्री संघमित्रा
दर्शन शब्द अनेक प्रों में अधिष्ठित है। गौतमबुद्ध अविद्या है। नित्य और पवित्र मानना विद्या है। ने निर्विकल्प अवस्था को दर्शन कहा है । पर्वाचीन जनदर्शन में सम्यग्दर्शन का वैज्ञानिक विश्लेषण दार्शनिकों ने परिशोधित विचारों को दर्शन संज्ञा से अभि- हमा है। कर्मावरण [प्रनन्तानुबन्धी चतुष्क पौर दर्शन हित किया है। जैन दर्शन मे दर्शन शब्द के दो अर्थ त्रिका के दूर होने से शुद्ध परिणमन और अन्तर-दर्शन विहित हैं।
प्रात्मा होता है यह सम्यक्त्व है। सामान्य बोष-श्रद्धान
___ सम्यक्त्व का फलित रूप है वस्तु का यथार्थ ग्रहण, प्रस्तुत प्रकरण में विवेच्य श्रद्धानार्थन दर्शन शब्द है। रुचि और विश्वास । इन तीनों का समन्वित रूप सम्यग
जैन दर्शन में प्रात्मा की जिस श्रद्धा को सम्यग दर्शन दर्शन है। और मिथ्या दर्शन कहा है उसी को वैदिक दर्शन में विद्या- प्राचार्य कुन्दकुन्द ने सम्यग-दर्शन के इस द्विविध रूप अविद्या बौद्ध दर्शन में मार्ग, योग दर्शन में विवेक-ख्याति को विविध दृष्टिकोणों से प्रस्तुत किया है । स्थूल दृष्टि से और भेद ज्ञान कह कर पुकारा है।
सम्यग-दर्शन का निरूपण करते हुए लिखादर्शन अपने पाप में सम्यग-असम्यग् नहीं है किन्तु छह द्रव्य२, नव पदार्थ, पांच प्रस्तिकाय पोर सात "वस्तु परक होते ही वह सम्यग्-मिथ्या बन जाता है। तत्त्व, इन पर जो यथार्थ श्रद्धा करता है वह सम्यग् वस्तु के यथार्थ स्वरूप में परिणति उसे सम्यग् और प्रय- दृष्टि है। थार्थ स्वरूप में परिणति उसे मिध्या बनाती है" सम्यग् जिन प्रणीत ३ सत्रार्थ को, जीव अजीव प्रादि विविध दर्शन की इस परिभाषा में किसी का मत द्वैत नहीं है प्रर्थों को और हेय-उपादेय को जानता है वह सभ्यगलेकिन वस्तु का स्वरूप निर्णय सबका भिन्न-भिन्न है। दष्टि है। इसीलिए सम्यग दर्शन का स्वरूप भी दार्शनिक परम्पराओं
सम्यग्-दर्शन की व्याख्या को अधिक सरल करते में पार्थक्य लिए हुए है।
हुए कहाबौद्ध दर्शन में प्रत्येक पदार्थ को क्षण-क्षयी माना है।
हिंसा रहित४ धर्म में, अठारह दोष विवजित देव में उनकी दृष्टि में कोई भी पदार्थ एक क्षण के बाद टिकने और निग्रन्थ प्रवचन में जो श्रद्धा करता है वह सम्यगवाला नहीं है। वस्तु-स्वरूप के इस निर्णय के अनुसार दुष्टि है। मार्ग की परिभाषा देते हुए उन्होने कहा-सब संस्कार तत्त्व रुचि सम्यग्दर्शन५ है। मम्यक्त्व६ पर जो क्षणिक है, इस प्रकार की दृढ़ वासना [भावना] का नाम चिन्तन करता है वह भी सम्यग्दृष्टि है। समय सार में ही मार्ग है। __ योग दर्शन मे मात्मा को नित्य और पवित्र माना है १. पातञ्जल योगमार मूत्र ५। अत उनकी दृष्टि में मनित्य और अपवित्र आत्मा को मानना २. पट् पा० दर्शन प्राभृत १६ ।
३. वहीं मूत्र प्रा०-५। १. षड् दर्शन समुच्चय ग्लोक ७
१. पट्क पा० मोक्षप्राभूत ६० । क्षणिका सर्व संस्कारा इत्येवं वासना यका स मार्ग इह २. वही, ३८ विज्ञेयो निरोधो मोत्त उच्यते ।
३. वही, ७
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अनेकान्त
भी उन्होंने यही तथ्य व्यक्त किया-जीव, अजीव १, पुण्य, वाला चारित्र मोह है। और दृष्टि में धान्ध्य पैदा करने पाप, पाश्रव, सवर, निर्जरा, बन्ध और मोक्ष इनका भूतार्थ वाला दर्शन मोह । [वास्तविक दृष्टि से ज्ञान होना सम्यग् दर्शन है। कर्म बन्धन के अनन्य हेतु हैं राग-द्वेष-ये दोनों मोह
सूक्ष्म दृष्टि से सम्यग्-दर्शन पर विश्लेषण करते हुए की प्रकृति हैं । मोह की उत्कृष्ट स्थिति में राग-द्वेष की लिखा-प्रात्मा२ का प्रात्मा में रमण सम्यग्दर्शन है। प्रन्थि दुर्भद्य बनी हुई रहती है। यह प्रन्थि ही अन्तर
जो स्व३ द्रव्य में रमण करता है वह सम्यग् दृष्टि है दर्शन और सम्यग्दर्शन में बाधक है। प्रभव्य प्राणियों मे जो पर द्रव्य में रमण करता है वह मिथ्यादृष्टि है। इस दुर्बध्य ग्रन्थि को छिन्न-भिन्न करने की क्षमता नहीं
समयसार में लिखा है-समग्र४ व्यवहार भूतार्थ होती: कुछ भव्य प्राणी भी अभव्य के समान ही होते है प्रियथार्थ] है। भूतार्थ केवल शुखनय है। जो शुद्ध नय जो दस यथि को मटी कर पाते। के आश्रित है वही सम्यग्दृष्टि है।
पर्वत से चलने वाली नदी मे कुछ पापाण टक्करें इन समग्र व्याख्याओं का संक्षेप में निष्कर्ष देते हुए खाते-खाते सहज चिकने और गोल बन जाते हैं, इसी दा-जीवादि५ तत्त्वों पर श्रद्धा करना सम्यक्त्व है यह तो प्रकार भव भ्रमण करते कुछ प्राणियों के सहजतः मायुष्य व्यवहार दृष्टि है । निश्चय दृष्टि से तो प्रात्मा ही सम्या को छोड़कर शेष सात कर्मों की स्थिति एक कोड़ा कोड़ क्त्व है । प्रात्मा ही ज्ञान है। प्रात्मा ही दर्शन है।
सागर से भी कुछ कम रह जाती है तब वे विशेष शुद्ध प्रात्मा ही चरित्र है। प्रारमा ही प्रत्याख्यान है। अध्यवसायों में इस ग्रन्थि के समीप पहुँचते हैं उन अध्यसंवर और योग भी मेरी प्रात्मा है।
वसायों को यथा प्रवृत्ति करण कहा जाता है यह करण धर्म समुच्चय में सम्यक्त्व और सम्यग् दर्शन में भव्य और प्रभव्य प्राणियों के अनेक बार होता रहता है । रण कार्य भाव माना है-'तस्वार्थ श्रद्धान सम्यक्त्वस्य कुछ प्रात्माएँ प्रन्थि के निकट पाने के बाद भी दुम दबा कार्य, सम्यक्त्वं तु मिथ्यात्व-क्षयोपशमादिजन्यः शुभा- कर उल्टे पैर वापस लौट जाती हैं। कुछ प्रात्माएँ वहीं त्म परिणाम विशेष'-तत्त्वों के प्रति श्रद्धा सम्यक्त्व का खड़ी रहती है लेकिन ग्रन्थि को तोड़ने का उनमे साहस कार्य मिथ्यात्व के क्षयोपशमादि से उत्पन्न शुभात्म नहीं होता। कुछ प्रात्माएँ साहसिक होती हैं वे ग्रन्थि परिणाम सम्यक्त्व है।
को तोड़ने का प्रयत्न करती हैं। उनके मध्यवसायों में सम्यग्दर्शन को समझने के लिए उसके उत्पन्न होने ऐसा प्रबल वेग पाता है जैसा पहले कभी नहीं पा पाया की प्रक्रिया को समझना बहुत महत्त्व का है।
था। इसलिए इन परिणामों को अपूर्व करण कहा जाता अनादि काल से प्रात्मा पर कर्मावरण के परत चढ़े है। इससे वे प्रात्माएं प्रागे बढ़ती हुई अन्थि को तोड़ हुए हैं। सबसे सघन परत मोह का है। अन्य कर्मावरणों देती हैं। यह अवस्था हरिभद्र के शब्दों में मार्गाभिमुख में भी सघनता पैदा करने वाला मोह कर्म है। मोह कर्म अवस्था है। में दो प्रकार की क्षमता है वह चारित्र को विकृत बनाता प्रात्मा फिर प्रागे बढ़ती है। शुभ मध्यवसायों में है और दृष्टि को मूढ़ । चारित्र में विकार उत्पन्न करने प्रबलतम वेग पाता है। यह वेग ऐसा है जो साहसिक
सैनिक की नाई सम्यग् दर्शन की उपलब्धि के बिना मुह १. समयसार
नहीं मोड़ता । इसे अनिवृत्ति करण कहते हैं। इस करण २. षट् पा०-भाव प्रा० ३१ ।
में आगे बढ़ती हुई प्रात्मा मिथ्यात्व दलिकों को दो भागों ३. षट् पा०-मोक्ष प्रा. १४ ।
में विभक्त कर देती है। ४. समयसार ११।
पहला भाग पल्प स्थितिक होता है । दूसरा भाग दीर्घ ५. षट् पा०-दर्शन प्रा. २०।
स्थिति, का अल्प स्थितिक भाग को उदीरणा के माध्यम से ६. षट् पा०-भाव प्रा० ५०। ७. धर्म समुच्चय दूसरा अधिकार ।
१. जैन सिद्धान्त दीपिका प्रा०प्र०५-सूत्र ८८ ।
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सम्यापन
भोग कर बहुत ही शीघ्र नष्ट कर देती है। दूसरे पुत्र में उसका प्रदेशों में जो अनुभव होता है वह बेदक सम्यग् को वहीं दबा देती है। दोनों के बीच में जो व्यवधान है दर्शन है। वह अन्तर करण कहलाता है । इसके प्रथम क्षण में अन्तर सम्यग्दर्शन पौर सम्यग्ज्ञान का अभिन्न सम्बन्ध दर्शन व सम्यग् दर्शन की उपलब्धि होती है। यह प्रोप- है। प्राचार्य रजनीश के शब्दों में सम्यग शान का बीज है। शमिक सम्यग् दर्शन है। इसकी स्थिति केवल मन्तमहर्त इस कथन में एक वैज्ञानिक विश्लेषण भी है क्योंकि ग्व
तक मनुष्य की प्रास्था नहीं होगी दृष्टि में विपर्यास रहता कुछ प्राणी पोपशमिक सम्यग दर्शन को प्राप्त किए है तब तक वस्तु का सही ग्रहण नहीं होता। मुविनीत पुत्र बिना ही सीधे अपूर्व करण से ग्रन्थि के घटक मिथ्यात्व की मां के प्रति प्रास्था होती है इसलिए वह उसके हर दलिकों को तीन पुजों में विभक्त कर देते हैं। कटु उपालम्भ को भी ठीक ग्रहण करता है। प्रविनीत प्रशुद्ध पुज-मषं शुद्ध पुज-शुद्ध पुज
पुत्र की मां के प्रति प्रास्था हिल जाती है इसलिए वह अशुद्ध पुञ्ज में अन्तर दर्शन नहीं के बराबर है।
उसके हर शब्द को और हर व्यवहार को प्रन्यथा ग्रहण अर्घ शुद्ध पुज में अन्तर दर्शन की धुंधली मी सेवाएँ
करता चलता है । कदम-कदम पर उसके सही पर मे
भी उसे संशय होता है। यह उसका दृष्टि निर्णय ही है। प्रकट होती है। इन दोनों पुजों को प्रात्मा खत्म कर देती है । शुद्ध पुञ्ज में मिथ्यात्व दलिकों का उदय रहता
प्राचार्य कुन्दकुन्द सम्यग् दर्शन और ज्ञान के तादात्म्य
सम्बन्ध को बडी सुन्दर-सुन्दर उपमानों से उपमित करते है लेकिन उनकी पावरक शक्ति को नष्ट कर दिया जाता है। इस स्थिति मे आत्मा को जो सम्यग् दर्शन होता है
हुए लिखते हैं जैसे फूल १ सुगन्धमय और दूध घृत मय उसे क्षयोपशम सम्यग् दर्शन कहते है।
होता है सम्यग् दर्शन वैसे ही सदा ज्ञानमय होता है।
कुछ परम्पराएँ सम्यग्दर्शन और सभ्यक्रिया को ___कुछ आत्माएँ मिथ्यात्व दलिकों को समूल नष्ट कर ।
प्रभेद मानती है । उनको दृष्टि में सम्यग्दृष्टि व्यक्ति के देती हैं । उसे क्षायक सम्यग् दर्शन की प्राप्ति होती है।
कोई पाप का बन्ध नहीं होता। कुछ परम्पराएँ सम्यगउपशम सम्यग् दर्शन और क्षयोपशम सम्यग् दर्शन,
दर्शन के साथ ही मोक्ष लाभ मानती हैं। योगवाशिष्ट में इन दोनों के पौवापर्य क्रम में दो मान्यता है-सिद्धान्त
स्पष्ट लिखा हैपक्ष में पहले क्षयोपशम सम्यग्दर्शन की उपलब्धि मानी
ज्ञाति हिर ग्रन्थि-विच्छेद तस्मिन् मति ही मुक्ततागई है और कर्म पक्ष में पहले प्रौपशमिक सम्यग्दर्शन की
सम्यग ज्ञान कर्म ग्रन्थि का विच्छेद है। वह होते ही प्रामा उपलब्धि । लेकिन अपनी इस मान्यता में दोनो के ही पास कोई अकाट्य तर्क नहीं है। इसलिए कई प्राचार्य
मुक्त हो जाती है। दोनों विकल्पों को ही मान्य कर लेते हैं।
जैन दर्शन में सम्यग्दर्शन और सम्यक् क्रियामे भेद माना
है। सम्यग्दर्शन दर्शनमोह का अनावरण है और सम्यग्क्षायिक सम्यग्दर्शन कभी पाने के बाद वापस नहीं क्रिया चरित्र मोह का। प्रतः सम्यग्दृष्टि का मभा जाता और प्रौपशमिक सम्यग् दर्शन कभी भी अन्तर्मुहुर्त
क्रियाएँ विशुद्ध ही हों, यह अनिवार्य नहीं है। प्राचार्य से अधिक टिकता नही है। खीर का भोजन कर लेने के
कुन्दकुन्द इमी तथ्य को स्पष्ट करते हुए कहने हैबाद भी जिह्वा पर कुछ क्षण तक मीठा स्वाद रहता है
जं सक्कातं कोरइ जंचन सस्का तं च सदहणं । इसी प्रकार प्रोपशमिक सम्यग्दर्शन में गिर जाने के बाद
केवलि जिहि भणियं सद्दहमाणस सम्मतं ॥ भी मिथ्यात्व प्राप्ति से पहले छह प्रावलिका पर्यन्त सम्यग
जिसके लिए समर्थ है उसे करता है। जिम धर्म दर्शन का प्राभाम रहता है उसे सास्वादन सम्यग् दर्शन
क्रिया को नहीं कर सकता किन्तु उस पर श्रद्धा रखता है कहते है।
क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन से क्षायिक सम्यग्दर्शन १. षट् पा० बोध प्रा०-५। को प्राप्त करते समय पूर्व सम्यग्दर्शन के अन्तिम समय २. उत्पत्ति प्रकरण, सर्ग ११८ ।
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वीतराग ने कहा- क्रिया न कर सकने पर भी श्रद्धा रखने वाला सम्यग्दृष्टि है।
सम्यग् दर्शन की उपलब्धि निर्हेतुक नहीं सहेतुक है। वह हेतु दो प्रकार का है। कर्म का प्रावरण टूटते टूटते सहज तस्वरुचि और सत्य के प्रति भाकर्षण पैदा होती है यह नैसर्गिक १ सम्यग्दर्शन है ।
अध्ययन उपदेश आदि से सत्य के प्रति आस्था जागृत होती है। यह प्रधिगमन सम्यग्दर्शन है। सम्पग्दर्शन का मुख्य हेतु तो मोह-विलय है। उपर्युक्त दो भेद केवल बाहरी परिपात्र है ।
सम्यग्दर्शन यथार्थ में श्रात्म जागरण प्रोर अन्तर दर्शन है। प्रन्तर दर्शन परिणाम कुछ बाहर भी प्राता है वह बाहरी परिणाम ही सम्यग्दर्शन की पहचान के लक्षण बन जाते हैं । प्रमुख रूप से सम्यग्दर्शन के पांच लक्षण माने गये हैं
शम ३ संवेग - निर्वेद अनुकम्पा धारा ।
१. शम — सम्यग्दर्शी यथार्थ में समता प्रधान होता
।
है उसकी वृत्तियां शान्त होती है कपाय भाव उसे सहज ही उत्तप्त नहीं कर सकते। मानस की लगाम उसके हाथ में रहती है। बाहरी स्थितियां उसे विग्न नहीं कर सकतीं।
२. सम्यग्दृष्टि भोगों में अनासक्त और विरक्त रहता है यह उसका संवेग लक्षण है ।
३. निर्वेद गुण के कारण बन्धन मुक्त होने का सतत अभिलाषी बना रहता है।
४. अनुकम्पा में संसार के किसी भी जीव को वह दुखी नहीं देख सकता । उसका सबके प्रति दया भाव बना रहता है ।
५. शाश्वत श्रात्म तत्त्व में विश्वास करता है । सम्यग्दृष्टि के इन पांच लक्षणों को मीमांसा करते हुए डा० हीरालाल जैन लिखते हैं कि
"मिथ्यादर्शन४ को छोड़ कर सम्यग्दर्शन में पाने
१. षट० पा० दर्शन प्राभृत- २२ ।
२. जनसिद्धान्त दीपिका प्रकरण ५-७ ।
अनेकान्त
का अर्थ है-प्रथामिकता से धार्मिकता में माना और असभ्य जगत् से निकल कर सभ्य जगत् में प्रवेश करता है।"
सम्यग्दर्शन अनेकान्त दृष्टि है। एकान्त दृष्टि मिथ्या दर्शन है । अनेकान्त दृष्टि विवेक पूर्वक विचारों को विस्तार देती है। एकान्त दृष्टि विचारों को कुण्टित करती है। जहां विचारों में कुण्ठा भाती है वहाँ श्राग्रह पनपता है । आग्रह कुतर्क को जन्म देता है । कुतर्क से बुद्धि में छेद हो जाते हैं। सत्यामृत वहां टिक नहीं सकता श्रागमों में एक पाठ आया है कि- श्रागम ज्ञानमय एक रूप है । लेकिन मिध्यादृष्टि के मिथ्या रूप में सम्यग्दृष्टि के सम्यग् रूप में परिणित हो जाते हैं। मैंने प्रथम बार जब यह पाठ पढ़ा तो लगा धागमों में क्या जादू है ? मिश्री कोई भी खाए खाने वाले का मुह मीठा होगा ही। किन्तु अब कुछ समझ में भा रहा है कि वस्तु अच्छी मे अच्छी है लेकिन उसे परिणित करने की क्षमता अपनीअपनी होती है। गाय का दूध मनुष्य के शरीर में अमृत सर्प के उदर में विष बन जाता है।
ऐतिहासिक तथ्यों से स्पष्ट होता है कि यह मान्यता न केवल जैन दर्शन में ही बल्कि बौद्ध दर्शन मे भी रही है।
एक बार राजा श्रनुरुद्ध ने बौद्ध धर्म का प्रचार करना चाहा । उसने अपने एक चतुर मन्त्री को थानोत के राजा मनोहर के पास भेजा किन्तु मनोहर का जवाब था कि - " तुम्हारे जैसे मिथ्यादृष्टि के पास त्रिपिटक नहीं भेजी जा सकती । केसरी सिंह की चवी सुवर्ण पात्र में रखी जा सकती है मिट्टी के पात्र में नही ।" १
प्रत्येक व्यक्ति की रुचियां भिन्न-भिन्न होती है। सम्यदृष्टि की रुचियों के दस प्रकार भागम में उल्लिखित हैं ।
निसर्ग - रुचि, उपदेश - रुचि, प्राज्ञा-रुचि, सूत्र- रुचि, बीज-रुचि, अभिगम-रुचि, विस्तार-रुचि, मिया-रुचि, संक्षेप-रुचि और धर्म- रुचि २ ।
३. जैन सिद्धान्त दीपिका प्र० ८ सू० ६ ।
४. भारतीय संस्कृति में जैन धर्म का योग स्थान-१० २२४ २. उत्तराध्ययन] २८।१६.
१. बौद्ध संस्कृति पृ० २१, लेखक राहुल सांकृत्यायन ।
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सम्यम्बक
१-जिसके हृदय में सत्य के प्रति सहज श्रद्धा उत्पन्न वैदिक दर्शन में पविद्या को भव-भ्रमण का हेतु मौर होती है वह निसर्ग रुचि है।
विद्या को मुक्ति का हेतु माना है। जैन दर्शन में बंधन के २-दूसरों की प्रेरणा से जिसमें सत्य के प्रति रुचि पांच कारण माने हैं उनमें पहला कारण मिध्यादर्शन उत्पन्न होती है वह उपदेश रुचि है।
को माना है। मिध्यादर्शन, दशनमोह का प्रावरण है ३-वीतराग की आज्ञा पर जो रुचि रखता है वह किन्तु कर्म बंधन के मुख्य हेतु राग और द्वेष है। ये आज्ञा रुचि है।
दोनों चारित्र मोह की प्रकृति है। दर्शनमोह को कही ४-सूत्र पढ़ने में जिसे आकर्षण है वह सूत्र रुचि है। कर्म बंधन का हेतु नहीं माना। मिथ्या दर्शन मोह की ५-पानी में तेल बूद की तरह जिसकी रुचि एक
ही प्रकृति है फिर भी उसे कर्म बंधन का पहला? हेतु
हा प्रकृति है फिर भा पद से अनेक पदों पर विस्तार पाती है वह बीज रुचि है। माना ह
। माना है यह इसलिए कि दर्शनमोह का आवरण तभी ६-प्रत्येक सूत्र को अर्थ सहित पढ़ने का प्रयास
तक रहता है जब तक राग-द्वेष की ग्रन्थि सधन रहती अभिगम रुचि है।
है। अनन्तानुबन्धी चतुक और दर्शनमोहनीयत्रिक, ये ७-सत्य को विस्तार से पढ़ने की दृष्टि विस्तार
सातों प्रकृतियाँ सप्तपि तारों की तरह एक साथ जुड़ी
रहती है। इन सातों का विलय और उदय एक साथ में ८-बहुत ही संक्षेप से सत्य को पकड़ने वाला सम्यग
होता है इसीलिए मिथ्यादर्शन कर्म बंधन का दढ़तम हेतु दृष्टि संक्षेप रुचि है।
बन जाता है।
सम्यग्दर्शन के आट गुण माने गए है-- -सत्याचरण के प्रति प्रास्था क्रिया रुचि है।।
१. निश्शकित-सत्य में निश्चित विश्वास । १०-वीतराग प्ररूपित श्रुत-धर्म और चरित्र धर्म में
२. नि:कांक्षित-असत्य के स्वीकार में प्रमथि। जो आस्था रखता है वह धर्म रुचि है।।
३. निविचिकित्सा--सत्याचरण के फल में विश्वास । निश्चयनय से तो बीतराग ही जान सकते है कि
४. प्रमूढ दप्टि-असत्याचरण की महिमा के प्रति कौन सम्यग्दृष्टि है कौन मिथ्यादृष्टि हैं किसके दर्शन- aai | मोह का विलय हना है किसके दर्शनमोह का विषय नही
५. उपवृह्मण-प्रात्म-गुण की वृद्धि। हुमा है । व्यावहारिक दृष्टि से सम्यग्दृष्टि की तरह
६. स्थिरीकरण-मत्य में प्रात्मा का स्थिरीकरण । मिथ्यादृष्टि को भी कुछ बाह्य चिह्नों से पहचाना जा
७. वात्मल्य सत्यधर्म के प्रति सम्मान की सकता है मिथ्यादर्शन दो प्रकार का होता है
भावना। प्राभिग्रहिक मिथ्यान्व-अनाभिग्रहिक मिथ्यात्व। ८. प्रभावना-प्रभावक ढंग से सत्य के महात्म्य का
श्राभिग्रहिक मिथ्यात्व मे दृढ़ प्राग्रह होता है उसके प्रकाशन । विचारों में समन्वयात्मक नीति नहीं होती। दष्टिकोण बहत प्राचार्य कुन्दकुन्द ने भी 'षट् पाहुड' में इन पाठ१ ही संकीर्ण होता है। उसकी एकान्त दृष्टि उदारता के गुणों का उल्लेख किया लेकिन इनकी व्याख्या में कुछ साथ दूसरों के विचारों का सम्मान नहीं करने देती। उसके अन्ततर है। चिनन में कूठा पलती है इसीलिए उसकी पकड़ में सत्य नहीं १. निश्शंकित का अर्थ-निर्भय रहना-सात भय प्राता । अनभिग्रहिक मिथ्यात्व में दृष्टिकोण का वैपरीन्य माने गए है उनमें किमी भय से भीत न होना। तो होता है लेकिन उसमे हठधार्मिकता नहीं होती। २. निकांक्षित-व्रतादि का दृढ़ पालन करना और
१. उत्तराध्ययन २८१७१२६ । २. जैन सिद्धान्त दीपिका प्र०४ सूत्र २०
ले. प्राचार्य तुलसी।
१. षट् पा०-चरित्र प्रा० ७॥
णिस्सक्रिय णिक्कविय णिविदिगिछायमूदादिट्ठीय । प्रवगृहण दिदि करणं वच्छल्ल पहावणायते प्रह।,
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अनेकान्त
निदान नहीं करना।
४. असत्याचरण की प्रशंसा-पर पाषंड प्रशंसा है। ३. रत्नत्रयी का पवित्र भाजन शरीर है, इसकी ५. असत्याचार्य का संसर्ग-पर पापंड संस्तव है। जिन्दगी को देखकर घृणा न करना निविचिकित्सा
इन अतिचारों से विशुद्ध पूर्वोक्त गुणों से परिपुष्ट गुण है। ४. जिन वचनों में दृढ़ता अमूढ़ दुष्टि है।
सम्यग्दर्शन जीवन का प्रकाश है। मिथ्यादर्शन जीवन ५. उपवृह्मण के स्थान में इन्होंने पांचवां गुण
का अन्धकार है। जिसके १ हृदय में सम्यग-दर्शन का अगहन माना है। इसका अर्थ है जिन धर्मस्थ बालादि के
प्रवाह सतत् बहता है उसके कर्म-रजों का प्रावरण हट दोष का उद्घाटन नहीं करना।
जाता है। सम्यग-दर्शनर से प्रात्मा देखती है । ज्ञान से
द्रव्य और उसकी पर्यायों को जानती है। सम्यक्त्व से ६. सम्यक्त्व व्रत से पतित प्रात्मानों को स्थिर करना
उनपर श्रद्धा करती हुई चरित्र के दोषों को भी दूर कर स्थिरीकरण है।
देती है। प्राचार्य कुन्दकुन्द की यही भावना रजनीश के ७. धार्मिक मनुष्यों के उपसर्ग का निवारण करना
शब्दों में इस प्रकार ध्वनित हुई है कि-"ठीक ३ दर्शन वात्सल्य है। ८. जिन धर्म को प्रकाश में लाना प्रभावना है।
ठीक ज्ञान पर और ठीक ज्ञान ठीक पाचरण पर ले जाता
है। महावीर की जीवन क्रान्ति की यह विधि अत्यन्त सम्यग दर्शन को दूषित करने वाले पाँच प्रतिचार१ वैज्ञानिक और सहस्रों प्रयोगों से अनुमोदित है।"
शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, परपाषड प्रशंसा, पर सम्यग्दर्शन यथार्थ मे ही साधना का अभिन्न अग पाषंडसंस्तव ।
है। बिना इसके केवल साधना का कोई विशेप मूल्य नही १. सत्य में संदेह शंका है।
रह जाता। इसीलिए हर धर्म में सम्यग्दर्शन को २. मिथ्याचार के स्वीकार की अभिलाषा कांक्षा है। महत्त्वपूर्ण स्थान मिला है।
३. सत्याचरण की फल प्राप्ति में संदेह-विचि- ..." कित्सा है।
१. षट् पा० दर्शन प्रा०७
२. षट् पा० चरण प्रा० १७ १. जैन सि०प्र०८-६
३. जैन भारती १५ अगस्त १६६५
[पृष्ठ १६० का शेष इन मब विभिन्नताओं पर से लगता है कि शायद अशिक्षित और शिक्षित दोनों के अपराधों के लिए सव पहले की दण्ड व्यवस्था में वर्ण व्यवस्था का हाथ रहा है व्यस्था है। इससे स्पष्ट है कि शिक्षा या बुद्धि का अपराध कि जो जितना उच्च वर्ग का हो वह अपराध कर लेने से कोई वास्ता नही। और न ही अपराधों के कारणों पर भी उतना दण्डित न हो। और बाद में अपराध की लम्बी सूची मे कही शिक्षा के भाव या प्रभाव को को अपेक्षा से जोड़ दिया गया है कि प्रशिक्षित व्यक्ति का बताया है। अपराध और निरपराध का निमित्त अन्यान्य अपराध तो फिर भी क्षम्य किया जा सकता है लेकिन वस्तुओं की भांति बुद्धि भी बन सकती है इसमें कोई शिक्षित व्यक्ति अपराध करे तो उसे दुगुणा दण्ड मिलना दोमत नहीं। चाहिए। वर्तमान में चन्द्रगुप्त के शासन-काल की भांति
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कल्पसिद्धान्त की सचित्र स्वर्णाक्षरी प्रशस्ति
कुन्दनलाल जैन एम. ए. एल. टो, सा. शा.
ऐतिहासिक शोषों में प्रशस्तियो का जो महत्व है। की पत्नी का नाम पूरी था जो बड़ी पुण्यात्मा थी, इनके वह किसी से छिपा नहीं है। शिलालेखों की भांति ये भी रमा, ईती, अतू, और नीनी नाम की चार पुत्रियां थीं। महत्वपूर्ण होती है, यहाँ मैं एक प्रशस्ति दे रहा हूँ जो सोने
इन्हीं धीरराज ने मंडपाचलं (मांडू इंदौर) में प्राकर के अक्षरों में लिखी हुई थी तथा प्रथम पत्र पर चित्र भी
एक सुन्दर विहार बनवाया था तथा एक विशाल पोषध चित्रित हैं । चित्र से प्रतीत होता है प्राचार्य श्री श्रावकों
शाला भी बनवाई थी जहां माधु लोग रहा करते थे। को उपदेश दे रहे हैं । मूल प्रति का पता नहीं चल रहा है
इतना तो धीरराज साहु का वंश वर्णन हमा पागे प्राचार्यों पर उसकी फोटो मेरे पाम सुरक्षित है। यह प्रशस्ति धीर
की परम्परा दी हुई है। राज की है जिन्होंने मगसिर शुक्ल ५ सवत् १५२३ में कल्पसिद्धान्त लिखाया था। इस प्रशस्ति में श्वे. प्राचार्यों वर्धमान स्वामी के पद पर सुधर्माचार्य गणधर हुए की परम्परा तया धीरराज के वंशजों का उल्लेख है। यह उनके वंश की चन्द शाखा में उद्योतन मूरि हुए तत्पश्चात् प्रशस्ति २४ छदों की है जो अविकल रूप से यहाँ से वर्षमान मूरेि, जिनेश्वर सूरि जिनचन्द्र सूरि मभयदेव प्रस्तुत की जा रही है जिसका सारांश निम्न प्रकार है। सूरि जिन बल्लभ मूरि, जिनदत्त मूरि, जिनचन्द्र मूरि,
जिन पत्ति मूरि, जिनेश्वर मूरि, जिन प्रवोध सूरि, जिन श्री माल वश में खोवड नाम के मंत्री थे जो सर्वगुण
चन्द्र मूरि, कुशल मूरि जिन पन मूरि, जिन लब्धि मूरि, सम्पन्न थे. वही छाडा नाम के साहू थे जो बड़े पुण्यात्मा
जिन चन्द्र मूरि, जिनोदय मूरि, जिनराज मूरि, जिनवद्धन ये उनके नयण और नरदेव नाम के दो पुत्र थे जो धर्मामा
सूरि, जिन चन्द्र मूरि जिन सागर सूरि पौर जिन सुन्दर तथा बुराइयों को मिटाने वाले थे । नयण का पुत्र पेथड़।
____ सूरि ग्रादि इन गुरषों के उपदेशामृत का पानकर धीरराज था जो जैन धर्म का मर्मज्ञ था । दूसरे पुत्र नरदेव की पत्नी -
ने जो मिद्धान्त ग्रंथों के लिखाने में मदा मावधान रहते देवल देवी इन्द्राणी सदृश सुन्दरी और प्रिय थी। नरदेव
थे, सं० १५२३ मगसिर शुक्ल ५ को कल्पमिद्धान्त की और देवल देवी मे जयसिंह, गुणिया, राघव मेघराज, गण
पुस्तक स्वर्ण वर्गों में लिखाई । सो उम ग्रंथ को प्रति वर्ष पति, कर्म और धर्मसिह नाम के सात पुत्र उत्पन्न हुए थे।
पढ़ते पढ़ाते हुए चतुविध संघ का कल्याण होवे । इनमें से चौथे पुत्र गणपति की पत्नी गंगा देवी से वीरम पोर नाल्हराज नाम के दो पुत्र उत्पन्न हुए।
प्रशस्ति को मूललिपि सातवे पुत्र धर्मसिंह की दो पत्नियां थी, प्रथम पत्नी श्रेयसे भूयसे भूयान्नाभि सुनुस्तनूमतां । राल्ह से धीर नाम का पुत्र उत्पन्न हुआ था जिसने यह यन्नाम कामदं सम्यग् सुरद्रुमइवावनी ॥१॥ कल्प सिद्धान्त लिखाया था। धर्मसिंह की दूसरी पत्नी श्रीमाल इति नाम्ना भूदशो वंश इवोत्तमो । का नाम फालू था जिससे नाथू नाम का पुत्र तथा लाडकि, सुपर्वाड्येऋजो यत्रोत्पत्तिः स्यान्मौक्तिकं थियः ॥२॥ जीविणि और हक्कू नाम की पुत्रियां उत्पन्न हुई थी। खोवडाख्यभूत्रत्रामात्यं चित्र करं सतां । इन धर्मसिंह ने शत्रुजयादि तीथों की यात्रा करके तथा संख्यातिगाः गुणा. यस्य शम्य काभ्याभवन्नहि ॥३॥ महादान देकर मंधाधिपति की उपाधि धारण की थी। तत्र छाडाभिधः साधुः साधी यो गुण सेवधिः । इन्हीं धर्मसिंह की प्रथम पत्नी राल्ह से उत्पन्न धीरराज यस्त्वकृतार्थयामारान्सुकृतिः सुकृतीचिरं ॥४॥
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तस्य सुतौ नगुणास्य नरदेवाभिधी सुतौ । मूर्त मंती धर्मभेदविवाशिवभवापही ॥५॥ नयणारव्यस्यात्मजो जज्ञे प्रथियान पेथडः श्रिया । जिन यन्मनोभोजे राजहंसीव खेलति ॥६॥ प्रियाश्रिया शची वासीन्नरदेवस्य शस्य धरस्य । देवल देवीति धर्म कर्म सुकर्मणः ॥७॥ सप्त मूर्ताः इवाभवन् सुखभेदाम्नायोः सुताः । तत्राद्यो जयसिहारव्यो द्वितीयो गुणियाभिधः ।।८।। राघवो मेघराजश्च ततोगणपतिर्वरः । षष्ठः कर्माभिधः साधुधर्मसिंह सुसप्तमः ॥९॥ पुत्रौ गणपतेगंगादेवि कुक्षि समुद्भवौ । वीरमोनाल्हराजश्च पुत्रसंतति. संश्रितौ ॥१०॥ प्रियाद्या धर्मसिहस्य राल्ह धीराभिध. सुत. । फालू नाम्नाद्वितीयातु नाथू (घू) संज्ञस्त दात्मजः ॥११॥ लाडकि जीविरिणश्चैव हक्कू मंज्ञाश्च पुत्रिकाः । धर्मसिंहः क्षिती भातीत्यादि संतति शोभितः ॥१२॥ शत्रुजयादि तीर्थेषु यात्रां कृत्वाति विस्तरां । धर्मसिंहो महादानैर्धन्यः संघाधिभूरभून ॥१३॥ धीरारख्यस्य प्रियापूरी पुण्य संभारपूरिता। रमा ईती अतू नीनी पुत्रीभिः परिवारितः ॥१४॥
साधुः श्री धीरराजे नागत्य श्री मंडपाचले । विहारः कारयामास मनोहारी मनस्विनां ॥१५॥ रम्यां पौषधशाला च विशाला पुण्य संपदाम् । कारयित्वाकारि स्वकीय गण संस्थिति ॥१६॥ इतश्च श्रीवर्धमान पट्टेऽभूत्सुधर्मागणभृद्वरः । तद्वंशे चन्द्रशाखायां सूरि उद्योतनो भवेत् ॥१७॥ श्री वर्धमानसूरिजिनेश्वरः सूरिराज जिनचंद्र । प्रभयादिदेव सुगुरुजिन बल्लभसूरिः जिनदत्तौ ॥१८॥ जिनचन्द्रः सूरीन्द्रो जिनपत्ति जिनेश्वरी गणाधीशौ। सूरिजिनप्रबोधो जिनचन्द्रः सुजिन कुशलेशाः ॥१६॥ जिनपद्म जिनलब्धि जिनचंदजितोदयादिसूरीन्द्री। जिनराजो जिनवर्द्धन सूरिजिनिचंद्र सुगुरुश्चा ॥२०॥ श्री जिनसागर सरिः सागर इव भातिलब्धिरत्नोधिः। श्री जिनसुन्दर सूरिविजयी जिनहर्प सूरीशः ॥२१॥ एतद्गुरूणां उपदेशे तेषां पीयूषयूषपरिपीय तोषान् । श्रीधीरराजो भुविलक्षयुद्धसिद्धान्तमलेखनसावधानः ।।२२।। संवत्सरे नेत्र करेन्द्रियेन्दुभिः ते मार्ग सित पंचमेह्नि। प्रली लिखत सारसुवर्णवर्णः श्रीकल्पसिद्धान्तसुपुस्तकंबो ॥२३ वाचंयमैः वाच्यमानः प्रत्यन्दं पुस्तकं त्विदं । नंदता गुरुतांच्चात्र संघेश्रेयः परं परं ॥२४॥
इति प्रशस्ति श्रीः
अनेकान्त के ग्राहक बनें
'अनेकान्त' पुराना स्यातिप्राप्त शोष-पत्र है। अनेक विद्वानों और समाज के प्रतिष्ठित व्यक्तियों का अभिमत है कि वह निरन्तर प्रकाशित होता रहे। ऐसा तभी हो सकता है जब उसमें घाटा न हो और इसके लिए ग्राहक संख्या का बढ़ाना अनिवार्य है। हम विद्वानों, प्रोफेसरों, विद्यार्थियों, सेठियों, शिक्षा-संस्थानों, संस्कृत विद्यालयों, कालेजों और जनश्रुत को प्रभावना में श्रद्धा रखने वालों से निवेदन करते हैं कि वे 'अनेकान्त' के ग्राहक स्वयं बनें और दूसरों को बनावें । और इस तरह जैन सस्कृति के प्रचार एवं प्रसार में सहयोग प्रदान करें।
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अतिशय क्षेत्र प्रहार
श्री नीरज जैन
महार के मन्दिर में स्थित, तेरहवीं शताब्दी (१२३७ शांतिनाथ मन्दिर विक्रमाब्द) की प्रतिष्ठित, चक्रवर्ती तीर्थकर भगवान
इस मन्दिर का निर्माण एक ऊँचे अधिष्ठान पर स्थाशान्तिनाथ की बारह हाथ ऊँची खड़गासन प्रतिमा के
नीय दानेदार पत्थर (ग्रेनाइट स्टोन) से हमा था। शिखर कारण यह क्षेत्र अपना अनूठा महत्व और विशेष स्थान
तथा मण्डप से सज्जित नागर शैली का यह एक पंचायतन रखता है। अमर शिल्पी पापट द्वारा निर्मित, अपनी
मन्दिर रहा होगा। किसी समय मूल मन्दिर के क्षतिग्रस्त प्रोपदार पालिश के कारण प्राज भी चमचमाती हुई यह
हो जाने पर ईट चने से (सम्भवतः १७वीं शताब्दी में) शानदार और लासानी मूर्ति इतनी आकर्षक और विशाल
इस देवालय का पुननिर्माण हुमा होगा जो शीघ्र ही फिर लगती है कि इसे उत्तर भारत का गोम्मटेश्वर कहा जा
जीर्ण हो गया और उपेक्षित पड़ा रहने के कारण बन के सकता है।
लता गुल्मों से पाच्छादित हो गया। इधर जैसे जैसे यह महार किसी जमाने में भले ही एक विशाल और
क्षेत्र प्रकाश में पाया, मन्दिर की मरम्मत प्रादि होती रही
पर उसे इतनी विशाल और सौम्य मूर्ति के अनुरूप भव्य समृद्ध नगर रहा हो पर काल के चक्र में उलझ कर यह
नहीं बनाया जा सका । अत्यन्त हर्ष की बात है कि श्रावक स्थान पूरी तरह प्रोझल लुप्त और हो गया तथा बहुत समय
शिरोमणि, दानवीर साहु शान्तिप्रसाद जी की उदार दृष्टि तक विस्मृति के गर्भ में अपनी कलानिधियों के साथ हमारी दृष्टि के परे पड़ा रहा । आज से लगभग पैतीस
इस पोर दिलाई गई और उनकी सहायता से इस मन्दिर वर्ष पूर्व इस स्थान का ज्ञान पास पड़ोस के श्रावकों को
का पुननिर्माण प्रारम्भ हुआ है । गर्भगृह तो शिखर सहित
निर्मित भी हो चुका है, केवल मण्डप और प्रदक्षिणा पथ हुग्रा और झाड़ झंखाड़ से घिरा यह प्राचीन मन्दिर धीरे
का कार्य शेष है जो यथा सम्भव शीघ्र सम्पन्न होगा ऐसी धीरे प्रकाश में आना प्रारम्भ हुमा। यहां की व्यवस्था
सम्भावना है। यह निर्माण देशी लाल बलुमा पत्थर से तथा तात्कालिक स्थिति का संक्षिप्त परिचय देते हुए श्री
उसी प्राचीन शैली से हुआ है और उसमें मध्ययुगीन यशपाल जैन ने आज से पच्चीत वर्ष पूर्व (अनेकात अप्रैल
वास्तुकला की भव्यता बहुत कुछ सुरक्षित रह सकी है। १९४१) में लिखा था कि जिन सज्जनों को उक्त तीर्थ की यात्रा करना हो वे टीकमगढ से या तो पैदल जाएँ अतिशय मन या बैलगाड़ी से । मोटर का सहारा तो भूलकर भी न इस मन्दिर के गर्भगृह में मूलरूप में तीन खड्गासन ले। इतने धक्के लगते हैं कि सारा शरीर चकनाचूर हो प्रतिमाएँ स्थापित की गई थीं। बीच में बारह हाथ के जाता है।" उस ममय तक प्रहार में यात्रियों के ठहरने शान्तिनाथ तथा दोनों पोर पाठ हाथ ऊंचे कथुनाथ और की भी कोई व्यवस्था नहीं थी, पर अब स्थिति वह नही अरहनाथ । कथनाथ की प्रतिमा मम्भवत मन्दिर के रही है। अब तो क्षेत्र के परकोटे तक पक्की सड़क बन क्षतिग्रस्त होने पर उसी के साथ नष्ट हो गई होगी। यहाँ गई है और टीकमगढ़ तथा छतरपुर से प्रतिदिन बिना अब उसी प्रकार की एक नवीन मूर्ति स्थापित कर दी धक्के की मोटरे पाती हैं । दर्शनार्थियों को ठहरने के लिए गई है। शेष दोनो मूर्तियों के कुछ अंगोपांग खण्डित हो भी धर्मशाला, रसोईघर कुमां आदि की पर्याप्त और अच्छी गए थे जिनकी मरम्मत सीकर के एक दक्ष शिल्पी श्री सुविधा है।
श्रीनारायण द्वारा बड़ी कुशलता के माथ कर दी गई है।
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अनेकान्त
वास्तव में बड़ी मूर्ति में नये प्रग जोड़कर उसका पालिश महत्त्वपूर्ण भेद मिला है-जो विद्वानों की दृष्टि प्राकर्षित मिला देना एक कठिन कार्य था जो इस शिल्पी ने बड़ी करेगा । सफलता पूर्वक कर दिया है। मन्दिर का निर्माण भी श्री कोठियाजी के अनुसार तीसरे श्लोक का तीसग श्रीनारायण के निर्देशन में ही हो रहा है।
चरण येन श्री मदनेशसागरपुरे तज्जन्मनो निम्मिमेएक गौरवपूर्ण भूतिलेख
पढ़ा गया है जिसका अर्थ भी उन्होंने-"अपने जन्मस्थान भगवान शांतिनाथ का इस मूर्ति पर नीचे जो शिला
श्री मदनेश सागर पुर में बनवाया था" ऐसा किया है। लेख अंकित है वह कई दृष्टियों से विशिष्ट और महत्त्व
जनश्रुति के अनुसार यह मन्दिर पाणाशाह नामक श्रेष्ठि पूर्ण है । यह लेख दो शिल्पियों ने अंकित किया है, जिनमें
ने बनवाया था। इस स्थान पर पड़ाव डालने पर कहा ऊपर की पंक्तियां बड़े सुडौल और सजावट पूर्ण अक्षरों
जाता है कि उसका सारा रांगा चांदी में परिणत हो गया में उत्कीर्ण है । अन्त की ३-४ पंक्तियों के प्रक्षर साधा
था प्रतः उसी द्रव्य से इसका निर्माण हमा। यदि इस रण हैं और ऐसा लगता है कि प्रतिष्ठा के उपरान्त यह
श्रुति में जरा भी तथ्य है तो वह पाणाशाह एक ऐति. पक्तियां उत्कीर्ण की गई होंगी।
हासिक महापुरुष और प्रसिद्ध व्यापारी थे; परन्तु उनका लेख की भाषा अत्यन्त ललित और अलकृत है तथा
जन्म स्थान मदनेश सागरपुर नहीं, चंदेरी था। हो सकता कवित्व शक्ति का एक अच्छा उदाहरण है। किसी की
है उन्हीं का दूसरा नाम गल्हण रहा हो जिसका उल्लेख कीति का तीनों लोको के भ्रमण-श्रम से थक कर जिना
इस लेख में हुआ है । लेख में तज्जन्मनो शब्द बहुत स्पष्ट यतन के बहाने स्थिर हो जाना—(कीतिजगत्रय परि- नहा है और उसे जन्मना की अपेक्षा हग्ननो म भ्रमण श्रमार्ता यस्य स्थिराजनि जिनायतनच्छलेन))
___ स्पष्टता से पढ़ा जा सकता है। ऐसा पढने पर उसका अर्थ तथा मुक्ति लक्ष्मी का वदन विलोकने के लोलुप
भी अधिक युक्त संगत 'जिसने अति हर्ष पूर्वक श्रीमद(मक्तिधियो वदन वीक्ष्ण लोलुपाभ्या) आदि ऐसे प्रयोग
नेश सागर पुर में बनवाया" हो जायगा, तथा इतिहास हैं जिनसे सिद्ध होता है कि शिलाङ्कित श्लोकों की रचना
विरोधी भी नहीं रहेगा , भी भापा, पिंगल ज्ञान और साहित्य में निष्णात किसी टीकमगढ़ के प्रतिष्ठित विद्वान स्व. पण्डित ठाकुरअच्छे विद्वान द्वारा की गई है। इस मूर्ति और मन्दिर के दास जी ने भी यह शिलालेख "मधुकर" में प्रकाशित निर्मातामों द्वारा अन्यत्र (वाणपुर में) सहस्रकूट जिन कराया था, पर वह लेख इस समय मुझे उपलब्ध न होने चैत्यालय निर्माण कराने के उल्लेख से भी तात्कालिक से उनकी धारणा ज्ञात नहीं की जा सकी। लेख इस इतिहास की एक कड़ी उपलब्ध होती है । अत्यन्त आदर प्रकार है - पूर्ण शब्दों में मूर्तिकार के नाम का उल्लेख तो एक ऐसी
ॐ नमो वीतरागाय ॥ विशेषता है जो निश्चित ही बहुत विरल शिलालेखों में गढ़पतिवंश सरोरुह सहस्त्ररश्मि: सहन कूटं यः। पाई जाती है।
वाणपुरे व्यषितासीत् श्रीमानिह देवपाल कृति ।। महार के सभी शिलालेख अर्थ सहित श्रीमान पं० श्रीरत्नपालकृति तत्तनयो वरेण्यः । गोविन्ददास जी कोठिया द्वारा पुस्तकाकार प्रकाशित पुण्यक मूतिरभवद् वसुहाटिकायाम् ॥ कराये जा चुके है। अनेकान्त वर्ष ६-१० मे भी क्रमशः कोतिर्जगत्रय परिभ्रमण श्रमार्ता। उनका प्रकाशन हुआ है, पर इस बार प्रोफेसर खुशालचन्द्र यस्य स्थिराजनि जिनायतनच्छलेन ॥॥ गोरावाला तथा विद्यार्थी नरेन्द्र जी के साथ वहां जाकर एकस्तावबनून बुद्धिनिषिना श्रोशांति चैत्यालयो-। हम लोगों ने इसे जिस प्रकार पढ़ा वह पाठ यहां दिया दृष्टयानन्द पुरे परः परनरानन्द प्रदः श्रीमता॥ दिया जाता है। इसमें पांच जगह छोटे छोटे भेद कोठिया येन श्रीमदनेशसागरपुरे तरहन्मनो निम्मिमे । जी के दिए पाठ से मिलते हैं पर तीसरे श्लोक में एक सोऽयं श्रेष्ठि वरिष्ठ गल्हण कृति श्रीरल्हणल्यावि भूत ॥३॥
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अतिशय क्षेत्र महार
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पितं
नित्य
लपाया
तस्माद जायत कुलाम्बर पूर्णचनाः,
प्रतिमा सचमुच बड़ी ही पाल्हाद दायिनी है। इस पर बोजाहउस्तवनुजोक्य चन्द्रनामा ।
तेरहवीं शताब्दी में निर्माण के समय जो पालिश किया एक: परोपकृति हेतु कृतावतारो;
गया था वह भाज भी वैसा ही चमकदार और टटका है। धर्मात्मकः पुनरमोष सुदानसारः ॥४॥
मरम्मत के समय उसकी जोड़ का पालिश बनाने के लिए ताभ्यामशेष दुरितोषामकहेतुं
पन्ना आदि अनेक बहुमूल्य पदार्थ एकत्र करने पड़े थे ऐसा निर्मापितं भुवनभूषण भूत मेतत् ।
क्षेत्र के मंत्री और द्वारक कार्य कर्ता राजवैद्य श्री बारे श्रीशांति चैत्यमति नित्य सुख प्रदाता।
लाल जी ने मुझे बताया था। श्री नारायण शिल्पी ने तो मुक्ति श्रियो वदन वीक्षण लोलुपाभ्याम् ॥५॥ सूक्ष्म वेक्षण यंत्र से इस पालिश मे हीरक कण भी मुझे सम्बत् १२३७ मार्गसुवी ३ शुके श्रीमत्परौद्धदेव विजय- दिखाये थे । गुप्तकाल के बाद इतना अच्छा और प्रोपदार
राज्ये। पालिश प्रायः कहीं नहीं पाया जाता प्रतः उस दृष्टि से चन्द्र भास्कर समुद्र तारका, यावदत्र जनचित्त हारका। प्रतिमा का बड़ा महत्त्व है। कला की दृष्टि से भी इस धर्मकारिकृत शुद्ध कीर्तनं. तावदेव जयतात् सुकीर्तनम्। मूर्ति में साम्य, सौम्य, वीतरागता तथा प्रात्म केन्द्रन प्रादि वल्हणस्य सुतः श्रीमान् रूपकारो महामतिः ।
भावों का जो प्रदर्शन देखने को मिलता है वह दर्शक को पापटो वास्तु शास्त्रजस्तेन बिम्बं सुनिमितम् ॥
को मुग्ध कर लेता है और मूर्ति कर पापट की कला साधना इस लेख मे दो तीन स्थानो पर किनारे के अक्षर के प्रति भी उसका मस्तक श्रद्धा से झुक जाता है। क्षतिग्रस्त हो गए है पर उन्ह बहुत स्पष्ट पढ़ा या अनु- इस क्षेत्र पर "श्री शांतिनाथ संग्रहालय" नाम से मानित किया जा सकता है अतः इस लेख तथा प्रहार की पुरातत्त्व का एक संग्रहालय भी चल रहा है जिसमें अनेक अन्य सामग्री पर शोध करने हेतु मै विद्वानों को सादर महत्वपूर्ण शिल्पावशेष संकलित है। इस संग्रहालय का आमंत्रित करता हूँ।
संक्षिप्त परन्तु सचित्र परिचय मैं अपने अगलं लेख में भगवान शांतिनाथ की यह उत्तुग और सौष्ठवपूर्ण प्रस्तुत करूंगा।
पा
श्री मोहनलालजी ज्ञानभंडार, सूरत की ताडपत्रीय प्रतियाँ
श्री भंवरलाल नाहटा
मानव को प्रकृति ने अन्य प्राणियों की अपेक्षा अधिक असंख्य शब्द उसने गढ़े और बहुत ही उच्च थेणी के सुविधाएँ और शक्तियां दी हैं, उनमें मन और बुद्धि प्रधान विचार और विविध व्यवहार उमकी वाचाशक्ति के परि. है । मानसिक शक्ति में वह विचार करता है और बुद्धि के णाम है । यदि मनुष्य अपने भाव दूसरो को बता नही द्वाग उलझनों को सुलझाता है और नये-नये आविष्कार सकता और दूमरे के भावों को स्वय ग्रहण नहीं कर करता है । मन की प्रधानता से ही उसका नाम 'मानव' सकता, तो विचारों की सम्पदा जो अाज हमे प्राप्त है पड़ा । मन ही बंध और मोक्ष इन दोनों का प्रधान कारण और दिनोदिन उसके प्राधार मे नये-नये विचार उद्भव है "मन एव मनुष्यानां कारणं बंधमोक्षयो।" वाचिक होते है वह सम्भव नहीं हो पाता। इसी तरह का एक शक्ति यद्यपि अन्य प्राणियों को भी प्राप्त है पर मनुष्य ने और आविष्कार मानव ने किया जिससे विचारों को उमका विकास एवं उपयोग बहुत ही विशिष्ट रूप से दीर्घकाल तक सुरक्षित रखा जा सके। जो भी घटनाएं किया है । भाषा के द्वारा भावाभिव्यक्ति, जितने परिमाण घटती है, एक दूसरे को जो कुछ भी कहते सुनते है उस में मनुष्य ने की है, अन्य कोई भी प्राणी नहीं कर सका। सभी को स्थायित्व देने के लिए लिपिविद्या का माविष्कार
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अनेकान्त
किया। थोड़े से अंको और अक्षरों ने अनन्त ज्ञान को वाला अजमेर म्यूजियमवाला लेख है। उसके बाद अशोक समेट रखने में गजब का काम किया है। मनुष्य की के अनेक शिलालेख और खारवेल मादि के लेख प्राप्त है। प्रत्येक ध्वनि को अक्षरों के सांचे में ढाल देने का यह पर कोई ग्रंथ उस समय का लिखा हुमा प्रभी भारत में महान् प्रयत्न, वास्तव में ही अद्भुत है।
प्राप्त नहीं हा फिर भी 'राय पसेणी' सूत्र में उल्लिखित जैन धर्म, भारत का एक प्राचीन धर्म है उस धर्म के देवविमान पुस्तक का जो विविरण प्राप्त है वह बहुत प्रवर्तक सभी तीर्थकर इसा भारत में जन्मे। उनकी साधना कुछ ताडपत्रीय प्रतियों की लेखनपद्धति से मिलता जुलता उपदेश, कार्य एवं निर्वाणक्षेत्र भी भारत है । जैनधर्म के है। यद्यपि ताडपत्रीय प्रतियां उतने प्राचीन समय की अब अनुसार बहुत प्राचीन काल में, प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव हमें प्राप्त नहीं है। जैनागम फुटकर रूप में कुछ पहले हुए। उस अवसपिणि काल के सबसे पहले राजा, भिक्षु लिखे गये हों तो दूसरी बात है पर सामूहिक रूप में उनके और केवल ज्ञानी हुए, तथा सभी प्रकार की विद्याओं और लिपिबद्ध होने का समय वीरात् ९८० है। यद्यपि उस कलामों के भी वे सबसे पहले प्राविष्कारक थे । पुरुषों का समय की भी लिखी हई कोई प्रति प्राज उपलब्ध नहीं है । ७२ और स्त्रियों की ६४ कलाएं उन्होंने अपने पुत्र-पुत्रियों मालूम होता है कि उस समय तक पुस्तकों को अधिक से और लोगों को सिखाई । उनके बड़े पुत्र भरत के नाम से अधिक समय तक टिकाये रखने की कला का उतना विकास इस देश का नाम भारत पड़ा। वे सबसे पहले चक्रवर्ती नहीं हुपा था। फलतः जो प्रतियां लिखी गई वे कुछ सम्राट थे। भगवान ऋषभदेव की २ पुत्रियाँ थीं-ब्रह्मी शताब्दियों में ही नष्ट हो गई। उस अनुभव से लाभ
और सुन्दरी । जिनको उन्होंने प्रक्षर और अंकविद्या उठाकर ताड़पत्र कहां के सबसे अच्छे और लिखने के सिखाई। बड़ी पुत्री ब्राह्मी को लिपि विद्या सिखाई अत: उपयुक्त और टिकाऊ हैं और किस तरह उनकी घुटाइ के जबी के नाम से 'ब्राह्मी लिपि' प्रसिद्ध हुई। उसके बाद लिखने से कैसे सुन्दर लेखन३ हो सकता है और वे अधिक समय समय पर अन्य कई लिपियाँ प्रकाश में प्राई। अब समय तक टिक सकते हैं । इसी तरह स्याही भी किस तरह से ॥ हजार वर्ष पहले भगवान महावीर के समय में की बनाने से चमकीली और टिकाऊ बन सकती है इत्यादि १७ प्रकार की लिपिया प्रसिद्ध होने का जैनागमों में उल्लेख बातों पर विचार किया गया होगा। इसके फलस्वरूप इन है । पुस्तके किस तरह लिखी जाती थीं उनका भी जैना- प्राचीन प्रतियो की अपेक्षा पीछेवाली प्रतियां अधिक स्थायी गमों में उल्लेख है।
रह सकी । अबसे १७ वर्ष पूर्व जब हम जेसलमेर के भडागे प्राचीनकाल में मनुष्य की स्मृति बहुत तेज थी इसलिए का अवलोकन करने गये थे तो उस समय बहुत सी जरमौखिक परम्परा से ही शिक्षादि व्यवहार होते रहे है। जरित और टूटी हुई प्रतियों के ऐसे बहुत से टुकड़े हमने लिखने का काम बहुत थोड़ा ही पड़ता होगा और जो कुछ देखे थे जिनकी लिपि (वीं से १०वीं शताब्दी की थी। लिखा जाता था, वह भी थोड़े समय टिकनेवाली वस्तुओं इससे पहले तो न मालुम ऐसी प्राचीन प्रतियों के कितने पर । इसी से प्राचीन लिखित ग्रंथ प्रादि अब प्राप्त नहीं टकर्ड इधर उधर नष्ट किये जा चुके होंगे। दूसरी बार है। मोहनजोदड़े मादि स्थानों में प्राप्त पुरातत्त्व पर जो जाने पर हमे पहले के देखे हुए वे छोटे छोटे टुकड़े देखने लिपि खदी हुई है उसको अभी ठीक से पढ़कर समझी नहीं को नही मिले और कई प्रतियां प्रादि भी पहली और दूसरी जा सकी। ब्राह्मी लिपि के उपलब्ध प्राचीन शिलालेखो में बार जाने पर देखी हई अब अन्यत्र चली गई हैं। खैर ! शायद सबसे पुराना वीर भगवान के ८४ वर्ष के उल्लेख अब तो जेसलमेर भंडार में "विशेषावश्यक भाष्य' की ताड
पत्रीय प्रति ही सबसे पुरानी है जिसका समय मुनि पुण्य१. देखो नागरी प्रचारिणी, ५७, अक ४ में प्रकाशित
शित विजयजी ने १०वीं शताब्दी के करीब का माना है। १२ मेरा लेख, २. 'अवन्तिका' में प्रकाशित मेरा लेख पुस्तक शब्द को ३. दे० पु० मुनि पूण्यविजयजी की भारतीय श्रमण प्राचीनता।
संस्कृति अने. लेखन कला।
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श्री मोहनलालजी शानभंडार, सरत की ताडपत्रीय प्रतियां
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वीं शताब्दी से तो १५वीं के प्रारम्भ तक की करीब १०० संवत १४४३, पाटण में लिखित । इस प्रति के साथ ताडपत्रीय प्रतियां जैसलमेर, पाटण, खम्भात बडौदा, प्रशस्ति के अनुसार ज्योतिषकरण्डवित्ति एवं चैत्यबन्दन पूना प्रादि स्थानों में प्राप्त है । अन्य भंडारों में कही कहीं चूरिण की प्रति भी लिखी गई थी, पर पता नहीं वे अब एक दो प्रतियां ही मिलती हैं। जैसलमेर के बड़े भंडार किसी अन्य भंडार में हैं या नष्ट हो गई। त्रुटित प्रशस्ति के अतिरिक्त तपागच्छ भंडार और खरतर गच्छ के बड़े इस प्रकार है-"....."श्वमलय सिंहाख्यः देवगुरुपु भक्तो उपासरे के पंचायती भंडार तथा प्राचार्य शाखा के भंडार 'डेरंडक' नगर मुख्य तमडनु तस्य च भार्या साऊ धर्मासक्ता की प्रतियां हमने अपनी प्रथम जैसलमेर यात्रा में देखी थीं सुशील संयुता...... इनमें से स्वर्गीय चिमनलाल दलाल और लालचंद गांधी सहिताश्च खेतसिंहाभिधः मेधाम्याम् सुगुणाभ्याम् सम्पादित 'जैसलमेर भांडागारीय सूची' में बड़े भंडार और (४) पुश्यस्तथा च देऊ: सीरु घटणूष्टमूश्च । पांचूश्च रूडी तपागच्छ भंडार की ताडपत्रीय प्रतियों का भी विवरण मातू नाम्नी सप्रति [?] सशील संयुक्ताः (५) मूरि श्री छपा था। बड़े उपासरे के पंचायती भंडार और प्राचार्य श्रीमन्तपागच्छधप देवसुन्दर गुरुणां उपदेशतो घसस्था धर्मोंशाखा भंडार की ताडपत्रीय प्रतियों की जानकारी हमने परिज्ञाय ।६। 'सी' सुधाविकी सौव पुत्र पुत्री परीवता सर्व प्रथम प्रकाशित की । पाटण, खम्भात पूना की प्रतियों पत्युर्मलयसिंहस्य श्रेयसे शुद्ध वासना ७. ज्योतिः करण्ड का विवरण प्रकाशित हो ही चुका है। दक्षिण भारत में विवृति, तीर्थ कल्पांश्च भूरिश्च । चैत्यवंदन चयदि श्री तो ताडपत्र पर टंकित लिपि की लक्षाधिक प्रतियां सुरक्षित ताडपुस्तकत्रये ८. लिलिखे....."ने वादिये भूमिते १.४३ है। पर उत्तर भारत में जैन भंडारों के अतिरिक्त अन्य वत्सरे लेख्पामास नागशर्म द्विजन्मना ॥ शिवमस्तु । संग्रहालयों में ताडपत्रीय प्रतियां क्वचित् ही है। इसलिए २. योगशास्त्र सोपज्ञवृत्ति हेमचंद्र, पत्र १०३, प्रशस्ति उपरोक्त प्रसिद्ध जैन भंडारों के अतिरिक्त अन्य छोटे मोटे त्रुटित-....... 'काइ (य)स्थ'कोतिपालेन लिखितं ।" जैन भंडारों में जो भी ताडपत्रीय प्रतियां सुरक्षित है उनकी ३. योगशास्त्र, हेमचंद्र, पत्र ५२ संवत् १२५६ जानकारी प्रकाश में पाना अत्यावश्यक है । इन प्रतियां में लिखित । बहुत सी ऐसी रचनाए भी हैं जिनकी अन्य कोई भी प्रति ४. ललित विस्तरा-चैत्यवन्दनवृत्ति, हरिभद्र-चित, कहीं भी प्राप्त नहीं है । वे तो महत्त्वपूर्ण हैं ही पर प्रसिद्ध पत्र ११६, प्र. १२७० ग्रंथों की भी प्राचीन और शुद्ध प्रतियां, इन ग्रंथों के शुद्ध ५. तिलकमंजरीसार, धनपाल-विरचित, विश्राम, पत्र एवं प्राचीन पाठ के निर्णय तथा सम्पादन के लिए बड़े १०३ अंतिम पत्र बीच में कटा, विश्रामों के नाम और महत्त्व की हैं।
पद्य संख्या इस प्रकार है
(१) लक्ष्मी प्रसादनो नाम प्रथमो विश्रामः श्लोक: अभी अभी मेरा सहयोगी भतीजा भंवरलाल सूरत
१०६, पत्र १० (२) मित्रसमागमो नाम द्वितीयः विथामः गया तोश्री मोहनलालजी जैनभंडार में उसे ८ ताडपत्रीय
इन्लोक १३२, पत्राक २० (३) चित्रपरदर्शनो नाम तृतीयो प्रतियां देखने को मिली। थोडं ममय में उनका जो भी
विश्राम. श्लोक १३६, पत्राक ३२ (४) इति धनपाल विरचिते विवरण वह लिख सका वह उसने मुझे लिख भेजा है और
तिलकमंजरी सारे पुर-प्रवशनो नाम चतुर्थो विश्रामः श्लोक उसे इस लेख में प्रकाशित किया जा रहा है । पूज्य निपुण
१२६, पत्रांक ४३ (५) इति लघु धनपाल विरचित तिलकमुनिजी की कृपा से कुलकादि फूटकर ३४ रचनामों का
मंजरीसारे नौ वर्णणो नाम पंचमो विधाम श्लोक २६ एक संग्रह-प्रति तो वह अपने साथ कलकत्ते ले गया और
पत्रांक ५८, (६) मल्य मुन्दरीवृत्तांतो नामः षष्ठो विश्रामः, केवल ३-४ दिन में ही उसकी प्रेसकापी उसने स्वयं कर
श्लोक १४३ पत्रांक ७० (७) गन्धर्वकशापागमो नाम सप्तमो ली, जो अभी हमारे संग्रह में है। अब उन पाठों प्रतियों- विश्रामः श्लोक १६२ पत्रांक ८४ (८) प्राग्भवपरिज्ञानो नाम का विवरण नीचे दिया जा रहा है ।
अष्टमो विश्रामः श्लोक २४२ पत्रांक ९६ (8) इति श्रीधनविविध तीर्थकल्प'-१. जिन प्रभसूरि, पत्र १३७, पालविरचिते तिलकमंजरीसारे राज्यद्वय लाभो नाम नवमो
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विधामः श्लोक ६२ पत्रांक १०३ ।
इदमदगत तत्त्वैः सूरिभिः शोधनीयं खलति यदिहं बुद्धि६ लोक तत्त्व निर्णय-१. भगवतः हरिभद्रसूरि कृत कल्पनोमीदशस्या चितन कमक्त सेवा मादर्श प्राप्य यस्य, पत्र १० । फिर पत्र ११ से १८ में अनेकांत वाद सम्बन्धी श्रतुपद मकरंद स्पंद विदु प्रदात्री, कोई रचना है, जिसके प्रारम्भ में "नामोऽनेकांत वादाय । भुवन सरसिशोभा लम्पते राजहंसी। पूर्वापर स्वभाव परिहारो वादीन लक्षण परिणामवतो स जयति मुनिचंद्र श्री मुनीन्द्रः कवीन्द्रः ।। भावाः" अंत में "ले. सोहडेन लिखितेति ।" फिर भिन्न श्री अजयदेव सरि माहेम्मूलण विहाण दुल्लविया । प्रक्षरोमें "प्रागमिक श्रीजिनप्रभसूरिणां वादस्थल पुस्तिका।" पीवंति सिद्ध बहु मुक्क सरललोयम करकया ॥६॥
७प्रतिष्ठादि विषयक बादस्थल-एवं अपौरुषेय वेद पत्र ४७ में-इति श्रीयशोवर्द्धमानान्तेवासिना यशोदेनिराकरण । मादि अंत इस प्रकार है-"महादिमाहे मातंग वस्य त्रिवर्गपरिहारित पौरुषेय वेदनिराकरणं ॥धी। कुंभ भृगे मगाधिपम् ।
मंगलं महा श्रीप्रादी वादि जिनतत्त्वा मोहोन्मूलन उच्यते ॥११पत्र पत्र ४८ से-इहाई महामोह तिमिरभरातरित-विश्व २६ में-श्रीमंतोजित देवमरि मुनि सौरिणकाया पुरी। वस्तु तत्त्व-दर्शन समर्थ । प्रोक्ता स्नातक संज्ञितेन परम श्राद्धने मुधान्मना । पत्र ६१ से-कृतित्यं पंडित यशोवर्द्धनांतेवामिनो सिद्धान्तोक्त विविक्त युक्तिकलितं चकूविना मत्मरम् । वाद यशोदेवसाध्यरिति । कुलकादि संग्रह, रतनसिंहमूरि व पद्मस्थानक गद्य पद्य पदवी संभूपिते श्रेयसे । स्मर मर वसु नाम (जो शायद आचार्य पद से पहले का दीक्षा नाम रूद्रोंके प्रमाणे-गतेन्द्रे समजनि जनचेतो मदमोहे प्रदायि । हो) ३४ रचनाएं, पत्र ७३, सूची -
क्र०म०
आदि पदः
गाथा
३०
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२०
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कृति नाम
कर्ता ताड पृष्ठांक
पत्रांक अात्मचिन्ता भावना चूलिका रन्नसिंह मूरि १ १ प्रात्मानुशास्ति ऋषभदेव विज्ञप्तिका अप्पाणुशासनं हितशिक्षाकुलक संवेगचूलिकाकुलकम् नेमिनाथस्तोत्र पार्श्वनाथस्तोत्रम् श्री पाश्वनाथ स्त. श्री नेमिनाथ स्त. श्री नेमिनाथ स्त. अपहिलवाडा श्री नेमिनाथ स्त.
कल्याणशस्य पाथोदं
२४ प्राकृत सस्कृतो वापि
२५ जय जय भुवन दिवायर सिरि धम्मसूरि मुगु जइ जीव तुझ सम्म नारीण बहिरंगे भमिय मऊहं नेमि मंगलवरतरुकंद सिरि पासतिजय सुदर जय जय नेमि जिणिद तुहु
...........पहु सिरि नेमिनाह सामिय जइवि १२ मूर्तयस्ते न संपते जयद सज एक्कदीवो निय गुरुपाय पसाया सिरि धम्मसूरि पहुणो ४४ नमिउं गुरुपयपउम सुहिजो वा दुहिमो वा
११
२०
,
२८
३२
श्रीधर्मसूरि स्तवनविशिका मात्महित चिन्ताकुलक मनोनिग्रह भावनाकुलक गुरु भक्ति कुलक पर्यन्तसमयाराधताकुलक
परमनाह ३५ रत्नसिंह सूरि ४०
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श्री मोहनलालजी ज्ञानभंडार, सूरत को ताडपत्रीय प्रतियां
कृतिनाम
आदि पद
चित सु उवाय मेस
सयल तियलोक्कतिलयं
पणमिय पढम जिणंद
सिरि चरिम तित्थनाह
यन्नाम स्मृतिरप्यशेष
तिहुयणजनमनलो
चवीसंपि जिणिदे
जय जय पास सुहायर
सिरि तिलसूरिगुरुग गहरह
जय जय संखेसर तिलय
सिरि संखेसर संठिय निट्ठिय
खेसरपुर संठिया निट्ठिय संखपुरे सिखिदह देउ
यस त्रैलोक्यं गतं, ततं गुरुतम सिरि धर्मसूरि चंदो चउवीपि जिणिदे
गाथा
१६
२७
१०
११
ε
१३
१४
१५
२१
१३
१३
१३
ε
११
&
११
उपदेश कुलक
नेमिनाथ
श्री पुण्डरीकगणधर स्तोत्र
अणहिलपुर रथ यात्रा स्त. श्री भरुयच्छ मुनिसुव्रत स्त. बावतार जिनकुमरविहार स्त. पाश्वंजिन स्त०
श्री धर्मसूरि देसणा गीत
श्री संखेश्वर पाश्वं स्त.
५ कृतियों में पदमसिंह गणि का नाम है, यह रत्नसिह सूरि का श्राचार्य पद पूर्व का नाम है या अन्य कवि है, अत्येषणीय है ।
11
इनमें से कई रचनाएं श्री रिषभदेव केसरिमल पेढी से प्रकाशित - प्रकरण समुच्चय में नम्बर १, २, ३, ४, १५, १६, १७, १८, १६ तो प्रकाशित हो चुकी हैं। रत्नसिंह मूरि की ३-४ और भी रचनाएं प्रकरण समुच्चय में छपी है जो इस प्रति मे नहीं है। फिर भी इस प्रति में कई ऐसी महत्वपूर्ण रचनाए है जो विविध दृष्टियो से महत्त्व को हैं । उदाहरणार्थ - धर्मसूरि सम्बन्धी रचनाएं और कतिपय स्तवन उनमे से धर्मसूरि गुणस्तुति पत्रिका की दो गाथाए धर्मसूरि के संबंध में ऐतिहासिक तथ्य प्रस्तुत करती हैं उनके अनुसार ६ वर्ष की अवस्था में उन्होंने दीक्षा ली, ६ वर्ष सामान्य साधु के पर्याय में रहे और ६०
21
"
"1
श्री धर्मसूरि छप्पय शासनदेवी स्तोत्र
39
१०३
कर्ता ars पत्रांक पृष्ठांक
२५
२६
रत्नसेन सूरि ४६
४८
2:
पउमनाह ५१
५२
33
रत्नसिंहरि ५३
५५
पउमनाह गगि ५६
रत्नसिंह सूरि ५७
५८
६१
६३
૬૪
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६६
पउमनाह ६६
रत्नसिंह सूरि ७३
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३१
३१
३२
३४
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३५
३६
३६
३८
३६
वर्ष सूरिपद पर । इस तरह सवत १२३७ के भादवा सुदी
हुए 1
नव नव वरिसे ठाउं, गिवासे साहु भावाएज्जाए । सहि सूरि पंयमी, सरि सम्व - प्रउंमि ॥ ३३ ॥ बारस सत्ततीसे सुद्धाए एकारसीइ भद्दवरु । चदं दिणे सामि तुमं, सुर मंदिर मंडणं जाम्रो ||३४||
कुल ७८ वर्ष की आयु में ११ को वे स्वर्ग प्राप्त
उपरोक्त राचनात्रों में मे कुछ प्राकृत, कुछ संस्कृत श्रौर कुछ अपभ्रंश में है। रचना संवत के उल्लेखवाली तो केवल एक ही रचना है "आत्मानुशासन" जो सवत १३३६ वैसाख सुदी ५ को प्रणहिलपुर-पारण में रची गई है । नेमिनाथ-स्तव में प्रणहिलवाड को स्वर्गपुरी बतलाया श्रणलिपुर रथयात्रा स्तवन में 'कुमर नरिंद और बावर्तार जिन स्तवन में कुमर विहार का महत्त्वपूर्ण उल्लेख है ।
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अपभ्रंश भाषा की दो लघु रासो-रचनाएँ
डा. देवेन्द्रकुमार, शास्त्री
भारतीय साहित्य मूलतः कथा-साहित्य है जिसमें पृथ्वीराजरासो और बीसलदेव तथा रतनरासो आदि विभिन्न काव्य-विधामों में रचे गये एक-से-एक सुन्दर ग्रंथ इसी परम्परा के अन्तर्गत पाते हैं। इन रासो काव्यों में उपलब्ध होते हैं। इसका कारण धार्मिक तथा जातीय अधिकतर गेय-परम्परा का प्रकृत रूप दिखलाई पड़ता है। चेतना है जो भारतवर्ष की प्राय: सभी साहित्यिक रच- और गीति की परम्परा का प्रारम्भ प्राकृत काव्यों से नामों में व्याप्त है। और कथात्मक तथा पौराणिक रच- हमा है। अपभ्रंश के प्रबन्ध काव्यों में यह गीतिमूलक नामों में तो यह अधिक स्पष्ट है। जन-साहित्य में ऐसी प्रवत्ति विशेष रूप से मिलती है। पुष्पदन्त, धनपाल, छोटी-छोटी अनेक रचनाएँ हैं जो किसी घटना या घटना
साधारण सिद्धसेन और विबुध श्रीधर सादि ने अपने प्रबधत्मक इतिवृत्त को लेकर लिखी गई हैं। इन रचनाओं में
काव्यों में सुन्दर गीतियों की संयोजना की है। यही पर
मायों में मटर जहाँ हमें लोक-संस्कृति की झलक मिलती है वहीं उस म्परा हमें प्रागे चलकर हिन्दी के कथा तथा चरितकाव्यों युग की बोली जाने वाली भाषा का वास्तविक रूप भा में एवं सूफी काव्यों में लक्षित होती है। हिन्दी में ही मिलता है। इन रवनामों के पढ़ने से स्पष्ट हो जाता है नहीं गजराती. राजस्थानी और मैथिली साहित्य में भी कि ये सहज और स्वाभाविक हैं. इनको लिखने में बौद्धिक यह परम्परा अाज तक मरक्षित है और इसका मूल स्रोत तथा भाषा-शास्त्रीय प्रायाम व्यायाम की आवश्यकता प्राकृत-अपभ्रंश साहित्य ही है। विशेष रूप से अपभ्रंश मे नहीं पड़ती है।
ही ऐसी रचनाएँ मिलती है। प्राकृत में नहीं। इसलिए अपभ्रंश का रासा-साहित्य अधिकतर परवर्ती युग इनका विकास अपभ्रंश से ही मानना पड़ता है। यद्यपि का है। बारहवीं शताब्दी के पूर्व की कोई रचना अभी प्राकृत में बीज रूप में यह प्रवृत्ति मिलती है परन्तु स्वतन्त्र तक उपलब्ध नहीं हो सकी है। अधिकतर तेरहवीं और विद्या के रूप में अपभ्रंश में ही रास, फागु, चर्चरी, बेलि, चौदहवी सदी के रासो काव्य मिलते हैं। मुख्य रासा- गीति प्रादि विभिन्न रूपों में यह मुखरित ई है। इन रचनाएँ इस प्रकार हैं
रासो-रचनामों का कई बातों में महत्व है। कुछ बातें इस मासिक कवि कृत "जीवदयारास" (सं० १२५७),
प्रकार हैजिनदत्तसूरि-उपदेशरसायनरास १२वी शताब्दी), जिनवरदेव-बुद्धिरसायणगस, जिनप्रभसूरी-अन्तरंगरास, जल्हिग- (१) गुजराती, राजस्थानी और हिन्दी का प्रादिअन्प्रेक्षारास, देल्हड-गयसुकुमालरास (बारहवी शताब्दी), कालीन काव्य अधिकतर रामा-साहित्य है । यह उस युग धर्मसुरि-जम्बूस्वामीरास (सं० १२६६), प्रजातिलक- की प्रति विशेष का परिचायक है । कलती रास (मं० १३६३), विजयसेनसूरि-रेवंतगिरिरास (मं० १२८८), अम्बदेवसूरि-रामरारास (सं० १३७१), (२) यह माहित्य अधिकतर बारहवीं शताब्दी से अब्दुलरहमान-सन्देशरासक (चौदहवीं शताब्दी), विनय- लेकर मोलहवीं शताब्दी तक लिखा गया। गाधुनिक भारचन्द-चूनडीरास, कल्याणकरास (तेरहवी शताब्दी), तीय आर्य भाषाओं में लिखा गया साहित्य दमत्रीं शताब्दी शालिभद्रसूरि-भरतबाहुबलिरास (सं० १२४१), पंचपाडव- के पूर्व का उपलब्ध नहीं होता। इसमे दसवी शताब्दी में चरितरास (सं० १४१०), योगीरासो (योगीन्द्रदेव) पहले हिन्दी भाषा या साहित्य की स्थिति काव्य-जगत में इत्यादि।
मानना केवल कपोल कल्पना ही होगी।
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अपभ्रंश भाषा की की दो लघु रासो-रचनाएं
(३) अपभ्रंश का साहित्य पाठवीं सदी से लेकर रचनाएँ वीररस प्रधान होती हैं । मुख्य रूप से शृङ्गार, सतरहवीं सदी तक का लिखा हुप्रा मिलता है। परन्तु शान्त और वीरग्स में रासो रचनाएँ लिखी गई हैं। रासो-रचनाएँ बारहवीं शताब्दी से मिलने लगती है। (१०) अपभ्रंश की इन रचनामों को पं० चन्द्रधर इससे हिन्दी-साहित्य का इतिहास लगभग दो-तीन सौ .
