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पशस्तिलक में चित-प्राश्रम व्यवस्था और संन्यस्त व्य...
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कहलाते थे। सोमदेव ने कापालिक का सम्पर्क होने पर माराधना करे२८।। जैन साधु को मन्त्र-स्नान बताया है२४ ।
५-कुमारश्रमरण (९२) कापालिक साधु का एक सम्पूर्ण चित्र क्षीरस्वामी ने
बाल्यावस्था में जो लोग साधू हो जाते थे उन्हें अपने प्रतीक नाटक प्रबोधचन्द्रोदय (अध्याय ३) में प्रस्तुन
कुमारश्रमण कहा जाता था। सोमदेव ने कुमारश्रमण के किया है । एक कापालिक साधु स्वय अपने विषय में इस
लिए "प्रसंजातमदनफलमग" विशेषण दिया है। एक प्रकार जानकारी देता है-कणिका, रुचक, कुण्डल,
ह-काणका, रुचक, पुण्डल, स्थान पर श्रमणमघ (६३) का भी उल्लेख है । उक्त शिखामणी, भस्म और यज्ञोपवीत ये छ: मुद्रा-पटक कह
दोनों स्थलों पर श्रमण शब्द जैन साधू के अर्थ में प्रयुक्त लाते है । कपाल और खट्वाक उपमुद्रा है। कापालिक
हुआ है। साधु इनका विशेषज्ञ होता है तथा भगासनस्थ होकर
६.-चित्रशिखण्डि--(९२) प्रात्मा का ध्यान करता है। मनुष्य की बलि देकर शिव चित्रशिखण्डि का अर्थ श्रुतदेव ने सप्तर्षि किया है। के भैरव रूप की पूजा की जाती है। भैरवी की भी खून मरीचि अंगिरा, अत्रि, पूलस्त्य, पुलह, ऋतु, और वशिष्ट के साथ पूजा की जाती है । कापालिक कपाल में से रक्त में सात प्रति माला
| स रक्त ये सात ऋषि सप्तर्षि कहलाते थे। सोमदेव ने इनका पान करते है।५।
विशेषण "मब्रह्मचाग्निा" दिया है। ये सात ऋषि प्राचार, ४–कुलाचार्य या कोल-(४४)
विचार और साधना मे समान होने के कारण ही सभवतया कापालिकों की तरह कौल भी शैव सम्प्रदाय की
एक श्रेणी में बाधे गये । इन ऋषियों के शिष्य भी शायद एक शाखा थी। मोमदेव ने कुलाचार्य का दो बार उल्लेख
चित्रशिखण्डी के नाम से प्रसिद्ध हो गये हों। किया है (४४, पू०, २६६, उत्त०) मारिदत्त को एक
७-जटिल (४०६ उत्त०) कुलाचार्य ने ही विद्याधर लोक को जीतने वाली कग्वाल
यशस्तिलक में जना के लिए जटिलों के साथ पालाप, की शप्ति के लिए चण्डमारी को सभी जीवो के जोड़ों की बग्नि देने की बात कही थी।६।।
आवाम और सेवा का निषेध किया गया है२६ । जटिल
भी गंव मत वाले साधु कहलाते थे। मामदेव के कथन के अनुसार कोल मम्प्रदाय की मान्यताएँ इस प्रकार थीं-'मभी प्रकार के पेय-अपय,
८-देशयति (२६५, ४०६, उन०) भक्ष्य-अभक्ष्य प्रादि म निःशक चिन होकर प्रवृत्ति करने
देशयति या दशवनि एकादश प्रतिमाधारी जैन श्रावक से मोक्ष की प्राप्ति होती है२७ ।
को कहते है । मुनि के एक देश मयम का पालन करने के सोमदेव के अनुसार कापालिक त्रिक मत को मानने कारण इस दशवनि कहा जाता है । यह श्रावक या तो दो थे । त्रिक मत के अनसार मद्य-मास पी खाकर प्रसन्न
चादर रखता है या केवल एक पावर
गोटी मात्र दो चादर सिकरवार
वाले को क्षुल्लक तथा कवल लगोटी वाल को ऐलक कहा और पार्वती के समान पाचरण करता हुआ शिव को जाता है।
E-देशक (३७७, उत्त०) २४. सङ्ग कापालिका यी-पाप्लुत्य दण्डवत्सम्यग्ज- जैन साधु जो पठन पाठन कार्य करते है उन्हें उपा
पेन्मन्त्रमुपोपितः, २८१, उत्त० । २५. उद्धृत-हान्दिकी-यशस्तिलक एण्ड इडियन
२८. तथा च त्रिकमनोनि-'मदिगमोदमेदुरवदनम्तरकल्चर, ३५६
मम्मप्रमन्नहृदयः मव्यपार्श्वविनिवेशितणक्तिः शस्ति२६. विद्यापरलोकविजयिनः करवालस्य सिद्धिर्भवतीति मुद्रामनधर म्बय मुमामहेम्बारायमणः कृष्णया मी.
वीरभैरवनामकान्कुलाचार्यकादुपश्रुष, ४४ णीश्वरमागधयेदिनि, २६६, उत्त. २७. सर्वेषु पेयापेयभक्ष्याभक्ष्यादिषु निःशकचित्ताद्वृत्तात्, २६. जटिलाजीवकादिमि । सहावासं सहालापं तत्सेवा च इति कुलाचार्यकाः, २६६, उत्त.
विवजयन् । ४०६, उन.