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अनेकान्त
मेघराज, राघव मादि विद्वानों ने इस क्षेत्र को वन्दन किया हए। ये परम्पराएं बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ तक चलती है। इनके उल्लेख हमने 'तीर्थवन्दनसग्रह' में संकलित रहीं। सेनगण, बलात्कारगण और काष्ठासंघ के यहाँ के किये हैं।
भट्टारकों का परिचय हमने 'भट्टारक सम्प्रदाय' में विस्तार
से दिया है। विदर्भ के वर्तमान जैन मन्दिरों व मूर्तियों में ६. पातूर
से अधिकांश इन्हीं भट्टारकों द्वारा स्थापित हैं । ये मन्दिर अकोला जिले की बालापुर तहसील में पातूर ग्राम नागपुर, कामठी, कलमेश्वर, केलवद, व्याहाड, बाजारगांव, है। यहां दो मन्दिरों के अवशेषों से कई मूर्तिया प्राप्त हुई कोंढाली. पारशिवनी वर्धा, नांदगाव, अमरावती, मोशी, हैं। इनमें से एक मूर्ति का परिचय श्री बालचन्द्र जैन ने अंजनगांव, बालापुर, भंडाग, मुर्तिजापुर, वाढोना, भातअनेकान्त वर्ष १६ पृष्ठ २३६ में प्रकाशित किया है। कुली, चिखली, वाशिम, मेहकर, देउलगांव, जलगांवसं० १२४५ में स्थापित यह मूर्ति प्राचार्य धर्ममन की है जामोद देउलघाट आदि स्थानो में है। इनका विस्तृत तथा प्रब नागपुर के संग्रहालय में है। इसके लेख में धर्म- अध्ययन अभी नही हमा है। सेन की गुरुपरम्परा इस प्रकार बतलाई गई है-नवीर, सीक्सेन, विषसेन, पतिसेन तथा धमसेन | इन नामों के १० उपसहारशुद्ध रूप सम्भवतः नयवीर, शिवमेन, विष्णुमेन, मतिसेन यहाँ तक हमें विदर्भ में जैनधर्म की परम्पग के जो पौर धर्मसेन हैं। नामों से ये प्राचार्य सेनगण की परपरा पुरातन उल्लेख प्राप्त होते हैं उनमें से कुछ का मग्रह के ज्ञात होते हैं । किन्तु नौवीं शताब्दी मे प्रचलित वीरसेन किया है। इस क्षेत्र में श्वेताम्बर समाज की मस्या भी जिनसेन की परम्परा ने इनका सम्बन्ध स्पष्ट नहीं है। काफी है और उनके कुछ मन्दिर आदि भी है। लेकिन सोलहवी शताब्दी में कारंजा में सेनगण की जो परम्पग इनके परिवय का अवसर हमे कम मिला है। मन १९६१ स्थायी हुई उससे भी इनका सम्बन्ध स्पष्ट नहीं है। की जनगणना के अनुमार विदर्भ क्षेत्र में जनों की मख्या नागपुर सग्रहालय की एक अन्य मूर्ति भी स० १२४५ की लगभग ४५००० है अर्थात् लगभग दस हजार जैन परिवार है जिसके लेख मे माणिकमेन वीरसेन तथा वाजसेन ये इस क्षेत्र में है। इनमे सैतवाल, परवार, खडेलवाल, नाम पाये जाते हैं (जन शिलालेख संग्रह भा. ४ पृष्ठ बघेरवाल, अगरवाल, गंगेरवाल, पद्मावतीपोरवाल, धाकड. २०६)।
जेबी, बदनोरे, अोमवाल, पोरवाल आदि जातियो के लोग
हैं। इस क्षेत्र की शैक्षणिक, आर्थिक तथा राजनीतिक ९ कारजा
प्रगति मे जैनों ने पर्याप्त योगदान दिया है । किन्तु इसका __ सोलहवीं शताब्दी में अकोला जिले के कारंजा नगर मूल्यांकन एक स्वतन्त्र विस्तृत अध्ययन की अपेक्षा में जैन प्राचार्यों की तीन परम्पराओं के केन्द्र स्थापित रखता है।
जातक में अहिंसादृष्टि
यो प्रत्त दुक्खेन परस्स दुक्खं, सुखेन वा प्रत्त सखं बवाति ।
यषेव इदं मयह तथा परेसं, सो एवं जानाति स वैविधम्म ॥२७॥ अर्थ-जो निज के दुःख की तरह पर के दुःख को अनुभूति करता है, मिज के सुख से पर के सुख की
तुलना करता है। जो समझता है, जानता है कि जैसे मुझे सुख-दुःख होता है, वैसे ही अन्य को होता है, वही धर्म को जानता है।