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दिगम्बर और श्वेताम्बर परम्परा में महाव्रत, अणुव्रत,
समिति और भावना
(शब्द-भेद और अर्थ-भेद)
मुनिश्री रूपचन्द्र
भारत की तीनों साधना-धारामों मे महाव्रतों का में प्राचार्य कुन्दकुन्द ने अस्तेय के स्थान पर तितिक्षा समान महत्व रहा है। महिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह के स्थान पर संगविरति२ शब्द का प्रयोग और अपरिग्रह ये पांच व्रत साधना-विधि के आधारस्तंभ भी किया है। यह अवश्य है कि शब्द-भेद होते हुए भी रहे है। पतंजलि ने अपने अष्टांग योग में इन्हें यम के इनके अभिधेय में कोई अन्तर नहीं रहा है । तितिक्ख-यूले रूप में, बुद्ध ने पंचशील के रूप में और महावीर ने महा- का अर्थ स्थूल चौर्य का परिहार ही किया गया हैव्रतों के रूप में स्थान दिया। किन्तु जैन-परम्परा में इनका तितिक्ख-थूले या तितिक्षा-स्थूले चौर्य-स्थूले परिहार । जो स्वरूप प्रौर विस्तार प्राप्त होता है, वह अन्यत्र नही। इसी तरह संग-विरति का अर्थ भी परिग्रह-विरति ही इनकी समालोचित विस्तृत व्याख्याएँ, इनकी ही पोषित किया गया है-संगे परिग्रहे विरतिश्च परिग्रहाद् विरमण समितियाँ और गुप्तियाँ और व्रतों को स्थर्य देने वाली मित्यर्थः । वस्त्र रखना परिग्रह है या नहीं यह परम्परा भावनाएँ, यह समस्त विस्तार हमें जैन-वांगमय में ही
भेद तो स्पष्टतः है ही किन्तु इससे महावत की परिभाषा उपलब्ध होता है।
में कोई अन्तर नहीं पाता।
भावना महावत
मुमुक्षु साधना के प्रारम्भ में पांच महाव्रतों को साधन किन्तु यह विस्तार आज तक की जैन-परम्परा में के रूप में स्वीकार करता है। किन्तु साथ ही वे साध्य क्या एकरूपता लिए है या इसमें शब्द और मर्थ की दृष्टि भी है । साधक को उनका भी पुनः पुनः अभ्यास करना से भेद भी मिलता है, यह प्रस्तुत निबन्ध का विषय है। पड़ता है। महाव्रतों में स्थिरता पाए इस दृष्टि से प्रत्येक उत्तराध्ययन सूत्र में पंच महाव्रतों का नामोल्लेख इस महाव्रत के लिए पांच-पांच भावनाओं का विधान दिया प्रकार मिलता है-अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और गया ।३ जिन चेष्टामों और संकल्पों के द्वारा मानसिक अपरिग्रह१। अहिंसा के लिए कहीं-कहीं प्राणातिपाति- विचारों को भावित-वासित किया जाता हैं, उन्हें भावना विरति शब्द का प्रयोग भी हप्रा है। दिगम्बर परम्परा कहते हैं ।४ श्वेताम्बर परम्परा में भावनामों का वर्णन
१. २।१२: अहिस सच्चं च प्रतेणगं च, ततोय पशि पडिज्जिया पंच महब्वयाणि... ... ... ...॥ २. उत्तराध्ययन १९२५
समया सव्व भूएसु, सत्तु-मित्तेसु वा जगे। पाणाइवाय-विरई, जावज्जीवाए दुक्करा ॥
१. चारित्र-प्राभूत २६
थूले मोसे तितिक्ख-थूले य। २. चारित्र-प्राभृत ३०, अष्टपाहुड पृ० १००
तुरियं प्रबंभ-विरई पंचम संगम्मि विरई य । ३. तत्वार्थ राजवातिक ७१३
तस्य स्थर्यार्थ भावना पंच पंच। ४. पासणाह चरियं, पृ० ४६०