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महर्षि बाल्मीकि और श्रमण-संस्कृति
मुनि श्री विद्यानन्द
आदिनाथ भगवान् ऋषभदेव के विषय में जैनेतर रहा हैसाहित्य के शोध विद्वानों को हिन्दू पुराणों, उपनिषदों योगवासिष्ठ से उद्धत अंश उसके निर्णयसागर प्रेस और उनके मूल उद्गमस्रोत वेदों में पुष्कल सामग्री उप- बम्बई से प्रकाशित प्रथम-द्वितीय भाग, सन १९३७ से लब्ध हुई है। यह विपुल सामग्री इस बात का मुखर संकलित हैं तथा रामायण के उद्धरण गीता प्रेस, गोरखपुर साक्ष्य उपस्थित करती है कि प्राचीन समय में श्रमण के प्रकाशित मूल संस्करण से लिये गये हैं। संस्कृति की अभिज्ञता माज की अपेक्षा अधिक थी और श्रीरामचन्द्र ने ससार से अपना वैराग्य व्यक्त करते वैदिक उमे श्लाघा की दष्टि से देखते थे। राष्ट्र में एक हुए कहा है कि मैं जिनेन्द्र के समान अपने मात्मा में ही उत्साह था और मनीषी एक राष्ट्र में प्राणवन्त होकर लीन रहना चाहता है। बहती हई अन्य संस्कृति का परिज्ञान अपनी पूर्णता के नाह रामा न म व
र नाहं रामो न मे वाच्छा भावेषु च न मे मनः । लिए आवश्यक समझते थे। महर्षि बाल्मीकि के योग- शान्त,
. शान्त प्रासितुमिच्छामि स्वात्मनीव जिनो यथा ॥१॥१५॥ वासिष्ठ तथा रामायण का हिन्दू जगत् में बहुत समादर है
जिन नामक किसी जनपद का उल्लेख करते हुए और इन आर्ष ग्रन्यों को प्राप्त वाक्यता प्राप्त है। जिस
लिखा है कि
जिननामैप तत्रास्ति श्रीमान् जनपदो महान् । भावप्रवणता के साथ उन्होंने अपने ग्रन्थों मे श्रमण संस्कृति के पारिभाषिक शब्दो का व्यवहार किया है उससे १
वल्मीकोपरि तत्रास्ति विहारी जनसंश्रयः ।।६।६।। निस्सन्देह यह प्रमाणित होता है कि उनके मानस में
वीतराग शब्द अपने मूल अर्थ में अनक बार प्रयुक्त श्रमणों की विचारधारा के प्रति पर्याप्त सम्मान था और
हया है। उदाहरण है
विगतेच्छाभयक्रोधो वीतरागो निरामयः ।।६।४७ विस्तृत जानकारी तो थी ही। सहस्रातिसहस्र वर्ष प्राचीन
यदनन किलोदारमुक्त रघुकुलन्दुना। इन ग्रन्थो में उल्लिखित सामग्री का यह चयन देश की दो
वीतरागतया तद्धि वाक्पतेरप्यगोचरम् ॥१२३२।२५ विशाल संस्कृतियों की भावात्मक एकता के लिए शृंखला
वीतरागो निरायासो विमो वीतकल्मषः ॥१५॥४७ समान हो और श्रमणधारा की व्यापक गतिविधि की
समः शान्तमनः मौनी वीतरागो विमत्सर. ॥६।६७।१० अभिन्नता का निर्देश करे इस दृष्टि से उपर्युक्त दोनों ग्रथो
चित्वाद् दृष्टात्मना नून संत्यत्तमननौजसा । का संक्षिप्त सकलन नीचे की पक्तियों में प्रस्तुत किया जा मनसा वीतरागेण स्वयं स्वस्थेन भूयते ॥५॥५३॥५८ प्राणियो के प्रति दया और किसी की भी चुगली न खाने उभवेषामिन्द्रियाणां, स दम: परिकीर्तितः॥ की प्रवृत्ति होती है। वह जनापवाद, असत्य भाषण, निदा इसका अर्थ है इन्द्रियों को विषयों से हटाकर अपनेस्तुति की प्रवृत्ति, काम, क्रोध, लोभ, दर्प, जड़ता, डींग अपने गोलक में स्थापित कर देना दम है। हॉकना, रोष, ईर्ष्या और दूसरो का अपमान-इन दुर्गुणों में अनुभव करता हूँ कि दमन का मूल अर्थ समझने का कभी सेवन नहीं करता।
के पश्चात् अब मेरा मन प्रात्म-दमन का प्रयोग सुन कर दमन की परिभाषा शकराचार्य ने बहुत ही मूल पाहत नहीं होता है । प्रात्म-दमन की प्रक्रिया मनोविज्ञान स्पर्शी की है। उनके मतानुसार
के प्रतिकूल है-इस माल्यता में भी मैंने संशोधन कर विपयेभ्यः परावर्त्य, स्थापनं स्वस्थगोलके । लिया है।