________________
६२
मागम जैसे परापेक्ष ज्ञानों का समावेश इसी परोक्ष (मति उसका वह ज्ञान अथवा वचन 'नय' कहा जाता है और
और श्रुत) में किया गया है। इस तरह प्रत्यक्ष और जब पदार्थ में अंश कल्पना किये बिना उसे समग्ररूप में परोक्षरूप इन मति, श्रुत, अवधि, और केवलज्ञान से ग्रहण करता है तब वह ज्ञान प्रमाण रूप से व्यवहृत होता अधिगम होता है। स्मरण रहे कि इन्द्रियादि की है। ऊपर हम देख चुके हैं कि मति, श्रुत, अवधि, मनः अपेक्षा से होने वाले चाक्षुस प्रादि ज्ञान प्रवृत्ति-निवृत्तिरूप पर्यय और केवल इन पांच ज्ञानों को प्रमाण कहा गया है लोक संव्यवहार के कारण होते हैं और उन्हें लोक में और उन्हें प्रत्यक्ष तथा परोक्ष इन दो भेदों (वर्गों) में 'प्रत्यक्ष' कहा जाता है। अतः इन ज्ञानों को लोक व्यव- विभक्त किया गया है। जिन ज्ञानों में विषय स्पष्ट एवं हार की दृष्टि से जैन चिन्तकों ने सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष अपूर्ण झलकता है उन्हें परोक्ष तथा जिनमें विषय स्पष्ट भी कहा है। वैसे वे हैं परोक्ष ही।
एवं पूर्ण प्रतिविम्बित होता है उन्हें प्रत्यक्ष निरूपित किया प्राषिगम का हेतु नय और प्रमाण से उसका कथंचित् गया है। मति और श्रुत इन दो ज्ञानों में विषय स्पष्ट प्रार्थक्यः
एवं अपूर्ण झलकता है, इसलिए उन्हें 'परोक्ष' कहा गया अब प्रश्न है कि नय भी यदि अर्थाधिगम का साधन है तथा शेष तीन ज्ञानों (अवधि, मनः पर्यय और केवल) है तो वह ज्ञान रूप है या नहीं? यदि ज्ञानरूप है तो वह में विषय स्पस्ट एवं पूर्ण प्रति फलित होता है। अत: उन्हें प्रमाण है या अप्रमाण ? यदि प्रमाण है तो उसे प्रमाण 'प्रत्यक्ष प्रतिपादन किया है। से पृथक प्राधिगम का उपाय बताने की क्या प्रावश्य
प्रतिपत्ति-भेद से भी प्रमाण-भेद का निरूपण किया कता थी? अन्य दर्शनों की भांति एकमात्र 'प्रमाण' को
गया है। यह निरूपण हमें पूज्यपाद देवनन्दि की सर्वार्थही अधिगमोपाय बताना पर्याप्त था? यदि अप्रमाण है
सिद्धि में उपलब्ध होता है। पूज्यपाद ने लिखा है कि तो उससे यथार्थ अर्थाधिगम कैसे हो सकता है, अन्यथा संशयादि मिथ्याज्ञानों से भी यथार्थ प्रर्थाधिगम होना
प्रमाण दो प्रकार का है:-१ स्वार्थ और २ परार्थ । श्रुत
ज्ञान को छोड़कर शेष चारों (मति, अवधि, मनः पर्यय चाहिए? और यदि नय ज्ञान रूप नहीं है तो उसे सन्नि
और केवल । ज्ञान स्वार्थ प्रमाण हैं, क्योंकि उनके द्वारा कर्षादि की तरह ज्ञापक स्वीकार नहीं किया जा सकता?
स्वार्थ (ज्ञाता के लिए) प्रतिपत्ति होती है, परार्थ (श्रोता ये कतिपय प्रश्न हैं, जो नय को प्राधिगमोपाय मानने वाले जैन दर्शन के सामने उठते हैं । जैन मनीषियों या विनय
या विनेय जनों के लिए) नहीं। परार्थ प्रतिपत्ति के तो ने इन सभी प्रश्नों पर बड़े ऊहापोह के साथ विचार एकमात्र साथ
एकमात्र साधन वचन हैं और ये चारों ज्ञान वचनात्मक
नहीं हैं। किन्तु श्रुत प्रमाण स्वार्थ और परार्थ दोनों प्रकार किया है।
इसमें सन्देह नही कि नय को अर्थाधिगमोपाय के का ह । ज्ञानात्मक प्रमाण का पराथ-प्रमाण कहा गया है। रूप में अन्य दर्शनों में स्वीकार नहीं किया गया है और
वस्तुतः श्रुत-प्रमाण के द्वारा स्वार्थ-प्रतिपत्ति और परार्थजैनदर्शन में ही उसे अंगीकार किया गया है। वास्तव में
प्रतिपत्ति दोनों होती हैं। ज्ञानात्मक श्रुत-प्रमाण द्वारा 'नय' ज्ञान का एक अंश है। और इसलिए वह न प्रमाण
१. 'तज्जयति परं ज्योतिः समं समस्तैरनन्तपर्यायः । है और न अप्रमाण, किन्तु ज्ञानात्मक प्रकरण का एक देश
दर्पणतल इव सकला प्रतिफलति पदार्थमालिका यत्र ।।' है। जव ज्ञाता या वक्ता ज्ञान द्वारा या वचनों द्वारा
अमृतचन्द्र, पुरुषार्थसि० का० १। पदार्थ में अंश कल्पना करके उसे ग्रहण करता है तो
२. तत्र प्रमाणं द्विविधं स्वार्थ परार्थं च । तत्र स्वार्थ १. 'मतिः स्मृतिः संज्ञा चिन्ताभिनिबोध इत्यनन्तरम्' प्रमाणं श्रुतवय॑म् । श्रुतं पुनः स्वार्थ भवति परार्थ तत्त्वार्थ मू०१-१३ ।
च । ज्ञानात्मक स्वार्थ वचनात्मकं परार्थम् । तद्वि२. 'प्रमाणक देशाच नयाः.........' पूज्यपाद, सर्वार्थ- कल्पा नयाः ।
१-३२ ।
-पूज्यपाद, सर्वार्थसि०१-६।