________________
अनेकान्त
गणता नहीं करते जो तेज वुद्धि भौर चतुर होने के कारण जैसे छुटपुट अपराध होते हैं वहाँ उन सम्पन्न देशों में बैंकों पुलिस की पकड़ में नहीं पाते । ऐसी अवस्था में बुद्धि को लूटने जैसे भयकर अपराध अधिक मात्रा में होते है। और अपराधी मनोवृत्ति में किसी तरह का वैज्ञानिक यहाँ की अपेक्षा वहाँ की स्त्रियाँ अधिक अपराध करती हैं। सम्बन्ध नहीं माना जा सकता । चाहे जो हो, अपराध करने वाला निश्चित जानता है कि वह बुरा काम करता है पर ।
शिक्षा की दृष्टि से तो यहाँ की स्त्रियाँ कम शिक्षित पादत से लाचार होता है इसलिए जानता हुमा भी छोड़ हा
बोर होती है पर अपराध वहाँ की औरतें ही अधिक करती हैं। नहीं मकता। अगर अपराध करने वाला ना समझ हो तो इसका कारण शायद उनका विशृखलित व प्रमंयमित उमे अपराध का उत्तरदायी बनाकर दण्ड नहीं दिया जा
जीवन हो सकता है। जो विशृखलता और असंयमितता मकता जैसे कि विक्षिप्त और बालक को नहीं दिया जा
अपेक्षाकृत यहाँ की स्त्रियों में कम है। जाता।"
बुद्धि का काम है चिन्तन करना। यह अच्छा भी एक अन्य स्थल पर इसी प्रसङ्ग का उल्लेख देते हुए कर सकती है और बुरा भी। अच्छे चिंतन पर प्रास्था वे लिखते है-"बुद्धि व उसकी होनता को अपराध का जमती है तो अपराध मिट भी जाते हैं और बुरे चितन कारण १ नही माना जा सकता।"
पर प्रास्था जमती है तो अपराध और भी गभीर रूप ___ इन कतिपय अंशों से हम अपने निष्कर्ष को और भी धारण कर लेते है, अतः मानना पड़ता है कि प्राचरण दृन बना सकते हैं कि शिक्षा और अशिक्षा से अपगध का
अन्तः प्रेरणा का परिणाम है; बुद्धि का नही। लेकिन कोई लगाव नहीं हैं। इसलिए हमारा यह कथन कि यह
इसके विपरीत ऐसे भी कुछ अकाट्य तर्क हमारे समक्ष शिक्षित होकर भी गलती करता है अधिक महत्त्व नहीं
पाते हैं कि ज्ञान और शिक्षा से अपराधों का अल्पीकरण रखता जबकि शिक्षा और गलती में कोई अनिवार्य सम्बन्ध व विलयीकरण होता है । वे भी चिन्तनीय हैं। ही नहीं है । मनोविज्ञान ही क्या जैन दर्शन भी तो ज्ञान
ज्ञान व विद्या से अपराधों का विलयीकरणका कारण, ज्ञानावरणीय कर्म के क्षय, क्षयोपशम को मानता है और शुद्ध व सयत क्रिया का कारण; चरित्र अधिक पाश्चयं तो इस बात का है कि जिन्होंने
नीय कर्म के क्षय प्रयोगशाम को शिक्षित समक्ष शिक्षा और अपराध को एक दूसरे से निरपेक्ष माना वे ही क्षिन में इतना अन्तर अवश्य पड़ता है कि शिक्षित अपनी
इनमें घनिष्टता स्वीकार करते है। तब लगता है अवश्य गल्तियो पर चतुराई के परत चढ़ा लेता है और प्रशिक्षित ही यहाँ कोई दूसरी अपेक्षा है और उसे हमें प्रकाश में की बुराई सदा स्पष्ट और अनावृत रहती है। अपगध लाना है। का कटु परिणाम भोगते समय एक बार शिक्षित प्रशिक्षित भगवान महावीर ने जहाँ एक मोर 'पाठ प्रवचन दोनों ही के मनों में अपराध न करने के भाव जगते है माता' के जानने वाले के चरित्र की उत्कृष्ट आराधना यह दूसरी बात है कि कोई उम निर्णय पर दृढ रहता है बतलाकर ज्ञान और प्राचार को एक दूसरे से निरपेक्ष और कोई अपनी पादत की विवशता रो वैसा नही कर बतलाया वहाँ दूसरी पोर (यह कहकर कि द्रष्टा को सकता।
उपदेश की जरूरत नही १ वह स्वयं मे पूर्ण है) ज्ञान और पाश्चात्य देशों में जहाँ न तो प्रभाव जनित परि- प्राचार के बीच पूर्ण तादात्म्य स्थापित कर दिया है। स्थितियों की ही अधिक मात्रा है और न अक्षिक्षित लोग इस तथ्य को पुष्ट करने वाले अनेक स्थल उपलब्ध होते ही, फिर भी अपराधों की मात्रा कोई कम नहीं है । निर्धन है जैसे सम्यक दष्टा पाप नहीं करता। अज्ञानी जो अच्छे और अल्प विकसित देशों में जहाँ दूध में पानी मिलाने बुरे को जानता ही नही वह क्या करेगा ? अज्ञानी तपस्या
- ---- -- १. 'व्यवहारिक मनोविज्ञान' पृ० ५६ से ७०
१. उद्दे सो पासगस्स नत्थि (प्राचाराङ्ग प्र०) (लेखक हंसराज भाटिया) २. सम्मत्त दंसी न करेइ पावं (प्राचाराङ्ग प्र.)