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अनेकान्त
और जिस प्रकार समुद्र
उपसंहार :
प्रखर ताकिक विद्यानन्द ने तो उपर्युक्त प्रश्नों का उनका समन्वय प्रादि कोई भी नहीं बन सकता। स्वार्थ युक्ति एवं उदाहरण द्वारा समाधान करके प्रमाण और नय प्रमाण गगा है। वह बोल नहीं सकता और न विविध पार्थक्य का बड़े अच्छे ढंग से विवेचन किया है। वे जैन वादों एवं प्रश्नों को सुलझा सकता है। वह शक्ति नय में दर्शन के मूर्धन्य ग्रन्थ अपने तत्त्वार्थ श्लोक वार्तिक में ही है । अतः जैन दर्शन का नयवाद एक विशेष उपलब्धि में कहते हैं कि नय न प्रमाण है और न अप्रमाण, अपितु है और भारतीय दर्शन को अनुपम देन है। प्रमाणक देश है। ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार समुद्र से लाया गया घडाभर पानी न समुद्र है न असमुद्र अपितु समुद्रक देश है। यदि उसे समुद्र मान लिया जाय तो शेष
वस्तु अनेक धर्मात्मक है, उसका पूरा बोध हम इन्द्रियों सारा पानी असमुद्र कहा जायगा और यदि उसे समुद्र या वचनों द्वारा नहीं कर सकते। हां नयों के द्वारा एककहा जाय तो बहुत समुद्रों की कल्पना करना पड़ेगी। एक धर्म का बोध करते हुए अनगिनत धर्मों का ज्ञान कर ऐसी स्थिति में किसी को 'समुद्र का ज्ञाता' नहीं सकते हैं। वस्तु को जब द्रव्य या पर्याय रूप, नित्य या कहा जाएगा अपितु उसे समुद्रों का ज्ञाता माना अनित्य एक या अनेक प्रादि कहते हैं तो उसके एक अंश जायगा।
का ही कथन या ग्रहण होता है। इस प्रकार का ग्रहण
नय द्वारा ही सम्भव है, प्रमाण द्वारा नहीं। प्रसिद्ध जैन प्रतः नय को प्रमाणकदेश मानकर उसे जैन दर्शन
तार्किक सिद्धसेन ने नयवाद की आवश्यकता पर बल देते में प्रमाण से पृथक् अधिगमोपाय बताया गया है । वस्तुतः हुए लिखा है कि जिनते वचन-मार्ग हैं उतने ही नय हैं । अल्पज्ञ ज्ञाता, वक्ता और थोता की दृष्टि से उसका प्रतएव मूल में दो नय स्वीकार किये गये हैं२:पृथक् निरूपण अत्यावश्यक है । संसार के समस्त व्यवहारों १. द्रव्याथिक और २. पर्यायाथिक । द्रव्य, सामान्य, और वचन प्रवृत्ति नयों के प्राधार पर ही चलते हैं। अन्वय का ग्राहक द्रव्याथिक और पर्याय विशेष, व्यतिरेका अनन्त धर्मात्मक वस्तु के एक-एक अंश को जानना या का ग्राही पर्यायाथिक नय है। द्रव्य और पर्याय ये सब कह कर दूसरों को जनाना नय का काम है और उस पूरी मिल कर प्रमाण का विषय । इस प्रकार विदित है कि वस्तु को जनाना प्रमाण का कार्य है। यदि नय न हो तो प्रमाण और नय ये दो वस्तु-अधिगम के साधन हैं और विविध प्रश्न, उनके विविध समाधान, विविध वाद और दोनों ही अपने-अपने क्षेत्र में वस्तु के ज्ञापक एवं व्यवस्था
१. (क) ना प्रमाणं प्रमाणं वा नयो ज्ञानात्मको मतः । स्यात्प्रमाणैकदेशस्तु सर्वयाऽप्यविरोधतः ॥
१. 'जावइया वयपहा तावइया चेव होंति णयवाया' त० श्लो० पृ० १२३ ।
-सन्मति तर्क गा० । (ख) 'नायं वस्तु नचा वस्तु वस्त्वंशः कथ्यते यतः। २. 'नयो द्विविधः, द्रव्याथिकः पर्यायाथिकश्च । पर्यायानासमुद्रः समुद्रो वा समुद्रांशो यथोच्ते ।
थिकनयेन भावतत्त्वमधिगन्तव्यम् । इतरेषां त्रयाणां द्रव्यातन्मात्रस्य समुद्रत्वे शेपांसस्या समुद्रता।
थिकनयेन, सामान्यात्मकत्वात् । द्रव्यमर्थः प्रयोजनमस्येत्यसो समुद्रबहुत्वं वास्यात्तच्चेत्कास्तु समुद्रवित् ।। द्रव्याथिकः । पर्यायोऽर्थः प्रयोजनमस्येत्यासौ पर्यायाथिक:
ते० श्लो० पृ० ११८ । तत्सब समुदितं प्रमाणेनाधिगन्तव्यम् । सर्वार्थसि० १-३३ ।