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अनेकान्त
रचना पढ़ता तो मेरी उक्त आस्था उसके कलेवर रचना जन गोपालशैली एवं भाषा शैथिल्य को देख कर डिग जाती थी और स्वामी सेवक सिख गुरु, संत मंत सबवाव । यही सोचता था कि यह रचना बनारसीदास जैसे प्रौढ हंसी चिकारी जब बगी, जन गोपाल उपाय। प्रतिभा सम्पन्न कवि की कदापि नहीं हो सकती। बनारसी
स्वामी सेवक सिख गुरू, संत मंत मम काज । सन् १९५८ के प्रारम्भ में जब मैंने दादू महाविद्यालय
लागी लोभ सारी दुनी, तिनके धरम न लाज ||७२।। जयपुर में गोपालकविकृत 'मोह विवेक युद्ध' की हस्तलिखित प्रति देखी और उससे बनारसादासकृत 'मोह
इस प्रकार के दोहे जिनमें कहीं-कहीं रंचमात्र का विवेक' को मिलाया तो मेरे पाश्चर्य का ठिकाना न रहा।
भाषा में अथवा अर्थ में अन्तर है, मुश्किल से पूरी कृति इन दोनों कृतियों में १०-२० दोहा, चौपाइयों को छोड़
में ४-६ ही हैं। कुछ दोहे बनारसी नामावली कृति में से कर पाद्यन्त अक्षरश: साम्य है। दोहों में जहाँ गोपाल । स्वतन्त्र भी हैं यथा-६, १०, ११ १८, ३०, ३२, ३६, कवि की छाप है वहां बनारसी की कर दी गई है और ४३, ४७, ६१, ५४, ८४, ९६ । कुछ चौपाइयां गोपालसब ज्यों का त्यों रख दिया गया है, यदि कहीं किसी कृत में से बनारसी नामाङ्कित कृति में नहीं ली गई हैं। वैष्णव देवता का नाम पाया है तो उसे बदलकर जैन
शेष सम्पूर्ण कृति में पूर्णतया (अक्षरशः) साम्य है । स्पष्ट
शप सम्पूर्ण कृात म पूर्णतया (3 देवता या जिन शब्द का प्रयोग किया गया है।
है कि पूर्ववर्ती गोपाल कवि की इस कृति में पूरी नकल
की गई है। देखिए
इस प्रकार इन दोनों कृतियों का मिलान करने के जन गोपाल
पश्चात् यह तो निश्चित है ही कि यह कृति मौलिक नहीं प्रविभचारिणी भक्ति जहां, गुरु गोविनय सहाय। है। इसमें भावों की ही नहीं अपितु भाषा, शैली आदि
जन गोपाल फल को नहीं, तह पं कहूँ न बसाय ॥ सभी की पूरी नकल है। बनारसी
जयपुर के दादू मन्दिर से जब मैं दोनों कृतियों की अविभचारिणी जिन भगति, प्रातम अंग सहाय। तुलना करके लोट रहा था तो मेरा मन, मेरी तर्कशक्ति
कहै काम ऐसी जहां, मेरी तहं न बसाय ॥ और हृदय न जाने कितने प्राबेग, आवेश, चिन्तन और जन गोपाल
घृणा में डूबने लगा, मुझे अन्त में अनेक दृष्टियों से विचार हालाहलु खाहै मर, जल में बूढ़े जीव । करने पर यह स्पष्ट लगा कि बनारसीदास जैसे अध्यात्म प्रमवा देखत ही मर, जन गोपाल बिन पीव ॥ संत एवं प्रौढ प्रतिभा सम्पन्न कवि इस निन्द्य कर्म के
सम्बन्ध में सोच भी न सके होंगे । निश्चित रूप से किसी बनारसी
मूर्ख जैन ने 'बनारसी' के नाम को छप लगा कर और विष मुख माहीं मेले मरई, जल में बूढ़ पावक जरइ।
दो चार स्थानों पर जैन परक परिवर्तन करके गोपाल हण्यार लगे व्याप विष ज्याला, दृष्टि देखते मार बाला॥
कवि की नकल मात्र की है और इस प्रकार बनारसीदास जन गोपाल
जी के प्रति अपनी भक्ति प्रकट करने का ढोंग किया है। राम भगति स्वाति जहां, सोतल साधु अंग
___ अतः अब निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि बनारसी
उक्त 'मोह विवेक युद्ध' के रचयिता प्रसिद्ध कवि बनारसीश्री जिन भक्ति सबढ़ जहां सदैव मुनिवर संग दास जी नहीं हैं।