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यशस्तिलक में चर्चित-आश्रम व्यवस्था और संन्यस्त व्यक्ति
डा० गोकुलचन्द्र जैन एम. ए. पो-एच.ओ.
सोमदेव (९५९ ई.) कालीन समाज में पाश्रम ३-वृद्धावस्था में समस्त परिग्रह त्याग कर संन्यस्त व्यवस्था के लिए वैदिक मान्यताएँ प्रचलित थीं। यद्यपि होना प्रादर्श था७ । इस अवस्था में अधिकांशतया लोग यशस्तिलक में स्पाट रूप से ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ घर छोड़कर तपोवन चले जाते थे। चतुर्ष पुरुषार्थ
और मन्याम प्राथम का उल्लेख नहीं है फिर भी आश्रम (मोक्ष) की साधना करना इस अवस्था का मुख्य ध्येय व्यवस्था की पर्याप्त जानकारी प्राप्त होती है।
था । नवयुवक को प्रवजित होने का लोग निषेध करते बाल्यावस्था को विद्याध्ययन का काल, यौवनावस्था थ१०। को अर्थोजन का काल तथा वृद्धावस्था को निवृत्ति का प्रवजित होते समय लोग अपने परिवार के सदस्यों काल माना जाता था।
तथा इष्ट मित्रों आदि से सलाह और अनुमति लेते थे। १--गुरु और गुरुकुल विद्याध्ययन की धुरी थीं। यशोधर कहता है कि नई अवस्था होने के कारण माता. बाल्यावस्था विद्याध्ययन का स्वणकाल माना जाता था। पत्ना महारानी) युवराज (पुत्र) अन्तःपुर की स्त्रियां. यदि बाल्यकाल में विद्या नही पढी तो फिर जीवन भर पुरवृद्ध, मन्त्रिगण तथा मामन्तसमूह प्रवजित होने में तरहप्रयत्न करते रहने के बाद भी विद्या पाना कठिन हे२। तरह से रुकावट डालेगे११ । सम्राट् यशोधर जब प्रजित जिनकी विधिवत शिक्षा नहीं होनी या तो विद्याध्ययन होने लगे तो उन्होने अपने पुत्र को बुला कर अपना मनोकाल में ही प्रभता या लक्ष्मी सम्पन्न हो जाने है, वे बाद रथ प्रकट किया१२। में निरंकुश भी हो जाते है३ । राजपुत्र तथा जन माधारण
पाश्रम व्यवस्था के अपवाद सभी के लिए यह ममान बात है४ ।
यद्यपि सामान्य रूप से यह माना जाता था कि २-बाल्यावस्था या विद्याध्ययन के उपरान्त गादान बाल्यावस्था में विद्याध्ययन, युवावस्था में गृहस्थाश्रम दिया जाना तग विग्विन गहस्थाबम प्रवेश किया जाता
प्रवेश तथा वद्धावस्था में मन्यास ग्रहण करना चाहिए, था५ । युवावस्था में लोग अपने गुरुजनो की सेवा का
किन्तु इसके अपवाद भी कम न थे। यशस्तिलक का विशेष ध्यान रखते थे ।
नायक अभयरुचि तथा नायिका अभयमति अपनो आठ १. बाल्य विद्यागमैयंत्र यौवनं गुरुमेवया।
७. सर्वसगपरित्यागे. सगतं चरमं वयः, पृ० १९८ सर्वसंगपरित्यागः सगत चरम. वय ॥ पृ. १६८
८. कुलवृद्धाना च प्रतिपन्न-तपोवनलोकत्वात्, पृ. २६ २. न पुनगयु स्थितय इवानुपासितगुरुकुलस्य यत्नवत्यो
परवय.परिणतिदूतीनिवेदितनिसर्गप्रणयायाऽपि मरस्वत्यः। पृ० ४३२ ।।
स्तपोवनाश्रमरमाया., पृ० २५४ ३. बालकाल एव लब्धलक्ष्मीममागम.-अमंजातविद्या- ६.चिरायमाथितचतुर्थस्वार्थसमर्थनमनोरथमारा: वृद्धगुरुकुलोपासनः, निरंकुशतां नीयमानः, पृ. २६
पृ०२८४ ४. पृ० २३६.२३७
१०. नवे च वयसि मयि मंजातनिर्वद विधास्यन्त५. परिप्राप्तगोदानावसरश्च, पृ० २२७
अन्तरायः, पृ०७० उत्त. ६. यौवन गुरुसेवया, पृ० १६५
११ पृ. ७०-७१, उत्त० । १२-- पृ० २८४