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________________ साहित्य-समीक्षा १. करिकण्ड चरित-(हिन्दी अंग्रेजी अनुवाद के लिए सम्पादक महानुभाव और ज्ञान पीठ के संचालक सहित) मुनिकनकामर सम्पादक अनुवादक डा. हीरालाल गण धन्यवाद के पात्र हैं। जैन एम. ए. डी. लिट् । प्रकाशक भारतीय ज्ञानपीठ २. कर्म प्रकृति-(संस्कृत हिन्दी टीका सहित) काशी। पृष्ठ ३६४ मूल्य सजिल्द प्रति का १०) रुपया। नेमचन्द्राचार्य, सम्पादक अनुवादक पं० हीरालाल शास्त्री प्रकाशक भारतीय ज्ञानपीठ काशी, मूल्य छह रुपया। प्रस्तुत ग्रन्थ का विषय उसके नाम से स्पष्ट है। इसमें १९ कडवकों में राजा करकंड का जीवन-परिचय भारतीय विचारधारा में कर्म सिद्धान्त का महत्वअंकित किया गया है। ग्रन्थ में अनेक प्रावान्तर कथानक पूर्ण स्थान है, जैनधर्म का तो वह महत्वपूर्ण सिद्धान्त है दिए हुए हैं, जिससे मूल कथानक को समझने में कुछ ही । इस सिद्धान्त का प्रतिपादक विपुल जैन साहित्य उपकठिनाई अवश्य होती है। पर गौर से दृष्टि पात करने लब्ध है । षट् खण्डागम आदि ग्रन्थों में इसका व्यवस्थित पर विषय सुलभ हो जाता है। ग्रन्थ में करकण्डु का जीवन- और सुविस्स्तृत सूक्ष्म विवेचन पाया जाता है। नेमिचन्द्र परिचय, जीवन-घटनाएँ तथा पूर्व जन्म-सम्बन्धी वृत्तान्त सिद्धान्त चक्रवर्ती ने गोम्मटसार जीवकाण्ड कर्मकाण्ड भी दिया हुआ है। डा० साहब ने पहले इस ग्रंथ को लब्धिसार क्षपणासार प्रादि में इस विषय के शास्त्रों का सम्पादित कर कारंजा सीरीज में प्रकाशित किया था, सार लेकर सागर को गागर में समाविष्ट करने की कहाउस सस्करण में हिन्दी अनुवाद नहीं था। अब इस वत को चरितार्थ किया है। संस्करण में हिन्दी अनुवाद भी साथ में दे दिया गया है प्रस्तुत कम प्रकृति नामक ग्रन्थ में संक्षिप्त एवं सरल और अंग्रेजी प्रस्तावना में जहां-तहां संशोधन-परिवर्तन रूप से कर्म सिद्धान्त का विवेचन किया गया है। हिन्दी तथा परिवर्धन भी किया है। परिशिष्ट में नोट्स और अनुवाद के साथ परिशिष्टों में विभिन्न प्रकृतियों के रेखा शब्दकोष भी दिया है। जिससे पाठकों को वस्तु स्वरूप चित्र देकर विषय को स्पष्ट करने का प्रयत्न किया गया समझने में अत्यन्त सुविधा हो गई है। इससे अप- है। इस कारण कर्म प्रकृति का यह संस्करण जिज्ञासु भ्रंश साहित्य के प्रचार में सुविधा मिलेगी। प्राकृत और विद्यार्थियों के लिए उपयोगी बन गया है। अपभ्रश के क्षेत्र में डा० साहब की साहित्य-सेवाएं महत्व- कुछ वर्ष पूर्व मैंने इस संग्रह की गाथानों से गोम्मटपूर्ण हैं। अपभ्रंश के अनेक ग्रंथों का उन्होंने सम्पादन सारकर्मकाण्ड की त्रुटि पूर्ति करने के लिए लेख लिखा था। किया है और भविष्य में भी उनसे अन्य अनेक ग्रथों के उस सम्बन्ध में डा. हीरालाल जी से उत्तर प्रत्युत्तर भी सम्पादन की प्राशा है। इस सुन्दर संस्करण के प्रकाशन हुए। परन्तु उन्होंने उसकी त्रुटि को स्वीकार नहीं किया, यत्तु नास्ति स्वभावेन कः क्लेशस्तस्य मार्जने ॥३७॥३८ ब्रह्मव स्फुरितं तदात्मकलया तादात्म्यनित्यं यतः । यही श्लोक श्रीमद्भगवद्गीता में है जिसकी द्वितीय पंक्ति तेषां चात्मविदोनुरूपमखिलं स्वर्गम् फलं तद्भवेपरिवर्तित रूप में इस प्रकार है दस्य ब्रह्मण ईदृगेव महिमा सर्वात्म यत्तद् वपुः ॥ उभयोरपि दृष्टोन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदशिभिः॥ (उत्तरार्द्ध ६।१७३।३४) ब्रह्मा का निरूपण अपने-अपने ढंग से सभी ने किया उस अपने युग के तत्वचिन्तक मनीषी और राष्ट्रहै। बाल्मीकि ने उन अलग-अलग सम्प्रदायों का नाम कवि महर्षि बाल्मीकि द्वारा प्रणीत ग्रन्थों का अवलोकन निर्देश करते हुए लिखा है करने वालों को सम्भवतः इससे भी अधिक जैन-चाङ्मयवेदान्ताईतसांख्यसौगतगुरुत्र्यक्षादि सूक्तादृशो विषयक जानकारी मिल सकेगी। इत्यलम्
SR No.538018
Book TitleAnekant 1965 Book 18 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1965
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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