शर्मा गुलेरी के शब्दों में "पुरानी हिन्दी" की रचनाएँ वर्ष और आगे खिसक जाता है।
कहने से यही प्रतीत होता है कि ये परवर्ती कालीन (४) रचना-प्रकार, प्राकार और रस-संयोजना आदि
अपभ्रंश की रचनाएँ हैं जिनपर जूनी गुजराती या पुरानी सभी बातों में रासो नामधारी-रचनाएं विभिन्न रूपों में
राजस्थानी का प्रभाव है। मिलती हैं। परन्तु इन सभी में गेयता किसी-न-किसी
इस प्रकार अपभ्रश की इन लघु रास-रचनामों का रूप में समाहित है।
अध्ययन भारतीय आर्य भाषाओं की प्राधुनिक पृष्ठभूमि (५) ऐसा जान पड़ता है कि प्रारम्भ में मन्दिरों में
__ को समझने के लिए आवश्यक ही नहीं अनिवार्य हो मूर्तियों के समक्ष भक्ति-भाव प्रकट करने के लिए विविध
जाता है। धार्मिक उत्सवों के अवसर पर ताल, लय और गीति के
__यहाँ पर अपभ्रया की दो लघु रासो-रचनामों का अनुकरण एवं सादृश्य पर इस प्रकार की रचनाएँ लिखी
परिचय प्रस्तुत है । लेखक को ये दोनों रचनाएँ देहली के गई होगी।
श्री दि. जैन सरस्वती भवन, पंचायती मन्दिर, मसजिद (६) भाषा की दृष्टि से इनका अत्यन्त महत्व है। खजूर में देखने को मिलीं । ये दोनों रचनाएँ गुटका सं० क्योकि इनमें लोकबोलियों की झलक स्पष्ट दिखाई पड़ती ३७ में लिखी हुई हैं। पहली रचना नेमिनाथरासा है। है। जिस प्रकार अपभ्रश को गुजराती विद्वान् गुजरात इसके लेखक काष्ठासंघ के मुनि कुमुदचन्द्र है। काष्ठासंघ की, गजस्थान के लोग गजस्थान की और मिथिला के के अधिकतर प्राचार्य एवं मुनि अपभ्रंश और जन-साहित्य साहित्यिक मिथिला की तथा बंगाल के विद्वान् बगला के लेखक थे । ये सभी मध्यकाल में हुए। लगभग पांचभाषा समझते रहे है और उसे जूनी गुजराती, पुरानी छ मौ वर्षों की एक लम्बी परम्परा मिलती है। गजस्थानी, प्राचीन बंगला और पुरानी मराठी तथा इस देश में विभिन्न सम्प्रदाय हैं। उनमें भी अलगपुरानी हिन्दी मानते रहे हैं :सी प्रकार कुछ लोग नरपति अलग शाखाएँ एवं पन्थ हैं। प्राचीन-परम्पग के अनुसार नाल्ह कृत 'वीसलदेवरास" को गुजराती समझते है। जैनों के चौरासी गच्छ कहे जाते है। कालान्तर में जैन क्योंकि उसकी भाषा पर पुरानी राजस्थानी और गुजगती सघ में कई संघ बनने लगे थे जिनमें देवमघ, गौडसंघ, का प्रभाव बराबर बना हुआ है।
नदिमघ मूलमध, यापनीयसंघ, काप्ठासंघ प्रादि मुख्य (७) भारतीय साहित्य में उपलब्ध रासो-रचनायो
थे। काष्ठासंघ की मध्य युग में चार शाखाएँ थीं-नन्दिके अध्ययन से स्पष्ट हो जाता कि इसका अधिकतर तट, माथुर, बागड पोर लालबागड । और इसी प्रकार साहित्य गुजरात और राजस्थान में लिखा गया, और पुष्करगण, बलात्कारगण, देसीगण और सरस्वतीगच्छ. पाज से लगभग एक सहस्र वर्ष पूर्व जूनी गुजराती पोर माथुग्गच्छ, पुस्तकगच्छ और नन्दीतटगच्छ-ये चार पुरानी राजस्थानी दोनों एक थीं।।
गच्छ थे। मुनि कुमुदचन्द्र माथुरान्वय पुष्करगण में
उत्पन्न हुए थे। (८) रासो-रचनाएं गेय होने के कारण अधिकतर । श्रुति या मौखिक रूप में प्रचलित रहीं। इसलिए अलग- १. श्रीपाश्वचैत्यगेहे काप्ठासघे च माथुरान्वयके । अलग युग की बोलियों का पानी उन पर चढ़ता रहा है। पुष्करगणे बभूव मट्टारकमणिकमलकीया॑ह्वः ॥२॥ ___(8) वस्तुत: "रासो" नाम से हमें किसी काव्य तत्पट्टकुमुदचन्द्रो मुनिपतिशुभचन्द्रनामषेयो भूत्। विशेष का बोध नहीं होता । यह भ्रम मात्र है कि रासो जैनग्रन्थप्रशस्तिसंग्रह, प्रथम भाग, पृ० २२२॥
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अनेकान्त
काष्ठासंघ की पट्टावली से यह तो पता लगता है कि जल चंदणयुष्फक्स एहि नेवर्जािह भराविड । इस संघ की उत्पत्ति लगभग दसवीं सदी के मध्य भाग में अगर कपूरह बहु फलिहि तहि परिमल प्रायउ। हुई थी परन्तु पुष्करगरण कब और कैसे बना इसका चालिय बाल मणि हस तिजि (तजि) णवर पय भत्ती। उल्लेख नहीं मिलता। बृहत्सिद्धचक्रपूजा की प्रशस्ति से ठाई ठाई तिहि विति रासु सुर वर (नर)मोहंती ॥३॥ यह स्पष्ट है कि पुष्करगण के भट्टारक कमलकीर्ति कुमुद- सुवणरेह नदी वहा जहि खेलहि हंस......। चन्द्र के पट्टधर भट्टारक यशसेन थे। यशसेन की शिष्या गाडि बडिउं तहि वाहिणई दामोदर दासो। राजश्री थी। और राजश्री के भ्राता नारायणसिंह थे। रलियइ पूजिउं तहि मुरारि चम्पे करि माला। नारायणसिंह के पुत्र पण्डित जिनदास थे। उनके प्रादेश
वामह देखिाव काल मेघु गलि धार लिय माला॥ से कवि वीरु ने वि० सं० १५८४ में देहली के मुगल
चडिय पाज तहि पमाउ करि पउ वीजह तित्थु । बादशाह बाबर के राज्यकाल में रोहितासपुर (रोहनक)
अंबारायण फलिय जित्यु कोहल सुम हूकइ । के पार्श्वनाथमन्दिर में बृहत्सिद्धचक्रपूजा लिखी थी । चडतह पाज सुमन रलई लहर डीयऊ बुकह॥॥ इससे इतना निश्चय है कि मुनि कुमुदचन्द्र पन्द्रहवी
दीवउ जादव वारणउ तोरणह सजुत्ती। शताब्दी के पूर्व हुए। परन्तु कितने वर्षों के पूर्व हुए, यह
ऊपरि पाली फूलमाल तोरणि हलकती। निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता । क्योंकि भट्टारक
प्रागइ कामिणी रासु१ देहि जहिं सुवण्ण वाडउ । यशसेन के सम्बन्ध में भी यह जानकारी नही मिलती
गायण जणह तबोलु देहि रगमडपि ताडउ ॥६॥ कि वे कब हुए थे। अनुमानत: ये तेरहवी शताब्दी के हात्यिहि चउसरु मिलिउ संघु जिण भवणि परापन। उत्तरार्द या चौदहवीं शताब्दी के पूर्वाद्ध के जान पड़त मापुमापु कहि पूज मनु-जिणवा लाय। हैं। क्योंकि रासो में प्रयुक्त भाषा हिन्दी के निकट है, हवण महाच्छव ध्वजा पूज नेमि जिणह करायउ। जिसे उत्तरकालीन अपभ्रंश या पुरानी हिन्दी कहा जा राजुल प्रागह जाइ करि सखीयण पहिरायउ॥७॥ सकता है।
ऊपरि अंबिक देवि तिथु जिणसासण भत्ती। प्रय नेमिनाथरासा लिख्यते ॥
पूजिवि अंबिक कणय कृषि (?)पजन्नि पहत्ती। पहिल पणमड नेमिनाह सरस घहि वासो।
पालोयण सिहरिहि चडेवि रहमिहि पूजवि। सामल वर्ण शरीर तात्रु बहु गुणह सहासो।
सग्गिणि सेणिय स्वामी तित्य बहभावि जोइवि ॥ सोरठू देसु सुहावण बहु मगल सादो।
काष्ठसंघि मणि कुमुरचन्द इहु रास, पयासइ। घर घर गावह कामिमी गं कोहल नादो।
मणतह गुणतह भबियणह घरि संपह होसह ।
मिनाथ का रासु एहु जो परि कहि गावइ । जूनागढ़ रलीयावणउं जहि विविह वाणीय ।
जाण तण उ फल होई तासु जो जिणवर भाव ॥६ देहि रासु ए लहग वाल णं सुख विण्णीय ॥ ॥
इति श्रीनेमिनाथरासकं समाप्तम् । पहिरि चीर बक्षणउ एहरि चन्दन लायउ ।
चैतिरासा रणिहि जडाय सहुँ चलीय पय उह वायउ।
चंतिरासा के लेखक ब्र० ऊदू हैं। जैन-साहित्य में मुखि तंबोल सुमाणि करि सिरि खूर३ भराय। यह नाम सर्वथा नवीन है। इनके सम्बन्ध में कुछ भी
वाजहि मद्दल संख भेरि मुहि कुंकुम लायउ॥२॥ ज्ञात नही है। उक्त रचना से यह अर्वाचीन जान १. देखिए, पं० परमानन्द शास्त्री का लेख "काष्ठासघ पड़ती है। स्थित माथुरसंघ गुर्वावली" शीर्षक, प्रकाशित
जिणरास गावहि चइतालइ स्व जाइ। "अनेकान्त", वर्ष १५, किरण २, पृ० ७॥
तिन कहुँ कक् चन्दनु, माषा टिकुली लाइ। २. जैनग्रन्यप्रशस्तिसंग्रह, प्रथम भाग प्रस्तावना, पृ०६४॥ १. गोलाकार मण्डल में नृत्य पूर्वक गीतों का गायन ३. माथे पर कुंकुम प्रादि का तिलक लगाया था।
करना।
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अपभ्रंश भाषा कीबो लघु रासो-रचनाएं
१७
जे नरनारी गावहि, जिण-चाताला माइ। राजुल का वृत्त प्रत्यन्त ख्यातवृत्त है। इसलिए वियोयनेमि कुंवर तिन तोषउ, तूसउ सारद माइ। वर्णन तथा बारहमासों का वर्णन करते हुए विभिन्न अथ चत्य रासा बारहमासा लिख्यते :
कवियों ने विभिन्न भाषाओं में राजल का विरह-वर्णन पलिगि बहठे दुइ अण, करहि मणोरह बाता। किया है। चाहिं चित्त उ माहिउ, पिय चालह जिन जाता ॥१॥ बारहमासा की परम्पग का विकास षड्ऋतु-वर्णन बइसाखिहि वर वारिहि कंचण कलस भराए। से हमा जान पडता है। महाकवि कालिदास के "ऋतुसंहार" साषण पुग्णहं प्रागली जिमह वणु काण ॥२॥ में हमें सबसे पहले छः ऋतुमों का स्वतन्त्र वर्णन मिलता खंदण भरीय कचोलडी१, अरु घालिय कपूरो। है। लोक-साहित्य की मौखिक परम्परा में प्राज तक अठहं सव्वई जेठड, बरबहु सावल घोरो ॥३॥ बारहमासा की स्वतन्त्र विधा प्रचलित है। अपभ्रंश, प्राषाढहं अक्खयह सार, वर पाल भराए। गुजराती, राजस्थानी और हिन्दी में लिखे गये नेमितिनि खण जिणवह पुज्जियज, लह पुज्ज कराए ॥४॥ बारहमासा प्राज भी देश के विभिन्न भागों में सुने जा कुंजउ मरुवउ सेवती, अवर सुयंधी जाए। मकते हैं । हिन्दी की मध्ययुगीन काव्यधारा में षड्ऋतु: मावणु जिणबरु पुज्जियउ, सुमणस माल चडाए । ॥ वर्णन और बारहमामा की प्रवृत्तियों का विशेष रूप से षडरस पुण्णउं सालि भोज, मह उप्पु (?) अपारो। ममाहार हया है। इस सन्दर्भ में अब्दुल रहमान के भावव जिणवा पुज्जियउ, तिनि घण कियउ मिंग'रु ॥६॥ मन्देशरामक और जायमी के पद्मावत में विशेष साम्यघंटा झल्लरि भेरि तर, बहु पटह बजाए। लक्षित होता है। प्रासउजिहि२ घण चाली, जिणहरि दीव चडाउ ॥७॥ अपभ्रा में केवल इतिवृत्तात्मक या वर्णनात्मक कातिगमासु सुहावणउ, घरि घरि मंगल चाट। गमो रचनाएँ ही नहीं लिखी गई। इसमें भावों तथा प्रतीसा घण जिणवर पूजइ, खेवइ अगर अपार ॥८॥ कों को लेकर भी कुछ गमो-रचनाएँ मिलती हैं । अधिकबाख विजउरा राहणी, अरु चिरज सुहाए। तर गसो रचनाएं गुजराती में लिखी गई हैं। गुजराती मगसिरहं बहु मान हइ, लइ जिणहं चडाउं ॥६॥ का मल साहित्य रासो-साहित्य ही है-जो अपभ्रंश के घण पिउ पूजिवि, एक ठाई कृसमंजलि विण्णी। अधिक निकट है। गुजगती का उपलब्ध रासा-साहित्य पूसह पोसिउ सयलु लोउ, सा सीलि सउण्णी॥०॥ इस प्रकार है-विजयदेवमूरिशस, चन्द्रकुमारगस, शालिमाघह महरस पूर करि, बह भोज कराए। भद्रास (मनिमार), हीरविजयमूरिगम (ऋपभदाम), साधण संघहु तेइ वाणु, अम्बर पहिराए ॥११॥
हरिबलगस (कुशलमंयम), हरिबलरास (लब्धिविजय), पनि जननी पनि बापु मेण, सुह लक्खण जाई।
थीपालरास (गुणसुन्दर), श्रीपालरास (जानसागर), घणि कणि पुत्तहं पागली, पनि जिनि करि लाई ॥१२॥
कार लाई ॥१२॥ थोपालरास (जिनहर्ष), श्रीपालराम (विनय विजय), तोल्हउ दे गण प्रागली, फागुण पूनी प्रासा।
श्रीपालरास (यशोविजय) सुरसुन्दरीरास (नयसुन्दर), बंभयारि कवि ऊदू, गाए बारहमासा ॥१३॥
हंसगजवच्छराजरास (जिनोदयमूरि), सुदर्शनरास ॥इति॥
(उदयरत्न), सुमतिविलासरस (उदयरत्न), सिद्धचक्र उक्त दोनों गसो-रचनामों को ध्यान से पढने पर जानमागर) सजानदेरास (भीम), शालिभदरास प्रतीत होता है कि दोनों में नेमिनाथ और गजुल के ।
(साधुहंस), विमलमन्त्रीरास (लावण्यसमय), शत्रुजयइनिवृत्त को ग्रहण कर कवि ने गेय काव्य के रूप में
रास (समयसुन्दर), शीलरास (विजयदेवमूरि), हुकरासो-रचनाएं लिखी हैं। जैन-साहित्य मे नेमिनाथ और
३. विशेष जानकारी के लिए लेखक का "सन्देश रासक १. कटोरी।
तथा परवर्ती हिन्दी काव्य-धारा शीर्षक प्रबन्ध २. मासोज,।
दृष्टव्य है।
HIT
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१८.
भनेकान्त
रास (रत्नविजय), विक्रमरास (नरपति), विक्रमरास जंज्झ (बच्चराय) मादि । संस्कृत में प्रबोधचन्द्रोदय, (श्यामवर्टन), रोहिणीरास (ऋषभदास), रत्नरास मोहराजपराजय, ज्ञानसूर्योदय, प्रबन्धचिन्तामणि, सकल्प(मोहनविजय). जम्बूस्वामीरास (देपाल, मल्लिदास, सूर्योदय, चैतन्यचन्द्रोदय तथा मायाविजय प्रादि नाटक यशोविजय, ज्ञानविमलसूरि, नयविमलसूरि पौर रत्नसिंह- इसी परम्परा का प्रतिनिधित्व करते हैं । सूरिकृत)।
अपभ्रंश की उक्त दोनों लप रासो-रचनात्रों के - इनके अतिरिक्त महीराज कृत "नल-दवदन्तीरास",
अतिरिक्त उसी गुटके में एक और रासो-रचना उपलब्ध विक्रमचरितरास (उदयभान), श्रीपालरास आदि कई
हुई है जो रूपक काव्य और रासो से कुछ भिन्न है। रचनाएँ प्रकाशित हो चुकी हैं। परन्तु अब भी अज्ञात
इसका नाम "समाधिरास" है। लेखक चारितसेन मुनि रचनाएं विपुल-परिमाण में हैं। अपभ्रंश की प्राचीनतम
हैं। इसमें कुल पचास पद्य हैं। रचना में समाधि की रचनामों में "नेमिरास" वि० सं० १२९७ का लिखा हमा कहा जाता है जो पाटन के भण्डार में है। परन्तु
विधि का वर्णन है। यह पत्र संख्या ५२-५४ में लिखित शालिभद्रसूरि कृत "भरत-बाहुबलिरास" वि० स० १२४१
है । प्रारम्भ है--
गणहर भासिय जि संत समाधि, की रचना है जो पुरानी गुजराती में लिखी हुई है। इस
बंसण णाण चरित समाधि। प्रकार रासो-साहित्य का प्रारम्भ गुजरात की परम्परा
समाधी जिणदेवहि दिदि, जो करए सो सम्माविति।। जान पड़ती है।
समाधी० ॥॥ अपभ्रश में रूपक काव्य की विधा में तेरहवी सदी
चारितसेण मुणि समाधि पढंतउ, से पठारहवीं सदी तक लिखे गये कई रूपक-काव्य उपलब्ध
भवियहु करमु कलंक हंतउ । टेक ॥४७॥ होते हैं । मुख्य रूपक काव्य हैं-मयणपराजयचरिउ१
मिसमाधि समरइ जिय विसु नासह, (कवि हरिदेव), मनकरहारास (कवि पाहल), मयण
तिम परमर करि पाप पणासह ॥ टेक ४८॥ १. मयणपराजचरिउ (कवि हरिदेव) "भारतीय ज्ञान- सोहणु सो विवस समाधि मरीजइ,
पीठ", काशी से प्रकाशित हो गया है। इसका हिन्दी जम्मण मरणह पाणिउ बीजह ॥ टेक ४६॥ अनुवाद अपभ्रंश के अधिकारी विद्वान् डा० हीरा- प्राइसी समाधि जो अणुविष्णु झावइ, लाल जैन ने किया है।
सोय जरामा सिवसह पावइ ॥ टेक ५०॥
निश्चय और व्यवहार के कषोपल पर षट्प्राभतः एक अनुशीलन
मुनिश्री रूपचन्द्र
प्राचार्य कुन्द-कुन्द जैन-धर्म की श्रुत-सम्पन्न परम्परा दीर्घता, हस्वत्व, वद्धि और हानि की अनुभूति होना उसे में अपना एक विशिष्ट स्थान रखते हैं। उन्होंने परम्परा- दर्शन-मय, ज्ञान-मय देखना ये सब असद-प्रभूतार्थ है। गत चले पा रहे सत्य के मान-दण्डों में नवीन मूल्यों की उसकी ये पर्यायें हैं और पर्याय कभी भतार्थ कैसे हो प्रतिष्ठा की। उनकी दृष्टि निश्चयपरक थी। प्रात्मा की सकती है। उन पर्यायों के पार जो अपर्यय है, वही प्रात्मा शुभ परिभाषा में वे व्यवहार को प्रभूतार्थ मानते थे। का शुद्ध स्वरूप है। जो कि सर्वथा प्रबद्ध-स्पृष्ट, अनन्य उन्होंने कहा-मात्मा का शुद्ध स्वरूप केवल उसका शायक भाव है। इस दृष्टि से मात्मा का कर्म-पुद्गल से स्पृष्ट १. समय-सार, श्लोक १४ होने का अनुभव होना, देव, नरक, मनुष्य मादि विविध जो पस्सदि अप्पाणं मबद्ध-पुढें अणण्णय णियदं । पर्यायों में उसके भिन्न-भिन्न रूप प्रतीत होना, उसमें मविसेस मसंजुत्तं तं सुख-णयं वियाणीहि ।।
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निश्चय और व्यवहार के कषोपल पर षट्प्राभूत : एक अनुशीलन
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नियत, प्रविशेष और प्रसंयुक्त-संयोग रहित है और वही यह तो स्पष्ट ही है कि उनका दृष्टिकोण निश्चयभूतार्थ है।
प्रधान था। पर इसका अर्थ यह नहीं हो सकता कि उन्होंने नव तत्त्वों के सम्यक्त्व का विश्लेषण देते हुए उन्होंने व्यवहार को नकारा हो । वे पर्याय जगत् को व्यवहार नय कहा-जीव, अजीव, पुण्य, पाप, पासव, संवर, निर्जरा, की दृष्टि मे भूनार्थ मानते हुए भी दिखलाई पड़ते हैं। बंध और माक्ष ये समस्त जीव की ही पर्यायें हैं। शुद्ध उनका इतना अवश्य प्राग्रह रहा था कि व्यवहार-जगत् में जीव द्रव्य के स्वभाव की अनुभूति में इन सब को कोई जीते हुए भी हम यथार्थ जगत को न भूलें। हमारा दृष्टिस्थान नहीं है। अनादि-बन्धन पर्यायों से संश्लिष्ट हम कोण लक्ष्य के प्रति मायग् हो और उसमें व्यवहार का जीव और पुद्गल में जो एक-भूतता देखते हैं, उस दृष्टि से सम्मिश्रण न हो। किन्तु उन्होंने व्यवहार का खण्डन किया हम इन्हें भूतार्थ मान लेते हैं । किन्तु यह व्यवहारनय की हो, ऐसा हम नहीं कह सकने । मच तो यह है कि निश्चय दृष्टि से भूतार्थ है, वस्तुतः भूतार्थ नहीं। कुण्डी घट, की तरह उन्होंने व्यवहार को स्वीकार ही नहीं किया, कलश, खिलौने आदि एक मिट्टी की ही अनेक पर्याय होने उसका विस्तृत विधान भी दिया। पट प्राभूत में उनके से पर्याय-भेद के अनुभव में हम इन्हें भले ही भूतार्थ मान चरण-पाहुड, मोक्ख-पाहुड आदि छह पाहुडों का संकलन ले, किन्तु मिट्टी-द्रव्य के स्वभाव की अनुभूति में ये भूतार्थ है। प्रस्तुत निबन्ध में व्यवहार और निश्चय के संदर्भ में नहीं रह सकती। प्रतः नव तत्वों का भूतार्थता से ज्ञान ही उनका अनुशीलन करना चाहेगा। होना ही सम्यक्त्व है।
मोक्ष-प्राभूत में प्राचार्य व्यवहार का सर्वथा खण्डन इस प्रकार हम देखते है कि उनकी दृष्टि भूतार्थ- करते दिखाई पड़ते हैंनिश्चय नय पर टिकी है। इतना ही नहीं, वे अभूतार्थों जो सुतो ववहारे सो जोई जग्गए सकज्जम्मि । मे भी अपनी निश्चय दृष्टि का आरोप करते हुए उनसे जो जग्गदि ववहारे सो सुत्तो अप्पणे कज्जे ।। भूनार्थता का ख्यापन करवाना चाहते हैं। ज्ञान, सम्यक्त्व,
जो व्यवहार में सुषुप्त है, वह प्रात्म-कार्य में तप, प्रात्मा प्रादि शब्दों के व्यवहार पक्ष को गौण करते
जागृत रहता है। जो व्यवहार में जागृत होता है, वह हुए वे इन्हें शुद्ध पाध्यात्मिक परिभाषा तो देते ही है,
अपनी प्रात्मा के लिए मुषुप्त होता है। यह जानते हुए चंत्य, विम्ब, प्रतिमा, मुद्रा आदि भौतिक उपकरणात्मक योगी व्यवहार का सर्वथा त्याग कर दे-डय जाणिऊण शब्दों में भी वे प्रभौतिकता स्थापित करना चाहते हैं ।१
जोई ववहारं चयइ सधहा सव्वं ।। किन्तु प्रश्न यह है कि क्या वे प्रभूतार्थ को नकारते हैं ?
निश्चय का समर्थन करते हुए बे आगे लिखते हैंव्यावहारिक भूमिका में जीते हुए भी वे क्या उससे अपने आपका संरक्षण करना या बचना चाहते हैं२ इसके
चरणं हवेइ सधम्मो, धम्मो सो हवद अप्प-समभावो। समाधान में हमारे समक्ष एक विचार यह पाता है कि सा राग-रास-राहमा, जावस्स अण सचमुच ही वे व्यवहार-परांगमुख थे। उन्होंने मदेव -चरित्र का स्वरूप स्व-धर्म होता है। धर्म का चतुर्दश-गुणस्थानों का भेद कर ऊपर उठ जाने वाली स्वरूप है प्रात्मा का सम-भाव। वह (सम-भाव) राग आत्मा को ही अपने प्रतिपादन का विषय बनाया। उनकी और रोष रहित जीव का अनन्य परिणाम है। जैसे स्फटिक दृष्टि में यह समस्त चराचर जगत इसलिए असत् है कि मणि अपने में विशुद्ध होने पर भी पर-द्रव्य के संयोग से प्रास्था के स्वभाव में यह उपस्थित नहीं रह सकता। भिन्न--अशुद्ध प्रतीत होती है, वैसे ही राग मादि से १. वही १३
२. समय-सार-श्लोक १३, टीका। भूयत्वेणाभिगदा जीवाजीवा य पुण्णा-पावं च ।
तत्र द्रव्य-पर्यायात्मके वस्तुनि द्रव्यं मुख्यतयानुभावपासव-संवर-णिज्जर-बन्धो मोक्खो य सम्मत्तं ॥
यतीति-तदुभयमपि द्रव्य-पर्याययोः पर्यायेणानुभूय२. देखिये, प्राचार्य कुन्दकुन्द द्वारा रचित-बोध-प्राभृत। मानतायां भूतार्थम् ।
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अनेकान्त
संयुक्त जीव अन्यान्य प्रकार से दिखलाई पड़ता है। अपने परिवृत है, वह सिखायतन है। में वह सर्वथा शुद्ध, बुद्ध और निर्विकार है।
इसी प्रकार अनेकों जड़ शब्दों को उन्होंने प्राध्यात्मिक ज्ञान, दर्शन, चरित्र, अरिहंत, सिद्ध, प्राचार्य, उपा- परिभाषाएँ देकर उन्हें चेतना-वान बनाया है उपरोक्त ध्याय और साधु निश्चय-नय में ये सब प्रात्मा में ही स्थित उद्धरणों से यह भी प्रतिभासित होता है कि सचमुच ही हैं। प्रतः प्राचार्य अपनी आत्मा की ही शरण ग्रहण करते वे एक अव्यावहारिक या व्यवहार का लोप करने वाले हुए कहते हैं
पुरुष थे। किन्तु वस्तु सत्य यह नहीं है। जहां उन्होंने प्राहा सिद्धायरिया उज्झाया साहु पंच परमेट्टी। सम्यक्त्व की परिभाषा देते हए यह कहा कि जो प्रात्मा ते विह चिहि प्रादे तम्हा प्रादाहु मे शरण ।१०४।
प्रा-मामें रत है, वह सम्यग्दष्टि है २, वहां यह भी कहा कि सम्मत्तं सण्णाणं सच्चारित्तं हि सत्तवं चेव ।
छह द्रव्य, नव पदार्थ पांच प्रस्तिकाय और सात तत्त्वों पर चउरो चिट्ठहि प्रादे तम्हा प्रादा हु मे शरणं ॥१०॥ जो श्रद्धा करता है, वह सम्यग्दष्टि है।
भाव प्राभत में कहा गया है कि जो व्यक्ति जिन बोध-प्राभूत में प्रतिमा बिम्ब, चैत्य, मुद्रा आदि
प्ररूपित भावनाओं मे वजित है, वह वस्त्र-हीन होने पर शब्दों की लोक-प्रचलित व्याख्याओं को अस्वीकार करते
भी दुख पाता है, मसार-मागर में भ्रमण करता है और हए वे इन सबकी प्राध्यात्मिक परिभाषाएँ प्रस्तुत करते है।
उसे बोधि लाभ नही होता४। यह निश्चय की भूमिका भारतीय समग्र साहित्य परम्परा में 'प्रतिमा' शब्द मंदिरों
को स्पष्ट करता है कि वह नग्न होने पर भी यदि जिनमें प्रतिष्ठित मूर्तियों के लिए ही प्रयुक्त होता रहा है।
प्रणीत भावनामों से शून्य है, तो उसका इष्ट लक्ष्य उमे प्राचार्य कुन्दकुन्द ने जिन-प्रतिमा उसे कहा जो विशुद्ध
नहीं मिल सकता पर इसके ठीक विपरीत लक्ष्य-प्राप्ति के ज्ञान, दर्शन और चारित्र युक्त, निम्रन्थ वीतराग, भाव
लिा व्यवहार की अनिवार्यता दिखलाते हुए वे कहते हैजिन है।
वस्त्र-धर व्यक्ति सिद्धि को नहीं पा मकता, चाहे वह फिर संयत-प्रतिमा वे मुनि है जो शुद्ध चारित्र का पालन
तीर्थकर ही क्यो न हो। जिन शासन में नग्नता ही मोक्ष करते हैं और शुद्ध सम्यक्त्व को जानते व देखते है।
का मार्ग है, शेष सब उन्मार्ग है५ । व्युत्सर्ग-प्रतिमा वे सिद्ध है जो निरुपम, अचल, क्षोभ
बाह्य तपस्या, माधु की क्रिया-पाचारों का विधान रहित, स्थिर रूप से निर्मापित तथा सिद्ध-स्थान में स्थित
भी हमें अनेक स्थलों पर मिलता है। भाव-प्राभूत के है२ ।
७८वे श्लोक मे कहा गया है-मुनि प्रवर ! बारह प्रकार इसी तरह 'पायतन' शब्द साधारणतया मकान या
के तप का प्राचरण कर, त्रिकरण-शुद्धि मे तेरह प्रकार स्थान के अर्थ में रूढ़ है। प्राचार्य उस सयमी आत्मा को
की क्रियाओं-पंच नमस्कार, छह प्रावश्यक, मन्दिर में आयतन बतलाते है, जो प्रव्रज्या-गुण से समृद्ध, ज्ञान-सम्पन्न
प्रवेश करते समय 'निसिही-निसिही' शब्द और बाहर तथा मन-वचन, काय और इन्द्रियों के विषयों में प्रासक्त नहीं है। उस संयत-रूप को भी पायतन कहा है. जिसके १. बोध-प्राभत, श्लोक ५-७ मद, गग, द्वेष मोह, क्रोध और लोभ आयत-अपने २. भाव प्राभन, श्लोक ३१
अप्पा अप्पम्मि रमो सम्माइठ्ठी हवेई अधीन है और जो पंच महाव्रतधारी महर्षि है।
३. दर्शन प्राभूत श्लोक १९ सिद्धायनन की सर्वथा नवीन और उत्-शृखल छदव्व णव पयत्या पचत्यी सत्त तच्च णिदिट्ठा। व्याख्या देते हुए वे कहते है-जिस मुनि-वषभ के समग्र सद्दहइ ताण रूव सो सट्टिी मुणयन्वो॥ मदर्थ सिद्ध हो गए हैं, जो विशुद्ध ध्यान और ज्ञान से ४. भाव प्राभूत ६८
५. सूत्र प्राभृत, २३ १. बोधप्राभत, श्लोक १०. ११, १३
ण वि सिंन्झइ वत्थधगे, जिण सासणे जइ वि होड तित्थयरोणग्गो विमोक्ख-मग्गो, सेसा उम्मग्गया सव्वे ।
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निश्चय और व्यवहार के कवोपल पर बदामृत : एक अनुशीलन
जाते समय 'असिही-असिही' शब्द का उच्चारण अथवा चिन्तन करे । साधक क्रमश: धीमे-धीमे आहार में कमी पाँच महाव्रत, पांच समिति और तीन गुप्ति. का चिन्तन करता जाए, पद्मासन मादि पासनों का काल-पान क्रमशः कर और ज्ञानांकुश से विषय-कषायों में दौड़ते हुए मनो- बढ़ाए, नींद भी क्रमशः कम ले-पार्व-परिवर्तन न करे। मत्त हाथी को वश में कर १
पाहार-विजय प्रासन-विजय और निद्रा-विजय का इस दशवकालिक में हमें मिलता है एवं धम्मस्स विणो प्रकार क्रम भी दिया गया। मूलं' धर्म विनय का मूल है। इसी भावना का समर्थन मन, वचन और शरीर की प्रशुभ प्रवृत्ति से होने हमें एक गाथा में इस प्रकार मिलता है कि मन, वचन वाले दोषों की मुनि गुरु के पास गर्दा करे। गारव और और शरीर के योग से विनय के पांच प्रकारों-पाद. माया से दोपों को छिपाने का प्रयत्न न करे। पूजा-लाभ पतन, अभ्युत्थान, स्वागत-भाषण आदि का पालन कर। की इच्छा न रखते हुए मुनि बहिः शयन, मातापन प्रादि क्योंकि अविनीत मनुष्य कभी भी सुविहित मुक्ति को उत्तरगुणों को पालन करे१। जिस प्रकार जल मे दीर्घनहीं पा सकता।
काल तक स्थित रहने पर भी पत्थर जल से भेदा नही वैयावृत्य के प्रकरण में कहा गया है कि मुनि प्राचार्य, जाता, मुनि उसी प्रकार उपसर्ग और परीपहों से भेद को उपाध्याय तपस्वी, ग्लान, शैक्षण, कूल, मघ चिर-प्रजित प्राप्त न कर२ । मुनि ! यद्यपि नुम सर्वव्रती हो, फिर भी मुनि और लोक-सम्मत विद्वान् असंयत सम्यग दृष्टि की तुम नव पदार्थ, सात तत्व, जीव समास और चतुर्दश भी वैयावृत्य करे।
गुणस्थानो से अपने को भावित करो। मुनि छयालीस निर्वाण प्राप्ति के लिए यह प्रावत्यक माना गया कि अकारक आहार दाषा स राहत भाजन ग्रहण कर एक साधक के जीवन में ज्ञान और तपस्या दोनों का समान मूल मादि मचित वस्तुप्रो का सेवन न करे । केश- लुचन, महत्व रहे । जो ज्ञान तप-हत है अथवा जो तप ज्ञान- प्रस्नान, भूमि-शयन, विनय, पाणि-पात्र-भोजन आदि इन रहित है. वह अकृतार्थ-लक्ष्य को साधने वाला नहीं है।
समस्त व्यावहारिक चर्यानों को सार मानता हमा इनका जो ज्ञान और तप से संयुक्त है, वही निर्वाण को प्राप्त सम्यक्तया पालन के
सम्यक्तया पालन करे। करता है।
इस प्रकार अनेक व्यावहारिक विधानों का उल्लेख आहार-विजय, प्रामन-विजय तथा निद्रा-विजय कर हमें इन पाहडों में मिलता है। इनसे यह स्पष्टतः प्रमासाधक गुरुप्रसाद में अपनी आत्मा को जानकर ध्यान णित हो जाता है कि प्राचार्य कुन्दकुन्द जहाँ निश्चय के कर४ । यद्यपि अात्मा स्वय चरित्रवान, दर्शनवान और परिपोपक थे, व्यवहार को भी उन्होंने सदा मुख्यता दी। ज्ञानवान है पर माधक गुरु-प्रमाद से उसे जानकर उसका
केवल उनकी निश्चय दृष्टि को पकड़ कर व्यवहार की
अवहेलना करना उनके साथ न्याय नहीं होगा । वे निश्चित १. भाव-पाभृत ७०
रूप से व्यवहार के उतने ही समर्थक रहे है, जिसने कि वारसविहतपयरण तेरस किग्यिानो भाव-तिविहेण । निश्चय के । अपेक्षा इस बात की है कि उनके दृष्टिकोण धरहि मणमत्त दुरियं णाणांकुसएण मुणि-पवर ।।
का मम्यग् मूल्यांकन हो और उसके सही रूप को प्रकाश २. वही, १०२
में लाया जाए। विणयं पंच-पयारं पालहि मण-वयण-काय जोएण। १. भाव-प्राभृत १११
प्रविणय-नरा सुविहियं ततो मुत्ति न पावंति ॥ वाहिर सवणत्तावण तरुमूलाईणि उत्तरगुणाणि । ३. मोक्ष-प्राभृत ५९
पालहि भाव-विसुद्धो पूयालाहं मनीहंती।। तव-रहियं ज णाणं, णाण-विजुत्तो तवो वि प्रकयत्यो। २. वही,९३ तम्हा णाण-तवेणं संजुत्तो लहइ निव्वाणं ॥
जह पत्थरो न भिज्जइ परिट्टियो दोहकाल मुदएण। ४. वही, ६३
तह साहु ण विभिज्जइ उवसम्ग-परीसहेहितो॥
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साहित्य-समीक्षा
१. ममनन्त शक्ति के स्रोत हो।' लेखक मुनि कि वे जिज्ञासा दृष्टि से उस पर विचार करें, और धर्म के श्री नथमल, प्रकाशक, भारतीय ज्ञानपीठ काशी। पृष्ठ अन्तर्बाह्यस्वरूप पर विचार करते हुए तकणा से रहित एकात संख्या १०२ मूल्य सजिल्द-प्रति का, दो रुपया। मे उसके स्वरूप पर गहरी दृष्टि डालें, तब अनेकान्त दृष्टि
प्रस्तुत पुस्तक में मुनि श्री नथमलजी के २३ विचारा- से प्रापको उस प्रश्न का उत्तर स्वयमेव मिल जायगा । त्मक संक्षिप्त निबन्धों को प्रकाशित किया गया है। जो लेखक ने जहाँ धर्म के सम्बन्ध में विचार व्यक्त किये है योग विद्या के साधक हैं। योग विद्या के साधक को उससे वहाँ उन्होंने धर्म के साधनों पर भी दृष्टि डाली है। जब सम्बन्धित अनेक विषयों का परिज्ञान आवश्यक होता है। मानव में सहिष्णुता और विवेक जागृत हो जाता है तव योग विद्या के लिये ब्रह्मचर्य की प्रावश्यकता होती है। सत्ता में स्थित विश्वास उबुद्ध होने लगता है, उम समय उसका अभ्यासी ब्रह्मचर्य का यथाशक्य पालन करता है। धर्म उसे अत्यन्त प्रिय लगता है, उस पर उसकी आस्था क्योंकि मानव को जब तक अपनी अनन्त शक्ति के स्रोत सुदृढ़ हो जाती है। पुस्तक उपयोगी है। भारतीय ज्ञान का पता नहीं चलता, जब तक वह इन्द्रिय-विषयों के पास पीठ इस सुन्दर प्रकाशन के लिए धन्यवाद की पात्र है। से अपने को छुड़ाने का यत्न नहीं करता। किन्तु उनके ३. हिन्दी-पर संग्रह-सम्पादक डा० कस्तूरचन्दजी व्यामोह में ही रात-दिन लगा देता है। मन बड़ा चल कामलीवाल, प्रकाशक-साहिन्य-शोध विभाग श्री दि. जैन है वह एक क्षण भी स्थिर नहीं रहता, मन राजा है और अतिशय क्षेत्र महावीरजी, जयपुर (गजस्थान) पृष्ट मख्या इन्द्रियां उसकी दास हैं उसकी प्रेरणा से इन्द्रियाँ अविषम ५००, मूल्य ३) रुपया। में प्रवृत हो जाती हैं, प्रात्मा की निबलता मे वे अधिक प्रस्तूत पद सग्रह में हिन्दी के विभिन्न जैन कवियों के उपद्रव करती हैं, पावेग और उद्वेगों से व्यथित प्रात्मा पदो का मकलन किया गया है। अन्त मे उनका शब्दकोप अपनी मुध-बुध खो बैठता है। इसलिए साधक को अपने भी दे दिया गया है। पदों की संख्या ४०० है। उनमे उन मात्मबल को बलिष्ठ बनाने और शरीर को जड समझकर कवियो का सक्षिप्त परिचय भी निहित है, जिनकी रचउससे अन्तरंगराग छोड़ने का यत्न करना प्रावश्यक है। नामो का उक्त पुस्तक में सकलन हुपा है । ग्रंथ ऐसा करने पर वह मन की चचलता को स्थिर करने मे का प्राक्कथन डा० राममिहजी तोमर ने लिखा है। और समर्थ हो सकता है तभी वह ध्यान की सिद्धि करता हुआ
सम्पादक ने अपनी प्रस्तावना में पदो की भाषा शैली एवं अन्त में स्वात्मोपलब्धि का पात्र बनता है।
कवित्व के सम्बन्ध में अच्छा प्रकाश डाला है। इस मनिजी विचारशील विद्वान हैं उनके उपयोगी विचार सम्बन्ध मे अभी अन्वेषण करना आवश्यक है कि हिन्दी में पाठकों के लिए उपयोगी सिद्ध होंगे। भारतीय ज्ञानपीठ पदो की रचना कब शुरू हुई। जैन कवियो में अनेक पद का यह प्रकाशन सुन्दर है।
भक्ति और अध्यात्म प्रधान पाये जाते हैं। कुछ पद तो २. क्या धर्म बुद्धगम्य है ? लेखक, प्राचार्य तुलसी।
भाव भाषा और रस में उच्चकोटि के प्रतीत होते है। वैसे प्रकाशक, भारतीय ज्ञानपीठ काशी, मूल्य दो रुपया। पद अन्य भारतीय कवियों के नहीं पाये जाते। हिन्दी भाषा
इस पुस्तक का विषय उसके शीर्षक से स्पष्ट है। के इन पदों में जहाँ भक्ति का सुन्दर स्वरूप मिलता है इसके लेखक तेरापथी संघ के नायक प्राचार्य तुलसी हैं, वहां उनकी भाषा प्रांजलिता को लिए हुए गंभीर अर्थ की जो सुलझे हुए विद्वान और सुलेखक हैं। प्राचार्य तुलसी ने द्योतक है। ऐसे ग्रंथों का सर्व साधारण में प्रचार होना धर्म के सम्बन्ध में पर्याप्त विचार किया है और वे अपने चाहिए। इसके लिए डा. कस्तूरचन्दजी काशलीवाल अनुभवाधार से जिस नतीजे पर पहुंचे, उसका अच्छा और महावीर तीर्थक्षेत्र कमेटी के संचालकगण धन्यवाद विवेचन प्रस्तुत पुस्तक में किया है। पाठकों को चाहिए के पात्र हैं।
-परमानन्द जैन शास्त्री
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समाधितन्त्र और इष्टोपदेश का तृतीय संस्करण
स्वाध्याय प्रेमियों के द्वारा पिछले वर्ष इस ग्रन्थ की बहुत मांग की थी। और उन्ही के अनुरोध से यह संस्करण प्रकाशित हुआ है । प्रस्तुत ग्रन्थ प्राचार्य देवनदिन पूज्यपाद, की एक सुन्दर कृति है। इस अध्यात्म प्रधान रचना में प्राचार्य ने पात्म स्वरूप का सुन्दर विवेचन किया है। पिछले दो सस्करणों से यह मस्करण शुद्ध निकला है। दोनों की संस्कृत टीकाएं और परमानन्द शास्त्री की हिन्दी टीका साथ मे दो गई है मुमुक्षु स्वाध्यागी सज्जनों के लिए यह सस्करण अन्यन्त मूल्यवान है मुमुक्षु सज्जनों को चाहिए कि वे पूज्यपाद की अनुभवपूर्ण कथनी को हृदयंगत कर, तथा इष्ट उपदेश का स्मरण कर समाधि का उपाय प्राप्त कर सकेगे । सजिल्द प्रति का मूल्य ४) रुपया है। वह मंस्था के नियमानुमार पौने मूल्य में प्राप्त कर सकेंगे।
व्यवस्थापकवीर सेवामन्दिर २१, दरियागंज, बिल्ली।
वीर-सेवा-मन्दिर और "अनेकान्त" के सहायक १०००) श्री मिश्रीलाल जी धर्मचन्द जी जैन, कलकत्ता । १५०) श्री जगमोहन जो सरावगी, कलकत्ता १०००) श्री देवेन्द्रकुमार जैन, ट्रस्ट,
१५०) , कस्तूरचन्द जी प्रानन्दीलाल कलकत्ता श्री साहु शीतलप्रसाद जी, कलकत्ता
१५०) , कन्हैयालाल जी सीताराम, कलकत्ता ५००) श्री रानजीवन सरावगी एण्ड संस, कलकत्ता' १५०) , पं० बाबूलाल जी जैन, कलकत्ता ५० ) श्री गजराज जी सरावगी, कलकत्ता
१५०) , मालीराम जी सरावगी, कलकत्ता ५००) श्री नयनल जी सेठी, कलकत्ता
१५०) , प्रतापमल जी मदनलाल पांड्या, कलकता ५००) श्री वैजनाथ जी धर्मच जी, कलकत्ता १५०) , भागचन्द जो पाटनी, कलकत्ता ५००) श्री रतनलाल जी झांझरी, कलकत्ता
१५०) , शिखरचन्द जी सरावगी, कलकत्ता २५१) श्रारा० बा० हरखचन्द जी जैन, रांची १५०) , सुरेन्द्रनाथ जी नरेन्द्रनाथ जो कलकत्ता २५१) श्री अमरचन्द जी जंन (पहाडचा), कलकत्ता । १० ) , मारवाड़ी वि० जैन समाज, व्यावर २५१) श्री स० सि० धन्यकुमार जी जैन, कटनी १०१) , दिगम्बर जैन समाज, केकड़ी २५१) श्री सेठ सोहनलाल जी जैन,
। १०१) . सेठ चन्दूलाल कस्तूरचन्दजी, बम्बई नं. २ मैसर्स मुन्नालाल द्वारकादास, कलकत्ता १०१) .. लाला शान्तिलाल कागजी, दरियागंज दिल्ली २५१) श्री लाला जयप्रकाश जी जैन
१०१) , सेठ भंवरीलाल जी बाकलीवाल, इम्फाल स्वस्तिक मेटल बस, जगाधरी
१०१) , शान्ति प्रसाद जी जैन २५०) श्री मोतीलाल होराचन्द गांधी, उस्मानाबाद
जैन बुक एजेन्सी, नई दिल्ली २५०) श्री बन्शीयर जी जुगलकिशोर जी, कलकत्ता
१०१) , सेठ जगन्नाथजी पाण्ड्या झूमरीतलया २५०) श्री जुगमन्दरदास जी जैन, कलकत्ता १०१) , सेठ भगवानदास शोभाराम जी सागर २५०) श्री सिंघई कुन्दनलाल जी, कटनी
(म०प्र०) २५०) श्री महावीरप्रसाद जी अग्रवाल, कलकत्ता १०१) , बाबू नृपेन्द्रकुमार जी जैन, कलकत्ता २५०) श्री बी. पार० सी० जैन, कलकत्ता
१००), बद्रीप्रसाय जी प्रात्माराम जी, पटना २५०) श्री रामस्वरूप जी नेमिचन्द्र जी, कलकत्ता
१००) , रूपचन्दजी जैन, कलकत्ता १५.) श्री बजरंगलाल जी चन्द्रकुमार जी, कलकत्ता । १०... जैन रत्न सेठ गुलाबचन्द जी टोंग्या १५०) श्री चम्पालाल जो सरावगी, कलकत्ता
इन्दौर
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वीर-सेवा-मन्दिर के उपयोगी प्रकाशन R. N. 10591/62.
सभी ग्रन्थ पौने मूल्य में (१) पुरातन-जैनवाक्य-सूची-प्राकृत के प्राचीन ४६ मूल-ग्रन्थों की पद्यानुक्रमणी, जिसके साथ ४८ टीकादिग्रन्थों मे
उद्धृत दूसरे पद्यो की भी अनुक्रमणी लगी हुई है। सब मिलाकर २५३५३ पद्य वाक्यों की सूची। सपादक मुख्तार श्री जुगलकिशोर जी की गवेषणापूर्ण महत्व की ७० पृष्ठ की प्रस्तावना से अलंकृत, डा० कालीदास नाग, एम. ए. डी. लिट् के प्राक्कथन (Foreword) और डा. ए. एन. उपाध्ये एम. ए. डी.लिट् की भूमिका
(Introduction) से भूषित है. शोध-खोज के विद्वानों के लिए प्रतीव उपयोगी, बड़ा साइज, सजिल्द १५) (२) प्राप्त परीक्षा--श्री विद्यानन्दाचार्य की स्वोपज्ञ सटीक अपूर्व कृति,माप्तों की परीक्षा द्वारा ईश्वर-विषयक के
सुन्दर, विवेचन को लिए हए, न्यायाचार्य पं दरबारीलालजी के हिन्दी अनुवाद से युक्त, सजिल्द । ८) (३) स्वयम्भूस्तोत्र-समन्तभद्रभारती का अपूर्व ग्रन्थ, मुख्तार श्री जुगलकिशोरजी के हिन्दी अनुवाद, तथा महत्त्व
की गवेषणापूर्ण प्रस्तावना से सुशोभित ।। (४) स्तुतिविद्या-स्वामी समन्तभद्र की अनोखी कृति, पापों के जीतने की कला, सटीक, सानुवाद और श्री जुगलकिशोर मुस्तार की महत्व की प्रस्तावनादि से अलंकृत सुन्दर जिल्द-सहित ।
१॥) (५) अध्यात्मकमलमार्तण्ड–पचाध्यायीकार कवि राजमल की सुन्दर आध्यात्मिकरचना, हिन्दी-अनुवाद-सहित १॥) (६) युक्त्यनुशासन-तत्वज्ञान से परिपूर्ण समन्तभद्र की असाधारण कृति, जिसका अभी तक हिन्दी अनुवाद नहीं
हुमा था। मुख्तार श्री के हिन्दी अनुवाद और प्रस्तावनादि से अलंकृत, सजिल्द । ... ) (७) श्रीपुरपाश्र्वनाथस्तोत्र-पानार्य विद्यानन्द रचित, महत्व की स्तुति, हिन्दी अनुवादादि सहित । ॥) (८) शासनचतुस्विशिका-(तीर्थपरिचय) मुनि मदनकीर्ति की १३वी शताब्दी की रचना, हिन्दी-अनुवाद सहित ) (९) समीचीन धर्मशास्त्र-स्वामी समन्तभद्र का गृहस्थाचार-विषयक प्रत्युत्तम प्राचीन ग्रन्थ, मुख्तार श्रीजुगलकिशोर
जी के विवेचनात्मक हिन्दी भाष्य और गवेषणात्मक प्रस्तावना से युक्त, मजिल्द। ... ) (१०) जैनग्रन्थ-प्रशस्ति संग्रह-संस्कृत और प्राकृत के १७१ अप्रकाशित प्रन्यों की प्रशस्तियों का मंगलाचरण सहित
अपूर्व संग्रह उपयोगी ११ परिशिष्टो की और प० परमानन्द शास्त्री की इतिहास-विषयक साहित्य परिचयात्मक
प्रस्तावना से अलंकृत, सजिल्द । (११) समाधितन्त्र और इष्टोपदेश-प्रध्यात्मकृति परमानन्द शा० की हिन्दी टीका सहित (१२) अनित्यभावना-पा० पद्मनन्दी की महत्व की रचना, मुख्तार श्री के हिन्दी पद्यानुवाद और भावार्थ सहित ।) (१३) तत्वार्थमूत्र-(प्रभाचन्द्रीय)-मुख्तार श्रो के हिन्दी अनुवाद तथा व्याख्या से युक्त । (१४) श्रवणबेलगोल और दक्षिण के अन्य जैनतीर्थ । (१५) महावीर का सर्वोदय तीर्थ ), (१५) समन्तभद्र विचार-दीपिका =), (१६) महावीर पूजा (१६) बाहुबली पूजा-जुगलकिशोर मुख्तार कृत (१७) अध्यात्म रहस्य-पं० प्राशाधर की सुन्दर कृति मुख्तार जी के हिन्दी अनुवाद सहित । (१८) जैनग्रन्थ-प्रशस्ति संग्रह भा० २ अपभ्रश के १२२ अप्रकाशित ग्रन्थोंकी प्रशस्तियोंका महत्वपूर्ण संग्रह । ५५
ग्रन्थकारों के ऐतिहासिक ग्रंथ-परिचय और परिशिष्टों सहित । स०प० परमानन्द शास्त्री । सजिल्द १२) (१६) जैन साहित्य और इतिहास पर विशद प्रकाश, पृष्ठ संख्या ७४० सजिल्द (वीर-शासन-संघ प्रकाशन ५) (२०) कसायपाहुड सुत्त--मूलग्रन्थ की रचना प्राज से दो हजार वर्ष पूर्व श्री गुणधराचार्य ने की, जिस पर श्री
यतिवृषभाचार्य ने पन्द्रह सौ वर्ष पूर्व छह हजार श्लोक प्रमाण णिसूत्र लिखे । सम्पादक पं० हीरालालजी सिद्धान्त शास्त्री, उपयोगी परेशिष्टों और हिन्दी अनुवाद के साथ बड़ी साइज के १००० से भी अधिक
पृष्ठों में। पुष्ट कागज और कपड़े की पक्को जिल्द । (२१) Reality मा० पूज्यपाद की सर्वार्थसिद्धि का अंग्रेजी में अनुवाद बड़े प्राकार के ३०० पृष्ठ पक्की जिल्द मू०६)
प्रकाशक-प्रेमचन्द जैन, वीरमेवा मन्दिर के लिए, रूपवारणी प्रिंटिंग हाउस, दरियागंज दिल्ली से मुद्रित
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मूल्य ४)
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मासिक
दिसम्बर १९६५
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स्व०प्रधान मंत्री श्री लालबहादुर शास्त्री जन्म २ अक्टूबर १९०४ --- मृत्यु ११ जनवरी १९६६
समन्तभद्राश्रम (वीर-सेवा-मन्दिर) का मुखपत्र
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विषय-यूची
दुःखद वियोग विषय
१ श्रीमान बाबू लक्ष्मीचन्द मुमति प्रसाद जी शहादरा पृष्ठ
| की धर्मनिष्ठा पूज्यनीया माता श्रीमती सुनहरी देवी १. प्राचार्य परमेष्ठी (धवला टीका से) १६३ ] का ५० वर्ष की अवस्था मे, स्वर्गवास हो गया। प्राप
के इम कौटुम्बिक वियोग में अनेकान्त परिवार अपनी मध्यकालीन जैन हिन्दी काव्य में शान्ताभक्ति
हार्दिक सवेदना प्रगट करता है । और दिवंगत आत्मा की -डा. प्रेमसागर जैन एम. ए., पी-एच.डी. १९४ | परलोक में सुखी होने की कामना करता है। ३. यशस्तिलक में वर्णित वर्णव्यवस्थापौरममाजगठन
अनेकान्त को सहायता ---डा० गोकुलचन्द जैन प्राचार्य एम. ए. २१३ |
श्री लाला चेतनलाल जी सर्राफ बड़ौत के सुपुत्र ४. प्रहार का शान्तिनाथ संग्रहालय
चि० गजेन्द्रकुमार एवं आयुष्यमती शगिरानी सुपुत्री श्री -श्री नीरज जैन
२२१
लाला प्रकाशचन्द जी शीलचन्द्र जी जौहरी दिल्ली के पाणि ५. कारंजा के भट्टारक लक्ष्मीसेन
ग्रहण मस्कार के समय निकाले गए दान में मे ११) रुपया २२३
अनेकान्त को सधन्यवाद प्राप्त हुए। -डा० विद्याधर जोहरापुरकर, मंडला
५) श्री सेठ गभीरमल गुलाबचन्द जी टोंग्या ८ ६. माहित्य में अन्तरिक्ष पार्श्वनाथ श्रीपुर २२४
हुकमचन्द मार्ग इन्दौर द्वारा चि० सुरेशचन्द टोग्या के -श्री प. नेमचन्द धन्नसा जैन न्यायतीर्थ
| विवाहोपलक्ष मे निकाले हुए दान में से पाच रुपया ७. बृपभदेव तथा शिव सम्बन्धी प्राच्य मान्यताएँ ।
सधन्यवाद प्राप्त हुए।
१८) श्री बाबू लक्ष्मीचन्द जी आनरेरी मजिस्ट्रेट -डा. गजकुमार जैन एम.ए. पी-एच डी. २३०
। और बा० सुमतिप्रसादजी ने अपनी पूज्या माता श्रीमती ८. श्री लालबहादुर शास्त्री-यगपाल जैन २३७ सुनहरीदेवी के स्वर्गवास के समय निकाले हुए २२००)
के दान में से वीरसेवा मन्दिर को ११) रुपया और अने६. जौनपुर में लिखित भगवती सूत्र
| कान्त को ७ रुपया, कुल १८) रुपया सधन्यवाद प्राप्त हुए। -प्रगरचन्द भंवरलाल नाहटा, कलकत्ता २३ । ४ श्री मरेशचन्द जी जैन पानीपत ने अपने पूज्य १०. साहित्य-ममीक्षा-डा. प्रेममागर,
पिता पण्डित रूपचन्द जी गार्गीय के स्वर्गारोहण के समय परमानन्द शास्त्री
निकाले हए दान में से चार रुपया मधन्यवाद प्राप्त हुए।
-व्यवस्थापक
अनेकान्त
वीर सेवा मन्दिर २१ दरियागंज, दिल्ली। सम्पादक-मण्डल डा० प्रा० ने० उपाध्ये
अनेकान्त का वार्षिक मूल्य ६) रुपया डा. प्रेमसागर जैन
एक किरण का मूल्य १ रुपया २५ १० श्री यशपाल जैन
अनेकान्त में प्रकाशित विचारों के लिए सम्पातक मण्डल उत्तरदायी नहीं हैं।
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जैन समाज पर अनभ्र वज्रपात
जनधर्म और जन संस्कृति के अनन्य प्रेमी और बीर-सेवामन्दिर दिल्ली के प्राण बाबुछोटेलालजी जैन कलकत्ता का लम्बी बीमारी के बाद २६ जनवरी के प्रातःकाल सत्तर वर्ष की अवस्था में देहावसान हो गया। पाप उच्चकोटि के साहित्यिक और इतिहास तथा पुरातत्व के विद्वानपापने अनेक स्थानों का भ्रमण करके वहाँ के बहुमूल्य पुरातत्व के चित्रादि लिये और उनके सम्बन्ध में एक खोजपूर्ण पुस्तक लिखी थी, जो प्रकाशित होने को बाट जोह रही थी। उन्होंने वीर-शासन-संघ से अनेक ग्रंथों का प्रकाशन किया था। वार-सेवा-मन्दिर ने तो उनके मायिक सहयोग से हो इतनी प्रगति की थी, उन्होंने अपनी बीमारीको अवस्था में भी तन-मन-धन से वोर-सेवा-मन्दिर की सेवा की, जो चिर स्मरणीय रहेगी। वरिपागंज दिल्ली में बारसेवा-मन्दिर का विशाल भवन उनको सेवानों का सजीव स्मारक है।
मुख्तार षी जुगलकिशोरजीको मागे बढ़ाने में उन्हीं का हाथ था। ऐसे सच्चे सेवक के समय में उठाने से समाज की जो महान क्षति हुई है, उसको पूर्ति होना असंभव है। बोर-सेवामन्दिर तो उनका चिर ऋणी ऐगा ही।
भगवान से प्रार्थना है कि दिवंगत पात्मा परलोक में सुखशान्ति प्राप्त हो और उनके कुटुम्बी जन इस वियोग-जन्याख के सहने में सक्षम हो।
बोकाकुल:
प्रेमचन्द्र जैन मंत्री, वीर-सेवा-मंदिर
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मोम महम्
अनेकान्त
परमागमस्य बीज निषिद्ध जात्यन्धसिन्धुरविधानम् । सकलनयविलसितानां विरोषमथनं नमाम्यनेकान्तम् ।।
वर्ष १८ किरण-५
।
वीर-सेवा-मन्दिर, २१ दरियागंज, दिल्ली-६ वीर निर्वाण मवत् २४६२, वि० स० २०२२
दिसम्बर सन् १९६५
आचार्य परमेष्ठी पवयण-जलहि-जलोयर-ण्हायामल-बुद्धि-सुद्ध-छावासो । मेरुव पिप्पकंपो सूरो पंचागरणो वज्जो ॥ देस-कुल-जाइ-सुद्धो सोमंगो संग-भंग-उम्मुक्को। गयरणव णिरुवलेवो पाइरियो एरिसो होई ॥ संगह-रिणग्गह-कुसलो सुतत्त्थ-विसारो पहिय-कित्तो। सारण-वारण-साहण-किरियुज्जुत्तो हु प्राइरियो ।
अर्थ-प्रवचनरूपी समुद्र-जल के मध्य में स्नान करने से अर्थात् परमागम के परिपूर्ण अभ्यास और अनुभव से जिनकी बुद्धि निर्मल हो गई है, जो निर्दोष रीति मे छह मावश्यकों का पालन करते है, मरु पर्वत के समान निष्कम्प
ति है, अन्तरङ्ग और बहिरङ्ग परिग्रह से गहत है। प्राकाश के समान निमल है ऐसे प्राचार्य परमेष्ठी होने है। जो संघ के संग्रह-दीक्षा और निग्रह-शिक्षा या प्रायश्चित्य देने में कुमाल है, जो सूत्र अर्थात् परमागम के अर्थ विशारद है. जिनकी कीर्ति सब जगह फैल रही है, जो सारण अर्थात् पाचरण, वारण-निपंध और साधन ब्रतों की रक्षा करनेवाली क्रियानों में निरन्तर उद्युक्त है, वे प्राचार्य परमेष्टी है। उन्हें मेरा नमस्कार हो।
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मध्यकालीन जैन हिन्दी काव्य में शान्ताभक्ति
डॉ० प्रेमसागर जैन, एम० ए०, पी-एच० डी०
पहले के प्राचार्यों ने 'शान्ति' को साहित्य में श्रनिर्वच नीय प्रानन्द का विधायक नहीं माना था, किन्तु पण्डितराज के प्रकाटघ तर्कों ने उसे भी रस के पद पर प्रतिष्ठित किया तब से अभी तक उसकी गणना रसो में होती चली श्रा रही है । उसे मिला कर नौ रस माने जाते है। जैनाचार्यों ने भी इन्ही नौ ग्सो को स्वीकार किया है, किन्तु उन्होंने 'शृंगार' के स्थान पर शान्त को रसराज माना है। उनका कथन है कि अनिर्वचनीय श्रानन्द की सच्ची अनुभूति, रागद्वेष नामक मनोविकार के उपशम हो जाने पर ही होती है । राग-द्वेप से सम्बन्धित अन्य आठ रसो के स्थायी भावो से उत्पन्न हुए आनन्द में वह गहरापन नही होता, जो शान्त में पाया जाता है । स्थायी आनन्द की दृष्टि से तो शान्त ही एक मात्र रस है । कवि बनारसीदास ने 'नवमो सान्त रसनिको नायक १ माना है । उन्होंने तो रसो का अन्तर्भाव भी शान्तरस मे ही किया है। डा० भगवानदास ने भी अपने 'रस मीमांसा' नाम के निबन्ध में अनेकानेक संस्कृत उदाहरणों के साथ, 'शान्त' को रसराज सिद्ध किया है ।
जहाँ तक भक्ति का सम्बन्ध है, जैन और प्रजन
१. " प्रथम मिगार वीर दूजो रस,
तीजी रस करुना सुम्वदायक | हास्य चतुर्थ रुद्र रस पंचम,
छट्ठम रस बीभच्छ विभायक ॥
सप्तम भय श्रटुम रस अद्भुत,
नवमों सान्त रसनिको नायक ।
ए नव रस एई नव नाटक,
जो जहं मगन सोई तिहि लायक ॥ " बनारसीदास नाटक समयसार, प० बुद्धिलाल श्रावक की टीका सहित, जैन ग्रन्थरत्नाकर कार्यालय, बम्बई, १०।१३३, पृ० ३६१ ।
सभी ने 'शान्त' को ही प्रधानता दी है। यदि शाण्डिल्य के मतानुसार 'परानुरक्तिरीश्वरे' ही भक्ति है, तो यह भी ठीक है कि ईश्वर में 'परानुरक्तिः' तभी हो सकती है, जब अपर की अनुरक्ति समाप्त हो । अर्थात् जीव की मनःप्रवृत्ति संसार के अन्य पदार्थों से अनुराग हीन होकर, ईश्वर में अनुराग करने लगे, तभी वह भक्ति है, अन्यथा नही । और संसार को प्रसार, प्रनित्य तथा दुखमय मान कर मन का श्रात्मा श्रथवा परमात्मा में केन्द्रित हो जाना ही शान्ति है । इस भांति ईश्वर में 'परानुरक्तिः, का अर्थ भी शान्ति ही हुया । स्वामी सनातनदेवजी ने अपने 'भाव भक्ति की भूमिकाएँ' नामक निवन्ध में लिखा है, "भगवदनुराग बढ़ने से अन्य वस्तु धीर व्यक्तियो के प्रति मन में वैराग्य हो जाना भी स्वाभाविक ही है । भक्ति-शास्त्र में भगवत्प्रेम को इस प्रारम्भिक अवस्था का नाम ही 'शान्तभाव' है२" नारद ने भी अपने 'भक्तिमूत्र' में सावस्मिन् परमप्रेमरूपा अमृत स्वरूपा च' को भक्ति 'माना है । ३ इसमे पडे हुए 'परमप्रेम' से यह ही ध्वनि निकलती है कि ससार से वैराग्योन्मुख होकर एकमात्र ईश्वर से प्रेम किया जाये । शान्ति मे भी वैराग्य की ही प्रधानता है । भक्तिरसामृतसिन्धु में 'अन्याभिलापिताशून्यं कृष्णानुशीलनं उत्तमा भक्ति: ४ उपर्युक्त कथन का ही समर्थन करती है । यह कहना उपयुक नहीं है कि अनुरक्ति २. स्वामी सनातनदेव जी, भावभक्ति की भूमिकाएँ, कल्याण, भक्तिविशेषांक, वर्ष ३२, अंक १ पृ०
३६६ ।
३. देखिए 'नारद प्रोक्तं भक्तिसूत्र', खेलाडीलाल एण्ड सज, वाराणसी, पहला सूत्र ।
४.
भक्ति रसामृतसिन्धु गोस्वामी दामोदर शास्त्री सम्पादित, प्रच्युत ग्रंथमाला कार्यालय, काशी, वि० सं० १९८८, प्रथम संस्करण ।
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मध्यकालीन जैन हिन्दी काव्य में शान्ताभक्ति
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में सदैव जलन होती है, चाहे वह ईश्वर के प्रति हो रसाः"२ पर्थात् अन्तरात्मा की अनुभूति को रस कहते प्रथवा संसार के, क्योंकि दोनों में महदन्तर है। सासारिक हैं। सिद्धावस्था में अन्तरात्मा अनुभूत से ऊपर उठ कर अनुरक्ति दुःव की प्रतीक है और ईश्वगनुरक्ति दिव्य प्रानन्द का पूज ही हो जाती है, मतः अनुभति की पावसुख को जन्म देती है। पहली मे जलन है, तो दूसरी में श्यकता ही नहीं रहती। जैनाचार्य वाग्भट्ट ने अपने शीतलता, पहली मे अपावनता है, तो दूसरी में पवित्रता 'वाग्भट्रालंकार' में रस का निरूपण करते हुए लिखा है,
और पहली में पुनः पुनः भ्रमण की बात है, तो दूसरी में "विभावग्नुभावश्च, सात्त्विकर्व्यभिचारिमिः । पारोप्यमाण मुक्त हो जाने की भूमिका।
उत्कर्ष स्थायीभाव. स्मतो रसः"३ अर्थात् विभाव, अनुभाव, जैनाचार्य शान्ति के परम समर्थक थे। उन्होंने एक सात्त्विक और व्यभिचारियों के द्वारा उत्कर्ष को प्राप्त मत से, गग-पों से विमुख होकर वीतरागी पथ पर हा स्थायी भाव ही रस कहलाता है। सिद्धावस्था में बढने को ही शान्ति कहा है। उसे प्राप्त करने के दो विभाव, अनुभाव और व्यभिचारी प्रादि भावो के प्रभाव उपाय है-तत्त्व-चिन्तन और वीतरागियों की भक्ति में रस नहीं बन पाता। वीनराग में किया गया अनुराग साधारण राग की कोटि जैन प्राचार्यों ने भी अन्य साहित्य-शास्त्रियों की भांति में नहीं आता। जनों ने शान्तभाव की चार अवस्थाएं ही 'शन' को शन्त रम का स्थायीजाव माना है। प्रा० स्वीकार की है-प्रथम अवस्था वह है जब मन की प्रवृत्ति, प्रजिनमेन ने 'प्रनकार चिन्तामणि' में 'शम' को विशद दुम्बरूपान्तक ममार मे हट कर आत्म-शोधन की ओर
करने हए लिखा है, "विगगत्वादिना निर्विकार मनस्त्वं मुड़ती है। यह व्यापक और महत्त्वपूर्ण दशा है। दूसरी
शम", अर्थात विरक्ति मादि के द्वारा मन का निर्विकारी अवस्था में उम प्रमाद का परिष्कार किया जाता है, जिसके
होना गम है४ । यद्यपि प्राचार्य मम्मट ने 'निर' को कारण मंमार के दुख-मय मताते है तीसरी अवस्था वह शान्तरम' का स्थायीभाव माना है, किन्तु उन्होंने "तत्त्वहै जबकि विषय-वामनामों का पूर्ण प्रभाव होने पर निर्मल
ज्ञान जन्यनिवेदस्यैव शमरूपत्वात्" लिखकर निर्वेद को प्रात्मा नी अनुभूति होती है। चौथी अवस्था के बल ज्ञान
शम रूप ही स्वीकार किया है५ । प्राचार्य विश्वनाथ ने क उत्पन्न होने पर पूर्ण प्रात्मानुभूति को कहते है। ये
भूत का कहत है। 4 'शम' और 'निर्वेद' में भिन्नता मानी है और उन्होंने पहले चारो अवस्थाये प्राचार्य विश्वनाथ के द्वारा कही गई युक्त, की स्थायी भाव में तथा दूसरे की संचारी भाव मे गणना वियुक्त और युक्त-वियुक्त दशानों के समान मानी जा
को है। जैनाचार्यों ने वैगग्योत्पत्ति के दो कारण माने सकती है। इनमें स्थित 'शम' भाव ही रसता को प्राप्त
है-तत्त्वज्ञान, इष्ट वियोग-अनिष्ट सयोग । इसमे पहले होता है।
से उत्पन्न हया वैगम्य स्थायीभाव है और दूसरा सचारी। जनाचार्यों ने 'मुक्ति दशा' में 'रसता' को कार
इस भाँति उनका अभिमत भी प्राचार्य मम्मट से मिलतानही किया है, यद्यपि बहां विगजित पूर्ण शान्ति को माना
जुलता है। इसके माथ-साथ उन्होंने मम्मट तथा विश्वनाथ है। अर्थात् सर्वज्ञ या ग्रहन्त जब तक हम गंमार में है, तभी तक उनकी 'शानि' शान्नग्म कहलाती है, मिद्ध या २. अमिधान राजेन्द्रकोश, 'रस' शब्द । मक्त होने पर नहीं। अभिधान राजेन्द्र कोश में रम की ३. देग्विा प्राचार्य वाग्भटकृत वाग्भटानकार । परिभाषा लिखी है, "रस्यन्तेऽन्तरात्मानुभूयन्ते इति ४. अजितगेनाचार्य, अलंकार चिन्तामणि । १. युक्त वियुक्तदशायामवस्थितो यः शमः स एव यनः। ५. प्राचार्य मम्मट, काव्यप्रकाश चौखम्बा संस्कृतमाला,
रमतामेति तदस्मिन्सचार्यादे. स्थिातच न विरुद्धा। सख्या ५६, १९२७ ई०, चनुथं उल्लास, पृ० १६४ । प्राचार्य विश्वनाथ, साहित्यदर्पण, शालिग्राम शास्त्री ६. प्राचार्य विश्वनाथ साहित्यदर्पण, शालिग्राम शास्त्री की हिन्दी व्याख्या सहित, लखनऊ, द्वितीयावृत्ति, की व्याख्या सहित, लखनऊ, ३३२४५-२४६, वि० सं० १६६१, ३१२५०, पृ० १६८ ।
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अनेकान्त
की भांति ही प्रनित्य जगत को पालम्बन, जैन मन्दिर, चाहते हैं । उनका विश्वास है कि भगवान की वाणी का जैन तीर्थ क्षेत्र, जैन मूत्ति और जैन साधु को उद्दीपन, श्रवण करने मात्र से वह उपलब्ध हो सकती है। । प्राचार्य घृत्यादिको को संचारी तथा काम, क्रोध, लोभ, मोह के सोमदेव शिव-सुख देने वाली शान्ति चाहते है। वही भव प्रभाव अर्थात् सर्व समत्त्व को अनुभाव माना है। दुख रूपी अग्नि पर घनामृत की वर्षा कर सकती है । वह
शान्ति का अर्थ है निराकुलता। प्राकुलता राग से शान्ति भगवान शान्तिनाथ प्रदान कर सकते हैं। उत्पन्न होती है। रत होना राग है। इसी को प्रासक्ति
"भव दुःखानलाशान्तिमितवर्षजनित जनशान्तिः । कहते हैं। प्रासक्ति ही अशान्ति का मूल कारण है। शिवशर्मासवशान्तिः शान्तिकरः स्ताज्जिनः शान्तिः५॥" सांसारिक द्रव्यों का अर्जन और उपभोग बुरा नहीं है। जैन ग्रन्थों के अन्तिम मंगलाचरण प्रायः शान्ति की किन्तु उसमें प्रासक्त होना ही दुखदायी है। प्राचार्य कुन्द- याचना में ही समाप्त होते हैं। शान्ति भी केवल अपने कुन्द ने कहा है कि जैसे अरति भाव से पी गई मदिरा लिए नही, संघ, प्राचार्य, साधु, धार्मिक जन और राष्ट्र के नशा उत्पन्न नहीं करती, वैसे ही अनाशक्त भाव से द्रव्यों लिए भी। प्राचार्य पूज्यपाद का "संपूजकानां प्रतिपालकानां का उपभोग कर्मों का बन्ध नहीं करता१ । कर्मों का बन्ध यतीन्द्र सामान्य तपोधनानाम् । देशस्य राष्ट्रस्य पुरस्य अशान्ति ही है। प्राचार्य पूज्यपाद का कथन है कि यह राज्ञःकरोत् शान्ति भगवान जिनेन्द्रः६।" इसी का द्योतक बन्ध जिनेन्द्र के चरणो की स्तुति से स्वत. उपशम हो है। पं० श्री मेधावी के धर्मसंग्रह श्रावकाचार का मंगलाजाता है जैसे कि मन्त्रो के उच्चारण से सपं का दुर्जय चरण भी ऐमा ही है। उन्होंने भी राजा प्रजा और मुनि विष शान्त हो जाता है २ जैसे ग्रीष्म के प्रखर मूर्य से सतप्त सभी के लिए शान्ति चाही हे७ ।। हए जीव को जल और छाया मे शान्ति मिलती है, वस शान्ति दो प्रकार की होती है-शाश्वत और क्षणिक । ही ससार के दुखो से बेचन प्राणी भगवान के चरण पहली का सम्बन्ध मोक्ष से है और दूसरी का भौतिक कमलों में शान्ति पाता है३ । मुनि शोभन शाश्वत शान्ति -
" ४. शान्ति वस्तनुतान्मिथोऽनुगमनाद्यन्न गमाद्यैर्नय, १. जहमज्जं पिवमाणो अरदिभावेण मज्जदि ण पुरिसो। रक्षोभ जन हे तुलां जिनमदोदीर्णाग जालं कृतम् ।
दव्वुवभोगे, अरदो णाणी वि ण वज्झदि तहेव ॥ तत्पूज्यजंगता जिनः प्रवचन द्रप्यत्कुवाद्यावलो, प्राचार्य कुन्दकुन्द, समयसार, श्री पाटनी दि. जैन
रक्षोभजन हेतुलांछितमदो दीर्णाग जालकृतम् ॥ ग्रंथमाला, मारोठ, मारवाड़, १९५३ ई०, १९६वी मुनिशोभन, चतुर्विशति जिनस्तुतिः, काव्यमाला, गाथा, पृ० २६६ ।
सप्तमगुच्छक, निर्णयसागर प्रेस, बम्बई, तीसरा श्लोक, क्रुद्धाशीविपदष्ट दुर्जयविपज्वालावली विक्रमो.
पृ० १३३ । विद्याभपज मत्रतोय हवनर्याति प्रशान्ति यथा।
5. K. K. Handiqui, yarastilak and तद्वत्ते चरग्गाम्बुजयुग स्तोत्रोन्मुखाना नृणाम् ।
Indian culture, Sholapur, 1949, विघ्ना कायविनाशकाश्च सहसा शाम्यन्त्यहो विस्मयः।।
P.311. प्राचार्य पूज्यपाद, संस्कृतशान्तिभक्ति, 'दशक्तिः ',
६. दशभक्त्यादि संग्रह. १४वा श्लोक, पृ० १८१ । शोलापुर, १९२१ ई०, दूसरा श्लोक, पृ० ३३५।।
७. शान्तिस्याज्जिनशासनस्य सुखदा शान्तिनृपाणां सदा, ३. न स्नेहाच्छरण प्रयान्ति भगवन्पादद्वय ते प्रजाः,
सुप्रजाशांतयोभरभृतां शान्तिमुनीनां सदा। हेतुस्तत्र विचित्रदु.खनिचयः संसारघोराणवः ।
श्रोतृणां कविताकृतां प्रवचनव्याख्यातकाणां पुनः, अत्यन्त स्फुरदुग्ररश्मि निकग्व्याकीणं भूमडलो,
शांति शांतिरथाग्नि जीवनमुचः श्रीमजनस्यापि च ॥ प्रेप्मः कारयतीन्दु पादसलिलच्छायानुरागं रविः ।
पडित श्री मेधावी, धर्ममग्रहश्रावकाचार, अन्तिमप्राचार्य पूज्यपाद, सस्कृतशान्तिभक्ति, दशभवत्यादि
प्रशस्ति, प्रशस्तिसंग्रह, जयपुर, १९५० ई०, ३५वाँ संग्रह, सलाल, साबरकांठा, गुजरात, पहला श्लोक,
श्लोक, पृ० २५। पृष्ठ १७४।
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मध्यकालीन न हिन्दी काव्य में शान्ताभक्ति
संसार से । भक्त जन दोनों के लिए याचना करते रहे हैं । जिनेन्द्र की मनुकम्पा से उन्हें दोनों की प्राप्ति भी हुई है। इस दिशा में जैन मंत्रों का महत्वपूर्ण योग रहा है। जैनों का प्राचीन मंत्र 'मो परिहन्ता' मन्त्र है। इसमें पच परमेष्ठी को नमस्कार किया गया है। पूरा मंत्र है " णमो अरिहन्ताणं, णमो सिद्धाण, णमो मायरियाणं, णमो उबज्झायाणं, मावा, णमो लोएसभ्वसाहूणं ।" इसका अर्थ है-महंतों को नमस्कार हो, सिद्धों को नमस्कार हो, प्राचार्योको नमस्कार हो, उपाध्यायों को नमस्कार हो और लोक के सर्व माधुओं को नमस्कार हो। जैन माचायों ने इस मन्त्र मे पूर्व शक्ति स्वीकार की है । भद्रबाहु स्वामी ने अपने 'उवसग्गहर स्तोत्र' में लिखा है, "तुह सम्मत्तं लद्धं चितामणिकप्प पायमहिए। पावति विषेणं जीवा अजरामर ठाण ॥" इसका तात्पर्य है कि पचनमस्कार मन्त्र से चिंतामणि और कल्पवृक्ष से भी अधिक महत्वशाली सम्यग्दर्शन प्राप्त होता है, जिसके कारण जीव को मोक्ष मिलता है। प्राचार्य कुन्दकुन्द का विश्वास है, "अरुडा, सिद्धायरिया उसापा साहु पंचपरमेट्ठि । एदे पंचणमोयारा भवे भवे मम मुह दिंतुर ॥" अर्थात् ग्रहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु मुझे भव भव में सुख देवे प्राचार्य पूज्यपाद का कथन है कि यह 'पंच नमस्कार' का मन्त्र सब पापो को नष्ट करनेवाला है और जीवों का कल्याण करने में सबसे ऊपर है। मुनि वादिराज ने 'एकीभाव स्तोत्र' में निखा है, "जब पापाचारी कुत्ता भी नमोकार मन्त्र को मुनकर देव हो गया, तब यह निश्चित है कि उस मन्त्र का जाप करने से यह जीव इन्द्र की लक्ष्मी को पा सकता है ४ ।"
५.
1
कः संदेहो यदुपलभते वासव श्री प्रभुस्य जपजाप्यैर्मणिभिरमलत्वन्नमस्कारचक्र ॥ " एकीभावस्तोत्र, काव्यमाला सप्तमगुच्छक, निर्णयसागर प्रेस, बम्बई १२ लोक, पृ० १६ । "एतमेव महान्य समाराध्येह योगिनः । त्रिलोक्याऽपि महीयतेऽधिगताः परम पदम् ।। कृत्वा पापमहम्याणि हत्वा जन्तु शतानि च । श्रम मन्त्र समाराध्य तियं त्रोऽपि दिवं गता. ॥" जिन प्रभरि 'पंचपरमेष्ठिनमस्कारकल्प', विविधतीर्थक, मुनि जिन विजयादित शान्तिनिकेतन, १९३४ ई० प्रथम भाग, ५-६ लोक, पृ० १०८ । "स्तम्भ दुगमन प्रति प्रयनतो मोहस्य सम्मोहन, पायान्यचनमस्क्रियाक्षरमयी मागधना देवता ॥" धर्मध्यानदीपक, मागीलाल हुकुमचन्द्र पाण्डया संपादित, कलकत्ता, 'नमस्कारमन्त्र' तीसरा इलोक १०२ । 7. “The original doctrine was contained in the fourteen Purvas "old texta", which Mahavira himself had taught to his Ganadharaa." Dr. Jagdish Chandra Jain, Life in ancient India as depicted in the Jain canons, New Book Company Ltd., Bombay, 1917, P. 32.
६.
