________________
आत्म-दमन
मुनिश्री नवमल
भारतीय दर्शन प्रात्म-दमन पर विशेष बल देते रहे विकसित हो गए हैं। उनमें दीखती है तपश्चर्या, पर है हैं। प्राण के मनोविज्ञान से प्रभावित मानव को यह वस्तुत: हिंसा का रस-दमन और प्रतिरोध का सुख । यह अप्रिय लगता है। मैं औरों की बात क्या कहूँ। मैं अपने तप नहीं, मात्मवंचना है।" (क्रान्तिबीज पृष्ठ १०६) मन की बात आपको बताऊँ। मैंने जब-जब उत्तराध्ययन के निम्न दो श्लोक पड़े तब-तब मेरा मन माहत-सा हुआ।
आज दमन का अर्थ बदल गया है, इसलिए यह प्रयोग वे श्लोक ये हैं
चुभता सा लगता है। किन्तु इसका मूल अर्थ मनोविज्ञान
के प्रतिकूल नहीं है। दमन शब्द दम धातु से निष्पन्न अप्पा चेव दमेयन्वो अप्पा खलु दुद्दमो।
हुआ है। उसका अर्थ है उपशम-शमु-दमु उपशमे । अप्पा दन्तो सुही होइ आइसं लोए परत्थ य ॥१।१५।।
शान्त्याचार्य ने प्रात्मदमन का अर्थ किया है-यात्मिकवरं मे अप्पा दन्तो संजमेण तवेण य ।
उपशमन । माहं परेहि दम्मतो बन्धणेहि वहेहि य ॥१।१६।।
महाभारत (पापद्धर्म पर्व, अध्याय १६०) में दमन प्रात्मा का ही दमन करना चाहिए क्योंकि मात्मा की बहुत सुन्दर परिभाषा मिलती है । वहाँ लिखा हैही दुर्दम है । दमित प्रात्मा ही इहलोक और परलोक में
क्षमा धृतिरहिंमा च समता सत्यमार्जवम् । सुखी होता है।
इन्द्रियाभिजयो दाक्ष्यं च मार्दवं ह्रीरचापलम् ॥१५॥ अच्छा यही है कि मैं संयम और तप के द्वारा अपनी
अकार्पण्य संरम्भः सन्तोष: प्रियवादिता । मात्मा का दमन करूं। दूसरे लोग बन्धन और वध के
अविहिंसावसूया चाप्येषां समुदयो दमः ॥१६॥ द्वारा मेरा दमन करें-यह अच्छा नहीं है।।
क्षमा, धीरता, अहिसा, समता, सत्यवादिता सरलता, मेरे साथी और भी बहत होंगे? दमन शब्द मेरी
इन्द्रिय-विजय, दक्षता, कोमलता, लज्जा, स्थिरता, उदातरह उनके मन को भी पाहत करता होगा? आचार्य
रता, क्रोध-हीनता, सन्तोष, प्रियवचन बोलने का स्वभाव, रजनीश जी का मन भी इसी शब्द से आहत हपा है।
किसी भी प्राणी को कष्ट न देना और दूसरो के दोष न उन्होंने लिखा है-"एक प्रवचन कल सुना है। उसका
देखना-इन सद्गुणों का उदय होना ही दम है। सार था : प्रात्म-दमन । प्रचलित रूढ़ि यही है। सोचा जाता है कि सबसे प्रेम करना है पर अपने से-अपने से
दान्त का अर्थ है उपशान्त । जो उपशान्त होता है
वह निम्न दोषों से अपना बचाव करता है। महाभारत घृणा करनी है, स्वयं अपने से शत्रुता करनी है, तब कहीं। पात्म जय होती है। पर यह विचार जितना प्रचलित है ।
(मापद्धर्म पर्व, अध्याय १६०) में लिखा हैउतना ही गलत भी है। इस मार्ग से व्यक्तित्व दैन में
गुरुपूजा च कोरव्यं दया भूतेष्व पैशुनम् । टूट जाता है और प्रात्महिंसा की शुरुवात होती है और
जनवादं मृषावादं स्तुति निंदा विसर्जनम् ॥१७॥ हिंसा सब कुरूप कर देती है ।
काम क्रोधं च लोभं च दर्प स्तम्भं विकत्थनम् । मनुष्य को वासनाएँ इस तरह दमन नहीं करनी हैं न
सेषमीविमानं च नैव दान्तो निषेवते ॥१८॥ की जा सकती हैं। यह हिंसा का मार्ग धर्म का मार्ग नहीं कुरुनन्दन ! जिसने मन और इन्द्रियों का दमन कर है। इसके परिणाम में ही शरीर को सताने के कितने लिया है, उसमें गुरुजनों के प्रति आदर का भाव, समस्त