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अनेकान्त
वर्ष की अवस्था में ही प्रवजित हो गये थे१३ । एक स्थल यशस्तिलक में प्राजीवकों का उल्लेख अत्यधिक पर यशोधर श्रुति की साक्षी देता हमा कहता है कि श्रुति महत्वपूर्ण है, इससे यह ज्ञात होता है कि दशवीं शताब्दी का यह एकान्त कथन नहीं है कि 'बाल्यावस्था में विद्या तक पाजीवक सम्प्रदाय के साधु विद्यमान थे। प्रादि, यौवन में काम तथा वृद्धावस्था में धर्म मोर मोक्ष प्राजीवक सम्प्रदाय के प्रणेता मंखलिपुत्त गोशाल का सेवन करो, प्रत्युत यह भी कथन है कि प्रायु प्रनित्य भगवान महावीर के समसामयिक तथा उनके विरोधी है इसलिए यथायोग्य रूप से इनका सेवन करना थे। जैनागमों में इसके अनेक उल्लेख मिलते हैं१६ । चाहिए१४।'
आजीवकों की अपनी कुछ विचित्र सी मान्यताएं थीं। जैनागमों में बाल्यावस्था में प्रवजित होने के अनेक
गोशाल पूर्ण नियतिवाद में विश्वास करते थे। 'जो होना उल्लेख मिलते है । प्रतिमुक्तककुमार इतनी छोटी अवस्था
है वही होगा' यह नियतिवाद की फलश्रुति है। गोशाल में साधु हो गया था कि एक बार वर्षा के पानी को बान्ध
का कहना था कि सत्वों (जीवों) के क्लेश का कोई हेतु कर उममे अपना पात्र नाव की तरह तैरा कर खेलने नहीं है। बिना हेतू और बिना प्रत्यय के सत्व क्लेश पाते लगा था१५ । गजसुकुमार गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने के
हैं, स्वय कुछ नहीं कर सकते, दूसरे भी कुछ नहीं कर पूर्व ही सन्यस्त हो गये थे१६।
सकते। सभी मत्व भाग्य और संयोग के फेर मे छः जैन धर्म सिद्धान्ततः भी मायु के आधार पर प्राश्रमों
जानियों में उत्पन्न होते है और सुख दुःख भोगते हैं। का वर्गीकरण नहीं मानता। सोमदेव ने इस तथ्य को
सुख दुख द्रोण से तुले हुए हैं, संसार में घटना-बदना. यशस्तिलक में प्रकारान्तर से स्पष्ट किया है१७ ।
उत्कर्ष-अपकर्प कुछ नही होता२० । परिवाजित या मंन्यस्त व्यक्ति
२-कर्मन्दी (१३४, ४०८) परिव्रजित या सन्यस्त हुए लोगों के लिए यशस्तिलक यशस्तिलक में कर्मन्दी का दो बार उल्लेख है। इसका में अनेक नाम पाए हैं। ये नाम उनके अपने धार्मिक
धामिक अर्थ थतदेव ने तपम्वी किया है२१ । पाणिनि ने कर्मन्द सम्प्रदाय का प्रतिनिधित्व करते हैं
भिक्षुषों का उल्लेख किया है२२ । मा-भवतया जिस नरह १-पाजीवक (४०६, उत्त.)
पाराशर के शिष्य पाराशर्य, शुनक के शौनक आदि कहप्राजीवक सम्प्रदाय के साधुओं के साथ जैन श्रावक
लाते थे उसी तरह कर्मन्द मुनि के शिय कर्मन्दी कहलाते को सहालाप, सहावास तथा उनकी सेवा करने का निषेध होंगे। यशस्तिलक के उल्लेख से ज्ञात होता है कि कर्मन्दी किया गया है१८ ।
भिक्षु एकान्त रूप से मोक्ष की साधना में लगे रहते थे १३. अष्टवर्ष-देशीयतयादिरूपायोग्यत्वादिमा देशयतिश्ला- तथा स्वैर-कथा और विषय-सुख में किंचित् भी रुचि नहीं धनीयाशां दशामाथित्य, २६५ उत्त०
दिखाने थे२३। १४. बाल्ये विद्याग्रहणादीनान् कुर्यात्, कामं यौवने, स्थविरे ३. कापालिक-(२१, उत्त०) धर्मम् मोक्ष चेत्यपि नायमेकान्ततो नित्यत्वादायुषो
लिक शंव सम्पनाय की एक शाखा के साधु यथोपपदं वा सेवेतेत्यपि श्रुतिः, ७६ उत्त.
१९. देखिए-मेरा लेख-'महावीर के समकालीन १५. भगवति० ५।४
प्राचार्य', 'श्रमण' मासिक, महावीर जयन्ती १६. अंतगडदशसत, वर्ग ३
मक १९६१ १७. ध्यानानुष्ठानशक्त्यात्मा युवा यो न तपस्पति । २१. कर्मन्दीव तपस्वीब, वही, सं० टी० सः जराजर्जरोंन्येषां तपो विघ्नकरः परम् ।। २२. कर्मन्दकृशाश्वादिनिः, ४१३।११
७७, उत्त.
२३. एकान्ततः परमपदस्पृहयालुतया स्वैरकथास्वपि १८. माजीवकादिमिः । सहावास सहालापं तत्सवां च
कर्मन्दीव न तुप्यति विषविषमोल्ले खेष विषयसुखेषु, विवर्जयेत्, ४०६, ३ .