१. जनस्तोत्रसन्दोह भाग २ मुनि चतुरविजय सम्पादन, अहमदाबाद [वि० सं० १९९२ उपसगाहर स्तोष, चौथी गाथा, पृ० ११ ।
२. 'पचगुरुभक्ति', 'दशभक्तिः, शोलापुर, १६२१ ई० सातवी गाथा, पृ० ३५८
३. "एष पंचनमस्कारः सर्वपाप प्रणाशनः ।
मंगलानां च सर्वेषां प्रथमं मंगलं भवेत् ॥" देखिए वही सात लोक, पृ० ३५३ ।
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४. 'प्रापद्देवं तव नुतिपर्द र्जीव केनोपदिष्टः
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पापाचारी मरणसमये सारमेयोऽपि सौख्यं ।
श्री जिनप्रभसूरि ने 'विविध तीर्थकल्प' के 'पंच-परमेष्ठि नमस्कार कल्प' में स्वीकार किया है, "इस मन्त्र की प्राराधना करनेवाले योगीजन, त्रिलोक के उत्तम पद को प्राप्त कर लेते हैं । यहाँ तक ही नहीं, किन्तु सहस्रों पापों का सम्पादन करनेवाले तिर्यञ्च भी इस मन्त्र की भक्ति से स्वर्ग में पहुँच जाते हैं५ ।" जैनाचार्यों ने 'णमोकार मंत्र' की शक्ति को देवता कहा है। उसमें माध्यात्मिक माथि भौतिक भौद प्राधिदैविक तीनों ही प्रकार की शक्तियाँ सन्निहित है वह मोहके दुर्गमन को रोकने में पूर्ण रूप से समर्थ है। जैन परम्परा में यह मन्त्र धनादि निधन माना जाता है । वैसे भगवान महावीर से पहले 'चौदह पूर्वो का अध्ययन अध्यापन प्रचलित था । भगवान ने अपने गणधरों को इनकी विद्या प्रदान की थी। उनमें
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अनेकान्त
विद्यानुवाद नाम के पूर्व का प्रारम्भ णमोकार मन्त्र से ही शताब्दी माना जाता है। उन्होंने एक स्थान पर 'शान्ति हमा था। विद्यानुवाद मन्त्र-विद्या का अपूर्व ग्रन्थ था। यन्त्र' की महत्ता के संबंध में लिखा है, "शमयतिदुरितश्रेणि श्री मोहनलाल भगवानदास भावेरी ने जैन मन्त्र-शास्त्र दमयत्यरिसन्तति सततममौ। पुष्णाति भाग्यनिचयं मुष्णाति का प्रारम्भ ईसा से ८५० वर्ष पूर्व, प्रति तीर्थकर पार्श्व- व्याधि सम्बाधाम४ ॥" तात्पर्य है-शान्ति यन्त्र की पूजा नाथ के समय से स्वीकार किया है। हो सकता है कि से रोग. पाप, शत्र और व्याधियाँ उपशम हो जाती हैं, पार्श्वनाथ के समय में भी '१४ पूर्व' पहले से आई हुई और मौभाग्य का उदय होता है । शान्ति के लिए 'शान्ति विद्या' के रूप में प्रतिष्ठित रहे हों। उपलब्ध पुरातात्त्विक पाठ' भी किये जाते हैं। वे मन्त्र-गभित होते हैं। अनेक सामग्री के प्राधार पर णमोकार मंत्र' का प्राचीनतम दिन विधिवत् उनका पाठ होता है। आज भी उनका उल्लेख हाथी-गुम्फ के शिलालेख में प्राप्त होता है, जिसके प्रचलन है। प्रति वर्ष अनेक स्थानों पर उनके पाठ का निर्माता सम्राट् खारबेल ईसा से १७० वर्ष पूर्व हुए है। आयोजन किया जाता है। इन मन्त्र-यन्त्रों में इहलौकिक
'शान्ति' का आधार केवल णमोकार मन्त्र' ही नहीं शान्ति की अमोघ शक्ति मानी गई है। किन्तु उनका मुख्य है, अन्य अनेक मन्त्र भी हैं। यहाँ सबका उल्लेख सम्भव उद्देश्य पारलौकिक शाश्वत शान्ति ही है। उनका मूल नहीं है । वे एक पृथक निबन्ध का विषय हैं। मन्त्र क्षेत्र स्वर 'आध्यात्मिक' है 'भौतिक' नहीं। यह ही कारण है में यन्त्रो की भी गणना होती है। उनमें एक शानि यन्त्र कि उनमें वज्रयानी तान्त्रिक सम्प्रदाय की भांति व्यभिभी है। मन्दिरों में इसकी स्थापना की जाती है पोर चार, मदिरा और मांस वाली बात नहीं पनप सकी। जैन उसकी पूजा-अर्चा होती है। 'मन्त्राधिराज कल्प' नाम के देवियाँ मन्त्र की शक्तिरूपा थीं। उन्हे मन्त्र के बल पर ही ग्रन्थ में शान्ति यन्त्र' की पूजा दी हुई है। इसके रचयिता साधा जा सकता था। किन्तु ऐसा कभी नहीं हुआ कि एक सागरचन्द्र सूरि नाम के साधु थे। उनका समय १५वी उन मंत्रो के साथ नीच कुलोत्पन्न कन्याओं के प्रासेवन की १. कहा जाता है कि मुनि सुकुमारसेन (७वीं शताब्दी बात चली हो। ऐमा भी नहीं हुग्रा कि भाद्रपद की अमाईस्वी) के विद्यानुशासन मे विद्यानुवाद की बिखरी
वस की गत में एक मौ सोलह कुपारी, सुन्दरी कन्याओं सामग्री का संकलन हुआ है। विद्यानुशामन की
की बलि से वे यत्किञ्चित् भी प्रसन्न हुई हो। वे कराला हस्तलिखित प्रति जयपुर और अजमेर के शास्त्र
थी, किन्तु उनकी करालता व्यभिचार या मदिरा-मास से भण्डारों में मौजूद है।
से तृप्त नहीं होती थी। सतगुणों का प्रदर्शन ही उन्हें 2. "Mr. Jhaveri thinks that the Man
सन्तुष्ट बना सकता था। इमी भांति जैन साधु मन्त्र विद्या trasastia among the Jains is also
के पारंगत विद्वान थे, किन्तु उन्होने राग सम्बन्धी पदार्थों
__ में उनका कभी उपयोग नही किया । जैन मन्त्र सांसारिक of hoary antiquity. He claims that its antiquity goes back to the days
वैभवों के देने में सामर्थ्यवान होते हए भी वीतरागी बने of Parsvanatha, the 23rd Tirthan
रहे । वीतरागता ही शान्ति है। उसका जैसा शानदार kara, who flourished about 850
समर्थन जैन मन्त्र कर सके, अन्य नही ।
जैन भक्ति कान्य और मन्त्रों की सबसे बड़ी विशेषता B.C."
है उनकी शान्तिपरकता। कुत्सित परिस्थितियों और Dr. A.S. Altekar, Mantra Shastra
संगतियों में भी वे शान्तरम से दूर नहीं हटे। उन्होंने and Jainism', Jaiu Cultural Re
कभी भी अपनी प्रोट में शृंगारिक प्रवृत्तियों को प्रश्रय search Society, Banaras Hiudu University, Banaras, P. 9.
४. श्री सागरचन्द्र सूरि, मन्त्राधिराजकल्प, जैनस्तोत्र 3. V.A. Smith, Early History of India, संदोह, भाग २, मुनि चतुरविजयसम्पादित, अहमदाOxford, 1908, P. 38, N.I.
बाद, सन् १९३६, ३३वा श्लोक, पृ० २७७ ।
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मध्यकालीन जैन हिन्दी काव्य में शान्ताभक्ति
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नहीं दिया। दाम्पत्य रति-मूला भगवद्भक्ति बुरी नहीं है। सौन्दर्य और कामुक विलास चेष्टानों का चित्र खींचा गया यह भी भक्ति की एक विद्या है। जैन काव्यो के माध्या- है। युवा मुनि स्थूलभद्र के संयम को डिगाने के लिए त्मिक विवाह इसी कोटि में पाते हैं। नेमीश्वर और राजुल सुन्दरी कोशा ने अपने विलास-भवन में अधिकाधिक प्रयास को लेकर शतशः काव्यों का निर्माण हुआ। वे मभी किया, किंतु कृतकृत्य न हुई । कवि को कोशा की मादकता सात्त्विकी भक्ति के निदर्शन हैं। उनमें कहीं भी जगन्मा- निरस्त करना अभीष्ट था, अत: उसके रति-रूप और ताओं की सुहागरातों का नग्न विवेचन नहीं है। जिसे मां कामुक भावो का प्रकन ठीक ही हमा। तप की दृढ़ता कहा, उसके अग-प्रत्यंग में मादकता का रंग भरना उपयुक्त तभी है, जल वह बड़े से बड़े सौदर्य के प्रागे भी दृढ़ बना नहीं है । इससे मां का भाव लुप्त होता है और सुन्दरी रहे । कोशा जगन्माता नही, वेश्या थी। वेश्या भी ऐसीनवयौवना नायिका का रूप उभरता है । घनाश्लेप मे वैसी नही, पाटलिपुत्र की प्रसिद्ध वेश्या । यदि पप्रमूरि माबद्ध दम्पति भले ही दिव्यलोक-वासी हों, पाठक या उसके सौदर्य को उन्मुक्त भाव से मूर्तिमत्त न करते तो दर्शक में पवित्रता नहीं भर सकते । भगवान पति को अस्वाभाविकता रह जाती। उससे एक मुनि का संयम प्रारती के लिए भगवती पत्नी का अंगूठों पर खड़ा होना मूढ प्रमाणित हुमा। इसमें कही अश्लीलता नही है । ठीक है, किन्तु साथ ही पीनस्तनों के कारण उनके हाथ सच तो यह है कि दाम्पत्य रति के रूपक को रूपकही की पूजा-थाली के पुष्पों का बिखर जाना कहाँ तक भक्ति रहना चाहिए था, किंतु जब उसमे रूपकत्त्व तो रहा नहीं, परक है ।१ राजशेखर मूरि के 'नेमिनायफागु' में राल रति ही प्रमुख हो गई, तो फिर प्रशालीनता का उभरना का अनुपम सौन्दर्य अंकित है, किन्तु उसके चारों ओर एक भी ठीक ही था। जन कवि और काव्य इससे बचे रहे। ऐसे पवित्र वातावरण की मामा लिखी हुई है, जिससे इसी कारण उनकी शातिपरकता भी बची रही।। विलासिता को महलन प्राप्त नही हो पाती। उसके मौन्दर्य
हिदी के भक्त कवियोंने संस्कृत-प्राकृतकी शांतिधारा में जलन नहीं, शीतलता है। वह सु-दरी है किन्तु पावनता की मूत्ति है। उसको देखकर श्रद्धा उत्पन्न होती है । मैंने
का अनुगमन किया। बनादसीदास ने 'नाटक समयसार' में
'नवमो शात रसनिकौनायक' स्पष्ट रूप से स्वीकार किया। अपने ग्रन्थ हिंदी जैन भक्ति काव्य और कवि' मे लिखा
उनकी रचनाये इसकी प्रतीक है। आगे के कवि उनमे है, "जबकि भगवान के मंगलाचरण भी वासना के कैमरे से खीचे जा रहे थे, नेमीश्वर और राजुल मे मबधित
प्रभावित हैं। हिंदी क इन जैन कवियों का मत्र, यत्र और
शाति पाटो की रचना में मन न लगा। इनसे मंबधित मांगलिक पद दिव्यानुभूतियो के प्रतीक भर ही रहे।
हिदी काव्य मस्कृत-प्राकृत ग्रंथो के अनुवाद भर है। देवी उन्होंने अपनी पावनता का परित्याग कभी नहीं किया ।
पद्मावती, अम्बिका आदि मत्राधिष्ठात्री देवियो की स्तुनियाँ जिन पद्ममूरि के 'थूलिभद्दफागु'२ में कोशा के मादक
भी पूर्व काव्यो की छाया ही है। इनका मन लगा ससार
की पाकुलता और राग-दंपो के चित्राकन मे उन्होने १. "पादारस्थितया मुहुः स्तनभरेणानीतया नम्रता पुन.-पुनः मन को वीतगगता की पोर प्रापित किया।
शम्भोः सस्गृहलोचनत्रयपथं यान्त्या नदाराधने । इस दिशा में उनका पद-काव्य अनुपम है। मानव की ह्रीमत्या शिरसीहितः सपुलकस्वेदोद्गमोत्कमया मूल वृत्तियों के समन्वय ने उसे भाव-भीना बना दिया है। विश्लिप्यन्कुसुमाञ्जलिगिरिजया क्षिप्तोऽन्तरे पातूव.॥" वे साहित्यिक कृतियाँ हैं। उनमे उपदेश की रक्षना ना श्रीहर्ष, रत्नावली, प्रथम मगलाचरण ।
किञ्चित्मात्र भी नहीं है। कोई भी बात, चाहे उपदेश२. यह काव्य प्राचीन गुर्जर ग्रन्थमाला ३, मं० २०११, परक ही क्यों न हो, भावो के सांचे में ढल कर साहित्य पृ० ३.७ पर प्रकाशित हो चुका है।
बन जाती है। जैन हिंदी के प्रबध और खण्ड काव्यों का ३. देखिए 'हिन्दी जैन भक्ति काव्य मोर कवि', प्रथम भी मूल स्वर शांत रस ही है। अन्य रस भी हैं, किंतु मध्याय, पृ०४।
उनका समाधान शानरस में ही हुआ है। ऐसा करने में
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अनेकान्त
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कहीं भी खींचतान नहीं है, सब कुछ प्रासंगिक भोर है, उसका पास्वादन करने से परम मानन्द मिलता है। स्वाभाविक है।
वह मानन्द कामधेनु, चित्रावेलि और पंचामत भोजन के नरिदी के भक्ति-काव्यों में यदि एक और सांसा. समान समझना चाहिए। इस मानन्द को साक्षात करने रिक राग-द्वषों से विरक्ति है, तो दूसरी ओर भगवान वाला चेतन जिसके घट में विराजता है, उस जिनराज की से चरम शांति की याचना । उनको शाति तो चाहिए बनारसीदास ने वंदना की है । किंत अस्थायी नहीं। वे उस शांति के उपासक हैं जो यह जीव संसार के बीच में भटकता फिरता है किन्तु कभी पथकम हो। जब तक मन से दुविधा न मिटेगी, उसे शांति नहीं मिलती। वह अपने प्रष्टादश दोपों से वह कभी भी शांति का अनुभव नहीं कर सकता। और प्रपीड़ित है और प्राकुलता उसे सताती ही रहती है। यह दुविधा निजनाथ निरंजन के सुमिरन करने से ही भैया भगवतीदास का कथन है, "हे जीव ! इस संसार के दूर हो सकती है । कवि बनारसीदास अपनी चिंता व्यक्त असंख्य कोटिसागर को पीकर भी तू प्यासा ही है और इस करते हा कहते हैं, "न जाने कब हमारे नेत्र-चातक अक्षय- संसार के दीपो में जितना अन्न भरा है, उसको खाकर पद रूपी धन की बूदें चख सकेगे, तभी उनको निराकुल भी तू भूम्या ही है । यह सब कुछ अठारह दोपों के कारण शांति मिलेगी । और न जाने वह घड़ी कब पायेगी जब है। वे तभी जीते जा सकते हैं जब तू भगवान जिनेन्द्र हत्य में समता भाव जगेगा। हृदय के अंदर जब तक का ध्यान करे और उसी पथ का अनुसरण करे, जिस पर सगुरु के वचनों के प्रति दृढ श्रद्धा उत्पन्न नहीं होगी, पर- वे स्वयं चले थे। भैया की दृष्टि से अष्टादश दोष ही मार्थ सख नहीं मिल सकता। उसके लिए एक ऐसी अशांति के कारण हैं और वे भगवान जिन के ध्यान से लालसा का उत्पन्न होना भी अनिवार्य है, जिसमे घर छोड़
२. अनुभौ की केलि यहै कामधेनु चित्राबेलि, कर बन में जाने का भाव उदित हुप्रा हो।
अनुभौ को स्वाद पंच अमृत को कौर है । कवि बनारसीदाम ने 'शांतरस' को प्रारिमक रस कहा
बनारसीदास, नाटक समयसार, बम्बई, ३८ उत्थानिका, १. कब जिननाथ निरंजन सुमिगे,
१६वां पद्य, पृ० १७-१८॥ तज सेवा जन-जन की,
३. सत्य-सरूप सदा जिन्ह के, दुविधा क्ब जैहै या मन की ॥१॥
प्रगट्यो अवगत मिथ्यात निकंदन । कब रुचि सों पीवं दृग चातक,
सांत दमा तिन्ह की पहिनानि, बूंद प्रखयपद धन की।
कर कर जोरि बनारमि बंदन ॥ कब शुभ ध्यान धगें समता गहि,
वही छठा पद्य पृ०७॥ करून ममता तन की, दुविधा० ॥२॥
४. जे तो जललोक मध्य सागर असंख्य कोटि कब घट अन्तर रहै निरन्तर,
ते तो जल पियो पै न प्यास याकी गयी है। दृढ़ता सुगुरु बचन की,
जे ते नाज दीप मध्य भरे हैं मवार ढेर कब सुख लही भेद परमारथ,
ते ते नाज खायो तोऊ भूख याकी नई है। मिट धारना धन की, दुविधा० ॥३॥
तात ध्यान ताको कर जातं यह जाय हर, कब घर छोड़ होहुँ एकाकी,
अष्टादश दोप प्रादि ये ही जीत लई है। लिये लालसा वन की,
वहे पंथ तू ही साज अष्टादश जांहि भाजि, ऐसी दशा होय कब मेरी,
होय बैठि महाराज तोहि सीख दई है। हो बलि-बलि वा छन को, दुविधा० ॥४॥
भैया भगवतीदास, ब्रह्मविलास, जैनग्रंथ रत्नाकर बनारसीविलास, जयपुर १६५४, अध्यात्मपद पंक्ति, कार्यालय बम्बई, १९२६ ई० शत अष्टोत्तरी १६वा
कवित्त, पृ० ३२।
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मध्यकालीन न हिन्दी काव्य में सामक्ति
जीते जा सकते हैं। तभी यह जीव उस शांति का अनुभव अमर बनने की प्रार्थना करते हैं। क्योंकि पब क ग्रह करेगा, जो भगवान जिनेन्द्र में साक्षात् ही हो उठी थी। मनुष्य ससार के जन्म-मरण से छुटकारा नहीं पायेग, भैया का स्पष्ट अभिमत है कि राग-प में प्रेम करने के शान्ति प्राप्त नहीं कर सकता। जैन परम्परा में देवों को ही कारण यह जीव अपने परमात्म-स्वरूप के दर्शनों का प्रमर नहीं कहते । यहाँ अमरता का पथ है मोक्ष, जहाँ प्रानन्द नहीं ले पाता अर्थात् वह चिदानन्द के सुख से दूर किसी प्रकार की प्राकुलता नही होती ऐसी शान्ति वह ही रहता है । राग-दंप का मुख्य कारण है मोह, इसलिए ही दे सकता है, जिसने स्वयं प्राप्त कर ली है। वे संसारी मोह के निवारण से राग-द्वेप स्वय नष्ट हो जायेंगे, और साहिब'. जो बारम्बार जनमते हैं, मरते हैं, और जो स्वयं राग-द्वंपों के टलने से मोह तो यत्किचित् भी न रह भिखारी हैं. दूसरों का दारिद्रय कैसे हर सकते हैं३ । पायेगा । कर्म की उपाधि को समाप्त करने का भी यह भगवान 'शान्तिजिनेन्द', जो स्वयं शान्ति के प्रतीक हैं, ही एक उपाय है । जड़ के उखाड़ डालने से भला वृक्ष सहज में ही अपने सेवकों के भाव-द्वन्द्वों को हर सकते हैं। कैसे टहर मकना है। और फिर तो उसके डाल-पात, फल
भूधग्दाम उन्ही से ऐमा करने की याचना भी करते है।। फूल भी कुम्हला जायँगे। तभी चिदानन्द का प्रकाश
यह जीव मंसारिक कृत्यों के करने में तो बहुत ही होगा और यह जीव सिद्धावस्था में अनन्त सुख विलस
उतावला रहता है, किन्तु भगवान के सुमरन में सीरा हो सकेगा।
जाता है । जंगे कम करता है, वैसे फल मिलते हैं। कर्म मोह के निवारे राग द्वषहू निवारे जाहि,
करता है अशान्ति और याकुलता के, किन्तु फल में शांति राग-द्वेष टार मोह नेकहू न पाइए।
और निराकुलता चाहता है, जो कि पूर्णरीत्या असम्भव कर्म की उपाधि के निवारिबे को पंच यहै,
है। प्राक बोयेगा, ग्राम कैसे मिलेगे, नग हीरा नहीं हो जड़ के उखारं वृक्ष कैसे ठहराइए।
सकता। जंगे यह जीव विषयों के बिना एक क्षण भी डार-पात फल-फूल सबै कुम्हलाय जायं,
नही रह सकता, वैसे ही यदि प्रभु को निरन्तर जपे तो कर्मन के वक्षन को ऐसे के नसाइए।
सामारिक अशाति को पार कर निश्चय शांति पा तब होय चिदानन्द प्रगट प्रकाश रूप,
सकता है। विलस अनन्त सुख सिद्ध में कहाइए१ ॥ शान्तभाव को स्पष्ट करने के लिए भूधग्दास ने एक अनन्त सुख ही परम शान्ति है। भया न एक गुन्दर पृथक ही ढग अपनाया है। वे सामारिक वैभवों की से पद मे जैन मत को शान्तिरम का मत कहा है। शाति क्षणिकता को दिखाकर और ताजन्य बेचनी को उदघोकी बात करने वाले ही ज्ञानी है, अन्य तो सब प्रजाना ही जि
पित कर चुप हो जाते है और उसमे-मे शाति की ध्वनि,
. कहे जायगे।
संगीत की झंकार की तरह से फूटती ही रहती है। धन भूधरदामजी के स्वामी की शरण तो इमीलिए सच्ची और यौवन के मद में उन्मत्त जीवो को सम्बोधन करते है कि वे ममथं और सम्पूर्ण शान्ति-प्रदायक गुणो मे युक्त हुए उन्होंने कहा, "त् निपट गंवार नर! तुझे घमण्ड नहीं है। भूधरदास को उनका बहुत बड़ा भरोसा है। उन्हान करना चाहिए। मनप्य की यह काया और माया झूठी जन्म-जरा प्रादि बैरियों को जीत लिया है और मरन का है, अर्थात क्षणिक है। यह महाग और यौवन कितने टेव मे छुटकारा पा गये है। उनसे भूधरदास अजर और समय का है, और कितने दिन इम मसार में जीवित
रहना है। हे नर ! तू शीघ्र ही चेत जा और विलम्ब १. वही मिथ्यात्वविध्वंसन चतुर्दशी -वां कवित्त पृ० १२१ ।
३. भूधग्दास, भूधरविलास कलकत्ता ५३वा पद । २. शान्तरसवारे कहैं मत को निवारे रहैं।
१०३० वेई प्रानप्यारे रहैं और रमवारे हैं।
४. भूधरबिलाम, ३४वा पद, पृ० १६ । बही, ईश्वर निर्णय पच्चीसी छठा कवित्त, पृ० २५३। ५. वही, २२वा पद, पृ० १३ ।
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अनेकान्त
छोड़ दे। क्षण-क्षण पर तेरे बंध बढ़ते जायेंगे, और तेरा एक वृद्ध पुरुष की दृष्टि घट गयी है, तन की छबि पल-पल ऐसा भारी हो जायगा, जैसे भीगने पर काली पलट चकी है, गति बंक हो गयी है और कमर झुक गयी कमरी ।" भूधरदास ने एक दूसरे पद में परिवर्तन- है। उसकी घर वाली भी रूठ चुकी है, और वह अत्यधिक शीलता का सुन्दर दृश्य अंकित किया है। उन्होंने कहा, रंक होकर पलंग से लग गया है। उसकी नार (गर्दन) "इस संसार में एक अजब तमाशा हो रहा है, जिसका कांप रही है और मुंह से लार चू रही है। उसके सब अस्तित्व-काल स्वप्न की भांति है, अर्थात् यह तमाशा अंग-उपांग पुराने हो गये हैं, किन्तु हृदय में तृष्णा ने और स्वप्न की तरह शीघ्र ही समाप्त भी हो जायगा । एक के भी नवीन रूप धारण किया है। जब मनुष्य की मौत घर में मन की प्राशा के पूर्ण हो जाने से मगल-गीत होते माती है, तो उसने संसार में रच-पच के जो कुछ किया हैं, और दूसरे घर में किसी के वियोग के कारण नैन है, सब कुछ यहाँ ही पड़ा रह जाता है। भूधरदास जी ने निराशा मे भर-भर कर रोते है । जो तेज तुरंगों पर चढ़ कहा है, "तीव्रगामी तुरंग, सुन्दर रगों से रगे हुए रथ, कर चलते थे, और खासा तथा मलमल पहनते थे, वे ही ऊँचे-ऊंचे मन मतग, दास और खवास, गगनचुम्बी अट्टादूसरे क्षण नगे होकर फिरते है, और उनको दिलासा देन लिकाएँ और करोड़ों की सम्पत्ति से भरे हुए कोश, इन वाला भी कोई दिखाई नही देता । प्रातः ही जो राजतस्त मब को यह नर अत में छोड़ कर चला जाता है। प्रासाद पर बैठा हा प्रसन्न-बदन था, ठीक दोपहर के समय उसे खड़े-के-खडे ही रह जाते हैं, काम यहाँ ही पड़े रहते हैं, ही उदास होकर वन में जाकर निवास करना पड़ा। तन धन-सम्पत्ति भी यहां ही डली रहती है और घर भी यहाँ और धन अत्यधिक अस्थिर है, जैसे पानी का बताशा। ही धरे रह जाते हैं।" अधरदास जी कहते है कि इनका जो गर्व करता है उसके "तेज तुरंग सुरंग भले रथ, मत्त मतंग उतग खरे ही। जन्म को धिक्कार है ।२" यह मनुष्य मूर्ख है, देखते हुए।
दास खबास प्रवास अटा, धन जोर करोरन कोश भरे हो। भी अधा बनता है। इसने भरे यौवन मे पुत्र का वियोग
एसे बढ़े तो कहा भयौ हे नर, छोरिचले उठि अन्त छरेही। देखा, वैसे ही अपनी नारी को काल के मार्ग में जाते हए
धाम खरे रहे काम परे रहे दाम डरे रहे ठाम धरे ही॥"५ निरखा, और इसन उन पुण्यवानो को, जो सदैव मान पर
श्री द्यानतराय ने भी भगवान जिनेन्द्र को शाति चढ़े ही दिखाई देते थे, रक होकर बिना पनही के मार्ग
प्रदायक ही माना है। वे उनकी शरण में इमलिये गये है मे पैदल चलते हए देखा, फिर भी इसका धन और
कि शाति उपलब्ध हो सकेगी। उन्होंने कहा "हम तो जीवन से राग नही घटा । भूधरदास का कथन है कि ऐसी
नेमिजी की शरण में जाते हैं, क्योकि उन्हें छोड़कर और सूम की अंधी से राजरोग का कोई इलाज नही है। "देखो भरि जोवन में पुत्र वियोग प्रायो,
कही हमारा मन भी तो नहीं लगता। वे संसार के पापों
की जलन को उपशम करने के लिए बादल के समान है। तसे ही निहारी निज नारी काल मग में।
उनका विग्द भी तारन-तरन है। इन्द्र, फणीन्द्र और चन्द्र जे जे पुण्यवान जीव दीसत है यान हो , रंक भये फिर तेऊ पनही न पग में।
भी उनका ध्यान करते है। उनको सुख मिलता है और ऐते , प्रभाग धन जीतब सौ धरै राग,
४. "दृष्टि घटी पलटी तनकी छबि बंक भई गति लंक होय न विराग जान रहूँगो अलग मैं।
नई है। मांखिन विलोकि अन्ध सूसे को अंधरी,
रूस रही परनी घरनी प्रति, रंक भयो परियंक लई है। कर ऐसे राजरोग को इलाज कहाँ जग मैं ॥"३
कांपत नार वहै मख लार महामति सगति छारि गई है। १. वही, ११वाँ पद, पृ०७।
अग उपग पुराने परे तिसना उर और नवीन भई है।" २. वही, स्वाँ पद. पृ०६।
जैनशतक, कलकत्ता, ३८वा सर्वया, पृ० १२ । ३. भूधरदास, जनशतक, कलकत्ता, ३५वा पद, पृ० १५। ५. वही, ३१वां पद, पृ० ११ ।
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मध्यकालीन जैन हिन्दी काग्य में शान्ताभक्ति
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दुःख दूर हो जाता है ।"१ यहाँ बादल से झरने वाली हैं। उन्हें जन्म से ही पूर्व संस्कार के रूप में वीतरागता शीतलता परम शांति ही है। शांति को ही सुख कहते हैं मिलती है। उसी स्वर में वे पलते, बढ़ते, भोग-भोगते प्रोर वह भगवान नेमिनाथ के सेवकों को प्राप्त होती ही पौर दीक्षा लेते है । कभी विलासों में तैरते-उतराते, कभी है। द्यानतराय की दृष्टि में भी राग-द्वेष ही प्रशाति है राज्यों का संचालन करते और कभी शत्रुओं को पराजित और उनके मिट जाने से ही "जियग मुख पावेगा'. अर्थात करते; किन्तु वह स्वर सदैव पवन की भौति प्राणों में उसको शांति मिलेगी। परहंत का स्मरण करने से राग- भिदा रहता। अवसर पाते ही वह उन्हें वन-पथ पर ले द्वप विलीन हो जाते है, अत: उनका स्मरण ही सर्वोत्तम होडता। चिंताएं स्वत: पीछे रह जातीं। वीतरागता है । द्यानतराय भी अपने बावरे मन को सम्बोधन करते शक्लध्यान के रूप में फूल उटती। नासिका के अग्र भाग हुए कहते है, "हे बावरे मन ! प्रहत का स्मरण कर। पर टिकी दष्टि 'चिंताभिनिरोध' को स्पष्ट कहती। वह ख्याति, लाभ और पूजा को छोड़कर अपने अतर में प्रभु एकाग्रता की बात कहती ही रहती। और फिर मुख पर की लौ लगा। तू नर-भव प्राप्त करके भी उमे व्यर्थ में प्रानन्द का अनवरत प्रकाश छिटक उठता। अनुभव रस ही खो रहा है और विषय-भोगों को प्रेरणा दे-देकर बढा अपनी परमावस्था में प्रकट हो जाता। उसकी झलक से रहा है। प्राणो के जाने पर हे मानव ! तू पछतायेगा। तीर्थकर का सौदर्य अलौकिक रूप को जन्म देता, जिसे तेरी पायु क्षरण-क्षण कम हो रही है। युवती के शरीर, इन्द्र, सूर्य और चन्द्र जैसे रूपवन्तों का गर्व विगलित हो धन, सुत, मित्र. पग्जिन, गज, तुरंग और ग्थ में तेग जो बह जाता। यह सच है कि उन परमशांति का अनुभव चाव है, वह ठीक नही है। ये सामाग्कि पदार्थ स्वप्न की करते तीर्थकर के दर्शन मे 'अशुभ' नामधारी कोई कर्म माया की भॉति है, और आँख मीचते-मीचते समाप्त हो टिक नही मकता था। फिर यदि उनके स्मरण से अनहद जाते है। अभी समय है, तू भगवान् का ध्यान कर ले बाजा बज उठता हो तो ग़लत क्या है। जगराम ने और मंगल-गीत गा ले। और अधिक कडों तक कहा लिखा हैजाये फिर उपाय करने पर भी सध नही सकेगा।"२ निरखि मन मूरति कंसी राज। __ शुक्लध्यान में निरत तीर्थकर शांति के प्रतीक होते तीर्थकर यह ध्यान करत हैं, परमातम पद काजं । है। उनमें से सभी प्रकार की बेचैनियाँ निकल चुकी होती नासा प्रग्र दृष्टि की धार, मुख मुलकित मा गाज। १ "अब हम नेमिजी की शरन ।
अनुभव रस झलकत मानौ, ऐसा प्रासन शुद्ध विराज। पोर ठौर न मन लगत है, छांडि प्रभु के शरन ॥१॥
अद्भुत रूप अनूपम महिमा, तीन लोक में छाजं । सकल भवि-अघ-दहन बारिद, विरद ताग्न-तरन ।
जाकी छवि देखत इन्द्रादिक, चन्द्र सूर्य गण लाजं । इन्द्र चंद्र फनिन्द ध्या, पाय सुख दुःख हरन ॥शा"
परि अनुराग विलोकत जाकों, प्रशभ करम तजि भाज । द्यानतपदसग्रह, कलकत्ता, पहला पद, पृ० २ ।
जो जगराम बनं सुमिरन तौ, अनहद बाजा बाजे ॥३ २. अरहन्त सुमर मन बावरे !
संमार के दुःखों से त्रस्त यह जीव शाति चाहता है। ख्याति लाभ पूजा तजि भाई, अन्तर प्रभु लो लाबरे। यहाँ शांति का प्रथं शाश्वत शाति से है। अर्थात् वैभव नर भव पाय प्रकारथ खोव, विषय भोग जु बढाव रे। मौर निर्धनता दोनों ही में उमे शांति नहीं मिलती। प्राण गये पछित है मनवा, छिन छिन छीज प्राव रे । अथवा वह सांसारिक वैभवों से उत्पन्न सुख-विलास को युवती तन धन मृत मित परिजन, गज तुरग रथ चाव रे। शांति नही मानता। राग चाहे मम्पत्ति से सम्बन्धित हो यह संसार सुपन की माया, पाख मीचि दिखराव रे। या पुत्र-पौत्रादिक से, सदैव दाहकारी ही होता है। मखमल थ्याव-ध्याव रे प्रब है दावरे, नाही मगल गाव रे। - द्यानत बहुत कहाँ लौं कहिये, फेर न कछु उपाव रे। ३. पद मंग्रह न० ४६२, पत्र ७६, वधीचन्द जी का
द्यानत पद संग्रह, ७०वा पद, पृष्ठ २६-३०। मदिर जयपुर।
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अनेकान्त
और कमख्वाब के गहों पर पड़े लोगों को भी बेचनी से और रूप धारण कर नृत्य करता है। नृत्य करने की बात तड़फते देखा गया है। दूसरी पोर गरीबी तो नागिन-जैसी सूरदास ने भी, 'अब मैं नाच्यो बहुत गुपाल' शीर्षक पद जहरीली होती ही है। भूधरदास की यह पंक्ति "कहूँ न में भली भाँति स्पष्ट की है। यहाँ नृत्य का अर्थ है कि सुख संमार में सब जग देख्यो छान" देश-काल से परे एक जीव का संसार के चक्कर में फंसना और तज्जन्य सुखचिरंतन तथ्य है। इहलौकिक प्राकुलता से संतप्त यह दु:ख भोगना। वह जब तक आवागमन के चक्कर में जीव भगवान की शरण में पहुंचता है और जो शाति फंसा है, उमे नाचना पड़ेगा। यदि वह हर्प और शोक को मिलनी है, वह मानो सुधाकर का बरसना ही है, चिता- समान समझकर सहज रूप में उनसे उदासीन हो जावे तो मणिरत्न और नवनिधि का प्राप्त करना ही है। उसे वह ज्ञानी कहलाये और शांति का अनुभव करे। गीता ऐमा प्रतीत होता है जैसे प्रागे कल्पतरु लगा हुआ है। का यह वाक्य 'सुख दुःम्वे समे कृत्वा' जैन-शासन में पूर्ण उमकी अभिलापायें पूर्ण हो जाती हैं। अभिलाषाओं के रूप से प्रतिष्टित है। कवि त्रिभुवनचन्द्र (१७वीं शताब्दी) पूर्ण होने का अर्थ है कि मांसारिक गेग और संताप सदा- ने उसका सुन्दर निरूपण किया हैसदा के लिए पशम हो जाते हैं। फिर वह जिम सुख जहाँ है संयोग तहाँ वियोग सही, का अनुभव करता है वह कभी क्षीण नहीं होता और
जहाँ है जनम तहाँ मरण को बास है। उसमे अनस्यत शांति भी कभी घटती बढ़तं। नही। कवि संपति विपति वोऊ एकही भवनदासी कुमुदचन्द्र की यह विनती शांतरस की प्रतीक है
जहाँ बस सुष तहाँ दुष को विलास है। प्रभु पायं लागौं करू सेव थारी
जगत में बार-बार फिर नाना परकार, तुम सुन लो परज श्री जिनराज हमारी।
करम अवस्था झूठो थिरता की प्रास है। घणों कस्ट करि देव जिनराज पाम्यो
नट कैसे भेष और रूप होंहि तातै हसबै संसारनों दुख वाम्यो।
हरष न सोग ग्याता सहज उदास है ॥२ जब श्री जिनराजनो रूप बरस्यौ।
( संसार में पानेवाला यह जीव एक महार्घ तत्त्व से जब लोचना सुष सुषाधार वरस्यौ ।। सम्बन्धित है। वह है उसका निजी चेतन । उसमें परमामलहया रतनचिता नवनिधि पाई ।
शक्ति होती है। वह अपने प्रात्मप्रकाश से सदैव प्रदीप्त मानौं प्रागणे कलपतर प्राजि प्रायो। रहता है। किंतु यह जीव उसे भूल जाता है । इसी कारण मनवांछित दान जिनराज पायो।
उमे संसार मे नृत्य करने के लिए बाध्य होना पड़ता है । गयो रोग संताप मोहि सरव त्यागी ॥१ इस प्रकार भवन में 'भरमते-भरमते' उसे अनादिकाल बीत
जाता है। उसे सम्बोधन कर पाण्डे रुपचन्द ने लिखा हैसंसार की परिवर्तनशील दशा के अकन मे जैन कवि
अहो जगत के राय! तुम क्षणिक इन्द्रिय-सुख में लगे हो, अनुपम है। परिवर्तनशीलता का अर्थ है-क्षणिकता,
विषयों में लुभा रहे हो। तुम्हारी तृष्णा कभी बुझती नहीं। विनश्वरता । संसार का यह स्वभाव है। अत यदि यहाँ
विषयों का जितना अधिक सेवन करते हो, तृष्णा उतनी संयोग मिलने पर कोई प्रानन्द-मग्न और वियोग होने पर।
___ ही बढ़ती है, जैसे खारा जल पीने से प्यास और तीव्र ही दुःख-संतप्त होता है तो वह अज्ञानी है। यहाँ तो जन्म
होती है । तुम व्यर्थही इन दुखो को भेल रहे हो । अपने घर मरण, सपत्ति-विपत्ति, सुख-दुःख चिरसहचर है। संसार
को क्यों नही मंभालते। अर्थात् तुम्हारा घर शिवपुर है। तुम में यह जीव नाना प्रकार से विविध अवस्थाओं को भोगता
शिवरूप ही हो। तुम अपना-पर भूल गये हो। तुम इस हुमा चक्कर लगाता है। वह नट की भांति नाना वैष
२. अनित्यपचाशत (पाण्डुलिपि), लेखनकाल वि० सं० १. देखिए गुटका नं० १३३, लेखनकाल वि०सं० १७७६, १६५२, गुटका नं. ३५, लूणकरण जी का मंदिर, मदिर ठोलियान, जयपुर।
जयपुर।
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संसार के मालिक हो। चेतन को यदि यह स्मरण हो दष्टि से उन्हें श्री पंत जी का पूर्व संस्करण ही कहा जा जाये कि वह स्वयं भगवान है तो मंसार के सभी सकता है। उन्होने एक जगह लिखा है, "हे लाल ! दिनदुख स्वतः उपशम हो जायें-जहाँ के तहाँ पढे दिन प्राव घटती है, जैसे अंजली का जल शनैः शनैः रिस रहें। संसार में जन्म लेने के साथ ही यह जीव विस्म- कर नितांत चू जाता है। संसार की कोई वस्तु स्थिर रणशील मनोवेग साथ लाता है। कस्तूरी मृग को यह नही है, इसे मन में भली भांति समझ ले । तूने अपना विदित नहीं रहता कि वह सुगन्धि उसकी नाभि में मौजद बालपन खेल में खो दिया । जवानी मस्ती मे बिता दी। है, जिसके लिए वह भटकता फिरता है। मन्दिर, मस्जिद इतने राग-रंगों में मस्त रहा कि वद्धावस्था में शक्ति और कावे में परमात्मा को ढूढ़नेवाला यह जीव नही बिलकुल क्षीण हो गई। यदि तूने यह सोचा था कि वृद्ध जानता कि वह तो उसके भीतर ही रहता है। इसीलिए होने पर जप-तप कर लूंगा, तो वह तेरा अनुमान प्रसत्य जीव अज्ञानी कहलाता है। इसीलिए वह सांसारिक पाक- की छाया ही थी। तू मंसार के उन पदार्थों में तल्लीन लतामों में व्याकूल बना रहता है। उसकी शांति का सबसे है, जिनका कोई वास्तविक अस्तित्व नहीं है। वे सेमर के बड़ा उपाय है कि वह अपने को पहचाने । पाण्डे रूपचन्द्र फूल की तरह झूठ हैं। प्रातः के प्रोसकणों की भांति कोत्र ने लिखा है
ही विलुप्त हो जायेगे।" वे पंक्तियाँ हैअपनो पद न विचारहू, अहो जगत के राय।
दिन दिन प्राव घटं है रे लाल, भव वन छायक हो रहे, शिवपुर सुधि विसराय॥
ज्यों अंजली को नीर मन माहि लारे। भव-भव भरमत ही तुम्हें, बीतो काल अनादि।
कीयो जाय ठोकर लरे लाल, अब किन घरहिं संवारहू, कत मुख देखत वादि।
घिरता नहीं संसार मन माहि ला रे॥ परम प्रतीन्द्रिय सुख सुनो, तुमहि गयो सुलझाय ।
बालपणा षोयो ध्याल मेरे लाल, किंचित इन्द्रिय सुख लगे, बिषयन रहे लुभाय ॥
ज्वांणपों उनमान मन माहि ला रे। विषयन सेवत हो भले, तृष्णा तो न बुझाय।
वृद्धपणो सात घटी रे लाल, जिया जल खारो पीवत, बाढ़े तिसप्रधिकाय ॥१
करि करि नाना रंगि मन माहिलारे। श्री सुमित्रानन्दन पत ने परिवर्तन' में लिखा है, समकित स्यों परच्यो करी रे लाल, "मंदती नयन मृत्यु की रात, खोलती नवजीवन की प्रात, मिथ्या संगि निवारि मन माहि लारे। शिशिर की सर्व प्रलयकर बात, बीज बोती अज्ञात ।" ज्यों सुष पार्य प्रति घणा रे लाल, उनका तात्पर्य है कि मौत में जन्म और जन्म में मोत
मनोहर कहैय विचारि मन माहि ला रे ॥२ छिपी है। यह ससार अस्थिर है। जीवन अमर नही है। भारतीय मन सदैव भक्ति-धारा से सिञ्चित होना संसार के सुख चिन्तन कही हैं। श्री पंत जी की कविता रहा उनके जन्म-जन्म के संस्कार भक्ति के सांच में का यह स्वर जैन 'टोन' है। यदि यह कहा जाय कि पत ढले हैं । हो सकता है कि उमकी विधाये विकृत दिशा की जी की अन्य कवितामों का आध्यात्मिक स्वर जैन परम्पग मोर मृड गई हों। किन्तु मूल में विराजी भक्ति किचिन्मात्र से हू-बहू मिलता-जुलता है, तो अन्युक्ति न होगी। जैन भी इधर से उधर नही हुई, यह सच है। एक विलायत सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य में उन सबका अध्ययन होना पाव- से लौटा भारतीय भी मन से भक्त ही होता है। विज्ञान श्यक है। अठारहवीं शताब्दी के प्रारम्भ (१७०५) में की प्रयोगशालायों में डूबा वैज्ञानिक भगवान को निरस्त एक जैन कवि पं. मनोहरदास हुए है। भावधाग को नहीं कर पाता । माधुनिकता के पैरोकार परमपिता का
नाम लेते देखे गये हैं। वैदिक और श्रमण दोनो परम्पराये १. देखिए पाण्डं रूपचन्द्र रचित परमार्थी दोहा शतक ।
यह 'रूपचन्द्र शतक' के नाम से जन हितपी, भाग ६, २. देखिए सुगुरुगीप, पं. मनोहरदास रचित, गुटका नं. अंक ५.६ में प्रकाशित हो चुका है।
५४, वेन न० २७२, जैन मंदिर, बड़ौत (मेरठ)।
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अनेकान्त
भगवान के नाममें अमित बल स्वीकार करती हैं। सच्चे नातर के भवधि में परिहै भयो चहेंगति दौरा। हृदय से लिया गया नाम कभी निष्फल नहीं जाता । उससे विसभूषण पदपंकज राच्यो ज्यों कमलन बिच भौंरा॥४ विपत्तियां दूर हो जाती हैं । बेचैन, व्याकुल और तड़फता 'भैया' भगवतीदास ने 'ब्रह्मविलास' में भगवदनाम मन शांति का अनुभव करता है यह केवल अतिशयोक्ति की महिमा का नानाप्रकार से विवेचन किया है। उनकी नहीं है कि गणिका, गज और अजामिल नाम लेने मात्र मान्यता है कि "भगवान का नाम कल्पवृक्ष, कामधेनु, से तर गए थे। अवश्य ही उसने उनके हृदय में परम चिंतामणि पौर पारस के समान है। उससे इस जीव की शांति को जन्म दिया होगा। परम शांति ही परम पद इच्छायें भरती है। कामनायें पूर्ण होती हैं। चिंता दूर है-मोक्ष है, संसार से तिरना है। यह बात केवल तुलसी हो जाती है और दारिद्रय डर जाता है। नाम एक प्रकार और मूर ने ही नहीं लिखी, जैन कवि भी पीछे नहीं रहे। का अमृत है, जिसके पीने से जग गेग नष्ट हो जाता है। महा कवि मनराम ने लिखा, "महन्त के नाम से पाठ अर्थात् मृत्यु की आशंका नहीं रह पाती। यह जीव मत कम रूपी शत्र नष्ट हो जाते हैं।"१ यशोविजय जी का से अमृत की ओर बढ़ जाता है। मौत का भय ही दुख कथन है, "अरे यो चेतन ! तू इस मंसार के भ्रम में क्यों है । उसके दूर होने पर सुख स्वतः प्राप्त हो जाता है। फंसा है। भगवान जिनेन्द्र के नाम का भजन कर । सद्- ऐसा सुख जो क्षीण नही होता। इसे ही शाश्वत आनन्द गुरु ने भी भगवान का नाम जपने की बात कही है।"२ कहते हैं । कितु वीतरागताकी ओर बढ़ रहा है।"५ ऐमी द्यानतगय का अटूट विश्वाम है, "रे मन ! भज दीन- शतं तुलसी ने 'ज्ञान-भक्ति विवेचन' में भी लगायी है ।६ दयाल । जाके नाम लेत इक छिन में, कटै कोट अघ- उनकी दृष्टि में हर कोई भगवान का नाम नही ले जाल ।"३ कवि विश्वभूषण की दृष्टि में इम बौर जीव मकता। पहले उसमे नाम लेने की पात्रता चाहिए। को सदैव जिनेन्द्र का नाम लेना चाहिए। यदि यह परम इसका अर्थ यह भी है कि पहले मन का भगवान की ओर तत्त्व प्राप्त करना चाहता है, तो तन की पोर से उदामीन उन्मुग्व होना आवश्यक है। ऐसा हुए बिना नाम लेने की हो जाये। यदि ऐसा नही करेगा तो भव-समुद्र में गिर बात नही उठती। उसके लिए एक जैन परिभाषिक शब्द जायगा और उसे चहुँगति मे घूमना होगा। विश्वभूपण है 'भव्य' उमका तात्पर्य है-भवसागर से तरने की भगवान के पदपकज में इस भांति राँच गए है। जैसे -
४. पद संग्रह नं० ५८, दि० जैन मंदिर, बड़ौत, कमलों में भौंरा
पन्ना ४८ । "जिन नाम ले रे बौरा, जिन नाम लरे बौरा। ५ "तेरो नाम कल्प वृक्ष इच्छा को न राखे डर, जोत परम तत्त्व कौ चाहै तौ तन को लगे न जौरा॥ तेगे नाम कामधेनु कामना हरत है ।
तेरो नाम चिन्तामन चिन्ता को न राखे पास,
तेरो नाम पारस सो दारिद डरत है ।। १. "करमादिक अग्नि को हर अरिहंत नाम,
तेरो नाम अमृत पिये ते जरा गेग जाय, मिद्ध कर काज सब सिद्ध को भजन है।"
तेरो नाम सूख मूल दुख को दरत है। मनराम विलाम, मनगम रचित, मन्दिर ठोलियान,
तेरो नाम वीतराग धरै उर वीतरागी, जयपूर की हस्तलिखित प्रति।
भव्य तोहि पाय भवसागर तरत है।" २. 'जिनवर नामसार भज प्रातम, कहा भरम ससारे ।
सूपथ-कुपंथ पचीसिका, ब्रह्मविलास, भैय्या भगवतीमुगुरु वचन प्रतीत भये तब, प्रानन्द धन उपगारे।।"
दास, पृ० १८०। प्रानन्दधन प्रष्टपदी, प्रानन्दघन, पानन्दघन बहत्तरी,
सोलार रायचन्द्र ग्रन्थमाला, बम्बई।
पाव भगति मनि सब सुख खानी॥" ३. द्यानतपद संग्रह, कलकत्ता, ६६वा पद, प० २८ । देखिये रामचरित मानस, जान भक्ति विवेचन ।
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मध्यकालीन जैन हिन्दी काव्य में शान्ताभक्ति
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ताकत । जिसमें वह नहीं उस पर भगवान की कृपा नहीं को प्राचार्य हेमचन्द्र का पूर्ण प्राशीर्वाद प्राप्त था। होती। भव्यत्त्व उपाजित करना अनिवार्य है। यदि हेमचन्द्र ने बिना तरतमांश के उस देव को नमस्कार किया, भगवान के नाम को कोई भव्य जीव लेता है तो उसके जिसके रागादिक दोष क्षय को प्राप्त हो गये हों, फिर भवसागर तरने में कोई कमी नहीं रहती। इस भव्यत्त्व वह देव ब्रह्मा, विष्णु, हर या जिन कोई भी हो। उनका को वैष्णव और जैन दोनों ही कवियों ने स्वीकार एक श्लोक हैकिया।
"भवबीजांकुरजनना रागापाः यमुपागता यस्य । भारतीय भक्ति परम्परा की एक प्रवृत्ति रही है कि ब्रह्मा वा विष्णुर्वा हरो जिनो वा नमस्तस्मै । अपने आराध्य की महत्ता दिखाने के लिए अन्य देवो को यत्र तत्र समये यथा तथा योऽसि सोऽस्यभिषया यया तया। छोटा दिखाया जाये । तुलसी के गम और सूर के कृष्ण बीतदोपकलुषः स चंद्भवानेक एव भगवन्नमोस्तु ते ॥"३ की ब्रह्मा, शिव, सनक, स्यन्दन ग्रादि सभी देव याराधना इसी भांति एक अन्य जैन भक्त कवि देवी पद्मावती करते है । तुलसी ने यहाँ तक लिखा है कि जो स्वय भीख की पागधना करने को उद्यत हा तो अन्य देवियों की माँगते है वे भक्तों की मनोकामनायो को कैसे पूरा करेंगे। निन्दा न कर मका। उसने कहा कि देवी पद्मावती ही सूरदास ने अन्य देवों से भिक्षा मांगने को रसना का व्यर्थ सुगमता मे तारा, शैवागम में गौरी, कौलिक शामन मे प्रयास कहा ।१ तुलसी का कथन है कि अन्य देव माया वज्रा और सांख्यागम में प्रकृति कहलाती है। उनमें कोई से विवश है, उनकी शरण में जाना व्यर्थ है ।२ तुलमी को अन्तर नहीं है। कोई छोटी-बडी नहीं है। कोई महान दृष्टि में राम ही शील, शक्ति, और सौन्दर्य के चरम लघ नहीं है। मव समान है। सब की शक्तियाँ समान अधिष्ठाता है। कृष्ण भी वैसे नहीं हो सकते । गूर का हैं। उस मां भारती से समस्त विश्व व्याप्त है। ऐसा समूचा 'भ्रमर गीत' निर्गुण ब्रह्म के खण्डन में ही बपा-मा अाराधक ही सच्चा भक्त है। जिसमे दूगगे के प्रति निन्दा प्रतीत होता है जन कवियो ने भी सिवा जिनन्द्र के अन्य और कटता का भाव मा गया, वह सात्त्विकता की बात किसी को पाराध्य नहीं माना। मैंन अपने ग्रन्थ 'जैन नहीं कर सकता। उमका भाव दूपित है। जिसने भक्ति हिंदी भक्ति काव्य और कवि' में भक्ति-धारा की इम क्षेत्र में भी पार्टी बन्दी की बात की वह भक्त नहीं और प्रवृत्ति का समर्थन किया है। मेरा तर्क है कि भक्त चाहे कुछ हो।सा व्यक्ति शान्ति का हामी नहीं हो कवियों ने यह काम प्राराध्य में एकनिष्ठ भाव जगान के मकना । उमका काम व्यथं होगा और पागधना लिए ही किया होगा। किन्तु साथ ही मैंने यह भी स्वीकार निष्फल । वीतगगियों को भक्ति पूर्ण रूप से हिमक किया है कि इस 'एकनिष्ठता' की प्रोट मे वैष्णव और होनी चाहिए यदि ऐमी नहीं हुई तो वह भक्त के जैन दोनो ही कड़वाहट नहीं रोक सके। दोनो ने शाली- भावों को विकृति ही माननी पड़ेगी। किन्तु इम क्षेत्र नता का उल्लंघन किया। फिर भी अपेक्षाकृत जनकवि में बहुत हद तक अहिमा को प्रश्रय मिला, यह मिथ्या अधिक उदार रहे। उनमें अनेक ने तो पूर्ण उदारता- नही है। उपर्यक्त श्लोक हैबरती। यह इतिहास-प्रसिद्ध बात है कि प्रभास पट्टन "तारा त्वं सगतागमे, भगवती गौरीति शैवागमे । के सोमनाथ के मन्दिर के उद्वार मे सम्राट् कुमारपाल वजा कौलिकशासने जिनमते पद्मावती विश्रुता ॥ १. "जांचक जांचक कह जाँच ।
गायत्री श्रुतिशालिनी प्रकृतिरित्युक्तासि सांख्यागमे । जो जाँच तो रसना हारी॥" मातभरिति ! कि प्रभूत भणितं, व्याप्त समस्तं त्वया ॥"४ सूर सागर, प्रथम स्कंध, ३४वा पद, पृ० ३० ३. प्राचार्य हमचन्द्र का श्लोक, देखिए मेग ग्रन्थ 'हिन्दी २. "देव दनुज मुनि नाग मनुज सब माया-विबम विचारे। जैन भक्ति काव्य और कवि', पहला अध्याय १० १२
तिनके हाथ दास तुलसी प्रभु, कहा अपुन पौ हारे ।।" ४. पद्मावती स्तोत्र, २०वा श्लोक, भैरव पद्मावती कल्प, विनय पत्रिका, पूर्वार्ष, १०१वा पद, पृ० १९२। अहमदाबाद, परिशिष्ट ५, पृष्ट २८ ।
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प्रनेकान्त
कुछ था
उनमें
सब एक
यह पावनता जैन हिन्दी कवियों में भी पनपी । उनके काव्य में अपने प्राराध्य की महत्ता है । अन्य देवो की बुराई भी । किन्तु अनेक स्थल तरतमांश से ऊपर उठे है, या उन्हें बचाकर निकल गए हैं। महात्मा ग्रानन्दघन का ब्रह्म अखंड सत्य था। अखंड सत्य वह है जो अविरोधी हो, अर्थात् उसमें किसी भी दृष्टि से विशेष की सम्भावना न हो कोई धर्म या प्रादर्श, जिसका दूसरे धर्मो से विरोध हो, अपने को प्रखण्ड सत्य नही कह सकते । वे खण्ड रूप से सत्य हो सकते हैं। आनन्दघन का ब्रह्म राम रहीम, महादेव, ब्रह्मा और पारसनाथ सब प्रापम में कोई विरोध नहीं था। वे उनमें तरतमांश था और न उनके महात्मा जी का कथन था कि जिस मिट्टी एक होकर भी पात्र भेद से अनेक नामो पुकारी जाती है, उसी प्रकार एक प्रखण्ड रूप ग्रात्मा में विभिन्न कल्पनात्रों के कारण अनेक नामों की कल्पना कर ली जाती है । उनकी दृष्टि से निज पद मे रमन वाला राम है रहम करने वाला रहमान है, कर्मों का कर्पण करने वाला कृष्ण है, निर्वाण पाने वाला महादेव है, अपने रूप का स्पर्श करने वाला पारस है, ब्रह्म को पहचानने वाला ब्रह्म है । वे इस जीव के निष्कर्म चेतन को ब्रह्म कहते है। उनका कथन है
रूप में
प्रकार
से
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।
थे । न
भेद था ।
"राम कहो, रहमान कहो कोऊ, कान कही महादेव री । पारसनाथ कहो, कोई ब्रह्मा, सकल ब्रह्म स्वयमेव री । भाजन भेव कहावत नाना, एक मृतिका रूप रो । तैसे खण्ड कल्पना रोपित श्राप प्रखण्ड सरूप री । निजपद एवं राम सो कहिए, रहिम करे रहिमान से क करम कान सो कहिए, महावेव निर्वाण री । परसे रूप पारस सो कहिए, ब्रह्म चिन्हे सो ब्रह्म री । इह विधि साघो प्रानन्दघन, चेतननय निष्कर्म री ॥ " १
इस प्रकाद की उदार परम्पराम्रों ने जैन काव्यो में शान्ता भक्ति के रूप को शालीनता के साथ पुष्ट किया था। इसी सन्दर्भ मे माया की बात भी प्रा जाती है । माया, मोह और संतान पर्यायवाची है। संत, वैष्णव धर
१. महात्मा ग्रानन्दघन, आनन्दघन पद संग्रह, अध्यात्म ज्ञान प्रसारक मंडल, बम्बई, ६७वीं पद |
जैन तीनों ही कवियों ने शान्ति के लिए उसके निरसन को अनिवार्य माना । वह अज्ञान का प्रतीक है । उसके कारण ही यह जीव संसार के आवागमन मे फंसा रहता है । यदि वह हट जाय तो समस्त विश्व ब्रह्म रूप प्रतिभासित हो उठे। वह दो प्रकार से हट सकती है— ज्ञान से और भक्ति से सांख्यकारिका में एक अत्यधिक मनोरजक दृष्टान्त झाया है। प्रकृति सुन्दरी है और पुरुष को लुभाने में निपुण है, किन्तु जब पुरुष उसे ठीक से पहचान जाता है, तो वह लज्जा से अपना बदन ढँक दूर हो जाती है। ठीक से पहचानने का अर्थ है कि जब पुरुष को ज्ञान उत्पन्न हो जाता है और वह प्रकृति के मूल रूप को समझ जाता है तो वह प्रवृति माया पलायन कर जाती है२ । जैन सिद्धांत मे ज्ञान ही आत्मा है । यहाँ आत्मा का अर्थ है विशुद्ध ग्रात्मा प्रर्थात् जब जीवात्मा मे विशुद्धता प्राती है तो मोह स्वतः ही हटता जाता है। जैन आचार्यो ने आठ कर्मों मे मोहनीय को प्रबलतम माना है । 'स्व' को सही रूप में पहचानने में वह ही सबसे बड़ा बाधक है । उसकी जड को निर्मूल करने में ज्ञानी ग्रात्मा ही समर्थ है बनारसीदाग का वचन है, "माया बेली जेसी देसी । रेते में धारेती सेती, फंदा ही को कदा खोद खेती को सो जोपा है ।३ सास्य की मी बात भैय्या भगवतीदास ने बिनास में कही है। उन्होंने लिखा कि कायारूपी नगरी में चिदानन्द रूपी राजा राज्य करता है । वह माया रूपी रानी में मग्न रहता है। जब उसका सत्यार्थ की ओर ध्यान गया, तो ज्ञान उपलब्ध हो गया और माया की विभोरता दूर हो गई, "काया-मी जु नगरी में चिदानन्द राज करें, माया-मी जु गमी मगन बहु भयो है।"४ कबीरदास ने भी जब उसका भेद पा लिया तो वह बाहर जा पड़ी। उनका भेद पाना ज्ञान प्राप्त करना ही है ।
-
२. प्रकृतेः सुकुमारन किञ्चिदस्तीति मे मतिर्भवति । या दृष्टाऽस्मीति पुननं दर्शनमुपैति पुरुषस्य ॥" सांख्यकारिका, चौखम्बा मस्कृत सीरीज, प्रथम मस्करण, वि० सं० १९९७, ६१ लोक
"
नाटक समयसार, मोक्षद्वार, तीसरा पद्य
शत प्रष्टोत्तरी, २८ सवैया, ब्रह्मविलास, पृ० १४ ।
३.
४.
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मध्यकालीन जंन हिन्दी काव्य में शान्ताभक्ति
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ज्ञान के बिना माया मजबूत चिपकन के साथ संसारी जीव वचनों से मोह विलीन होता है और भ्रात्मरस प्राप्त होता को पकड़े रहती है। है५ । बनारसीदास ने गुरु को महत्त्वपूर्ण स्थान दिया है । मोह जन्य बेचनी दूर होने का एक मात्र उपाय गुरु का प्रदेश है। यदि ग्रात्मा 'प्रलख प्रखय निधि' लूटना चाहती है तो उसे गुरु की सद्वाणी से लाभान्वित होना ही चाहिए। उनका कथन है, "गृह उपदेश सहज उदयागति, मोह विकलता छूट। कहत बनारसि है करुनारसि भलख प्रखयनिधि लूटं ।" इस घट में सुधा-सरोवर भरा है। जिससे सब दुख विलीन हो जाते हैं। उस सरोवर का पता लगना आवश्यक है। वह सतगुरु से लग सकता है। सतगुरु भक्ति से प्रसन्न होते है। उनपर मन केन्द्रित करना पडता है । कवि विनयविजय ने लिखा"सुधा सरोवर है या घट में, जिसतें सब दुख जाय । विनय कहे गुरुदेव दिखाये, जो लाऊं बिल ठाय ॥ प्यारे काहे कूं ललचाय ॥ "७ श्रात्मरस ही सच्ची शांति है। वही अलख श्रग्वयनिधि है । वह अनुभूति के बिना नहीं होता बढ़ा की, भगवानकी या परमात्मा की अनुभूतिही धारमरस है। धनुभूतिके बिना नालोंकरोड़ों भवों में जप-तप भी निरर्थक है। एक स्वांग की अनुभूति जितना काम करती है । भव-भव की तपस्या और साधना नहीं। द्यानतरायने लिखा है, "लाख कोटि भव तपस्या करते, जितो कर्म तेरो जर रे स्वास उस्वाम माहि सो ना जब अनुभव चित पर रे । बनारसीदाम ने अनुभूति को अनुभव रहा है उसका मानन्द कामधेनु, चित्राबेल के समान है। उसका स्वाद पंचामृत भोजन। जैसा है । कवि रूपचन्द ने 'अध्यात्मगया' में स्वीकार
तुलसीदास ने भक्ति के बिना माया का दूर होता असम्भव माना है। इस सम्बन्ध में रघुपति की दया ही मुख्य है। वह भक्ति से प्राप्त होती है। तुलसी ने विनयपत्रिका में लिखा है, "माधव धस तुम्हारी यह माया, करि उपाय पचि मरिय तरिय नहि, जब लगि करहु न दाया१" जैन कवि भूधरदाय ने मोह-पिशाच को नष्ट करने के लिए 'भगवन्त भजन' पर बल दिया । उसको भूलने पर तो मोह से कोई छुटकारा नही पा सकता। उन्होंने लिखा है " मोह पिशाच छत्यो मति मारे, निजकर कंध वसूला रे भज श्री राजमतीवर भूधर दो दुरमति सिर धूला रे । भगवंत भजन क्यों भूला रे२ ।" कबीर की दृष्टि में माया से छुटकारा प्राप्त करने के लिए सतगुरु की कृपा आवश्यक है। कबीरने सतगुरु को योविन्द से बड़ा माना है । उनका कथन है कि यदि गुरु की कृपा न होती तो वह इस जीव को नष्ट कर डालती । क्योकि वह मीठी शक्कर की भांति शीरनी होती है। जायसी नं भी माया का लोप करने के लिए सतगुरु की कृपा को मह त्वपूर्ण समझा था । उन्होंने लिखा है कि जबतक कोई गुरु को नहीं पहचानता उसके और परमात्मा के मध्य अन्तगल बना ही रहता है। जब पहचान लेता है तो जीव और ब्रह्म एक हो जाते है। उनका मध्यान्तर मिट जाता है । जायमी की मान्यता है कि यह अन्तर माया जन्य ही है४ । भैया भगवतीदास को पूरा विश्वास है कि सतगुरु के १. विनयपत्रिका, पूर्वा ११६ पद २. भूपरविलास, कलकत्ता, १६ व पद, पृ० ११ ३. कबीर माया मोहनी, जैसी मोटी खांड ।
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2
समगुरु की कृपा भई, नहीं तो करती भांड." माया को पंग, ७ वीं सारवी, कबीर ग्रन्थावनी,
४.
काशी चतुर्थ संस्करण, पृ० ३३ ।
"जब लगि गुरु कौ लहा न चीन्हा । कोटि अन्तरपट बीचहि दीन्हा ॥ जब चीहा तब घर न कोई तन मन जित जीवन सब सोई ॥" देखिए जायसी कृत पद्मावत ।
',
५. सतगुरु वचन धारिले धबके जातें मोह विलाप । तब प्रग मानमरम भैया, सो निश्चय टहराव ॥" भैया भगवनीदाम, परमार्थपदपंक्ति, २५ व पद ब्रह्मविलास, पृ० ११८ । ६. बनारसीदाम, अष्टपदीमल्हार, ८ वां पद्य, बनारसीविलास, जयपुर, पृ० २३९ ।
७. विनयविजय प्यारे काई कुलवा' शीर्षक पद अध्यात्मपदावली कानी, पृ० २२१ ।
८. द्यानतपदसंग्रह, कलकत्ता, १८ ७३ वां पृ० ३१ ।
२. बनारसीदाम, नाटकसमयसार, बम्बई, १२ व प पृ० १७-१८ ।
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२१०
मनेकान्त
16
किया है, "मात्म ब्रह्म की अनुभूति से यह चेतन दिव्य प्रकाश से युक्त हो जाता है। उसमें धनन्तज्ञान प्रकट होता है औौर यह अपने आप में ही लीन होकर परमानन्दका अनुभव करता है १ ।" आत्मा के अनूपरस का संवेदन करने वाले अनाकुलता प्राप्त करते हैं । प्राकुलता बेचैनी है। जिससे बेचैनी दूर हो जाय, वह रस अनुपम ही कहा जायेगा। यह रस अनुभूति से प्राप्त होता है, तो धनुभूति करने वाला जीव शाश्वत सुखको विलसने में समर्थ हो जाता है । पं० दीपचन्द शाह ने ज्ञानदर्पण में लिखा है, "अनुभी विलास में अनंत सुख पाइयतु । भव की विकारता की भई है उछेदना ||" उन्होंने एक दूसरे स्थान पर लिखा, अनुभौ उल्हास में अनंतरस पायौ महा ।।" यह श्रखण्ड रस और कुछ नहीं साक्षात् ब्रह्म ही है। अनुभूति की तीव्रता इस जीव को ब्रह्म ही बना देती है । श्रात्मा परमात्मा हो जाती है। अनुभव से संसार का आवागमन मिटता है । यदि अनुभव न जगा तो, "जगत की जेती विद्या भासी कर रेखावत, कोटिक जुगातर जो महातप कीने हैं। अनुमो मण्डरस उरमें न धायौ जो तो सव-पद पावे नाहि पररस भीने २ ।" किन्तु यह महत्त्वशाली तत्त्व भगवान की कृपा से ही प्राप्त हो सकता है । महात्मा मानन्दघन का कथन है, "मोको दे निज अनुभव स्वामी निज अनुभूति निवास स्वपामी३ ।" इस अनुभूति से जो संयुक्त है वही अनंत गुग्गातम धाम है । अनुभव रूप होने के कारण ही भगवान नाम भी दुख हरण करने वाला और प्रतिभव को दूर करने वाला है । महात्मा का कथन है कि प्रभु के समान और कोई नटवा नही है । उसमे से हेयोपादेय प्रकट होते हैं। अनुभव रसका देनेवाला इष्ट है, वह परम प्रकृष्ट और सब कष्टों से रहित है। उसकी अनुभूति ही चित्र की भ्रांति को हर सकती है। यही सूर्य की किरण की भांति प्रज्ञान के तमस को नष्ट करती १. रूपचन्द्र अध्यात्मसवैया, मन्दिर बधीचंद्र जी, जयपुर की हस्तलिखित प्रति ।
२. दीपचदशाह, ज्ञानदर्पण, तीनों उदाहरण- क्रमश पद्य
० १०१ १७५ १२६ संकलित मध्यात्म पचसंग्रह प० नाथूलाल जैन सम्पादित, तुकोगंज, इन्दौर- वि० सं० २००५, पृ० ६१,५६, ४४ क्रमश. । ३. महात्मा ग्रानन्दघन, आ० पद सग्रह बम्बई २१वा पद ।
है । वह माया रूपी यामिनी को काट कर दिन के प्रकाश को जन्म देती। वह मोहामुर के लिए काल-रूपा है
"या अनुभूति रावरी हरं विस की भ्रान्ति
सा शुद्धा तुव भानु की किरण जु परम प्रशान्ति ॥ किरण ज् परम प्रशान्ति तिमिर यवन जु को नासं । माया यामिनि मेटि बोध दिवसेज विभास ॥ मोहासुर सरकार ज्ञानमूला जु विभूती। भावे दौलत ताहि रावरी या अनुभूती ॥४
जैन कवियो के प्रबन्ध और खण्ड काव्यों में 'शान्तरस' प्रमुख है । अन्य रसों का भी यथा-प्रसंग सुन्दर परिपाक हुआ है, किन्तु वे सब इसके सहायक भर हैं । जिस प्रकार ग्रवान्तर कथायें मुख्य कथा को परिपुष्ट करती है उसी प्रकार अन्य रस प्रमुख रस को और अधिक प्रगाढ़ करते हैं। एक प्रबन्ध काव्य में मुख्य रस की जितनी महना होती है, महायक रमों की उससे कम नहीं | पं० रामचन्द्र शुक्ल अवान्तर कथाओं को रस की पिचकारियां कहते थे, सहायक रस भी वैसे ही होते है वे अवान्तर कथाओं और प्रासंगिक घटनाओ के संघटन में सन्निहित होते हैं और वहां ही काम करते है। एक महानद के जल प्रवाह में सहायक नदियों के जल का महत्त्वपूर्ण योगदान होता है, वैसे ही मुख्य रस की गति भी अन्य रसो से परिपुष्ट होती हुयी ही वेगवती बनती है । किन्तु इसका तात्पर्य यह नहीं है कि मुख्य रस केवल परिणति होता है, प्रारम्भ नही । यद्यपि प्रत्येक रस अपने-अपने क्षेत्र मे स्वतन्त्र और बलवान होता है किन्तु उसके अन्तरंग में मुख्य रस का स्वर सदैव हलके सितार की भांति प्रतिध्वनित होता ही रहता है । एक प्रबन्ध काव्य में घटनाएँ, कथाएँ तथा अन्य प्रसंग होते हैं, जिनमें मानव-जीवन के विविध पहलुों की अभिव्यक्ति रहती है किन्तु उनके जीवन में मुख्य रस एक प्राण तत्व की भांति भिदा रहता है और उनमें मानव की मूल मनोवृत्तियों को खुला खेलने का पूरा अवसर मिलता है। मुख्य रस प्रोर मुख्य कथा भी होती है। दोनों में कोई विशेष नहीं होता। दोनों दूध-पानी की भाँति मिले रहते हैं । श्रतः जैन काव्यों के ४. पं० दौलतराम, ग्रामवारी दि०जैन पंचायती, मन्दिर, बड़ौत, ११८वां १द्य ।
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मध्यकालीन अन हिन्दी काव्य में शान्ताभक्ति
२११
विषय में डा० शिवप्रसादसिंह का यह कथन, "जैन काव्यों स्वम्भू के 'पउमचरिउ' की, महापण्डित' राहुल सांकृत्यायन में शांति या शम की प्रधानता है अवश्य किंतु वह प्रारम्भ ने भूरि-भूरि प्रशंसा की थी। उनका पूरा विश्वास है कि नहीं परिणति है। सम्भवतः पूरे जीवन को शम या तुलसी बाबा का रामचरित मानस, 'पउमचरिउ' से विरक्ति का क्षेत्र बना देना प्रकृति का विरोध है।"१ प्रभावित है४ । पुष्पदन्त के महापुराण का डा० पी० एल० उपयुक्त प्रतीत नहीं होता। अन्य काव्यों की भांति ही वैद्य ने सम्पादन किया है। इनकी मान्यता है कि महाजैन काव्य हैं। इसमें भी एक मुख्य रस और अन्य ग्म काव्यों में वह एक उत्तम कोटि का ग्रन्थ है । 'भविसयत्तरहते हैं । केवल शम को मुख्य रस मान लेने से प्रकृति का कहा' की खोज का श्रेय जर्मन के प्रसिद्ध विद्वान प्रो. विरोध है, शृङ्गार या वीर को मानने से नहीं। यह एक जेकोबी को है। उन्होंने अपनी भारत यात्रा के समय विचित्र तक है, जिसका समाधान कठिन है।
इम काव्य को अहमदाबाद से सन् १९१४ में प्राप्त किया जैन महा काव्य शांति के प्रतीक हैं। किंतु इमका
था। यह सबमे पहले श्री सी० डी० दलाल और पी०डी०
था। यह तात्पर्य यह नहीं है कि मानव जीवन के अन्य पहलमो को गुण के सम्पादन में गायकवाड प्रोरियण्टल सीरीज. दवा दिया गया है या छोड दिया गया है और इस प्रकार बौदा से मन् १६२३ में प्रकाशित हमा। जैकोबी ने वहां अम्वाभाविकता पनप उठी है । जहां तक जैन अपभ्र दा भाषा का दृष्टि म प्रार
भाषा की दृष्टि मे और दलाल ने काव्यत्त्व की दृष्टि से के प्रबन्धकाव्यों का सम्बन्ध है, उन्हे दो भागों में बाटा इसे समूचे मध्ययुगीन भारतीय साहित्य की महत्वपूर्ण कृति जा मकता है-स्वयम्भु का 'पउमचरिउ', पृप्पदा का कहा है। डा० विण्टरनिन्स ने लिखा है कि इसकी कथा में 'महापुराण' वीर कवि का 'जम्बूम्वामी चरित' और हरि- थोड़े में अधिक कहने का गृण कट कूट भरा है। कार्यान्विति भद्र का मिणाहचनिउ' पौगणिक शैली में तथा धनपाल
आदि से अन्त तक बगबर बनी हुई है। णायकुमारचरिउ धवकड़ की 'भविसयत्तकहा', पृष्पदन्त का 'णायकुमारचरिउ का भूमिका में डा० हागलाल जन ने उसे उत्तमकोटि का और नयनंदि का 'सुदमणचरिउ' रोमांचिक शैली मे लिम्बे
प्रबन्ध काव्य प्रमाणित किया है।६ सधार के 'प्रद्युम्नचरित्र' गये हैं। हिन्दी के जैन प्रबन्ध काव्यों में पौराणिक और
के प्रकाशन मे डा० माताप्रमाद गुप्त ने उसे एक उज्जवल रोमाचिक शैली का ममन्वय हया है। मधारु का 'प्रद्यम्न- तथा मूल्यवान रत्न माना है ७ भूधरदास के पावंगण चरित्र',ईश्वरमरि का 'ललितागचित्र', ब्रह्मगयमन का की प्रसिद्ध पं० नाथूराम प्रमी ने मौलिकता, सौदयं तथा 'मुनर्णनगम', कवि पग्मिल्ल का 'श्री पालचरित्र', मालकवि प्रसादगुण से युक्त कहा है। लालचन्द्र लब्धोदय के का भोजप्रबन्ध', लालचन्द लब्धोदय का पद्मिनीचरित्र', रायचन्द्र का 'सीताचरित्र' र भूधग्दाम का 'पाश्वपुगण' प्रतियों का उल्लेख मेरे उपर्युक्त ग्रंथ में क्रमश. ५० ऐमे ही प्रबन्ध काव्य है। इनमे 'पद्मिनीचरित्र, की २२५ व २३१ पर हुआ है। जायमी के 'पद्मावत' से और 'मीताचरित' की तुलमी- ४. महापण्डित राहुलमांकृत्यायन, हिन्दी काव्यधारा, दास के 'रामचरितमानस' से तुलना की जा सकती है। प्रथमसंस्करण, १९४५ ई. किताबमहल, इलाहाबाद
पृ० ५२। १. डा. शिवप्रसाद सिंह, विद्यापति, हिन्दी प्रचारक ५. एम. विण्टरनित्स, ए हिस्ट्री प्राव इण्डियन लिटरेचर,
पुस्तकालय, वाराणसी, द्वितीयसस्करण, सन् १६६१ १ ६३३ ई०, खण्ड २,१०५३२। ई०, पृ० ११० ।
३. देखिए णायकुमारचरित्र, भूमिका भाग, डा. हीराइनका विशद परिचय मेरे ग्रथ हिदी जैन भनि लाल जैन लिखित । काव्य और कवि', अध्याय २, से प्राप्त किया जा ७. सधारु, प्रद्युम्नचरित, पं० चैनसुखदास मंपादित, सकता है।
महावीरभवन, सवाईमानसिह हाईवे, जयपुर, प्राक्कथन ३. पद्मिनीचरित्र और सीताचरित्र की हस्तलिखित डा० माताप्रसाद गुप्त लिखित, पृ०५।
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२१२
अनेकान्त
पद्ममिनीचरित्र और रायचन्द्र के सीताचरित्र को पाण्डु. रस होने से क्या हमा। प्रबन्ध काव्य में कोई न कोई लिपियों के रूप में मैंने पढ़ा है और मैं उन्हें इस युग के रस तो मुख्य रस होगा ही। उसकी पृष्ठ भूमि में समूचा किसी प्रबन्ध काव्य से निम्नकोटि का नहीं मानता । इनके मानव जीवन गतिशील रहता है, यह प्रबंध काव्यों की अतिरिक्त अपभ्रंश और हिंदी के नेमिनाथ राजुल से मूल विधा के जानकारों से छिपा नहीं है । प्रबंध काव्य की सम्बधित खण्डकाव्य हैं । उनका काव्य सौंदर्य अनूठा है। कसौटी पर खरे उतरते हुए भी शांत रस का सुनिर्वाह मैंने अपने ग्रंथ 'जैन हिन्दी भक्ति काव्य और कवि' में जैन काव्यों की अपनी विशेषता है और वह वीतरागी यथा स्थान उनका विवेचन किया है।
परिप्रेक्ष्य में ही ठीक से समझी जा सकती है। ऐसा होने इन विविध काव्यों में युद्ध है, प्रेम है, भक्ति है, .
के पर ही उसका आकलन भी ठीक हो सकता है। प्रकृति के सजीव और स्वाभाविक चित्र हैं । संवाद-सौष्ठव की अनुपम छटा है । भाषा में लोच और भावों में अनु- ४. पं. नाथराम प्रेमी, हिन्दी जैन साहित्य का इतिहास भूति की गहराई है । कहीं छिछलापन नहीं, कहीं उद्दाम जैन ग्रन्थरत्नाकर कार्यालय, हीराबाग, बम्बई, वासनाओं का नग्न नृत्य नहीं । केवल शांत रस के प्रमुख जनवरी १९१७ पृ० ५६ ।
उपदेशक पद
राग ख्याल
कविवर भूधरदास मन मूरख पंथी, उस मारग मति जाय रे ॥टेक ॥ कामिनि तन कांतार जहां है, कुच परवत दुखदाय रे ॥मन मूरख० काम किरात वस तिहि थानक, सरवस लेत छिनाय रे । खाय खता कोचक से बैठे, अरु रावन से राय रे ॥ मन मूरख० मौर अनेक लुटे इस पेड़ें, वरनं कौन बढ़ाय रे । वरजत हों वरज्यो रह भाई, जानि वगा मति खाय रे ॥मन मूरख० सुगुरु दयाल दया करि भूधर, सोख कहत समझाय रे। प्रागै जो भाव करि सोई, दोनो बात जताय रे ॥ मन मूरख०
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यशस्तिलक में वर्णित वर्ण व्यवस्था और समाज गठन
डॉ० गोकुलचन्द्र जैन प्राचार्य, एम० ए० पो-एच० डी०
यशस्तिलक कालीन भारतीय समाज छोटे-छोटे अनेक लिए इस विषय में श्रुति (वेद) और शास्त्रान्तर (स्मृति वर्गों में बटा हुमा था। प्रादर्श रूप में उन दिनो भी प्रादि) को प्रमाण मान लेने में हमारी क्या हानि है। वर्णाश्रम-व्यवस्था की वैदिक मान्यताएं प्रचलित थी। यश- इस प्रसंग में प्राये प्रति और शास्त्र शम्द को स्तिलक से इस प्रकार की पर्याप्त जानकारी प्राप्त होती
अन्यथा न समझा जाए, इस लिए स्वयं सोमदेव ने उक्त है। विभिन्न प्रसंगो पर ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र दोनों शब्दों को स्पष्ट कर दिया है। इन चारों वर्षों तथा अपने-अपने वर्गों का प्रतिनिधित्व
श्रुति वेदमिह प्राहुर्धर्मशास्त्र स्मृतिमता। (१० २७०) करने वाले अनेक सामाजिक व्यक्तियों के उल्लेख पाये
श्रुति वेद को कहते हैं और धर्मशास्त्र स्मृति को। है। सोमदेव ने एकाधिकबार वर्ण शुद्धि के विषय मे भी
उपयुक्त प्रश्न को प्रस्तुत करने के बाद सोमदेव ने सूचनाए दी है। (पृ० १६, २०८, १८३ उत्त०)
अपना निर्णय निम्न लिखित शब्दों में दे दिया हैवर्णाश्रम व्यवस्था की वैदिक मान्यतामों का प्रभाव
सर्व एव हि नानां प्रमाणं लौकिको विधि:। सामाजिक जीवन के रग-रग में इस प्रकार बैठ गया था कि इस व्यवस्था का घोर विरोध करने वाले जैनधर्म अनुयायी
यत्र सम्यक्त्वहानिर्न यत्र न व्रतदूषणम् ॥ पु. ३७३ भी इसके प्रभाव से न बच सके। दक्षिण भारत में यह जिस विधि से सम्यक्त्व की हानि न हो तथा व्रत में प्रभाव सबसे अधिक पड़ा, इसका साक्षी वहाँ उत्पन्न होने दूपण न लगे, ऐसी प्रत्येक लौकिक विधि जैनों के लिए वाले जैनाचार्यों का साहित्य है। सोमदेव के पूर्व नवीं प्रमाण है। शताब्दि में ही प्राचार्य जिनसेन ने उन सभी वैदिक इस पृष्टभूमि पर विकसित होने वाला सोमदेव का नियमोपनियमों का जैनीकरण करके उन पर जनधर्म की चिन्तन उनके दूमरे ग्रन्थ नीतिवाक्यामृत में अधिक स्पष्ट छाप लगा दी थी, जिन्हें वैदिक प्रभाव के कारण जैन रूप से सामने पाया है। उमके त्रयी समुद्देश में किया समाज भी मानने लगा था। जिनसेन के करीब सौ वर्ष गया वर्ण-व्यवस्था सम्बन्धी वर्णन स्मृति प्रतिपादित तत् बाद सोमदेव हुए। वे यदि विरोध करते तो भी सामाजिक तत् विषयों का सूत्रीकरण मात्र है। ब्राह्मण प्रादि चार वर्ण, जीवन में से उन मान्यताप्रो का पृथक् करना सम्भव न । उनके अलग-अलग कार्य सामाजिक और धार्मिक अधिकार था, इसलिए यशस्तिलक में उन्होंने जैन चिन्तको के सामने प्रादि का वर्णन विस्तार के साथ किया गया है। सामाजिक व्यवस्था के सम्बन्ध में एक प्रश्न उपस्थित
जैन मिद्धान्तों के साथ वर्ण-व्यवस्था तथा उसके किया है
प्राधार पर ममाजिक व्यवस्था का प्रतिपादन करने वाले द्वो हि मो गृहस्थानां लौकिक: पारलौकिक : ।
मन्तव्यों का किसी भी तरह सामंजस्य नहीं बैठता । लोकाश्रयो भवेदाद्यः परः स्यादागमाश्रय
सोमदेव स्वयं सिद्धान्तों के मर्मज्ञ विद्वान थे। ऐसी स्थिति जातयोऽनादयः सर्वास्ततिक्रयापि तथाविधाः ।।
में उनके द्वारा किया गया यह वर्णन मिद्धान्तों में अन्तः श्रुतिः शास्त्रान्तरं वास्तु प्रमाणं कात्र नः क्षतिः ।।
विरोध उपस्थित करता हुमा प्रतीत होता है। गृहस्थों के दो धर्म हैं--एक लौकिक दूसरा पारलौकिक । लौकिक धर्म लोकाश्रित है और पारलौकिक प्रागमाश्रित। १. तुलना-नीतिवाक्यामृत त्रयी समुद्देश । जातियां अनादि तथा उनकी क्रियाए भी मनादि है, इस
मनुस्मृति अध्याय १.
