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सेनगण की-भट्टारक परम्परा
श्री पण्डित नेमचन्द पन्नुसा, न्यायतीर्थ
डा. विद्याधरजी जोहरापुर के 'भट्टारक सम्प्रदाय' के या भट्टारक गुणभद्र (सं० १५७६) तक तो परम्परा ठीक पृष्ठ ३७ पर सोममेन से लगाकर एक पट्ट दिया है। वह है लेकिन दिये गये काल से ४१ नम्बर के तृतीय इस प्रकार है :
सोमसेन का संवत १५६७ होना खटकता है। प्रतः ३०. सोमसेन, ३१. श्रुतवीर, ३२. धारसेन, ३३. स्वयं संग्रहीत देवलगांव राजा, जितूर, वाशीम, शिरपुर, देवसेन (सवत १५१०), ३४. सोमसेन, (स० १५४१), (अन्तरिक्षजी), भातकुली आदि जगह के मूर्ति-यन्त्रलेख ३५. गुणभद्र (स० १५७६), ३६. वीरसेन, ३७. युक्त- से तथा अन्य पावली से इसे जांचा। तब मैं इस निर्णय वीर, ३८. माणिकसेन (स० १५५८), ३६. गुणसेन पर पहुंचा कि, वह पट्टावली भ० गुणभद्र (सं० १५७९) |गुणभद्र), ४०. लक्ष्मीसेन, ४१. सोमसेन (स० १५६७), या उनके गुरू भट्रारक सोमसेन (स० १५४१) के समय ४२. माणिक्यसेन, ४३. गुणभद्र, ४४. सोमसेन (म० में ही विभक्त होती है। १६५६-६६), ४५. जिनमेन (सं० १७१२-४२), ४३. क्योकि भ० वीरसेन का 'कर्णाटक देश स्थापित ममन्तभद्र, ४७. छत्रसेन (सं० १७५४)-नरेन्द्रसेन (म० धर्मामृत वर्पण' मादि विशेपण पट्टावली में (लेखाक २६) १७८७-६०)--शांतिसेन (सं० १८०८-१८१६)- स्पाट है। प्रतः इन्होने विदर्भ की गद्दी से अलग स्वतन्त्र सिद्धसेन (म० १८२६-६६)-लक्ष्मीसेन (स० १८६९- गद्दी कर्णाटक में स्थापित की होगी। और उनकी परम्परा १९२२)-वीरसेन (स. १९३६-९५) ॥इति।। मे युक्तवीर, माणिवसेन ये दो भट्टारक प्राये हों तो
यहाँ प्रथम सोमसेन मे द्वितीय सोमसेन (म०१५४१) युक्तिसगत बंटता है; क्योंकि अन्य पट्टावली में यह क्रम ब्रह्मचारी होते थे तथा स्नान, ध्यान और मन्त्र-जाप खास चिनूचानेन श्रमणसधेन, ६३] गाव, नगर प्रादि मे तौर से अधमर्पण मन्त्रो का जाप करते थे ३६ । विहार करते थे [विहरमण, ८६] संघ में विविध २३. शसितव्रत (४०८)
विषयों में निष्णात अनेक साधु रहते थे [६] । शसितव्रत का प्रथं श्रुतदेव ने दिगम्बर साधु किया है। २५-साधक | ४६] शसितव्रत अशुम का दर्शन या स्पर्श तो दूर रहा मन मे मन्त्र-तन्त्र प्रादि की सिद्धि के लिए विकट साधना उमके विचार मा जाने से भी भोजन छोड़ दंते थे करने वाले साधु माधक कहलाने थे। मोमदेव ने अपने [प्रास्ता तावदशुभस्य दर्शनं च, किन्तु मनसाप्यस्य परा- शिर पर गुल्गुनु जलाने वाले साधको का उल्लेख किया मर्प शसितव्रत इव प्रत्यादिशात्याशम्, ४००] । है४०। ऐमी भयकर माधना कौल...."कापालिक २४-श्रमण [६२, ६३] जैन साधु
सम्प्रदाय के साधकों में प्रचलिन थीं। दिगम्बर मुनि के अर्थ में श्रमण का प्रयोग हया है २६–साधु [१७७, ४०५, ४०७] उत्त. [श्रमणा इव जातरूपधारिणः, १३] श्रमण पूग संघ साघु शन्द का अनेक बार प्रयोग हया है तथा सभी ३६. सर्वदा शुचिरिब ब्रह्मचारी तथापि लोकव्यवहार- स्थानो पर जन साधु का प्रतिपालनार्थ देवोपामनायामपि समाप्लुत्य वैग्वानस
२७-सूरि [३७७] इव जपति जलजन्तूजनजनितकल्मपप्रघर्षणायाधम
जैनाचार्य के प्रथं में इसका प्रयोग हुआ है। पणतन्त्रान्मन्त्रान्, ४०८।४०. साधकलोकनिजशिरोदह्यमानगुग्गलरसम, ४६