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अनेकान्त
विवेक नायक और मोह प्रतिनायक है। प्रतिनायक धर्म उदै मन निर्मल माज, सब सुख लिए विवेक को राज। अपनी पूरी सैन्य शक्ति लगा कर विवेक को परास्त करना लालवास परकास रस, सफल भयो सब काज॥ चाहता है। परन्तु विवेक भी असाधारण शान्ति और विस्नु भक्ति मानन्द बढयो, अति विवेक के राज । अहिंसामय सैन्य-शक्ति से सम्पन्न है, अतः मोह के प्रत्येक तब लगि जोगी जगत गुरु, जब लग रहे उदास । आक्रमण को असफल कर देता है। प्रारम्भ में मोह और जब जोगी प्रासा लग्यो, जग गुरु जोगी दास । विवेक दो नपतियों के रूप में मिलते हैं। मोह विवेक को काशी नागरी प्रचारिणी की सं० १९८० की खोज अपनी अधीनता स्वीकार कराना चाहता है। विवेक मोह रिपोर्ट में दो लालदास नामक कवियों का उल्लेख है। को अपना सेवक कहता है । बात बढ़ जाती है और दोनों एक के सम्बन्ध में लिखा है 'अयोध्या निवासी' थे, पहले नपति अपनी-अपनी सेनाए लड़ाते हैं और अन्त में मोह बरेली में रहते थे। संवत १७२३ के लगभग वर्तमान थे। परास्त होकर विवेक की अधीनता स्वीकार कर लेता है। इनके विषय मे कुछ और ज्ञात नहीं। दूसरे लालदास के काम, क्रोध, माया, ममता आदि मोह की शक्तियाँ क्रमशः सम्बन्ध में लिखा है कि प्रागरा निवासी बादशाह अकबर निष्काम, दया, सरलता और उदारता आदि की शक्तियों के समकालीन, संवत १६४३ के लगभग वर्तमान, जाति से परास्त होती हैं।
के वैश्य, स्वामी अवधदास के पुत्र थे। विचारास्पद 'मोह जहाँ तक इन कृतियों की मौलिकता का प्रश्न है, विवेक युद्ध' (बनारसीकृत) में कवि ने अपने पूर्ववर्ती इनमें इसका एक लम्बी सीमा तक अभाव है। मल्ल ने जिन लालदास का उल्लेख किया है वे आगरा निवागी तो अनुवाद मात्र किया है जो मूल कृति [संस्कृत] के लालदास ही हो सकते है। इनसे ही कवि को अपनी सम्मुख उच्छिष्ट सा लगता है। यह अनुवाद ऐसा ही है रचना के लिए प्रेरणा मिली होगी। अयोध्या और बरली जैसा राजा लक्ष्मणसिंह का 'अभिज्ञान शाकुन्तलम्' का। प्रागर से पर्याप्त दूर भी है। जिन्हें शाकुन्तल का यह अनुवाद पढ़ने का अवसर मिला तीसरा 'मोह विवेक युद्ध' कविवर गोपालकृत है इसे है, और जो मूल कृति भी पढ़ चुके है, वे जानते है कि भी दादू महाविद्यालय जयपुर में मुझे देखने का सौभाग्य इससे उन्हें कितनी निराशा होती है ? फिर भी कथानक प्राप्त हुना। इसकी लिखाई पर्याप्त स्वच्छ है । छन्द सख्या उत्तम होने से कुछ प्राकर्षण है ही। उक्त 'मोह विवेक १३१ है । अन्तिम पंक्तियाँ ये है :युद्ध' मूल रचना की तुलना में ही छोटा पड़ता है, वैसे तो गुरु दादू परसाद थे, मोह विवेक सुनाई। यह एक श्रेष्ठ रंचना ही कही जाएगी। उक्त रचना की वक्ता श्रोता भगतिफल, जन गुपाल गुन गाई ॥ हस्तलिखित प्रनि देखने का सौभाग्य मुझे जयपुर के दि. इति श्री मोह विवेक संवादे संग्राम भगति योगिनाम जैन शोध संस्थान में मिला था। लालदासकृत 'मोहविवेक प्रताप सम्पूर्ण समाप्तं । अन्य संख्या ६३३ । इस कृति का युद्ध' मल्ल कविकृत का ही संक्षिप्त रूप है-भावानवाद लिपि संवत् नहीं दिया गया है। सम्भवतः अठारहवीं शती मात्र है। इसमें १३५ चौपाइयाँ कुछ दोहों सहित है। में इमकी लिपि की गई होगी। गोपाल कवि भी बनारसी इसमें नाटक जैसी अक आदि की पद्धति नहीं है। संवादों दास जी के पूर्ववर्ती या समकालीन थे। दादू सम्प्रदाय के का क्रम प्रादि से अन्त तक रखा गया है। लालदास की संक्षिप्त परिचय में (पृ० ७६ में) श्री मंगलदास जी रचना १७वीं शती के प्रथम चरण की प्रतीत होती है। स्वामी ने गोपाल कवि की मोहविवेक रचना का उल्लेख मुझे इसकी संवत् १६६७ की एक हस्तलिखित प्रति फर किया है और संवत् १६५० से १७३० के अन्तर्गत जयपुर वरी १९५८ में श्री अगरचन्द नाहटा के विशाल ग्रन्थालय
के पास-पास उनकी स्थिति का उल्लेख किया है। इस ' में देखने को मिली थी। इस कृति की अन्तिम पंक्तियाँ कवि की रचना भी प्रबोध चन्द्रोदय के प्राधार पर ही
है-उसीका संक्षिप्त भावानुवाद है। वही वर्णन, वे ही सहज सिंहासन बैठि विवेक, सुर नर मुनि कोनी अभिषेक। दष्टान्त, उपमाएं, वे ही संवाद और कथन शैली भी प्रायः विमल बाजे लगत नीसान, सबको पावै सुख को दान॥ वही है।