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२१४
अनेकान्त
सोमदेव के पूर्वकालीन साहित्य को देखने से पता वह लोक में शूद्र कहलाता हो या ब्राह्मण, स्वेच्छा से धर्म चलता है कि जैन चिन्तक बहुत पहले से ही सामाजिक धारण कर सकता है। वातावरण और वैदिक साहित्य से प्रभावित हो चले थे, सैद्धान्तिक ग्रंथों में सामाजिक व्यवस्था सम्बन्धी उसी प्रभाव में पाकर उन्होंने अनेक वैदिक मन्तव्यों को मन्तव्यों का वर्णन नही है। पौराणिक अनुश्रति भी जैन सांचे में ढालने का प्रयत्न किया। यहां तक की बाद चतुर्वर्ण को सामाजिक व्यवस्था का प्राधार नहीं मानती। के अनेक सैद्धान्तिक ग्रन्थों तक पर यह प्रभाव स्पष्ट अनुश्रुति के अनुसार सभ्यता के प्रादि युग मे, जिसे परलक्षित होता है।
शास्त्रीय भाषा में कर्म-भूमि का प्रारम्भ कहा जाता है, मूल में जैनधर्म वर्ण-व्यवस्था तथा उसके प्राधार पर ऋषभदेव ने असि, मसि, कृषि, विद्या, शिल्प और वाणिज्य सामाजिक व्यवस्था को स्वीकार नहीं करता। सिद्धान्त का उपदेश दिया। उसी आधार पर सामाजिक व्यवस्था ग्रन्थों के वर्ण और जाति शब्द नाम कर्म के प्रभेदों में बनी६ । लोगों ने स्वेच्छा से कृषि प्रादि कार्य स्वीकृत कर पाए हैं। वहां वर्ण शब्द का अर्थ रंग है, जिसके कृष्ण, लिये । कोई कार्य छोटा बड़ा नहीं समझा गया। इसी तरह नील मादि पांच भेद हैं। प्रत्येक जीव के शरीर का वर्ण कोई भी कार्य धर्म धारण करने में रुकावट नहीं माना गया। (रंग) उसके वर्ण-नामकर्म के अनुसार बनता है ।२ इसी
बाद के साहित्य में यह अनुश्रुति तो मुरक्षित रही, तरह जाति नामकर्म के भी पांच भेद हैं-एकेन्द्रिय, किन्तु उसके साथ में वर्ण-व्यवस्था का सम्बन्ध जोडा जाने द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, और पचेन्द्रिय । संसार के
लगा। नवमीं शती में प्राकर जिनसेन ने अनेक वैदिक सभी जीव इन पांच जातियों में विभक्त है । जिसके केवल
मन्तव्यों पर भी जैन छाप लगा दी। एक स्पर्शन इन्द्रिय है उसकी एकेन्द्रिय जाति होगी। जटामिह नन्दि (७वी शनी, अनुमानित) ने चतुर्वर्ण मनुष्य के स्पर्शन, रसना, प्राण, चक्ष और श्रोत्र ये पांचों
की लौकिक और श्रौतस्मात मान्यताओं का विस्तार पूर्वक इन्द्रियाँ होती हैं, इसलिए उसकी जाति पंचेन्द्रिय है। पशु खण्डन करके लिखा है कि-कृतयुग में तो वर्ण भेद था के भी पांचों इन्द्रियाँ हैं, इसलिए उसकी भी पचन्द्रिय नहीं. तायग में स्वामी-मेबक भाव प्रा चला था। इन जाति है३ । इस तरह जब जाति की दृष्टि से मनुप्य प्ररि दोनों युगो की अपेक्षा द्वापर युग मे निकृष्ट भाव होने पश में भी भेद नहीं तब वह मनुष्य-मनुष्य का भेदक लगे और मानव समूह नाना वर्गों में विभक्त हो गया। तत्त्व कैसे माना जा सकता है ? वर्ण (रंग) की अपेक्षा कलियुग मे तो स्थिति और भी बदतर हो गई। शिष्ट अन्तर हो सकता है, किन्तु वह ऊंच-नीच तथा स्पृश्य- लोगो ने क्रिया विशेष का ध्यान रख कर
लोगो ने क्रिया विशेष का ध्यान रख कर व्यवहार चलाने अस्पृश्य की भावना पैदा नहीं करता।
के लिये दया, अभिरक्षा, कृषि और शिल्ल के प्राधार पर गोत्र कर्म के उच्च गोत्र और नीच गोत्र दो भेद भी चार वर्ण कहे है अन्यथा वर्ण-चतुष्टय बनता ही नहीं । प्रात्मा की प्राभ्यान्तर शक्ति की अपेक्षा किए गए है। रविषणाचार्य (६७६ ई.) ने पूर्वोक्त अनुथुति तो ये वर्ण, जाति पोर गोत्र धर्म धारण करने मे किसी भी सुरक्षित रग्बी, किन्तु उसके साथ वर्णों का सम्बन्ध जोड़ प्रकार की रुकावट पैदा नही करते । प्रत्येक पर्याप्तक दिया। उन्होंने लिखा है कि-ऋपभदेव ने जिन व्यक्तियों भव्य जीव चौदहवें गुणस्थान तक पहुच सकता है५। को रक्षा के कार्य में नियुक्त किया वे लोक में क्षत्रिय पाँचवे गुणस्थान से मागे के गुणस्थान मुनि के ही हो कहलाये, जिन्हें वाणिज्य, कृषि, गोरक्षा प्रादि व्यापारों सकते है। इसका स्पष्ट अर्थ है कि कोई भी मनुष्य चाह में नियुक्त किया वे वैश्य तथा जो शास्त्रों से दूर भागे
और हीन काम करने लगे वे शूद्र कहलाये। २. कर्मविपाकनामप्रथमकर्मग्रन्थः गाथा ३६ ३. वही, गाथा ३२
६. स्वयम्भू-स्तोत्र, आदिनाथ स्तुति, श्लोक २, ४. कषायप्राभूत अध्ययन १, सूत्र
७. वरांगचरित २१६-११ ५. वही, अध्याय १० सूत्र
८. पद्मपुराण, पर्व ३, श्लोक २५५-५८
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यशस्तिलक में वर्णित वर्ण व्यवस्था और समाज गठन
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ब्राह्मण वर्ण के विषय में एक लम्बा प्रसंग पाया है। एक तरफ समाज में श्रौतस्मात प्रभाव स्वयं बढ़ता जिसका तात्पर्य है कि ऋपभदेव ने यह वर्ण नही बनाया, जा रहा था दूसरे उस पर जैनधर्म की छाप लग जाने से किन्तु उनके पुत्र भरत ने व्रती श्रावकों का जो एक अलग और भी दढ़ता पा गई। वर्ग बनाया वही बाद में ब्रह्मण कहलाने लगा।
जिनसेन के करीब एक शती बाद सोमदेव हुए । वे जैन हरिवंश पुराण में जिनसेन मूरि (७८३ ई.) ने धर्म के मर्मज्ञ विद्वान् होने के साथ साथ प्रसिद्ध सामाजिक रविषेणाचार्य के कथन को ही दूसरे शब्दो मे दुहराया१०। नेता भी थे। उनके सामने यह समस्या थी कि जैनधर्म
के मौलिक सिद्धान्त, सामाजिक वातावरण तथा जिनसेन इस प्रकार कमणा वर्ण-व्यवस्था का प्रतिपादन करते
द्वारा तिपादित मन्तव्यों का सामंजस्य कैसे बैठे ? वे यह रहने के बाद भी उसके साथ चतुर्वर्ण का सम्बन्ध जुड
* जानते थे कि जिनसेन द्वारा प्रतिपादित मन्तव्यों का जैन गया और उसके प्रतिफल सामाजिक जीवन और थोत
चिन्तन के साथ कोई मेल नहीं बैठता । किन्तु जन-मानस स्मात मान्यताए जैन समाज और जैन चिन्तको को प्रभा
में बैठे हए संस्कारों को बदलना और एक प्राचीन प्राचार्य वित करती गई। एक शताब्दी बीतते-बीतते यह प्रभाव
का विरोध करना सरल काम नहीं था। सोमदेव जैसे जन जैन जन-मानस में इस तरह बैठ गया कि नवमी शती में ।
नेता के लिए यह अभीष्ट भी न था। ऐसी परिस्थिति में जिनसेन ने उन सब मन्तव्यों को स्वीकार कर लिया और
उन्होंने यह चिन्तन दिया कि गृहस्थों के दो धर्म मान उन पर जैनधर्म की छाप लगा दी । महापुराण में
लिए जाएं -एक लौकिक और दूसरा पारलौकिक । पूर्वोक्त अनुश्रुति को सुरक्षित रखने के बादभी स्मृति
लौकिक धर्म के लिए वेद और स्मृति को प्रमाण मान पथो की तरह चारो वर्णो के पृथक्-पृथक कार्य, उनके
लिया जाए और पारलौकिक धर्म के लिए पागमों को। सामाजिक और धामिक अधिकार, ५३ गर्भान्वय, ४८ दीक्षान्वय और कन्वय क्रियानो एव उपनयन प्रादि सोमदेव के ये मन्तव्य ऊपर से देखने पर जैन-चिन्तन सस्कारों का विस्तार के साथ वर्णन किया गया है११। के बिलकुल विपरीत लगते है, क्योंकि एक तो वेद पौर
स्मतियों की विचारधारा जैन चिन्तन के माथ मेल नहीं जिनमेन पर श्रीतम्मात प्रभाव की चरममीमा वहा
खाती । दूसरे जैनागमों में गृहस्थ धर्म और मुनि धर्म, ये दिखाई देनी है, जब वे इस कथन का जनीकरण करने
दो भेद तो पाते हैं१३ । किन्तु गृहस्थों के लौकिक और लगते है कि "ब्रह्मा के मुह से ब्राह्मण, बाहुप्रो से क्षत्रिय।
पारलौकिक दो धर्मों का वर्णन यशस्तिलक के अतिरिक्त उरु से वैश्य तथा परी से शुद्रो की उत्पत्ति हुई।" वे
अन्यत्र नहीं हुआ। लिखते है कि ऋषभदेव ने अपनी भुजामों में शस्त्र धारण
अनायास ही यह प्रश्न उठता है कि क्या सोमदेव करके क्षत्रिय बनाये, उरु द्वारा यात्रा का प्रदर्शन क के
जैसा निर्भीक शास्त्रवेत्ता लौकिक और वैदिक प्रवाह में वैश्यो की रचना की तथा हीन काम करने वाले शद्रों को
बह कर जैनधर्म के साथ इतना बड़ा अन्याय कर मकता पैरो से बनाया। मुख से शास्त्रों का अध्यापन कराने हा
है ? यशस्तिलक के अन्त परिशीलन में ज्ञात होता है कि भरत ब्राह्मण वर्ण की रचना करेगा१२ ।
मोमदेव ने जो चिन्तन दिया, उमका शाश्वत मूल्य है तथा ६. वही, पर्व ४, श्लोक ६९-१२२
जैन चिन्तन के साथ उसका किचित् भी विरोध नहीं
प्राता। १०. हरिवंशपुराण, मर्ग , श्लोक ३३-४० ___सर्ग ११, श्लोक १०३-१०७
महाभारत, अध्याय २६६, इलोक ५-६ । ११. महापुराण, पर्व १६, श्लोक १७९-१६१, २४३-२५० पूना १९२२ ई. १२. तुलना-महापुगण, पर्व १६, श्लोक ३४३-३४६ मनुस्मृति, अध्याय १, लोक ३१, बनारस १९३५ ई. ऋग्वेद, पुम्पमूक्त १०, १०, १२
१३. चारित्रामृत, गाथा २०
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२१६
अनेकान्त
सोमदेव ने यशस्तिलक में अनेक वैदिक मान्यताओं चिन्तन के मौलिक सिद्धान्तों का निर्वाह किया, उसका का विस्तार के साथ खण्डन किया है१४ । इसलिए यह शाश्वत मूल्य है। जिनसेन की तरह सोमदेव ने वैदिक कहना नितान्त प्रसंगत होगा कि वे वेद और स्मृति को मन्तव्यों को जैन साँचे में ढालने का प्रयत्न नहीं किया प्रमाण मानते थे।
प्रत्युत उन्हें वैदिक ही बताया। सामाजिक निर्वाह के लिए प्रीती याष्टिके यदि कोई उन्हें स्वीकृत करता है तो करे, किन्तु इतने द्योतक हैं । अवती सम्यग्दृष्टि का चौथा गुणस्थान मात्र से वे जैन मंतव्य नहीं हो जाते। होता है । इस गुणस्थानवी जीव के दर्शनमोह- सोमदेव के चिन्तन की यह स्पष्ट फलश्रुति है कि नीय कर्म की मिथ्यात्व आदि प्रकृतियों का उपशम,
समाजिक जीवन के लिए किन्हीं प्रचलित लौकिक मूल्यों क्षय या क्षयोपशम होने से सम्यक्त्व तो होता है, को स्वीकृत कर लिया जाये, किन्तु उनको मूल चिन्तन किन्तु चारित्रमोहनीय की अप्रत्याख्यानावरण कपाय
के साथ सम्बद्ध करके सिद्धांतों को हानि नहीं करनी प्रादि प्रकृतियों के उदय होने से मयम बिलकुल भी नहीं चाहिए। सामाजिक मूल्य परिवर्तनशील होते हैं। देश, होता । यहाँ तक कि वह इन्द्रियों के विषयों से तथा त्रस काल और क्षेत्र के अनुसार उनमें परिवर्तन होते रहते और स्थावर जीवों की हिंसा से भी विरत नहीं होता१५। हैं। यह भी निश्चित है कि सैद्धांतिक चिन्तन व्यवहार
माने की कसौटी पर सर्वदा पूर्णरूपेण सही नहीं उतरता, किंतु वाला गृहस्थ जैन दृष्टि से इसी गुर स्थान के अन्तर्गत इतने मात्र से मूल सिद्धांतों में परिवर्तन नहीं करना पाता है।
चाहिए। पारलौकिक धर्म को स्वीकार करने वाले गृहस्थ के
चतुर्वर्ण लिए सोमदेव ने स्पष्ट रूप से केवल प्रागमाथित विधि
ब्राह्मण : यशस्तिलक में ब्राह्मण के लिए ब्राह्मण को ही प्रमाण बताया है। यह गृहस्थ सैद्धांतिक दृष्टि में
(११६-११८, १२६, उत्त०), द्विज (६०, १०५, १००, पंचम गुणस्थानवर्ती देशवती सम्यग्दृष्टि माना ज एगा।
१०४, उत्त०, ४५७ पू०), विप्र (४५७, पू०), भूदेव यहाँ दर्शनमोहनीय की सम्यक्त्व विरोधी प्रकृतियो के
(८८, उत्त०) श्रोत्रिय (१०३ उ०) वाडव (१३५ उत्त०), उपशम, क्षय या क्षयोपशम के साथ चारित्रमोहनीय कम
उपाध्याय (१३१, उत्त०), मोहूतिक) ? (३१६, पू०, की अप्रत्याख्यानावरण कषायों का भी उपशम, क्षय या
१४०, उत्त०), देवभोगी (१४०, उत्त०) तथा पुरोहित क्षयोपशम हो जाने से जीव देश-संयम का पालन करने
(३१६. पू०, ३४५ उत्त०) शब्द आए है । एक स्थान पर लगता है१६ । इस गुणस्थानवर्ती सम्यग्दृष्टि केवल उसी
(२१०) त्रिवेदी ब्राह्मण का भी उल्लेख है। उन दिनों लौकिक विधि को प्रमाण मानता है जिसके मानने से
समाज में ब्राह्मणों की खूब प्रतिष्ठा थी : राजा भी इस उसके सम्यक्त्व की हानि न हो तथा व्रत में दोष न लगे।
बात में गौरव अनुभव करता कि ब्राह्मणों मे उमकी सोमदेव ने भी इस बात को कहा है, जिसका उल्लेख
मान्यता है१७ । पितृतर्पण आदि सामाजिक क्रिया-काण्डों में ऊपर कर चुके हैं।
भी ब्राह्मण ही पागे रहता था३ । श्राद्ध के लिए ग्राह्मणों इस तरह सोमदेव ने जिस कुशलता के साथ उस युग
को घर बुलाकर भोजन कराया जाता था। विशष्ट के सामाजिक जीवन में प्रचलित मान्यतामों के साथ जैन ब्राह्मणो को दान देने की प्रथा थी१६ थान तथा मत्यो
१७. त्रिवेदीवेदिभिर्मान्यः, पृ० २१० १४. यशस्तिलक उत्तरार्ष, अध्याय ४
१८. पितृसंर्पणार्थ दिजसमाजसपरसवतीकाराय समर्पया१५. गोम्मटसार जीवकाण्ड, गाथा २५-२६-२६
मास, पृ० २१८ उत्त. १६. गोम्मटसार जीवकाण्ड, गाथा ३०
१९. भुक्ता च श्राद्धामन्त्रितर्भूदेवैः, पृ०८८
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यशस्तिलक में गणित वर्ण व्यवस्था और समाज गठन
की अन्य क्रियाएं कराने वाले२० । ब्राह्मणों के लिए भूदेव क्षत्रियों का धर्म माना जाता था३०। पौरुष सापेक्ष काय शब्द माया है२१ । सम्भवतः श्रोत्रिय ब्राह्मण पाचार की तथा राज्य संचालन क्षत्रियोचित कार्य माने जाते थे। दृष्टि से सबसे श्रेष्ठ माने जाते थे, किन्तु उनमें भी मादक सम्राटू यशोधर को पहिच्छेत्र के क्षत्रियों का शिरोमणि द्रव्यों का उपयोग होने लगा था २२ । बल्कि प्रादि कार्य कहा गया है३१। पामरोदार नामक एक प्रान्तीय शासक के विषय में परी जानकारी रखने वाले, वेदों के जानकार क्षत्रिय नहीं था, इस कारण उसे शासन करने के प्रयोग्य ब्राह्मणों को वाडव कहते थे२३ । दशकुमार चरित मे भी माना गया३२। कलिंग में नाई को सेनापति बनाने के बाह्मण के लिए वाडव शब्द का प्रयोग हुमा है२४ । कारण प्रसन्तुष्ट प्रजा ने राजा को मार डाला३३ । अध्यापन कार्य कराने वाले ब्राह्मण उपाध्याय कहलाते
श्य : व्यापारी वर्ग के लिए यशस्तिलक में वैश्य, थे२५ । शुभ मुहूर्त का शोधन करने वाले ब्राह्मण मोहुर्तिक
वणिक, श्रेष्ठी और सार्थवाह शब्द पाए हैं । व्यापारी वर्ग कहे जाते थे२६ । मुहूर्त शोधन का कार्य करते समय वे
राज्य में व्यापार करने के अतिरिक्त अन्तर्गष्ट्रीय व्यापार उत्तरीय से अपना मुंह ढंक लेते थे२७ । मन्दिर में पूजा
के लिए विदेशों से भी सम्बन्ध रखते थे। सुवर्ण दीप जा के लिए नियुक्त ब्राह्मण देवभोगी कहलाता था२८ । राज्य
कर अपार धन कमाने वाले व्यापारियों का उल्लेख पाया के मांगलिक कार्यों के लिए नियुक्त प्रधान ब्राह्मण पुरोहित कहलाता था२६ । यह प्रातःकाल ही राज्य भवन मे पहुँच
कुशल व्यापारी को राज्य की ओर से राज्यष्ठी पद जाता था।
दिया जाता था३५ । उसे विशांपति भी कहते थे३६ । ब्राह्मण के लिए बाह्मण और द्विज बहुत प्रचलित शब्द
शूद्र: शूद्र अथवा छोटी जातियों के लिए यशस्तिलक थे। विप्र श्रोत्रिय, वाडव, देवभोगी तथा त्रिवेदी का
में शूद्र, अन्त्यज तथा पामर शब्द पाए हैं । अन्त्यजों का यशस्तिलक में केवल एक बार उल्लेख हुमा है । मोहूर्तिक
स्पर्श वर्जनीय माना जाता था३७ । पामरों की सन्तान तथा भूदेव का दो दो बार तथा पुरोहित का चार बार
उच्च कार्य के योग्य नही मानी जाती थी। पामरोदार उल्लेख हुमा है :
नामक राजा की माता पामर थी, इसलिए उसे राज्य अत्रिय : भत्रिय वर्ण के लिए क्षत्र और क्षत्रिय दो
करने के अयोग्य माना गया३८ । शब्दों का व्यवहार हुमा है। प्राणियों की रक्षा करना
अन्य सामाजिक व्यक्ति २०. ददाति दान द्विजपुङ्गवेभ्यः, ४५७
सामाजिक कार्य करने वाले अन्य व्यक्तियों में निम्न२१. श्राद्धामन्त्रितः भूदेवः, ८० पू०, कार्यान्तामनयोभं देव- लिखित उल्लेख पाए है। संदोहसाक्षिणी-क्रियाः, पृ० १६२ उत्त०
३०. भूतसंरक्षण हि क्षत्रियाणां महान्धर्म, पृ० ६५, उत्त. २२. अशुचिनि मदनद्रव्येनिपात्यते श्रोत्रियो यद्वत,
३१. अहिच्छत्रक्षत्रियशिरोमणि., पृ० ५६७, पू० पृ०१०३, उत्त० २३. वेदविद्भिर्वाडवे, प० १३५. उत.
३२. पृ० ४२६-४३०, पृ०
३३. कलिगेप-नपतिदिवाकीतिमेनाधिपत्येन-प्रकृपनाभ्यः २४. वाडवाय प्रचुरतरं धनं दत्वा, दशकुमार० ११५
प्रकृतिभ्यः-बधमाप, पृ० ४३१, पू० २५. अध्यापयन्नुपाध्यायः, पृ० १३१ उत.
३४. सुवर्णद्वीपमनुमार । पुनरगण्यपण्यविनिमयन तत्रत्यम२६. गज्याभिषेकदिवसगणनाय मौहर्तिकान्, पृ०१४० उन० ।
चिन्त्यामात्माभिमतवस्तुम्कन्धमादाय, पृ० ३४५ उत्त. २७. उत्तरीयदुकुलांचलपिहितविम्बिना-मौहूतिकममाजेन
३५. अजमार'-राजश्रेष्ठिन, पृ० २६१, उन. पृ० ३१६, पू०
३६. सः विगांपतिरेवमूचे, पृ० २६१, उत्त० २८. ममाज्ञापय देवभोगिनम्, पृ० १४०, उत्त. ३७. अन्त्यजः स्पृष्टाः, पृ. ४५७ २६ द्वारे तवोत्सवमतिश्च पुरोहितोऽपि, पृ० ३६१ पू० ३८. पामरपुत्रि च यस्य जनयित्रि, पृ. ४३०
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२१
. अनकान्त
. १-हलाधजीवि (५६) :-हल चलाकर अजी- -कौलिक (१२१) जुलाहा या बुनकर विका करने वाले।
कौलिक के एक प्रौजार नलक का भी उल्लेख है। २-गोप (२९१):-कृषि करने वाले। यह धागों को सुलझाने का मौजार था जो एक पोर
गोप की पत्नी गोपी या गोपिका कहलाती थी। पत्नी पतला तथा दूसरी ओर मोटा जंघामों के प्राकार का पति के कृषि कार्य में भी हाथ बटाती थी। सोमदेव ने होता था४३ । धान के खेतों को जाती हुई गोपिकामों का उल्लेख किया -प्वजिन् या ध्वज (४३०) है। (शालिवप्रेषयान्त्यः गोपिकाः, १६)। गोप और श्रुतदेव ने इसका अर्थ तेली किया है।४। मनुस्मृति हलायुधजीवि में सम्भवतः यह अन्तर था कि गोप वे कह- तथा याज्ञवल्क्य स्मति में सोम या सुरा बेचनेवाले के प्रथ लाते थे जिनकी अपनी स्वयं की खेती होती थी तथा में ध्वज या ध्वजिन शब्द का प्रयोग हुआ है।५। हलायुधजीवि उनको कहते थे जो अपने हल ले जाकर ध्वज कल मैं उत्पन्न लोगों को निम्नकोटि का माना दूसरों के खेत जोतकर अपनी प्राजीविका चलाते थे।
जाता था। राज्य संचालन प्रादि कार्यों के वे अयोग्य ३-प्रजपाल (५६):-गाय पालने वाले । माने जाते थे। पामरोदार नामक राजा ध्वजकुल में पैदा ४-गोपाल (३४०, उत्त०)-वाला।
हुभा था. इसलिए उसे राज्य करने के प्रयोग्य माना ग्वालो की बस्ती को गोष्ठ कहते थे३९ । सम्भवतया गया४६ । ब्रजपाल उन्हें कहते थे जिनके पास गायो तथा अन्य पशुओं १०-निपाजीव (३९०): कुंभकार । का पूरा बज (बड़ा भारी समुदाय) होता था तथा गोपाल निपाजीव निश्चल प्रासन पर बैठकर चक्र घुमाता वे कहलाते थे जो अपने तथा दूसरों के पशु चराते थे। तथा उस पर घड़े बनाता था। यशरितलक में एक मन्त्री ५-पोष (१३१, उत्त०)-गडरिया ।
राजा से कहता है कि हे राजन, जिस प्रकार निपाजीव बकरियां तथा भेड़ें पालने वाले को गोष कहते घड़ा बनाने के लिए निश्चल प्रासन पर बैठकर चक्र थे४०।
घुमाता है उसी तरह भाप भी अपने प्रासन (सिंहासन ६-तक्षक (२७१)।४१ कारीगर या राजमिस्त्री। या शासन) को स्थिर करने दिक्पालपुर रूपी घड़े बनाने ७-मालाकार (३६३) माली;
के लिए अर्थात् चारों दिशाओं में राज्य करने के लिए चक्र मालाकार या माली की कला का सोमदेव ने एक घुमायो (सेना भेजो)४७ ।। सुन्दर चित्र खींचा है। मंत्री राजा से कहता है कि राजन, ११-रजक (२५४) : घोबी अर्थात कपड़े धोने वाला। मालाकार की तरह कंटकितों को बाहर रोककर या लगा रजक की स्त्री रजकी कहकाती थी। सोमदेव ने कर, घनों को विरले करके, उखाड़े गये को पुनः रोपकर जरा (बुढ़ापे) को रजकी की उपका दी है, जिस तरह पुष्पित हुए से फूल चुनकर, छोटों को बड़ा कर, ऊँचों को रजकी गन्दे कपड़ों को साफ कर देती है, उसी तरह जरा झुकाकर, स्थूलो को कृश करके तथा अत्यन्त उच्छखल भी काले केशों को मफेद कर देती है४८ । या ऊबड़-खाबड़ को गिराकर पृथ्वी का पालन करें४२ । ४३. कोलिकनलकाकारे ते जंधे साप्रत जाते, पृ० १२६ ३६. गोष्ठीनमनुसृतः, पृ० ३४० उत्त.
४४. ध्वजकुलजातः तिलंतुदकुलोत्पन्नः, पृ० ४३० ४०. तं गोधमेवमभ्यधात्, पृ० १३१, उत्त०
४५. मुरापाने मुराध्वजः, मनुस्मृति ४१८५, याज्ञवल्क
स्मृति १२१४१ ४१. कार्य किमत्र सदनादिषु तक्षकाद्यैः, पु० २७१
४६. ध्वजकुलजातस्तातः, पृ० ४३० ४२. वृक्षान्कण्टकिनो बहिनियमयन विश्लेषयन्संहिता- ४७. निपाजीव इव स्वामिस्थिरीकृतनिजासन :। चक्र नुत्खातप्रतिरोपयन्कुसुमितांश्चिनवंल्लघून्वर्घयन् ।
भ्रमय दिक्पालपुरभाजनसिद्धये । पृ० ३६० उच्चान्संनमयन्पश्च कृशयन्नत्युच्छितान्पातयन् । ४८. कृष्णच्छवि. साद्य शिरोरुहश्रीरारजक्या क्रियतेऽव मालाकार इव प्रयोगनिपुणो राजन्महीं पालय । पृ० ३६३ दाता।
प०२५-४
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यशस्तिलक में वर्णित वर्ण व्यवस्था और समाज गठन
२१९
१२-दिवाकीति (४०३, ४३१) : नाई या चाण्डाल । नव उपकरणों के नाम यशस्तिलक में पाए है ।५५
सोमदेव ने लिखा है कि दिवाकीति को सेनापति बना१. लगुड-लाठी या डण्डा । देने के कारण कलिंग में अनंग नामक राजा माग गया २. गल-मछलो मारने का लोहे का कांटा । था४६ | मनुस्मृति में चाण्डाल अथवा नीच जाति के लिए
३. जाल-मछली पकड़ने का जाल । दिवाकीर्ति शब्द पाया है५०। नैषधकार ने नाई के अर्थ
४. तरी-नाव। में इसका प्रयोय किया है५१ । यशस्तिलक के सम्कृत
५. तपं-घास का बना घोड़ा। टीकाकार श्रुतदेव ने भी दिवाकोति का अर्थ नाई तथा
६. तुवरतरंग-तूबी पर बनाया गया फलक या चाण्डाल दोनों किये है५२ । नाई के लिए नापित शब्द भी
पटिया। प्राता है । (२४५ उत्त०)
७. तरण्ड-फलक या तैरने वाला पटिया।
८. वेडिका-छोटी नाव या डोंगी। १३-मास्तरक (४०३) : शय्यापालक ।
६. उडुप-परिहार नौका । १४-संवाहक (४०३)-र दबाने वाला।
१६-चर्मकार (१२५) : चमार या चमड़े का व्यापार दिवाकीति, पास्तरक और संवाहक ये तीनों अलग करने वाला। अलग राज परिचारक होते थे। सोमदेव ने तीनों का एक चर्मकार के साथ उसके एक उपकरण दृति का भी ही प्रसंग में उल्लेख किया है। सम्भवतया दिवाकीति का उल्लेल है५६ । दति का अर्थ श्रुतदेव ने चर्मप्रसेविका मुख्य कार्य बाल बनाना, पास्तरक का मुख्य कार्य बिस्तर, किया है५७ । दृति का मर्थ प्राय. चमडे का पानी भरने गद्दो आदि ठीक करना तथा संवाहक का मुख्य कार्य पैर वाला थैला या मसक किया जाता है५८ । लगता है दृति दबाना, तेल मालिश करना आदि होता था। कौटिल्य ने कच्चे चमड़े को पकाने के लिए थैला बनाकर तथा उसमे प्रास्तरक तथा सवाहक दोनों का उल्लेख किया है ५३ । पानी और अन्य पकाने वाली सामग्री भरकर टांगे गये धनवान् परिवारों में भी ये परिचारक रखे जाते होगे। चमड़े को कहते थे। इसमें से टपटप पानी झरता रहता चारुदत्त के सवाहक ने अपने स्वामी के धनहीन हो जाने है। देहातों में चमड़ा पकाने की यही प्रक्रिया है । सोमदेव पर स्वयमेव काम छोड़ दिया था ।५४
के उल्लेख से भी लगभग इसी स्वरूप का बोध होता १५-धीवर-(२१६, ३३५ उत्त०) मछली पकड़ने है५६ । मनुस्मृति तथा याज्ञवल्क स्मृति के उल्लेग्वों से भी वाले।
इसका समर्थन होता ।६० धीवर के लिए कैवतं शब्द (२१६, उत्त०) भी पाया १७-नट या शलष (२२८, उत्त०, २६१) है। इनका मुख्य धन्धा मछली पकड़ना था। कैवतों के
___इसका मुख्य पेशा तरह-तरह के चित्ताकर्षक वेप ४६. कलिंगेष्वनंगो नाम दिवाकीत सेनाधिपत्येन-वधमपाप, ५५. कैवर्ताः-लगुडगलजालव्यग्रपाणयस्तरीतुवरतरंग
०४३१ तरण्डवेडिकोड्डपमंपन्नपरिकगः, पृ० २१६, उत्त. ५०. मनुस्मति २८५
५६. चर्मकारदृतिद्युतिम् पृ० १२५ । ५१. दिनमिवदिवाकोतिस्तीक्षे.क्षरे सवितु.करे:, नपध, ५७. दृतिश्चमप्रसेविकः, वही, स.टी.
१९५५ ८८. प्राप्टे-सस्कृत इंग्लिश डिक्शनरी । ५२. दिवाकीत पितस्य, पृ० ४३१, सं० टी० ५६. यो कशोऽभूत्पुरा मध्यो वलित्रयविगजित.
दिवाकीनि नापितस्य चाण्डालस्य वा, ४०३, मं टी. सोऽद्य द्रवद्रसो पत्ते चर्मकारदृतिद्युतिम् पृ० १२५ ५३. अर्थशास्त्र भाग १, अध्याय १२।।
६०. इद्रियाणां तु सर्वेषां योकं क्षरतिन्द्रियम् । ५४. संवाहक :-चालित्ताव शेशे च तस्सि जदोवजीवी तेनास्य क्षरति प्रज्ञा दृतेपादादिवेदकम् ॥ मनुस्मृति म्हि शंवुत्ते । -मृच्छकटिक, अंक २
NEE, याज्ञवल्क ३२६
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२२०
भनेकान्त
धारण करके लोगों को खेल दिखाकर प्राजीविका चलाना जाता था ।६६ शवर की स्त्री को शवरी कहते थे। शवर था।६१ नटों के पेशे का एक पद्य में सम्पूर्ण चित्र खींचा परिवार गरीब होते थे। ठण्ड मादि से बचने के लिए गया है। नट के खेल में जोर जोर से बाजा बजाया जाता उनके पास पर्याप्त वस्त्र आदि नहीं होते थे। सोमदेव ने था (मानकनिनदरम्यः) । स्त्रियां गीत गाती थीं लिखा है कि ठण्ड में प्रातःकाल शिशु को निश्चेष्ट देखकर (गीतकान्तः) नट आभूषण पहने होता था, खास कर शवरी उसे पिलाने के लिए हाथ में फलों का रस लिए गले का हार (हाराभिरामः) और जोर जोर से नर्तन उसे मरा हा समझकर रोती है।६७ करता था। (प्रोतालानर्तनोतिनंट, २२८ उत्त०)।
२०-किरात (३२०, उत्त०) १८-चाण्डाल (२५४, ४५७)
किरात भी एक जंगली जाति थी। इसका मुख्य पेशा एक उपमा में चाण्डाल का उल्लेख है। सफेद केश शिकार था। यशस्तिलक में सम्राट यशोधर जब शिकार को चाण्डाल के दण्ड (डण्ड) की उपमा दी गयी है।६२ के लिए गये तब उसके साथ अनेक किरात शिकार के एक स्थान पर कहा गया है कि वर्णाश्रम, जाति, कुल विविध उपकरण लेकर साथ में जाते है।६८ प्रादि की व्यवस्था तो व्यवहार से होती है, वास्तव में राजा के लिए जैसा विप्र वैसा चाण्डाल ।६३
२१-वनेचर (५६)
बनेचर शब्द से ही यह स्पष्ट कि यह जंगली जाति इसी प्रमंग में 'माल' शब्द का उल्लेख है : श्रुसदेव
__थी। किरातार्जुनीय में वनेचर का उल्लेख पाया ने उसका अर्थ चाण्डल किया है ।६४ चाण्डाल अछत। माना जाता था और समाज में उसका प्रत्यन्त निम्न स्थान था। सोमदेव ने चाण्डाल का स्पर्श हो जाने पर २२-मातंग (३२७, उत्त०) मन्त्र जपने का उल्लेख किया है ।६५
यह भी एक जंगली जाति थी। यशस्तिलक से ज्ञात १६-शबर (२८१, उत्त०, ६०)
होता कि विध्याटवी में मातंगों की बस्तियो थी। इनमें शवर एक जंगली जाति थी इसे भी अस्पश्य माना मद्य-मांस का प्रयोग बहुत था। अकेला प्रादमी मिल जाने
पर ये उसे भी मद्य-मांस पिला-खिला देते थे ।७०
६१. शैलपयोषिदिव ससृतिरेनमेपा, नानाविडम्बयति
नित्तकरैः प्रपंचैः । नानावेपः, पृ०६६१, स० टी० ६६. वहीं : ६२. चण्डालदण्ड, इव पृ० २५४
६७. प्राष्टिम्भविचेष्टितुण्डकलनान्नीहारकालागमे, ६३. वर्णाश्रमजातिकुलस्थितिरेपा देव संवृत्ते न्या।
हस्तन्यस्तफलद्रवा च शबरी वाष्पानुरं गेदनि परमार्थतश्चनृपते को विप्रः कश्च चाण्डालः ।।
६८. अनणुकोणोत्कणितपाणिभिः किरात परिवृत्त: पृ० ४५७
पृ० २२० ६४. प्रकृतिशुचिर्मालमध्येऽपि, भालमध्ये पि-चाण्डाल
पाण्डाल-६६. स. वणिलिगिः विदित. समाययो, युधिष्ठर वैतवने मध्येऽपि, प० ४५७ सं० टी०
__ वनेतरः, १११ ६५. चाण्डालशवरादिभिः, प्राप्लुत्य दण्डवत् सम्यग्जपेन्मन्त्र- ७०. विन्ध्याटवीविपये--मातगेरूपवध्य ...... उक्तः मुपोपितः पृ० २८१, उत्त.
पृ० ३२७ उत्त
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अहार का शान्तिनाथ संग्रहालय
श्री नीरज जैन
दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र प्रहार मध्य प्रदेश के प्राप्त हुपा है। कहा जाता है कि पाणाशाह ने इस प्रतिष्ठा टीकमगढ़ जिले में, टीकमगढ से १५ मील दूर है। इस के मेले पर एक विशाल पंक्तिभोज दिया था उसकी क्षेत्र को उत्तुग, सौम्य और सुन्दर शान्तिनाथ प्रतिमा के विशालता का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि विषय में अनेकान्त की गत किरण मे माप पढ़ चुके है। उस भोज में एक एक चुटकी परोसने के लिए भी बावन मन्दिर से लग कर बने हुए एक भवन में शान्तिनाथ मन मिरच पिमवानी पड़ी थी। संग्रहालय के नाम से पुरातत्त्व का एक मम्मन्न संग्रहालय इस विशाल जिन बिम्न की तरह इसकी यह प्रतिष्ठा स्थित है। उसी का परिचय मैं इस लेख में प्रस्तुत कर भी विशाल तो थी ही लगभग माखिरी भी थी। इसके रहा हूँ।
उपरान्त पचास वर्ष तक यहाँ किसी नवीन स्थापना के मध्ययुग के अन्तिम भाग (तेरहवी-चौदहवीं शताब्दी) साक्ष्य नहीं मिलते। सतत् १२८८, १३२० और १३३२ मे यह स्थान अपने उत्कर्ष की सीमा पर रहा है । अमफेर के जो एकाध अवशेष मिले है वे अपनी ह्रासोन्मुख कला मे बिखरे अवशेषों तथा संग्रहालय में एकत्रित खण्डित के कारण इस स्थान के उत्कर्ष की नही अपकर्ष की कहानी प्रतिमानों तथा कला खण्डों से इस क्षेत्र की तात्कालिक कहते है । बाद मे तो उत्तरोत्तर यह स्थान नष्ट, विलुप्त सम्पन्नता का परिचय मिलता है। यहाँ एकत्रित अधिकाश और धीहीन होकर एक दिन विस्मृति के गर्भ में लगभग मूर्तियों पर तिथि संवत सहित शिलालेख पाये जाने है। विलीन हो गया। प्राज से चालीस पचास वर्ष पूर्व इस क्षेत्र अब तक मौ से अधिक ऐसे लेख पढ़े जा चके है। इन का जीर्णोद्धार और पुनर्प्रतिष्ठा जिस प्रकार प्रारम्भ हुई लेखों की मामग्री से इतिहास के अनेक सन्दों पर प्राभा- उमकी कथा गताक में आप पढ़ चुके है। विक प्रकाश पड़ता है। विक्रम सवत ११२३ से लेकर कुछ ममय पूर्व इस स्थान के आस-पास सैकड़ो मूतिआज तक की तिथियों के ये शिलालेख बताते है कि कला- खण्ड यत्र तत्र बिम्बरे हुए थे। कला के पारखी और प्रेमी चन्देल गजानों की परम सास्कृतिक छत्रच्छाया में भविष्य द्रष्टा दो विद्वानो, सर्वश्री पण्डित बनारसीदास इस क्षेत्र का उद्भव और विकास हुआ । मूर्ति-प्रतिष्ठा का चतुर्वेदी और बाबू यशपाल का ध्यान इस बिखरे खजाने मिलमिला तो यहाँ बारहवी शताब्दी के प्रथम चरण की ओर गया और उनके परिश्रम और लगन से अहार में (११२३) मे प्रारम्भ हो गया था; पर तेरहवी शताब्दी श्री गातिनाथ मग्रहालय की स्थापना हुई। प्रमश. बढ़तेका पूर्वाद्धं इस क्षेत्र का स्वर्णकाल कहा जान योग्य है। बढ़ते प्राज अपने शानदार भवन में स्थित लगभग पांच इस काल मे मवत् १२०२, ३, ६, ७, ६, १०, ११, १२, मौ कला खण्डों का यह संग्रहालय दर्शनीय हो गया है। १३, १४, १६, १८, २३, २५, २८ और ३० की प्रतिष्टित यहाँ जो सामग्री एकत्रित है उममे द्वाग्नोरण, पद्मासन अनेक मूर्तियां मिली है।
तथा खड्गामन तीर्थकर मूर्तियों, शामन यक्ष, शासन विक्रम संवत् १२३७ में तो भगवान शातिनाथ की देवियां, इन्द्र, प्रमग, गन्धर्व और किन्नर बालानों के उस विशाल और चमत्कारिक प्रतिमा की यहाँ प्रतिष्ठा ननित रूप तथा भौति भांति के सिहासन, प्रभामण्डल, हुई थी जिमके चुम्बकीय आकर्षण के कारण इस स्थान वेदिका आदि जैन मूनिकला के प्रायः सभी पायाम उपको ' उनर भारत का गोम्मटेश्वर" कहलाने का अधिकार लब्ध है । इन अवशेषों मे भारतीय कला की सम्पन्नता
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अनेकान्त
में जैन संस्कृति के योगदान पर तो पर्याप्त प्रकाश पडता जिसमें शरीर की प्राकर्षक त्रिभंग मुद्रा का प्रदर्शन करते ही है, बुन्देलखण्ड के मौन और गौण तक्षक की दक्षता हुए मुख-भंगिमा को भी तदनुरूप चित्रित किया गया है। मोर साधना का भी ज्वलन्त उदाहरण इनमें प्राप्त होता दूसरी मूर्ति का शीष भाग भी खंडित है और पांव भी है। कला का संग्रहालय, वैसे तो देखने की चीज होता है। प्राधे टूटे हुए हैं, पर इस प्रप्सरा के शरीर का लोच, शब्दों में उसका सौन्दर्य बांधकर प्रस्तुत करना असम्भव नृत्य की उसकी अत्यन्त श्रमसाध्य मुद्रा और सुदृढ तथा होता है, फिर भी कुछेक विशिष्ट कलाखण्डों का विवरण सृडौल अंगों पर सुन्दर अलंकारों को शोभा देखते ही यहाँ दिया जा रहा है।
बनती है। इसी प्रकार एक मस्तक विदीन यक्ष प्रतिमा १. तोरण
भी अपने गले और कटि भाग के सुन्दर तथा बारीक सफेद बलुवा पत्थर का यह सुन्दर खण्डावशेप किसी अलंकरण के कारण प्रांखों में बस जाती है। बडी वेदिका का ऊपरी भाग है। इसके तक्षण में बड़ी ४. सिंहासनबारीक और सधी हई छेनी का योगदान रहा है। दोनो सिंहपीठ और शासन देवियों से अलंकृत अनेक मोर मकरमुखी मज्जा के बीच तीन तीन तीर्थकर तथा सिंहासन इस संग्रहालय में हैं पर यहाँ केवल दो का मध्य में भी तीन तीर्थकर हैं। ऊपर गन्धर्वगण को वादित्र उल्लेख करना है। हल्के भूरे रंग के सलेटी पत्थर का एक बजाते और नृत्यमग्न बताया गया है तथा बीच बीच में
सिंहासन लडवारी के जैन मन्दिर में सन् १९६२ में मैंने
सामन: कमलनाल को घमाकर पुष्पाकृति अंकित किया गया है। देखा था जो बाद में मेरी विनय पर वहाँ के लोगों ने इस इसी आकृति को काट-काटकर इस भाग को जाली का रूप संग्रहालय को भेंट कर दिया है। इसमें एक विशेष दे दिया गया है। चमत्कार की सीमा को छुती हुई इस कलात्मकता तो है ही पार्श्व में खड़ी हई शासन देवी ने तोरण की कलागत विशेषताएं दर्शनीय है और मनोहर इसे भव्यता प्रदान की है। गोलाइयों में तथा फूल-पत्तियों की सुकुमारता में दर्शक दूसरे जिस सिंहासन का उल्लेख मैं करने जा रहा है की दृष्टि को बाँध लेने की अद्भुत क्षमता है।
वह सचमुच अद्वितीय है। सिह युगल के ऊपर प्रासन की २. सरस्वती
रचना ही मिहासन की परम्परा है और यही उसके नाम चौबीसवें तीर्थकर भगवान महावीर की शामन देवी का व्युत्पत्ति अर्थ भी है, पर इस विशेष सिंहासन में नीचे सिद्धायिका या सरस्वती की यह चतुर्भूजी प्रतिमा ललित सिंहों का स्थान दो मदमाते हाथियों ने ले रखा है। इम प्रासन विराजमान अत्यन्त मनोहर है । एक हाथ में पुष्प- नाते इसे गजासन कहना अधिक उपयुक्त होगा। इन गुच्छक दूसरे में ताडपत्र का ग्रन्थ है। तीसग हाथ खंडित हाथियों के शरीर की रचना से शक्ति और वेग का स्पष्ट है तथा चौथे में कलश अकित है। इस देवी के प्राभरण प्राभास मिलता है। और अलंकार विशेष रूप मे दर्शनीय हैं। इनमें रत्नमकट, मैं तो इसे इन्द्र का अथवा इन्द्राणी का प्रासन मान शीया फूल, कुण्डल और हथफूल अपनी विशिष्ट बुन्देल- लेता पर इममें बीचोबीच अन्तिम तीर्थकर भगवान महाबण्डीय चटक-मटक के साथ अंकित किये गए है । मूर्ति के वीर की शासन मेविका सिद्धायिनी देवी अपने हाथों में मुख पर देवता सुलभ गौरव और मारल्य का प्रकन करने कमल, कलश और ग्रन्थ महित अपनी समस्त गरिमा ने में कलाकार सफल रहा है ।
मण्डित ललित प्रासन में विराजमान हैं। सम्भव है भगवान ३. अप्सराएं
महावीर के लिए परम्परा से हटकर इस प्रासन का निर्माण नृत्यमग्ना प्रासगों के अनेक रूप इस संग्रहालय में करते समय कलाकार के अंतस् में कहीं गूंज रहा होदेखने को मिलते है पर उनमें दो को भुलाना प्रासान नहीं यद, भावेन प्रमुदित मना दर्दुर इह है। एक तो केवल कटि भाग के ऊपर का ही हिस्सा है क्षणादासीत्सर्गी गुण गण समृद्धः सुखनिधिः ।
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कारजा के भट्टारक लक्षमीसेन
डा० विद्याधर जोहरापुरकर, मंडला
हमारे संग्रह के छोटे छोटे हस्तलिखित पत्रों का वर्ष फिर पट्ट खाली रहा । इस परम्परा के अन्तिम भट्टारक अध्ययन करते समय कारंजा के भट्टारक लक्ष्मीसेन के बीरसेन स्वामी स. १६३६ से १९६५ तक पट्टाधीश पट्टाभिषेक के विषय में एक कविता हमें प्राप्त हुई। इसमें रहे थे। कुछ जानकारी नई प्रतीत होने से इस कविता का मूल
__"मूल कविता" पाठ यहाँ दे रहे हैं। इस मराठी रचना में पांच पद्य है
लक्ष्मीसेन गुरु झाले कारंजे पटी। और प्रत्येक पद्य में पाठ पक्तियां है। लेखक का नाम
मुलसंघ पुष्करगच्छाचे माहेत प्रषिपति ॥५०॥ मालूम नहीं हो सका।
अजमेर नगराहुन माले रत्लभूषण स्वामी। इसके दूसरे पद्य में कारंजा के भट्टारकों की परम्परा
भट्टारक देवेंकीति मेटि घेउनी॥ के सात प्राचार्यों के नाम दिये हैं-सोमसेन, जिनसेन,
माषकहनि सन्मान केला प्रानन्ये मनी। समंतभद्र, छत्रसेन, नरेन्द्रसेन, शांतिमुनि (शांतिसेन), तथा
गादीवर बसले किसे किसे चम्न सूर्य योनी॥ सिद्धसेन फिर कहा है कि सिद्धसेन बावन वर्ष तक पट्ट और अंसे मेहसमान। का उपभोग कर दिवंगत हुए। उनके बाद दस वर्ष तक।
गम्भीर जैसे सिषुत जान। पट्ट खाली रहा तब दिलसुख और पुतलासा नामक सज्जनों
क्षमा ऐसी पवि प्रमाण । ने विचार कर के नये भट्टारक के रूप में लक्ष्मीसेन को
मानाचा भंडार ज्याचे गुण व किती ॥१॥ चुना। तीसरे पद्य के अनुसार इनका पट्टाभिषेक शक
सोमसेन जिनसेन भट्टारक समंतभद्र। १७५४ की वैशाख शु०६, मंगलवार को हुआ। पहले छत्रसेन नखसेन शातिमुनि जान ॥ पद्य मे कहा गया है कि अजमेर से रत्नभूषण स्वामी समकालीगह अवतरले सिरसेन स्वामी। कारंजा पाये थे तथा उन्होंने भट्टारक देवेन्द्रकीति से भेट सावन वर्ष पट भोगोनि झाले निर्वाणी ॥ की थी । लक्ष्मीसेन के पट्टाभिषेक में इन दोनों ने मूरिमत्र बस वर्ष गादी सुनी जान। देकर नये भट्टारक को पदासीन किया था यह भी तीसरे विचार केला दिलसुख पुतलासान । पद्य से ज्ञात होता है। पांचव पद्य में लक्ष्मीसेन द्वारा पठित माघ सूद प्रयोदशि दिसे सेनीजान । ग्रन्थों में त्रैलोक्यसार तथा गोमटसार का उल्लेख किया महाराजा ज्ञान पाहनी मन झाले तपती ॥२॥ है तथा उनके तत्त्वज्ञान की केवलज्ञान से ममानता बत- देशोदेशीचे लोक यंती पट्टालागोमी। लाई है। पट्टाभिषेक के बाद विहार के लिए उन्हें ग्वीला. श्रावक धाविका मुनि अजिका चतुरसय मिलोनि ॥ पुर का निमंत्रण मिला था। पुरानी परम्परा के अनुमार शक सत्रासे चउपन वैशाख शुद्ध नवमी। वे जिनकांची और पिनगडि के सिंहासनों के भी स्वामी भौमवासरे पंचमघटिके महतं पाहुनी॥ कहलाते थे।
क्षीरसागर नीर प्रानुनी। कारंजा में प्राप्त में ममाधिलेख के अनुसार लक्ष्मीमेन पंच मष्टि लोच करोनी। का स्वर्गवास मंवत् १९२२ (शक १७८७) में हुमा था। सरिमंत्र देतिल भट्टारक बोनी। इस प्रकार वे तेतीस वर्ष पट्टाधीश रहे । उनके बाद तेरह अष्टोत्तर से कलस हाती घेउन डालती ॥३॥
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साहित्य में अंतरिक्ष पार्श्वनाथ श्रीपुर
पं० नेमचन्द धन्नुसा जैन, न्यायतीर्थ
(१) श्री शासन चतुस्त्रिशिका :-१२वीं सदी के था। इसी इतिहास को पुष्ट करने वाला यह श्लोक उत्तरार्धमें होने वाले श्री मुनि मदनकीतिजी ने श्रीपुर है : पार्श्वनाथ की वंदना की थी। तब उन्होंने इसकी महिमा 'इति विशद विदेहः क्षेत्रतीर्थ सुनाम्ना। चित्रित की है कि-ग्राकाश में एक छोटा-सा पत्ता भी स्मरण जनित रागस्तेन पुण्य प्रभावात् । एक क्षणभर के लिए अधर नहीं रह सकता पर श्री कवि जगति (वि)मोहध्वात विध्वंसनेनः पार्श्वनाथ भगवान की प्रतिमा अंतरिक्ष में स्थित है यह लघुयति यतिमान: वादिराजो यतीन्दुः । श्रीपुर में देखकर किसको आश्चर्य नहीं होगा? यह
(३) एक प्राचीन हस्तलिखित प्रति में यह काव्य दिगम्बर शासन का जय-जयकार है। देखिए
मिलता है । इससे श्रीपद्मप्रभदेवके जीवन पर अच्छा प्रकाश 'पत्रं यत्र विहायसि प्रविपुले म्यातुक्षणं न क्षम,
पड़ता है, कि वे श्री अन्तरिक्ष पार्श्वनाथ का मंदिर बांधते तत्रास्ते गुणरत्नरोहणगिर्योि देवदेवो महान् ।
समय धीपूर में अवश्य उपस्थित होंगे, और उनके हि हाथ चित्रं नाम करोति कस्य मनसो दृष्टःपुरे श्रीपुरे,
से उस मूर्ति की स्थापना हुई होगी। वे श्लेक इस प्रकार स श्रीपार्वजिनेश्वगे विजयते दिग्वाससा शासनम् ॥
है :-'अथ श्री प्रतिष्ठाणपुरे, मुनि सुव्रतं वंदितात्मा (२) कारंजा, सेनगणमन्दिर के पुराणे पोथी में प्राप्तो देवगिरिसुसंथानं इ (मि) लोरसमि (मी)यं अंतरिक्ष पार्श्वनाथ पूजा अष्टक जयमाल के अंत में यह
वरम् ॥४॥ श्लोक पाया है । इससे श्री वादिराज मुनि के जीवन पर आगताना जनानां वा (5) आग्रहान्नुप वांछया ।
शि पडता है, उन्होंने इस पावन क्षत्र का स्मरण अस्माच्छी श्रीपुर, गत्वा, श्रीपाद पूज्य खेश्वरम् ॥६॥ करके उसके पुण्य प्रभाव से अपनः शरीर विशद (निमल) विवादी भूतवाद हि त्यक्त्वा श्रीजिनालयम् ।
-निरोग किया था। और कवि जगमें मोहतमका नाश- नूतनं विरचय्यासो, दक्षिणापथगाम्य भूत् ॥६॥ कर प्रभू बने थे। याने उस समय किसी काव्य की रचना इससे ज्ञात होता है कि, श्री पद्मप्रभदेव को देवगिरि उन्होंने की थी। एक बात मब जानते है कि, श्रीवादिराज से श्रीपुर बुलाया गया था। उन्होंने वहां जाकर रखेश्वर गनि ने एकीभाव स्तोत्र की रचना कर अपना कुष्ट दूर (अंतरिक्ष प्रभ) के श्रीपाद की पूजा की थी। और गाव भगाया था, तथा शरीर स्वर्ण समान कांतिमान किया के बाहर का विवादिभूत मंदिर को छोड़कर प्रतिमा जहा प्रमविदान नाम विले लक्ष्मीसेन स्वामी।
नानायी हे खानि जैसे प्रमत रस वानी। जिनमुद्रा घेउनी बंदिले पार्बनाय स्वामी।
भव्यजन हसती जैसे चंद्र चकोरानी॥ गादीवर बसले कि जैसे गणधर महामुनि ।
प्रैलोक्यसार गोमटसार प्राइकिले श्रवणी। श्रावक धाविका नमोस्तु करिती प्रवधे मिलोनी।। तत्वातत्त्व विचारुनि पाहे केवल सन्मानी। मुनि धर्मवृद्धि देती।
मामंत्रण दिले खोलापुर जान । देशोदेशिचे नजरा होती।
जिनकंचि पिनगुडि सिंहासन । कोणि एक शास्त्रदान करती।
त्याचे गृह प्रधिपति रमासेन । वाद्याचा हा गजर ऐकुनि गुण वणू मी किती ॥४ सेवक अज्ञानी कर जोडोनी करितो विनंति ॥४
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साहित्य में अंतरिक्ष पार्वनाम श्रीपुर
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स्थित हई थी वहां ही (गांवमें) प्रतिमा के ऊपर नया मेष्ठिः । ते सभा संहारपुज्या-सम्यक हारेण पूज्या, सं+हार मंदिर बंधवाया था।
इव वृत्ताकारा पूज्या, वृषभा-वृषणे धर्मेण भाति इति (४) पार्श्वनाथ स्तवन-अंतरिक्ष पार्श्वनाथ के वृषभा, सभा-समवशरणं इत्यर्थः । तदवस्थायां मत्रागमणे प्रतिष्ठा समय या पद्मप्रभदेव वहां जब पहुंचे तब उन्होने रामगिरी-मात्मारामस्य गिरी समवशरणे, हे पारर्णफणे'लक्ष्मीमहानुल्य मती मती सनी इस स्तोत्र से स्तवन घरणीन्द्र, गिरोगिरी-गिरा+यो गिरोः देवदुन्दुभिः दिव्य. किया था। उसमें वे कहते है
ध्वनिश्च इति द्विनादः अभवत् । 'पाश्चर्यमाचं मुमना मना मना, यत्सर्वदेशो भुवि ना विना विना ।
प्रात, रौद्र परिणामों से रहित या धर्मध्यान मे सहित समस्त विज्ञानमयो मयो मयो,
जीवों को प्रथवा सर्वज्ञ को न मानने वालों के लिए यह पार्श्व-फणे, रामगिरी गिगै गिगे।
पहला पाश्चर्य है कि प्रापका सब प्रदेश (परमौदारिक मंरक्षितो दिग्भुवने वनं ऽवनं,
शरीर या महामूर्ति) यक्षेन्द्र के बिना भी जमीन पर नहीं विराजितो येपु दिवं दिवं दिवः ।
है याने अन्तरिक्ष में है। अथवा देश याने प्रादेश त्रिभुवन पादद्वये नृत मुराः सुगः सुराः,
के स्वामी ऐसे आपके मिवाय भू पर नहीं है, याने जैनेन्द्र पार्वफणे रामगिरी गिरी गिरी॥७॥
मुद्राकित रहना आदि मत्य शामन प्रापका ही है। अथवा रराज नित्यं मकलं कल कलं,
देश याने उपदेश गणधरदेव के बिना नहीं हो सकता। ममारतृष्णोऽवजिनो जिनो जिनो।
प्राप सर्वज्ञ है तथा अन्तरंग बहिरंग दोनों श्रीलक्ष्मी से संहार पूज्यं वृषभा सभा सभा,
सहित हैं | पाप अन्तरिक्ष में खरदूषण प्रादि विद्याधरों पार्वफणे गमगिगै गिगै गिगे। ७॥
के द्वारा, उद्यान में-यक्षेन्द्रादि के द्वाग तथा ग्राम में
मुनि या राजा आदि के द्वाग सरक्षित और विराजित है। टीका-मुमना:-प्रातंरोदरहितमनाः शोभनचिन: वा,
प्रापके पादद्वय के स्तुति करने वाले देव हों या मनुष्य सुख मनामना:-मनान् यत् (ये) सर्वज्ञान् न मन्यमानाः, नेषां प्रति
को पाते है। यहाँ एक बात जरूर ध्यान में लेना चाहिए इदं माद्य प्रथमं पाश्चर्य, यत् ते (तव) सर्वदेश-प्रदेशः कि साक्षात जिनेन्द्र भगवान ममवशरण में किसी के द्वारा अविना (यक्षण) विना मपि भुवि नाथवा देश:-प्रादेशः संरक्षित या विगजित नहीं रहते है। अतः यहाँ श्रीपाश्व अविना (स्वामिना) ते विना भुवि ना, (पुरुषः) प्रधानीक प्रभु की यह अन्तरिक्ष प्रतिमा कहाँ और किसके द्वारा पुरुष । कस्यापि अन्यत् प्रादेशः न, इति भावार्थः) अथवा संरक्षित और विराजित हई इमी का ही यह स्पष्ट विवरण देश:-उपदेशः अविनागणधरदेवेन-विना भुवि ना। यतः
है ऐसा मानने में बाश नहीं पाती ॥७॥ जब पाप जिन इदं समस्तविज्ञानमयः, मयोमयः-समस्तलावण्यकान्ति
याने प्रात्माराम बनकर यहाँ पाये थे, तब पापके सौभाग्यादिभिः शोभितश्च ॥२॥]
(मात्माराम के) गिरी याने समवशरण में गिरा और प्रो दिग्भुवने-अन्तरिक्षे, वने-उद्याने, कानने वा, अवने- (ओं) कार ऐसी दो ध्वनि होती थी। याने देव दुन्दुभि ग्रामे, जले वा त्वं मंरक्षितः, येषु (यत्र) दिवे -खरदूपण
बजाते थे या देव, मनुष्य और तिर्यच वाणी के द्वारा गुणविद्याधरादिभिः, दिवः-यक्षेन्द्राभिः, दिवा+ऐ-दिनचारिभि
गान करते थे और प्राप्त ओंकार ध्वनि के द्वारा उपदेश मुनीन्द्रादिभिः विराजितः । तव पादद्वये नुत-स्तोत सुग
देते थे। सुराः-देवमनुष्यादयः मुरा:-सुष्ठु राजन्ते रमन्ते इति वा ॥३॥
इस तरह श्री पद्मनन्दी के शिष्य इन पमप्रभदेव ने त्वं, नित्यं मकलाकलाकलां-सम्पूर्णवस्थाकान्तिमध्ये श्रीपाश्वं प्रभु की स्तुति कर धरणीन्द्र को सचेत किया रराज, त्वं ममारतृष्ण:-प्रकामतृष्ण., अवृजिनः-निष्पाप., मोर उसके द्वारा उस प्रतिमाजी का पूरा इतिहास जात जिन:-जितेन्द्रिय., जिन:-त्रयोदशगुणस्थानतिन, महत्पर- कर प्रतिमाजी के ऊपर ही गांव में मन्दिर बंधवाया होगा।
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अनेकान्त
(५) सिद्धान्त चक्रवति श्रीनेमिचन्द्राचार्यकृत-प्रतिष्ठा श्री अन्तरिक्ष पार्श्वनाथ ही हो सकते है। ऐसा मानने में तिलक में श्री अन्तरिक्ष प्रभु का उल्लेख इस तरह कोई बाधा नहीं रहती। क्योंकि निर्वाणभक्ति के रचना मिलता है
समय किसी भी मान्यता के अनुसार 'अन्तरिक्ष पार्श्वनाथ मों अचान्तरिक्षो विहरविनोद, बनेषु पश्यन्सुजनोपसर्गम् । क्षेत्र का उद्धार हा ही था। प्रत:-'पासं सिरपुरि नुबन्बहभानु सखोंऽतरिक्षश्चूर्ण निशामाषजमावदातु ॥२७ वंदमि, होलागिरि शंख देवम्मि ।' यहां श्रीपुर के अन्तरिक्ष
(६) श्रीपूर पार्श्वनाथ स्तोत्र-इसे नवमी सदी के पार्श्वनाथ को ही वंदन किया है। विद्वान विद्यानन्दी को रचना न मान कर खिलजी अला- ८. तीर्थ वन्दना:-निर्वाणभक्ति के समान ही श्री उद्दीन के समकालीन (संवत् १३४६ से १३७१) के उदयकीतिजी ने अपभ्रंश भाषामें यह रचना की है, काल विद्यानन्दी की रचना मानें तो, यह स्तुति श्री अन्तरिक्ष अनिर्णीत है। उसमें यह उल्लेख हैपाश्वनाथ को ही लक्ष्य कर की गई है इसमें सन्देह नहीं करकंडराय निम्मिय उ, भेउ, हउं वंदउ अग्गलदेव देउ। रहता । क्योंकि अन्तरिक्ष प्रभु की स्थापना इनके तीन .
। अरु वंदउ शिरपुरपासनाह, जो अन्तरिक्ख थिउ णाणलाहु ।' शतक पूर्व ही होती है। हां, दक्षिण भारत में अन्य श्रीपुर वन्यः स्तुत्यो महान्स्त्वं, विभुरसि जगतामेक एवाप्तनाथ ॥ ६. भट्टारक ज्ञानभूषण (सं० १५३४.४२) में देव, धीपुरपाश्र्वनाथ, भुवनाधीशार्यपादाम्बुज... ॥१४॥ बलात्कारगरण ईडर शाखा के भ० भुवनकीर्ति के उत्तराजय जय जगतीनत, श्रीपद, श्रीपुरनिलयः॥२८॥ प्रादि धिकारी थे। इनके अष्टक जयमाल में इस क्षेत्र का उल्लेख
है। अतः ये प्रत्यक्ष श्रीपुर पधारे होंगे ऐसा लगता है। हे पार्श्व प्रभो ! जो आपके श्रीपाद की भक्ति करेगा।
देखो।वह श्रीपुर का प्राश्रय लेगा ही। इसमे दो अर्थ हैं-श्रीपुर
जयमाल :को प्राये बिना श्रीपाद ऐसे पार्श्व प्रभु की भक्ति नहीं हो सकती, या श्रीपाद श्रीपद के भक्ति से श्रीपुर सिद्धिस्थान
काशी देश वाराणसी नगरं, अश्वसेन सुत पाश्र्वजिनेशं । को पावेगा। क्योंकि आप श्रीपूर पाश्वनाथ हैं, श्रीपद हैं श्रीपुर स्वामी अन्तसुरिक्षं, वंदे अतिशय क्षेत्र पवित्रम ॥२॥ और श्रीपुर ही स्थान है जिनका ऐसे है। आदि ।
१०. महिपाल (सं० १५३४)-यह भ० ज्ञानभूषण प्रसिद्ध जरूर होगा पर वहां प्रसिद्धि-प्राप्त पार्श्वनाथ नहीं का तथा भ० ज्ञानकीति का भी शिष्य था। भ० ज्ञानसिद्ध होते, या श्रीपार्श्वनाथ से ही प्रसिद्ध ऐसा वह श्रीपुर कीति बलात्कार गण भानपुर शाखा के भट्टारक थे। इनके नहीं जान पड़ता। जैमाकि विद्यानन्दी ने इस स्तोत्र में साथ महिपाल विदर्भ में प्राये तो, इधर ही रमे । महिपाल कहा है
ने अन्तरिक्ष पाश्र्वनाथ अष्टक, जयमाल, स्तुति, पारत्यादि यः श्रीपादं तवेश, श्रयति सपदि सः श्रीपुरं संश्रयेत ।
तथा पद्मावतीदेवी का पूजन साहित्य भरपूर निर्माण किया
है। कहीं कहीं इनका उल्लेख महिपत-महिपति के नाम स्वामिन पाश्र्वप्रभो, त्वत्प्रवचन वचनोद्दीप्र-वीप-प्रभावः॥ लकवा मार्ग निरस्ताखिलविपदमतो. यत्यमोश सपोभिः ।
से भी होता है। देवो
अष्टक७. निर्वाणभक्ति :-डॉ० जोहरापुर करके कथना
"सिंधुगंगसुसार सुन्दर रत्न जडित भंगारकं, नुसार इसकी रचना राजा ईल श्रीपाल (१०सदी) के बाद
वारि भरिकरिहेमकुम्भ सुश्रीपदद्वय धारकं । की ही मानें तो, निर्वाणभक्तिमें उद्धृत 'थीपुर पाश्वनाथ'
नगर श्रीपुरसिद्ध राजत पार्श्वनाथ जिनेश्वर, १. प्रतिष्ठा तिलक के कर्ता नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती अन्तरिक्ष नाम सत्यं सत्य श्री जगदीश्वरम् ॥ जलम् ॥
नहीं थे। यह कोई विद्वान भट्टारक हैं। जो गोम्मट- जयमालसार के कर्ता नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती से भिन्न हैं। 'स्वस्ति श्री जिनराज को, सुन्दर धरियो ध्यान ।
-सम्पादक श्रीपुर नग्र के बीच में, अन्तरिक्ष तुम नाम ॥१॥
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साहित्य में अंतरित पापनाप भीपुर
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सिद्ध स्वरूपी श्रीमहाराजा, नित नित वंदह श्रीजिनराजा। 'श्रीपद, श्रीपाद' ऐसे शब्द है उसी तरह यहां भी है। तथा श्रीपुर स्वामी पाश्र्वजिनेंद्र,नित प्रति पूजत श्रीशत इंद्र ॥२॥ महिपाल श्रीपुर को सिद्ध नगर कहते हैं और प्रभु अन्तअतिशय सुन्दर जय जयशंकर, पूर्ण दयानिधि श्रीअवतारं। रिक्ष होने से सिध स्वरूपी कहा है। भागे है--तीन लोक धन्य विद्याधर पुण्य विराजे,निर्मिल बिंब जगत्रय साजे ॥ को भूषण ऐसा यह बिम्ब विद्याधर के द्वारा निर्मित और यंत्र प्रतिष्ठा सुद्ध सुभावो विद्याधर घणु धणु सुख पायो। मंत्र से प्रतिष्ठित है। यहां यह बिब जल में विराजमान काल अनन्त श्री महाराजा, मसले पुरि एलच राजा॥ करने की कथा नहीं है, लेकिन एलिचपुर के एल राजा ने महिमा मोठा स्वामी नुसारो, दास कहावो प्रभुपद थारो। तोरणद्वार, मंडप रचना तथा सुन्दर देहरा (मन्दिर) सुन्दर देहरो कलश ध्वजाते, सुन्दर शोभा श्री जगमाते॥ बनाया यह बात स्पष्ट है। प्रागे भारति में वे स्पष्ट तोरण द्वारे श्री परसाल,मंडप रचना श्री चित्र शाल। लिखते है कि-ये हमारे देव दिगम्बर है। तथा यह
प्रादि। चिन्मयमूर्ति होने से इनका चितवन चिता को दूर करने भारती
वाला है। जै जै श्रीपुरमो, श्रीपुरमो, राज रहे जगमो,
११. भ. लक्ष्मीचन्द्र (सं० १५५५-८५)-ये अन्तरिक्ष स्वामी, जुग जुगमो,सो हम जाने घटमो॥ बलात्कारगण सूरत शाखा के भट्टारक मल्लिभूषण के शिष्य
जै जै ॥धृ॥ थे। सं० १५७८ के वैशाख सुदी १२ को श्रीपुर में जो पूर्ण प्रताप बड़ो, स्वामीजी, वर्णत अन्त नही जी। पंचकल्याणक प्रतिष्ठा हुई, इस समय भट्टारक लक्ष्मीचन्द्र, देव दिगम्बर है हमके जी, अतिशय सुन्दर जगति ॥१॥ श्री सिंहनंदी, श्री श्रुतसागर, ब्रह्म नेमिदत्त, पण्डित
जै जै ॥ प्रादि (प्रतिष्ठाचर्य) राघव, ब्रह्म महेद्रदत्त (प्रतिष्ठाकार) स्तवन
उपस्थित थे। अतः भ. लक्ष्मीचन्द्र जी ने शायद उसी श्रीपुरा प्रति स्वामी सावले, अन्तरिक्ष श्री स्वामी देखिले। समय रचे हुए अष्टक से पूजन किया होगा । देखोध्यान मी धरूं निन्य अन्तरि,
'मध्ये श्रीपुर पार्श्वनाथ चरणांभोजद्वयायोत्तम, वंदना कर स्वामी मन्दिरी ॥ आदि।
श्री भट्टारक मल्लिभूपणगुरो. शिष्येण संवर्णितम् । भारती-जय देव जय देव, जय चिन्तन ते,
तोयाचंवर नेमिदत्तयतिना स्वर्णादिपात्रस्थितं, चिता सर्व ही हरली, चिंता जे । मनी ते ।
भक्तया पण्डितराघवस्य वचमा कर्मक्षयार्थी ददे । चितामणी प्रभुनाम, चिन्मयमूर्ति तू; चिंता चितन ।
१२. पाश्र्वनाथ स्तवन:-उसी प्रतिष्ठा समय श्री प्रारति चिन्तित दे फल तूं ॥१॥ जयदेवजयदेव ॥.....
सिहनंदी के प्रेरणा से श्री श्रुतसागर जी ने इस स्तवन की श्रीपुर नग्न विधान, जय जय वर्तत से ।
रचना की थी। देवीज्ञान सुकीर्ति स्वामी, प्रभुपद पूजत से ।।
'ज्ञानादिमोहं (दं) परिनष्टमोहं, तत्पदाचा मी दास, स्वामी जानसि तूं।
रागादिदोपैः रहितं विदेह । नामे ते महिपाल, नित रंजसि तू ॥४॥ जयदेव ॥ आदि।
मुश्रीपुरस्थं सकलनिद्य,
श्री पार्श्वनाथं प्रणमामि वद्यम् ॥१॥ भारती-जय स्वामी श्री शिरपुरी, अन्तरिक्ष श्री गया ।
श्रीविश्वसेनस्य मुनं पवित्र, सुन्दर मंगल प्रारति, स्वामी मिधु तगय, ॥धृ।।
भव्यात्मनां भूरि मुगंभवत्रम् । सुधीपुरस्थं० जय जय जय जय, शिरपुर स्वामी, .
