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________________ बजरंग गढ़ का विशद् जिनालय श्री नीरज जैन मध्य प्रदेश के गुना नगर के समीप लगभग ५ मील अंकित हैं जो अब अत्यन्त अस्पष्ट हो जाने से पढ़े नहीं पर बजरंग गढ़ नाम का छोटा सा ग्राम है। छोटी-छोटी जाते हैं। शासन देवियों के द्वारा ये तीर्थंकर पहिचाने जा सुन्दर पहाड़ियों से घिरा हुमा यह ग्राम पहले इस इलाके सकते हैं। इस तोरण में प्रादि मंगल-स्वरूप भगवान का प्रमुख नगर था। व्यापार की दृष्टि से इसका बड़ा आदिनाथ का भी मनोहर अंकन है। परिक्रमा में बाह्य महत्त्व था और एक वैभवशाली केन्द्र के रूप में यह स्थान भित्ति पर बायीं ओर एक खडा हा यक्ष तथा प्रद प्रसिद्ध था। कालान्तर में यहाँ की श्री विनष्ट होती गई, पर्यक आसन बैठी हई यक्षी मूर्ति है। पीछे की ओर एक इस ग्राम के अधिकांश व्यवसायी कुटुम्बों ने गुना तथा चतभजी यक्षिणी है जिसके हाथों में कमल, नाग पाश, अन्य समीपवर्ती नगरों में अपना निवास बना लिया और कमण्डल और अभय मुद्रा हैं। इसी के ऊपर एक प्रस्पष्ट यह स्थान दिनों दिन छोटा और उपेक्षित होता गया । चक्र तथा नवग्रह बने हैं। दोनों ओर दो-दो हाथ ऊंची इतना होते हुए भी यह स्थान इतिहास के पन्नों से दो मूर्तियां देवी अम्बिका और उनके यक्ष की हैं। सर्वथा लोप नहीं हुआ तथा आज भी अपनी अहमियत अम्बिका की गोद का बालक, सवारी का सिह और उनके बनाये हुये है उसका श्रेय यहाँ के मध्य कालीन विशाल गले में बैजयंती माल स्पष्ट दृष्टव्य है । दाहिनी ओर दिगम्बर जैन मन्दिर को ही है। इसी मन्दिर का परिचय आदिनाथ की देवी चक्रेश्वरी की ललितासन, चतुर्भुज, इस लेख में दिया जा रहा है। सुन्दर मूर्ति है। इसके हाथों के चक्र दर्शनीय बन पड़े हैं। यह मन्दिर मूलतः नागर शैली का पचायतन मन्दिर । पार्श्व में इनका यक्ष गोमुग्व भी अपने प्रायुध और वाहन रहा होगा। खजुराहो, ऊमरी, देवगढ़, अहार, बानपुर के साथ अंकित है। इस यक्ष युगल के ऊपर एक अन्य आदि की तरह इसका निर्माण भी पापाण से हरा होगा यक्षिणी मूर्ति दो हाथ ऊँची, अष्टभुजी, खड़ी हुई बनी है और शिखर संयोजना कभी इसकी धवन कीति पताका से जो अपने रूप, सज्जा और अनुपात के कारण अत्यन्त अलंकृत रही होगी। बाद में इसका शिखर नष्ट हो जाने। सुन्दर और मनोहारिणी लगती है। शरीर का त्रिभंग तो पर मन्दिर के उसी अधिष्ठान पर वर्तमान गुम्बद वाले दर्शनीय है। हाथों में अक्षमाला, तूणीर, नागपाश, शख, शिखर महित आज मे लगभग दो सौ वर्ष पूर्व इम मन्दिर अंकुश, धनुष, तथा श्रीफल धारण किये हुये इस प्रतिमा का जीर्णोद्वार या पुननिर्माण हुआ होगा। के अलंकरण में पग-पायल, कटिबन्ध, हार, कुण्टल, भुज वन्ध, मणि वलय, मोहन माला, बैजयतीमाला तथा जटा____धरातल से लगभग १५ फुट तक का मन्दिर का मुकुट यादि सब स्त्र स्थान पर अंकित है। मूर्ति का एक अधिष्ठान ग्राज भी अपनी अपरिवर्तित अवस्था में देखा दाहिना हाय खंडित है तथा दोनों ओर नारियल से ढके जा सकता है। मन्दिर की छन तथा द्वार का जारी हुए कलश स्थापित हैं जो मंगल के प्रतीक है , तोरण भी मन्दिर का वही प्राचीन तोरण है जो मन्दिर के साथ बनाया गया था। इन अवशेषों की कला से और गर्भगृह में तीनों चक्रवतों तीर्थकरी गांति कुथु और मूर्ति लेखों से इस मन्दिर का निर्माण काल तेरहवी अरहनाथ को विशाल खड्गासन प्रतिमाएं स्थापित हैं। शताब्दी का प्रारम्भ माना जा सकता है। शांतिनाथ की पीठिका में "स० १२३६ फाल्गुन सुदि ५ द्वार तोरण पर दोनों ओर दो-दो हाथ ऊँची खड्- प्रतिष्ठापितम " यह लेख अकित है। सिंहासन के बीच मे गासन प्रतिमाएँ अवस्थित हैं। इन पर कुछ लेख भी धर्मचक्र तथा दोनों ओर क्रमशः गज, सिह, अश्व आदि
SR No.538018
Book TitleAnekant 1965 Book 18 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1965
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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