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अनेकान्त
नहीं मिलता, न यह क्रम किमी मूर्तिलेख में अंकित है। तेषां पट्टे गणी जातो श्रुतवीरो गुणाकरः ।
तथा भट्टारक स० लेखांक ६५१-सवत १५३२ वर्षे विद्वज्जन सरोजाना, मुदे रविरिवानिशम ॥४६ बैसाख सुदी ५ रवो काष्ठा सघे नन्दीतटगच्छे भ. श्री तत्पट्ट गुणसेनमूरिविदितो विद्वान् सभा पडितः,
नस्तत्पट्ट सोमकीति प्राचार्य श्रीवीरसेनसूरियुक्त पश्चाच्छी गुणभद्रदेवमुनिपो भव्यांबुजाल्हादकृत् । प्रतिष्ठितं.....।
तर्क व्याकरणादि शास्त्र जलधिः श्रीलक्ष्मीसेन स्ततः और पिछले चोबीमी (देवलगांव राजा)-मं० जीयादिन्दुसमान कीतिरमल. भट्टारकाधीश्वर. ॥४७॥' १५३८ वैसाख शुद्ध १३ शुभे श्रीकाप्ठा सघे नन्दीतटगच्छे
गुरु १३ शुभ श्राकाप्टा संघ नन्दीतटगच्छे इममे भ० सोममेन द्वितीय सं० १५४१ के शिष्य विद्यागणे भ० श्रीभूम (भीम) सेन. तत्पट्ट भ० सोम- भ० गुणभद्र है। उनके पद पर कम से धुतवीर, गुणसन कीतिभिः श्रीवीरमेनयुक्त प्रतिष्टितं, बघेरवाल ज्ञातीय...: गुणभद्र और अभी लक्ष्मीमेन है ऐमा बताया है। अत इन दो मूतिलेम्बों में उल्लेखित भ. बीरमन अगर सेनगण लक्ष्मीसेन संवत १६३८ से ४६ तक यह पट्टावली लिखी के कर्णाटक गद्दी के अधिकारी समझे, तो उनका काल गई होगी । इमीलिए गुणभद्र के शिष्य प्रशिप्य वीरसन, सवत १५३२ से १५३८ के पास-पास निश्चित होता है। युक्तवीर, माग्गिकर्मन न होकर भ. श्रुतवीर, गुर सेन तब इनके शिष्य भ० युक्लवीर और उनके शिष्य भ. आदि निश्चित होने है। और उनका (श्रुतवीरका) समय माणिकसेन का काल सवत १५५८ ठीक लगता है। इनके मंवत १५६३ मे १५९८ तक स्पष्ट है । दग्विाशिष्य भ० नेमसेन हुए है । देखो पिछले पाश्वनाथ (भातु- १. तावे का सोला कारण यन्त्र (जिंतूर)-गवत कुली)-सवत १५१५ मूलसघे सनगणं भ. माणिकसन १५९३ सेनगणं पुष्कर गच्छ वपभ० अन्वये भ० गुणभद्रपट्ट भ० नेमसेन उपदेशात् गुजर पालीवाल मावमेटी.... स्तत्पदें श्री श्रुतवीर गुरुपदेशात् वघरवाल।
इस लेख से भ० वीरगन, युक्तमेन या माणिकमेन २ ताव का दश० यत्र (देवलगांव)-संवत १५६८ इनका भी काल स. १५१५ के पूर्व का ही ठहरता है। व शके १४६३ प्रबर्तमाने कार्तिक शुद्ध ५ रवी श्री मूलपौर शायद वीरसेनने भ० देवमेन के (स० १५१०) समय मघे श्रीवृषभसेनान्वये सेनगणं पुष्करगच्छे भ० धीगुणभद्रसे ही अलग पट्ट स्थापित किया होगा ऐमा लगता है। देवाः तत्प, भ. श्री श्रनवीगेपदेशात् वघेवाल। नेमसेन के बाद की परम्पग यहा अज्ञात है।
३. पीतल की-मूर्ति (जितूर)-मवत १५६८ फिर यहा सवाल उठता है कि यदि भ. बीरमेन को फाल्गन सू० २ गुरु धीमूनम भ० श्रा धुतकातिः कर्णाटक पीठ के अधिकारी माने तो, विदर्भ पीठ के भ० (थनवीर)। गुणभद्र (सं० १५७६) के उत्तराधिकारी कौन है ? इस
इससे भ० गुणभद्र के शिष्य थुतवीर हो थे यह स्पष्ट प्रश्न का उत्तर हमें सन् १९४८ जनवरी के जैन सिद्धान्त होना है। इनके शिष्य गुणमेन थे। भ. श्रीभूपण (काष्ठाभास्कर में प्रकाशित दिगम्बर जैन एण्टीक्वायरी से मिलता संघ) गद्दी पर पाते ममय उनकी प्रशमा करने वाल गुणहै। वहां सेनगण की पट्टावली दी है । और उन-उन भट्टा- सेन को अगर श्रनवीर के शिष्य माने गो इनका समय ग्को के समय के विशेष व्यक्ति का उल्लेख उसमें होन से मवन १६३४ में पूर्व का ही मानना पड़ेगा। दखोपण्डित माशाधर के समय से लेकर भट्टारको का क्रम भ. मं० लेखांक ६९४मुनिश्चित दिया है । उसमे उनका काल जानने में सहा- 'श्रीभूषणमूरिराज दिनकरसम भाज, यता मिलती है । उसका अन्तिम भाग इस तरह है :
अधिक बढुएला जय जय करण । 'श्रीमद्भरि गुणक पानिपुणो भव्याबुजाल्हादकृत्, नेमिजिन स्वामी चग सकल कर्मनु भग, मिथ्यावादिमहेद्र भेदनपविः सच्छास्त्रचंचुरकाम् । शिववधु कियु मंग, गुणसेन सरण ||१०.' वादीन्द्रकसुसोमसेन भुनिराट् पट्टोदयाद्री रवि, गुणसेन के शिष्य श्री गुगणभद्र हुए। कही-कही गुणज्यात श्रीगुणभद्रसूरि गुरुराट नन्द्याचिरं भूतले ॥४५ सेन गुणभद्र ऐसा उल्लेख मिलता है। इससे ये एक ही