__शिरपुर पाश्वनाथ म्वामी। १. इतना स्पष्ट होने पर भी, श्वेतांबर भाई इस क्षेत्र के सावले स्वामी, सावले परब्रह्म ती पाहे ॥मादि।। मिर्फ इसी एक ही मूति को श्वेतांबर बताकर झगड़ा जिस तरह विद्यानन्द के श्रीपुर पार्श्वनाथ स्तोत्रमें कर रहे है । अफ़सोस है।
जयदष
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वाराणसी जालमिनं गुणोघं,
संसार दावानल- नाशमेषम् । सुश्रीपुरस्थं० सर्वे सत्वेषु हितं विरवतं, सत्प्रातिहार्याष्टक संप्रयुक्तम् । सुश्रीपुर० वर्णेन नीलं कमलाभिरामं,
कल्याणयुक्तं सुभगं विरामम् । सुवंतावन्नव हस्तकार्य, श्रीशं सभायां प्रणतेन्द्र जायम् ॥ पद्मावती पं (मं) डित नाग सेब्यं,
देवेंद्रवर्यैः सततं हि काव्यम्यम् || सुश्रीपुर० । वि ( उ ) ध्वस्त लीला कमला सुरेंद्र,
भक्तया प्रणीतं प्रचुगमरेंद्रम् । सुश्रीपुरस्थं० ॥ ८ सूरश्री श्रुतसागरात्सुपठितो विद्वदबुधाधीमतः । सस्वध्यानयुतो गुरुषितनिरतः श्रीसिंहनंदी मुनिः ॥ स्तोत्रं श्रीपुरनायकस्य फणिभृत्पार्श्वप्रभोः पठेद् । भुक्त्वा मानवनाथनाथपदवी मुक्तिश्रियं सोभ्यगात् ॥६॥
१३. भ० चन्द्रकीति (सं० १६५४-८१) - ये काष्ठा संघ नंदीतटगच्छ के भ० श्रीभूषण के शिष्य थे । इन्होंने अन्तरिक्ष प्रभु का प्रष्टक रचा है । वे इसे दूसरा मोक्षतीर्थं ही मानते हैं । देखो
भ्रष्टक - 'पद्मसौम्य (सोऽन्य ) मोक्षतीर्थं दिव्य नीर धारया । शौरवाब्जपंकताब्जगधसार सारया ॥
वति चकि चक्रि चक्र चर्चीतं समर्चये । श्रीमदंतरिक्ष पार्श्वनाथ, चारुपाद पंकजे ॥ आदि । तीर्थ वंदना - सिरपुर ग्राम जेथे, अन्तरिक्ष पार्श्वनाथ ॥४॥ भ्रष्टविध पूजा करा, चुके चौरघाशीचा फेरा ||६|ः"
का
१४. भ० सोमसेन (सं० १६५६-६६ ) ये कारंजा सेनगण के भ० गुणभद्र के शिष्य थे। इन्होंने सं० १६७२ तथा १६६६ में श्रीपुर में प्रतिष्ठा की थी । तथा सं० १६८० में वाशीम के अंबेकर पार्श्वनाथ की प्रतिष्ठा की थी । कारंजा जितूर, अन्जनगांव, नागपुर नादि जगह भी इनकी प्रतिष्ठित प्रतिमाएँ पाई जाती हैं । इनके साहित्य में भी इस क्षेत्र का उल्लेख मिलता है ।
प्रचलमेरु जयमाला - 'बावनगज मगसी गोम्मटस्वामी, अन्तरिक्षादिक पण वंदामि ॥२१॥ इंद्रध्वज पूजान्तर्गत भारतीय तीर्थ क्षेत्र में
'आर्यखंडे सदा भाति पार्श्वनाथान्तरिक्षकम् तं यजे भवनाशाय जलाद्यर्घ्यं दवे मुदा ॥३३॥ जयमाल में : - 'जय ग्रन्तरिक्ष जिन पार्श्वनमो । जय विद्युतनाम जिनेंद्र, नमो ॥३१॥
भ० सोमसेन ने अन्तरिक्ष पार्श्वनाथ जी के मन्दिर में सेनमण की गुरुगादी स्थापित की। वह ऊपर की मंजिल में है ।
१५. भ० विश्वभूषण (सं० १७२२ से ४४ ) ये बलात्कार गण अटेर शाखा के भ० थे । इन्होंने १०३ श्लोक की कृत्रिम कृत्रिम तीर्थ जयमाल लिखी है। इसमें प्रायः उस समय प्रसिद्ध सभी तीर्थो का उल्लेख है । 'अन्तरिक्ष वामा सुत मच्यें,
प्रद्भुत महिमा खग सुरम्यर्थे । लक्षेश्वर श्री शंख जिनेश्वर,
शंखसमुद्रं १ नेमिजिनेश्वर ||६८ || सं० १७४० के मार्गशीर्ष शुद्ध बीज को उन्होंने भ्रन्तरिक्ष प्रभु की वंदना पूजा की थी । देखो
'अर्धचंद्र सुहालफेणी पर्पटा शतरंध्रकैः । मालपूजा चन्द्रचक्रर्मोदकैर्दधि सङ्घटं ॥ अन्तरिक्ष पार्श्वनाथं संयजे गतस्मयं । क्षुधारोग निवर्तनायभव्याब्जनार्थ, धृतास्पदम् ॥ चरुं ॥ आदि ।
जयमाल -- पीठान्तरान्त भाति स पाइवनाथो, यस्याद्भुतं पश्यति सर्वलोकः । तस्यातिकां वै प्रभुनाथ शीघ्र, कैवल्यज्ञानोदय भ्राजमानः ॥ १॥ अन्तरिक्ष पीठे प्रप्रतिष्ठं, पार्श्वमनोज्ञ किल्विषनष्टम् । मणिमेचक शोभा अभिरामं,
सद्गुण विमल कीयधामम् ||२|| आदि । मालूम पड़ता है कि, श्रीपादवनाथ के सभी तीर्थों में यह स्वतंत्र ही तीर्थ है । इसका जैसा कि केवलज्ञान प्राप्त होने ही अधर विराजमान है, ऐसा
१. शंख समुद्भव ऐसा भी पाठ है।
चमत्कार सब देखते हैं । पर प्रभुजी समवशरण में मालूम पड़ता है। प्रोड्
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साहित्य में अंतरिक्ष पार्श्वनाष धोपुर
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होङ, यह तो सद्गुण, श्री [लक्ष्मी] और कीर्ति का १६. श्रीपाल दर्शन-प्रज्ञात कर्तृत्व-जलकूप से साक्षात् धाम ही है। प्रादि भावपूर्ण यह जयमाल विदोष पार्श्वनाथ की श्रीपाल राजा को प्राप्ति होने पर उसके जो महत्त्व को है । इसका झवट है
भाव होते है उसका पूर्ण दिग्दर्शन इसमें है।'शून्य वेदरूपी चन्द्र सुवर्षे, मार्गशीर्ष द्वितीया सुत हर्षे ।। 'जिन प्रतिबिंब देखियो जब, जे कार उच्चरे तवै। विश्वभूषण पूजा कृत प्राप्तं, तेन वंदित दुर्गतिघातम् ॥" जै जै निहकसंकजिन देव, जै जै स्वामी अलख प्रभेव ॥२
१६. पण्डित गंगादास [सं० १७४२-४३] बलात्कार सुरनर पुनि मिली पावै सेव, मुनिजनमरम नजाने भेव । गण मलयखेडका पाठ कारंजा में स्थापन करने वाले भ० ज कंदपंगज दलनमृगेश, जै जै चारित्र धराधासेस। ... धर्मचन्द्र [द्वितीय] के ये शिष्य थे। इन्होंने कारंजामें रहकर जै जै क्रोधसर्पहतमोर, जज प्रज्ञान रज निहत भोर ॥ बहुत साहित्य सेवा की है। इनकी जयमाल प्रारति में।' जै जै निराभरण शुभसंत, जे जे मुकति कामिनी कंत। अन्तरिक्ष प्रभु की वंदना का उल्लेख मिलता है । देखो- बिनु प्रायुध कछु अंक न रहै, रागद्वेष ताके न वह ॥६ जयमाल 'वर बोध निधान मनंत बलं,
धन्य पाय मेरे भये अब, तुमले पानि पहुचों जब । गतजन्म जरामय मोह मलम् ।
प्राज धन्य मेरे कर भए,स्वामी जिन प[पा] रस नमए । प्रयजेऽधरपार्श्वजिनेंद्रपरं
जाके कुल मारग नहि देव, नहि जाने दस लग्वन भेव ॥१७ शिव सम्पतिसागरचन्द्रवरम् ॥ प्रादि । जाके गुरु निरग्रंथ न होई, ताको विवेक कहां ते होई। प्रारति-प्रथम नमन माझे, परब्रह्मचरणा,
याते मैं तुम दरसन लयो, प्रातम अनुभो मो सौ करपी १८ अश्वसेनराया वामानन्दना ।
तुम परमातम सिद्धनिदान, तुम परहंत मोक्षपद दान । अन्तरिक्ष स्वामी त्रिभुवन नन्दना,
तुम चितत संसय दुख हरी, तुम सुमिरत अजरापद करो।१६ मनमोहन महाराज मुक्ति रंजना ॥
भक्ति वीनती करो उछाह, भव नासे मुझ शिवपुर लाह । जयदेव जयदेव, जय श्रीपुरराया,
भव्य जीव धीपाल नरेश, हाथ जोरि के प्ररज करेस २० सद्भावे प्रारति अपित तब पाया ॥ प्रादि ॥
२०. झलना-श्री. न्याहालचन्दकृत [अज्ञात काल] १७. भ. कल्याणकीर्ति स० १७००] ये बलात्कार
-भट्टारक थी छत्रसेन [सं० १७५४] कृत भूलने में गण लघुतरशाखा के भ० शांतिकीर्ति के उत्तराधिकारी थे।
इसका उल्लेख मिलता है । प्रतः हो सकता है भ० छत्रसेन इन्होंने भी स्वरचित अष्टक जयमाला से अन्तरिक्ष प्रभु की
जी का हि दीक्षापूर्व नाम न्याहालचन्द होगा। ये श्रीपुर पूजा की। देखो
को पारसकूल कहते है। साथ में खरदूपण राजा ने ही 'स्वधु नि समुद्भवेन शीतलेन वारिणा ।
प्रभु को जल में लय रखे ऐसा बताते है । देखोचारु चन्द्र मिश्रितेन पापतापहारिणा ॥
'सीरपुर म्याने अन्तरिक्ष केहने, भुक्तिमुक्तिसारसौख्य दायिणी सतां यजे,
जिसका नाम पारसकूल जगजाने। अन्तरिक्ष पार्श्वनाथ चारुपादपंकजे ॥ प्रादि ।
श्रीपाल भूपाल का कोड गया, इनके जयमाल में 'श्रीपाद द्वितीयं निरसादुरितं' प्रादि
य तो बात सारी प्रफरीग ज्याने ॥ उल्लेख है।
खरदूख राजा की खूब पूजा, १८. पामो [सं० अज्ञात] ये काष्टा संघ के भ०
प्रभु लय रखे जलग्याने । वासवभूषण के शिष्य थे। जिन ग्रह जयमाला मे वे इन
न्याहाल तो हाल तारीफ करे, प्रान्तरिक्ष प्रभु की वंदना करते हैं।
य तो जागती ज्योत कल जुगम्याने ॥ (क्रमशः) मुनिसुव्रत पैठण अभिरामं, एरंडवेल नेमीश्वर धाम । अन्तरिक्ष प्रभु श्रीपुरनाथं, पाबुगड नमो जोडी सुहाथ ।३०। १. चारित्रधर+घरसेस (प्रधर है शैया जिसकी, ऐसा)
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वृषभदेव तथा शिव-सम्बन्धी प्राच्य मान्यताएँ
डॉ० राजकुमार जैन एम० ए० पो-एच० डी०
पभदेव तथा शिव दोनों ही अति प्राचीन काल से अन्तः पुर की महारानी मरूदेवी के गर्भ में आये । उन्होंने भारत के महान् पाराध्य देव हैं । वैदिककाल से लेकर मध्य इस पवित्र शरीर का अवतार वातरशना श्रमण भाषियों यग तक प्राच्य वाङ्मय में दोनों का देव देवताओं के के धर्म को प्रकट करने की इच्छा से ग्रहण किया२। विविध रूपों में अंकन हमा है। वह अध्ययन का बड़ा भगवान ऋषभदेव के ईश्वरावतार होने की मान्यता मनोरंजक विषय है । प्रस्तुत लेखमें उन्हीं मान्यताओं की प्राचीन काल में इतनी बद्धमूल हुई कि शिव महापुराण में विस्तार पूर्वक चर्चा की जा रही है।
भी उन्हें शिव के अट्ठाईस योगावतारों में गिन्या गया३ । उपलब्ध भारती प्राच्यसाहित्य के अध्ययन से स्पष्ट है प्राचीनता की दृष्टि से भी यह अवतार राम कृष्ण के कि भगवान ऋपभदेव को जो मान्यता एवं पूज्यता जैन अवतारों से भी पूर्ववर्ती मान्य किया गया है। इस अवतार परम्परा में है। हिन्दू परम्परा में भी वही उसी कोटि की का जो हेतु श्रीमद् भागवत में दिखलाया गया है वह है। जिस प्रकार जैन परम्परा में उन्हें मान्य एवं प्रस्तुत श्रमण धर्म की परम्परा को असंदिग्ध रूप से भारती किया गया है। हिन्दूशास्त्र एवं पुराण भी उन्हें भगवान् साहित्य के प्राचीन तम ग्रन्थ ऋग्वेदसे संयुक्त करा देता के रूप में मान्य करते है।
है। ऋपभावतार का हेतु वातरशना श्रमण ऋपियों के श्रीमदभागवत १ में भगवान् वृषभदेव का बड़ा ही धर्मों को प्रकट करना बतलाया है। श्रीमद भागवत में सुन्दर चरित अकित किया गया है । इसमें भगवान् की ऋषभावतार का एक अन्य उद्देश्य भी इस प्रकार बतलाया स्वयंभूः मन प्रियव्रत, प्राग्नीध्र, नाभि तथा वृपभ-इन गया है। पांच पीढ़ियों को वंश परम्परा का वर्णन करते हुए लिखा 'अयमवतारो रजेसापप्लुत कंवल्योपशिक्षणार्थम् ।' है कि प्राग्नीध्र के पुत्र नाभिराजा के कोई पुत्र नहीं था। अर्थात् भगवान का यह अवतार रजोगुणी जनको प्रत. उन्होंने पुत्र की कामना से मरूदेवी के साथ यज्ञ किया कैवल्य की शिक्षा देने के लिये प्रयाशी भगवान् ने दर्शन दिये । ऋत्विजों ने उनका संस्तवन किया का यह अर्थ भी संभव है कि यह अवतार रजसे उपप्लुत और निवेदन किया कि राजपि नाभिका यह यज्ञ भगवान् अर्थात् रजोधारण 'मल धारण करना, वृत्ति द्वारा कैवल्य के समान पुत्र लाभ की इच्छा से सम्पन्न हो रहा है। की शिक्षा के लिये हया था। जैन साधूनो के प्राचार में भगवान ने उत्तर दिया-मेरे समान तो में ही हूँ, अन्य प्रस्नान अदन्त धावन तथा मल परिषह आदि के द्वारा कोई नहीं । तथापि ब्रह्म वाक्य मिथ्या नहीं होना चाहिये। रजोधारण वृत्ति को संयम का एक आवश्यक अग माना अतः मे स्वयं ही अपनी अशकला से प्राग्नीध्रनन्दन नाभि
गया है। बुद्ध के समय में भी रजोजल्लिक श्रमण विद्यमान के यहाँ अवतार लूंगा इसी वरदान के फलस्वरूप भगवान् ने ऋषभ के रूप में जन्म लिया।
२. वहिपि तस्मिन्नव विष्णुदत्त भगवान् परमपिभिः इसी पुराण में आगे लिखा है--यज्ञ में ऋपियो द्वारा प्रसादितो नाभेः प्रियचिकीर्षया तद्वरोधायने मेरुदेव्यां प्रसन्न किये जाने पर विष्णुदत्त परीक्षित स्वयं श्रीभगवान्
धर्मान्दयितु कामो वातरशनानां श्रमणानां विष्णु' महाराजा नाभि का प्रिय करने के लिये उनके
ऋषीणाम् उर्वमन्थिनां शुक्लया तनुवावततारः'
श्रीमद्भागवत पञ्चमस्कन्ध । १. श्रीमदभागवत ५,२-६
३. शिवपुराण ७, २, ६,
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वृषभदेव तथा शिव-सम्बन्धी प्राच्य मान्यताएँ
थे । तथागत ने श्रमणों को प्रचार प्रणाली में व्यवस्था लेते हुए एक बार कहा पार नाहं भवे मंघाटिकस्म भिक्खवे संपादि परिणमतेन सामान्यं वदामि धवेलकम प्रचेलकस्म अचेलकमन रजो जल्लिकस्स रजो जनिमनंन जटिल कस्स जटाधारणमसेन साम कामि ।'
अर्थात् हे भिक्षुग्रो, मैं संघाटिकके संघाटी धारण करने मात्र से श्रामण्य नही कहता, अचेलक के श्रचेलकत्व मात्र से, रजोजब्लिक के रजोजल्लिक मात्र से और जटनिक के जटाधारण मात्र से भी श्रामण्य नही कहता ।
भारत के प्राचीनतम साहित्य के अध्ययन मे स्पष्ट हैं कि उक्त वातराशना तथा रजो जल्लिक साधुग्रो की परम्परा बहुत प्राचीन परम्परा है, ऋग्वेद में
उस है।
मुनयो वातरशना पिशंगा वसते मला । वातस्यानु धाजि यन्ति यद्देवासी श्रविसत । उन्मादिता मौनेयेन वातां प्रातस्थिमा वयम्।
शरीरे दस्माकं सु मर्तासी अभिष्यथ अतीन्द्रियार्थदर्शी वातरसना मुनि भल धारण करते है जिससे वे पिंगल वर्ग दमाई देते है। जब वे बाकी गति को प्राणोपासना द्वारा धारण कर लेते है, अपने तप की महिमा से दे दीप्यमान होकर देवता स्वरूप को प्राप्त हो जाते है ।
यात रशना मुनि प्रकट करते है-ममस्त लौकिक व्यवहार को छोड़कर हम मौन वृद्धि मे उन्मतवत् 'परमा नन्द सम्पन्न' वायुभाव 'अंदशरीरी ध्यानवृत्ति' को प्राप्त होते है। तुम साधारण मनुष्य हमारे बाह्य शरीर मात्र को देख पाते हो हमारे सच्चे सभ्यन्तरस्वरूप को नहीं।
वानरशना मुनियों के वर्णन के प्रारम्भ में ऋग्वेद में ही 'कंशी' की निम्नाकित स्तुति की गई है, जो हम तथ्य की अभिव्यंजिका है कि केशी' वातरशना मुनियों के प्रधान थे, केपी की वह स्तुति निम्न प्रकार ३
'केश्यग्नि केशी विषं केशी विर्भात रोदसी । केशी विश्वं स्वशे] केशवं ज्योतिते ।।'
१. मज्झिमनिकाय ४०,
२. वेद १०, ११६.२-१.
३.
वेद १०, १३६. १।
तब
व
२३१
केशी अग्नि, जल, स्वर्ग तथा पृथ्वी को धारण करना है। केशी समस्त विश्व के तत्वों का दर्शन कराता है और । केणी ही प्रकाशमान 'ज्ञान' ज्योति कहलाता है, अर्थात् केवलज्ञानी कहलाता है।
ऋग्वेद के इन केशी तथा वातरशना मुनियों की सापनाथों की श्री मदभागवत में उल्लिखित बातरशना श्रमपि और उनके अधिनायक ऋषभ तथा उनकी साधनाओं की तुलना भारतीय चाध्यात्मिक साधना और उसके प्रवर्तक के निगूढ प्राक् ऐतिहासिक प्राध्याय को बड़ी सुन्दरता के साथ प्रकाश में लाती है ।
ऊपर के उल्लेखों से स्पष्ट है कि ऋग्वेद के वातरशना मुनि और श्री मद्भागवत के "वातरशना श्रमणऋषि " एक ही परम्परा अथवा सम्प्रदाय के वाचक हैं, सामान्यत hat का अर्थ केशधारी होता है, परन्तु मायणाचार्य ने 'केश स्थानीय रश्मियों को पार करने वाला' किया है और उससे सूर्य का अर्थ निकाला है, परन्तु प्रस्तुत सूक्त में जिन वातरगना साधों को मावनाओं का उस है, उनसे इस अर्थ की कोई संगति नहीं बैठती। केशी स्पष्टतः वातरक्षना मुनियों के अभिनायक ही हो सकते है जिनकी साधना में मल धारण, मौन-वृत्ति और उन्मादभाव (परमानन्द दशा) का विशेष उल्लेख है। मूक्त में भागे उन्हें ही
"मनिर्देवस्य देवस्य सकृत्याय मला हितः।"
देवदेवों के मुनि उपकारी तथा हितकारी गया बत लाया गया है। वातरशना शब्द में और मन रूपी वमन पारण करने में उनकी नाम्य वृद्धि का भी संकेत है।
श्रीमद्भागवत में ऋषभ का वर्णन करते हुए लिखा है'उर्वरित शरीरमाण-परिग्रह उन्मन व गगनपरि धान प्रकीर्णकेश पात्मत्यारोपित नीयो ब्रह्मावर्तात् प्रवव्राज | जडान्ध-मूक-बधिर पिशाचोन्मादकवत् प्रवधूतपोऽभिभाष्यमाणोऽपि जनानां गृहीन मौनव्रतः तृणी बभूव परागवलम्बमान-कुटिल जटिल कपिश केशभूरिभारोऽवधृत मलिन निज शरीरेण ग्रह गृहीत हवायुग्यत"
अर्थात् ऋषभ भगवान के शरीर मात्र का परिग्रह शेप रह गया था, वे उन्मत्त के समान दिगम्बर वेषधारी,
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अनेकान्त
बिखरे हुए केशों सहित पाह्वनीय अग्नि को अपने में ककवे वृषभो युक्त पासीद्, धारण करके ब्रह्मावर्त देश से प्रवजित हुए। वे जड़, मूक,
प्रवावचीत् सारपिरस्य केशी। अन्ध, बधिर, पिशाचोन्माद युक्त जैसे प्रवधूत वेष में पर्युक्तस्य द्रवतः सहानस, लोगों के बुलाने पर भी मौन-वृत्ति धारण किये हुए शान्त
ऋष्छन्तिष्मा निष्पवो मुद्गलानीम् ॥ रहते थे..."सब पोर लटकते हुए अपने कुटिल, जटिल,
जिस सूक्त में यह ऋचा पाई है, उसकी प्रस्तावना कपिश केशों के भार सहित अवधूत और मलिन शरीर के ।
में निरुक्त के जो 'मदगलस्य दप्ता गावः' आदि श्लोक साथ वे ऐसे दिखलाई देते थे, जैसे उन्हें कोई भूत लगा हो।
उद्धृत किये गये हैं, उनके अनुसार मुद्गल ऋषि की गायों ऋग्वेद के तथोक्त, केशीसूक्त तथा श्रीमद्भागवत में
को चोर ले गये थे। उन्हें लौटाने के लिए ऋषि ने केशी वणित श्री ऋषभदेव के चरित्र के तुलनात्मक अध्ययन से
वृषभ को अपना सारथी बनाया, जिसके वचनमात्र से वे प्रतीत होता है कि वैदिक केशी सूक्त को ही श्रीमद्भागवत्
गौएँ मागे को न भागकर पीछे की ओर लौट पड़ी। में पल्लवित भाष्यरस में प्रस्तुत कर दिया गया है। दोनों में ही वातरसना अथवा गगन-परिधान वृत्ति केश धारण.
प्रस्तुत ऋचा का भाष्य करते हुए सायणाचार्य ने पहले
तो वृषभ तथा केशी का वाच्यार्थ पृथक बतलाया है। कपिश वर्ण, मल धारण, मौन और उन्मादभाव समान
किन्तु फिर उन्होंने प्रकारान्तर से कहा हैरूप से वर्णित हैं।
"अथवा अस्य सारथिः सहायभूतः केशी प्रकृष्टवेषो भगवान ऋषभदेव के कुटिल केशों का अंकन जैन मूर्तिकला की एक प्राचीनतम परम्परा है जो आज तक
वृषभोऽवावचीत् भ्रशमशब्दयत् ।" इत्यादि
सायण के इस अर्थ को तथा निरुक्त के उस कथा बराबर प्रक्षुण्णरूप से चली आ रही है। यथार्थत. समस्त
प्रसंग को ध्यान में रखते हुए प्रस्तुत गाथा का निम्न अर्थ तीर्थकरों में केवल ऋषभदेव की ही मूर्तियों के शिर पर कुटिल केशों का रूप दिखलाया जाता है और वही उनका
प्रतीत होता है।
'मुद्गल ऋषि के सारथी (विद्वान नेता) केशी वृषभ प्राचीन विशेष लक्षण भी माना जाता है। ऋषभनाथ के
जो शत्रुओं का विनाश करने के लिए नियुक्त थे। उनकी केशरियानाथ नामान्तर में भी यही रहस्य निहित मालूम
वाणी निकली, जिसके फलस्वरूप जो मुद्गल ऋषि की देता है। केसर-केश और जटा-तीनों शब्द एक ही
गएँ (इन्द्रियाँ) जुते हुए दुर्धर रथ (शरीर) के साथ अर्थ के वाचक प्रतीत होते हैं। केसरियानाथ पर जो
दौड़ रही थीं, वे निश्चल होकर मौदगलानी (मुद्गल की केसर चढ़ाने की विशेष मान्यता प्रचलित है वह नाम स्वात्मवत्ति) की ओर लौट पड़ीं।" साम्य के कारण उत्पन्न हुई प्रतीत होती है। इस प्रकार
तात्पर्य यह कि ऋषि की जो इन्द्रियों पराङ्मुख थीं ऋग्वेद के केशी और वातरशना मुनि एवं श्रीमद्भागवत ।
वे उनके योगयुक्त ज्ञानी नेता केशी वषभ के धर्मोपदेश को के ऋषभ तीर्थकर तथा उनका निम्रन्थ सम्प्रदाय एक ही
सुनकर अन्तर्मुखी हो गई। सिद्ध होते हैं।
वर्षभदेव और वैदिक अग्नि देव ऋग्वेद की निम्नांकित ऋचा से केशी और वृषभ अग्निदेव की स्तुति में वैदिक सूत्रों में जिन विशेषणों अथवा ऋषभ के एकत्व का ही समर्थन होता है। का प्रयोग किया गया है। उनके अध्ययन से स्पष्ट है कि
यह अग्निदेव भौतिक अग्नि न होकर आदि प्रजापति १. राजस्थान के उदयपुर जिले का एक तीर्थ 'केशरिया यह माग्नदव भ तीर्थ' के नाम से प्रसिद्ध है, जो दिगम्बरः श्वेताम्बर वृषभदव हा
वृषभदेव ही हैं-जातवेवस [जन्मत: ज्ञान-सम्पन्न ] एवं वैष्णव मादि सम्प्रदाय वालों को समान रूप से रत्न परक्त [दर्शन, ज्ञान, चरित्र रूप रत्नों को धारण मान्य एवं पूजनीय है तथा जिसमें भ. ऋषभदेव की ३. देखो, डा. हीरालाल जैन का "पादितीर्थकर की
एक अत्यन्त प्राचीन सातिशय मूर्ति प्रतिष्ठित है। प्राचीनता तथा उनके धर्म की विशेषता" शीर्षक लेख २. ऋग्वेद १०,१०२६।
(अहिंसावाणी वर्ष ७ अंक १, २, १९५७)।
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वृषभदेव तथा शिव-सम्बन्धी प्राच्य मान्यताएं
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करने वाला] विश्व वेदस [विश्व तत्त्वो का ज्ञाता] मोक्ष तथ्य ही स्पष्ट नहीं होता कि वृषभदेव का ही अपर नाम नेता ऋत्विज [धर्म स्थापक], होता, हय, यज्ञ, सत्य, अग्निदेव रहा, अपितु यह भी सिद्ध है कि उपास्यदेव के यशबल इन्यादि । वैदिक ध्याख्याकारों ने भी लौकिक अर्थ में प्रयुक्त 'अग्नि' शब्द संस्कृत का न होकर अग्नि भ्रान्तियों का निग्रह करने के लिए स्थल-स्थल पर इस का लोक व्यवहृत प्राकृत अथवा अपभ्रंश रूप है जो प्रार्यमत का समर्थन करते हुए लिखा है कि अग्निदेव वही है गण के भारत प्रागमन में पूर्व ही प्रादि ब्रह्मा वृषभ के जिमकी उपासना मरुद्गण रुद्र संज्ञा से करते है* | लिए प्रयुक्त होता पा रहा था, यही कारण है कि ब्राह्मण रुद्र, शर्व, पशुपति, उग्र, प्रशनि, भव, महादेव, ईशान, ऋषियों को पभ की अग्नि मंजा 'अग्नि' अर्थमूलक करने कुमार---रुद्र के ये नौ नाम अग्निदेव के ही विशेषण है२। के लिए तत्सम्बन्धी थुनियों को आधार बनाकर उसकी अग्निदेव ही सूर्य है३ । परम विष्णु ही देवों [पार्दगण] व्युत्पत्ति 'प्रग्र' शब्द में करनी पड़ी। अन्यथा संस्कृत की अग्नि है४ । इम मत की सर्वाधिक पुष्टि अथर्ववेद के भाषा की दृष्टि से अग्र एवं अग्नि शब्द में अत्यन्त ऋषभ सूक्त मे होती है, जिसमें ऋषभ भगवान की अनेक पार्थक्य है। विशेषणो द्वारा स्तुति करते हुए उन्हें जात-वेदम् [अग्नि] वैदिक अनुमतियों से मिद्ध होता कि अग्नि मंजा विशेषण से भी विशिष्ट किया गया है ।
से वृषभ की उपासना करने वाले अधिकाश वे क्षत्रिय-जन उपर्यतः विशेषणों तथा ममस्त प्राचीन श्रुतयों के थे, जो पंचजन के नाम से प्रसिद्ध थे७ । इनमे यदु, तुर्वसा, आधार पर स्तुत्य अनि शब्द की व्युत्पत्ति करते हुए पुरु, ब्रह्म , अनु नाम की क्षत्रिय जातियाँ मम्मिलित थीं, ब्राह्मण ऋपियों ने यह व्यक्त किया है कि उपास्य देवो ये लोग ऋग्वैदिक काल में कुरुक्षेत्र, पचाल, मस्यदेश के अग्र में उत्पन्न होने के कारण वह अग्नि अथवा अग्नि और सुराष्ट्र देश में बसे थे। जब पार्यगण सप्तसिन्धु देश संज्ञा से प्रगिढ हप६ । इन लेखों के प्रकाश में केवन यह में से होते हुए कुरुभमि में ग्राबाद हए और यहाँ परजन
क्षत्रियों की धार्मिक संस्कृति के सम्पर्क में पाये तो उससे १. 'ऋग्वेद' ११, ११२, अथर्ववेद ६, ४, ३ ऋग्वेद १, प्रभावित होकर इन्होंने भी उनके प्राराध्य देव वपन को १८६१
अग्नि' संज्ञा से अपना पाराध्य देव बना लिया, यह ऐति* 'यो वै रुद्रः सोऽणिनः'-शतपथ ब्राह्मण ५, २, ४, हासिक तथा कश्यप गोत्री मरीचि पुत्र ऋपि ने अग्निदेव १३ ।
की स्तुति करते हुए ऋग्वेद १-६ मे 'देवा अग्निं धारयन् २. (अ) 'तान्येतानि अष्टौ रुद्रः शर्वः पशुपति उग्र. ,
द्रविणोदाम' शब्दों द्वारा स्वय व्यक्त किया है। अशनिः भवः महादेवः ईपान: अग्निरूपाणि कुमारी
इस मूक्त के नौ मत्र हैं। इनमे से पहले सात मन्त्रों नवम्' वही ६. १, ३, १८ ।।
के अन्त मे पिवर ने उक्त शब्दो को पुन:पुनः दोहराया (मा) एतानि व तेपामग्नीना नामानि यद् भवपति.
है। इसका अर्थ है कि-देवा (अपने को देव सज्ञा से भुवनपतिर्भूतानां पतिः, वही १, ३, ३, १६ ।
अभिवादन करने वाले प्रायंगण ने) द्रविणो दा (धनश्वयं ३. 'अग्निवर्वार्थ.' वही २, ५, १,४। ४. 'अग्निदेवानाम् भवो को विष्णु परम्' को तस्य ब्राह्मग ७,१।
(इ) वारवेल के शिलालेम्व (ईसा पूर्व द्वितीय ५. अथर्व ४,३।
शताब्दी) में भी ऋपजिन का उल्लेख अग्ग जिन ६. (अ) सयदस्य सर्वस्याप्रमस्मज्यत तस्मादग्निरग्नि
के रूप मे हुमा है (नन्द राजनीतान प्रगजिनस)। वै तमग्निरित्याचक्षते परोक्षय-शतपथ ब्राह्मण ६,
(ई) 'प्रजापतिः देवतानः सृज्यमान अगिनमेव देवानां १, १, ११॥
प्रथम ममृजत' तैनिगेय ब्राह्मण २१, ६, ४ । (मा) 'यद्वा एनमेतदने देवानां अजनयत् तस्मादग्नि
(उ) 'भगिनर्व सर्वाद्यम् ।' ताण्डव ब्राह्मण ५, ६३ । राप्रतवै नामतदद्यदगिरिति' वही २,२,४,२। ७. 'जना यदगिन मजयन्त पञ्च'- ऋग्वेद १०, ४५, ६ ।
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अनेकान्त
प्रदान करने वाले) अग्नि (अग्नि प्रजापति को) धारयन् देवता को) धारयन् (धारण कर लिया)३ । समातरिश्वा (अपना पाराधना-देव धारणा कर लिया)।
(वह वायु के समान निलेप और स्वतंत्र है) पुरुवार पुष्टि प्रस्तुत सूक्त ऐतिहासिक दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण (प्रभीप्ट वस्तमों का पण्टिकारक साधन है), उसने स्ववित है। इसमें प्रथम तो भगवान् वृषभ की स्तुति में गाये जाने (ज्ञान सम्पन्न होकर) तनयाय (पुत्र के लिये) गातं वाले ऋक, यज, साम एवं अथर्व संहितामों में संकलित (विद्या), विदद (दे दी), वह विशांगोपा (प्रजाओं का स्तोत्रों से भी प्राचीन उन निविद अथवा निगद स्तोत्रों संरक्षक है), पवितारोदस्योः (प्रभ्युदय तथा निःश्रेयम का उल्लेख है। जिनसे ध्वनित होता है कि भगवान् का उत्पादक है), देवों ने उस ट्रव्यदाता अग्नि (अग्रनेता वृषभ पार्यगण के आने से पूर्व ही भारत के प्राराध्यदेव को ग्रहण कर लिया। थे। इसके अतिरिक्त इस सूक्त में भगवान् वृषभद्वारा निर्वाण की पुण्य वेला में जब प्रादि प्रजापति वृषभ मनूनों की सन्तानीय प्रजा को अनेक विद्यामा से समृद्ध ने विनश्वर शरीर का त्याग करके सिद्धलोक को प्रस्थान करने, अपने पुत्र भरत को राज्य-भार सौंपने तथा अपने
11 किया तो उनके परम प्रशान्त रूप को प्रात्मसात करने
को अन्य पुत्र वृषभसेन को, जो जैन मान्यता के अनुसार वाली अन्त्येष्टि अग्नि ही तत्कालीन जन के लिये उनके भगवान् के ज्येष्ठ गणधर अथवा मानम पुत्र थे। ब्रह्म वीतगग रूप की एकमात्र संस्मारक बन कर रह गई। विद्या देने का भी उल्लेख है। इस सूक्त के निम्नांकित जाना ज प्रनिदान से ही अपने प्राराध्य के दर्शन पाने प्रथम चार मंत्रों में उल्लिखित तथ्यों की स्पष्टतः संपुष्टि लगी. उस समय मूर्तिकला का विकास नहीं हुआ था। होती है।
अतः यह सप्तजिह्वा अग्नि ही उस महा मानव का प्रतीक अपश्चमित्रं (जो रासार का मित्र है) धिषणा च
बन गई, उपलब्ध प्राचीन अनुश्रुतियों से ज्ञात होता है कि साधन (जो ध्यान द्वाग साध्य है), सहसा जायमानः
भगवान् के प्रति जन-जन के हृदयों में स्वभावत उद्दीप्त (जो स्वयंभू है) सद्यः काव्यानि वडधन्त विश्वा
होने वाले भक्तिभाव को संतुष्ट एवं संतृप्त करने के लिये (जो निरन्तर विभिन्न काव्य स्तोत्रोंको धारण करता रहता
उनके ज्येष्ठ गणधर [मानस पुत्र]ने इस भौतिक प्रग्नि द्वारा है, अर्थात् जिसकी सभी जन स्तुति करते रहते हैं), देवो
मादि ब्रह्मा वृषभ के उपासनार्थ इज्या, पूजा एवं अर्चना अग्निं धारयन् द्रविणोदाम् (देवों ने उस द्रव्य दाता अग्नि
का मार्ग निकाला था। वह याज्ञिक प्रक्रिया के प्रथम को धारण कर लिया)१।।
विधायक थे। उन्होने ही लोक मगल के लिये अभीष्ट पूर्वतया निविदा काव्यतासो. (जो प्राचीन निविदों
सिद्धि, अनिष्टपरिहार एवं रोग-निवृत्ति कर आदि अनेक द्वारा स्तुति किया जाता है), यमाः प्रजा अजन्यन् मनुनाम् ।
उपयोगी मन्त्र तन्त्र विद्याओं का सर्व प्रथम प्रकाश किया (जिससे मनुषों की सन्तानीय प्रजा की व्यवस्था की)
था, वह वैदिक परम्पग में ज्येष्ठ अथर्वन और जैन विवस्वता चक्षुषा धाम पञ्च (जो अपने ज्ञान द्वारा द्यु और पृथ्वी को व्याप्त किये हए हैं), देवों ने उस द्रव्यदाता
३. ऋग्वेद १,६,३। को धारण कर लिया)२।
४. वही. १,६,४। तमीडेत महासाथं (तुम उसकी स्तुति करो जो सर्व
५. [प] सत्यवात सामथमी निरत्कालोचन वि. म. प्रथम मोक्ष का साधक है), अर्हतं (सर्व पूज्य है), पारीविशः उब्जाभूज्जसानम् (जिसने स्वयं शरण में आने वाली
१०५३ पृ० संख्या १५५ ।
[पा] A.C. Das-Rigvedic Culture प्रजाको बलसे समृद्ध करके), पुत्र भरत संप्रदायूँ (अपने पुत्र
P.113-115 भरत को सौप दिया), देवों ने उस द्रव्यदाता अग्नि (अग्नि
(5) Dr. Winternitz-History of १. ऋग्वेद १,९,१।
Indian, Literature Vo.I, 1927 P.I:20 २. वही १,६,२।
[६] 'अग्निर्जातो अथर्वना'-ऋग्वेद १०,२१,५.
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वृषभदेव तवा शिव-सम्बन्धी प्राच्य मान्यताएं
२१५ परम्परा में ज्येष्ठ गणघर के नाम से प्रसिद्ध हैं, जैन बतलाई गई याशिक प्रक्रिया के अनुसार प्रज (जौ]४, परम्परा के अनुसार यह भगवान् वृषभदेव के पुत्र वृषभसेन प्रक्षत (चावल), तथा घृत-इनका प्रयोग पाहुति के थे। भगवान् ने इन्हें ही समस्त विद्यामों में प्रधान ब्रह्म- के लिए किया जाता था और पूजा के समय भगवान विद्या देकर लोक में अपना उत्तराधिकारी बनाया वृषभ का सानिध्य बनाये रखने के लिए 'वषट्' शब्द का था।
और उनके पर्थ पाहुति देते समय उन द्वारा घोषित इनके द्वारा तथा अन्य अथर्वनों [गणधरों) द्वारा स्वात्म-महिमा को ध्यान में रखने के लिए 'स्वाहा' शब्द प्रतिपादित अनेक तान्त्रिक विधानों तथा वृषभ के हिरण्य- का प्रयोग आवश्यक था, क्योंकि वषट्' उच्चारण द्वारा गर्भ, जातवेदस् जन्य, उग्र तपस्या, सर्वशता देशना, सिद्ध भौतिक अग्नि की स्थापना करते हुए उपासक जन वास्तव लोक प्राप्ति सम्बन्धी अनेक रहस्य पूर्ण वार्तामों तथा में वृषभ भगवान की ही स्थापना करते है। और 'स्वाहा' यति वात्यश्रमणों को प्राध्यात्मिक चर्चा का संकलन चौथे शब्द द्वारा भौतिक अग्नि में प्राहुति देते हुए भी अपनी वेद में हुमा है । प्रतः इसकी प्रसिद्धि प्रथर्ववेद के नाम से प्रात्म-महिमा को ही जागत करते हैं। वषट् शब्द का
उच्चारण किए बिना अग्नि की आसना भौतिक अग्नि अथर्वन द्वाग प्रतिपादित प्रक्रिया के अनुसार अग्नि की ही उपासना है। में हव्य द्रव्य की आहुति देकर सर्व प्रथम वृषभ की पूजा
वृषभ के विविध रूप और इतिवत्त उनके ज्येष्ठ पुत्र तथा भारत के मादि चक्रवर्ती भरत जैन परम्परा के अनुमार भगवान ऋपभदेव अपने पूर्व महाराज, जो मनु के नाम से भी प्रसिद्ध थे, ने की थी। जन्म में सर्वार्थमिद्धि विमान में एक महान ऋद्धिधारी देव इसके पश्चात् उनका अनुकरण करते हुए समस्त प्रजाजन थे। प्रायु के अन्त में उन्होंने वहां से चय कर प्रयोध्याभगवान् वपभदेव के प्रतीक रूप में अग्नि की पूजा में नरेश नाभिराय की गनी मरुदेवी के गर्भ में अवतरण प्रवृत्त हुए।
किया। इनके गर्भ में आने के छह माह पूर्व से ही नाभि
राय का भवन कुबेर के द्वाग हिरण्य की दृष्टि से भरपूर उक्त प्रक्रिया के अनुसार यह पुजा प्रातः, मध्याह्न
कर दिया गया, अत: जन्म लेने के पश्चात् यह हिरण्यगर्भ और सायं तीनों काल होती थी। अथर्ववेद अनड्वान
के नाम से प्रसिद्ध हुए । गर्भावतार के ममय भगवान की सूक्त में इस पूजा का फल बतलाते हुए कहा है कि जो
माता ने स्वप्न में एक मुन्दर बैल को अपने मुख में प्रवेश इस प्रकार प्रतिदिन तीनों समय भगवान् वृपभ की पूजा
करते देखा था। अन. इनका नाम वृषभ रक्ग्वा गया। करते है वे उन्हीं के समान अविनाशी अमर पद के अधि
जन्म से ही यह मति, श्रुत, अवधि इन तीन ज्ञानों से कारी हो जाते है३ ।
विशिष्ट थे। अतः इनकी जातवेदम् नाम से प्रमिद्धि हई। प्राचीन अनुश्रुतियों से ज्ञात होता है कि प्रथर्वन द्वारा
बिना किसी गुरु की शिक्षा के ही अनेक विद्यानों के ज्ञाता
थे, इन्होंने जन्म-मृत्यु में अभिव्याप्त ममार में स्वयं सत्, १. [अ] ब्रह्मा देवाना प्रथमः मम्बभूव विश्वस्य कर्ता अन, धर्म एवं मोक्षमार्ग का माक्षात्कार किया था। प्रतः
भुवनस्य गोप्ता । स ब्रह्म विद्यां मर्व विद्या प्रतिष्ठाम- वह स्वयंभू तथा सुकृत नामों में प्रसिद्ध हप। भोग युग
वाय ज्येष्ठ पुत्राय प्राह ||-मुण्डकोपनिषद् १,१ की समाप्ति पर इन्होंने ही प्रजा को कृषि, पशुपालन [पा] 'स्थति तनमाह गातं विदद ' ऋग्वेद १,६६,४. तथा विविध शिल्प-उद्योगों की शिक्षा प्रदान की थी। प्रतः २. ] 'मन्हवा अग्रे यज्ञे ने तदनकृत्येमा प्रजायजन्त'- यह विधाता, विश्वकर्मा एवं प्रजापति नामो से विख्यात
१ ० हए। ये ही अपनी अन्त:प्रेरणा में संमार-शरीर तथा [प्रा] जिनसेन कृत प्रादिपुराण पर्व ४७,३२२,३५१. ४. "अजयंष्टके"-जिनमेन कृत हरिवंशपुराण ३. अथर्ववेद ४, ११, १२
२७, ३८, १६४
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२३६
अनेकान्त
ननी
भोगों से निविण्ण हुए तथा संयम एवं स्वाधीनता-पय के के अतिरिक्त जिनमें स्पष्टत: ऋषभ वृषभ, गौर तथा पथिक बनकर प्रवजित हए, प्रतः वशी, यति एवं व्रात्य अनड्वान का उल्लेख है, ऋक्, यज, साम, तीनों ही नामों से प्रसिद्ध हुए।
संहितामों के प्रायः समस्त छन्द, जिनमे उपर्युक्त संज्ञामो इन्होंने अपनी उग्र तपस्या, श्रम सहिष्णुता और सम. और विशेषणों से स्तुति की गई है, भगवान् वृषभ की वर्तना द्वारा अपने समस्त दोपों को भस्मसात् किया। अतः मोर ही संकेत करते हैं। यह रुद्र, श्रमण आदि संज्ञामों से विख्यात हुए। इन्होंने अथर्ववेद के इस तथ्य को व्यक्त करते हुए कहा गया अज्ञान तमस् का विनाश करके अपने अन्तस् में सम्पूर्ण है कि जिस प्रकार प्रापः (जल), वातः [वायु] और ज्ञान-सूर्य को उदित किया, भव्य जीवों को धार्मिक प्रति- औषधि [वनस्पति]-तीनों एक ही भवन [पृथ्वी के बोध दिया और अन्त में देह त्यागकर सिद्ध लोक में अक्षय पाश्रित हैं, उसी प्रकार ऋक्, यजु, साम-तीनों प्रकार पद की प्राप्ति की।
के छन्दों की कविजन "पुरस्यं दर्शतं विश्व चक्षणन् [बहु जैन परम्परा में जो वृत्त गर्भ, जन्म, तप, ज्ञान और रूव दिखाई देने वाले एक विश्वेदस् सहस्राक्ष, सर्वज्ञ को निर्वाण के नाम से प्रसिद्ध है और जिन्हें लोक-कल्याणी लक्ष्य रखकर ही वियेतिरे [व्याख्या करते हैं१] । होने से कल्याणक की संज्ञा दी गई है। वैदिक परम्परा में ऋग्वेद के निम्नांकित दो मंत्रों में हम भगवान् वृषभवही [१] हिरण्य गर्भ [२] जात-वेदम्, अग्नि, विश्वकर्मा, देव के तथोक्त रूपों एवं वृत्तों का वैसा ही इतिहासप्रजापति, [३] रुद्र पुरुष, व्रात्य, [४] सूर्य, प्रादित्य, क्रमानुसारी वर्णन देख सकते हैं, जैसा कि जैन परम्परा अर्क, रवि, विवस्वत, ज्येष्ठ, ब्रह्मा, वाक्पति, ब्रह्मणस्पति, विधान करती है वे मन्त्र निम्न प्रकार हे२। बहस्पति, [५] निगढ परमपद, परमेष्ठी पद, साध्यपद "दिवस्परि प्रथमं जज्ञे अग्नि द्वितीयं परिजातवेदाः । प्रादि संज्ञामों से प्रसिद्ध है।
तृतीयमप्सु नृपणा अजस्त्रभिधान एवं जाते स्वाधीः ।" मध्य एशिया, लघु एशिया, उत्तर पूर्वीय अफरीका के ।
___ अर्थात् अग्नि प्रजापति पहले देव-लोक में प्रकट हुए, समेर, वैवीलोनिया, सीरिया, यूनान, अरब, ईरान, मिश्र, दितीय बार द
द्वितीय बार हमारे बीच जन्मतः ज्ञान-सम्पन्न होकर प्रकट यथोपिया आदि संसार के समस्त प्राचीन देशों में जहाँ
हुए। तीसरा इनका वह स्वाधीन एवं आत्मवान् रूप है, भी पणि अथवा फणि और पुरु लोगों के विस्तार के साथ जब इन्होंने भव-सागर मे रहते हुए निर्मल वृत्ति से समस्त भारत से भगवान् वपम की श्रुतियाँ, सूक्तियाँ और कमेंन्धन को जला दिया। तपापाख्यान पहुचे है१ वहां भगवान् अशुर [असुर], प्रोसो- "विद्या ते अग्रे त्रेधा त्रयाणि विद्या ते धाम विभूता पुरून्ना। रिक्ष असुरशि अहरमज्द [ममुरमहत्], ईस्टर [ईषतर] विद्या ते नाम परम गुहा यद्विद्मा तमुत्सं यत आजगंथ३ ॥" जहोव यह्वमहान्] गौड [गौर गोड] अल्ला [ईड्य अर्थात् हे अग्रनेता, हम तेरे इन तीन प्रकार के तीन रूपों स्तुत्य], ए० एम० [अहमस्ति] सूर्यस् [सूर्य] रवि, मिथ को जानते है। इनके अतिरिक्त तेरे पूर्व के बहत प्रकार
मित्र] वरुण प्रादि अनेक लोक-प्रसिद्ध नामों और से धारण किये हुए रूपों को भी हम जानते हैं। इनके विशेषणों द्वारा पाराध्य देव ग्रहण कर लिये गये । यही अतिरिक्त तेरा जो निगूढ परमधाम है, उसको भी हम कारण है कि इन देशो के प्राचीन प्राराध्यदेव सम्बन्धी जो जानते है। और उच्च-मार्ग को भी हम जानते है जिसमे रहस्यपूर्ण पाख्यान परम्परागत सुरक्षित है, उनमें उपर्युक्त तू हमें प्राप्त होता है। चार वृत्त "१. In carnation २. Suffering उक्त स्मृति से स्पष्टत. प्रतीत होता है कि ऋग्वैदिक and crucification ३. ressurrection काल में भगवान् वृपभ के पूर्व जातक लोक में पर्याप्त और ४. Ascent to Heaves के नाम से प्रसिद्धि प्राप्त कर चुके थे।
(क्रमशः) प्रसिद्ध हैं । इस प्रकार इन सूक्तों और मन्त्रों १. अथर्ववेद १६, १.। १. Dr. H.R. Hall. The Ancient History २. ऋग्वेद १०, ४५, १ ।
of Eest १०४, ७७,१५८, २०३, ३६७, ४०२ ३. वही, १०, ४५, २।
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श्री लालबहादुर शास्त्री
श्री लाल बहादुर शास्त्री का निधन ऐसी अनहोनी एक और बात है जिसने उन्हें भारत के ही नहीं घटना है, जिस पर सहज ही विश्वास नहीं होता। हो संसार के महापुरुषों की पक्ति में बिठाया, वह चीज थी भी कैसे ! शाम को ताशकन्द घोपणा पर हस्ताक्षर किये, शान्तिपूर्ण सह अस्तित्व, तथा अहिता उनकी प्रविचल रात को रूस के प्रधानमंत्री श्री कोसीजिन द्वारा दिये था । वह चाहते थे कि गारे संसार में विभिन्नता होते भोज में शामिल हए। उसके उपरान्त दिल्ली अपने हुए भी एकता रहे। सभी राष्ट्र एक विज्ञान परिवार कूटम्बीजनों से फोन पर बात की, और प्रागम में सोने की भावना से एक दूसरे के सुख-दुख में काम प्रावें। गए। कौन कल्पना कर सकता था कि उसके कुछ ही लेकिन साथ ही वह यह भी मानते थे कि छोटे से छोटे समय के भीतर उनकी जीवन-लीला समाप्त हो जायगी। और बड़े से बड़े राष्ट्र को सम्मान पूर्वक जीने का अधि
कार होना चाहिए। उन्होंने कभी किसी भी राष्ट्र को शास्त्रीजी में कुछ असामान्य गुण थे, वह गरीब परि
दबाने का प्रयत्न नही किया, लेकिन साथ ही उन्होंने अपने वार में जन्में और गरीबी में पले, इसलिये सादगी नम्रता
देश को भी दबने नहीं दिया। हाल ही के पाकिस्तान के और मिलन सारना उनके स्वभाव के अभिन्न अंग बन
भारत पर आक्रमण के समय उन्होंने जो दृढ़ता दिखलाई गये । परिवार की अपेक्षा थी कि वह अपनी पढ़ाई लिखाई
वह इतिहाम की एक वे जोड़ मिशाल है। पूरी करके कार्य में लग जाएंगे, लेकिन विधि का विधान कुछ और ही था। गाधी की आंधी पाई और देश की सबसे अधिक विस्मय की बात यह है कि सैनिक ललकार पर शास्त्रीजी आजादी की लड़ाई में कूद पड़े। संघर्ष के होते हुए भी उन्होने मदा प्रेम शान्ति और प्राय. सभी राष्ट्रीय आन्दोलनो में उन्होंने सक्रिय भाग अहिसा की बात कही। वस्तुतः यह उनके नेतृत्व में लिया और उनके जीवन के लगभग ८ वर्ष जेल में गये। यदि भारत युद्ध में संलग्न हुमा तो इम पाकाक्षा से
कदापि नहीं कि उसे पाकिस्तान को जीतकर अपने में देश के स्वतत्र होने पर उन्होंने विश्राम नहीं लिया।
मिलाना था, बल्कि इगलिये कि वह पाकिस्तान के इस और विविध प्रकार से नये दायित्वों को अत्यन्त निष्टा ।
। वहम को दूर कर देना चाहता था कि वह सशस्त्र सेना और कर्मठता से अपने ऊपर लिया ! वह उत्तर प्रदेश में
के बल पर भारत को जीत सकता है। गृहमंत्री रहे । अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के महामत्री पद पर आसीन हप, केन्द्रीय रेल तथा परिवहन मंत्री के शास्त्रीजी गांधीजी के परम अनुयायी थे। गांधीजी भार को वहन किया और अन्त में नेहरू के निधन के की महिमा वीर की महिमा थी उसी रूप में शास्त्रीजी पश्चात् प्रधानमत्री बने।
ने महिला को अपनाया। उनके जीवन से दो बातें स्पष्ट है। पहली यह कि
यह बड़ दुर्भाग्य की बात है कि ऐसे समय में जब उन्होंने कभी दलबदी में भाग नहीं लिया और न कभी देश को शास्त्री की आवश्यकता थी, उनका निधन हो अपनी कोई पार्टी बनाई। दूसरी यह कि उन्हे पदों में गया। हम उनके प्रति अपनी श्रद्धाजलि अर्पित करते हैं मोह नहीं हुआ। समय आया और बड़े पद को उन्होंने पौर प्रभु में प्रार्थना करते है कि हमें और हमारे देश ऐसे त्याग दिया मानों वह कोई मामूली सी चीज है। को उनके मार्ग पर चलने की क्षमता प्राप्त हो।
यशपाल जैन
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जौनपुर में लिखित भगवती सूत्र प्रशस्ति
श्री अगरचंद भंवरलाल नाहटा, कलकत्ता
मध्यकालीन जैन इतिहास के साधन अनेक है और वे लिखाने वाले श्रीमल्लराज और उनकी गुरु परम्परा का प्रचर परिमाण में उपलब्ध हैं। पट्टावली, वंशावली, वर्णन है। इसके अनुसार सुप्रसिद्ध जैसलमेर आदि ज्ञान प्रशस्ति, काव्य, रास, तीर्थमाला, चैत्यपरिपाटी, प्रतिमा- भंडारों के स्थापक श्रीजिनभद्रसूरि के पट्टधर श्रीजिनचन्द्र लेख, ऐतिहासिक गीत प्रादि फुटकर रूप में अनेक सूरि के समय में उपाध्याय कमलसंयम के उपदेश से यह प्रति ऐतिहासिक तथ्यों पर नया प्रकाश डालते है। अभी ऐसे जौनपुर में लिखी गई थी। श्रीमाल वंश के चीचड़ गोत्रीय बहत से साधन अप्रकाशित हैं। इसीलिए जैन इतिहास सहणपाल की पत्नी पूरादेवी के पुत्र धीमलराज ने इस का सिलसिला ठीक से नहीं जम पाया। शृंखलाबद्ध प्रति को लिखवाया है । मल्लराज का क्षत्रिय कुण्ड राजगृह इतिहास लेखन के लिए ऐसे साधनों का समग्ररूप से और उगल्लादि [?] तीर्थों की यात्रा और पंचमी तप के उपयोग किया जाना आवश्यक है। इससे केवल जैन इतिहास उद्यापन के निमित से सिद्धान्त ग्रन्थों के लेखन का महत्त्वही नहीं, भारतीय इतिहास की भी बहुत सी महत्त्वपूर्ण पूर्ण उल्लेख है। क्षत्रिय कुण्ड और राजगृह तो प्रसिद्ध बातें जानने को मिल सकेगी। भारत के अनेक ग्राम नगरों तीर्थ है पर उगल्ल नामक कौन सा तीर्थ स्थान था, एवं वहाँ के शासको सम्बन्धी उल्लेख जैन ऐतिहासिक अन्वेषणीय है। भगवान महावीर के जन्म-स्थान के सम्बन्ध साधनों में मिलते हैं । किस शताब्दी में कहाँ कौन व्यक्ति में अभी जो दो मत प्रवतित है वैशाली के निकटवर्ती प्रसिद्ध हया व उसने क्या-क्या काम किये? इस सम्बन्ध स्थान मे भगवान का जन्म हुआ इस बात को मध्यकाल में भी प्रशस्तियों यादि से बहुत ही प्रामाणिक एवं का जैन समाज मान्य करता हो ऐसा प्रतीत नहीं होता। महत्त्वपूर्ण तथ्य प्राप्त हो जाते है।
क्षत्रिय कुण्ड को भगवान महावीर का जन्म-स्थान माना
जाता था और वही की तीर्थ यात्रा प्रचलित थी यह कविवर बनारसीदास जौनपुर के निवासी थे। वहाँ
मध्यकालीन प्रशस्तियों से स्पष्ट है । मुनि दर्शनविजय और भी बहुत से श्वेताम्बर थीमाल वंशीय खरतर
(त्रिकुटी) जी का 'क्षत्रिय कुण्ड' ग्रंथ दृष्टव्य है। गच्छानुयायी हुए है। बनारसीदास जी और उनके पूर्वज भी उसी शृंखला की एक कडी है। सोलहवीं शताब्दी भगवती सूत्र प्रशस्ति की लिखित कई जैन ग्रन्थों की प्रशस्तियों मे जौनपुर के खर- संवत् १५२६ समये फाल्गुन बदि १४ भौमवासरे। तर गच्छीय श्रावकों के उन प्रतियों को लिखाने एवं अन्य श्री खरतर गण जलधि प्रोल्लास विधौर्युगप्रधानस्य । धार्मिक कृत्यों के करने के उल्लेख मिलते हैं। सचित्र श्री जिनराजमुनीश्वर पट्ट सुपर्वादि कल्पतरो. ॥१॥ कल्प-सूत्र की प्रशस्ति तो प्रकाशित हो चुकी है, एक दो देव थी जिनभद्रसूरि सुगुरोः पट्टोरू पूर्वाचलो। अन्य प्रशस्तियां भी जौनपुर के श्रावकों से सम्बन्धित द्योतद्रव्य मयीकृत त्रिभुवनांभो जन्मिनी स्वामिपु । मिली थीं पर वे अभी हमारे पास नहीं है। प्रस्तुत लेख में श्रीमत् श्री जिनचन्द्रसूरि गुरुषु क्षीणीमिवोर्वीपतौ । स्वर्गीय कलाप्रेमी पूरणचंद्रजी नाहर की गुलाबकुमारी सम्यक् सम्प्रति पालयेत्सु महती गच्छस्य राज्य श्रियम् ।२। लायब्ररी में सुरक्षित भगवती सूत्र मूल की ३९२ पत्रों की श्रीकमल संयमोपाध्यायानां श्रमणमौलिरत्नानाम् । प्रति की लेखन प्रशस्ति प्रकाशित की जाती है। ये प्रशस्ति उपदेशाद्धावादपि श्रीयवनपुराभिधे नगरे ।।३।। सं १५२६ फाल्गुन पदी १४ की है । सात श्लोकों में ग्रंथ धमकनिष्ठो जिननायकाज्ञा शिरोमणिः सद्गुरु पादसेवी।
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साहित्य-समीक्षा
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सीमालवंशोद्भवशीतभानु. मुक्तोपम श्चीचड़ गोत्र बिखर गई होंगी। जौनपुर सम्बन्धी समस्त लेग्वो को
शुक्ती ॥ संगहीत किया जाय तो वहां के जैन इतिहास पर अवश्य भी सहनपाल तनुज. सकल महापुरुप पर्षदा रत्न। ही महत्त्वपूर्ण प्रकाश पड़ेगा। :मातुः पूरादेव्या उदर सर: सरसिजः प्रतिमः ।।५।। इस प्रशस्ति में जौनपुर के लिए यवनपुर शब्द का 'द्रव्यं तदेव सफलं यत् स्यादुपयोगि धर्म कार्येषु । प्रयोग किया गया है वह अवश्य ही विचारणीय है।
इति परिभाषयमानः श्राद्धः श्रीमल्लराजाख्यः ॥६। संस्कृत विद्वानों ने अनेक स्थानों व व्यक्तियों के देशी नामों "तीर्थ क्षत्रिय कुण्ड राजगृहक: श्री मदुगल्लादि सद्यात्रा। का विचित्र ढग से संस्कृतिकरण कर दिया है जो कभी. कृत्य निरुद्ध सर्व कलुषः पीयूष वाक्यः सुधी.। कभी बहत ही बेतका व भ्रमात्मक प्रतीत होता है। • पञ्चम्या स्तपसो विधाय महता व्यासेन चोद्यापनम् । जौनपुर के सम्बन्ध में अन्य ग्रन्थों मे क्या-क्या नाम पाये मिद्धान्तान् पकलान् क्रमेण विधिनाध्यारोपयन् पुस्तके १७ है? यह नाम क्यों पड़ा? इत्यादि बातें अन्वेषणीय है।
रम नयन समिति विधुमित विक्रम संवत्मरे ।
जिन कमलमयमोपाध्याय के उपदेश मे उपर्युक्त स पुण्यात्मा श्रीमद्भगवत्यंग सिद्धान्त लेखयांचके ॥॥ भगवती मूत्र लिखा गया है ये अपने समय के प्रभावशाली शुभ मस्तु॥
और प्रसिद्ध विद्वान थे उनके हाथ का लिखा हुमा एक जौनपुर मे जैन मन्दिर एवं श्रावको के घर उम ममप स्वर्णाक्षरी पत्र नाहर जी के मंग्रहालय में ३०-३५ वर्ष कितने थे? इस विषय में खोज की जानी चाहिए। वहा पूर्व देखा गया था। कविवर बनारसीदाम खरतर गच्छ के श्रावकों ने हस्त निम्विन प्रतियाँ लिखवायी है तो मभव के जिन प्रभमूरिशाखा के अनुयायी थे, उपर्युक्त प्रशस्ति है वहाँ ज्ञान भण्डार भी रहा हो। पीछे में जब श्रावक उमसे भिन्न जिनभद्र मूरि शाग्वा की है। इमसे खरतर लोग वहाँ मे चले गये तो वहाँ की प्रतियाँ भी यत्र-नत्र गच्छ की दोनों शाम्बानो का वहां प्रभाव मानूम होता है ।
साहित्य-समीक्षा
१जैन सिद्धान्त भास्कर
निबन्ध रहे तो अधिक उत्तम हो। अंग्रेजी के जैन पाठक सम्पादक . डॉ० ज्योतिप्रमाद जैन तथा डॉ. नेमिचंद्र न्यूनतम है। पहले का समय गुजर चका है। ऐमा करने जैन, प्रकाशक . देवकुमार जैन प्रोरियण्टल रिसर्च इन्स्टी- में हिन्दी के प्रचार-प्रमार में भी पर्याप्त महयोग मिल ट्यट, जैन मिद्धान्त भवन, प्राग, पाण्मामिक, दिसम्बर मकेगा। १९६४, भाग २४, किरण १, मूल्य ६ २० वार्षिक, निबन्धो का चयन उतम है। किन्तु 'हेमचन्द्राचार्य के पृष्ठ १००।
व्याकरणोद्धत अपभ्रंश दोहों का माहित्यिक मूल्यांकन' जैसे 'जैन मिद्धाल भास्कर, एक पुगना शोध पत्र है। निबन्ध कुछ भ्रमोन्पादक बन जाने है। हेमचन्द्र के अर्याभाव के कारण अभी बीच में कतिपय वर्ष बन्द रहा। व्याकरण में पाये उद्धरण उनके अपने नहीं हैं। उन्होंने अब पुन: चाल हुमा है। यह प्रसन्नता का विषय है। हम उनका चयन अन्य ग्रन्थों में किया था। किन्नु विद्वान उसका स्वागत करते हैं। हमारी अभिलापा है कि यह पाठक तक उन्हें हेमचन्द्र का मान बैठते हैं। मुझे स्मरण पत्रिका पाण्मामिक के स्थान पर त्रैमासिक निकने, जैसे है कि हिन्दी की एक गंगोष्ठी में एक प्रमिद्ध स्कालर ने कि पहले निकलनी थी।
इन उद्धरणों को हेमचन्द्र की रचना मानकर कटु पालोइममें हिन्दी और अंग्रेजी दोनों भाषाओं के निबन्ध चना की थी। प्रकाशित हुए है। यह इसकी पुरानी परम्परा के अनु- २ भारतीय जैन साहित्य परिवेशन १ कूल है। किन्तु जहां तक मैं समझा है यदि हिन्दी के ही प्रधान सम्पादक : पं. कैलाशचन्द्र जैन शास्त्री,
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अनेकान्त
वाराणसी, प्रकाशक भारतीय जैन साहित्य संसद् महाजन टोनी-१, धारा, अक्टूबर १९६५ पृष्ठ १७५ मूल्य १० रुपया ।
'भारतीय जैन साहित्य संसद्' का प्रथम अधिवेशन धारा मे, जनवरी १९६५ में हुआ था। उस समय जैन साहित्य कला संगोष्ठी और दर्शन-प्राचार संगोष्ठी का भी आयोजन किया गया था। इनके अन्तर्गत कतिपय विद्वानों ने जैन शोध-सम्बन्धी निबन्ध पढ़े थे। यहाँ उनका संकलन है। सामग्री होम और उपादेय है। जैन अनु सन्धित्सु उनसे प्रत्यधिक लाभान्वित होंगे, ऐसा हमें विश्वास है। संसद का यह पहला प्रयास सराहनीय है।
पत्रिका का मुख पृष्ठ सम्पादन, प्रूफ रीडिङ्ग, कागज, छपाई सब कुछ ग्राकर्षक है। हम हृदय से स्वागत करते हैं। संसद् अपने इस साहित्यिक अनुष्ठान में रुचिपूर्वक अगामी रहे, ऐसी हार्दिक भावना है।
प्रेमसागर
१ प्राकृत प्रबोध रचयिता डॉ० नेमिचन्द्र शास्त्री - प्राकृत संस्कृत विभागाध्यक्ष जैन कालेज, धारा, प्रकाशक चौखम्मा विद्याभवन, वाराणसी मू० ८) रुपये।
यद्यपि जैन साहित्य को मूलभाषा प्राकृत है। किन्तु दि० जैनों में प्राकृत भाषा का अध्ययन प्रायः उठ ही गया है। इसका कारण जहाँ पाठोपयोगी पुस्तकों का प्रभाव है वहाँ जैन विद्यालयों में प्राकृत के अध्ययन कराने की भी व्यवस्था नहीं है। विद्वान लोग संस्कृत छाया पर से प्राकृत ग्रन्थो का अर्थ छात्रों को पढ़ाते हैं ।
प्रस्तुत पुस्तक का जैसा नाम है, उसके अनुरूप ही उसमें प्राकृत का बोध कराने की क्षमता है। रचना सुबोध शैली में की गई है। प्राकृत भाषा के शब्दों की रुपावली का बोध होने के साथ-साथ प्राकृत भाषा में अनुवाद करने का सुबोध भी सुगम हो जाता है ।
डॉ॰ नेमिचन्द्रजी शास्त्री ने ज्योतिषाचार्य का परीक्षा के बाद संस्कृत, प्राकृत और हिन्दी में एम० ए० पास किया और अब प्रारा कालेज में संस्कृत प्राकृत विभाग के अध्यक्ष हैं। मगध विश्वविद्यालय में इनके कारण प्राकृत भाषा के शिक्षण में बड़ी प्रगति हुई है। शास्वीजी ने प्राकृत भाषा के पठनोपयोगी कई पुस्तकों का निर्माण
किया है। प्राकृत का व्याकरण भी लिखा है। प्रस्तुत पुस्तक सामने है ही । ।
इस पुस्तक को खरीद कर अपने पास रखने से प्राकृत भाषा के अध्ययन में विशेष सुविधा रहेगी। प्राकृत भाषा के अध्येताओं को इसे अवश्य मांगना चाहिये ।
।
'लेखक शिवनारायण सक्सेना' एम० ए०, प्रकाशक मूलचंद २. डा० कामताप्रसाद जी का व्यक्तित्व एवं कृतित्व किशनदास कापिड़िया, सूरत । मूल्य दो रुपया |
1
प्रस्तुत पुस्तक में स्वर्गीय डॉ० कामताप्रसाद जी के व्यक्तित्व और कृतित्व पर प्रकाश डाला गया है । डा० कामताप्रसाद जी साहित्य सेवी व्यक्ति थे। उन्होंने अनेक पुस्तकों का निर्माण किया है, वे धुन के पक्के थे। उनकी कुछ पुस्तकें परिषद् परीक्षा बोर्ड के पहनश्रम में शामिल है वे अपने अन्तिम जीवन तक साहित्य सेवा मे संलग्न रहे। उनकी सेवाओं का मूल्य समाज मां या नहीं, किन्तु उनका साहित्य उनकी सेवाओं का मूल्य सदा प्रांकता रहेगा । वे स्वयं एक सजीव संस्था थे । उनका अखिल जैन विश्वमिशन उनकी यादगार को अच्छे रूप में प्रस्तुत करता रहेगा। समसेनाजी ने इस पुस्तक में उनके व्यक्तित्व और कृतित्व पर अच्छा प्रकाश डाला है । इसके लिये वे धन्यवाद के पात्र है। पुस्तक उपयोगी है मंगा कर पढ़ना चाहिये।
३. प्रतिनिधि रचनाएं - लेखक, नानकसिंह प्रकाशक भारतीय ज्ञानपीठ काशी, मूल्य ४) रुपया ।
पंजाबी साहित्यकार नानकसिंह की स्वसंकलित प्रतिनिधि रचनाओं का यह संकलन सुन्दर हुआ है, लेखक ने स्वयं प्रपनी रचनाओं के कुछ अंश प्रस्तुत किये है। उनमें कुछ रचना उपन्यासिक ढंग पर लिखी गई है और कुछ कहानी के रूप में भी निवद्ध है। रचनाएं स्वाभाविक है और उनमें लेखक के अनुभव को पुट है । लेखक के ५० के लगभग उपन्यास प्रकाशित हो चुके है। कई पर पुरस्कार भी मिल चुका है। प्रस्तुत रचनाएँ अच्छी और स्फूर्ति दायक है। भाषा है वे पाठकों के मन को धनुरंजित करेंगी।
परमानन्द शास्त्री
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पं० रूपचन्द जी गार्गीय का स्वर्गवास
पानीपत मे दि. जैन ममाज के सुप्रसिद्ध लगनशील कार्यकर्ता श्री पं० रूपचन्द गार्गीय का प्राकस्मिक स्वर्गवास ११ दिसम्बर को ११।। बजे हो गया। अापकी आयु ६४ वर्ष की थी। समाज सेवा की पाप को सच्ची लगन थी। सभी प्रगतिशील संस्थानो एवं आन्दोलनो में आप सदैव सक्रिय सहयोग देते रहे है। आपके स्वर्गवास में एक सच्चा कार्यकर्ता हमसे छिन गया है। अनेकान्त परिवार की प्राप के इस दुख मे हार्दिक संवेदना है।
-अनेकान्त परिवार
वीर-सेवा-मन्दिर और "अनेकान्त" के सहायक
१०००) श्री मिश्रीलाल जी धर्मचन्द जी जैन, कलकत्ता : १५०) श्री जगमोहन जी सरावगी, कलकत्ता १०००) श्री देवेन्द्रकुमार जैन, ट्रस्ट,
। १५०) , कस्तूरचन्द जी प्रानन्दीलाल कलकत्ता श्री साहु शीतलप्रसाद जी, कलकत्ता
१५०) , कन्हैयालाल जी सीताराम, कलकत्ता ५००) श्री रामजीवन सरावगी एण्ड संस, कलकत्ता ! १५०) , पं० बाबूलाल जी जैन, कलकत्ता ५०.) श्री गजराज जी सरावगी, कलकत्ता
१५०), मालीराम जी सरावगी, कलकत्ता ५००) श्री नथमल जी सेठी, कलकत्ता
१५०) । प्रतापमल जी मदनलाल पांड्या, कलकत्ता ५००) श्री वैजनाथ जी धर्मचन जी, कलकत्ता १५०) , भागचन्द जी पाटनी, कलकत्ता ५००) श्री रतनलाल जी झांझरी, कलकत्ता
१५०) , शिखरचन्द जी सरावगी, कलकत्ता २५१) श्री रा० बा० रखचन्द जी जैन, रांची १५०) , सुरेन्द्रनाथ जो नरेन्द्र नाथ जा कलकत्ता २५१) श्री अमरचन्द जी जैन (पहाडघा), कलकत्ता । १०१) , मारवाड़ी वि० जैन समाज, व्यावर २५१) श्री स. सि. धन्यकुमार जी जैन, कटनी १०१) ,दिगम्बर जैन समाज, केकी २५१) श्री सेठ सोहनलाल जी जैन,
१०१) . सेठ चन्दूलाल कस्तूरचन्दगी, बम्बई नं. २ मैसर्स मुन्नालाल द्वारकादास, कलकत्ता
१०१, , लाला शान्तिलाल कागजी, दरियागज विल्ली २५१) श्री लाला जयप्रकाश जी जैन
१०१) , सेठ भंवरीलाल गो बाकलीवाल, इम्फाल स्वस्तिक मेटल वर्क्स, जगाधरी
१०१) , शान्ति प्रसाद जी जैन जैन बुक एजेन्सी. २५०) श्री मोतीलाल हीराचन्द गांधी, उस्मानाबाद
नई दिल्ली २५०) श्री बन्नशीधर जी जुगलकिशोर जी, कलकत्ता
१०१) , सेठ जगन्नाथजी पाण्या झूमरीतल्या २५०) श्री जुगमन्दरदास जी जैन, कलकत्ता
१०१) , सेठ भगवानदास शोभाराम जी सागर २५.) श्री सिंघई कुन्दनलाल जी, कटनी
(म०प्र०) २५०) श्री महावीरप्रसाद जी अग्रवाल, कलकत्ता १०१) , बाबू नृपेन्द्रकुमार जी जैन, कलकता २५०) श्री बी० पार० सी० जैन, कलकत्ता : १००) , बद्रीप्रसाद जो प्रात्माराम जी, पटना २५०) श्री रामस्वरूप जी नेमिचन्द्र जी, कलकत्सा १००) , रूपचन्दजी जन, कलकत्ता १५.) श्री बजरंगलाल जी चन्द्रकुमार जो, कलकत्ता : १००) , जैन रत्न सेठ गुलाबचन्द जी टोंग्या १५०) श्री चम्पालाल जी सरावगी, कलकत्ता
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R.N. 10591/82.
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तोरण-शांतिनाथ संग्रहालय, प्रहार
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सरस्वती-शांतिनाथ संग्रहालय, प्रहार (छायाकार श्री नीरज जैन)
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मासिक
फरवरी १९६६
Jীকার
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बाबू छोटेलाल जी जैन जन्म १६ फवरी १८९६ मृत्यु २६ जनवरी १९६६ XKKKKKKKAKKKKKKKKKXxxxx
समन्तभद्राश्रम (वीर-सेवा-मन्दिर) का मुखपत्र
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विषय-सूची
अनेकान्त को सहायता
विषय
७) डा. कस्तूरचन्द जी शास्त्री, एम.ए. पी-एच डी.
की सुपुत्री निर्मला और चि. महेश चन्द जी सुपुत्र श्री १. अहंत्-स्तवन-मुनि पद्मनन्दि
राजमल जी चादवाड के साथ समन्न होने वाले विवाहो६. प्राचार्य मानतुङ्ग-डा० नेमिचन्द शास्त्री एम. ए. । पलक्ष में निकाले हुए दान में से सात रुपया अनेकान्त को पी-एच डी.
२४२ / सधन्यवाद प्राप्त हुए। ३. डा. जेकोबी और वासी-चन्दन-कल्प
व्यवस्थापक अनेकान्त -मुनि श्री महेन्द्रकुमार जी (द्वितीय) २४७
अनेकान्त के ग्राहकों से ४. गंज-वासौदा के नमूर्ति व य यन्त्र-लेख -श्री कुन्दनलाल जैन एम. ए.
अनेकान्त की १८वें वर्ष की इस छठी किरण के साथ २६१
| सभी ग्राहको का मूल्य समाप्त हो जाता है। १६वे वर्ष ५. साहित्य में अन्तरिक्ष पाश्वनाथ श्रीपुर
का प्रथमांक 'श्रीछोटेलाल जैन स्मृति अंक' होगा। जा -नेमचन्द धन्नुसा जैन न्यायतीर्थ
महत्वपूर्ण एवं मंग्रहणीय और पठनीय एक बड़ा अंक होगा। ६. भगवान पार्श्वनाथ-परमानन्द जैन शास्त्री २६६ इसमें अनेक बहुमूल्य चित्र होंगे। अकेले अक का मूल्य ४)
रु० होगा, किन्तु ग्राहक बनने वालों को वह उसी छ. रुपया ७. अनेकान्त का छोटेलाल जैन विशेषांक- २७५ | के मूल्य में मिलेगा। विशेषांक की प्रतिया भी सीमित
परिमाण में छपेगी, अतः अनेकान्त के प्रेमी पाठकों को ८. वृषभदेव तथा शिव-सम्बन्धी प्राच्य मान्यताएं
६) रुपया मूल्य पहले ही भेजकर ग्राहक श्रेणी में अपना ---डा. राजकुमार जैन एम. ए. पी-एच. डी. २७६
नाम लिखा लेना चाहिये। अकेले विशेषांक पर लगनग ६. स्वर्गीय बाबू छोटेलाल जी की अपूर्ण योजनाएँ ३५ पैसे का पोष्टेज लगेगा। अनेकान्त के पुराने ग्राहको -नीरज जैन
२८१ | को भी अपना वार्षिक मूल्य शीघ्र मनीआर्डर से भेज देना १०. बाबू छोटेलाल जी-डा. प्रेमसागर जैन २८३ ।
चाहिये।
-व्यवस्थापक ११. वार्षिक विषय सूची २८७
अनेकान्त वीर सेवा मन्दिर २१ दरियागंज, बिल्ली ।
२६५
सम्पादक-मण्डल डा० प्रा० ने० उपाध्ये डा.प्रेमसागर जैन श्री यशपाल जैन
अनेकान्त का वार्षिक मूल्य ६) रुपया एक किरण का मूल्य १ रुपया २५ पै०
अनेकान्त में प्रकाशित विचारों के लिए सम्पानक मण्डल उत्तरदायी नहीं हैं।
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मोम् महन
अनेकान्त
परमागमस्य बीज निषिद्ध जात्यन्धसिन्धुरविधानम् । सकलनयविलसितानां विरोषमपनं नमाम्यनेकान्तम् ।।
वर्ष १८ किरण-६
वोर-सेवा-मन्दिर, २१ दरियागंज, दिल्ली-६ वीर निर्वाण सवत् २४६२, वि० सं० २०२२
5 फरी
सन् १९६६
अर्हत-स्तवन रागो यस्य न विद्यते क्वचिदपि प्रध्वस्तसंगग्रहात्, अस्त्रादेः परिवर्जनान्न च बुधढेषोऽपि संभाव्यते। तस्मात्साम्यमथात्मबोधनमतो जातः क्षयः कर्मणामानन्दादिगुरणाश्रयस्तु नियतं सोऽहंन्सदा पातु वः ॥१॥
-मुनि पचनन्दि
अर्थ-जिस परहंत परमेष्ठी के परिग्रह पी राग पिशाच से रहित हो जाने के कारण किसी भी इन्द्रिय विषय में राग नहीं है, त्रिशूल प्रादि प्रायुधों में रहित होने के कारण उक्त प्ररहन परमेष्ठी के विद्वानों के द्वारा द्वेष की भी संभावना नहीं की जा सकती है । इसीलिए राग-द्वेष से रहित हो जाने के कारण उनके ममता भाव पाविर्भूत हुया है, और इस समताभाव के प्रकट हो जाने में उनके आत्मावबोध हा । उस प्रान्मावबोध से उनके कर्मों का वियोग हुआ है । प्रतएव कमों के क्षय से जी अर्हन् परमेष्ठी अनन्त सुख प्रादि गुणों के प्राथय को प्राप्त हुए हैं। वे अर्हत् परमेष्ठी सदा प्राप लोगों की रक्षा करे ॥१॥
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आचार्य मानतुङ्ग डा० नेमिचन्द्र शास्त्री एम. ए. पी. एच. डी.
