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________________ जंन वर्शन में अधिगम-चिन्तन स्वार्थ प्रतिपत्ति और वचनात्मक परार्थ श्रुत-प्रमाण द्वारा वह न अज्ञान रूप है, न प्रमाण रूप है और न परार्थ प्रतिपत्ति होती है । ज्ञाता-वक्ता जब किसी वस्तु का प्रमाण रूप । अपितु प्रमाण का एक देश है । इसीसे उसे दूसरे को ज्ञान कराने के लिए शब्दोच्चारण करता है तो प्रमाण से पृथक् अधिगमोपाय निरूपित किया गया है। वह अपने अभिप्रायानुसार उस वस्तु में ग्रंश कल्पना (घट, अंश प्रतिपत्तिका एक मात्र साधन वही है। अंशी वस्तु पट. काला, सफेद, छोटा, बड़ा आदि भेद) द्वारा उसका को प्रमाण से जानकर अनन्तर किसी एक अंश अबस्था श्रोता या विनेयों को ज्ञान कराता है। ज्ञाता या बक्ता द्वारा पदार्थ का निश्चय करना नय कहा गया है। का यह शब्दोच्चारण उपचारतः वचनात्मक परार्थ श्रुत- प्रमाण और नय के पारस्परिक अन्तर को स्पष्ट करते प्रमाण है और श्रोता को जो वक्ता के शब्दों से बोध होता हुए जैन मनीषियों ने कहा है कि प्रमाण समप्र को विषय है वह वास्तव में परार्थ प्रमाण है तथा ज्ञाता या वक्ता का करता है भोप नय प्रसमगन को। जो अभिप्राय रहता है और जो अंशग्राही है वह जानात्मक स्वार्थ श्रुत-प्रमाण है। निष्कर्ष यह कि ज्ञानात्मक गृहीतस्यार्थस्यांशे नया प्रवर्तन्ते, तेषां निःशेष देशस्वार्थ श्रुत-प्रमाण मोर वचनात्मक परार्थ श्रुत-प्रमाण दोनों कालार्थगोचरत्वात् मत्यादीनां तदगोचरत्वात् । न हि मनोमतिरप्यशेषविषया करणविषये तज्जातीये वा नय हैं। यही कारण है कि जैन दर्शन-ग्रंथों में ज्ञान-नय और वचन-नय के भेद से दो प्रकार के मयों का भी प्रवृत्तेः। विवेचन मिलता है। त्रिकालगोचराशेष पदार्थाशेषु वृत्तितः । केवलज्ञानमूलत्वमपि तेषा न युज्यते ॥२६॥ उपर्यक्त विवेचन से स्पष्ट है कि नय श्रुत प्रमाण का परोक्षाकारतावृत्तेः स्पष्टत्वात् केवलस्य तु । अंश है, वह मति, अवधि तथा मनः पर्यय ज्ञान का प्रश श्रुतमूला नयाः सिद्धा वक्ष्यमाणाः प्रमाणवत् ॥२७॥ नहीं है, क्योंकि मत्यादि द्वारा ज्ञान सीमित अर्थ के अंश यथैव हि श्रुतं प्रमाणमधिगमज सम्यग्दर्शनं निबन्धमें नय की प्रवृत्ति नहीं होती , नय तो समस्त पदार्थों के नतत्त्वार्थाधिगमोपायभूतं मत्यवधिमनः पर्ययकेवलाअंशों का एकैकशः निश्चायक है, जब कि मत्यादि तीनों शान उनको विपय नहीं करते । यद्यपि केवलजान उन त्मकं च वक्ष्यमाणं तथा श्रुतमूला नयाः सिद्धास्तेषां परोक्षकारतया वृत्तः । केवलमूला नयास्त्रिकालसमस्त पदार्थों के अंशों में प्रवृत्त होता है और इसलिए गोचराशेपपदार्थाशेपु वर्तनादिति न युक्तमुत्पश्याम नय को केबलज्ञान का अंश माना जा सकता है किन्तु स्तद्वत्तेषां स्पष्टत्व प्रसंगात् ।' नय तो उन्हें परोक्ष (अस्पष्ट) रूप से जानता है --विद्यानन्द, तत्त्वार्थ श्लो०१-६, पृ० १२४ । और केवलज्ञान प्रत्यक्ष (स्पष्ट) रूप से उनका साक्षात्कार करता है अत: नय केवल मूलक भी नहीं १ (क) एवं हि उक्तम्-'प्रगृह्य प्रमाणतः परिणति है। वह सिर्फ परोक्ष श्रुत प्रमाण मूलक ही है२।। विशेषादर्थावधारणं नयः ।' -सवार्थ सि. १-६। १. 'ततः परार्थाधिगमः प्रमाणनयैर्वचनात्मभिः कर्त्तव्यः (ख) 'वस्तुन्यनेकान्तात्मन्यविरोधेन हि हेत्वर्पस्वार्थ इव ज्ञानात्मभिः (प्रमाणनयः) अन्यथा णात् साध्यविशेषस्य याथात्म्य प्रापणप्रवण प्रयोगो कात्स्न्येनैकदेशेन तत्त्वार्थाधिगमानुपपत्तेः ।' नयः।' -विद्यानन्द, तत्त्वार्थ श्लोक वा० पृ० १४२ । सर्वा०सि०१-३३ । २. 'मतेरवधितोवापि मन: पर्ययतोऽपि वा। २. (क) सकलादेशः प्रमाणाधीनो विकलादेशो नयाज्ञातस्यार्थस्य नाशेऽस्ति नयानां वर्तनं ननु ॥२४॥ धीनः । निःशेष देशकालार्थ गोचरत्व विनिश्चयात् । -स०सि०१-६॥ तस्येति भाषितं कैश्चिद्यक्तमेव तथेष्टितः ॥२५॥ (ख) 'अर्थस्यानेकरूपस्य धीःप्रमाणं तदंशधीः । न हि मत्यवधिमनः पर्ययाणामन्यतमेनापि प्रमाणेन नर्योधर्मान्तरापेक्षी दुर्नयस्तन्निराकृतिः ॥
SR No.538018
Book TitleAnekant 1965 Book 18 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1965
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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