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________________ १४२ अनेकान्त ध्याय कहा जाता है । उपाध्याय के अर्थ में यशस्तिलक में मुमक्ष पर्व-त्योहार के दिनों में भी मुट्ठी भर सब्जी या "देशक" शब्द पाया है। जो के अतिरिक्त और कुछ नहीं खाते थे३४ । १०-नास्तिक (४०६, उत्त.) १६-यति (२८५, उत्त०, ३७२ उत्त०, ४०६, सोमदेव ने जैनियों के लिए नास्तिकों के साथ प्रावास, उत्त०)। पालाप मादि का निषेध किया है। चार्वाक अथवा वृह- यति शब्द का भी कई बार प्रयोग हुमा है। यह स्पति के शिष्यों के लिए सम्भवतया यहां इस शब्द का शब्द जैन साधु के लिए प्रयुक्त होता है। सोमदेव के प्रयोग हपा है। अन्य साधुओं के लिए निम्नलिखित नाम उल्लेखानमार यति ने . पाए हैं पक्के होते थे३५ । यति भिक्षा भी करते थे३६ । ११-परिव्राजक (३२७, उत्त०), परिवाट (१३९ २०-यागज्ञ (४०६, उत्त०) । उत्त.) १२-पारासर (६२) : पारासर ऋषि के शिष्य मम्भवतया यज्ञ करने वाले वैदिक माधु यागज कह लाते थे । मोमदेव ने यागज्ञों के माथ जैनो को महावाम, पार सर कहलाते थे। सहालाप तथा उनकी सेवा करने का निषध किया है३७ । १३-ब्रह्मचारी (४०८) । १४-भविल (४०८)-भविल शब्द का अर्थ २१-योगी (४०६) श्रुतदेव ने महामुनि किया है३०। भविल नामक साधु ध्यान में मस्त हा माधु योगी कहलाता था। पैदल चलने थे तथा छोटे जीवों के प्रति महाकृपालु होने मोमदेव ने लिखा है कि यह सोचकर कि दूसरे जीव को से लकड़ी की चप्पल (खड़ाऊँ) भी नहीं पहनते थे३१। थोडा-सा भी दुख पहुंचाने पर वह बोये गये बीज की १५-महाव्रती (४६)-महाव्रती का दो बार तरह जन्मान्तर में सैकड़ों प्रकार से फल देता है, इसलिए उल्लेख है। चण्डमारी के मन्दिर में महाव्रती साधु अपने दयाभाव से तथा पापभीरू होने से वनस्पति के पल या शरीर का मांस काटकर खरीद बेच रहे ३२ । ये साथ पत्तं भी स्वयं नहीं तोड़ता३८ । हाथ में खट्वांग लिये रहते थे ३३ । कोल-कापालिको की २२. वैखानस (४०८) तरह ये भी शैव मतानुयायी थे। विशेष क्रियाकाण्ड में विश्वास रखने वाले वैदिक -महासाहसिक (४६)-महासाहसिक लोग साघु गम्भवतया वैखानस कहलाते थे । ये बान भी दीव होते थे। सोमदेव ने इनकी प्रात्मरुधिरपान जैसी . . .. भयंकर साधना का उल्लेख किया है। ३४. पर्वरसेष्वपि दिवसेषु मुमुक्षुरिव न शाकमुष्टेयंव१७-मुनि (५६,४०४ उत्त०) जैन माधु के लिए मुष्टेपिरमाहग्त्याहारम्, ४०६ यशस्तिलक में अनेक बार मुनि पद का प्रयोग हुपा है। ३५. निज नियमानुष्ठानकतामनसि-यतीश्वरे, २८५, उत्त. अभी भी जैन साधु मुनि कहलाते हैं। ३६. गृहस्थो वा यतिर्वापि जैन समयमाश्रितः । १५-मुमुक्षु (४०६) मोक्ष की ओर उन्मुख तथा यथाकालमनुप्राप्त: पूजनीयः सुदृष्टिभिः ।। ४०६ अनवरत साधना में सलग्न साघु मुमुक्षु कहलाता था। ३७. शाक्यनास्तिकयागजजटिलाजीवकादिभिः । ३०. मविल इव महामुनिरिव, ४०८, मं.टी. सहावासं सहालापं तत्सेवा च विवर्जयेत् । ४०६ उत्त. ३१. महाकपालुतया सत्त्वसंमर्दभयेन पदात्पदमपि प्रमभविल ३८. ईषदप्यशुभमन्यत्रोत्पादितमात्मन्युप्तबीजमिव जन्माइव नादत्ते दारवं पादपरित्राणम्, ४०८ न्तरे शतशः फलतीति दयालुभावाद् दुरितभीरुभावाच्च ३२. महावतिकवीरस्यविक्रीयमाणस्ववपुर्खनवल्लूरम्, ४६ न दलं फलं वा योगीव स्वयमवचिनोति वनस्पतीन, ३३. सा कालमहावतिना खट्वांगकरतां नीता । १२७ । ४०६
SR No.538018
Book TitleAnekant 1965 Book 18 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1965
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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