मनुष्य के मन को सांसारिक ऐश्वर्यो, भौतिक सूखों "मानत गनामक: शिताम्बरो महाकविः निग्रंथाचार्यएवं ऐन्द्रियिक भोगों से विमुखकर बुद्धिमार्ग और भगवद्- ययरपनीतमहाव्याधिप्रतिपन्ननिर्ग्रन्थमार्गो भगवन् कि भक्ति में लीन करने के हेतु जैन कवि मानतग ने मयुर क्रियतामिति व वाणो भगवत: पदमात्मनो गुणगणस्तोत्र और बाण के ममान स्तोत्र-काव्य का प्रणयन किया है। विधीयतामित्यादिष्ट भक्तामर इत्यादि " इनका भक्तामर स्तोत्र श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही अर्थात्-मानतुग श्वेताम्बर महाकवि थे । एक सम्प्रदायों में समान रूप से समादत है। कवि की यह दिगम्बराचार्य ने उनको महान्याधि से मुक्त कर दिया, रचना इतनी लोकप्रिय रही है, जिससे इसके प्रत्येक इससे उन्होंने दिगम्बरमार्ग ग्रहण कर लिया और पूछा मन्तिम चरण को लेकर समस्यापूत्मिक स्तोत्र-काव्य भगवन् ! अब मैं क्या करूं? आचार्य ने आज्ञा दी कि लिखे जाते रहे हैं। इस स्तोत्र की कई समस्यापूर्तियां परमात्मा के गुणों का स्तोत्र बनायो। फलतः प्रादेशाउपलब्ध है।
नुसार भक्तामर-स्तोत्र का प्रणयन किया गया। . प्राचार्य कवि मानतुग के जीवन-वृत्त के सम्बन्ध मे वि० स० १३३४ के श्वेताम्बराचार्य प्रभाचन्द्रसूरिकृत अनेक विरोधी विचार-धाराएं प्रचलित हैं । भट्टारक सकल- प्रभ
. प्रभावकचरित में मानतुंग के सम्बन्ध में लिखा है३ :चन्द्र के शिष्य ब्रह्मचारी रायमल्ल कृत 'भक्तामरवृत्ति'१
ये काशी निवासी धनदेव सेठ के पुत्र थे। पहले नोनित म
साला इन्होंने एक दिगम्बर मुनि में दीक्षा ली और इनका नाम है कि धाराधीश भोज की राजसभा में कालिदास, भारवि, चारुकीति महाकीर्ति रखा गया। अनन्तर एक श्वेताम्बर माघ आदि कवि रहते थे। मानत ग ने ४८ सांकलों को सम्प्रदाय की अनुयायिनी श्राविका ने उनके कमण्डलु के तोहकर जैनधर्म की प्रभावना की तथा राजा भोज को जल में त्रसजीव बतलाये, जिसमे उन्हें दिगम्बर चर्या में जैनधर्म का श्रद्धालु बनाया । दूसरी कथा भट्टारक विश्व- विराक्त हा गया भार जनासह नामक श्वेताम्बराचाय के भूपण कृत "भक्तामरचरित"२ मे है। इसमे भोज,भत हरि, निकट दीक्षिन होकर श्वेताम्बर साधु हो गये और उसी शुभचन्द्र, कालिदाम, धनञ्जय, वररुचि और मानतग को अवस्था में भक्तामर की उन्होने रचना की। समकालीन लिम्बा है। इसी पाख्यान में द्विसन्धान-महा- वि०म० १३६१ के मस्तुगकृत प्रबन्धचिन्तामणि प्रथ काव्य के रचयिता धनञ्जय को मानतुग का शिप्प भी मे लिखा है कि मयूर और बाण नामक साला-बहनोई पडित बताया है।
थे। वे अपनी विद्वत्ता से एक-दूसरे के साथ स्पर्धा करते आचार्य प्रभाचन्द्र ने क्रियाकलाप की टीका की थे। एक बार बाण पडित अपनी बहिन से मिलने गया उत्थानिका मे लिखा है .--
और उसके घर जाकर रात में द्वार पर सो गया। उसकी
मानवती बहिन रात में रूठी हुई थी और बहनोई रात १. इसका अनुवाद पं० उदयलाल काशलीवाल द्वारा
भर मनाता रहा प्रातः होने पर मयूर ने कहाप्रकाशित हो चुका है।
"हे तन्वगी! प्रायः सारी रात बीत चली, चन्द्रमा २. यह कथा जैन इतिहास-विशारद स्व. पं० नाथू- .. राम जी प्रेमी ने सन् १९१६ में बम्बई से प्रकाशित ३. मानतुगमूरिचरितम्-~-पृ० ११२.११७-मिधी भकतामर स्तोत्र की भूमिका में लिखी है।
ग्रंथमाला, १९४० ई.1
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प्राचार्य मानतुङ्ग
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क्षीण-सा हो रहा है, यह प्रदीप मानो निद्रा के अधीन हां उनके किकर देवतानो का चमत्कार देखा जा सकता होकर झूम रहा है और मान की सीमा तो प्रणाम करने है। इस प्रकार कह कर अपने शरीर को चवालीस हथतक होती है, ग्रहो! तो भी तुम क्रोध नहीं छोड़ कड़ियों पर बेडियों से कसवा कर उस नगर के श्री रही हो।"
युगादिदेव के मन्दिर के पिछले भाग में बैठ गये । भक्ताकाव्य के तीन पाद बार-बार सुनकर बाण ने चौथा मर-स्तोत्र की रचना करने से उनकी बेड़िया टूट गयी चरण बना कर कहा-'हे चण्डि ! स्तनों के निकटवर्ती और मन्दिर को अपने सम्मुख परिवर्तित कर शासन का होने से तुम्हारा हृदय कठिन हो गया है'
प्रभाव दिखलाया। गतप्राया रात्रिः कृशतनु शशी शोर्यत इव
मानतुग के सम्बन्धमें एक इतिवृत्त श्वेताम्बराचार्य प्रदीपोऽयं निद्रावशमपगतो पूणित इव । गुणाकर का भी उपलब्ध है। उन्होंने भक्तामर स्तोत्रवृत्ति प्रणामान्तो मानस्त्यजसि न तथापि कुषमहो मे, जिसकी रचना वि० सं० १४२६ में हुई है, प्रभावककुचप्रत्यासत्या हवयमपि ते चण्डि ! कठिनम॥ चरित के समान ही मयूर और बाण को श्वसुर एव भाई के मुग्व से चतुर्थ पाद को सुनकर वह लज्जित जामाता बताया है तथा इनके द्वारा रचित मूर्यशतक और हो गयी और अभिशाप दिया कि तुम कुष्ठी हो जानो। चण्डीशतक का निर्देश किया है । राजा का नाम बद्धभोज बाण पतिव्रता के शाप से तत्काल कुष्ठी हो गया। प्रातः है, जिसकी सभा में मानतुंग उपस्थित हुए थे। काल शाल से शरीर ढा कर वह राजसभा मे पाया। मानतुंग सम्बन्धी इस परस्पर विरोधी पाख्यानो के मयूर ने 'वरकोढ़ी'२ कहकर बाण का स्वागत किया। अध्ययन से निम्नलिखित तथ्य उपस्थित होते है :बारण ने देवताराधन का विचार किया और सूर्य के स्तवन (१) मयूर, बाण, कालिदास और माघ प्रादि प्रसिद्ध द्वारा कुष्ठ रोग से मुक्ति पाई। मयूर ने भी अपने हाथ- कवियों का एकत्र समवाय दिखलाने की प्रथा १०वीं शती पर काट लिये और चण्डिका की-"मा भक्षीविभ्रमम्"- से १५वीं शती तक के साहित्य में उपलब्ध है। बल्लाल स्तति द्वारा अपना शरीर स्वस्थ कर चमत्कार उपस्थित कवि विरचित भोज प्रबन्ध में भी इस प्रकार के अनेक किया।
इति वृत्त हैं। इन चमत्कारपूर्ण दश्यों के घटित होने के प्रनन्तर
(२) मानतुग को श्वेताम्बर पाख्यानों में पहले
(२) मानतग को नेताar Emai किमी मम्प्रदाय-विपी ने राजा मे कहा कि यदि जैन दिगम्बर और पश्चात श्वेताम्बर माना गया है। इसी धर्मावलम्बियों में कोई गेमा चमत्कारी हो. तभी जैन यहां परम्परा के आधार पर दिगम्बर लेखकों ने पहले इन्हे रहें, अन्यथा उन्हें राज्य में निर्वामित कर दिया जाय। श्वेताम्बर और पश्चात् दिगम्बर लिया है। यह कल्पना मानतंग प्राचार्य को बुलाकर राजा ने कहा-'अपने सम्प्रदाय-मोह का ही फल है। दिगम्बर और श्वेताम्बर देवताओं के कुछ चमत्कार दिखलायो'। वे बोले-हमारे मम्प्रदाय में जब परस्पर कट्ता उत्पन्न हो गई और मान्य देवना वीतरागी है, उनके चमत्कार क्या हो सकते है। प्राचार्यों को अपनी ओर ग्यीचने लगे तो इस प्रकार के
विकृत निवनों का माहित्य में प्रविष्ट होना अनिवार्य १. प्रवन्धचिन्तामणि-सिंधी प्रथमाला, मन १९३३
हो गया। १०४४ । प्रभावकचरित के कथानक मे बाण और मयर
(३) मानतग ने भक्तामर स्तोत्र की रचना की। को मसुर और दामाद लिखा है। प्रबन्धचिन्तामणि के
दोनों सम्प्रदायों ने अपनी-अपनी मान्यता के अनुसार हमे श्लोक के चतुर्थ चरण में "चण्डि" के स्थान पर "मृभ्र"
अपनाया । प्रारम्भ में इस स्तोत्र में ४८ काव्य-पद्य थे। पाठ पाया जाना है।
प्रत्येक पद्य मे काव्यत्व रहने के कारण ही ४८ पद्यों को २. 'वरकोढी' प्राकृत पद का पदच्छेद करने पर वरक प्रोढी-शाल ओढ़ कर आये हो तथा अच्छे कुष्ठी बने ३. प्रबन्धचिन्तामणि, सिंधी ग्रंथमाला, १९३३ ई०, हो; ये दोनों प्रर्थ निकलते हैं।
पृष्ठ ४४.४५॥
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२४
अनेकान्त
४८ काव्य कहा गया है। इन ४८ पद्यों में मे श्वेताम्बर के ममकालीन हैं । प्रत. सर्व प्रथम भोज की समकालीनता सम्प्रदाय ने प्रशोक वृक्ष, सिंहासन, छत्र और चमर इन पर विचार किया जाता है। इतिहास में बताया गया है चार प्रातिहार्यो के निरूपक पद्यों को ग्रहण किया तथा कि सीमक हर्ष के बाद उसका यशस्वी पूत्र मूज उपनाम दुन्दुभि, पुष्पवृष्टि, भामण्डल पार दिव्यध्वान इन चार वाक्पति वि० सं० १०३१ (ई. ९७४) में मालवा की प्रातिहार्यों के विवेचक पद्यों को निकालकर इस स्तोत्र में गद्दी पर ग्रामीन हया। वाक्पति मुञ्ज ने लाट, कर्ना
पद्य ही माने। इधर दिगम्बर सम्प्रदाय की कुछ टक, चोल और केरल के साथ युद्ध किया था। यह योद्धा हस्तलिखित प्रतियों में श्वेताम्बर सम्प्रदाय द्वारा निकाले तो था ही, साथ ही कला और साहित्य का सरक्षक भी। हए उक्त चार प्रातिहार्यों के बोधक चार नये पद्य और उसने धारा नगरी में अनेक ताला जोड़कर पद्यों की संख्या ५२ गढ़ ली गयी१ । वस्तुतः इस सभा में पद्मगुप्त, धनञ्जय, धनिक पोर हलायुध प्रभृति स्तोत्र-काव्य मे ४८ ही मूल पद्य है।
ख्यातिनाम साहित्यिक रहते थे। मुज के अनन्तर सिन्धु(४) स्तोत्र काव्यों का महत्त्व दिखलाने के लिए राज या नवसाहसांक सिंहासनासोन हुआ। सिन्धुराज के उनके साथ चमत्कारपूर्ण पाख्यानों की योजना की गई अल्पकालीन शासन के पश्चात् उसका पुत्र भोज परमोग है। मयूर, पुष्पदन्त, बाण प्रभृति कदियों के स्तोत्रों के की गद्दी पर बैठा। इस राजकुल का यह सर्वशक्तिमान पीछे कोई-न-कोई चमत्कारपूर्ण पाख्यान वर्तमान है। और यशस्वी नपति था । इसके राज्यासीन होने का समय भगवदभक्ति चाहे वह वीतरागी की हो या स रागी की, ई० सन् १००८ है। भोज ने दक्षिणी गजामों के साथ तो प्रभीष्ट पूत्ति करती है। पूजा-पद्धत्ति के प्रारम्भ होने के युद्ध किया ही, पर तुरुष्क एवं गुजरात के कीतिराज के पूर्व स्तोत्रों की परम्परा ही भक्ति के क्षेत्र में विद्यमान साथ भी युद्ध किया । मेरुतग के अनुसार२ भोज ने पचपन थी। यही कारण है कि भक्तामर, एकीभाव और कल्याण- वर्ष, सात माम, तीन दिन गज्य किया था। भोज विद्यामन्दिर प्रभति जैन स्तोत्रों के साथ भी चमत्कारपूर्ण रसिक था। उसके द्वारा रचित लगभग एक दर्जन ग्रथ पाख्यान जईहए हैं। इन पाख्यानों में ऐतिहासिक तथ्य हैं। इन्ही भोज के ममय मे प्राचार्य प्रभाचन्द्र ने अपना हो या न हो, पर इतना सत्य है कि एकाग्रतापूर्वक स्तोत्र- प्रमेयकमल-मार्तण्ड लिखा है - पाठ करने से प्रात्म-शुद्धि उत्पन्न होती है और यही "श्रीभोजराज्ये श्रीमद्धारानिवासिना पगपरपन्मपिठयांशिक शुद्धि प्रभीष्ट की सिद्धि में सहायक होती है। पदप्रणामाजिनामलपुण्यनिगकृतनिखिलमलकलन श्रीसमय-विचार :
मत्यभाचन्द्रपण्डितेन निखिलप्रमाणप्रमेयम्वरूपादयोतपरीक्षा
मुखपदामद विवृतमिति"३ । मानतग के समय-निर्णय पर उक्त विरोधी पाख्यानो।
श्री कैलाशचन्द्र जी शास्त्री ने प्रभाचन्द्र का समय से इतना प्रकाश अवश्य पडता है कि वे हर्ष अथवा भोज ,
1 ई० सन् १०२० के लगभग माना है। अत: भोज का १. अभी एक भक्तामर दि. जैन समाज, भागलपुर राज्यकाल ११वी शताब्दी है। (वि० सं० २४६०) में प्रकाशित दृग्रा है। जिसमें प्राचार्य कवि मानतग के भक्तामर स्तोत्र की शैली "वृष्टिदिव सुमनसा परितः प्रपात (३५): दुष्णामनुग्य- मयर और बारण को स्तोत्र-शैली के ममान है। अनाव सहसामपि कोटिसंख्यां (३७); देव त्वदीयमकलामलकेव- भोज के राज्य मे मानत ग ने अपने स्तोत्र की रचना नहीं लाव (३६) पद्य अधिक मुद्रित है।
की है । अत भोज के राज्य-काल में बाण और मयर के श्वेताम्बर मान्यता का एक भक्तामर हमे मिला है। साथ मानतंग का साहचर्य कराना सम्भव नहीं है। जिसमें 'गम्भीरताररव (३२), मन्दार-मुन्दग्नमेरूसुपारि- -
२. पञ्चाशत्पञ्चवर्षाणि मामाः सप्त दिनत्रयम् । जात (३३) शुम्भत्प्रभावलय (३४), स्वर्गापवर्ग (३५)
भोक्तव्यं भोजगजेन मगौड दक्षिणापथम् ।। पद्य मुद्रित नहीं हैं। ३१वें पद्य के पश्चात् ३६वें पद्य का प्रबन्धचिन्तामरिण पृ० २२, सिंधी ग्रंथमाला १६ । पाठ ३२वे पद्य के रूप में दिया गया है ।
३. प्रमयकमलमार्तण्ड, ग्रंथान्त-प्रशस्ति ।
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प्राचार्य मानतुङ्ग
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संस्कृत साहित्य के प्रसिद्ध इतिहास विद्वान् डा. ए. दूरे सहस्त्रकिरणः कुरुते प्रभव वी० कोय ने भक्तामर-कथा के सम्बन्ध में अनुमान किया
पाकरेषु जलजानि विकासमाजि॥ है कि कोठरियों के ताले या पाशबद्धता ससारबधन का
-भक्तामरस्तोत्र पद्य (6) रूपक है। उनका कथन है
__ कल्याणमन्दिर में उपर्युक्त कल्पना को बीज रूप में _ "Perhaps the origin of the legend is स्वीकार कर बताया गया है कि जब निदाघ में कमल से simply the reference in his pocm to the power युक्त तालाबकी सरम वायु ही तीव्र प्राताप से संतप्त of the fine to save those in fetters, doubtless पथिकों की गर्मी से रक्षा करती है, तब जलाशय की बात meta-phorically applied to the bonds ही क्या ? उसी प्रकार जब आप का नाम ही संसार-ताप holding men to Carnal life."?
को दूर कर सकता है, तब भापके स्तोत्र के सामर्थ्य का अर्थात्सम्भवत. इम कथा का मूल केवल उनकी क्या कहना ? कविता में पाशों मे पाबद्धजनो के बचाने के लिए जिनदेव प्रास्तामचिन्त्यमहिमा जिन संस्तवस्ते की शक्ति के उल्लेख में है, जो निश्चय ही मनुष्यो को
नामापि पाति भवतो भवतो जगन्ति । सासारिक जीवन मे बांधने वाले पाशों के लिए स्पक है।
तीवातपोपहतपाय जनान् निदाधे, डा. कीथ ने मानत ग को बाण के समकालीन अनु.
प्रोणाति पसरसः सरसोऽनिलोऽपि ॥ मान किया है। सुप्रमिद्ध इतिहास १० गौरीशंकर
-कल्याणमन्दिर पद्य (७, हीराचन्द प्रोझा ने अपने सिरोही का इतिहास' नामक भक्तामर-स्तोत्र की गुणगान-महत्त्व-मूचक कल्पना का ग्रन्थ मे मानतुग का ममय हर्ष-कालीन माना है। श्रीहर्ष प्रभाव और विस्तार भी कल्याण मन्दिर में पाया जाता है, का राज्याभिषेक ई. सन् ६०७ (वि०म० ६६४) में भक्तामर स्तोत्र म बताया गया है कि प्रभो ! संग्राम में हृया।
मापके नाम का स्मरण करने से बलवान राजाम्रो का भी भक्तामर स्तोत्र के अन्तरग परीक्षण से यह स्पष्ट युद्ध करते हुए घोड़ो और हाथियो की भयानक गर्जना से युक्त प्रतीत होता है कि यह स्तोत्र कल्याण-मदिर का सैन्यदल उसी प्रकार नष्ट-भ्रष्ट हो जाता है। जिस प्रकार पूर्ववर्ती है । कल्याण मन्दिर में कल्पना की ऊंची मूर्य के उदय होने में अधकार नष्ट हो जाता है। यथाउड़ान है वैसी इस स्तोत्र में नहीं है। अतः भक्तामर के बल्गुत्त रङ्गगजगजितभीमनादबाद ही कल्याण-मन्दिर की रचना हुई होगी। अत.
माजी बलं बलबत्तामपि भूपतीनाम् । भवनामर की कल्पनानां का पल्लवन एवं उन कल्पनानी उद्दिवाकरमयूखशिखापविढं में कुछ नवीननाम्रो का ममावेश चमत्कारपूर्ण शली में
त्वत्कीर्तनात्तम इवाशु भिदामुपंति ॥ पाया जाना है। भक्तामर म कहा है कि सूर्य की बात ही
-भक्तारम्तोत्र पद्य (४२) क्या, उसकी प्रभा ही तालाबो में कमली को विकगित
उपर्युक कल्पना का पादर कल्याणमन्दिर के ३२ कर देनी है। उमी प्रकार हे प्रभो! आपका स्तोत्र तो
पद्य में उभी प्रकार पाया जाता है जिग प्रकार जिनमेन के दूर ही रह पर प्रापकी नाम-कथा ही समस्त पापो को
पाश्वाम्युदय में मेघदून के पाद-गन्निवेश के रहने पर भी दूर कर देनी है। यथा
कल्पनाओं में रूपान्तर है । यथा-- प्रास्तां तव स्तवनमस्तसमस्तदोपं
यदगर्जदूजितघनौघमदभ्रभीम--- त्वत्संकथापि जगतां दुरितानि हन्ति
भ्रश्यत्तडिन्मुसलमांसलधोरबारम् ।
दत्यन मुक्तमय दुस्तरवारि १.२-A history of Sanskrit literature
तेनव तस्य जिन ! दुस्तरवारिकृत्यम् । 1941 Page-241-215 (Rehgious poetry).
कल्याण मन्दिर स्तोत्र पद्य (३२)
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२४३
अनेकान्त
इसी प्रकार भक्तामर स्तोत्र के 'नित्योऽदयं दलितमोहमहान्धकारं ' ( पद्य १८) का कल्याण मन्दिर के 'नूनं न मोहतिमिरात लोचनेन' ( पद्य (३७) पर और 'त्वामा मनन्ति मुनयः परमं पुमांसम् (पद्य २३) का त्वां योगिनो जिन ! सदा परमात्मरूपम्' ( पद्य १४ ) पर स्पष्ट प्रभाव दिखलाई पड़ता है।
कोई भी निष्पक्ष समालोचक उपर्युक्त विश्लेषण के प्रभाव में इस स्वीकृति का विरोध नहीं कर सकता है कि भक्तामर का शब्दों, पदों धौर कल्पनाओं में पर्याप्त साम्य है तथा भक्तामर की कल्पनाओं और पदावलियो का विस्तार कल्याण मन्दिर में हुआ है ।
भक्तामर स्तोत्र के प्रारम्भ करने की शैली पुष्पदन्त के शिवमहिम्न स्तोत्र से प्राय मिलती है। प्रातिहार्य एवं वैभव वर्णन में भवतामर पर पात्रकेसरी स्तोत्र का भी प्रभाव परिलक्षित होता है । अतएव मानतुंग का समय उवीं शती है। यह शती मयूर, बाणभट्ट यादि के म त्कारी स्तोत्रों की रचना के लिए प्रसिद्ध भी है ।
भारत का सांस्कृतिक इतिहास इस बात का साक्षी है कि ई० मन् की ५वीं शताब्दी से मन्त्र तन्त्र का प्रचार विशेष रूप से हुआ है। श्वी शताब्दी में महायान चौर । कापालिकों ने बड़े-बड़े चमत्कार की बाते कहना आरम्भ कीं । अतएव यह क्लिष्ट कल्पना न होगी कि उस चमत्कार के युग मे प्राचार्य मानत्ग ने भी भक्तामर स्तोत्र की रचना की हो। इस स्तोत्र को उन्होंने दावाग्नि, भए कर सर्प राज सेवायें भयानक समुद्र यादि के भयो से रक्षा करने वाला का है जमोदर एवं कुष्ट जैसी व्याधियाँ भी हम स्तोत्र के प्रभाव से नष्ट होने की बात कही गई है। अतः स्पष्ट है कि चमत्कार के युग में वीतरागी आदि जिनका महत्व और चमत्कार कवि युग के प्रभाव से ही दिम्मन्नाया है। एवमान का समय वीं शताब्दी का उतरा है।
I
ने
रचना और काव्य-प्रतिभा :
मानतंग ने ४८ पद्य प्रमाण भक्तामर स्तोत्र की रचना की है। यह समस्त स्तोत्र वसन्ततिलका छन्द मे लिखा गया है। इसमे पादितीर्थकर ऋषभनाथ की स्तुति की गई है। पर इस स्तोत्र की यह विशेषता है कि इसे
किसी भी तीर्थकर पर घटित किया जा सकता है । प्रत्येक पद्य में उपमा, उत्प्रेक्षा श्रौर रूपक अलंकार का समावेश किया गया है। इसका भाषासौष्ठव और भाव गाम्भीर्य प्रसिद्ध है। कवि अपनी नम्रता दिखलाता हुआ कहता है कि हे प्रभो ! अल्पज्ञ और बहुश्रुतज्ञ विद्वानों द्वारा हँसी के पात्र होने पर भी तुम्हारी भक्ति ही मुझे मुखर बनाती है। बसन्त में कोकिल स्वयं नहीं बोलना चाहती, प्रत्युत मात्र मंजरी ही उसे बलात् कूजने का निमन्त्रण देती है । यथा
अल्पभूतं भूतवतां परिहास धाम
त्वद्भक्तिरेव मुखरी कुरुते बलान्माम् । यत्कोकिलः किल मधो मधुरं विरौति
तच्चारुचतकलिकानिकरं हेतुः ॥
अतिशयोक्ति अलंकार में धाराध्य के गुणों का वर्णन करता हुआ कवि कहना है कि हे भगवन् प्राप एक अद्भुत् जगत्-प्रकाशी दीपक हैं, जिसमें न तेल है न बाती, और न धूम। पर्वतों को कम्पित करने वाले वायु के झोंके भी इस दीपक तक पहुँच नहीं सकते है । तो भी जगत में प्रकाश फैलता है । यथानिमतिरपजलपूर:
कृत्स्नं जगत्रयमिदं प्रकटी करोषि । गम्यो न जातु मरुतां चालानां
दीपोsपरस्त्वमसि नाथ जगत्प्रकाशः ॥ भक्तामर स्तोत्र पद्य (१६) इस पक्ष में आदिजिन को गर्वोकृष्ट विचित्र दीपन कहकर कवि ने प्रतिशयोक्ति अलंकार का समवेश किया है । अतिशयोक्ति अलंकार के उदाहरण इस स्तोत्र मे और भीका है। पर पकी योनि नही सुन्दर है। कवि कहता है कि हे भगवन ! आपकी महिमा सूर्य मे भी बढ़कर है क्योंकि आप कभी भी नही होते, न गहुगम्य है, न प्रापका महान प्रभाव मेघो से अवरुद्ध होता है एवं ग्राप समस्त लोकों के स्वरूप को स्पष्ट रूप से अवगत करते हैं। यथानातं कदाचिदुपयासि न राहुगम्यः
स्पष्टीकरोवि सहसा युगपजगन्ति । नाम्भोबरोदरनिरुड महाप्रभावः
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डा. जेकोबी और वासो-चन्दन-कल्प
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सूर्यातिशायिमहिमासि मुनीन्द्र लोके ॥
-भक्तामरस्तोत्र पद्य (१७) जहा भगवान को अदभन गूर्य के रूप में वरिणत कर प्रतिमयोक्ति का चमत्कार दिखलाया गया है।
कवि प्रादिजिनको बुद्ध, शकर, धाता और पुरुषोत्तम गिद्ध करता हुमा कहता है
बुद्धस्त्वमेव विबुधाचितबुद्धिबोधा
स्वं शंकरोऽसि भुवनत्रयशंकरस्यात् घातासि धीर शिवमार्गविविधानात व्यक्तं त्वमेव भगवन ! पुरुषोत्तमोऽसि ॥
-भक्तामरस्तोत्र पद्य (३५)
इस प्रकार मानतुग मे काव्य-प्रतिभा भोर इनके इस स्तोत्र काव्य में मभी काव्य-गुण ममवेत है।
डा० जेकोबी और वासी-चन्दन-कल्प
मुनिश्री महेन्द्रकुमार जी 'द्वितीय
नेपथ के चतुर्थ अधिशास्ना श्री मुज्जयाचार्य कृत उनकी सहमति लेकर गजकुमार मृगापुत्र प्रबजित हो चौबीमिवों१ का सम्पादन कार्य करते समय वासीचन्दन- जाता है । समस्त मांसारिक मानन्दों को छोड़कर, मृगा. माम्य का प्रयोग जब सामने आया२ तो 'उत्तगध्ययन मूत्र३ पुत्र मयम की माधना प्रारम्भ करता है। के उन्नीसवे अध्ययन की स्मृति हुई। इस संदर्भ में डा० नि.श्री यस की साधना करने वाले साधक के लिये यह हर्मन जकोबी द्वारा अंग्रेजी में अनूदित 'उत्तराध्ययन मूत्र'३ अनिवार्य है कि वह अपनी मन. स्थिति में मध्यस्थता की का अवलोकन किया। उनके द्वारा किया गया विश्लेषण उम वृत्ति का विकास करे, जिममे अनुकूल और प्रतिकूल कुछ पाश्चर्यजनक नगा।
परिस्थितियो में वह समभाव रख सके । साधक मुगापुत्र ने उतराध्ययन सूत्र:
साम्य-योग की इस साधना में अद्वितीय सफलता अजित जैन आगम 'उत्तराध्ययन मूत्र' के उन्नीसवे अध्ययन में की । उस स्थिति का वर्णन 'उत्तराध्ययन मूत्र' इन गब्दों जैन श्रमण मगापुत्र के जीवन-वृत्त का सुन्दर चित्रण किया में करता हैगया । सुग्रीव नामक रमणीय नगर के नृपति बलभद्र और लाभालाभं सुहेदुक्खें, जीवियं मरणं तहा । गनी मृगा के बलश्री (मृगापुत्र) नामक युवराज कुमार समो निदापसंसासु, तहा माणावमाणो॥ को, किमी धमण को देखकर, पूर्व जन्मों का ज्ञान (जानि प्रणिस्सिमो इह लोए परलोए प्रणिस्सियो । स्मरण ज्ञान) होता है। उसे स्मृति होती है, मैं स्वय पूर्व वासोचंदणकप्पे य उसणे प्रणमणे तहा॥ जन्म में माथु था । सासारिक दुःखों से मुक्त होने के लिये
डा. कोकी को व्याख्या धमणव को धारण करना उसे अावश्यक प्रतीत होता
जर्मन विद्वान डा. जकोबी ने 'सेकंड बुक्स प्राफ दी है। उमकी प्रात्मा विरक्ति के पवित्र भावो मे रग जाती
ईस्ट' की ग्रन्थमाला में 'ग्रा चाराग, सूत्रकृताग, कल्प,' और है और माता-पिता के साथ एक लम्बे संवाद के पश्चात्
उत्तराध्ययन, इन चार प्रागमी का अग्रेजी में अनुवाद किया १. बड़ी चौबीसी और छोटी चौबीसी।
है५ । मृगापुत्रीय अध्ययन की उक्त गाथाम्रो का भाषान्तर २. वामीचदन समपणे थिर चित्त जिन घ्याया। उन्होंने निम्न प्रकार से किया है :दम तनुसार तीकरी, प्रभु केवल पाया ।।
जयाचार्य कृत चौबीसी (छोटी) ११४४. उनगध्ययन, मूत्र अध्ययन १६, गाथा ६०,६२ 3. Sacred Book of the East Gaina Sutras, 5. Sacred Books of the East, vols. XXII, To. By Dr. H. Jacobi Vol. XIV.
XIV.
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२४०
अनेकान्त
_ "He was indifferent to success or failure मुझे लगता है कि चन्दन के साथ 'वासी शब्द का प्रयोग (in begging), to happiness and misery, to होने से वासी कोई 'दुर्गन्धयुक्त पदार्थ' या 'विष्ठा' का
life and death, to blame and praise, to द्योतक होना चाहिए। honour and insult."
प्रस्तुत प्रकरण का सूक्ष्म अवलोकन करने से ज्ञात "He had no interest in this world and no होता है कि डा. जेकोबी और प्रवचुरिकारने 'वासी' interest in the next world. he was indifferent और 'वासीचन्दनकप्पो' की जो व्याख्याएं दी हैं, वे यथार्थ to impleasant and pleasant things, to eating नहीं हैं। प्रवचूरिकार ने 'वासी' शब्द को 'वास'-रहने and fasting."'1
के स्थान के साथ जोड़कर उससे 'थवई' अर्थ निकाला है, वह लाभ-लाभ, सुख-दुःख, जीवन-मृत्यु, निदा-प्रशंमा जबकि डा० जेकोबी चन्दन के साथ वासी का प्रयोग होने तथा मान-अपमान में उदासीन था।
के कारण 'वास' को 'गन्ध' मानकर 'वासी' का अर्थ 'दुर्गउसको (मृगापुत्र को) न तो इस लोक में दिलचस्पी न्धयुक्त पदार्थ' या विष्ठा करते है। थी, न परलोक में, 'अप्रीतिकर और प्रीतिकर वस्तुओं के कल्पसत्र के प्रति तथा प्राहार करने और उपवास करने के प्रति
इन व्याख्यायों की यथार्थता-अयथार्थता पर चिन्तन उदासीन था।
करने से पूर्व कल्पसूत्र में प्रयुक्त इसी शब्दावलि को भी 'प्रीतिकर और प्रीतिकर वस्तु', इन शब्दों की पोर देखना आवश्यक है। वहां चौबीसवे तीर्थकर भगवान् चिन्तन अपेक्षित है। डा. जेकोबी के अनुसार 'वासी' शब्द महावीर का जीवन-वृत्त एवं साधना का क्रम उपलब्ध अप्रीतिकर वस्तु और चन्दन शब्द प्रीतिकर वस्तु के द्योतक होता है। हैं । डा. जेकोबी ने 'वासीचन्दनकप्पो' पर एक टिप्पणी -
१. यह प्रवचूरिकार कौन है, इसका उल्लेख डा. जेकोबी भी दी है। उसमें वे लिखते हैं :
ने नहीं किया है । भूमिका में प्रवचूरि के परिचय में "Vasi Kandana2-Kappo. The author
उन्होंने इतना ही लिखा है कि इसकी एक रंगीन of the Avakuri explains this phrase this he
प्राचीन पाण्डुलिपि मुझे स्टेस्वर्ग युनिवर्सिटी लायब्ररी did not like more a man who anoints himself
से प्राप्त हुई। यह अवचूरि शान्त्याचार्य की वृत्ति का with sandal than Mason, Apparently he
ही एक संक्षिप्त रूप है, ऐसा प्रतीत होता है, क्योंकि gives to vasa the meaning dwelling', but |
इसके बहुत सारे परिच्छेद देवेन्द्रगणी की टीका से think that the Juxtaposition of KANDANA
शब्दशः मिलते हैं। (देवेन्द्रगणी की टीका शान्त्याcalls for a word denoting a bed smelling
चार्य की वृत्ति पर आधारित है) S. BE Vol substance perhaps ordere."3
XI.V. Introduction) हरी दामोदर बेलनकर ने 'वामीचन्दनकप्पो' इसकी व्याख्या करते हग अवचरि
'जिनरत्नकोप' (पृ. ४४, ४५) मे चार प्रवचूरियों कार ने लिखा है : 'वह (मगापुत्र) अपने पर चन्दन
का उल्लेख किया है, जिनमें एक तपागच्छ के देवविलेपन करने वाले को थवई (राजा) से अधिक अच्छा नहीं समझता।' स्पष्टतया, प्रवचरिकार ने यहा 'वास'
सुन्दर मूरी के शिष्य ज्ञानसागर सूरि (म० १४४१) का अर्थ 'रहने का स्थान' (या मकान) किया है, परन्तु
की है, दूसरी जानशीलगणी (?) की है, तीसरी
(मं० १४८८) की है, चौथी के रचयिता प्रज्ञात है। 1. S.B.E.. Vol. XIV. p.p. 98, 99.
इन चारों प्रवचरित्रों की पाण्डुलिपि के उपलब्धि २. डा. जेकोबी की संज्ञा पति में 'K' का प्रयोग 'च' स्थानों में स्टेस्वर्ग का उल्लेख नहीं है। अतः यह के लिये किया गया है।
जानना कठिन है कि जेकोबी द्वारा प्रयुक्त प्रवचूरि 3. S.B.E. Vol. P.A.A. footnote.
के कर्ता कौन हैं।
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स. कोबी और पासी-बबन-कल्प
२४०
भगवान् महावीर की साम्य-योग की साधना का वर्णन जन भागमों तथा अन्य माघारभूत ग्रन्थों, टीकामों, करते हुए वहां बताया गया है-"से गं भगवं...."वासो- मनुवादों और शब्दकोषों के माधार पर डा. जेकोबी चन्दणसमाणकप्पे समतिण-मणिलेढुकंचणे समदुक्खसु द्वारा की गई व्याख्या की यथार्थता की समीक्षा करना
प्रस्तुत निबंध का उद्देश्य है। डा. जेकोबी ने इन पंक्तियों का अनुवाद करते हुए जम्ब-दीप-प्राप्ति सूत्र:लिया है
जैन भागमों के छठे उपांग४ 'जम्बू-नीप-प्रशस्ति"The venerable one......was indifferent सूत्र के मूल पाठ में ही इस उक्ति की स्पष्ट व्याख्या the smellor ORDURE andolandata to उपलब्ध हो जाती है प्रथम तीर्थंकार भगवान् ऋषभनाथ straw and jewels, dirt and gold, pleasure and
and के साधनाक्रम पर प्रकाश डालते हुए वहां बताया
Ar pain......."
गया है :HTET मा
"जप्पभिई प णं उसमे परहा कोमलिये मंडे भवित्ता गन्ध के प्रति, तण और मणियों के प्रनि, धूल और स्वर्ण प्रागाराम्रो प्रणगारियं पम्वइए सप्पभिई व गं उसमे के प्रति, सुख और दुख के प्रति उदासीन थे....." परहा कोमलिये "णिम्ममे णिरहंकारे, लहभुग प्रगंथे
डा. कोबी ने यहां पर भी 'वासी' का अर्थ विष्ठा 'वासीतच्छणे प्रदुद्रु, चंदणाणुलेवणे परते लेटुंमि कवणंमि (या दुर्गन्धपूर्ण पदार्थ) ही किया है। 'वासीचन्दनसमाण- असमे"""विहरह।"५ कप्पा' का अर्थ वे "विष्ठा की दुर्गन्ध प्रौर चन्दन की पूर्व उद्धृत 'उत्तराध्ययन मूत्र' व 'कल्पमूत्र' के 'वासीसुगन्धि में समभाव वाले" करते हैं।
चंदणकप्पो व 'वासीचंदणसमाणकप्पो की तुलना प्रस्तुत मंकडॉनेल का शब्दकोष :
पाठ 'वासीतच्छणे अदृ8' 'चंदणाणुलेवणे अग्न्ने' के साथ
करने से स्पष्ट हो जाता है कि जो बात वहां संक्षेप में सुप्रसिद्ध पाश्चात्य विद्वान् आर्थर ऐंथनी२ मैकडॉनल बताई गई है. वह यहाँ विस्तारपूर्वक और स्पष्टता से भी 'वासी' शब्द के यथार्थ अर्थ के विषय में संदिग्ध है,
कही गई है। उक्त पाठ का अनुवाद अपने पाप में स्पष्ट ऐमा प्रतीत होता है। प्रस्तुत विषय के अनुसंधान के और सरल है. फिर भी टीकाकार के शब्दों में वह पौर मन्दर्भ में मैंने आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय द्वारा प्रकाशित
अधिक गम्य बन जाता है। प्रमिद्ध वृत्तिकार शान्तिऔर मैकडॉनल द्वारा रचित संस्कृत-अंग्रेजी शब्दकोप को
चन्द्र, वाचकेन्द्र६ इमकी वृत्ति में लिखने है:-"वास्यादेखा। पाश्चर्य के साथ मैंने वहाँ पाया, 'वासी' शब्द का
मूत्रधारशस्त्रविशेषण यन्तक्षणोन्वच उत्वननं तत्राद्विष्ट: अर्थ दिया ही नहीं गया है। वहाँ केवल इतना ही उप
अद्वेषवान् चन्दनानुलेपनेऽरक्त:-परागवान् ।"७ इम लब्ध होता है-'वासी Vasi, L. V. Vasi" इसके मामने का रथान बिना अर्थ के ही रिक्त छोड़ दिया गया
४. कुछ एक इमे पांचवा उपांग भी मानते हैं। है। सहज ही यह अनुमान लगता है; कोपकार या तो
५. जम्बू-दीप-प्रज्ञप्ति मूत्र, वक्षम्कार २, मूत्र ३१ इस शब्द से अनभिज्ञ है अथवा वे इसके सही अर्थ के बारे
६. वि० सं० १६६० में 'जम्बूद्वीप प्राप्ति मूत्र' पर में सदिग्ध है।
'प्रमेयरत्नमञ्जूषा" नामक वृत्ति लिखी। द्रष्टव्य,
हरि दामोदर वेलनकर, जिनरत्नकोप, भांडारकर 1. S.B.E. Vol. XXII. P. 262.
प्रोरियंटल रिसर्च इन्स्टीटपट पूना, १९४, २. पाथर ऐंयनी मैकडॉनेल, एम.ए., पी. एच-डी.
पृ० १३१। संस्कृत साहित्य के उच्चकोटि के ज्ञाता और विश्रुत ७. जम्बदीप प्रज्ञप्ति मत्र सटीक, शेठ देवचन्द लालभाई कोषकार हैं। उनकी कई प्रसिद्ध पुस्तकें हैं ।
पुस्तकोढार फंड, सुरत, १९२०, बक्षस्कार २, सूत्र ३१ की वृत्ति।
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अनेकान्त
प्रकार वृत्तिकार के अनुसार 'वासी' सूत्रधार या बढ़ई का म शोचन्न प्रहृष्यंच तुल्यनिन्दात्मसंस्तुतिः । एक शस्त्र विशेष है, तक्षण का तात्पर्य है-चमड़ी का निराशीनिर्ममो भूत्वा निईन्द्रो निष्परिग्रहः॥ छोलना। वासी के द्वारा चमड़ी छिले जाने पर वे मलामे सति वा लाभे समवशी महातपाः। ((भगवान्) 'पद्विष्ट-देष' नहीं करने वाले थे। और नजीनिविषुवकिचिन्न मुमधुवाचरन् । चन्दन से अनुलेपन होने पर वे 'परक्त-राग' नहीं करने जोषित मरणं चैव नाभिनन्दन्म व द्विषन् । वाले थे। इस व्याख्या के आधार पर उपरोक्त समय वास्येक तक्षतो बाहुं चन्दनेमकमुक्षतः॥ पाठ का अनुवाद इस प्रकार किया जा सकता है-जब से
नाकल्याणं न कल्याणं चिन्तयन्नुभयोस्तयोः॥"२ ही कोसल निवासी परिहंत ऋषभ-मुंडित होकर गृहस्थ युधिष्टिर ने साम्ययोगी की कल्पना प्रस्तुत करते से साधु अवस्था में प्रवजित हुए, तब से कोसल निवासी हुए इस प्रकाश में कहा है-"मैं ग्राम्यसुखों का परित्याग परिहंत ऋषम....."ममत्व-रहित, अहंकार-रहित, लघु- करके साधु पुरुषों के चले हुए मार्ग पर तो चल सकता भूत, प्रन्थी-रहित, वासी (बढ़ई के शस्त्रविशेष-वसूला) है, परन्तु तुम्हारे प्राग्रह के कारण कदापि राज्य स्वीकार के द्वारा उनकी चमड़ी का छेदन (करने वाले) के प्रति नहीं करूंगा। देष नहीं रखने वाले, चन्दन के द्वारा लेप करने वाले के मैं गंवारों के सुख और प्राचार पर लात मारकर प्रति राग नहीं रखने वाले, मिट्टी के ढेले और स्वर्ण के वन में रहकर अत्यन्त कठोर तपस्या करूंगा। फल-मूल प्रति ममभाव रखने वाले....."विचरते थे।
खाकर मृगों के साथ विचरूंगा। बत्तिकार 'वासी' को बढ़ई का एक वास्त्र विशेष "किमी के लिए न शोक करूंगा, न हर्ष, निन्दा बताते हैं, जो कि बमूला ही है। अन्यान्य प्रमाणों से भी और स्तुति को समान समझगा। पाशा और ममता को इस तथ्य को पुष्टि होगी।
त्याग कर निर्द्वन्द्र हो जाऊँगा तथा कभी किसी वस्तु का महाभारत:
संग्रह नहीं करूंगा। भारतीय मंकति की विभिन्न धारामों के साहित्य "कुछ मिले या न मिले, दोनो ही अवस्था में मेरी में शब्द-साम्य और उक्ति-साम्य अदभुत रूप से दृष्टि- स्थिति समान होगी। मैं महान तप से सलग्न रहकर गोचर होता है। 'महाभारत', जो कि वैदिक संस्कृति ऐसा कोई पाचरण नहीं करूँगा, जिसे जीने और मरने की का प्रमाणभूत ग्रंथ है। बहुत स्थानों में जैन भागमों में इच्छा वाले लोग करते हैं। प्रयुक्त उक्ति व शब्दों का प्रयोग प्रस्तुत करता है । इस न तो जीवन का अभिनन्दन करूंगा, न मन्यू से महाकाव्य में एक स्थल पर 'वासीचन्दन' की सूक्ति का हष । यदि एक मनुप्य मेरी एक बांह को बसले से काटता प्रयोग भी हमा है। महाभारत-युद्ध के पश्चात् जब हो और दूसरा दूसरी बाह को चन्दनमिथित जल से युधिष्ठिर का मन राज्य से विरक्त हो जाता है, तब वे मींचता हो तो न पहले का अमंगल सोचगा और न दूसरे परण्य में संन्यास-जीवन बिताने की इच्छा प्रकट करते की मंगलकामना करूंगा। उन दोनो के प्रति समान हुए अर्जुन से कहते हैं :
भावना रखंगा।"३ "साधु गम्यमहं मागं न जातु त्वत्कृते पुनः।
१. महाभारत (शान्तिपर्व, राजधर्मानुशासनपर्व) १२, गच्छेयं तद गमिष्यामि हित्वा प्राम्यसुखान्युत ॥
अध्याय ६, श्लोकर, ४,१४,२४,२५,२५१ । हित्वा ग्राम्यसुलाचारं तप्यमानो महत्तपः।
२. महाभारत, अनु० पण्डित रामनारायणदत्त शास्त्री भरष्ये फलमूलाशी चरिष्यामि मर्गः सह ॥
पाण्डेय, प्र. गीता प्रेस, गोरखपुर, खण्ड ५, पृष्ट १. द्रष्टव्य महाभारत भने उत्तराध्ययन सूत्र, ले. ४१; तुलना कीजिये, महाभारत, अनु. श्रीपाद
उपेन्दराय जयचंद भाई सांडेसरा, प्र. डा. भोगी. दामोदर सातवलेकर, स्वाध्याय मण्डल, पौष साल सांडेसरा, बड़ोदरा, १९५३
(जिससाग), १९२९ । श्री सातवलेकर ने वासी
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म.कोबी और बासी-धन्वन-कल्प
'जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र' और 'महाभारत' में अद्भूत करणे, तवाऽनशने माहाराकरण सदृशः।"२ साम्य है। इन दोनों अन्यों ने बासी-चन्दन-तुल्यता की "वह (मृगापुत्र) कैसे थे? पाश्रयरहित-किसी की सूक्ति का स्पष्ट प्रयोग कर इसके गूढ़ अर्थ को व्यक्त कर भी सहायता की वांछा नहीं करते थे, इस लोक में दिया है। ऐसा लगता है, दोनों संस्कृतियों में यह सूक्ति राज्यादि भोग के तथा परलोक में देवलोकादि के सुख बहुत प्रसिद्ध थी। साधक की उच्च स्थिति का चित्रण के प्राश्रय की इच्छा नही रखते थे, वह बासीचन्दनकल्पकरने के लिए दोनों सांस्कृतियों का वाङ्मय एक ही कोई 'वासी' अर्थात् परशु द्वारा शरीर का छेदन करता है सूक्ति को प्रयुक्त करता है। यह समानता जहां पाश्चर्य और कोई चन्दन द्वारा शरीर की पर्चना करता है, उन को उत्पन्न करती है, वहां भारतीय सांस्कृतिक एकता की दोनों के प्रति समान पाचरण करने वाले थे तथा माहार प्रमाण भी बनती है।
पौर प्रनशन में भी उनकी समान वृत्ति थी।" 'जम्बूद्वीप और महाभारत' के मूल पाठ अपने पाप दीपिकाकार ने यहाँ बहुत ही स्पष्ट रूप से बताया है में इतने स्पष्ट है कि टीका या अनुवाद का प्राधार लिए कि मृगापुत्र अपने शरीर को परशु से वेदने वाले और बिना ही इनकी व्याख्या सरलतया की जा सकती है। चन्दन से अर्चा करने वाले के प्रति सम माचार वाले थे। इस प्रकार इन आधारभूत और मौलिक ग्रन्थों के माधार दोनों के प्रति राग द्वेष से विरत थे। यहाँ वासी का पर यह स्पष्ट हो जाता है कि 'बासी' का अर्थ दुर्गन्धयुक्त पर्यायवाची शब्द 'परशु' दिया गया है। जोकि 'कुठार' का पदार्थ, विष्ठा या रहने का स्थान न होकर बढ़ई का एक ही पर्यायवाची है। वासी और 'कुठार' में वास्तविक शस्त्र विशेष (वसूला) है। .
मन्तर थोड़ा ही है। 'वासी' को 'कुठालिका' कहा जा जन पागमों के टीकाकार
सकता है । इस थोड़े से अन्तर को छोड़कर दीपिकाकार जैन मागमों में कई स्थानों पर 'वासी' पोर वासी. की व्याख्या 'जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति के साथ पूर्ण रूप से मेल चन्दनतुल्यता की सूक्ति का प्रयोग किया है। अनेक टीका- खाती है। कारों ने इसकी क्या-क्या व्याख्याएं दी है और उन व्या- (२) उत्तराध्ययन सूत्र के एक अन्य टीकाकार भाव ख्यानो में कौनसी यथार्थ हैं, यह भी प्रावश्यक है। विजयजी३ ने 'वासी चन्दणकप्पो की व्याख्या करते हुए
१. उत्तराध्ययन सूत्र के टीकाकार लक्ष्मीवल्लभ लिखा है :-"वासीचन्दन व्यापारकपुरुपयोः कल्पस्तुल्यो सूरि? ने सम्बन्धित गाथामों की व्याख्या करते हुए लिखा यः स तथा तत्र वासी सूत्रधारस्य दारूतक्षणोपकरण।"४ है-"पुनः कीदृशः ? अनिश्रितो निश्रारहित, कस्यापि वासी और चन्दन के कार्य में प्रवृत्त दो पुरुषों के साहाय्यं न वांछति, तथा पुनरिह लोके राज्यादिभोगे तथा प्रति जो तुल्य है। वासी बढ़ई का काष्ट को छीलने का परलोके देवलोकादिसुखेऽनिधितो निश्रां न वांछति, पुनः उपकरण है। स मृगापुत्रो वासीचन्दनकल्पः ?-यदा कश्चिद् वास्या- टीकाकार यहाँ भी उसी अर्थ की पुष्टि करते है कि पर्श ना बारीर छिनति कश्चिच्चन्दनेन शरीरमर्चयति, तदा वासी-काष्ठछेदन के उपकरण द्वारा छेदन-कार्य में प्रवृत्त तयोरुपरि समान-कल्पसदशाचारः तथा पुनरशन पाहार २. उत्तराध्ययन सूत्र दीपिका सहित, प्र. हीरालाल
का अनुवाद कुठार किया है । कुठार भी बढ़ई का हंसराज, जैन भास्करोदय प्रिंटिंग प्रेस, जामनगर, एक शस्त्र है, परन्तु बसूले की अपेक्षा में यह बड़ा पृ० ७२६ । होता है। विशेष चर्चा इमी निबन्ध में 'विश्वकोप' ३. रचना काल वि० सं० १६८६ । द्रव्य, हरि दामोदर और शब्दकोष' शीर्षक के अन्तर्गत की गई है।
वेलनर, पूर्व सद्धृत ग्रंथ, पृ०४ १. उत्तराध्ययन सूत्र पर उन्होंने 'दीपिका' नामक टीका ४. उत्तराध्ययन सूत्र भावविजयगणी विरचित वृत्ति
लिखी है। द्रष्टव्य, हरि दामोदर बेलनकर, पूर्व महित, प्र. जैन मात्मानन्द सभा, भावनगर १९१८, उद्धृत ग्रंथ, पृ. ४५
पृ० १४०३, अभ्ययन १६, गाथा १२
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२५२
अनेकान्त
पुरुष और चन्दन द्वारा लेपन-कार्य में प्रवृत्त पुरुष के प्रति विषये समारणकप्पे-समानकल्पस्तुल्याध्यवसायः।"४ जो समान भाव रखता है. वह वासीचन्दनकप्प है।
विनयविजयजी की यह व्याख्या प्रायः प्रथम व्याख्या (३) कल्पसूत्र के एक टीकाकार,१ शान्तिसागर ने के समान ही है। ये बासी का अर्थ 'बढ़ई का एक उपप्रस्तुत रूप में प्रयुक्त 'वासीचन्दनसमाणकप्प' की व्याख्या करण' करते हैं तथा समग्र सूक्ति का अर्थ "वासी और इस प्रकार की है-"काष्ठछेदनोपकरणवासीचन्दनतुल्ययोः चन्दन के विषय में तुल्य-अध्यवसाय पाले" ही करते हैं। छेदनपूजकयो विषये समभावः ।"२
इस विषय में' कहने से यही तात्पर्य निकलता है कि
'वासी से छेदन होने वाले प्रसंग में' और 'चन्दन से लेपन टीकाकार ने यहाँ वासी का अर्थ तो 'काष्ठछेदन करने
होने के प्रसंग में।' इस प्रकार यह व्याख्या जम्बूद्वीप का उपकरण किया है, किन्तु समप्र सूक्ति का अर्थ पूर्व
प्राप्ति की व्याख्या को ही पुष्ट करती है। व्याख्या से कुछ भिन्न किया है। उनके अभिमत में समग्र
(५) लक्ष्मीवल्लभ सूरि, जिनकी 'उत्तराध्ययन' की सूक्ति का अर्थ है-"बासी और चन्दन के तुल्य छेदक।
टीका को उद्धत किया जा चुका है, 'कल्पसूत्र' की टीका ५ पौर पूजक के विषय में समभाव रखने वाले।" यहाँ
में प्रस्तुत प्रसंग की व्याख्या कुछ भिन्न रूप से करते हैं । वासी प्रौर चन्दन शब्द को पक समझकर-वासी के
वे लिखते हैं-"वासी चन्दणसमाणकप्पे-यथा पशुना ममान जो व्यक्ति है अर्थात् छेदक और चन्दन के समान
चन्दनवृक्षः बिंद्यमानः पमुखं सुरभीकरोति तया भगवाजो व्यक्ति है अर्थात् पूजक-इन दोनों में समभाव रखने,
नपि दुःखदायकेऽपि उपकारं करोति प्रथवा पूजके छेदके वाले 'वासी चन्दन समान कल्प' कहलाते हैं । भावार्थ की
च उभयोस्परि समानकल्पः ।"६ दष्टि से पूर्व व्याख्या और इस व्याख्या में अधिक पन्तर टीकाकार यहाँ वासी का अर्थ 'परशु' करते है तथा नहीं। फिर भी इतना अन्तर तो अवश्य है कि यह समग्र पाठ का अर्थ दो विकल्पों में प्रस्तुत करते हैव्याख्या रूपकात्मक है, जब कि पूर्व व्याख्या शब्दशः है।
[१] कुठार से चन्दन के वृक्ष को काटने पर चन्दन पूर्व व्याख्या में 'वासी' और 'चन्दन' को रूपक के रूप में
कुठार के मुख को सुगन्धित करता है। भगवान् भी उसी ग्रहण न कर सीधे शब्दशः ग्रहण किया गया है। क्योंकि
प्रकार दुःख देने वाले पर भी उपकार करते हैं। वहाँ वासी का तात्पर्य 'वसूला' (से काटने वाला) और [२] पूजक और छेदक-दोनों पर समभाव रखने चन्दन का अर्थ चन्दन (से अनुलेपन करने वाला) किया वाले हैं। है, जब कि यहाँ 'बासी' का तात्पर्य 'वमूले के समान छेदने टीकाकार ने यहाँ प्रथम विकल्प में पालंकारिक अर्थ वाला' और चन्दन का अर्थ 'चन्दन के समान पूजने वाला' ग्रहण किया है। साहित्य के क्षेत्र में ऐसे अनेक प्रयोग किया गया है।
मिलते है, जिनमें चन्दन की उपमा या रूपक से सज्जन
(४) 'कल्पमूत्र' के अन्य टीकाकार विनयविजयजी३ को प्रकृति का चित्रण किया गया है। 'जम्बूद्वीप-प्रज्ञाप्ति ने प्रस्तुन प्रसंग की व्याख्या इस प्रकार की है-"वासी सूत्र' और 'महाभारत' जैसे ग्रन्थों में प्रस्तुत सूक्त पालं.
मुत्रधारस्य काष्ठच्छेदनोपकरणं, चन्दनं प्रसिद्ध, तयो द्वयो ४. कल्पसूत्र, मुबोधिका टीका सहित, प्र. प्रात्मानन्द
जैन सभा, भावनगर, १९१५, सूत्र ११६ १. वि० सं० १७०७ में कौमुदी नामक टीका के लेखक,
'५. इन्होंने कल्पसूत्र पर कल्पद्रुमकलिका नामक टीका द्रष्टव्य, वेलनकर पूर्व उद्धृत ग्रंथ, पृ० ७७
जिन सौभाग्य सूरि (वि० सं० १८९२) के समय में २. कल्पसत्र, कौमुदी टीका सहित, प्र. ऋषभदेव लिखी है। द्रष्टव्य, बेलनकर, पूर्व उद्धृत ग्रंथ, सरीमल संस्था रतलाम, १९३६, सूत्र ११९
पृ० ७८ ३. वि० सं० १६९६ में सुबोधिका टीका लिखी। द्रष्टव्य, ६. कल्पसूत्र कल्पदुमकलिका सहित, प्र. वेलजी शिवजी, वेलनकर, पूर्व उद्धृत ग्रंथ, पृ०७७
बम्बई, १९१८, १० १३६
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म. कोबीचौरबासी-बन्दन-पाल्प
कारिक अर्थ में प्रयुक्त न होकर सीधे ही प्रयुक्त हुमा है, हुमा है। एक प्रसंग में वहाँ नारक-जीबी की वेदना का इसलिए उसकी मालंकारिक व्याख्या साहित्य-मान्य होने विवरण दिया गया है। वहाँ नरक में प्रयोग होने वाले पर भी मौलिकता के प्रभाव में यहाँ स्वीकार्य नहीं है। शस्त्रास्त्रों की भी एक लम्बी सूची मिलती है। मूल पाठ
टीकाकार ने दूसरे विकल्प में जो व्याख्या दी है, वह इस प्रकार है :प्रायः उत्तराध्ययन की टीका की व्याख्या के समान ही "चुम्बकम्मकय संचयोवतता निरयग्गि-महाग्गिसंपहै। यद्यपि यहाँ जो व्याख्या दी गई है, वह उतनी स्पष्ट लिता--इमेहि विविहेहि मायुहेहिं किते? मोग्गरनहीं है, फिर भी इसका भाव वैसा ही है। 'छेदक' से मुसुंढ़ि-करकय -सत्ति-हल-गय-मुसल-खग्ग-चाव • नाराय'वासी से छेदने वाले' और 'पूजक' से 'चन्दन से पूजने कणक कप्पणि-वसि-परसु-टंकतिक्ख-निम्मल अण्णेहिय वाले' का तात्पर्य है।
एवमादिएहिं प्रसुभेहि वेउविएहिं पहरणसहि अणुबड [६] प्रथम उपांग 'उबवाई सूत्र' में भी इन्हीं शब्दो तिब्बरा परोप्पर वेयणं उदीरेति प्रमिहणंता-३"। का प्रयोग 'भगवान् महावीर के अनगारों की साधना के पूर्व कृत कर्म के संचय से संताप पाए हुए भयंकर वर्णन में किया गया है। मूलसूत्र में बताया गया है
अग्नि की तरह निरयर स्थान की अग्नि से जले हुए से णं भगवती–वासीचन्दणसमाणकप्पा समलेटकचणा- जीव..इन विविध प्रायषों मे परस्पर वेदनामों का विहरन्ति१।"
उदीरण करते हैं। वे कौन से मायुष हैं ? मुदगर, मुलुंडि, ___इस पाठ की व्याख्या करते हुए नवाङ्गी टीकाकार
करवत, शक्ति, हल, गदा, मुसल,-तलवार, धनुष, लोहे श्री अभयदेव सूरि लिखते हैं-"वासीचन्दनयोः प्रतीतयो का बाण, करणक, (बाणका एक प्रकार) कैची, वसूला, रथवा वासीचन्दने भपकारोपकारको तयो समानी निद्व- परस-ये सभी शस्त्र अग्र भाग पर तीखे और निर्मल है परागत्वात्समः कल्पो विकल्पः ममाचारी बा येषा ते और दूसरे-दूसरे अनेक प्रशुभ कारक बैंक्रिय सैकड़ों प्रकार वासीचन्दनसमान कल्पाः२।"
से शस्त्रों से, सदा उत्कट बर-भाव रखने वाले (नारक "वामी पौर चन्दन के समान अपकारी व उपकारी जीव) परस्पर वेदनामों का उदीकरण करते हैं। दोनों के प्रति राग-द्वंष रहित होने से ममान प्राचार है,
यहां पर दी गई सूची में वासी शब्द परषु के साथ जिनका वे 'वासी चन्दन समान कल्पा है।"
पाया है। इसमे भी स्पष्ट होता है कि वासी बढ़ई का अभयदेव सूरि ने यहाँ मालकारिक अर्थ ग्रहण किया एक हथियार है, जिसको 'वमूला' (अंग्रेजी में Adze) है, किन्तु थोड़े-से भिन्न रूप में। यहाँ 'वासी' से 'वासी कहते हैं।। के समान अपकारी' और 'चन्दन' से 'चन्दन के समान
(4) उत्तराध्ययन सत्र में ही एक अन्य स्थान पर उपकारी'-ऐसा अर्थ ग्रहण किया है। यहाँ स्पष्ट रूप मे
हण किया है। यहा स्पष्ट रूम म वासी शब्द का प्रयोग वसूले के अर्थ में हमा है । द्वीन्द्रिय 'वामी' शब्द का अर्थ नहीं दिया गया है, फिर भी जीवों के नामों की मची में 'वागीमुम्व' नामक जन्तु अपकारी के रूपक के रूप में ग्रहण होने से 'वामी' का।
विशेष का उल्लेख है५ । प्रायः मभी टीकाकारों ने उसका तात्पर्य 'वसूला' या 'काप्ठ छेदन का उपकरण' ही ग्रहण ग्रथं 'वासी' अर्थात् वमूले को तरह मुंह वाला (एक करना होगा।
३ प्रश्न व्याकरण सूत्र, प्रथम पाश्रव द्वारा, ५१४ । [७] जैन आगमों के नवम् अंग प्रश्न व्याकरण मूत्र में 'वासी' शब्द स्पष्ट रूप से 'वसूले' के रूप में प्रयुक्त
४. Bhargva's Illustrated English-Hindi
Dictionary, p. 28. 1. उववाई सूत्र (मभयदेव सूरि टीका सहित) प्र. ५. किमिणी सुमंगला चंद मलम्बा मायवाहया । :: राय धनपतसिंह बहादुर, कलकत्ता, १९३६, पृ० १०० वामीमुहा य सिप्पी य, मंखा संखणगा सहा ।। २. वही, पृ० १००
उत्तराध्ययन सूत्र, ३६।१२६ ।
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अनेकान्त
कीट)१ किया है। यह पाश्चर्य की बात है कि स्वयं डा. कारों ने वासी शब्द की व्युत्पत्ति और प्र को बहुत स्पष्ट जैकोबी ने 'बासी' का अर्थ वसुला किया है। प्रवरि के रूप से समझाया है। पाधार पर 'वासीमुख' की व्याख्या करते हुए लिखते (1) 'मभिधान-चिन्तामणि नाममाला'-के कर्ता
महान् जैन विद्वान् भाचार्य हेमचन्द्र इस विषय में बहुत, "Vasimukha explained : Whose mouth ही विशद व्याख्या प्रस्तुत करते हैं। उनके प्रभिमतानुसार is like a chisel or a dye. There are many वासी'के पर्यायवाची नाम इस प्रकार हैं-वृक्षभित्, insects, c.g. The curculionidal2 which suit this stuft, arate ." description."3
हेमचन्द्राचार्य ने 'नाममाला' की स्वोपश टीका में "जिसका मह परसू या वसूले की तरह हो। इस ती यत्पत्ति इस प्रकार बताई है-"वक्षान भिर्ना वर्णन के अनुरूप अनेक कीट होते हैं, उदाहरणार्थ-फन बक्षभित ॥१॥ तक्ष्यतेऽनया-तक्षणी ॥२॥ वासी हस्त मादि में लगने वाला कीड़ा।"
वासिः कृशकुटि (उणा-६१९) इति णिदिः या यहाँ स्पष्ट रूप से 'वासी' का अनुवाद 'Chisel' या बासी ॥२॥ 'adze' किया गया है। यह अनुवाद डा. जेकोबी ने प्रव
इस प्रकार 'वृक्षभित्', 'तक्षणि' और 'वासी'; तीनो चुरी के आधार पर किया है । यह सन्देह अवश्य उत्पन्न शब्द काष्ठछेदन में प्रयुक्त शस्त्र या उपकरण विशेष के होता है कि डा. जेकोबी और प्रवचूरिकार 'वासी' के इस घोतक है। जो वृक्षों को भेदता है, वह वृक्षभित्, जिससे अर्थ से परिचित होते हुए भी 'वासीचन्दनकल्प' की वक्ष की त्वचा का उत्खनन होता है, वह क्षणी; जो व्याख्या में इसका पाधार क्यो नहीं लेते हैं। सम्भवतः
हाथ में रहती है, वह वासी है। इस प्रकार व्युत्पत्ति के इसका कारण यह हो सकता है कि 'चन्दन' के साथ 'वासी' का प्रयोग होने से प्रस्तुत अर्थ की कल्पना सहज कर यह सिद्ध करते हैं कि 'वासि' और 'बासी' दोनों ही रूप से न हुइ हो । कुछ भी हो, यह तो निश्चित हो ही रूप बनते है। इस व्युत्पत्त्यात्मक व्याख्या से भी यह जाता है कि वासी 'बढ़ई के उपकरण वसूले' का ही नाम है। निश्चित हो जाता है। कि वासी काष्ठ-छेदन का ही शम्बकोष और विवकोष
शस्त्र विशेष है। 'नाममाला' के भाषाटीकाकार इसका __वासीचन्दनकरूप की मूक्ति ने जिस प्रकार व्याख्या
पर्यायवाची नाम "बांसलो इति भापायाम्"८ दिया है। कारों को उलझन में डाला है, कोषकार भी उससे बच २. अनेकार्य संग्रह-हेमचन्द्राचार्य ने अपने एक अन्य नहीं पाये । पाश्चात्य कोषकार प्रार्थर ऐंथनी मैकडानेल शब्दकोप में भी 'वासी का उल्लेख किया है। मभिधान की 'वासी' शरद के विषय में संदिग्धता स्पष्ट है। भार- चिन्तामणि की पूर्ति में रचित अनेकार्य संग्रह मे उन्होंने तीय कोषकारों में 'अमरकोष' के कर्ता अमरसिंह 'वासी' 'मत्सवा का एक पर्यायवाची शब्द 'वासी' दिया है। का कोई उल्लेख ही नहीं करते है५। किन्तु अन्य कोष- मत्सा पाब्द के अनेक अर्थ बताते हुए लिखते हैं१. उदाहरणार्थ देखें, लक्ष्मीवल्लभीय टीका, १० १२४ ६. अभिधान चिन्तामणि, मयंकाण्ड, श्लोक ५८१ 2. A fruit Weevil.
:तंबर : 3. S. B.E.. VOL. XLV., p. 219 footnot 4. ७. मभिधान चिन्तामणि स्वोपशटीका सहित संपा. ४. वही, पृ० २१६, टिप्पणी संख्या १
हरगोविन्ददाम और बेचरदास, प्र. नाथालाल लक्ष्मी५. अमरकोप का रचनाकाल ईस्वी ५०० के लगभग चन्द वकील, भावनगर, १९१४, ५० ३६७ माना जाता है । देखें, :
अभिधान चिन्तामणि (हेम) कोश, रत्नप्रभा व्याA History of Sanskrit Literature by रूपाविभूषित, प्रमुक्तिकमल जैन मोहनमाला, बड़ौदा, Arthur Anthony Mecdunell, p. 433.
१९२५, पृ० २०७
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म. कोबी और बाती-पन्दन-कल्प
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शतपुष्पामधुश्च मत्सा वासी सुमतिका। क्रिया से करते हैं और उसका संस्कृत पर्यायवाची नाम रसास्वाय बहा बीर्य भृगाराबादो विषये॥ तक्षणी तथा भाषा का पर्यायवाची नाम 'बाइस' देते हैं।
हेमचन्द्राचार्य के अनुसार 'मृत्सा' और 'वासी' और 'शब्दकल्पद्रुम' के कर्ता ने पुल्लिग 'बासिनको 'वस'मुमृत्तिका'; दोनों पर्ष में प्रयुक्त हो सकता है। इस निवासे' रिया से सिद्ध किया है और उसका भी पर्व कोष के टीकाकार, प्रन्थकर्ता के शिष्य महेन्द्रसरि ने एक प्रकार का कुठार' तथा भाषा में 'बाइस' किया है। इसकी व्याख्या करते हुए लिखा है। (मृत्सा)
'तक्षणी' अथवा 'कुछार का एक प्रकार' वसूले केही बासी तमोपकरम् सुमृतिकाय पचा।
योतक हैं। निः शाल्ये संस्कृते तत्र मृत्सारचित विक
४. अभियान राजेगा कोष-प्राकृत के इस जन इस प्रकार 'मृत्सा' और 'वासी'; दोनों शब्द तक्षण विश्वकोष (Encyclopaedia) में अनेक प्रमाणभूत प्रथवा छेदन के उपकरण विशेष है। 'मत्सा' का दूसरा ग्रन्थों के उतरण सहित निम्न रूप से
ग्रन्थों के उबरण सहित निम्न रूप से 'बासी' शब्द की अर्थ यहाँ उपयोगी नहीं है, अत: उसकी चर्चा भी व्याख्या दी गई है५अपेक्षित नहीं है।
____ 'वासी वासी-स्त्री। 'वसूला' इति स्याने लोहका३. शम्बकल्पम-संस्कृत भाषा के 'महत्त्वपूर्णकोष
रोपकरणविशेषे, हा. २६ अष्ट. १६ माचा०७ । गन्दकल्पद्रुम' में 'वासी' शब्द की व्यत्पत्ति व व्याख्या
मा०८।" इस प्रकार की गई है-"वासी (स्त्री) वासयतीति वासी
यहाँ विश्वकोष के कर्ता स्पष्ट रूप से 'बासी' का अन्त । गोरादित्वाद् डीष । तक्षगी। वाइस इति स्याता
अर्थ 'बमला करते हैं और उसको लुहार का एक उपस्त्रम् । इति त्रिकाण्डशेष।
करण विशेष बताते हैं। वासिः (पु. वस् निकासे+वसिवपिथतिसराणीति)
'वासीचन्दनकल्प' की व्याख्या करते हुए उन्होंने मागे उणा ४११२४ इति इन् । कुठारभेदः बाइस इति भाषा।
लिखा है-वासीचन्दरणकप्प-वासीचन्दनकल्प-पु. उपइत्यणादि कोषः ।"३ कोषकार त्रिकाण्डशेष४ को उद्धत ।
कार्यनुपकारिणोरपि मध्यस्थ, पाव. ५ प्र०। वासीष करते हुए वासी शब्द (स्त्रीलिंग) की व्यत्पत्ति वासपति वामी-अपकारी तां चन्दनमिव दुष्कृतं तक्षणहेतुलयोप
कारकत्वेन कल्पयन्तिमन्यन्ते वासीचन्दनकल्पाः हा० । १. अनेकार्य संग्रह, महेन्द्रसूरि द्वारा रचित वृत्ति महित, यदाहसंपा० थियोडेर झंकरीया, प्र. आल्फेड होल्डर,
'यो मामपकरोत्येष तत्वेनोपकरोत्यसो । वीयेना, १८६३, द्वितीय काण्ड, श्लोक ५७३, पृ. शिरोमोसना पायेन कुर्वाण इव नोवजम् ॥ ४३ (मिरीज अॉफ संस्कृत लेक्मीकोग्राफ़ी इम्पीग्यल अथ वास्यामपकारिण्या चन्दनस्य कल्प इव च्छेद इव
ऐकेडेमी प्रॉफ सायन्सीम, वियेना, खण्ड १) ये उपकारित्वेन वर्तन्ते । वासीचन्दनकल्पा: । प्राह च२. वही, पृ० ८३
'अपकारपरेऽपि परे, कुर्वन्त्युपकारमेव हि महान्तः । ३. शब्दकल्पद्रुम, स्यार राजा राधाकान्त देव बहादर, सुरभी करोति वासी मलयजमपि सक्षमाणमपि ॥' प्र. मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली १९६० काण्ड
वास्या व चन्दनम्येव कल्प आचागे यंपा ते तथा । ४, पृ० ३५७
५. अभिधान राजेन्द्रकोष (जैन विश्वकोष), प्राकृत ४. अमरकोष की पूर्ति में पुरुपोत्तम देव द्वारा रचित मागधी से संस्कृत, ले. विजयराजेन्द्रसूरि रतलाम, (मनुमानित रचनाकाल ईस्वी १३००); देखिये
१९३४, खण्ड ६,१०११०० A History of Sanskrit Literature by ६. हारिभद्वीय प्रप्टक प्रकरण, प्रष्टक संख्या २९ Arthur A. Macdonell, Williom Herinc ७. प्राचागंग सूत्र monn, London, 1917, p. 433.
८. ज्ञाताधर्मकथा मूत्र
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२५६
अनेकान्त
अथ वास्यां चन्दनकरपारचन्दनतुल्या ते तथा। भावना तु पर भी।' इस व्याख्या की पुष्टि एक अन्य सूक्ति के द्वारा प्रतीतव । हा० २६ प्रष्ट० । ज्ञा०१।
की गई है, जो इस प्रकार है-जो अपकारी हैं, वे अपकार यहाँ पर कोषकार 'पावश्यक' और 'हारिभद्रीय' करते रहते हैं; महान पुरुष तो उनका उपकार ही करते 'प्रष्टक' की वृत्तियों को उद्धृत करते हुए प्रस्तुत शब्द की हैं छीले जाने पर भी चन्दन बासी को सुरभित करता व्याख्या कर रहे हैं।
'आवश्यकमूत्र की वृत्ति के अनुसार 'वासीचन्दनकल्प' (३) तीसरे विकल्प में 'कल्प' का अर्थ प्राचार का अर्थ है-'उपकारी और अनुपकारी में मध्यस्थ ।' किया गया है। जिनका प्राचार वासी के प्रति चन्दन
हारिभद्रीय प्रष्टक प्रकरण' के वत्तिकार ने 'बासी' का जैसा है. वे 'वासीचन्दनकल्पाः ' हैं। अर्थ तो 'काष्ठछेदन का उपकरण' किया है, पर 'कल्प' (४) अन्तिम विकल्प में कल्प' का अर्थ तुल्य किया शब्द के अनेक अर्थ प्रस्तुत करते हुए समस्त शब्द की गया है, जो वासी के प्रति चन्दन के समान है, वे 'वासीव्याख्या विभिन्न अर्थों में की है।।
चन्दनकल्पा.' हैं। (१) 'कल्प' गब्द की व्याख्या कल्पन्ति' अर्थात्
हारिभद्रीय 'अष्टक' के वत्तिकार ने इस प्रकार 'कल्प' 'मन्यन्त' हो सकती है। इसके प्राधार पर समग्र शब्द का के विभिन्न प्रों द्वारा प्रस्तुत शब्द-समुदाय की व्याख्या अर्थ होता है--जैसे चन्दन बसले को अपना उपकारी की है। यहां चारों विकल्पों में भावार्थ तो प्रायः एक ही समझता है, वैगे वे (वासीचन्दनकन्याः) अपने अपकारी निकलता है। अभयदेवसरिने जिस प्रकार प्रालंकारिक को भी उपकारी मानते है। (चन्दन वासी को उपकागे व्याख्या प्रस्तुत की है, उसी प्रकार यहां भी वृत्तिकार इमलिा मानता है कि वह छेदन के द्वारा चन्दन को 'वामी' और चन्दन को रूपक मानकर ही सारे मृक्त को अपनी सुगन्ध फैलाने का अवसर प्रदान करता है।) इस समझाते है। किन्तु वासी को तो सर्वत्र वसले के रूप में ब्याख्या कमाय वृत्तिकार एक सुभाषित को भी उदृत ही ग्रहण किया गया है। करते हैं, जिसका अर्थ है जो मरा उपकार कर रहा है,
५. 'पाइप्रसद्दमहण्णवो' प्राकृत भाषानों के विश्रुत वह तत्वत: मेग उपकार करता है, जैसे शिरामोक्ष (नाडी
विद्वान् और प्राधुनिक कोपकार पं० हरिगोविन्ददाम सेठ काटकर उसमे से अशुद्ध खून निकालना-क प्रकार की
ने अपने प्राकृत-हिन्दी शब्दकोष 'पाइप्रसद्दमहण्णवो' शल्य चिकित्मा) ग्रादि उपायो के द्वाग किसी को निरोग
(प्राकृत शब्द महार्णव) मे 'वासी' का उल्लेख निम्न रूप किया जाता है।
से किया है.--"वासी स्त्री [वासि (म)] वमूला, बढ़ई (२) दुखर 'विकल्प' में 'कल्प' का अर्थ छेद किया
का एक अस्त्र; न हि वासिबढईण इहं अभेदो कहंचिदवि गया है। इसके माधार पर वासीनन्दनकल्पा का अर्थ
(भमंमंग्रहणी, ४८६) देखो, वामी।"३ होता है-वे मनुष्य, जो अपकारी के प्रति भी उपकारिता
'वासी' की व्याख्या इस प्रकार की है--"वामी स्वो का माचार रखते हैं, जमे चन्दन वामी के द्वारा छेदे जाने
(वामी) वसूला, बढई का एक अस्त्र (पृ० १, १ पउम १. अभिधान गजेन्द्रकोप, खण्ड ६, पृ० ११०६, ११०६ १४, ७८, कप्प, सुर, १, २८, औप)। वासी मुह, पु० २. प्रष्टक प्रकरण', रचयिता-हरिभद्रमूरि टीकाकार- (वासी मुख) वसूले के तुल्य मुंह वाला एक तरह क
जिनेश्वरगरि, पं. मनसुख मगुभाई, अहमदाबाद, कोट, द्वीन्द्रिय जन्तुकी एक जाति (उत्त०३६, १२६)।" वि० सं० १९०८ । प्रस्तुत टीका का परिकार अभयदेव गरि ने किया है, ऐसा माना जाता है। ३. पाइयसद्दमहण्णवो (प्राकृत शब्द महार्णव) । इसलिए यहां की गई व्याख्या उनकी व्याख्या से हरगोविन्ददास त्रिकमचन्द सेट, कलकत्ता, मिलती-जुलती है । द्रष्टव्य जिनरत्नकोष, ले० हरि १९८५, पृ. ६४६ दामोदर वेलनकर, पृ०१८
४. वही, पृ. ६४६
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ना. अंकोलो मोर वासी-मदन-कल्प
कोषकार यहां 'वासि' और 'बासी' दोनों शब्दो को नार।"५ स्त्रीलिंग वाची मानते हैं और दोनों का अर्थ 'वसूला-बढ़ई यहाँ पर वासी का अर्थ 'वसूला' दिया हमा है तई का एक प्रस्त्र' करते है। सी' शब्द का प्रयोग वसूले समग्र 'वासीचन्दनकल्प' का अर्थ इस प्रकार किया है-- के अर्थ में 'धर्मसंग्रहणी'१ में कस प्रकार हुमा है, यह भी "कोई वसले से काटे और कोई चन्दन से खेप करे, तो कोषकार ने उढ़त करके बताया है। इसके अतिरिक्त भी दोनों के प्रति ममभाव रखने वाला है।" 'वामी' शब्द का प्रयोग जिन प्राकृत प्रन्थो में प्रस्तुत प्रथ७. पाप्टे का संस्कृत-अंग्रेजी कोष:-सुप्रसिद्ध माषुमे हुमा है, उसका भी उन्होंने प्रमाण दिया है-जैसे प्रश्न निक कोषकार प्रिंसिपल वामन शिवगम प्राप्टे ने अपने 'व्याकरण सूत्र', 'पउमचरित्र', 'कल्पमूत्र', 'सुरसुन्दर्ग- संसात-अंग्रेजी कोष में वासी शब्द की स्पष्ट व्याख्या दी परिम' और 'उबवाईसूत्र'। ५० हरगोविन्ददास सेठ ने है। तदनुमार-"वासि mB-An Adze, a small, a 'वामी मह' (स० बासी मुख) शब्द का उल्लंब भी किया hatchet. a chisel [वस् इज Un. 4-136] 1"6 है और बताया है कि 'उत्तराध्ययन'४ सूत्र में इसका प्रयोग इस कोष मे 'महाभारत' में प्रयुक्त वासि शब्द का 'दो इन्द्रिय वाले प्राणी विशेष' के लिए हुपा है, जिमका सश्लोक उद्धरण भी दिया गया है । मुख 'वसूले' की तरह होता है।
प्राक्सफोर्ड से प्रकाशित इस कोष में 'वासि' (वामि) ६. 'जैनागमशब्दसग्रह'-एक अन्य महत्वपूर्ण प्राकृत
म का अर्थ इस प्रकार दिया गया है, "वासि-Vasi or गुजराती-शब्दकोष मे, जिसके कर्ता प्रसिद्ध जैन मुनि शता
Vasi, a carpenter's adze, L. (cf. Vasil" 15 बधानी रतनचन्द्र जी है, 'वासी' और 'वासीचन्दनकल्प'
कोषकार के अनुसार 'वामि' और 'वासी' स्त्रीलिंग की व्याख्या निम्न प्रकार से उपलब्ध होती है-"वासी' ५. जैनागमशब्द संग्रह, प्र. सषयी गुलाबचन्द जसराज, (स्त्री) (वापी) बांसली, फरसी। 'वासीचन्दणकल्प लिम्बडी (काठियावाड़) १९२६, पृ० ६८६ । (त्रि.) (वामीचन्दनकल्पः) कोई बासलाथी छेदे अने 6. The Practical Sanskrit-English Dictionary कोई चन्दनथी लपकर, तो पण बन्ने तरफ समभाव गव- -by Prin. V.S. Apte. Ed. by P.K. Gode
and C.G. Karve, Prasad Prakashan. १. धर्म संग्रहणी हरिभद्र मरि द्वारा रचित प्राकृत प्रन्थ
Poona 1957. पं० देवचन्द लालभाई पुस्तकोदार फण्ड, बम्बई,
१६. ७. जीवितं मरण व नाभिनन्दन्न व द्विषन् । १९१६, गाथा ४८६।
वास्यक तक्षतो बाहुं चन्दनेनं कमुलतः ॥ २. यह उल्लेखनीय है कि विमलसूरि द्वारा रचित व
--महाभारत १२-६-२५, १-११६-१५ रा. जेकोबी द्वारा सम्पादित, जैन धर्म प्रसारक सभा,
8. A Sanskrit English Dictionary (Etymoloभावनगर द्वारा १६१४ मैं प्रकाशित हुमा है । देखें,
gically and Philologically arranged with •र्ग १४, ७८ ।
special reference to cognate Indo३. मु.सुन्दरीचरित्र, जिमका दूसरा नाम कथा मुरसुन्दगे
European languages, By Sir Monier भी है, धनेश्वर मुनि (वि० स० १९०५) द्वारा
Monier-Williams, New Edition, greatly लिखित प्रेम कथा है। मुनि श्री गजविजयजी द्वारा
enlarged and improved with the collaboसम्पादित, प्र. जैन विविध माहित्य शास्त्र-माला,
ration of Prof. E. Leumann, Ph. D. and बनारम, १९१६, परिच्छेद १, श्लोक २८ ।
Prof. C. Cappellar Ph. D. and other ४ किणो सोमगला चेब, अलसा मायबाहया ।
Scholars (oxford first edition 1899) Pub. वामीमहाय सिप्पीय, सखा सखणगा तहा ॥
in India by Motilal Banarsidass, 1963, उत्तराध्ययन, सूत्र ३६४१२६ । P.948.
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के शब्द है और इसका अर्थ 'बढ़ई का शस्त्र - वसूला' होता है। शब्द के अन्त में कोपकार ने जो 'L' संज्ञा का प्रयोग किया है, उसका धयं होता है यह शब्द केवल शब्द कोषों में उपलब्ध होता है, किसी भी मुद्रित ग्रन्थों में नहीं मिलता।
कोषकार ने 'वासी' का अर्थ तो सही रूप में किया है, परन्तु 'L' का प्रयोग सही नहीं है। जैसे हम देख चुके हैं, प्रस्तुत शब्द का प्रयोग महाभारत जैसे प्रसिद्ध और प्राचीन ग्रन्थों में भी मिलता है। इस प्रकार 'L' संज्ञा के प्रयोग से स्पष्ट होता है कि कोषकार 'वासी' के साहित्यिक प्रयोग से अपरिचित रहे हैं। अर्वाचीन भाषा टीकाकार---
प्रचीन भाषा टीकाकारों ने हिन्दी, राजस्थानी, गुजराती मादि भाषाओं में श्रागम- साहित्य पर जो व्याख्याएँ लिखी हैं, उनमें भी 'वासीचन्दनकल्प' की surenr sfusiशतया 'जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र' के समान ही मिलती है। कुछ एक महत्वपूर्ण भाषा टीकाकारों का यहाँ हम उल्लेख करते हैं:
श्वेताम्बर तेरापंथ के चतुर्थ श्राचार्य श्री मज्जयाचार्य २ जी जैन भागम साहित्य के प्रकाण्ड विद्वान थे, 'उत्तराध्ययन सूत्र के राजस्थानी पद्यानुवाद में प्रस्तुत शब्द-समूह की व्याख्या इस प्रकार करते हैं :"कोडक ब करने दे कोइ चन्दने सीपे। ए बीहू ऊपर भाग सरोवा, राग जी ॥ वातिका-यहाँ पाठ वासी चन्दनरूप्पो यो कल्पशब्द ते
1. L-Lexicographers (i.e. a word or meaning which although given in native lexicons, has not yet been met with in any published text.
सदृश प्रथंपणीथकी तुल्य । बांसीले छेद १ : चन्दने लेपे २ : तुल्य भाव । " ३
जयाचार्य ने यहाँ 'वासी' का प्रथं वसूका ही किया है और 'वासी चन्दनरूप्पो का अर्थ "कोई वसूले से छेदे और कोई चन्दन से लेप करे, तब उन दोनों पर समान भाव रखना - राग-द्वेष रहित होकर" किया है ।
इसी प्रकार 'उबबाई सूत्र' के गुजराती मनुवादकार ममृतचन्द्रसूरि ४ तथा 'उत्तराध्ययन सूत्र' के हिन्दी व्याख्याकार उपाध्याय माध्मारामजी ने वासी का धर्म वसूला तथा वासी जन्दनकल्प का पर्व उपर्युक्त ही किया है।
बवाई सूत्र के एक माधुनिक हिन्दी अनुवाद में विभिन्न व्याख्याओं के आधार पर विभिन्न पर्थ इस प्रकार दिये गये हैं- "चन्दन अपने काटने वाले वसूले की धार को भी सुगंधित बना देता है। क्योंकि चन्दन का स्वभाव ही सुगंध देना है। इसी प्रकार अपकारी के प्रति भी उपकार बुद्धि रखना ।
"अथवा अपने प्रति 'वासो' के समान बरताव करने वाले प्रपकारी और चन्दन के समान शीतलता प्रदाता उपकारी के प्रति समान भाव रखना - रागद्वेष नहीं
करना ।"
"प्रशस्त्र से दुःख देने वाले और चन्दन से पूजने वाले के प्रति समभाव रखना 'वासीचन्दने- समाणकप्पा' कहा जाता है।"
यहाँ सर्वत्र 'वामी' का पर्व 'बला' ही किया गया है पहले दो विकल्पों में प्रालंकारिक व्याख्या का प्राधार लिया गया है, जब कि अन्तिम विकल्प शाब्दिक व्याख्या पर आधारित है ।
३. उत्तराध्ययन की जोड़ १६१६२ ।
४. उवबाई मूत्र, प्र० राय घनपतसिंह बहादुर, कलकत्ता, १३६, पृ० १०० ॥
५.
उत्तराध्ययन सूत्र, प्र० जैन शास्त्रोद्धार कार्यालय, लाहोर, १६३६, खण्ड २, ११६६२ ।
-Abbveviations P XXXV २. जयाचा (वि० सं० १८६०-१९३०) ने राजस्थानी भाषा में जैन धर्म और दर्शन सम्बन्धी महत्त्वपूर्ण रचनाएँ की है। इनमें भगवती सूत्र, प्रज्ञापना सूत्र, उत्तराध्ययन सूत्र और ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र का पद्यानुवाद उल्लेखनीय है ।
६.
