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जैनी दीक्षामुपादत्त यस्यां काये पि हेयता, जैनों ने मुनि मनसे परिचालित विषयों के अधीन नहीं होता काय को भी हेय तथा परपदार्थ माना है । इसे स्व मानना इत्यादि निरूपण पूर्ण वीतराग धर्म का प्रतिपादन करते मिथ्याज्ञान है। योगवासिष्ठ की उक्ति है किमिथ्याज्ञानविकारेस्मिन् स्वप्नसम्भ्रम-पत्तने ।
सम्यगविज्ञानवान् शुद्धो योन्तः शान्तिमना मुनिः । काये स्फुटतरापाये क्षणमास्था न मे द्विज ॥१॥१८६० न बाध्यते स मनसा करिणेव गजाधिपः ॥२६॥
अर्थात् यह शरीर स्वप्न में देखे गये पत्तन के समान सम्यग्ज्ञानं विना राम सिद्धिमेत्ति न कांचन ।।२।२०३० हैं। इसका अपाय वियोग अवश्यम्भावी है। श्रीरामचन्द्र न मोक्षो नभसः पृष्ठे न पाताले न भूतले । कहते हैं कि इस पर मेरी क्षणिक प्रास्था भी नहीं है। मोक्षो हि चेतो विमलं सम्यग्ज्ञानविबोधितम् ।।५।७३।३५ ___ सम्यग्ज्ञान से ही मनुष्य ज्ञातज्ञेय होता है और भोगा- दिगम्बरत्व का प्रतिपादन करनेवाले निम्न दो पद्यों सक्ति का क्षय करता है। इस प्राशय को बड़े हृद्यरूप में में दिगम्बरत्व को महात्याग कहा है। वीतराग और महर्षि ने प्रस्तुत किया है
निर्ग्रन्थ मुनियों के उपस्थित रहते तीर्थतपसंग्रहों की चरिसम्यक पश्यति यस्तज्ज्ञो ज्ञातशेयः स पण्डितः ।
तार्थता स्वयंसिद्ध है, इस प्राशय का निरूपण पठनीय हैन स्वदन्ते बलादेव तस्मै भोगा महात्मने ।२।२७ दिगम्बरो दिक्सदनों दिक्समो य महं स्थितः ।
सम्यग्दर्शनविषयक निरूपण अनेक स्थलों में करते देवपुत्र, महात्यागात् किमन्यदवशिष्यते ॥६।६३।११ हुए बाल्मीकि लिखते हैं
नीरागाश्छिन्नसन्देहा गलितग्रन्थयोनघ । किं कुर्वन्तीह विषया मानस्यो वृत्तयस्तथा।
साधवो यदि विद्यन्ते किं तपस्तीर्थ-संग्रहैः ।।२।१६।११ माधयो व्याधयो वापि सम्यग्दर्शन-सन्मतेः ॥१९३३५
केवलीभाव के निरूपण करने वाले तीन श्लोक इस सम्यग्दर्शनमायान्ति नापदोन च सम्पदः ।।१६५ प्रकार हैअसम्यग्ज्ञानसम्भूता कल्पना मृगतृष्गिका ।।५।१३।६६
अनपाय निराशंकं स्वास्थ्यं वि-तविभ्रमम् । असम्यग्दर्शनं त्यक्त्वा सम्यक् पश्य सुलोचन ।
न विना केवलीभावाद् विद्यते भुवनत्रये ।।२।१३।३७ न क्वचिन् मुह्यति प्रौढः सम्यग्दर्शनवानिह ॥१८२१३२ यद् द्रष्टुरस्याद्रष्टुत्वं दृश्याभावे भवेद् बलात् । यदा तु ज्ञानदीपेन सम्यगालोक पागतः ।
तत् विद्धि केवलीभावं तत एवासतः सतः ॥३४१५३ संकल्पमोहो जीवस्य क्षीयते शरदभ्रवत् ।।६।२।१८ त्रिजगत् त्वमहं चेति दृश्ये सत्तामुपागते ।
ऊपर के पद्यों में श्रमणसंस्कृति का पारिभाषिकपद द्रष्टुः स्यात् केवलीभावस्तादृशो विमलात्मनः ॥३१४१५६ प्रयोग ही नहीं किया गया है अपितु उसका सजीव चित्रण मिथिला के राजा जनक जो उपनिषदों के महान् भी हुमा है। भगवान महावीर की विषय पराडमखता विद्वान् तथा ऋषि-महर्षियों के साथ तत्वचर्चा करने वालों तथा उन पर आये उपसर्ग, परीषहसहिष्णुता इत्यादि का में प्रमुख हुए हैं उनके यहाँ श्रमण मुनि आहार लेते थे उल्लेख ५५६३५ वें पद्य में समासोक्ति से किया गया इसका उल्लेख करते हुए बाल्मीकि ने रामायण में लिखा प्रतीत होता है। सम्यादर्शन और सन्मतेः दोनों पद है किसामान्य प्रर्थ से ऊपर सन्मति भगवान महावीर के जान- ब्राह्मणा भुञ्जते नित्यं नाथवन्तश्च भुजते । बूझ कर किए गए नामोल्लेख से प्रतीत होते हैं। तापसा भुञ्जते चापि श्रमणश्चैव भुजते ॥२१४११२
सम्यग्ज्ञानपरक पद्यों में सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि प्राचार्य कुन्दकुन्द ने लिखा है कि 'भावस्य पत्थिमोक्षमार्गः सूत्र का ही जैसे विवेचन किया गया है। णासो णत्थि प्रभावस्स चेव उप्पादो तथा एवं सदो सम्यग्ज्ञान से प्रबुद्ध किया हुमा चेतन का निर्मलभाव ही विणासो असदो जीवस्य णत्यि उप्पादो।' इसी माशय को मोक्ष है और हे श्रीराम, सम्पज्ञान के बिना मनुष्य सिद्धि व्यक्त करने वाला योगवासिष्ठ का श्लोक इस प्रकार हैको प्राप्त नहीं होता तथा सम्यग्ज्ञानवान् शान्त एवं शुद्ध नासतो विद्यते भावो माभावो विद्यते सतः।