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________________ मोम बहन अनेकान्त परमागस्य बीजं निषिद्ध मात्यबसिन्पुर विधानम्। सकलनयविमसितानां विरोधमवनं नमाम्यनेकान्तम् ।। वर्ष १८ किरण-१ । । वीर-सेवा-मन्दिर, २१ दरियागंज, बिल्ली-६ वीर निर्वाण संवत् २४६१.वि. सं. २०२२ प्रेल सन् १९६५ - सुमति-जिन-स्तवन (समुद्गक यमकः) देहिनो जयिनः श्रेयः सदाप्रतः सुमते ! हितः । देहिनो जयिनः१ श्रेयः स बातः सुमतेहितः ॥ -समन्तभद्राचार्य प्रथं हे सुमति ! जिनेन्द्र ! पाप कर्मरूप शत्रों को जीतने वाले प्राणियों के उपासनीय -जो प्राणी अपने कमरूप शत्रुओं को जीतना चाहते हैं वे अवश्य ही मापकी उपासना करते हैं। (क्योंकि मापकी उपासना के बिना कर्मरूप शत्रु नहीं जीते जा सकते) प्राप सदा उनका हित करने वाले हैं, आपके द्वारा प्ररूपित मागम और प्रापकी चेष्टाएँ उत्तम हैं। आप प्रज हैं-जन्म-मरणादिक व्यथा से रहित हैं, सबके स्वामी है, अर्थात् मापके द्वारा निर्दिष्ट मोक्षमार्ग का अवलम्बन करने से संसार के समस्त प्राणियों का हित होता है। प्रतएव हे दानशील भगवन् ! मुझे भी मोक्षरूप कल्याण प्रदान कीजिए-मैं भी जन्म-मरणादि कष्टों से सदा के लिए छुटकारा 'पा जाऊँ। न:+मज:+इनः इति पदच्छेदः । मज शब्दः स्वोज समोडिति सुप्रत्ययः । ससजुपोरितिरुत्वम् । 'भोमगोप्रधो अपूर्वस्य योऽशि' इति रोयदिशः। लोपः शाकल्यस्येति विकल्पेन यकार लोपः । ततो मात्र विकल्पत्वाल्लोपः।
SR No.538018
Book TitleAnekant 1965 Book 18 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1965
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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