उबधाई सूत्र, अनु० प० मुनि उमेशचन्द्रजी 'मरण' प्र० प्र० भा० साधुमार्गी जैन संस्कृति रक्षक संघ, संसाना (मध्यप्रदेश) १६६३, पृ० १०१ ।
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डा.कोबी पौरबासी-बबन-कल्प
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: इतर ग्रन्थों में:-'वासी चन्दन' का प्रयोग पागमेतर के परिपाक से बासीचन्दनतुल्यता की स्थिति विशवयोग साहित्य में भी विपुल रूप से उपलब्ध होता है। बालों को बताई है।५ उसकी वृत्ति में गंभीर विजयगणी १. हेमचनाचार्य का योगशास्त्र
ने निम्न व्याख्या दी हैमहायशस्क साहित्यकार प्राचार्य हेमचन्द्र ने 'समत्व- 'वासीचन्दनतुल्यता:-वासी-कुठारिका, तथा शरीरसाधना' की उच्च स्थिति की व्याख्या करते हुए लिखा है- स्य च्छेदनं तथा चन्दने-नार्चनं, तयो विषये तुल्यता
"गोशीर्षचन्ताले बासोच्छवे . बाहयोः। शोकहर्षाभावात्सादृश्यं स्यात्-रागद्वेषयोरवकाशभावाअभिन्ना चित्तवृत्तिश्चेत् तदा साम्यमनुत्तरम् ॥" दित्यर्थः ।'६ ।
हाथों पर गोशीर्ष चन्दन के लेप किये जाने पर और 'वासी-कुठारिका से शरीर का छेदन तथा चन्दन से वसूले से काटे जाने पर यदि चित्तवृत्ति समान रहे, तो अर्चन; दोनों विषयों में तुल्यता-शोक मौर हर्ष के प्रभाव वह उत्कृष्ट समता है।"
से यह सादृश्य होता है या राग और द्वेष के अवकाश के हेमचद्राचार्य के इस प्रयोग से प्रस्तुत सूक्त के प्रभाव से।' वास्तविक अर्थ को प्रसंदिग्ध रूप से जाना जा सकता है। टीकाकार वासी को यहाँ कुठारिका कहते हैं, जिसका
(२) 'पावश्यक नियुक्ति हारिभद्रीय वृत्ति' भद्रबाहु अर्थ 'छोटी कुल्हाड़ी' होता। वह 'बसूले' के समान ही स्वामी द्वारा रचित 'पावश्यक नियुक्ति३ की हारिभद्रीय होती है। यहाँ प्रस्तुत सूक्त का भावार्थ स्पष्ट रूप से बृत्ति में 'वासीचन्दन तुल्यता' की व्याख्या इस प्रकार की समझाया गया है।। गई है-"वासीचन्दनकल्प उपकार्यपकारिणो मध्यस्थः ४. सुभाषित पथ:-संस्कृत वाङ्मय के सुभाषितों उक्तं च-'जो चंदणेरण बाहुं प्रालिपइ वासिणा व तच्छेई। के संग्रह-व 'सुभापित-रत्न-भांडागार' में कुछ एक ऐसे संथुणइ जो व निदइ महरिभिणो तत्य समभावो ।।"४ श्लोक उपलब्ध होते हैं, जो वासीचन्दन को सूक्ति पर
"उपकारी और अपकारी में मध्यस्थ जो चन्दन से कुछ प्रकाश डालते है। रविगुप्त द्वारा रचित एक सुभाबाहु का लिंपन करता है या वसूले से बाहु को काटता है, षित इस प्रकार हैजो स्तुति करता है अथवा निंदा करता है, वहां महपिका 'सुजनो न याति विकृति, परहितनिरतो विनाशकालेऽपि । समभाव होता है।"
छेवेऽपि चन्दनतः सुरमयति मुखं कुठारस्य ॥७ इस प्रकार हरिभद्रमूरि ने भी इसी अर्थ को मान्यता परहित में निरत सज्जन विनाशकाल में भी विकृति
(निजस्वभाव में परिवर्तन) को प्राप्त नहीं होते, छंदे पशोपविजयजी का अध्यात्मसार 'अध्यात्मसार' के रचयिता यशोविजयगणी ने समता
५. समतापरिपाके स्याद् विषयग्रहतून्यता । १. योगशास्त्रप्रकाश, प्राचार्य हेमचन्द्र, प्र. जैनधर्म यया विशदयोगनां वासीचन्दनतुल्यता ।। प्रशारक सभा, भावनगर, १६१५, ४१५४-२
-प्रध्यात्मसार, प्र. जैनधर्मप्रसारक सभा, २. तुलना कीजिये-Yogasastra of Hemchandra
भावनगर, १६१५, ३॥३७ Ed. S. Tr. into German by E. Windish . प्राध्यात्मसार पर गम्भीरविजयगणी कृत टीका, in z. D. M. G., Vol. XXVIII. P. 185.
(रचनाकाल सं० १९५३), प्र. जैनधर्म प्रसारक bf. Ch. IV-V.54-2. ३. वासीचन्इणकप्पो जो मरणे जीविए य समसणो।
सभा, भावनगर, ईस्वी १९१५, पृ०७०। देहे य प्रयडिबडो काउसग्गो हवा तस्स ॥ ७. सुभाषितरत्नभांडागार, संप० काशीनाथ पाहुरंग
-मावश्यक नियुक्ति, गा० १५४८ परब, निर्णयसागर प्रेस, बम्बई, १८३१, तृतीय ४. मावश्यक नियुक्ति हारिभद्रीय वृत्ति, पृ०७६६ संस्करण, पृ०७१ श्लोक ६३
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अनेकान्त
जाने पर भी चन्दन का वृक्ष कुठार के मुख को सुवामित की द्योतक है। उक्त विवेचन के प्राचार पर प्रस्तुत सूक्त करता है। एक अन्य सुभाषित में कहा गया है
की व्याख्यानों को हम प्रमुख चार भागों में विभाजित कर 'विकचेष्टितानि परको परिशोचनीय
मकते हैं :बालप्रवाल मलयाद्रिसह हस्ते।
(१) वह व्यक्ति, जो विष्ठा (या किसी भी दुर्गन्धनिभिधमानहरयोऽपि महानुभावः
पूर्ण पदार्थ) की दुर्गन्ध और चन्दन की सुगन्ध में उदासीन स सम्मुखं पुनरमीः सुरभी करोति ॥१
हो। (डा. जेकाबी की व्याख्या)। है परसो 'तेरी चेष्टानों को धिक्कार है। सुगन्ध के (२) रूपान्मक व्याख्या-वमले द्वारा काटे जाने पर समूह-रूप चन्दन के वृक्ष के प्रति तेरा द्रोह शोचनीय भी चन्दन उसको मुगन्धित करता है। उमी प्रकार साधक है। क्योंकि तेरे द्वारा हृदय भेदे जाने पर भी वह निर्भय अपने अपकारी का भी उपकार करता है। (लोक प्रसिद्ध महानुभाव (चन्दन) तेरे मुख को सुरभित करता है। सुभाषितों और अभय देवमूरि प्रादि टीकाकारों द्वारा
दोनों सुभाषितों में चन्दन प्रालंकारिक रूप से सज्जन रवीकृत व्याख्या)। का प्रतीक है। प्रति सज्जन मनुष्य के लिये प्रचलित (३) अन्य प्रालंकारिक व्याख्या वह व्यक्ति, जो ऐसे सुभाषित पद्यों का बाहुल्य प्रान्तीय भाषाओं में भी वमूले के ममान अपकारी और चन्दन के समान उपकारी उपलब्ध होता है। 'मुन्दरविलास' के कर्ता सुन्दरदासजी के प्रति ममान भाव रखना है। (अभयदेव मरि वाग ने साधु के लक्षणों को बताते हुए लिखा है
दी गई वैकल्पिक व्याख्या)। 'कोउक निवत कोउक बंदत,
(४) गाब्दिक व्याख्या-वह व्यक्ति जो किसी पुरुष कोजक देतहि पाइजु भन्छन ।
के द्वार। वमूले से काटे जाने पर और दूसरे पुरुष के कोउक माय लगावत चन्दन ।
द्वारा चन्दन में लेप किये जाने पर, दोनों पर राग-द्वेष न कोउकडारत है तन तच्छन ।
करता हुमा ममवत्ति रखता है। (जम्बू द्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र कोउ कहै यह भूक्त विसत,
और 'महाभारत' के मूल पाठ में दी हुई व्याख्या तथा कोजक कहे यह माहि वियच्छन ।
हरिभद्र मूरि, हेमचंद्राचार्य प्रादि टीकाकारों व विदवानो सुन्दर काहु से राग द्वेष न,
द्वारा स्वीकृत)। ये सब जाना साधु के लच्छन ।२
इन चार्ग व्याख्यानो की तुलना करने के पश्चात् हम यहाँ चन्दन लगाने वाले और तन का लक्षण करने ।
असंदिग्ध रूप में इस निष्कर्ष पर पहचते है कि 'वासीवाल पर रागद्वेष-विरहित साधु माना है ।
चदनका' की मही व्याख्या उपयुक्त चतुर्थ व्याख्या है
और 'जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्तिमूत्र', 'महाभारत' प्रादि मौलिक उपसंहार :
ग्रन्थों पर प्राधारित होने से इसकी यथार्थता निर्विवाद है। अध्यात्म-प्रधान भारतीय संस्कृत में वीतराग स्थिति अर का पादर्श और उमको साधना सर्वत्र प्रतिबिम्बत होती उपयुक्त गभी व्याख्याओं का भावार्थ एक होने पर है। जैन और वैदिक वाङ्मय के आधार पर हमने देग्या भावात्किञ्चिन्-अन्नर उनमे दृष्टिगोचर होता है। है कि ममत्व की उच्च साधना में माधक जब लीन हो उसका मूल कारण सम्भवतः यह हो सकता है कि 'उत्तरा. जाता है, बाह्य काट और सुविधा को अपेक्षित कर देता ध्ययन' 'कल्प' उववाई' आदि सूत्रों में तथा हारिभद्रीय है । वासचन्दननुल्यता की माहित्यिक उक्ति इसी स्थिति अष्टक' ग्रन्थों में१ प्रस्तुत सूक्त का मक्षिप्त रूप 'वामी१. वही, पृ. ३७८, श्लोक ४८
१. हरिभद्रमरि मूल अर्थ मे सुपरिचित लगते है, इसीलिए २. सुन्दरविलास, कर्ता सुन्दरदास (वि० सं० १५५३. 'पावश्यक नियुक्ति' की व्याख्या में उन्होने इसी
१७४६) प्रा. बेलवेडियर टीम प्रिंटिंग वर्म, वार्थ को मान्यता दी है; किन्तु अभयदेव मूरि इम इलाहाबाद, १९१४, २६।१२ ० १३६
मूल प्रर्थ से अपरिचिन लगते है। इसीलिए 'उपवाई
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गव-बासौदा के जन मूर्ति या यंत्र लेख
चन्दनकल्प' अथवा वासीचन्दनसमानकल्पा शुरू हुआ है। हुमा है। इन व्याख्याकारों ने सम्भवतः नोक प्रसिद्ध सम्भव है, अभयदेवमूरि प्रादि व्याख्याकार जिन्होंने सुभाषितों पोर सूक्तियों के माधार पर अपनी व्याख्याएं उपयुक्न दूसरी तथा तीसरी व्याख्या को स्वीकार किया की हैं। यद्यपि दूसरी और तीसरी व्याख्या प्रयथार्थ नहीं है। इसी सूक्त के विस्तृत रूप से अवगत न हो, जिसका हैं, फिर भी उनमें मूल मर्य का प्रतिनिधित्व नहीं हरा है। प्रयोग 'जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र' में "वासीतच्छणे अट्ठ
जहां तक डा. जैकोबी की व्याख्या का सम्बन्ध है, चंदणाणलिवणे मस्ते" अथवा महाभारत में वास्येक तक्षतो
यह स्पष्ट है कि वह पूर्णतया प्रयथार्थ और निराधार है। बाई चन्दमेनकभुक्षनः" के मविम्नार शब्द-विन्यास के साथ
इसमें कोई सन्देह नहीं कि डा. जैकोबी जैनधर्म और सत्र' की वृत्ति में तथा 'हारिभद्रीय अष्टक' की वृत्ति प्राकृत भाषाओं के प्रकाण्ड विद्वान थे. फिर भी प्रस्तुत (जिसका परिष्कार अभयदेवसरि ने किया है) मुक्त की व्याख्या के मौलिक अन्यों में हुए प्रयोग से उन्होंने जो व्याख्या की है, वह स्वयं हरिभद्रमरि की परिचित होने के कारण यहां तो अवश्य ही वे भ्रान्त व्याख्या से भिन्न है।
धारणा के शिकार हुए है।
गंज-वासौदा के जैन मूर्ति व यंत्र लेख
श्री कुन्दनलाल जैन एम. ए. एल. टी. सा. शा.
गजबासौदा मध्य प्रदेश के विदिशा (भेलमा) जिले विद्वान भद्रारकों एवं विद्वानों प्रादि का परिचय मिलता की एक तहसील है, जो मध्य रेलवेके बीना-भोपाल सेक्सन है। पर स्थित है। यहां व्यापार की अच्छी मंडी है। पहले भी मति-लेख---- यह स्थान अच्छा सम्पन्न रहा है। यहां जैनियों का पुरा- चौबीमी पीनल की-मं. १६७४ जट मुदि नवमी तन काल में अच्छा प्रभाव था। ऐसा यहा के प्राचीन चन्द्रे मूल-संधे सरम्वनी गच्छे बलात्कारगणे कुण्डकुन्दामन्दिगें, मूर्ति-लेखों यत्रों तथा शास्त्र-भंडार के अच्छे चार्यान्वये भ० या.कीनि. नस्पट्ट भ० ललितकोति सकलन से जान पड़ता है। १५वीं १६वीं शताब्दी में इम उपदेशान् जैमवालान्वये कोटिया गोत्र चौ० पूरणमल नगर की मम्पन्नता का दिग्दर्शन, मूर्तियो की प्रतिष्ठा नथा भार्या मानमती तयो पत्राः चौ० पग्मगम भार्या कमलामन्दिर निर्माण आदि से ज्ञान होना है। यहा पर अब भी बनी पुत्र मुदर्शन भ्रा० गजमल भार्या परभा (प्रभावती) ५-७ प्राचीन मन्दिर दि० जैन मन्दिर है जिनमें अनेको चौ० परमराम प्रणमति । मूनि लेख व यंत्र लेख तथा प्राचीन हस्तलिखित ग्रथों का (२) चौबीमी पीनल को-म० १५३४ वर्षे प्राषाढ़ अच्छा संग्रह विद्यमान है। मैंने यहा के मन्दिरों के मूर्तिलेख मुदी २ गुरो श्री काष्ठासंघे माथुरान्वये पुष्करगणे म. लिये थे, जिनमें से कुछ का विवरण "सन्मति मंदेश" के कमलकीति देवास्तत्पर्ट भ० शुभचन्द्र देवास्तदाम्नाए पिछले अंकों में प्रकाशित हो चुका है। अनेकान्त के पाठकों अग्रवाल जातीय मंगही भोज भार्या नखमी देवी तत्पुत्राः को बासौदा के धूसरपुरा के मन्दिर में स्थित मूर्ति व यंत्र- या. मं० महणमीह भार्या रतनपालही पुत्र साधारणः । लेव प्रस्तुत कर रहा हूँ, जिनका इतिहास की दृष्टि से म० भोजू द्वितीय पुत्र: म० जिणदास भार्या दोगोहलाही बड़ा महत्व है। इन मूर्ति लेखों मे विविध जानियों के तयोः पुत्राः चत्वारः सं० दिनू भार्या ज्ञानचद ही पुत्र प्रतिष्ठाकारक श्रावक धावकाओं और मूल संघादि के लवणमींह दि. भार्या अमरादे पुत्र हारनु, मंजिणदास
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अनेकान्त
दि. पुत्र प्राल्हा भार्या साधुही पुत्र करमसिंह, तृतीय पुत्र [तत्पद्रेभ. श्रीत्रिभुवनकोति देवेन प्रतिष्ठिता सं. भिरभर्ज सेमलु भार्या रूपचंद ही पुत्र धनेसह । चतुर्थ पुत्र हरु भार्या तस्य पत्र सं. रीसभर्जनयो तस्य पुत्र वैद्य भर्ज जमनी में मेवाही। सं० जिणदास भार्या होलाही पुत्र विमलदास परवाभ्यती (?) | भार्या व्यौराजही । सं. भोज तृतीय पुत्र सं० नानिगु भार्या [१०] पार्श्वनाथ की पद्मासन पीतल मूर्ति-सं० पद्मसिरि एतेषां मध्ये सं० जिणदासः तस्य पुत्रः सं० दिनू १५७७ वर्षे माघ सुदी ९ बुधे श्रीमूलसंधे भ. श्रीत्रिभुवनएतौ द्वावपि श्री जिन चतुर्विशंतिका प्रतिष्ठार्थ[प्य] नित्यं कीति तदाम्नाए णोला पुत्र साह उगणा भार्या जैसिरि प्रणमंति।
पुत्र सकमा पदमदिउपरक? सकमा भार्या विजैसिरि पुत्र वैदू (३) चौबीसी पीतल की-सं० १५२१ बर्षे माघ
संपदम् भार्या महासिरि पुत्र नरसिंह ...... भार्या सा... सुदी २ शनी श्री मूलसंधे बलात्कारगणे सरस्वती गच्छे
[११] पार्श्वनाथ की पद्मासन मूर्ति-सं० १५११ भ. सकलकीति तत्प? भ. श्री भानु (भुवन) कीति को
त वर्षे चैत्रसुदी शनी मूलसंघे भ० जिनचंद सं० मसी की उपदेशात् बडनात्र उत्तरे स्तर [श्वर] गोत्र[३] श्रेष्ठि केहि ।
काह सं० खाकसी वारसेलास्य नरसिंधु भार्या विजो पुष..." भार्या धाऊ सुत धेष्ठि धना भार्या पाणी सुत गामी एते श्री रतन जी चतुर्विशति विवान प्रणमंति।
[१२] सफेद पाषाण की पद्मासन महावीर
प्रतिमा-सं० १६६६ वर्षे श्रीमूलसंधे कुदकुंदाम्नाए (४) खड्गासन पार्श्वनाथ मूर्ति-सं० १६८७
भ० जसकीति भ० ललितकीति भ० धर्मकीर्ति उपदेशात् वर्षे वैसाख सुदी ५ श्री मूलसंघे बलात्कारगणे भ० श्री
अग्रोतकान्वये साह ताराचन्द भार्या तारणदे तत्पुत्रास्त्र ललितकीर्ति तत्प? भ० धर्मकीति तत्प? भ० जगत्कीर्ति
याः ज्येष्ठ सा. रूपचंद भार्या महेशदे पुत्र पदारावा, १द्वि० इदं प्रतिमा ब. खेतासूरपितं निम्नं सं. रामदास प्रतिप्ठतं ।
पुत्र डोगरसी भार्या कमनी तत्पुत्र खरगसेन, किसुनदास (५) पीतल की खड़गासन मूर्ति-सं. १६६ माघ
सं..."तिलोकचंद भार्या सद्धम्मी नित्यं प्रणमति । श्रीरस्तु सुदी ६ शुक्र श्री मूल संघे सरस्वती गच्छे बलात्कारगणे
परश्वपाल । कुन्दकुन्दान्नये भ. ललितकीर्ति भ. पद्मकीर्ति उपदेशात्
मूर्तियां पाषाण की है जिनमें सं० १५४६, १६६४, पांडे गुणदासोपदेशात् गोलापूरब ज्ञातीय बाई रायमती
१५४३ प्रादि लिखे है परन्तु लेखों के शेष भाग पढ़ नहीं एतेषां नित्यं प्रणमति । (६) पार्श्वनाथ खड्गासन मूर्ति-सं. १६८७ वैसाख
[१३] सं० १७२५ श्री सकलकीति उपदेशात् । सुदी ५ श्री मूलसंघे भ. धर्मकीति तत्पट्ट भ. जगत्कीति
[१४] सं० १४६६ वर्षे वैसाख सुदी ११ बुधे श्री उपदेशात् सा० दमनु भार्या सहोदरा तयोः पुत्रा: तेजपाल
मूलसंघ भ० श्री सकलकीति साo हरला भार्या गाविन सं. गमदास प्रतिष्टत मध्ये इमां प्रतिमा प्रतिष्ठितं ।
सुत धर्मा भार्या श्रीपति पुत्र तोला एते श्री आदिनाथं (७) शांति कुथ व प्ररः नाथ की पोतल को मति -
प्रतिष्ठापिता। सं. १६६१ वर्षे वैसाख सुदी ७ भ, जगत्कीति उपदेशात्
[१५] सं० १५२६ फागुन सुदी ६ मूलसंधे प्रा० गुलगए (गंज?) ग्राम पंचायती प्रतिमा करायितं ।
त्रिभुवनकीति.......... (5) कलापूर्ण पार्श्वनाथ की पीतल की प्रतिमा- [१६] सं० १५४४ वर्षे वैसाख सुदी १५ सोमे श्री सं. १७४६ सावन सुदी ६ मूलसघे भ. जगत्कीर्ति मूलसंवे बलात्कारगणे सरस्वती गच्छे नंदिसंधे श्री कुंदतदाम्नाए वघेरवालान्वये मद्या गोत्रे सा. धी नेपूसी भार्या कदाचार्यान्वये भ० पद्मनंदी तत्पट्ट भ० देवेन्द्रकीति तत्पट्टे नौलादे तयोः पुत्राः सं. श्री किशनदास प्रतिष्ठा करापिता त्रिभुवनकीर्ति देवः प्रतिष्ठिता पौर पट्टान्वय........"सं० डूंगासी छोल नित्यं प्रणमति ।
जिरणदास। (8) सं. १५४ जेठ १ भ्रमव्रतकल गणे सरस्वतीगच्छे [१७] सं० १५०७ वर्षे फागुन सुदी ६ भौमे रायश्रीकुन्दकुन्दान्वये श्रीपमनंदी देवास्तत्पट्ट [भ. देवेन्द्रकीत्ति सेणि दुर्गे धीमूलसंधे पौरपट्ट सा० परसराम भार्या
जाते।
त।
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- गंज-बासौदा के जैन मूर्ति व यंत्र लेख
२१५ पदमसिरि पुत्र रानु भार्या सासनऊ पुत्र बल्हा प्रणमति की छोटी मूर्ति-+१७४६ में भ0 सुरेन्द्रकीति ने प्रतिष्ठा सं० जाल्हाथी।
प्रतिष्ठा कराई। [१८] चौवीसी पीतल की-० १५६५ वर्षे जेठ [२८] ० १५३५ मूलसंधे श्री म. भुवनकीर्ति पट्टे वदी ५ बुषे श्रीमूलसंधे भ. श्री ज्ञानभूषण श्री विजयकीर्ति भ० ज्ञानभूषण उपदेशात् । तद्गुरुभ्राता बांतिदासोपदेशात् तुरहानपुर वास्तव्यः [२६] शांति कंथ पर नाय की पीतल की मूर्तिसाह गुणराज सा० रागदेऊ सा० नागदे पं० पासु पुत्र
33 सं० १४०४ प्राषाढ़ वदी भौमे श्री मूलसंधे श्री देवेन्द्रनेमिदास भगिनी बाई चांदू सा० धनराज सा० पासू
कीति श्री पौरपादान्वये सा० सिण भार्या उदा पुत्र नैनसिंह नागसेठिया ... एते श्री भादिनाथं प्रणमति ।
भार्या सेणू पुत्र पीडः नित्यं प्रणमति । [१९] सं० १५१५ फागुन सुदी हरवी श्री मूलसंघे
[३०] सं० १५३७ वैसाख मुदी १० मूलसधे बारह भ० जिनचंद्रदेवास्तदाम्नाए गोलापूर्व नोरा......।
सेणी सं. वप्पऊ भार्या हीरा पुत्र सं० प्रमर छ भार्या बोल्हा [२०] सं० १३१६ जेठ बदी ५ सोमे गोलापूर्व गोत्र
पुत्र सं० राम भार्या जसो वैदिहरा पुत्र मनसुख । पं0 काल्हामाह भार्या गीडलनी पुत्र चौo चाकलिया सं० लोटा भार्या बालदे पुत्र गंगा पुत्री भान्ती नित्यं प्रणमति ।
यंत्र लेख [२१] सं० १५०० वर्षे फागुन सुदी ८ श्री मूलसंधे
(१) सं० १७१० माषसुदी ५ श्री मूलसंधे म. श्री बलात्कार गणे सरस्वती गच्छे...' ।
नरेन्द्रकीर्तिस्तदाम्नाए भालपुरन खंडेलान्वये पाटणीगोत्र [ सं० १७११ अगहन वदी ११ शुक्र श्रीमूलरांधे सं० श्री नांदाकारगोत्रे थी साह शंभू दाम्यां प्रतिष्ठापित बलात्कार गणे सरस्वती गच्छे म० धर्मकीर्ति, पमकीति, सा० गोधामुछप्रणमति । मकलकीर्ति उपदेशात् ठा० साहि प्रणमति ।
(२) सं०१५९६ जेठ सुदी ६ गुरौ मूलसंघे भ. श्री [२३] स० १५२२ वैसाखसुदी ६ रवी मूलसंधे ज्ञानभूषण पा० नेमिचंद प्रा. श्री अभयचंद भ. रत्नकीर्ति भ० देवेन्द्रकीति तत्छिष्य देवनंदि सा० भौरिणगु भार्या खेमा उपदेसात अयोध्यापूर्व सा० देल्हा भार्या हीरा पुत्र पं० देव. पुत्रदासु पुत्र सेमधरा पुत्र भुवनपति ।
दाए शिवदाए सामहणू मुता रत्नसिरी मा. थीमभयकीति [२४] सं० १५२४ चैत्र वदी १ शुक्र भ० श्री सिंह- शिष्य ब्र. माणिक चंद एने नित्यं प्रणमंति । कीति तदाम्नाए गोलापूर्वान्वये साह लजेड़ा भार्या- (३) सं० १६५८ मूलस घे भ० ललितकीर्ति उपदे. दौसिरि पुत्र पटवारी चदिनभ्राता साखमा पटवारी भादे सात गोलालारे मा० रुपन भा० रुक्मनी पुत्र सा. चतुर्भुज तस्य भार्या साध्वी दिउला पुत्र सा० नेनसी पुत्र कौग्सी भा० हीरा पुत्र भाउने हग्विंम मनोहर नित्यं प्रणमंति। सा. लाहा भार्या साध्वी धनसिरि प्रणमति।
(४) सं० १६७४ फा० मु० १० मूलसंघे बलात्कार[२५] सं० १६८७ वैसाख सुदी ६ मूलसंध भ० गणे सरस्वती गच्छे कुदकुदान्वये भ० ललितकीति भ. धर्मजगत्कीति सा० लखमी भार्या करमी पुत्र भीमसेनि भार्या कोति उपदेशात् पौरपट्ट अप्टसाखा एवं सा० चन्द्रपाल भा० प्रानमती सिंघई रामदास प्रतिष्ठा मध्ये प्रतिप्टितं नित्यं मती पुत्र ४, ज्येष्ठ पुत्र यम भा० प्रागरा पुत्र दुस्तर द्विप्रणमति ।
उरदु भा० जमुनी पाठसखा । [२६] मं० १४०१ वैसाख सुदी १५ थी काष्ठासंघे (५) सं० १७१४ वर्षे जगत्कीर्ति उपदेसात् पौरपट्टे भ० क्षेमकीति, हेमकीति तच्छिष्य मुनि पद्मकीर्ति देवा- राजान्वये पेछोरामूर गोयलगोत्रे सिं० कलेरा नित्यं देशेन सा० धामा पुत्र सा० दुह भार्या कल्हो प्रात्मकर्म प्रणमति । विनाशार्थ प्रणमति ।
(0) सं० १६९४ बैसाख सुदी ६ गुरी भ० ललित[२७] शांति-कथु-भर नाथ की खड्गासन पीतल कीति भ० धर्मकीर्ति उपदेसात् तस्य शिष्य पं० गुनदास
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अनेकान्त
पितं ।
गोलापुर्वान्वये कोठिया गोत्रे सं० नेमिदास भार्या कुठरि [१५] म०१४७९ जेठ सुदी ११ मूलस'धे पद्मनंदी पुत्र, जेठा पुत्र खड्गसेन भा० माउनदे, दि० पु० सं० देव शिष्याणी मजिका कमलश्री सोलहकारण यंत्र कासोरदास भा० लालमति पुत्र प्रताप भा० खेमावति, तृ० काराप्य प्रणमंति अग्रोतकान्वये सारददेव पुत्री बाई काल्ही पुत्र सं.हरखौल भा० मायादे पुत्र मानसिंह, १० पुत्र स० प्रजिका जाता। जगपति नित्यं प्रणमति ।
[१६] सं० १५६६ माघ सुदी ५ मंगल काष्ठास (७) स. १७७७ मगसिर सुदी २ प्रा. श्री राज- वागड गच्छे पस्कर गण भ० श्री प्रतापकीर्ति मुनि सातिकृतेन प्रपवति।
नाथ उपदेसात् अग्रवाल जातिय वंशलगोत्रे माडु साo (4) स. १७६८ माघवदी १२वी श्री सुरेन्द्रकीति अंबाई पुत्र हासू भा० विगई पुत्र काल्हा कारापिता । शिष्य पं. भीमसेन प्रणमति ।
[१७] सं० १५७१ जेठ सुदी २ मूलसंधे कंदकुदा(९) स. १७२६ माघ सुदी १३ रवी पानंदी
' चार्यान्वये प्रभाचन्द्राम्नाए वर्धरवाल वंशे रतन'। सकलकीति उपदेसात गोलालारे सेठि गोत्र सि. लछे भा० कपूग पुत्र खाडेराय भा. वसंती पुत्र ३ जेठा विसुनदास,,.
. [१८] सं०१४७४ माघ सुदी १३ गुरी मूलसके भा. लालमती, दि१० श्रीराम भा० सवंसी. तोपत्र गोलाराडान्वये सा० लम्पू पुत्र नरसिंह इदं यत्र प्रतिष्ठाभगवान दासेन यंत्र प्रतिष्ठितं बरहनायामे। . (१०) स. १७१२ वर्षे भ० पप्रकीति भ० सकल- [१९] सं. १९६६ माघ सुदी १३ रवी काष्ठासंघे माथुर कीतितच्छिष्य पं० घनश्याम नित्यं प्रणमति ।
गच्छे भ० क्वारसेन तदाम्नाए जैसवालवंसे सा. मनोरथु भा. [११] सं०, काष्ठासंघे माथुरगच्छ भ० क्वारसेन । माडनदे पुत्र ३, सा० कीति भा. रायमती सा. भावेत भ.
लालमती, सा. वीरसाह, सा. कीति के पुत्र ५ बुधसेन भा. चंपा [१२] सं० १५७६ कार्तिक सुदी ८ सोमे मूलस घे
सा० धनराज भा० माडनदे, सा० मतो, सा० प्रासकरन, कुदकुदान्वये श्री भ० प्रभाचन्द्राम्नाए खंडेलान्वये वाकली
सा० भीमसेन श्री मूलसंघे भ० विश्वभूषण प्रतिष्ठित । वाल गोत्रे सा० बाला भा० बालमिरि पुत्र नाथसाहारेज नाथू भा० धमिलि पुत्र पीया प्रणमति।
(२०) सं० १५०३ वर्षे मूलमंधे सरस्वती गच्छे प्रा० [१३] म १५३६ कातिक सुदी र शनी मलस पीनदी तच्छिष्य श्री शुभचंद, जिनचंद तदाम्नाए मा० भ० जिनचन्द नंबकंचुकान्वये स...
बच्छराज भा. हीरा तयोः पुत्र सा० काकुलि भा० लखा
पुत्र बीधुहि-संघपति तन्मध्ये मा० काकुलि प्रणमति । [१४] सं० १५०६ जेठ सुदी-शुके महाराजाधिराज रामचन्द्र देव सुत राज्य पदाधिष्ठित तत्पुत्र प्रताप- (२१) १५३७ फागुन सुदी १३ मूलसंघे भ० पद्यदेव राज प्रवर्तमाने-श्री काष्ठास माथुगन्वये पुष्कर नंदी भ० शुभचंद भ० जिनचद तदाम्नाए मंडलाचार्य श्री गणे भ० हेमकीति भ० कमलकीति पांडे-प० रंधू तदा- सिंह नंबी तदाम्नाग गोलाप्रान्वये सा० पसा भा० रजा म्नाए अग्रोतवंशे वंसिल गोत्र सा० क्षेमधर पुत्री माथिस् तस्या' कुक्षौ समुत्पन्ने पत्र. अरुहदासः भा० घोला, कनिष्ठ महागज नामानी पुत्रा ४ म० गजे सा भोल्हि ल्हरत् भद्रचंद भा० धोमा, अमहदास पुत्र ५..' । अाहदास' महागज पुत्र गोपा प्रणमति ?
प्रणमति ।
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साहित्य में अंतरिक्ष पार्श्वनाथ श्रीपुर
नेमचन्द धन्नूसा जैन, न्यायतीर्थ
(२१) मुनि श्री सुमतिसागर (सं०१५७५ से १६५२) थे। इन्होंने ४७ छंद की गुजराती में अन्तरिक्ष पार्श्वनाथ यह सूरतशाखाके बलात्कारगणके भ० अभयचंद्र शिग्य विनंति की रचना सं० १६७४ चैत्र सुदी पंचमी, रविवार प्रभयनंदीके शिष्य थे। इन्होंने षोडशकारणपूजा, दशलक्षण- को व्यारा नगर में की थी। जान पड़ता है यह रचना पूजा, जम्बूद्वीप जयमाला, व्रतजयमाला, तीर्थजयमाला प्रादि समय उनके पास श्वे. मुनि लवण्य समय की कृति होगी। पूजन माहित्य निर्माण किया है। तीर्थ जयमाला--
इसका सविस्तर वर्णन हम मागे करने वाले हैं। 'अन्तरिक्ष वंदे सुख थाय, संखजिनेश्वर छायाराय ।
इस काव्य में बताया है की, खरदूषण राजाने इगर पूरवर सांभलोदेव, जटामहितग्रादि देव सुमेव ।१६। भोजनोत्तर वह प्रतिमा जलकप में डाली और बहुत जम्बूद्वीप जयमाला
काल बाद एलिचपुर के एलच गजा को वह कैसे प्राप्त 'माणिकस्वामी गोम्मट ए, अन्तरिक्ष सखेस ।
हई। तथा जहाँ प्रतिमा अन्तरिक्ष रही वहाँ श्रीपुर नाम महामनि जिन कहिया, केवल ज्ञान-सुचन्द्रप्रकाश जेह कहिया। का विख्यात नगर बसाया। पहले वह प्रतिमा इतने
(२२) भट्टारक धर्मचंद्र (सं० १६०७ से २२) ये ऊंचाई पर थी की, उसके नीचे से एक घुड़ सवार निकल बलात्कार गण कारंजा-शाखा के भ. देवेंद्रकीति के शिप्य जाता था। मगर कलिग प्रभाव से पब दोर प्रमाण हि थे। इनके द्वारा निर्मित पारति मे शिरपुर-जिनका अधर है। देखोउल्लेख हुआ है।
'अन्तरिक्ष प्रतिमा रहि जाम, नगर बसायो तेनो नाम । 'करुणानिधि, परमावधि, रसवारिधिभेपा, श्रीपुर नामे छे विख्यात, जेहनी ग्रथी कहिये बान ॥३॥
तरिधर नरकरि, 'वरजिन शिरपूर केशा । जब एलचपुर राजकुमार,तहि यों जानो दिवो अमवार । जित वर्मक, धृतशमंक, शतशर्म करेशा,
ए कलियुग महा दोर प्रमाण, 'अन्तरिक्षजिन का बखान । गुणभद्रक, धृतचद्रक, 'वषचंद्रक भेषा॥
[२५] भ० रत्नभूषण [स. १६७४] ये काष्ठाजयदेव जयदेव, जय वामा तनया, प्रारति करूं, संघ नंदीतटगच्छके भ० त्रिभुवनकीतिके शिष्य थे । इन्होंने तारक गुरु, शिवराया तनया ॥१॥ प्रादि । पंचमेरु की जयमाला में श्रीपूर-जिनका उल्लेख किया है
(२३) पं. मेघराज [सं०१५७५ से १६७०] ये विद्यन्माली जयमालहूंबड जातिके थे । इनके जसोधर राम, तीर्थवंदना, पार्श्व- अन्तरिक्ष पूजो शंम्वजिनेन्द्र, तारंग पूजो महामुनीद्र ॥१२॥ नाथ भवांतर ये ग्रंथ उपलब्ध है। तीर्यवंदना
[२६J जयसागर--ये भ० रत्नभूपण के शिष्य थे । 'श्रीपुर पारमनाथ, गोम्मट स्वामी वेलगुले ए।
इन्होने 'मर्वतीर्थ जयमाला में श्रीपुर पाश्वनाथ का उल्लेख तेरे पुरे वर्धमान, पोधनापुरे बंदु बाहुबलिए ॥१६॥
किया है। देखोपाश्र्वनाथ-भवान्तर 'अनेक अतिसयो सुभ गुणसागरु ।
'सु अन्तरिक्ष वन्दू जिनपास, अन्तरिक्ष श्रीपुरी परमेश्रु । वांछितदायक पास ।
सिरपुर नगर पुरवि मन पास। जिनेश्वरु। ब्रह्म शांतिप्रसादे मेधाम्हणे ।
होलपुरि बन्दै शंख जिनंद, कर जोडुनि वंदना करु ॥४॥
सु तारंगो पूजा मुनिवृद॥१४॥ [२४] म. महीचन्द्र [स. १६७४ से ६५] ये [२७] ब्रह्म ज्ञानसागर सिं०१६७६ से १] यह बलात्कार गण सुरत शाखा के भ० वादिचंद्र के शिष्य काष्ठासंघ चंद्रकीति के शिप्य थे। इन्होंने भारत भर में
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प्रनेकान्त
प्रवास करके 'तीर्थावली' में ७५ दिगम्बर जैन क्षेत्रों का थी। इस समय भ० गमकीर्ति भी थे। वे जयमाल में वर्णन किया है। उसमें इस क्षेत्र का उल्लेख है
कहते हैं'श्रीपुर नगर प्रसिद्ध देश दक्षिण सुसिद्ध सह । 'श्रीपुर नगर सुहामणो, पार्श्वनाथ भगवंत । महिमावंत वमत अन्तरिक्ष जिन पासह ।
प्रभुपद वंदन कीजिए, धन धन स्वामी श्रीसंत ॥ देश देशमा संघ नित नित बहुतर पावे।
आदि । पूजा स्तवन करेवि, मन वाछित बहु पावै ॥ जेष्ठे सुमासे नरनारी पूजा करिती, चिंतामणी उग्रवंशी। सकल लोक मन मानता, परता पूजे जिनपति । गरीर नीलं धनधान्यपूर्ति, पुत्रं कलत्रं ब्रह्महर्ष चित्ती॥ अन्तरिक्ष जिन वंदिये, कहत ज्ञान सागरयति ।। (३१) भ० गुणकीर्ति (१५वी सदी)-ये मूलसंघ
[सन्मति से मंगृहीत] बलात्कारगण के भट्टारक थे। इन्होंने 'धर्मामन' इस मराठी [२८] अर्जुन सुत यमासा [सं० १७६० से १८२०] गद्य ग्रंथ में चतुर्थकाल से प्रसिद्ध ऐसे अनेक क्षेत्र को वंदन कारंजा सेनगणके भ. शांतिसेन [सं० १८०८ से १७१६] किया है। उसमें श्रीपुर पाश्र्व को भी वदन हैका समाधिमरण अं० पा० श्रीपुरमें हमा तब यमासा ने 'श्रीपुर नगरी अतिशयवंतु, श्रीपार्श्वनाथु अन्तरिक्षु । यह भारति गाई थी
न्या देवासि नमस्कार माझा । (पृष्ठ ७४) 'बार बार बलिहार प्रारति, करूं तुम्हारी राजाजी। (३२) ब्रह्म जिनदास (मं०१४५४ से १५३०) ये भ. प्रगड प्रगडधूं, धुडधडाधड, तीडभीड झडा गबाजाजी ॥ सकलकोति के शिष्य थे। इनका साहित्य हिन्दी, गुजराती सरसर सर्नाट परन्तु, कडकड फड कड काजी।
और मराठी में भी पाया जाता है। वे गिरपुर जब पधारे रिगरिग रिगरिग ताल गर्जलो, प्रणहतबीण बजावेजी॥ थे, तब यहाँ की प्रचलित भाषा में एक भारति गायी थी। कारंजा श्रीपुर बिचये छाया अजब छबिलाजी। जिसका मान प्राचीन मराठी साहित्य में शुद्धता की दृष्टि निराकार निर्धूत निरंजन पाई सब घट नोलेजी ॥
मे ऊँचा ही है। पीर बादशा बल्लीलला, बारबार रंगीलाजी।
देखो-'जाईन मी शिरपूरा, मज लगल छन् । बारबार बलिहार...॥१॥
घरणि वेगला हो, माहे पाश्वजिनंद ॥धृ०॥ अजर अमरपद, प्रधरप्रसनधर, निराधार प्रभु बैठेजी।
मत्यफणि मंडप, नया लंछनी नाग । बड़े बड़े ब्रह्मांड काल पर, मारे चक्र चपेटाजी ॥२॥ शिरपुरी अन्तरिक्ष आहे पासु जिनंद ॥१॥पादि। चन्द्रमरज बिन ज्योति जगाऊं, कोटि सुरज उजियालाजी। (३३) कवीन्द्रसेवक (मं० १६२५)-इन्होंने विदर्भ बिन धरती तुज प्रारति, गाऊं जपू जाप जयमालाजी॥ में रहकर एक अभंग-संग्रह रचा है । वह हिराचन्द नेमचंद
सोलपुर वालों ने प्रकाशित किया है। उसमें ११वें [२६] भ. सकलकोति शिष्य दास 'विहारी' इस मं० पारसनाथ को वंदना करते हुए
परिच्छेद में क्रमांक २०७, तथा २११वे अभंग में अन्त
रिक्ष प्रभु को वंदन है। देखोवंदना जकड़ी
(२०७)-'पदमासनी अन्तरिक्ष, तेथे जडले हे लक्ष । 'अन्तरिक्ष पारस मन ध्याउं, राम गिरि शांति नाथोजी ।।
लक्ष अलक्षी मिलले, ध्यानपुर चिता माले २ तथा तीर्थ वंदना
प्रभारूप पाहोनिया, वाटे कवलवे पाया ।३ आदि 'मन्तरिक्ष पारस मन बंदु, राम-टेक शांतिनाथजी।
(२११)-अंतरिक्ष दाता देतां, मल काय उणे प्रातां ।। [३०] ब्रह्म श्रीहर्षजी [सं० १८५० से १९५०]
देव जिनेन्द्र तोषवी, कृपा हाताने पालवी ।२ यह ईडर शाखा के भ० रामकीति तथा कारंजा के
माझे हाली घेतो सेवा, मुख्य बलोकिचा बापा ।३ सेनगण भ० लक्ष्मीसेन के शिष्य थे। इनका वास बहुत
मादि। समय तक सिरपुर में था। स. १५५१ जेष्ठ वदी १० को इसके अलावा इन्होंने एक 'सुमति प्रकाश' ग्रंथ लिखा इन्होंने भंडार गिना और संस्थान के पौलकरों की झड़ती है। उसकी एक हस्तलिखित प्रति श्रीलालचंद जिनदास
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साहित्य में अंतरिक्ष पानाप बोपुर
२७
जोगी, एडवोकेट वाशीम के पास है। उसमें उन्होंने महाराज तेथे श्रीपुरी अन्तरिम, 'सम्यक्त्व महात्म्य' वर्णन में इस प्रकार लिखा है कि
सदा जो देखिला असे मी प्रत्यक्ष । 'पहा त्या खरदूषण राजानं, देवाकार केला उत्तम पण । असे पावले स्वामी राया श्रीपाल, मग घेतले आहार भोजन, सम्यक्त्व वर्म त्या नाव ।
असे पावजी देखिले माजि डोल ॥२॥ इसका सीधा अर्थ यह भी होता है कि, उस खरदूषण तथा उन्होंने प्रत्यक्ष प्रभु के सामने जो गीत गाया राजा ने-पाश्र्वप्रभु की-मूर्ति करने का उत्तम पण था, उसमें बताया है की राजा ने श्रीपुर में स्वामी की (नियम या प्रतिज्ञा) किया था। उसकी पूर्ति होने पर अच्छी रचना की है। स्वामी श्रीपाल को प्रसन्न याने ही उसने भोजन किया। सारांश प्रतिज्ञा पूरी करना हि प्राप्त होने पर प्रभु पूजन से उसका कोड गया। तब सम्यक्त्व की महिमा बढ़ाना है।
राजा ने कच्चा सूत से गुफा हवा एक रथ बनाया, उस (३४) बापु (प्रज्ञात काल)-इनकी एक तीर्थ पर प्रभु विराजमान हए । रथ पर बैठकर राजा भी रथ बदना मिलती है, जिसमें अलग अलग तीर्थों की वंदना, हांकने लगा, लेकिन राजा ने खड़े होकर पीछं देखा तो वहाँ जाकर करने की प्रेरणा है। देखो
प्रभुजी की जगह पर ही रथ रह गया । यह देखकर राजा 'चल सीरपुराल जाऊ, देव अंतरिक्ष पाहू
चितित हुमा और धावा करने बगा कि, हे प्रभो, अंतरिक्ष, माम्ही देवाच्या मालणी, शब्द हारासी गुफूनी।२ मापने यह क्या किया? हे प्रतरिक्ष मुझे सारो और पाले विकाया देउली, फुका घ्या हो सभामोली ।३ भव-भव में आपकी सेवा करने की संधि दो। प्रादि देखोनका देउ कपर्दिका, परिहंत बोल मुखा ।४
'पासोबा तुझे रूप मी नित्य पाहूँ, ...पहा त्या श्रीपाल राजाचा, तीये कोड गेला त्याचा ।१.
तुझे स्थान कि नित्य नाथाची राहु । .."बापु म्हणे श्रावकासी, चल सिरपुर यात्रेसी ।१२
सिरपुर हे स्थान कस्तूरि पाहे, इसमें बताया है कि देखो-उस श्रीपाल राजा का कोड तीर्थ से याने गंधोदक जल से गया, (१०) अतः
बरी मूर्ति अंतरिक्षाची पाहे ॥१॥
मनीं मानसीं दिसते शिरपूर, 'बापु' कहते हैं शिरपुर यात्रा को चलो।
बरी रचना केली स्वामीची थोर । (३४) तीर्थ वंदना-(अज्ञात कर्तृत्व-काल)
श्रीपालसी स्वामी प्रसन्नचि झाला, 'धर्म वासना हृदयी राहविज,
स्वमी पूजता कोड निघून गेला ॥२॥ अंतरिक्षस्वामी मनांत ध्याइ जे।
त्या कालसी तो रहि करवितो, प्रसन्न प्रत्यक्ष जनामध्ये होय,
कच्या सूताने रथहि गुंफवितो। सिरपुरांत नग्रांत प्रानंद होय ॥२॥मादि
रथावर तो स्वामी बैसोनि बोझे, [३६] पंडित चिमण-(१९वीं सदी) ये एक
सूर्याहूनि ते रूप अधिक साजे ॥३॥ उत्कृष्ट कवि और कीर्तनकार थे । तथा मांत्रिक भी थे।
वरे बैसले स्वामी श्रीपाल राजे, कहते हैं उन्होंने कारंजा के बलत्कारगरण मदिर के मूल
बरे चालवी रथ तो पावसाज। नायक श्री १००८ चद्रप्रभु को एक कीर्तन में हमाया था, और पंचो की अनुमति पाकर उस मूर्ति को पैठण [पट्टण]
उभा राहुनि पाहतो राय मागे,
रथ गहिले स्वामी गयाची जागे ॥४॥ में मुनिसुवत स्वामी के पास रखा था। इनके मुप्रभाली में
असे पाहुनि स्वामी चिनीत भाले, 'सिरपुर नगर अति थोर ग्राम,
____स्वामी अंतरिक्षा असे काय केले । मादि। तेथे बाग बगिचे फुलवाड़ी विथाम ।
[३७] गुरु दयानकीर्ति [सं० १९३०-३२] ये तेथे अन्तरिक्ष असे पार्श्वनाथ,
बलात्कारगण लातूर शाखा के भ० चन्द्रकीर्ति के शिष्य थे। सदा वंदितो कर जोडोनि हाथ ॥१॥ इनका एक पद नीचे दे रहा हूँ।
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अनेकान्त
'दर्शन दे धीपुरी राया, दर्शन दे॥धृ॥
है। उसमें बताया है कि 'यह प्रतिमा रावण काल से ही स्थल मंदिरी रहिवास तुमचा, शेष धरितो छाया ॥१॥ एक जलशय में पड़ी थी, एजलपुर (एलिचपुर) के ईल अंतरिक्ष स्वामी माघर शोभतो, पूजो माष्ट द्रव्या ।२। राजा ने वहाँ स्नान करने से उसका कुष्ट रोग दूर हुमा। सभेमध्ये दास 'दयाल' उभा, पाठवितो तव पाया ॥३॥
फिर उसने इस मूर्ति का बोध करके प्रति स्थापना की। [३६] श्री ज्ञानयति [१६५०-७५] ये बलात्कारगण प्रादि । ऐसा विवरण 'सन्मति' के १९६० के अगस्त कारंजा शाखा के भ० पद्मनंदी के शिष्य थे
अंक में डा० विद्याधरजी जोहरापुर करजी ने दिया है। पद-'सुंदर सावल स्वरूपाचा, सुन्दर स्वामी प्रामुचा। और वहाँ उन्होंने यह भी लिखा कि, ईल राजा १०वीं
पाश्वप्रभु स्वामी शिरपुरीचा, अधांतरी महात्म्याचा ॥ मदी के उत्तरार्ध में हुआ है। मोहनमुद्रा श्रीध्यानस्थ, पद्मासनी व्दयी हस्तक । यंत्र मंत्र साधना करी 'ज्ञानयति' देवी देव प्रसो स्फूर्ति ।
(४२) द्विज विश्वनाथ [ज्ञात-काल-बम्बई के
ऐलक पन्नालाल सरस्वती भवन में, एक गुटका है उसमें [३६] श्री नागेन्द्र कीर्ति [स. १९२५-५०] ये
द्विज विश्वनाथ की एक रचना है उसमें १३ छप्पय छन्द लातूर गादी के प्राज के भ० विशालकीर्ति के गुरु भाग
है, पर उसका नाम कुछ नही है । उसमें गिरनार, शत्रुजय, मिक विशालकीर्ति के शिष्य थे। भ० विशालकीर्ति ने
मगसीमण्डन पाश्वनाथ, अन्तरिक्ष, चम्पापुरी, पावापुरी, शिरपुर में प्रतिष्ठादि महोत्सव किये हैं, तब नागेन्द्रकीर्ति
हस्तिनापुर, पैठन-मुनिसुव्रत, कुण्डलगिरि, पाली-शान्तिने इस पद की रचना की थी। देखो
जिन, गोपाचल [ग्वालियर और तुंगीगिरि के छप्पय 'पावडतो मनि देव जिनपति,
है। (जैन साहित्य और इतिहास पृ० ४३५) श्रीपुरांत, स्वामीनाथ, मात तात, तो मनांत, करी सनाथ, पाल जिनपति ॥१॥ आवडतो ऐसे अनेक साहित्यिक प्राचीन उल्लेख हैं जो अप्रका..'पद्मासनी शोभे मनोहर, अंतरिक्ष, तो प्रत्यक्ष, ध्यानदक्ष, शित है, या हमारे नजर में नहीं पाये हों। प्राशा है सर्वसाक्षी, मार्ग मोक्ष, दावि मजप्रति ॥३। पावडतो। पाठकगण उन्हें मेरे पाम भेजें, या सूचित करें। इस ५०
[४०] 'देव इन्द्र' ये अगर श्रीपर के पौली मंदिर माल में भी भगवानदास कन्हैयालाल आदि जैसे की अनेक में पपावती की स्थापना करने वाले भ० देवेन्द्रकीति हो कृतियाँ प्रसिद्ध है। अन्त में एक अज्ञात काकी प्रभाती तो इनका स. १८७६ से १९४१ है और ये बलात्कारगण
लिम्बकर इसे पूरा करता हूँ। कारंजा शाखा के भ० पद्मनंदी के पट्टशिष्य है। 'उठा उटा गकाल झाली, अरिहताची वेल झाली। अभंग-'अन्तरिक्ष हो राया, तुझे पाय चित्तती ॥धृ॥ मूर्य बिंब उगवल, यात्रा जाऊ शिरपुराला ।। .."माझी या जीवासी, हेचि पै भूषण,
अंगोल करू पवलीत, गध उगालू केशरांत । तुझे पायौं पेण, अन्तरिक्ष ।।२।।
टिकी पार्श्वनाथ देऊ, सदा अन्तरिक्षां ध्याऊँ। ..'पद्मावती देवी, झली से प्रसन्न,
स्थानीय जन-पाठ से] तुझे व्रत करून, अन्तरिक्ष ॥४॥ ... देव इन्द्र म्हणे, तुझे पदी लक्ष,
१. जब की वे दिसम्बर १९६३ के अनेकान्त मे लिखते पावला प्रत्यक्ष, अन्तरिक्ष ॥७॥
हैं कि, एल [ईल] राजा का समय इ० सं०६१४. (४१) लक्ष्मण (सं. १६७६)-ये काष्ठा संघ के २२ के इन्द्रराज [त०] के समकालीन ठहरता है। भ.चद्रकीति के शिष्य थे। इन्होने भी श्री अन्तरिक्ष आदि । लेकिन वह समय इन्द्रराज [चतुर्थ] इ० स० पावनाष इस क्षेत्र की स्थापना विषय में एक गीत रचा १७४.८२ के समकालीन ही निश्चित होता है ।
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भगवान पार्श्वनाथ
परमानन्द जैन शास्त्री
भगवान पार्श्वनाथ ऐतिहासिक महापुरुष हैं। वे मंवर को अपने प्रार्य अष्टांगिकमार्ग में समाविष्ट किया जैनियों के तेवीसवें तीर्थकूर हैं। उनकी ऐतिहासिकता के था। 'अंगुत्तर निकाय में 'वप्प' को निर्ग्रन्यवावक बतलाया प्रमाण विद्वानों द्वारा मान्य किए जा चुके हैं। भारत में है३ । भौर उसकी 'पटुकथा' में वप्प को बुद्ध का चाचा उनके सर्वाधिक जैन मन्दिर और प्राचीन मूर्तियाँ उपलब्ध प्रकट किया है । इससे स्पष्ट है कि उस ममय कपिलवत्थु होती हैं। उनकी ऐतिहासिकता जैन साहित्य से ही में भी पार्श्वनाथ के अनुयायी रहते थे। और उनका नहीं; किन्तु प्राचीन बौद्ध साहित्य से भी प्रमाणित होती धर्म शाक्य क्षेत्र में भी था। भगवान महावीर के माता है। बुद्ध ने स्वयं पार्श्वनाथ के शिष्य पिहताम्रय मुनि से पिता और वैशाली गणतन्त्र के अध्यक्ष गजा चेटक मादि दीक्षा ग्रहण की थी और कठोर तपश्चरण भी किया मब पापित्तिक थे। कलिंग के राजा जितशत्रु भी था, अपनी उस तपश्चर्या के सम्बन्ध में बुद्ध ने जो कुछ पार्श्वनाथ की परम्परा के थे, किन्तु उस समय पावाकहा है उसकी जन तपश्चर्या से तुलना करने पर दोनो में पत्तिकोंकी सख्या बहुत कुछ विरल हो गई थी। इस सम्बन्ध समानता दृष्टिगोचर होती है। बुद्ध ने कुछ समय के में विशेष अनुमन्धान की प्रावश्यकता है। और पाश्वनाथ बाद उस कठोर तपश्चरण का, जो शरीर को कष्टकर था के शासन में बहुत शैथिल्य पा गया था। परित्याग कर दिया था। बुद्ध ने पार्श्वनाथ के चातुर्याम
• पाश्र्वनाथ का जन्म और उनके पिता विश्वसेन १. मिरि पासणाहतित्थे सग्यतीरे पलासणयरत्थो।
महाजनपद युग में बनारस में लगभग तीन हजार पिहियासवस्म सिस्सो महासुद्धो बुड्ढकित्ती मुणी ॥६ वर्ष पूर्व प्रर्थात ईमा से ८०० वर्ष पहले जैनियों के अंतिम तिमि पूग्णामणेहिं अहिंगम पव्वज्जाम्रो परिभट्टी। तीर्थकर भगवान महावीर से:५० वर्ष पहले जैन तीर्थकर रत्तबरं घरिता पवट्टियं तण एवं तं ॥७॥ दर्शनमार।
पाश्वनाथ का जन्म क्षत्री कुल में हुआ था। इनका वंश २. "मज्झिमनिकाय के महासिंहनाद सुत्त (पृ० ४५-४६) उग्ग-उग्र या उग्ग (नाग) था। नागवंश भारत का
में बुद्ध ने अपने प्रारम्भिक कठोर तपस्वी जीवन का प्राचीन क्षत्रिय राजवंश है, जिसमें अनेक राजाओं ने उल्लेख करते हए तप के चार प्रकार बतलाय है, भूमण्डल पर शासन किया है। यह नागवंश इक्ष्वाकु वंश जिनका उन्होंने स्वयं पालन किया था-तपस्विता,
क्षना, जुगुप्सा और प्रविविक्तता । तपस्विता अथात् के समय तो थे ही; किन्तु उसके बाद बुद्ध और महावीर अचेलक-नग्न रहना, हाथ से ही भिक्षा भोजन के युग में भी वहाँ नागवंगी थे । पार्श्वनाथ के पिता का करना, केग और दाढ़ी के बालों को कोचना- नाम विस्ससेन या विश्वसेन था और माता का नाम वम्ही, उखाड़ना और कटकाकीर्ण स्थल पर शयन करना । वामा या ब्राह्मीदेवी था, जो महीपालपुर के राजा महीपाल रूक्षता-शरीर पर मैल धारण करना, स्नान न की पुत्री थी। भगवान पार्श्वनाथ के पिता के सम्बन्ध में करना, अपने मैल को न अपने हाथों से परिमार्जित जैन माहित्य में विश्वसेन, अस्ससेण या अश्वसेन पौर करना, और न दूसरे से परिमार्जित कराना, जुगुप्सा- - जल की बिन्दु पर भी दया करना। प्रविविक्तता- ३. एक समयं भगवा मक्केमु विहरति कपिलवस्थुम्मि । वनों में एकाकी रहना। इन चारों तपों का अनुष्ठान
अथ वो वप्पो सक्को निगष्ट मावगी।'-अंगुत्तर निर्ग्रन्थ श्रमणों में होता था।
निकाय, चतुप्कनिपात, वग्ग ५।
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२७०
अनेकान्त
हयसेण नाम मिलते हैं । जब कि बनारस के राजामों के ३. विश्वसेन नृपतेर्मनः प्रियाम-पार्श्वनाथ चरित ६-६५ नामों में प्रस्ससेण या अश्वसेन हयसेण नाम नहीं मिलता। ४. ततोऽनत्य सकाशीश विश्वसेन तुजो भवत् । हिन्दू पुराण ग्रन्थों में भी अश्वसेन नाम नहीं उपलब्ध बोडशान्यवया. प्राप्तो वनं श्वभावुपेत्यतम् ॥ नहीं होता। यहाँ उस पर कुछ विचार किया जाता है:
-त्रिषष्ठि स्मृतिशास्त्र २३ पृ० १४३ __ "श्री पंडित कैलाशचन्द्र जी सिद्धान्तशास्त्री ने जैन ५. "काशी विषये वाराणसी पुम्यो विश्वसेन महाराजस्य साहित्य इतिहास की पूर्वपीठिकाके पृष्ठ १६५ में लिखा है- ब्राह्मीदेव्याश्च सनः पञ्चकल्याणाधिपतिः पार्श्वनाथ कि जैन साहित्य में पार्श्वनाथ के पिता का नाम अश्वसेन नाम"। या परससेण बतलाया है। यह नाम न तो हिन्दू पुराणों योगि. पंडिताचार्य-पार्वाभ्युदय काव्य टीका कथा वातारः। में मिलता है और न जातकों में किन्तु गत शताब्दी में ६. तपति विश्वसेनास्योप्यभविश्व गुणकभः। रची गई पार्श्वनाथ पूजा में पार्श्वनाथ के पिता का नाम काश्यपाल्य सुगोत्रस्य इक्ष्वाकु वंशरवांशुमान् ।। विश्वसेन दिया है, यथा-तहां विश्वसेन नरेन्द्र उदार।'
-सकलकीति पार्श्वपुराण १०-३६ । हम नही कह सकते कि कवि के इस उल्लेख का क्या ७. बमोष्टो विश्वसेनः शतमखचितः काशिवाराणसीशः। माधार है।"
प्राप्तेज्यो मेरु शृंगे मरकतमणिरुपवनायो जिनेन्द्रः।। मालूम होता है कि पंडित जी ने अपने ग्रन्थो का
-पार्श्वनाथ स्तवन श्रुतसागर सूरि भने० वर्ष १२ कि. ८ अवलोकन नहीं कर पाया, या उत्तरपुराण प्रादि के १.यसेण वम्मिलाहि जाबोहि बाणारसीए पास मिलो। उल्लेखों पर उनकी दृष्टि नहीं गई। अन्यथा उन्हें उसके
-तिलो० प० ४-५०८ गा०। प्राधार का ठीक पता चल जाता। यदि उक्त वाक्य कवि
२. तहां बसह हेम मन्दिर सुषाम, बखतावरमल ने स्वयं दिया है, तो उसका प्राधार पौरा
बाणारसि गरि मनोहिराम । णिक साहित्य है। पर उनका वाक्य अश्वसेन है जिसका
धवल हर धवल अवलिय विहाइ, उक्त पूजा में दो बार उल्लेख है। दिगम्बर साहित्य में
सुरसरि सेविय हर मुत्तिणाइ। विश्वसेन और अश्वसेन या अस्ससेन दोनों ही नाम
हयसेणु तत्त्व राणउ सुमंति, मिलते हैं ! यति वृषभ की तिलोयपण्णत्ती में और अपभ्रंश
जसु जेण निहिउ दिग्बयह बंति ।। भाषा के ग्रन्थों में 'हयसेरण' नाम मिलता है, जो अश्वसेन
देवचन्द्र, (पासणाहचरिउ १-११ पत्र ५) का ही पर्यायवाची है। हां, श्वेताम्बरीय ग्रन्थों में प्रस्ससेण
३. वाराणसी विशाखा च पायो वर्माषवो प्रियः । या पाससेन और अश्वसेन नाम उपलब्ध होता है।
अश्वसेनश्च ते राजन विशंतु मनसोपतिः ॥ दिगम्बरीय विद्वान् गुणभद्राचार्य, वादिराज, पुष्पदन्त
रविषेण पद्मचरित २०-५६ । पंडित पाशाधर, पाश्र्वाभ्युदय के टीकाकार, योगिराट पंडिताचार्य भ० सक्लकौति और श्रुतसागर सूरि ने पार्श्वनाथ
४. अश्वसेन नृपः पाश्वः। (हरिवंश पु० ६०-२०४) के पिता का नाम विश्वमेन ही प्रकट किया है
५. अस्ससेणु णामें तहिणरवरू। (रइधू पा० पु०१-१० १. वाराणस्यामभूद्विश्वसेनः काश्यपगोत्रजः ।
६. अश्वसेन भपनि बडभाग, राज कर तहां प्रतुल सुहाग। ब्राहास्य देवी सम्प्राप्तं वसुधारादि पूजनम् ॥ __ काशिपगोत्र जगत परशंस, वंश इक्ष्वाकु विमल सरहंस ॥ -उत्तर पुगण ७५ पृ० ४३४ ।
भूधरदास पावपुराण । २. कासी देसि यरिवाणारसि,
श्वेताम्बरीय ग्रन्धकारों मे आससेण, अस्ससेण या हि धवल हरहिं पहमेल्लइ ससि ।
अश्वसेन नाम मिलता है। यथापत्ता-तहि अस्थि गरिंदु विस्ससेणु गुण मंडिउ । १. वाणारसी विसाहा पासो धम्मीय प्राससेणो य । बंभा देवीए भयलयाहि अवडिउ ।
अहिछत्सा वाहिरमो तुहमंगल कारयाणि सया ॥ -महापुराण ६४ सं० १२ ।
--पउमचरिउ २०-४६ ।
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भगवान पानाच
२७१
२. भारहेवासे बाणारसीए नयरीए प्राससेणस्स रणो तो नहीं होती कि वे उन पाठों का मशोधन कर सकें। वामाए देवीए।
-कल्पसूत्र ६-१५० अन्य एक संग्रह में उक्त तीनों स्थलों पर 'मश्वसेन' नाम ३. प्राचार्य हेमचन्द्र ने अपने त्रिषष्ठि शलाका का ही उल्लेख मिलता है। पुरुष चरित्र में पार्श्वनाथ के माता-पिता का नाम दामा
जब बनारसमें भगवान पार्श्वनाथ का जन्म हुमा, उनका देवी और अश्वसेन दिया है। उक्त नामों में से हयसेन या अश्वसेन नाम का समर्थन
गोत्र काश्यप था। उस समय देश की स्थिति बड़ी ही हिन्दू पुराणों और बौद्ध जातकों से भी नहीं होता। प्रतः
विषम और डामाडोल हो रही थी। श्रमण मस्कृति के
साथ वैदिक संस्कृति का प्रचार बंगाल मौर विहार में यह नाम इतिहास सम्मत नहीं है बौद्ध जातकों में बनारस
होने लगा था। लगभग उसी समय में 'शनपय ब्राह्मण' के गजामों के नाम मिलते है। जिनमे ब्रह्मदत्त के सिवाय छह राजामों के नाम निम्न प्रकार हैं-उम्गसेन, धनंजय,
की रचना पूर्ण हो रही थी। ऐसे विषम ममय में भगवान महासीलव, मंयम, विस्ससेन और उदयभद्द । विष्णु
पाश्र्वनाथ ने बनारम में अवतार लिया। वे जन्म से ही पुराण और वायुपराग में ब्रह्मदत्त के उत्तराधिकारी
मनि-श्रुत और अवधि तीन ज्ञान मंयुक्त थे। उनके शरीर
का नील वर्ण अत्यन्त शोभनीक था। धीरे-धीरे भगवान योगसेन, विश्वकसेन और झल्लाट नाम का उल्लेख मिलता है। जातकों का विस्ससेन और पुराणों के विश्वक
का शरीर वृद्धि को प्राप्त होता गया। माता-पिता ने
अनेक वार उनसे विवाह का प्रस्नात्र किया, कि तु उन्होंने सेन संभवतः एक ही है। काशी के इतिहास में डा.
उसे हम कर टाल दिया। प्राचार्य हेमचन्द्र ने अपने मोतीचन्द जी ने उक्त नामों का उल्लेख किया है।
'त्रिषष्ठि शना का पुरुषचरित्र' के वे पर्व के तीसरे सर्ग रही पार्श्वनाथ पूजा में प्रयुक्त विश्वसेन नाम के के २१०वें पद्य के निम्न चरण में-'भोग्य कर्म क्षपयिआधार की बात, सो उसका प्राधार ऊपर बतलाया जा तुमुद्राह प्रभावतीम्" उल्लिखित वाक्य द्वारा पार्श्वनाथ को चुका है किन्तु वह पूजा जिन संग्रहों में छपी है उसके विवाहित मूचित किया है। जब कि उसी चरित के वामपाठों में एक रूपता नहीं है। कलकत्ता अमरतल्ला स्ट्रीट पूज्य चरित में महावीर को छोड़ कर शेष चार तीर्थकरों से प्रकाशित 'श्री जिन स्तोत्र पूजादि संग्रह में पृ० ५६७ को-मल्लि, नेमि, पार्श्व और वासुपूज्य को अविवाहित पर प० कमलकुमार जी शास्त्री कलकत्ता के सम्पादकत्व सूचित किया है१। हेमचन्द्राचायंका पाश्वनाथको एक जगह में प्रकाशित बखतावर मल की पार्श्वनाथ पूजा में पाव. विवाहित और दूसरी जगह अविवाहित लिखना किसी नाथ के पिता का नाम एक स्थान पर अश्वसेन और दो भूल का परिणाम जान पड़ता है। अन्यथा एक ही अन्य स्थानों पर विश्वसेन छपा है । जो विचारणीय है। में ऐमा विरुद्ध कथन नहीं होना चाहिए। पाश्वनाथ को 'वर स्वर्ग प्राणत को विहाय सुमात वामा सुत गये। विवाहित बतलाना स्थानानाग नथा गमवायांग के मूत्र अश्वसेन के पारस जिनेश्वर चरण जिनके सुर नाये।' १६ की मान्यता के विरुद्ध है, आवश्यक नियुक्ति की
xxxx मान्यता के भी विरुद्ध है । दिगम्बर परम्परा मे पाश्र्वनाथ हैं विश्वसेन के नंद भले गुण गावत है तुमरे हरषाए।' को अविविवाहित ही माना गया है। पंच तीर्थंकरों को
बाल ब्रह्मचारी माना है जैमा कि प्रावश्यक नियंक्ति में 'तहां विश्वसेन नरेन्द्र बार, करें सुख वाम सुदे पटनार।' ..
भारतीय ज्ञान पीठ काशी प्रकाशित से 'ज्ञानपीठ पूजा- १. (क) मल्लिनेमिः पावं इति भाविनोऽपि त्रयो जिन. । जलि के पृष्ठ ३७१ पर भी ऊपर लिखे अनुसार पाठ प्रकृतोडाह साम्राज्याः प्रजिष्यति मुक्तये ॥१०३ मंद्रित है । जबकि तीनों स्थलों पर एक जैसा पाठ चाहिए श्रीवीरश्चरमश्चाहनीषद् भोग्येन कर्मणा । था। ऐसी स्थिति में पाठक जन किस पाठ को ठीक कृतोद्वाहोऽकृत राज्य प्रजिष्यति सेत्स्यति ।।१०४, समझे, यह विचारणीय है। सर्व साधारण में इतनी बुद्धि
त्रि० ५० ५० ५०।
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२७२
अनेकान्त
माना गया है।
इसमें नाग युगल हैं; किन्तु तापसी नहीं माना और उसने प्रवज्या और उपसर्ग
लकड़ी फाड़ ही डाली, तब उसमें से अधजला हुमा नागएक समय कुमार गंगा नदी के तट पर घूम रहे थे । वहां नागिनी का जोड़ा निकला। कुमार ने उन्हें मरणोन्मुख कुछ तपस्वी अग्नि जला कर तप कर रहे थे। उनका यह जान कर उनके कान में नमस्कार मंत्र दिया। और तप 'पंचाग्नि तप' कहलाता था। यह शरीर शोषक होने दुखी होकर वे वहां से वापिस चले गये। इस घटना से के साथ-साथ जीव हिंसा का भी कारण है। इसी से इसे कुमार के दयालु सुकुमार हृदय पर बड़ी चोट लगी और मिथ्या तप कहा जाता है, वास्तव में पंचाग्नितप काम, जीवन की प्रनित्यता के साथ देह-भोगों की अनित्यता से क्रोध, मद, माया और लोभ रूप पञ्च अग्नियों का सहन उनका चित्त अत्यन्त उदास हो गया और वे विचारने करने वाला, अथवा इन पर विजय प्राप्त करने वाला लगे किसाधक हो पञ्चााग्नतप साधक कहला सकता हर । परन्तु सामान परुप जन जैसे, हम खोए ये दिन ऐस । वहां प्रात्म-साधनाका लेशभी नही है केवल हिंसा और शरीर संयम विन काल गमायो. कळ लेखे में नहिं ग्रायो। शोषण क्रिया का ही अवलम्बन है । प्रस्तु, कुमार उनके
ममतावश तप नहि लीनों, यह कारज जोग न कीनो। पास पहुंच कर बोले-इन लक्कड़ों को जला कर क्यो
अब खाली ढील न कीज, चारित चिन्तामणि लीजै ।। जीव हिंसा कर रहे हो। कुमार की यह बात सुन कर
यह सोच कर तीस वर्ष की भरी जवानी में राजसुख तापसी बहुत क्रोधित हुए और झल्लाए तथा कहने लगे
का परित्याग कर वे दीक्षित हो गए। तपश्चरण में अनु'यदि तुम्हे इतना ज्ञान है तो तुम ही हार हर ब्रह्मा हुए। रक्त हो प्रात्म-साधना में तत्पर हो गये। उनका तपस्वी इनमें जीव कहां है ? तब कुमार ने उन लक्कड़ो की मोर
जीवन बड़ा ही कठोर और उग्र था, वे कष्ट सहिष्णु,
, इशारा किया और तापसी कुल्हाड़ी उठा कर उस लकड़ी
पौर क्षमाशील तथा परिषह विजयी थी। उनकी आत्मको फाड़ने लगा। तब कुमार ने कहा इसे मत फाड़ो
साधना कठोर थी वे वर्षा, गीत और ग्रीष्म की तपन
की परवाह नहीं करते थे। वे सम्यभावी, वर्य और गुणों (१) वीरं अग्ढिनेमि, पास मल्लि च वासुपुज्जं च । एए मोत्तण जिणे अवसेसा आसि रायाणो ॥२४३
२. भो तपसी यह काठ न चीर, यामें युगल नाग हैं वीर । रायकुलेमु वि जाया विसुद्धवंसेसु खत्तिय कुलेसु ।
सुन कठोर बोलो रिस पान, भो बालक तुम ऐसो जान । न च इच्छियाभिसेया कुमारवाममि पब्वइया ।। हरि हर ब्रह्मा तुमही भए, सकल चराचर ज्ञाता ठए।
प्रा० नि० २४४।।
मन करत उद्धत अविचार, चीरो काठ न लाई वार १५५ xxxx
ततत्रिण खण्ड भए जुगजीव, जैनी बिन सब प्रदय अतीव । गामायाग विसया निसेविया ते कुमार वज्जेहिं ।
यही भाव महाकवि पुष्पदन्त की निम्न पंक्तियों में गामागराइयाएमु य केसि (म) विहागे भवे कस्स ।।
अंकित है :२५५
भो भो तापम तरु म-हण म-हणु, टाका-ग्रामाचाग नाम विषया उच्यन्ते ते विपया निसे- एत्थच्छद कोडरि णाय-मिहुणु ।
बिता-प्रासेविता: कुमारवर्ग.-कुमार भाव एव ता भणइ तवसि कि तुझणाणु, ये प्रवज्या गहीतवन्तः तान् मुक्त्वा शेप. सर्वस्तीर्थ
कि तुह हरिहर चउवयणु भाणु । कृद्भिः। किमुक्त भवति ? वासुपूज्य-मल्लिस्वामि
इय भणि वि तेण तहिं दिगण घाउ, पार्श्वनाथ-भगवदरिष्टनेमि व्यतिरिक्तः सर्वेस्तीर्थ
संक्षिण्णउ सह गाइणिइ जाउ। कृद्भिगसेविता विषयाः न तु वासुपूज्य प्रभृतिभि ,
जिरण वयणे विहि मि सहि जाय, तेषां कुमार भाव एव प्रतग्रहणाभ्युपगमात् ।
को पावइ धम्महु तणिय छाय । -टीकाकार मलयगिरि ।
-महापुराण ६१-२१
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भगवान पार्श्वनाथ
२७३
के अनन्त भण्डार थे। तपश्चरण से उनमा मांस और सरोवर में कीड़ा करने वाले हम है। इन्द्रिय रूपी विषधर खुन गुष्क हो गया था। शरीर अत्यन्त कृश हो गया था, सों को रोकने के लिए मत्र है, मात्म-समाधि में चलने किन्तु प्रात्म-तेज बढ गया था। उनके तपम्वी वाले हैं, केवलज्ञान को प्रकाशितकरने वाले सूर्य हैं, जिनेश्वर जीवन की याद माने ही गेंगटे खडे हो जाते हैं। वे स्व- हैं नासाग्रदृष्टि है, श्वास को जीतने वाले हैं, जिनके बाहु पर-तत्त्वज्ञानी समता-साधको में अग्रणीय थे।
लम्बायमान है और जिनका शरीर व्याधियों से रहित है, एक समय वे वन म क गिला पर ध्यानस्थ थे। जो सुमेरु पर्वत के समान स्थिर चित्त हैं।" उम ममय उनकी प्रात्म-चिन्तन में निमग्न सौम्य मुद्रा भगवान पार्श्वनाथ की यह ध्यान-स्थिति स्वात्म-स्थिति देखते ही बनती थी। वे साम्यभाव में अवस्थित थे और को प्राप्त करने की एक कसोटी है। जो क्षपक-श्रेरिण पर ध्यानाग्नि द्वारा कर्म पज को जलाने की शक्ति-पंचय मे प्रारुढ़ हो रहे है। उनकी इस साम्यावस्था के समय मंलग्न हो रहे थे। उनकी सुस्थिर महा से कोई रोम भी उनके पूर्व जन्म का बरी कोई सम्बर नाम का देव इधर-उधर नही मटकता था, उनकी उम निश्चल ध्यान-मुद्रा भात
प्राकाश मार्ग से कही जा रहा था, सहसा उसका विमान का कवि देवचन्द्र ने पाश्वनाथचरित में निम्न रूप से अटक गया बार उन्ह
अटक गया और उन्हें ध्यानस्थ देखते ही उसका पूर्व अंकन किया है :
संचित वर-भाव भड़क उठा, उसने पाश्वनाथ पर घोर
उपसर्ग किया, ईट पत्थर, धूलि मादि को वर्षा की, "तत्थ सिलायले चक्कु जिणिदो, संतु महंतु तिलोयहो वंदो। भयानक कृष्ण मेघों में सर्वत्र अन्धकार छा गया, अपार पंच महव्वय उदय कंधो, जिम्मम चत्त चउम्विह बंधो। जलवष्टि हई, मघो की भीषण गर्जना और विद्युत को जीव दयावह संग विमुक्को, गं बहलक्खणु धम्मु गुरुक्को । दमकन से दिल दहलने लगा, पृथ्वी पर चागे मोर पानी जम्म-जरा-मरणुज्झिय बप्पो, बारस भेय तवस्स महप्पो।
ही पानी दिखाई देने लगा। ऐसा धार उपसर्ग करके भी मोह-तमंध-पयाव-पयंगो, खंतिलयावरण गिरितुंगो। वह पार्श्वनाथ को ध्यान से र मात्र भी विचलित न कर संजम-मील-विहूसिय-वेहो, कम्म-कसाय-हुयासण मेहो। सका । उसी समय वे दोनों नाग नागिनी जो धरणेन्द्र और पुष्फंधणु वर तोमरसो, मोक्ख महासरि कीलण हंसो। पद्मावती हए थे अपने उपकारी पर भयानक उपसर्ग जान इंदिय-सप्पह-विसहर मतो, अप्पसरूव-समाहि सरंतो।
कर तुरन्त पाताल लोक से प्राये। पद्मावती ने अपने केवलणाप-पयासण-कंख, घाण पुरम्मि निवेसिय चक्खू ।
मुकुट के ऊपर भगवान को उठा लिया और धरणेन्द्र ने णिजिकय सासु पलविय वाहो, निच्चल-देह-विसज्जिय वाहो
सहन फण वाले सर्प का रूप धारण कर, और अपना कंचण सेलु जहां घिर चित्तो, दोषकछंद इमो बुह बुत्तो॥" फण फैलाकर उनकी रक्षा की । उमी समय पाश्वनाथ ने
भगवान पार्श्वनाथ एक शिला पर ध्यानस्थ बैठे हुए पूर्णज्ञान (केवलज्ञान) प्राप्त किया। है । वे मन्त-महन्त और त्रिलोकवर्ती जीवो के द्वारा बन्द- महत्वपूर्ण ऐतिहासिक घटनानीय हैं। पञ्च महाव्रतों के धारक है, निर्ममत्व है और भगवान के कवलज्ञान की पूजा करने के लिये इन्द्राप्रकृति, प्रदेश स्थिति और अनुभाग रूप चार प्रकार के दिदेव पाने लगे। उनकी दिव्य देशना को सुनकर उस बन्ध मे रहित है। दयालु और मग (परिप्रह) विमुक्त जोतिपी मम्बरदेव ने उनके चरणों में अपने अपराध की है, दश लक्षण धर्म के धारक है, जन्म-जग और मरण के क्षमा-याचना की और मिथ्यात्व का वमन कर सम्यक्त्व दर्प मे रहित है। तप के द्वादश भेदों के अनुष्ठाता है, प्राप्त किया । इतना ही नही किन्तु उम वन में रहने वाले मोह रूपी अंधकार को दूर करने के लिए मूर्य समान है। अन्य तपोधन साधुनों ने भी, जो अजान मूलक तपश्चरण क्षमारूपी लता के प्रारोहणार्थ वे गिरि के समान उन्नत द्वारा अपने शरीर को प्रत्यन्त कृश कर रहे थे। पार्श्वनाथ हैं। जिनका शरीर संयम और शील से विभूषित है, जो की शरण में प्राकर वास्तविक तपस्विता अंगीकार की कर्मरूपी कषाय हुनासन के लिए मेष है, कामदेव के ये तपस्वी उस समय के अच्छे विद्वान थे। पाश्र्वनाथ के उत्कृष्ट बाण को नष्ट करने वाले तथा मोक्षरूप महा जीवन की इस महत्वपूर्ण ऐतिहासिक घटना का उल्लेख
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अनेकान्त
विक्रम की तीसरी शताब्दी के विद्वान् प्राचार्य समन्तभद्रने थे, उनका हृदय अनुकम्पा से द्रवित हो गया था। इतना ही अपने स्वयम्भूस्तोत्र के पार्श्वनाथ स्तवन में निम्न रूप से नहीं किन्तु उनके अनेक अनुयायी भी अहिंसा के पथिक व्यक्त किया है :
बने थे। उस समय के इतिहास लेखकों ने उस पर प्रकाश "यमीश्वरं वीक्ष्य विधूत-कल्मषं,
डाला होगा। बंगीय साहित्य के इतिहास में भी कुछ तपोषनास्तपि तथा भूषवः।
लिखा गया है। उस समय अंग-बंग और कलिंगादि बनौकसः स्व-बम-बन्ध्य-युदयः,
प्रदेशों में वैदिक संस्कृतिका प्रचार नगण्य-सा रह गया था। शमोपदेशं शरणं प्रेपविरे॥" इससे रुष्ट होकर कुछ विद्वानों ने अंग-बग-कलिंगादि की इस पद्य में बतलाया गया है कि-विधूत-कल्मष- यात्रा पर प्रतिबन्ध भी लगा दिया था और मौराष्ट्र से घातिकर्म रूप पाप-कर्म से रहित-शमोपदेश-मोक्ष- लेकर वृहत् जनपद को प्रार्य मंडल से बहिर्भूत कर दिया मार्ग के उपदेशक और ईश्वर-सर्वलोक के प्रभु के रूप था और यात्रा करने पर प्रायश्चित्त करना पड़ता था में उन पार्श्वनाथ प्रभु को देखकर वनवासी तपस्वी भी जैसाकि निम्न पद्य से स्पष्ट है .शरण में प्राप्त हुए-मोक्षमार्ग में लगे जो अपने श्रमको अंग-बंग-कलिगेष सौराष्ट्र मगधेषु च । पंचाग्नि तपरूप अनुष्ठान को-प्रवन्ध्य (विफल) समझ तीर्थयात्रा विनागच्छन् पुनः संस्कारमहति ॥ गए थे और भगवान पार्श्वनाथ जैसे होने की इच्छा रखते थे।
इससे पाठक सहज ही जान सकते है कि उस समय इस महत्वपूर्ण घटना का उल्लेख प्राचार्य गुणभद्र के भगवान पार्श्वनाथ का उन देशों में कितना प्रभाव अंकित उत्तर पुराण में मोर महाकवि पुष्पदन्त के महापुराण में
था। उन्होंने लोककल्याण के लिए जो उपदेश दिया था पाया जाता है । और उनमें इन साधुनों की संख्या सात
वह सम्प्रदायातीत था। और वह वही था जिसे पहले सो बतलाई गई है।
अजितादि तीर्थकरों ने दिया था। भगवान पाश्वनाथ न कार वादक क्रियाकाण्डाका भारी इस तरह पार्श्वनाथ ने लोक-कल्याण का भारी कार्य विरोध किया था, और तत्कालीन क्रिया काण्डी विद्वानों पर किया, उससे श्रमण संस्कृति को बल मिला । और उसका उनके उस अहिंसक उपदेशका बहुत प्रभाव पडा था और वे प्रचार और प्रसार भी हमा। पार्श्वनाथ ने जिस अहिंसा हिंसक क्रिया काण्डों को छोड़कर अहिंसा धर्मके धारक बने ।
का प्रचार किया और वैदिक शुष्क क्रिया काण्डों का
प्रतिषेध किया उससे अहिंसा को पूर्ण प्रश्रय मिला। १. प्रापत्सम्यक्त्व शुद्धिं च दृष्ट्वा तद्वनवासिनः । (क)तापसास्त्यक्त्वमिथ्यात्वाः शतानां सप्तसंयमम् ।। भगवान पार्श्वनाथ के धर्म को चातुर्याम कहा जाता
-उत्तरपुराण है। जिसका अर्थ है छेदोपस्थापना को छोड़कर शेष (ख) सम्मत्तलयउखल संवरेण, उवसंते ववगयमच्छरेण। सामायिक प्रादि चार चारित्रों का विधान, उसमें मावश्यसम्वणवासिहि संपत्तवत्त, इसिजायइं तवसिहि समइ सत्त। कता होने पर प्रतिक्रमण की व्यवस्था थी। इसके सम्बन्ध
-महापुराण पुष्पदन्त सं०६४ पृ० २१२ में फिर कभी स्वतन्त्र लेख द्वारा विचार किया जायगा।
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अनेकान्त का छोटेलाल जैन विशेषांक
असा संस्मरण १. श्रद्धाञ्जलियाँ २. संस्मरण
जीवन-वृत्त १. जन्म और बचपन २. शिक्षा ३. वैवाहिक जीवन ४. व्यापार ५. धर्म-रुचि ६. माता-पिता का प्रभाव
कृतित्व
क. साहित्यिक १. जैन सन्दर्भ ग्रन्थ २. जैन मूर्तिलेख संग्रह ३. विविध पत्र-पत्रिकामों में प्रकाशित लेख ४. खण्डगिरि-उदयगिरि पर खोज ५. दक्षिण भारतीय शिला-लेख संग्रह (सम्पादन) ६. बाबू जी के द्वारा प्रोत्साहित ग्रन्थ और ग्रन्थकार
स. सामाजिक ७. वीर सेवा मन्दिर, दिल्ली ८. स्याद्वाद महाविद्यालय, वाराणसी ६. भारतीय ज्ञानपीठ, काशी १०. वीर शासनसंघ, कलकत्ता ११. बाला विश्राम पारा दर्शन साहित्य और पुरातत्त्व
क. दर्शन १. अनेकान्त का सैद्धान्तिक विश्लेषण २. आधुनिक विश्व में अनेकान्त का स्थान ३. जैन अहिंसा का सार्वभौमिक महत्व ४. अहिंसा के परिप्रेक्ष्य में महावीर और गान्धी ५. प्राधुनिक विज्ञान और जैनदर्शन ६. जनदर्शन का ऐतिहासिक मूल्याङ्कन ७. जैन और बौद्ध दर्शन ८. जैन तत्ववाद की पृष्ठभूमि ६. मानव जीवन मौर जैन मध्यात्मवाद १०. अणुव्रत और नैतिकता
११. जैनदर्शन में ज्ञान और भक्ति १२. जैन न्याय १३. जैन तत्त्वज्ञान में सर्वोदयी विचारधारा
स. साहित्य १. प्राकृत भाषा और साहित्य २. प्राकृत भाषा का वैज्ञानिक अध्ययन ३. प्राकृत भाषा में राम-काव्य ४. प्राकृत का हिन्दी पर प्रभाव ५. जैन संस्कृत के महाकाव्य ६. प्राकृत शब्दकोष ७. अपभ्रंश और हिन्दी का सम्बन्ध ८. अपम्रश के महाकाव्य ९. रासा काव्य १०. जैन अपभ्रंश का हिन्दी के सन्त काव्य पर प्रभाव ११. योगीन्दु और कबीर १२. भविसयत्तकहा और पदमावत का तुलनात्मक अध्ययन १३. अपभ्रंश का गीति-काव्य १४. जैन हिन्दी काव्य का साहित्यिक मूल्याङ्कन १५. मध्यकालीन जैन हिन्दी महाकाव्य १६. मध्यकालीन निर्गुण सम्प्रदाय और जैन पद काव्य
की निष्कल-भक्ति १७. जैन परिप्रेक्ष्य में नाथ सम्प्रदाय
१. भारतीय संस्कृति में जैन पुरानस्व का महत्व २. राजस्थान का जैन पुरातत्त्व ३. अजन्ता की गुफाओं का जैन पुगतात्त्विक मूल्याङ्कन ४. उदयगिरि-खण्डगिरि की गुफाएं ५. दक्षिण भारत का जैन पुरातत्त्व ६. श्रवणबेल्गोल ७. नैन मन्दिर और चैत्य ८. जैन मूर्तिकला ९. जैन मूर्ति लेख १०. पुरातात्त्विक दृष्टि से जैन देववाद ११. जैन पुगतत्त्व-साहित्य
विशेष-उपर्युक्त स्तम्भों के अन्तर्गत किसी भी विषय पर लिखा जा सकता है।
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वृषभदेव तथा शिव-सम्बन्धी प्राच्य मान्यताएँ
