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________________ प्रतिहार साम्राज्य में जैन-धर्म डा० दशरथ शर्मा एम. ए. डी. लिट प्रतिहार साम्राज्य में अनेक धर्म फले और फूले। प्राचार्यों ने यह प्रवाद निर्मल सिद्ध कर दिया कि राजपूतों बौद्धधर्म भी कुछ समय तक कोटा प्रदेश में अवस्थित द्वारा शासित राज्यों में महिंसावादी धर्म नहीं पनप सकते। रहा; किन्तु विशेष समय तक नहीं। प्रायः सर्वत्र ही जैन धर्म में तो हर एक के लिए स्थान है। उसमें प्राचार अहिंसावादी जनधर्म या वैष्णव धर्म दसवी शती तक का क्रम ही ऐसा रखा गया है कि हर एक मनुष्य अपनी उसका स्थान ग्रहण कर चुका था। जैन विद्वानो मे बप्प- सामर्थ्य और बुद्धि के अनुसार स्वत: मागे बढ़ने की शक्ति भट्टसूरि पामराज नागभट द्वितीय के मित्र और अध्यात्म प्राप्त करता है। दृष्टि से गुरु भी थे। उनकी पारस्परिक मंत्री का बप्पभट्टमूरि चरित में बहुत अच्छा वर्णन है। राजपूत राजाओं ने जैनों से सदा मच्छा. व्यवहार कुछ समय तक राजस्थान में जैन धर्म भी पतनोन्मुख किया। परम्परा से प्रसिद्ध है कि प्रथम प्रतिहार सम्राट नागभट प्रथम को जैनाचार्य यक्षदेव की कृपा से ऋद्धि हुमा । सतत विहार को छोड़ कर अनेक साधुओं ने चैत्यों और सिद्धि की प्राप्ति हुई थी। सम्राट् बत्सराज के समय में रहना; लवग, ताम्बूल आदि का सेवन करना और बढ़िया वस्त्र धारण करना प्रारम्भ कर दिया था। धर्म समस्त पश्चिमी राजस्थान जैन मन्दिरों से परिपूर्ण था। विषयक प्रश्न पूछने पर ये प्रायः श्रावकों को टालते, प्रोसियां के भव्य जैन मन्दिर का भी उसी के समय में उनसे कहते कि धर्म की गुत्थियाँ और रहस्य उनकी समझ निर्माण हुआ। प्रतिहार राजा कक्कुल न सं० ६१८ में में कुछ दूर की वस्तु हैं। प्रतिहार साम्राज्य के उदय से रोहिंसकूप में जैन मन्दिर का निर्माण करवाया और उसे पूर्व ही श्री हरिभद्र सूरि ने अपनी बहुमुखी प्रतिभा से इस माम्रक, भालुक आदि जैन गोष्ठिकों के हाथ में सौप दिया। उन्मार्गगामिनी प्राचारधारा को रोकने का प्रयत्न किया उसी प्रकार चौहान राजा पृथ्वीराज प्रथम पार्णोराज था। उनके बाद कुवलयमालाकार उद्योतनमरि और विग्रहराज चतुर्थ, सोमेश्वर प्रादि में भी जैनधर्म की उपमितिभवप्रपञ्चाकार श्री सिपिसूरि ने भी यह अच्छी सेवा की। इन राजानों का समय प्रतिहार साम्राज्य कार्य अग्रसर किया। हरिभद्र सूरि ने अत्यन्त सक्षेप में के बाद का है। इससे सिद्ध है कि जैन धर्म तब तक इस जिस धर्म विषय का धर्मविन्दु में प्रतिपादन किया था, प्रदेश में इतना दृढमूल हो चुका था कि राज्यों के अनेक वही उनकी समगइच्च कथा एवं अन्य प्राचार्यों की कथायो उत्थान और पतन होने पर भी उसका उत्थान ही होता में विशद रूप प्राप्त कर चुका है। रहा। प्रतिहार साम्राज्य मे जैनधर्म ने अच्छी प्रगनि को। अनेकान्त के किसी अग्निम अङ्क में हम इस विषय विशेष रूप से राजपूतो को जैनधर्म में दिक्षित कर जैन पर कुछ अधिक प्रकाश डालने का प्रयत्न करेंगे।
SR No.538018
Book TitleAnekant 1965 Book 18 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1965
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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