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________________ 'मोह विवेकयुद्ध' : एक परीक्षण चौथा 'मोहविवेक युद्ध' प्रसिद्ध जैन कवि बनारसी- माया मोह तजे घर वार, मोते भागि जाहि बनवास ।। दास के नाम से विख्यात है। यह वीर पुस्तक भण्डार कन्दमूल जे भछन कराही, तिनहूँ को मैं छाड़ों नाहीं। जयपुर से मुद्रित रूप में प्रकाशित भी हो चुका है । इसमें इक जागत सोवत मारू, जोगी, जती, तपी संहार। ११० चौपाइयां-दोहे हैं । वीरवाणी के वर्ष ६ के अङ्क महादेव और मोहनी, ब्रह्मा और उनकी कन्या, इन्द्र २३-२४ में थी मगरचन्द नाहटा ने भी इसे पूरा प्रका- और उनकी गुरुपत्नी, शृंगी ऋपि और कन्दमूल फलादि गित कर दिया था। जयपुर के बड़े मन्दिर के शास्त्र दिया था। जयपुर क बड़ मान्दर क शास्त्र का भक्षण करने वाले जोगी, जती, तपी इत्यादि की चर्चा भण्डार में इसकी पांच प्रतियाँ हैं, तीन गुटकों में और दो जैन पुराणों में कहीं नहीं आती। ऐसे ही लोभादिक स्वतन्त्र । जयपुर में उक्त प्रतियों में से एक प्रति मुझे (६६-६९) के अनेक प्रसंग है जिनका विवरण जैन ऐसी भी मिली जिसमें ११६ छन्द है। इस कृति का लिपि आम्नाय से रंचमात्र भी मेल नहीं खाता । अतः निश्चित है संवत् नहीं दिया गया है। सम्भवतः १८वीं शती की कि यह रचना प्रसिद्ध जैन कवि बनारसीदासकृत नहीं होगी। जैन विद्वानों में इस 'मोह विवेक युद्ध' के सम्बन्ध में इस कृति के बनारसीदासकृत होने में श्री अगरचन्द पर्याप्त मतभेद है। कुछ इसे बनारसीदासकृत मानते है नाहटा कुछ युक्तियां देते है। यथाहैं। पंडित नाथूराम प्रेमी और श्री अगरचन्द नाहटा ये श्री जिनक्ति सबढ़ जहां, सबंव मुनिवर संग। दो विद्वान इस सम्बन्ध में उल्लेखनीय है। प्रेमी जी उक्त रचना को प्रसिद्ध कपि बनारसीदासकृत नहीं मानते, जब कहै क्रांध तहां मैं नहीं, लग्यो सुप्रातम रंग:५८॥ कि नाहटा जी बनारसीदासकृत ही मानते हैं । उक्त दोनों अविभचारिणी जिनभगति, प्रातम अंग सहाय । विद्वानों ने इस सम्बन्ध में अपने अपने तर्क भी प्रस्तुत कहै काम ऐसी जहां, मेरी तहां न बसाय ॥५६॥ किये है। प्रेमी जी की मान्यता है कि बनारसीदास जी इन पंक्तियों में जैनत्व की स्पष्ट छाप है साथ ही की अन्य रचनाएँ सभी दृष्टियो से पुष्ट हैं जबकि मोह विवेक युद्ध में भापा, विषय और शैली का भारी शैथिल्य अन्त में 'वर्णन करत बनारसी समकित नाम सुहाय' से भी जैन कवि बनारसीदास ही ध्वनित होते हैं। इसी दृष्टिगोचर होता है। प्रत. यह रचना उक्त कवि की सम्बन्ध में एक बात और कही जाती है कि बनारसीदास कदापि नहीं हो सकती। हां, इसी नाम के किसी अन्य बनारसी की भले ही हो। बनारसीदास जी की प्रारम्भिक कृत मोह विवेक युद्ध की सभी प्रतियां जैन भण्डारों में ही रचना के रूप में भी वे इसे स्वीकार नहीं करते है। मिली है अतः इसके रचयिता जैन कवि बनारसीदास ही हो सकते हैं। इसी प्रकार की कुछ और भी युक्तियां हैं कविवर की रचनाओं के साथ इसकी कोई तुलना नहीं हो जिनका अब कोई महत्व नहीं रह गया है। सकती। न तो इसकी भाषा ही ठीक है और न छन्द ही। इसे उनकी प्रारम्भिक रचना मानना भी उनके साथ अभी कुछ समय पूर्व तक न जाने क्यों, संस्कारवश अन्याय करना है।" फिर बनारसीदास जी की अन्य रच- या श्रद्धावश कुछ बुधली सी ऐसी ही धारणा मेरी भी नामों में दृष्टान्त, उपमाएँ तथा पौराणिक उल्लेख प्रायः प्रायः बंध चली थी कि उक्त रचना बनारसीदास जी की ही - जैन पुराणों से ही पाये हैं, जबकि मोह विवेक में जितने होनी चाहिए। इस प्रकार सम्भवतः एक रचना को भी पौराणिक उदाहरण पाये हैं वे जैन शास्त्रों-पुराणों में बनारसीदासकृत बना कर मैंने उसके प्रति विशेष श्रद्धा कहीं नहीं आते । काम कहता है का परिचय देना चाहा था; परन्तु ऐसा करने से मेरा महादेव मोहनी नचायो, घर में ही ब्रह्मा भरमायो। विवेक और मेरी आत्मा सदैव हिचकते भी रहे । मैं इसी सुरपति ताकी गुरु की नारी, और काम को सके संहारी॥ प्रयत्न में रहा कि जब तक कोई पुष्ट प्रमाण न मिल जाय सिंगी रिषि सेवन महिमारे, मोतें कौन कौन नहि हारे। मुझे अपना मत निश्चित नहीं करना है। जब भी मैं
SR No.538018
Book TitleAnekant 1965 Book 18 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1965
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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