___ डा. राजकुमावार जैन एम० ए० पी-एच० डो.
वैदिक हर के विकसित रूप
शतपथ ब्राह्मण १ मे कद्र के जो-रुद्र, शर्व, पशुपति, मानिन किया है कि रुद्र झझावात के 'ख' का प्रतीक है। उग्र, प्रशनि, भव, महादेव, ईशान, कुमार-ये नौ नाम डा० मेक डौनल ने रुद्र और अग्नि के माम्य पर दृष्टि हैं, वे अग्निदेव के ही विशेषण उल्लिखित किये गये हैं और रखते हए कहा कि रुद्र विशुद्ध झंझावात का नहीं; अपितु 'ऋषभदेव तथा वैदिक अग्निदेव' में उपस्थित किये गये विनाशकारी विद्यत के रूप में झझावात के विध्वसक विवरण मे स्पष्ट है कि भगवान ऋषभदेव को ही वैदिक स्वरूप का प्रतीक है६ । श्री भाण्डारकर ने भी कद्र को प्रकृति काल मे अग्निदेव के नाम से अभिहित किया जाता था, की विनाशकारी शक्तियो का ही प्रतीक माना है६ । अग्रेज फलतः रुद्र, महादेव, अग्निदेव, पशुपति प्रादि ऋपभदेव विद्वान म्यर की भी यही मान्यता है । विल्मन ने ऋग्वेद के ही नामान्तर है।
की भूमिका में भद्र को अग्नि अथवा इन्द्र का ही प्रतीक वैदिक परम्पग में वैदिक रुद्र को ही पौराणिक तथा माना है। प्रो. कीथ ने रुद्र को झझावात के विनाशकारी प्राधुनिक शिव का विकसित रूप माना जाता है। जब कि रूप का ही प्रतीक माना है. उसके हितकर रूप का नही। जैन परम्परा में भगवान ऋषभदेव को ही शिव, उनके मोक्ष इसके अतिरिक्त रुद्र के घ तक बाणों का स्मरण करने हए मार्ग को शिवमार्ग तथा मोक्ष को शिवगति कहा गया है। कुछ विद्वानो ने उन्हे मृत्यु का देवता भी माना है और यहां रुद्र के उन समस्तक्रम-विकसित रूपों का एक सक्षिात इसके समर्थन में उन्होने ऋग्वेद का यह मून प्रस्तुत किया विवरण प्रस्तुत किया जा रहा है। ऋग्वेद में रुद्र मध्यम है, जिममे रुद्र का केशियो के साथ उल्लेख किया गया है। श्रणी के देवता हैं उनकी स्तुति में तीन पूर्ण सूक्त को न्द्र की एक उपाधि 'कपदिन' है१० । जिसका मथ गये हैं। इसके अतिरिक्त एक अन्य सूक्त में पहले छह मत्र है जटाजूटधारी और एक अन्य उपाधि है 'कल्पली किन्'११ रुद्र की स्तुति में हैं और अन्तिम तीन सोम की स्मृति जिसका अर्थ है, दहकने वाला, दोनों की मार्थकता रुद्र के में एक अन्य सूक्त में रुद्र और सोमका साथ स्तवन किया नेशी तथा अग्निदेव रूप में हो जाती है। गया है ३ अन्य देवतामों की स्तुति में भी जो सूक्त को अपने मौम्यरूपो में रुद्र को 'महाभिषक' बतलाया गया है गये हैं उनमें भी प्रायः रुद्र का उल्लेख मिलता है, इन जिमकी औपधियाँ ठण्डी और व्याधिनाशक होती है। रुद्र सूक्तों में रुद्र के जिस स्वरूप की वर्णना हुई है, उसके अनेक मूक्त में रुद्र का सर्वज्ञ वृषभ रूप से उल्लेख किया गया है चित्र हैं और उनके विभिन्न प्रतीकों के सम्बन्ध में विद्वानों और कहा गया है१२ 'हे विशुद्ध दीप्तिमान मर्वज वृषभ, की विभिन्न मान्यताए हैं । रुद्र का शाब्दिक अर्थ, मरुतो ५. मेकडौनल · वैदिक माईथोलोजी, पृष्ठ स०७८ के माथ उनका संगमन, उनका बभ्र वर्ण और सामान्यतः ६. भाण्डारकर : वैष्णविज्म शैविज्म उनका क्रूर स्वरूप इन सबको दृष्टि में रखते हुए कुछ ७. म्यर : मोरिजिनल संस्कृत टेक्स्टम, विद्वानों की धारणा है कि रुद्र झझावान के 'ख' का प्रतीक ८. विल्सन : ऋग्वेद भूमिका हैं.४ जर्मन विद्वान वेबर ने रुद्र के नाम पर बल देते हुए मनु- ९. कीथ : रिलिजन एण्ड माइथोलोजी श्राफ दी ऋग्वेद,
पृष्ठ सं० १४७ १. ऋग्वेद : १. ११४, २, ३३.७, ४६
१०. ऋग्वेद : १. ११४, १ और ५ २. ऋग्वेद १, ४३
११. वही : १, ११४; ५ ३. वही : ६,७४
१२. एव बभ्रो वृषभ चेकितान यथा देव न हयाषं न हसि ४. वेबर इण्दोश स्टूडीन, २, १६.२२
ऋग्वेद : २, ३३, १५
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वृषभदेव तथा शिव-सम्बन्धी प्राच्य मान्यताएं
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हमारे ऊपर ऐसी कृपा करो कि हम कभी नष्ट न हों।" पृथ्वी पौर प्राकाश को यद्यपि मायण ने केशी का अर्थ इसी मूक्त के अन्य मन्त्र में कहा है१- "हे मरुतो, तुम्हारी मूर्य किया है, परन्तु केशी का शाब्दिक अर्थ जटाधारी जो निर्मल मौषधि है, उस प्रौपधि को हमारे पिता मनु होता है और इस मूक्त के तीसरे तथा वाद के मंत्रों में (स्वयं ऋषभनाथ) ने चुना था, वही सुखकर और भय केशी की तुलना उन मुनियों से की गई है जो अपनी विनाशक औषधि हम चाहते है।' विशुद्ध प्रात्मतत्त्व ज्ञान प्रागोपासना द्वारा वायु की गति को रोक लेते है और ही यह पौषधि है, जिसे प्राप्त कर रुद्र भक्त मंमार जयी मौनवृत्ति से उन्मत्तवत् (परमानन्द माहित्य) वायुभाव
और सुखी होने की कामना करता है। प्रस्तुत मूक्त के (अशरीरी वृत्ति) को प्राप्त होते हैं और मांसारिक तृतीय मन्त्र में उसकी जीवन-माधना देग्विए । वह प्रार्थना मर्त्यजनों को जिनका केवल पार्थिव शरीर ही दिग्वलाई करता है।
देता है। 'हे बज सहनन रुद्र तुम उत्पन्न हुए समस्त पदार्थों में अथर्ववेद में भी मद्र का व्याधि-विनाश के लिए मर्वाधिक मुशोभित हो, सर्वधेष्ठ हो और ममस्त बलशा- आह्वान किया गया है ।१० नुछ मन्त्रों में रुद्र 'महयाक्ष' लियो में सर्वोत्तम बलशाली हो। तुम मुझे पापो से मुक्त भी कहा गया है ।११ इमी वेद के पन्द्रहवे मण्डल में रुद्र करो और ऐसी कृपा करो, जिसमे मैं क्लेशों तथा अाक्रमणों का मान्य के गा। उल्लेख किया गया है और मूक्त के से युद्ध करता हुमा विजयी रहे।'
प्रारम्भ में ही कहा गया है कि 'मात्य महादेव बन गया, एक मूक्त में रुद्र का सोम के साथ याह्वान किया वात्य ईशान बन गया है ।१२ नथा यह भी लिखा है कि गया है३ । और अन्यत्र सोम को वृषभ की उपाधि दी "व्रात्य ने अपने पर्यटन में प्रजापति को शिक्षा और गई है४ । रुद्र को अनेक बार अग्नि कहा गया है५ । और प्रेरणा दी ।१३ एक स्थल पर उन्हें "मेधापति" की उपाधि से विभूपित सायण ने ब्रान्य की व्याख्या करते हए लिखा हैकिया गया है । एक स्थान पर "वहाँ" के रूप म भा कंचिद्विद्वनमं महाधिकारं पुण्यशील विश्वमामान्यं कर्म उल्लेख किया गया है, जिसका सायण ने अर्थ किया है - पराह्मणविद्विष्ट वात्यमनुलक्ष्यवचनमिति मन्तव्यम्' अर्थात् "अर्थात् जो पृथ्वी तथा माकाश में परिवृद्ध हैं।
वहाँ उस व्रात्य से मन्तव्य है जो विद्वानों में उत्तम, ऋग्वेद के उत्तर भाग के एक मूक्त में कहा गया है महाधिकारी पण्यशील और विवपूज्य है और जिसमे
ने केशो के माथ विषपान किया। इसी सूक्त के कर्मकाण्डी ब्राह्मण विद्वंप करते है। प्रथम मंत्र में कहा गया है कि केशी इम विप (जीवन
इस प्रकार व्रतधारी एव मयमी होने के कारण ही स्रोत-जल) को उसी प्रकार धारण करता है, जिम प्रकार
इन्हें व्रात्य नहीं कहा जाना था, अपिनु गतपथ ब्राह्मण के
एक उल्लेख से प्रतीत होता है कि वृत्र (अर्थात् ज्ञान, १. या यो भेषजः मरुतः शुचीनि या शान्त मा वृषगों या ।
द्वारा सब ओर से घेर कर रहने वाला मर्वज) को अपना मयोमु । यानि मनुवणीता पिता नश्ताशं च योश्च
इष्टदेव मानने के कारण भी यह जन प्रात्य के नाम से रुद्रस्य वश्मि-वही २, ३३, १३ २. थेष्ठो जातस्य रुद्रः थियांसि नवस्तमम्तवमा वज्रवाहो ८. ऋग्वेद : १, १७२, १; ', ६४, नधा , ५, ३३,
पषिणः पारमहंस. स्वस्ति विश्वा अभीति ग्पमो ५,६१, ४ भादि युयोधि । वही २, ३३, ३
६. ऋग्वेद : १०, १३६, २-३ ३. ऋग्वेद . ६, ७४
१०. अथर्ववेद : ६, ४, ३, ६, ५७, १, १६. १०,६ ४. वही : ६,७,३
११. वही : ११, २, ७ ५. वही : २, १६, ३, २, ५
१२. वही : १५, १, ४, ५ ६. वही : १, ४३, ४
१३. व्रात्य प्रासी दीपमान एव म प्रजापति ममैश्वत, ७. वही : १,११४,६
अथर्ववेद १५, १
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२७०
अनेकान्त
अभिहित किये जाते थे।
गान्धार से विदेह तक तथा पांचाल से दक्षिण के मयदेश जर्मन विद्वान डाक्टर हीएर का मत है कि व्रात्यों तक भनेक जातियों में विभक्त होकर विभिन्न जनपदों में के योग और ध्यान का प्रयास था जिसने आर्यों को निवास कर रहे थे। इनकी सभ्यता पूर्ण विकसित एवं माकषित किया और वैदिक विचारधारा तथा धर्म पर समुन्नत थी एवं शिल्पकला इनके मुख्य व्यवसाय थे। अपना गहरा प्रभाव डाला है । दूसरी पोर श्री एन० एन० ये जहाजों द्वारा लघु एशिया तथा उत्तर पूर्वीय अफ्रीका घोष अपनी नवीन खोज के माधार पर इस निर्णय पर के दूरवर्ती देशों के साथ व्यापार करते थे। पहुंचे हैं३ कि प्राचीन वैदिक काल में व्रात्य जाति पूर्वी भारत में एक महान् राजनीतिक शक्ति थी। उस समय
ये द्राविड़ लोग सर्प-चिह्न का टोटका अधिक प्रयोग वैदिक मार्य एक नये देश में अपना प्रभुत्व स्थापित करने
में लाने के कारण नाग, अहि, सर्प, प्रादि नामों से के लिए लड़ रहे थे उनको सैन्यदल की अत्यधिक प्रावश्य
विख्यात थे । श्यामवर्ण होने के कारण 'कृष्ण' कहलाते कता थी। प्रतः उन्होंने बड़ी प्रसन्नता से वात्यों को अपने
थे। अपनी अप्रतिम प्रतिभा शीलता तथा उच्च प्राचार
विचार के कारण ये अपने को दास व दस्यु (कान्तिमान) दल में मिला लिया। वात्यों को भी संभवतः प्रायों के नैतिक और आध्यात्मिक गुणों ने प्राकृष्ट किया, और वे
नामों से पुकारते थे। व्रतधारी एवं वृत्त का उपासक होने मार्य जाति के अन्तर्गत होने के लिए तैयार हो गये और
से व्रात्य तथा समस्त विद्यानों के जानकार होने से द्राविड़ फिर इस प्रकार पार्यों से मिल जाने पर उनकी सामाजिक
नाम से प्रसिद्ध थे । संस्कृत का विद्याधर शब्द 'द्रविड़' तथा राजनीतिक व्यवस्था को प्रभावित किया । व्रात्य का
शब्द का ही रूपान्तर है। ये अपने इष्टदेव को अर्हन, निरन्तर पूर्व दिशा के साथ सम्बद्ध किया जाना, उसके
परमेष्ठी, जिन, शिव, एवं ईश्वर के नामों से अभिहित अनुचरों में 'पुंश्चली' और "मागध" का उल्लेख होना
करते थे । जीवन-शुद्धि के लिये ये महिंसा संयम एवं तपो (ये दोनों ही पूर्व देशवासी तथा प्रायतर जाति के हैं),
मार्ग के अनुगामी थे । इनके साधुदिगम्बर होते थे और पार्यों से पहले भी भारतवर्ष में प्रतिविकसित और समृद्ध
बड़े-बड़े बाल रखते थे। अन्य लोग तपस्या एवं श्रम के सभ्यताएँ होने के प्रमाण स्वरूप अधिकाधिक सामग्री का साथ
साथ साधना करके मृत्यु पर भी विजय प्राप्त कर लेते थे।४ मिलना प्रादि तथ्य श्री एन. एन. घोष के निर्माण की यर्जुवेद में एक स्थल पर रुद्र का 'किवि'५ (ध्वंसक ही पुष्टि करते हैं।
या हानिकर के रूप में उल्लेख किया गया है और वैदिक साहित्य के अनुशीलन से तथा लघु एशियाई अन्यत्र 'द्रौर्वात्य' शब्द६ का प्रयोग किया गया है। भाष्यपुरातत्त्व एवं मोहन जोदणों तथा हड़प्पा नगरों की खुदाई कार महीधर ने जिसका अर्थ-'उच्छृखल माचरण से प्राप्त सामग्री के प्राधार पर यह बात सुनिश्चित हो किया है. इसके अतिरिक्त उनके धनुष तथा तरकस को चुकी है कि वैदिक प्रार्यगण लघु एशिया तथा मध्य 'शिव' कहा गया है ।७ उनसे प्रार्थना की गई है कि वह एशिया के देशों से होते हए त्रेतायुग के मादि में लगभग अपने भक्तों को मित्र के पथ पर ले चलें न कि भयंकर ३०००ई० पूर्व में हलावर्त मौर उतर पश्चिम के द्वार से समझे जाने वाले अपने पथ पर । भिषक रूप मे उनका पंजाब में पाये थे। उस समय पहले से हो द्राविड़ लोग -
४. 'ये नात रन्भूतकृतोति मृत्यु यमन्वविन्दन् तपसा १. वृत्रो हवा इदं सर्व कृत्वाशिवयो यदिदमंत्तरेणद्यावा- श्रमेण"-प्रथर्ववेद : ४, ३५
पथिवीय यदिदं सर्व वृत्वाशिश्ये तस्माद बुत्रो नाम ___५. यजुर्वेदः (वाजसनेयी संहिता) १०, २० "शतपथ ब्राह्मण" ११, ३, ४
६. वही : (वाजसनेयी संहिता) ३६, ६, तथा महेश्वर २. होएर : दर वात्य (Vratya)
का भाष्य-दुष्टं स्खलनोच्छलनादि व्रतम् । ३. एन. एन. घोष : इण्डो मार्यन लिटरेचर एण्ड ७. वही : (तैत्रिरीय संहिता) ४, ५, १ कल्चर (argin) १९३४ ई.
८. वही : ( ,) १,२,४
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वृषभदेव तथा शिव-सम्बन्धी प्राव्य मान्यताएं
२७९
स्मरण किया है और मनुष्य तथा पशुओं के लिये स्वा- तस्कराणां पति, मुष्णतां पति, विकृन्तानां पति [गलस्थ्यप्रद भेषज देने के लिये भी उनसे प्रार्थना की गई है। कटों का सरदार] कुलुंचानां पति, मादि । इसके अतियहाँ रुद्र का पशुपति रूप में उल्लेख मिलता है ।
२
रिक्त इनमें 'सभा', 'सभापति' 'गण' 'गणपति', प्रादि के यजुर्वेद के त्र्यम्बक होम'३ सूक्त में रुद्र के साथ एक रुद्र के उपासकों के उल्लेख के साथ 'वात', 'व्रातपति', स्त्री देवता 'मम्बिका का भी उल्लेख किया गया है, जो तक्षक, रथकार, कुलाल, कर्मकार, निषाद, आदि का भी रुद्र की बहिन बतलाई गई है। इन्हें 'कृत्तिवासा': कहा निर्देश किया गया है। गया है और मृत्यु से मुक्ति तथा अमृततत्त्व की प्राप्ति
ब्राह्मण ग्रन्थों के समय तक रुद्र का पद निश्चित रूप के लिये प्रार्थना की गई है। उनके विशेष वाहन मूषक
से अन्य देवतामों से ऊंचा हो गया था और 'महादेव' का भी उल्लेख किया गया है तथा उन्हें यज्ञ भाग देने के
कहा जाने लगा था ।५ जैमनीय ब्राह्मण में कहा गया है। पश्चात् 'भूजवत' पर्वत से पार चले जाने का भी अनुरोध
कि देवताओं ने प्राणिमात्र के कर्मों का अवलोकन करने किया गया उपलब्ध होता है । मूषक जैसे धरती के नीचे
और धर्म के विरुद्ध माचरण करने वाले का विनाश रहने वाले जन्तु से उनका सम्बन्ध इस बात का द्योतक हो
करने के उद्देश्य से रुद्र की सृष्टि की रुद्र का यह नैतिक सकता है कि इस देवता को पर्वत-कन्दरामों में रहने
उत्कर्ष ही था, जिसके कारण उनका पद ऊँचा हुमा और वाला माना जाता था तथा "मजवत" पर्वत से परे चले
जिनके कारण अन्त में रुद्र को परम परमेश्वर माना जाने का अनुरोध इस बात का व्यंजक हो सकता है कि
गया। इस देवता का वास भारतीय पर्वतों में माना जाता था ।
श्वेताश्वतर उपनिषद् से स्पष्ट है कि ब्राह्मण ग्रंथों कृत्तिवासाः" उपाधि से प्रतीत होता है कि उसका अपना
के समय से रुद्र के पद में कितना उत्कर्ष हो चुका था। चर्म ही उसका वस्त्र था-अर्थात् वह दिगम्बर था।
इसमें उन्हें सामान्यतः ईश, महेश्वर, शिव और ईशान "शत रुद्रिय स्तोत्र"४ में रुद्र की स्तुति में ६६ मंत्र
कहा गया है १७ वह मोक्षाभिलाषी योगियों के ध्यान के हैं, जो रुद्र के यजुर्वेद कालोन रूप के सष्ट परिचायक
विषय हैं और उनको एक स्रष्टा, ब्रह्म और परमात्मा है। रुद्र को यहाँ पहली बार 'शिव' 'शिवतर' तथा 'शकर'
माना गया है। इस काल में वह केवल जन सामान्य मादि रूपों में उल्लिखित किया गया है। 'गिरिशत'
के ही देवता नहीं थे, अपितु भार्यों के सबसे प्रगति शील 'गिरित्र' 'गिरिशा' 'गिरिचर' 'गिरिशय'-इन नवीन .
वर्गों के पाराध्यदेव भी बन चुके थे । इस रूप में उनका उपाधियों से भी उन्हें विभूषित किया गया है। क्षेत्रपति'
सम्बन्ध, दार्शनिक विचारधारा और योगाभ्यास के साथ तथा 'वणिक' भी निदिष्ट किये हैं। प्रस्तुत स्तोत्र के
हो गया था, जिसको उपनिषद् के ऋषियों ने प्राध्यात्मिक बीस से वाईस संख्या तक के मन्त्रों में रुद्र के लिए कति
उन्नति का एकमात्र साधन माना था। अपरवदिक काल पय विचित्र उपाधियों का प्रयोग किया गया है। अब तक
में योगी, चिन्तक और शिक्षक के रप में जो शिव की रुद्र के माहात्म्य का गांन करने वाला स्तोता उन्हें इन
कल्पना की गई है, वह भी इसी सम्बन्ध के कारण थी। उपाधियों से विभूषित करता है-स्तेनानां पति (चोरों
श्वेताश्वतर उपनिषद्द में रुद्र को ईश, शिव और पुण्य का अधिराज), वंचक, स्तायूनां पति (ठगों का सरदार),
कहा गया है। लिखा है कि प्रकृति, पुरुष अथवा परब्रह्म १. वही : (तैत्तिरीय संहिता) १, ८, ६
की शक्ति है, जिसके द्वारा बह विविध म्प विश्व की २. वही : (वाजसनेयी संहिता), ६, ३, ६, ३, ६, ८ (तैत्रिरीय) १,८,६
५. कौशीतिकी : २१, ३ ३. यजुर्वेद : (तैत्तिरीय संहिता) १,८,६ (बाज- ६. जैमिनीय : ३, २६१,६३ सनेयी) ३, ५७, ६३
.. श्वेताश्वतर उपनिपद् ३०.११.४.१०,४, ११, ५,१६ ४. वही : (तैत्तिरीय संहिता) ४,५,१
८. वही : ३, २-४, ३, ७, ४, १०-२४
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अनेकान्त
सृष्टि करता है। पुरुप स्वयं स्रप्टा नहीं, अपितु एक को प्रात्मसात् कर लिया। इसके फलस्वरूप सिन्धु घाटी बार प्रकृति को क्रियाशील बनाकर वह अलग हो जाता की स्त्री देवता का रुद्र की पूर्वसहचरी अम्बिका के साथ है और केवल प्रेक्षक के रूप में काम करता है। इससे तादात्म्य हो गया और उसे रुद्र पत्नी माना जाने लगा। ज्ञात होता है कि इस समय तक रुद्र उन लोगों के पारा- इस प्रकार भारतवर्ष में देवी की उपासना पाई और शक्ति ध्यदेव बन गये थे जो सांख्य विचार-धाग का विकास कर मत का सूत्रपात हा। इसके अतिरिक्त जननेन्द्रिय रहे थे। प्रश्नोपनिषद् में रुद्र को परिक्षिता कहा गया है सम्बन्धी प्रतीकों की उपासना, जो सिन्धु घाटी के देवताओ पौर प्रजापति से उसका तादात्म्य प्रकट किया गया है ।३ की उपासना का एक अंग थी, का भी रुद्र की उपासना मैत्रायणी उपनिषद में कद्र की 'शम्भु' (अर्थात् शान्तिदाता) में समावेश हो गया। इसके अतिरिक्त "लिंग' रुद्र का उपाधि का पहली बार उल्लेख हुप्रा ।४।।
एक विशिष्ट प्रतीक माना जाने लगा और इसी कारण श्रौत-सूत्रों में रुद्र की उपासना का वही स्वरूप उप- उसकी उपासना भी प्रारम्भ हो गई। परन्तु धीरे-धीरे लब्ध होता है जैसा ब्राह्मण ग्रन्थों में यहाँ रुद्र का रूप लोग यह भूल गये कि प्रारम्भ में यह एक जननेन्द्रिय केवल एक देवता का है और उनके रुद्र, भव, शनं प्रादि सम्बन्धी प्रतीक था । इस प्रकार भारत में लिंगोपासना अनेक नामों का उल्लेख है ।५ महादेव, पशुपति, भूपति का प्रादुर्भाव हमा, जो शेव धर्म का एक अंग बन गई। प्रादि उपाधियों से भी विभूषित किया गया है ।६ रुद्र से
दूसरी ओर अनिषदो से प्रतीत होता है कि रुद्र की मनुप्यो और पशनों की रक्षा के लिए प्रार्थना की गई
आसना का प्रचार नवीन धार्मिक तथा दार्शनिक विचार
मत हा७ गहरागनायक प्रापाधया का दाता मार व्याधि धारा के प्रवर्तकों में हो रहा था, और ये लोग रुद्र को निवारकह कहा गया है। गृह्य सूत्रों में रुद्र की समस्त परब्रह्म मानते थे। मुत्र युग में रुद्र को "विनायक की वैदिक उपाधियो का उल्लेख मिलता है ।१० यद्यपि इनके उपाधि दी गई और यही अपर वैदिककाल में गणेश नाम 'शिव' और शकर ये नवीन नाम अधिक प्रचलित होते ही
से प्रसिद्ध हमा। रुद्र तथा विनायक प्रारम्भ में एक ही जा रहे है।११ यहाँ उन्हें श्मशानों, पुण्यतीर्था एव चौराहा देवता के दो रूप थे परन्तु काल क्रम से यह स्मृति लुप्त जैसे स्थलों में एकान्त विहारी के रूप में चित्रित किया .
" हो गयी और गणेश को रुद्र का पुत्र माना जाने लगा। गया है ।१२
उपनिपत्कालीन भक्तिवाद ने देश के धार्मिक माचारमिस घाटी के निवासियो का वैदिक प्रार्यों के साथ मागला स्थित कर दिया । कर्मकाण्ड का संमिश्रण हो जाने पर रुद्र ने मिन्धु घाटी के पुरुष देवता स्थान स्तुनि, प्रार्थना तथा पूजा ने ले लिया और मन्दिरा १. श्वेताश्वतर उपनिषद् ४,१
के निर्माण के साथ मानवाकार तथ लिंगाकार में रुद्र२. वही . ४.५
मूर्तियों की प्रतिष्ठा तथा पूजा प्रारम्भ हो गई तथा रुद्र ३. प्रश्नोपनिषद् २, ६
का नाम भी अब शिव के रूप में लोक प्रचलित हो गया। ४ मैत्रायणी उपनिषद् १५. ८
पाणिनी के समय में शिव के विकसित रवरूप के ५. शांखायन धौनमूत्र - ४.१६, १
प्रमाण वे सूत्र है, जिन्हे 'माहेश्वर'१ बतलाया गया है। ६. वही : ४.२०, १४
वैसे पाणिनि की राष्टाध्यायी मे रद्र, भव और श शब्दो ७. वही : ४, २०, १ पाश्वलायनः ३, ११, १
का भी उल्लेख मिलता है।२ (क्रमश.) ८. लायन श्रौतमूत्र - ५, ३, २
१. महेश्वर मूत्र इस प्रकार है-अ इ उ , ऋ ल क ए ९. शांखानन श्रौतमूत्र : ३, ४, ८
प्रोइऐ प्रौ च्, ह प वर , ल ण् ज म हुण ग १०. प्राश्वलायन गृह्यसूत्र : ४,१०
म्, झ भब, घढध, ज व ग ड द श ख फछ ११. वही : २,१,२
ठथ च ट त , क प य श प स र ह ल । १२. मानव गृह्यसूत्र २, १३, ६, १४
२. अष्टाध्यायी : १, ४६, ३, ५३, ४ १००
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स्वर्गीय बाबू छोटेलाल जी की अपूर्ण योजनाएँ
श्री नीरज जैन
सत्तर वर्ष की आयु मे एक दीर्घ और कष्टदायक अथक परिश्रम करके और बहुत व्यय करके तैयार कराये बीमारी के बाद गत छब्बीस जनवरी को कलकत्ता के थे । इन चित्रों तथा निगेटिव का संग्रह भी इसी कक्ष में मारवाड़ी रिलीफ सोसाइटी अस्पताल मे बाबू जी ने इस प्रदर्शनार्थ रखा गया है। नश्वर शरीर का त्याग किया।
पूज्य वर्णी जी महाराज के टेपरिकार्ड किये हुए बाबू छोटेलाल जी ने अपनी इस पर्याय का अधिकाश । भाषणों का संग्रह तथा टेप मशीन दो वर्ष पूर्व ही उन्होने भाग जैन पुरातत्त्व, इतिहास तथा साहित्य का शोध और मुझे सौंप दी थी। इन भाषणों की सुरक्षा, प्रसार मोर प्रकाशन में व्यतीत किया था। उन विषयो की विपुल अतिरिक्त प्रतियां तैयार करा कर रवाने की व्यवस्था में शोध-सामग्री और एक अच्छा पुस्तकालय वे छोड गये है। कर रहा है।
खण्डगिरि उदयगिरि की सवा दो हजार वर्ष प्राचीन शेष सामग्री की व्यवस्था और योजनाओं के संचालन जैन गुफापो की खोज तथा प्रकाशन सभवतः उनके जीवन के सम्बन्ध में विचार करने मैं और प्रोफेसर खुशालचन्द्र की विशालतम सफलता थी । इसके अतिरिक्त जन गोरावाला कलकत्ता गये थे। श्रीमान् साहु शांतिप्रसाद जी बिबलियो ग्राफी का प्रकाशन, सैकडों भूले-बिसरे जैन से विचार विमर्श करने का भी अवसर अनायास मिल मंदिरों मूर्तियों की शोध एवं व्यवस्था, वीर-शासन संघ गया। रविवार ६-३-६६ को श्रीमान् साहु जी एव श्री की स्थापना और उन्नति, वीर-सेवा-मंदिर की उन्नति
लक्ष्मीचन्द जी ने बेलगछिया पधार कर समस्त सामग्री प्रादि दर्जनों ऐसे कार्य है जो उनकी जीवन व्यापिनी मूक । का निरीक्षण किया। पूज्य भगत जी, सर्व श्री बाबू साधना के फल के रूप में हमारे समक्ष है।
नन्दलाल जी, जुगमदर दास जी, बशीधर जी शास्त्री, उनकी इन योजनाओं की उनके बाद क्या व्यवस्था
नन्दलाल जी (जवाहिर प्रेस), नमिचन्द पटौरिया पौर हो तथा उनकी सामग्री का क्या उपयोग हो इसकी एक
भाई अमरचन्द जी, भाई शांतिनाथ जी का भी सहयोग रूप-रेखा उन्होंने बना रखी थी। समय-समय पर मिलने
पौर मार्ग दर्शन प्राप्त हुना। इस प्रकार जो सामयिक वालों से इस बारे में चर्चा भी वे किया करते थे। इतना
व्यवस्था करना निश्चित हमा है वह इस प्रकार हैही नहीं, उस रूप रेखा पर कार्य करना भी उनके जीवन काल में ही प्रारम्भ हो गया था।
१. साहित्य के क्षेत्र में जन बिबलियो ग्राफी का प्रकाबेलगछिया मंदिर के एक विशाल कक्ष मे जैन शन स्वर्गीय बाबू जी का मही स्मारक होगा । लगभग एक पुरातत्व का संक्षिप्त परन्तु समग्र परिचय देने वाली एक हजार पृष्ठ के इम अन्य की पाण्डु लिपि लगभग तैयार चित्र प्रदर्शनी लगाने तथा उनके ग्रन्थ भण्डार को एक है। डा० श्री ए०एन० उपाध्ये पोर डा० सत्यरंजन बनर्जी नियमित पुस्तकालय का रूप देने का कार्य उनके सामने जी इसे अन्तिम रूप दे रहे हैं। इसके प्रकाशन का कार्य ही प्रारम्भ हो गया था जो यथा शीघ्र पूर्ण हो जाने की यथा शीघ्र प्रारम्भ किया जाय । जैनाचार्यों पर जो शोष माशा है। अपनी शेष सम्पत्ति के सदुपयोग के लिए भी कार्य बाबू जी ने प्रारम्भ किया था उसको सम्भावनामों "जैन ट्रस्ट" की स्थापना वे अपने सामने ही कर गये है। पर श्री गोगवाला प्रारम्भिक खोज और विचार करेंगे।
धवल जयधवल प्रादि सिद्धान्त ग्रन्थों को मूल ताड़- २. बेल गछिया की चित्र प्रदर्शनी को समृद्ध मोर पत्रीय प्रतियों के वृहदाकार चित्र भी स्वर्गीय बाबू जी ने पूर्ण बनाया जाय। ऐसी ही एक प्रदर्शनी वीर सेवामन्दिर
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अनेकान्त
दिल्ली में तैयार की जाय; तथा पुरातत्त्व सम्बन्धी चित्र श्रमण बेलगोला, सित्तन्न वासल, जिन कांची, मूड बिद्री, संग्रह (एलबम) तयार कराये जावे।
ऐलौरा मादि स्थानों को लगभग तीन सौ स्लाइड है। जो ३. पुरातत्व सम्बन्धी उनकी योजना को गतिशील स्थान या जो विशेष पुरातत्व इसमें शामिल नहीं है उनके रखने, कार्यान्वित करने तथा समूचे देश के जैन पुरातत्व स्लाइड बनाने का प्रयास भी उन्हीं के आदेशानुसार में का एक चित्रमय परिचय प्रकाशित करने के प्रयास किये गत दो वर्षों से कर रहा हूँ और लगभग अस्सी स्लाइड जायें। इस दिशा में कार्य करने के लिए बाबू जी के तैयार भी हो गये हैं। कुछ और भी शीघ्र बन जाएंगे। संग्रह के चित्र, निगेटिव, नोट्स मादि मैं अपने साथ सतना ले आया हूँ और शक्ति भर प्रयत्न करके श्रद्धेय
इनके सार्वजनिक प्रदर्शन की व्यवस्था भी बाबू जी बाबू जी के इस स्वप्न को साकार करने का संकल्प मैंने की योजनानुसार प्रवर्तमान रहेगी। जहां का भी समाज किया है।
किसी उत्सव, मेला, पर्व या अन्य विशेष अवसरों पर इस
प्रदर्शन से लाभ उठाना चाहेगी, मैं वहाँ व्यवस्था करने का ४. उन्होने कतिपय तीर्थ क्षेत्रों के स्लाइड भी तैयार
प्रयास करूंगा। कराये थे जिन्हें मेजिक लेन्टन पर दिखाकर वे समाज को उसके गौरवशाली प्रतीत का और पुरातत्व के विपुल एक कर्मठ व्यक्ति के कार्यों को प्रागे बढ़ाना ही उसके भण्डार का परिचय कराया करते थे। बाबू जी के इस प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होती है और बही हमें स्व. संकलन में खजुराहो, देवगढ़, मथुरा, जयपुर, चित्तौड़, बाबू जी को अर्पित करनी है।
'अनेकान्त' के स्वामित्व तथा अन्य ब्योरे के विषय में
प्रकाशन का स्थान
वीर सेवा मन्दिर भवन, २१ दरियागंज, दिल्ली प्रकाशन की अवधि
द्विमासिक मुदक का नाम
प्रेमचन्द राष्ट्रीयता
भारतीय पता
२१, दरियागंज, दिल्ली प्रकाशक का नाम
प्रेमचन्द, मन्त्री वीर सेवा मन्दिर राष्ट्रीयता
भारतीय पता
२१, दरियागंज, दिल्ली सम्पादक का नाम
डा. प्रा. ने. उपाध्याये एम. ए. डी. लिट्, कोल्हापुर डा. प्रेमसागर, बढ़ोत
यशपाल जैन, दिल्ली राष्ट्रीयता
भारतीय पता
मार्फत वीर सेवा मन्दिर २१, दरियागंज, दिल्ली स्वामिनी संस्था
वीर सेवा मन्दिर २१, दरियागंज, दिल्ली मैं, प्रेमचन्द घोषित करता है कि उपरोक्त विवरण मेरी जानकारी और विश्वास के अनुसार सही है। १७-२-६४
ह.प्रेमचन (प्रेमचन्द)
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बाबू छोटेलाल जी
डा० प्रेमसागर जैन
लोग धन कमा सकते है और उसके प्राधार पर यश था। यदि वे कलकत्ता या दिल्ली प्राये और वहाँ बाबु भी, किन्तु साथ-ही विद्वत्ता निरहंकार और न्याग गंजोना छोटेलाल जी हए तो उनके दर्शन किये बिना नहीं लौटते अामान नहीं। वह बिना साधना के नहीं पाता। बाबू थे। उनमें घण्टों पुरातत्त्व पर मामिक चर्चा होते मैंने छोटेलाल जी एक साधक थे। व्यापारी कुल में जन्म देखा है। जैन मूति, मन्दिर, चैत्य, मानस्तम्भ, शिलालेख,
कर भी उनके हृदय का मूल स्वर सरस्वती की अराधना गुफाएँ प्रादि की टेक्नीकल जानकारी के वे एक सन्दर्भ में ही रम सका । बहत पहले कलकत्ता के लोगों ने एक ग्रन्थ थे । काश ! बे उसे किसी ग्रन्थ रूप में परिणत कर युवा व्यापारी को पब्लिक लायब्ररी में दिन-रात पडं पाते। जैन पुरातत्त्व का ऐसा पारखी अब ढूढ़े भी न देखा होगा। उन्होंने वहाँ सहस्रशः पत्र-पत्रिकायो और मिलेगा। पुस्तकों का अध्ययन किया । उस प्राधार पर सन् १९४५ मोहन जोदडों की खुदाइयों में कुछ खड्गामन मूत्तियाँ ई० में भारती परिषद्, कलकत्ता से 'जैन बिग्लियोग्राफी' प्राप्त हुई । बनारस विश्वविद्यालय के डा० प्राणनाथ ने के प्रथम भाग का प्रकाशन हुमा । 'रायल एशियाटिक उन पर उत्कीर्ण अक्षरों को जैसे-तैसे पढ़ा, लिखा था
टी' के विद्वानों ने उसको भरि-भूरि प्रशंसा की। श्री जिनाय नमः । उनकी दष्टि मे ये मत्तियां जिनेन्द्र की जैन विद्वानो के लिए तो वह एक कोश ग्रंथ है। अनेक थी। बाबू छोटेलाल जी ने इसका सप्रामाणिक खण्डन अनुसन्धित्सु उससे लाभान्वित हुए है । इस ग्रन्थ का दूसरा किया। प्राज तक उस कथन को किसी ने काटा हो, मुझे खण्ड भी रफ-पेपर्स पर बिखरा पड़ा है। बाबू जी ने उसे स्मरण नही है। इसी भांति दक्षिण के एक प्रवकाश प्राप्त भी अत्यधिक परिश्रम से तैयार किया था। उनकी इच्छा विद्वान एक प्राचीन जिनेन्द्रमूर्ति (तीर्थकर) का फोटो थी कि वह विगत 'इण्टर नेशनल मोरियण्टल कान्फेस' लाये । उनके चेहरे पर एक ललक थी। वे अपनी उपके अवसर पर प्रकाशित हो जाता। किन्तु जर्जर होते लब्धि के प्रति सगर्व थे । लम्बी खासी से उभर कर बाबू स्वास्थ्य ने साथ न दिया। उनकी एक बलवती अभिलाषा जी ने प्रागन्तुक का स्नेह-भीना भातिथ्य किया। यह दिल में ही रह गई । बाबू जी के उत्तराधिकारी या वीर. बाबूजी का स्वभाव था । वे स्नेह के भण्डार थे। चित्र सेवा-मन्दिर इस कार्य को शीघ्र सम्पन्न करने का प्रबन्ध देखा तो दो मिनट तक देखते ही रहे। फिर तकिये के करें, ऐसा मैं चाहता हूँ। बाबूजी ने मुझे अनेक देशी और सहारे बैठत हुए कहा, "वैसे तो अच्छा, बहुत अच्छा है, विदेशी विद्वानों के पत्र दिखाथे, जिनमे उनका स्नेह-भरा किन्त एक कमी भी है। आपको अपना फोटो तीर्थकर की आग्रह था-इसे शीघ्र प्रकाशित करने का ऐसा होने से प्रतिमा के साथ नहीं खिचवाना चाहिए था। जैन मूत्तिजैन अनुसन्धान का एक अध्याय पूरा हो जायेगा। कला का यह एक प्रारम्भिक नियम है।" प्रागन्तुक के
न ही नहीं समूचे भारतीय पुरातत्त्व के सम्बन्ध में सधे, तपे, मंजे पुरातात्त्विक ज्ञान पर एक विनम्र चोट बाबू जी का ज्ञान अप्रतिम था । उन्हें इसकी सूक्ष्म-से-सूक्ष्म लगी, तो कुछ समय तक तो वे बोल ही न सके। फिर जानकारी थी। भारतीय पुरातत्त्व के प्रसिद्ध स्तम्भ श्री फीकी मुस्कान के साथ कहा, "अच्छा, जंन दायरे की शिवराम मूर्ति और श्री टी. एन. रामचन्द्रन बाबूजी को यह बात मुझे मालूम न पी। वैसे मैंने कहीं सुना तो अपना गुरु मानते थे। मैंने उन्हें बाबूजी के चरण स्पर्श करते नही।" बाबजी ने कुछ हवालों के साथ उन्हें प्राश्वस्त देखा है । डा. मोतीचन्द्र जैन का बाबूजी से परम स्नेह किया।
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अनेकान्त
जन प्रतिमानों पर वदे लेखों को पढ़ने की एक विद्वत्ता प्राप्त करना और उस प्राधार पर बडे-बडे पृथक विद्या होती है। बाबूजी उसमें पारंगत थे। अपने ग्रंथों का निर्माण करना प्रसाधारण बात नहीं है। प्रसायुवाकाल में, व्यापार करते हुए भी उन्होंने, कलकत्ता के धारण है विद्वानों का बनाना। ऐसे विद्वान जो लक्ष्य तक मन्दिरों में स्थित जन प्रतिमानों के लेखों को पढ़ा था। पहुँचने के मार्ग में भटक रहे है। जिन्हें थोड़े सहारे की उसी समय उनकी एक पुस्तक 'जैन-प्रतिमा लेख मग्रह' जरूरत है । ऐसा सहाग जो साहम बंधादे-डगमगाते प्रकाशित हुई थी। आज भी अनुसन्धान के क्षेत्र में वह कदमों को मजबूती दे। इसमें स्वार्थ से अधिक परार्थ एक मौलिक ग्रन्थ है। शोध-खोज में लगे लोग उसका मुख्य होता है। जो पगर्थ-प्रधान होते हैं, वे ही ऐसा मूल्य प्रौक पाते हैं। बाबूजी ने वीर-सेवा-मन्दिर के पं० कार्य कर सकते हैं। बाबूजी के पाम अनेक युवा विद्वान परमानन्द शास्त्री को प्रादेश दिया था कि वे दिल्ली के पाते ही रहते थे प्रत्येक किसी-न-किसी समस्या से जैन मन्दिरों के मूत्ति-लेख संकलित करे और उनका प्रीडित । यहाँ उन्हें समाधान मिलता था और प्रोत्साहन । नियमित प्रकाशन अनेकांत के अंकों में हो । यह कार्य एक बाबूजी कल्पवृक्ष थे। उस पर लक्ष्मी और सरस्वती दोनों वर्ष तक चला भी। बाबूजी जिस किसी भी जानकार रहती थीं। वहाँ लक्ष्मी तो मिलती ही थी, सरस्वतीव्यक्ति को देखते, उससे मूत्ति-लेख संकलन की बात साधना का मार्ग भी प्रशस्त होता था। विगत 'पोरिकहते थे । बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के प्राचीन इति- यण्टल इण्टरनेशल-कान्स' के अवसर पर कलकत्ता हास और संस्कृति विभाग के अध्यक्ष डा. माल्टेकर विश्वविद्यालय के एक बंगाली विद्वान वीर-सेवा-मन्दिर मे मत्ति-लेखों को भारतीय इतिहास और सस्कृति का प्रामा- ठहरे थे। उन्होंने कहा कि बाबु छोटेलाल जी के दिये णिक अध्याय मानते थे। यदि आज भारत के जैन पुरा- धन और ग्रंथ-प्रबन्ध से ही मैं अपने मार्ग पर बढ़ सका तारिवक स्थानों के मूत्ति-लेख-संकलन का काय सम्पन्न हैं। वह एक प्रतिभाशाली यूवक थे। उन्होंने कान्फ्रेंस में, हो सके तो जन संस्कृति का एक अनूठा ग्रन्थ रचा जा 'नाघयोगी सम्प्रदाय' पर एक शोध-पत्र अंग्रेजी भाषा में सकता है। उससे भारतीय संस्कृति के नये परिच्छेद
परिच्छेद पढ़ा था। वह शोध-पत्र ख्याति-प्राप्त बना। विदेशी
का प्रकाश में पायेंगे। क्या कोई जन संस्था इस उत्तरदायित्व विद्वानों ने भी भूरि-भूरि प्रशंसा की। बाबूजी की दृष्टि को सहन करेगी । यदि ऐसा हो सके तो वह दिवगत अन्तभै दिनी थी । वे एक नजर में ही प्रत्येक व्यक्ति को बाबूजी के प्रति सही श्रद्धांजलि होगी।
ठीक-ठीक जान लेते थे। उन्होने जितने युवकों को प्रश्रय
दिया वे सब मंयमी, प्रतिभावान् पौर महत्त्वाकांक्षी थे। बाबू छोटेलाल जी की बिब्लियोग्राफी की वैज्ञानिक जानकारी थी। उनके पास गुफाओं, मन्दिरों, चैत्यों, बाबूजी एक संस्था थे। उन्होंने न-जाने कितनी मत्तियो, शिलालेखों और भित्तिचित्रों के शतश फोटो सस्थानों को जन्म दिया, कितनों को बनाया, कितनों को थे। उदयगिरि-खण्डगिरि की गुफागों में तो वे एकाधिक सहायता दी। उनकी बुद्धि रचनात्मक थी। जिस कार्य बार गये और वहाँ के प्रत्येक भाग का फोटो लिया, चप्पे- को हाथ में लेने, योजना-पूर्वक पूरा करते । वीर-सेवाचप्पे को देखा और अपनी कसौटी पर कसकर विश्लेषण मन्दिर को सरसावा से दिल्ली लाना और उसकी एक किया। एक बार इन चित्रों को मुझे दिखाते हुए उन्होंने मालीशान बिल्डिग खड़ी करना बाबूजी के ही बलबूते जैसी मार्मिक, सधी हुई व्याख्या की थी, वह तद्विषयक की बात थी । उसमें एक शानदार पुस्तकालय का प्रायोविद्वत्ता के बिना कोई नहीं कर सकता। इन गुफाओं पर, जन, महत्त्वपूर्ण प्रकाशन और शोध-पत्र का संचालन प्रादि वे कतिपय सकलनों का सम्पादन कर रहे थे। अब भी कार्य भी बाबूजी की ही देन हैं। जिसके कारण वीर-सेवाउनके घर पर सब सामग्री होगी। कोई मनस्वी जुटकर मन्दिर समूचे भारत में ख्याति प्राप्त कर उठा था। इस काम को सम्पन्न कर डाले, तो पुरातत्त्व जगत का प्रकरमात् एक दुखद घटना घटी, जिससे बाबूजी के मर्म उपकार होगा।
पर प्राधात पहुंचा और उनका कोमल हृदय टूट गया ।
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बाबू छोटेलाल जी
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इसको लेकर उन्हें ऐसी बेचैनी थी, इतनी हमश थी कि को अपने पैसे से नहीं खरीदना चाहते। विद्वान चाहता उनके जीवन का उल्लास ही चुक गया था। उनके निकट- है भेंट में मिले, विद्यार्थी चाहता है पुस्तकालय से मिले, वर्ती यह जानते हैं। घटना ने वीर-मेवा-मन्दिर की गति धनवान चाहता है मन्दिर में स्वाध्याय के समय मिले। को भी अवरुद्ध कर दिया। अन्यथा आज वीर-सेवा-मन्दिर फिर शतशः ग्रन्थों का प्रकाशन हो और मुफ्त बाँटा जाय, के मुकाबले की दूसरी मस्थान होती। यद्यपि अन्तिम कब तक चल सकता है । अत. भारतीय ज्ञानपीठ जब समय में उस घटना की कसक से छटकारा देने के प्रयत्न घाटे से भरने लगा, तब हिन्दी के सृजनात्मक साहित्य की किये गए, किन्तु घाव इतने गहरे थे कि शायद न पूरे हो। बात चली। इसी समय लक्ष्मीचन्द्र जैन मन्त्री बने और यदि पुर गये हों तो यह बाबूजी की महानता थी। काश लोकोदय प्रथमाला की प्रतिष्ठा हुई। हिन्दी का विपुल ऐसा हया हो। उनकी सद प्रात्मा को शान्ति मिली हो। माहित्य ज्ञानपीठ मे निकला, निकल रहा है। उससे धन कल्पना ही सुखदायक है।
मिला, ख्याति भी बढी। मस्था मूर्धन्य हो गई। किन्तु बाबूजी वाराणसी के स्यावाद महाविद्यालय को प्रादर जन प्रथा के प्रकाशन का स्वर दूर-दूर तर होता गया। और प्रेम की दष्टि से देखते थे। उसके छात्र जब-जब इससे बाबू छोटेलाल जी प्रतीव प्रपीड़ित थे। वे चाहते कलकत्ता परीक्षा देने गये, बाबू जी का असीम स्नेह प्राप्त थे कि भारतीय ज्ञानपीठ मे जैन अथो का प्रकाशन उसी किया। प्राचार्य पं. कैलाशचन्द्र जी के प्रति बाबू जी के प्रकार हो जैसे हिन्दी के ग्रन्थों का होता है। उन्होंने हृदय में कितना सम्मान था, इसे मैं भली भाँति जानता लक्ष्मीचन्द्र जी को दो-चार बार कडे शब्दों में कहा । बाबू हूँ। उनके प्रति पं० जी का भी श्रद्धाभाव कम नहीं है। जी अब नहीं हैं; किन्तु लक्ष्मीचन्द्र जी उनके दिल की उनका पुत्र कलकता में उच्च पदस्थ है; किन्तु पण्डितजी बात जानते हैं। क्या ध्यान देंगे? मदैव ही बाबूजी के पास ही ठहरे। दो बड़ों का प्रेम
बाबू जी भाग के बाला-विथाम को बहुत चाहते थे। जितना गौरवपूर्ण था उतना ही अनुकरणीय भी। बाबू
बाबूजी ने उसकी गतिविधि का सदैव ध्यान रक्वा । मानजी ने समय समय पर स्यावाद महाविद्यालय की प्राथिक
नीया चन्दाबाई जी से उनका पत्र-व्यवहार होता ही सहायता स्वयं की या अपने प्रभाव से करवाई, इमे वहाँ
रहता था। वैमे उमकी प्रगति मे वे पूर्ण सन्तुष्ट थे। के अधिकारी जानते है। बाबू जी का निधन स्थाद्वाद
उनकी तीव्र प्राकांक्षा थी कि जैन कन्यामों की शिक्षामहाविद्यालय के लिए भी एक बृहद् क्षनि है, ऐमा मैं
दीक्षा उत्तम हो; किन्तु महशिक्षा और पाश्चात्य शैली अनुमान लगा पाता हूँ।
का उन्होने सदैव विरोध किया। भारतीय नारी की बाबू जी भारतीय ज्ञानपीठ के डायरेक्टर्स में से एक विशुद्ध भारतीय रूपरेखा ही उन्हे रुचती थी। किन्तु इस थे। इस सम्बन्ध मैं मेरी उनसे बहुत बाते हुई हैं। उनमे मामले में उन्हें कट्टर नहीं कहा जा सकता। इसी कारण ही मुझे विदित हो सका कि ज्ञानपीठ का मूल उद्देश्य जीवन के अन्तिम वर्षों में उनकी इस मान्यता मे शिथिलता जैन वाङ्मय की शोध-खोज और उसका प्रकाशन-भर आई थी। मैंने उन्हें अनेक गरीब किन्तु प्रतिभाशालिनी था। उसके प्रथम संचालक प. महेन्द्रकुमार जी न्याया- छात्राओं की मदद करते देखा है। एक बार महास, प्रांध्र चार्य की नियुक्ति बाबू जी की सम्मति से ही हुई थी। और गुजरात की तीन छात्राओं के तीन पत्र प्राये। तीनों पण्डित जी की गम्भीर विद्वत्ता और सम्पादन-कला मर्व- एम० ए० के प्रथम भाग में उत्तीर्ण हो चुकी थीं। तीनों विदित थी। उस समय भारतीय ज्ञानपीठ के द्वाग अनेक प्राधिक मंकट में थीं। बाबू जी बहुत देर तक तीनों पत्र प्रसिद्ध जैन ग्रंथों का उद्धार और सम्पादन हुमा । किन्तु पढ़ते रहे, फिर मांध्र की छात्रा को सहायता देने का आर्थिक सन्तुलन ठीक रखने के लिए केवल जैन ग्रन्थों के निश्चय किया । आगे चलकर इस लड़की ने विश्वविद्या. विक्रय पर निर्भर नही किया जा सकता। हमारी दशा लय में टोप किया। मुझे पापचयं था कि पत्रों के माध्यम ऐसी है कि विद्याभिलाषी होते हुए भी, न-जाने क्यों ग्रंथों से ही वे प्रतिभा का प्राकलन कसे कर सके। एक बार
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अनेकान्त
फिर कहता हूँ कि उनकी परख पैनी थी, सूक्ष्मान्वेषिणी। प्रबन्ध-कुशलता में उनका सानी नहीं था। उन्हें
छोटी से लेकर बड़ी बात तक का बहुत ध्यान रहता था। बाबू जो स्वयं कर्तव्य-निष्ठ थे और ऐसा ही दूसरों
वे अपने ध्यान को तन्मय कर लेते थे, तभी ऐसा कर पाते को चाहते थे। कभी-कभी ऐसा होता है कि बड़े पद पर थे। निजी लाभ के बिना सेवा-कार्य में तन्मय होने की पहुँचते ही व्यक्ति कर्तव्य-पालन में ढोल डाल उठता है। उनकी प्रवत्ति थी, स्वभाव हो गया था। कलकत्ता की उन्हें यह पसन्द न था। एक बार ऐसे ही एक सज्जन ने की न जाने कितनो सभात्रों और संस्थानों का वे प्रबन्ध पत्रों के उत्तर न देने का रवैया डाल लिया। बाबू जी के करते थे। जैन समाज की बड़ी-बडी सभामों के आयोजन पास शिकायतें माने लगीं। उन्होंने मुझसे जिक्र किया। का उत्तरदायित्व उन्होंने सहर्ष स्वीकार किया। समयएक दिन वे साहब स्वय बाबू जी के पास पहुँच गये। समय पर उनके स्वागताध्यक्ष होने की बात तो अनेक बाबू जी ने जिस दबंगता से उन्हें फटकारा, देखने का लोग जानते है । सभापति के पद से सभाओं का संचालन दृश्य था। उस दुर्बल शरीर में तेजस्विता भरी पड़ी थी। भी वे खब निभा पाते थे । कलकत्ता से पूर्वी उत्तरप्रदेश यह उसी को मिलती है, जिसकी प्रात्मा निर्मल होती है। तक और दिल्ली उनका मुख्य कार्यक्षेत्र था। इस प्रकार उनकी मान्यता थी कि मेरे जीवनकाल में मेरे देखते-देखते उनकी समाज-सेवा सर्वविदित थी। उन जैसा निरीह, लोग अधिकाधिक कर्तव्य-शिथिल होते जा रहे है। इसका उन जैसा विद्वान्, उन जैसा समाज-सेवी और उन जैसा कारण खोज-खोज कर वे सचिन्त हो उठते थे।
मददगार पैदा होने में समय लगेगा।
जैन समाजके नेता पुरातत्व विशेषज्ञ बाबू छोटेलाल जी के निधन पर वीर-सेवामंदिर में शोक सभा
जैन धर्म और जैन संस्कृति के अनन्य प्रेमी पौर प्रमुख समाज सुधारक बाबू छोटेलाल जी जैन कलकत्ता का २६ जनवरी को शतःकाल साढ़े छह बजे देहावसान हो गया है। प्राप साहित्यिक इतिहास तथा पुरातत्व के विशेषज्ञ थे। वीरसेवामन्दिर का विशाल भवन उनकी सेवाओं का सजीव स्मारक रहेगा। रविवार ३० जनवरी को शाम को साढ़े सात बजे देहली (वीर सेवा मन्दिरों के हाल) मैं बाबू छोटेलाल जी के निधन पर जैन समाज के गण्य मान्य व्यक्तियों की शोक सभा हुई। जिसमें बाब जी की सेवामों, जैन धर्म और जैन साहित्योहार की भावना एवं वीर सेवा की लोकोपयोगी प्रवृत्तियों पर प्रकाश डालते श्रद्धाजलि अर्पित की गई और निम्नलिखित प्रस्ताव पास कर उनके परिवार के प्रति भेजा गया।
शोक प्रस्ताव वीर-सेवा-मन्दिर को यह आम सभा जैन-धर्म और जैन समाज के अनन्य संत्री तथा पुरातत्व के विद्वान् बाबू छोटेलालजी जैन के निधन पर गहरा शोक प्रगट करती है बाबु छोटेलाल जी उन इने-गिने व्यक्तियों मे से थे। जिन्होंने अपने जीवन के बहुत से वर्ष सेवा में व्यतीत किये थे । वीर सेवा मन्दिर को वर्तमान रूप देने का श्रेय मुख्यतः उन्ही को है। इस संस्थान के द्वारा उन्होने अनेक लोकोपयोगी प्रवृत्तियों का संचालन किया। बाबू छोटेलाल जी के निधन से जैन समाज की विशेषकर वीरसेवामन्दिर की जो क्षति हुई है उसकी पूर्ति कदापि नहीं हो सकती। यह सभा दिवंगत प्रात्मा के प्रति हार्दिक श्रद्धांजलि अर्पित करती है और प्रभु से प्रार्थना करती है कि उनकी प्रात्मा शांत उच्च पद प्राप्त करे। उनके परिवार के साथ यह सभा सहानुभूति प्रकट करती है।
प्रेमचन्द मन्त्री, वीर सेवा मन्दिर
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अनेकान्त के १८वें वर्ष की विषय-सूची
क्र०
२६१
१३२
विश्य
विषय १. अडतीसवे (३८वे) ईमाई तथा ७ बौद्ध विश्व १६. क्षपणासार के कर्ता माधवचन्द मम्मेलन की श्री जैन सघ को प्रेरणा
-श्री पं० मिलापचन्द कटारिया
६७ कनकविजय
१४० २०. खजुराहो का जैन सब्रहालय-श्री नीरज जैन १८ २. अतिशय क्षेत्र प्रहार-श्री नीरज जैन १७७ २१. गंज-वामौदा के जैन मूर्ति व यन्त्र लेख ३. अन्तरिक्ष पार्श्वनाथ श्रीपुर तथा श्रीपुर पाश्वनाथं .
२२. जयपुर की संस्कृत-साहित्य को देन श्री पुण्डरीक स्तोत्र-० नेमचन्द धन्नुसा जैन
विट्ठल ब्राह्मण-डा० श्री प्रभाकर शास्त्री ४. अनेकान्त का छोटेलाल जैन विशेषांक- २७५ ।
- २३. जीव का अस्तित्व जिज्ञासा और समाधान ५. अपभ्रंश भाषा की दो लघुरासो रचनाएँ
--मुनि श्री नथमल डा. देवेन्द्रकुमार शास्त्री
१८४ २४. जैन तंत्र साहित्य-डा. कस्तूरचन्द कासलीवाल ३३ ६. अपगध गौर बुद्धि का पारस्परिक सम्बन्ध २५. जैन दर्शन में प्रर्थाधिगम चिन्तन -साध्वी श्री मंजुला
-० दरबारीलाल कोठिया ७. अप्रावृत और प्रति संलीनता
२६. जैन दर्शन में सर्वज्ञता की सभावनाएं -मुनि श्री नथमल
-पं० दरबारीलाल कोठिया ८. अरहंत-स्तवनम् (धवला से)
६५ २७. जैन दर्शन में सप्तभंगीवाद १. अर्थ प्रकाशिका : प्रेमयरत्नमाला की द्वितीय
-उपाध्याय मुनि श्री अमरचन्द टीका-पं. गोपीलाल अमर एम. ए. १८ २८. जैन धर्म और जातिवाद-श्री कमलेश सक्सेना १०. महत्-स्तवन-मुनि पानन्दि
एम. ए. मेरठ ११. महार का शान्तिनाथ संग्रहालय
२६. जौनपुर में लिखित भगवती मूत्र प्रशस्ति -श्री नीरज जैन
२२१ -श्री अगरचन्द भंवरलाल नाहटा १२. महिसा का वैज्ञानिक प्रस्थान
३०. डा. जेकोबी और वासीचन्दन कल्प श्री काका कालेलकर
३६ -मुनि श्री महेन्द्रकुमार (द्वितीय) १३. माचार और विचार--डा. प्रद्युम्न कुमार जैन ३१. तीर्थकर सुपाश्वनाथ की प्रस्तर प्रतिभा ज्ञानपुर
१०३ -व्रजेन्द्रनाथ शर्मा एम. ए. १४. प्राचार्य परमेष्ठी (धवला से)
१९३ ३२. दिगम्बर-श्वेताम्बर परम्परा में महाव्रत अणुव्रत र्य मानतुङ्ग-डा. नेमिचन्द्र शास्त्री . समिति और भावना-मुनि श्री रूपचन्द्र १११ एम. ए. पी-एच. डी.
२४२ ३३. दो ताडपत्रीय प्रतियों की ऐतिहासिक प्रशस्तियाँ १६. मात्म दमन-मुनि श्री नथमल
४३ -श्री भंवरलाल नाहटा १७. कल्पसिद्धान्त की सचित्र स्वर्णाक्षरी प्रशस्ति ३४. निश्चय पोर व्यवहार के कषोपल पर षट् । -कुन्दनलाल जैन एम. ए.
प्राभृतः एक अध्ययन-मुनि श्री रूपचन्द्र १८८ १८. कारंजा के भट्टारक लक्ष्मीसेन
____३५. परीक्षामुख के सूत्रों और परिच्छेदों का विभाजन: -डा. विद्याधर जोहरापुरकर
एक समस्या-पं. गोपीलाल अमर
२४१
२३८
२२३
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२८८
अनेकान्त
३६. प्रतिहार साम्राज्य में जैनधर्म
५४. शोध-कण-परमानन्द शास्त्री -डा. दशरथ शर्मा एम. ए. डी. लिट् १७ ५५. शोध-कण-(महत्वपूर्ण दो मूर्ति लेख) ३७. बोध प्राभूत के संदर्भ में प्राचार्य कुन्दकुन्द
-नेमचन्द धन्नूसा जैन साध्वी श्री मंजुला
१२८ ५६. श्रावक प्रज्ञप्ति का रचयिता कौन ? ३८. ब्रह्म नेमिदत्त और उनकी रचनाएँ
-श्री बालचन्द्र सि० शास्त्री -परमानन्द शास्त्री
५७. श्री छोटेलाल जैन अभिनन्दन ग्रंथ । ३९. भगवान पार्श्वनाथ-परमानन्द शास्त्री
-डा० कस्तूरचन्द कासलीवाल ३७, ७८ ४०. भ. विश्वभूषण की कतिपय अज्ञात रचनाएँ -श्री अगरचन्द नाहटा
- ५८. श्री बाबू छोटेलाल जैन का संक्षिप्त परिचय
१५८ ४१. भूधरदाम का पार्श्व पुराण-एक महाकाव्य
-डा० कस्तूरचन्द्र कासलीवाल - ७७ श्री सलेकचन्द जैन एम. ए.
११६ ५६. श्रीपुर पार्श्वनाथ मन्दिर के मूर्ति-यन्त्र लेख ४२. भूपाल बौत्रीसी की एक महत्वपूर्ण सचित्र प्रति - संग्रह-प० नेमचन्द धन्नूसा जैन २५,८० --अगरचन्द्र नाहटा
५६ ६०. श्रीपुर निर्वाणभक्ति और कुन्दकुन्द ४३. मोह विवेक युद्धः एक परीक्षण
-डा० विद्याधर जोहरा पुरकर --डा. रवीन्द्र कुमार जैन तिरूपति १०७ ६१. श्री लाल बहादुर शास्त्री-यशपाल जैन २३७ ४४. मध्यकालीन जैन हिन्दी-काव्य में शान्ताभक्ति ६२. श्री मोहनलाल जी ज्ञानभंडार सूरत की ताड़-डा. प्रेमसागर जैन
१६४ पत्रीय प्रतियाँ-धीभंवरलाल नाहटा १७.६ ४५. महपि बाल्मीकि और श्रमण मस्कृति
६३. श्री सम्मेदशिखर तीर्थरक्षा-प्रेमचन्द जैन ४८ -मुनि विद्यानन्द ४३ ६४. श्री सिद्धस्तवनम् (धवला से)
१४५ ४६. यशस्तिलक कालीन प्राथिक जीवन
६५, सम्यदर्शन-साध्वी श्री संघ मित्रा १६६ -डा.गोकुलचन्द जैन
६६. साहित्य मे अन्तरिक्ष पाश्वनाथ श्रीपुर ४७. यशस्तिलक में चचित-पाश्रम व्यवस्था और
--40 नेमचन्द धन्नूसा जैन .२२४, २६५ संन्यस्त व्यक्ति-डा. गोकुलचन्दर्जन १४६ ६७. साहित्य-ममीक्षा-परमानन्द शास्त्री ४५, १५, १६२ ४८. यशस्तिलक मे वणित वर्ण व्यवस्था और समाज
२४० गठन-डा० गोकुलचन्द जैन
२१३ ६८. साहित्य-समीक्षा-डा०प्रेमसागर ४६. वजरंग गढ़ का दिशंद जिनालय श्री नीरज जैन ६५ .
५५ ६६. सेनगण की भट्टारक परम्परा ५०. वर्णीजी का प्रात्मपालोचन और समाधि संकल्प
-श्री पं० नेमचन्द धन्नूसा -श्री नीरज जैन
७०. सुपार्श्वनाथ जिनस्तुति-समन्तभद्राचार्य ५१. विधर्भ में जैनधर्म की परम्परा -डा. विद्याधर जोहरा पुरकर
१४ ७१. सुमति जिनस्तवन-समन्तभद्र ५२. वृषभदेव तथा शिव-सम्बन्धी प्राच्य मान्यताएँ ७२. सोलहवीं शताब्दी की दो प्रशस्तियां डा० राजकुमारजन
२३०, २७६ -परमानन्द शास्त्री ५३. शन्द चिन्तनः शोध दिशाएँ
७३. हेमराज नाम के दो विद्वान -मुनि श्री नथमल
-परमानन्द शास्त्री
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एक महत्वपूर्ण पत्र
अनेकान्त पत्र के १८वे वर्ष के मैंने दो-तीन ग्रंक पड़े हैं। प्रत्येक अंक में विषय चुने हुए है। लेख मामिक और पिद्वानों के द्वारा पठनीय है। छपाई सुन्दर है। जैन साहित्य और इतिहास के सम्बन्ध में इससे पर्याप्त जानकारी मिलती है। शोध-खोज का कार्य करने वाले विद्वानों को अनेकान्त मंगा कर अवश्य पढना चाहिए। अनेकान्त का भाषा साहित्य उच्च कोटि का है। हां, एक बात जरूर खटकती है और वह यह कि इस पत्र में सर्व माधारण के लिए कुछ नहीं रहता। संचालकों को चाहिए कि वे इसमें कोई सुन्दर कहानी और जन-साधारण के लिए सरल भाषा का लेख भी दिया करे । ऐसा होने पर जन-साधारण भी इस पत्र को अपनायेगा। जन-समाज को चाहिए कि ऐसे प्रतिष्टित पत्र को महयोग दे और अधिक से अधिक ग्राहक बन कर जैन साहित्य के विकास में योग-दान करे। '
-डा. प्रार. सी. जिन्दल
वीर-सेवा-मन्दिर और "अनेकान्त" के सहायक
१०००) श्री मिश्रीलाल जी धर्मचन्द जी जैन, कलकत्ता | १५७) श्री जगमोहन जी सरावगी, कलकत्ता १०००) श्री देवेन्द्रकुमार जैन, ट्रस्ट,
१५०) , कस्तूरचन्द जी मानन्दीलाल कलकत्ता श्री साहु शीतलप्रसाद जी, कलकत्ता
१५०) , कन्हैयालाल जी सीताराम, कलकत्ता ५००) श्री रामजीवन सरावगी एण्ड संस, कलकत्ता १५०) , पं० बाबूलाल जी जैन, कलकत्ता ५० ) श्री गजराज जी सरावगी, कलकत्ता
१५०) , मालीराम जी सरावगी, कलकत्ता ५००) श्री नथमल जी सेठी, कलकत्ता
१५०) , प्रतापमल जी मदनलाल पांड्या, कलकत्ता ५००) श्री वैजनाथ जी धर्मचन्द जी, कलकत्ता १५०) , भागचन्द जी पाटनी, कलकत्ता ५००) श्री रतनलाल जी झांझरी, कलकत्ता
१५०) , शिखरचन्द जी सरावगी, कलकत्ता २५१) श्री रा. बा. हरखचन्द जी जैन, रांची १५०) , सुरेन्द्रनाथ जी नरेन्द्रनाथ जी कलकत्ता २५१) श्री अमरचन्द जी जैन (पहाडपा), कलकत्ता १०) , मारवाड़ी वि. जैन समाज, व्यावर २५१) श्री स० सि. धन्यकुमार जी जैन, कटनी १०१) , दिगम्बर जैन समाज, केकड़ी २५१) श्री सेठ सोहनलाल जी जैन,
१०१) , सेठ चन्दूलाल कस्तूरचन्दजी, बम्बई नं. २ मंसस मुन्नालाल द्वारकादास, कलकत्ता १०१) , लाला शान्तिलाल कागजी, दरियागंज विल्ली २५१) श्री लाला जयप्रकाश जी जैन
१०१) , सेठ भंवरीलाल जी बाकलीवाल, इम्फाल स्वस्तिक मेटल वर्स, जगाधरी
१०१) , शान्ति प्रसाद जी जैन जैन बुक एजेन्सी, २५०) श्री मोतीलाल होराचन्द गांधी, उस्मानाबाद
नई दिल्ली २५०) श्री बन्शीवर जी जुगलकिशोर जी, कलकत्ता
१०१) , सेठ जगन्नाथजी पाण्डया अमरीतलया २५०) श्री जगमन्दरदास जी जैन, कलकत्ता
१०१) , सेठ भगवानदास शोभाराम जी सागर २५.) श्री सिंघई कुन्दनलाल जी, कटनी
(म०प्र०) २५०) श्री महावीरप्रसाद जी अग्रवाल, कलकत्ता १०१) , बाबू नृपेन्द्रकुमार जो गैन, कलकत्ता २५०) श्री बी. पार० सी० जन, कलकत्ता
१००) , बद्रीप्रसाद जो प्रात्माराम जी, पटना २५०) श्री रामस्वरूप जी नेमिचन्द्र जी, कलकत्ता १००) , रूपचन्दजी अंन, कलकत्ता १५.) श्री बजरंगलाल जी चन्द्रकुमार जो, कलकत्ता १००) , जैन रत्न सेठ गुलाबचन्द गो टोंग्या १५०) श्री चम्पालाल जी सरावगी, कलकत्ता
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वीर-सेवा-मन्दिर के उपयोगी प्रकाशन R. N. 10591/82.
• सभी ग्रन्थ पौने मूल्य में (१) पुरातन-जैनवाक्य-सूची-प्राकृत के प्राचीन ४६ मूल-प्रन्थों की पद्यानुक्रमणी, जिसके साथ ४८ टीकादिग्रन्यों में
उद्धृत दूसरे पद्यों की भी अनुक्रमणी लगी हुई है। सब मिलाकर २५३५३ पद्य-वाक्यों की सूची । संपादक मुख्तार श्री जुगलकिशोर जी की गवेषणापूर्ण महत्व की ७० पृष्ठ की प्रस्तावना से अलंकृत, डा० कालीदास नाग, एम. ए. डी. लिट् के प्राक्कथन (Foreword) और डा. ए. एन. उपाध्ये एम. ए. डी.लिट् की भूमिका .
(Introduction) से भूषित है, शोध-खोज के विद्वानों के लिए अनीव उपयोगी, बड़ा साइज, सजिल्द १५) (२) प्राप्त परीक्षा--श्री विद्यानन्दाचार्य की स्वोपज्ञ सटीक अपूर्व कृति,प्राप्तों की परीक्षा द्वारा ईश्वर-विषयक के
सुन्दर, विवेचन को लिए हुए, न्यायाचार्य पं दरबारीलालजी के हिन्दी अनुवाद से युक्त, सजिल्द । ८) (३) स्वयम्भूस्तोत्र-समन्तभद्रभारती का अपूर्व ग्रन्थ, मुख्तार श्री जुगलकिशोरजी के हिन्दी अनुवाद, तथा महत्व
की गवेषणापूर्ण प्रस्तावना से सुशोभित । (४) स्तुतिविद्या-स्वामी समन्तभद्र की अनोखी कृति, पापों के जीतने की कला, सटीक, सानुवाद और श्री जुगलकिशोर मुख्तार की महत्व की प्रस्तावनादि से अलंकृत सुन्दर जिल्द-सहित ।
१॥) (५) अध्यात्मकमलमार्तण्ड-पंचाध्यायीकार कवि राजमल की सुन्दर आध्यात्मिकरचना, हिन्दी-अनुवाद-सहित १॥) (६) युक्यनुशासन-तत्वज्ञान से परिपूर्ण समन्तभद्र की असाधारण कृति, जिसका अभी तक हिन्दी अनुवाद नही
हुमा था। मुख्तार श्री के हिन्दी अनुवाद और प्रस्तावनादि से अलकृत, सजिल्द । (७) श्रीपुरपार्श्वनाथस्तोत्र-प्राचार्य विद्यानन्द रचित, महत्व की स्तुति, हिन्दी अनुवादादि सहित । ) (८) शासनचतुस्त्रिशिका-(तीर्थपरिचय) मुनि मदनकीर्ति की १३वीं शताब्दी की रचना, हिन्दी-अनुवाद सहित ) (९) समीचीन धर्मशास्त्र-स्वामी समन्तभद्र का गृहस्थाचार-विपयक अत्युत्तम प्राचीन ग्रन्थ, मुख्तार श्रीजुगलकिशोर
जी के विवेचनात्मक हिन्दी भाष्य और गवेषणात्मक प्रस्तावना से युक, सजिल्द । ... ३) (१०) जैनग्रन्थ-प्रशस्ति संग्रह-संस्कृत और प्राकृत के १७१ अप्रकाशित ग्रन्थों की प्रशस्तियों का मंगलाचरण सहित
अपूर्व संग्रह उपयोगी ११ परिशिष्टों की और प० परमानन्द शास्त्री की इतिहास-विषयक साहित्य परिचयात्मक
प्रस्तावना से अलंकृत, सजिल्द । (११) ममाधितन्त्र और इष्टोपदेश-प्रध्यात्मकृति परमानन्द शा० को हिन्दी टीका सहित
मूल्य ४) (१२) प्रनित्यभावना-पा० पद्मनन्दी की महत्व की रचना, मुख्तार श्री के हिन्दी पद्यानुवाद और भावार्थ सहित ।) (१३) तत्वार्थमूत्र-(प्रभावन्द्रीय)-मुख्तार श्री के हिन्दी अनुवाद तथा व्याख्या से युक्त। (१४) श्रवणबेलगोल और दक्षिण के अन्य जैनतीर्थ । (१५) महावीर का सर्वोदय तीर्थ ), (१५) समन्तभद्र विचार-दीपिका ॥), (१६) महावीर पूजा ।) (१६) बाहुबली पूजा-जुगलकिशोर मुख्तार कृत (१७) अध्यात्म रहस्य-पं० प्राशाधर को सुन्दर कृति मुख्तार जी के हिन्दी अनुवाद सहित ।। (१८) जैनग्रन्थ-प्रशस्ति संग्रह भा० २ अपभ्रश के १२२ अप्रकाशित ग्रन्थोंको प्रशस्तियो का महत्वपूर्ण संग्रह। ५५
अन्यकारों के ऐतिहासिक ग्रंथ-परिचय और परिशिष्टों सहित । सं०५० परमान्द शास्त्री । सजिल्द १२) (१६) जैन साहित्य और इतिहास पर विशद प्रकाश, पृष्ठ सख्या ७४० जिल्द (वीर-शासन-संघ प्रकाशन ५) (२०) कसायपाहुड सुत्त---मूलग्रन्थ की रचना प्राज से दो हजार वर्ष पूर्व धी गुणधराचार्य ने की, जिस पर श्री
यतिवृषभाचार्य ने पन्द्रह सौ वर्ष पूर्व छह हजार श्लोक प्रमाण चूणिसूम लिये सम्पादक प० हीरालालजी सिद्धान्त शास्त्री, उपयोगी परिशिष्टो और हिन्दी अनुवाद के साथ बड़ो साइज के १००० से भी अधिक
पृष्ठों में। पुष्ट कागज और कपड़ को पक्की जिल्द । (२१) Reailty मा० पूज्यपाद की सर्वार्थ सिद्धि का अंग्रेजी में अनुवाद बढ़ पाकार के ३०० पृष्ठ पक्को जिल्द मू०६) प्रगणक-प्रेमचन्द जैन, वीरसेवा मनिर के लिए, रूपाणी प्रिंटिंग हाउस, परियागंज, दिल्ली से मुद्रित।
...
२०)
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