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________________ अनेकान्त जबकि अन्य विद्वानों ने स्वीकार किया था परन्तु श्रीजुगल- का अलग-अलग अर्थ देते हुए साथ में भावार्थ द्वारा पद्य किशोर जी मुख्तार ने 'गोम्मटसार और नेमिचन्द्र' नाम. के हार्द को स्पष्ट करने का प्रयत्न किया गया है। पं० के अपने लेख में (अनेकान्त वर्ष ८ किरण ८-६) में मूड- फूलचन्द जी सिद्धान्त शास्त्री का नाम सम्पादक में देना बिद्री की पुरानी ताडपत्रीय प्रति से कर्मकाण्ड के उन चाहिए था अनुवादक में नहीं । टित अंशों में प्राकृत के गद्य सूत्र यथा स्थान निबद्ध ग्रन्थ का प्रकाशन अत्यन्त सुन्दर हुमा है । मोटा पुष्ट दिखलाये थे, जिनका अनुवाद संस्कृत टीकाकार ने दिया कागज और भक्ति के साथ पद्य लाल और सुनहरी स्याही है। उससे कर्मकाण्ड की त्रुटि की पूर्ति हो जाती है। मे छपाए गए हैं। इससे ग्रन्थ की लागत ५) रुपया पाई अस्तु । ग्रन्थ का प्रकाशन सुन्दर हुमा है, इसके लिए ज्ञान और न है। परन्तु दातारों द्वारा घाटे की पूर्ति कर २) रुपया मात्र पीठ के संचालक धन्यवाद के पात्र हैं। मूल्य में दिया जा रहा है। दिगम्बर जैन समाज में इतना ३. समयसार कलश ( सटीक )-मूल-प्राचार्य सस्ता और सुन्दर प्रकाशन भक्ति भाव से शायद ही किया अमतचन्द्र अनुवादक पं० फूलचन्द जी सिद्धान्त शास्त्री, गया हो। प्रकाशक दिगम्बर जैन स्वाध्याय मन्दिर ट्रस्ट सोनगढ़ ४. प्रवचनसार :-(संस्कृत हिन्दी टीका सहित) (सौराष्ट्र) कागज छपाई सफाई उत्तम मूल्य सजिल्द प्रति मुलकर्ता प्राचार्य कुन्दकुन्द, संस्कृत टीकाकार प्राचार्य का २) रुपया। अमृतचन्द्र, हिन्दी अनुवादक पं० परमेष्ठीदास न्यायतीर्थ, श्री कुन्दकुन्दाचार्य विरचित समयसार पर प्राचार्य ललितपुर । प्रकाशक श्री दिगम्बर जैन स्वाध्याय मंदिर प्रमतचन्द्र ने संस्कृत गद्य में प्रात्मख्याति नाम की टीका ट्रस्ट सोनगढ़ (सौराष्ट्र) पृष्ठ ४३५ सजिल्द प्रति का बनाई है उसमे बीच बीच में संस्कृत पद्य भी हैं जिनमे ४) रुपया। मूलगाथा का पूरा भाव समाविष्ट है । और वे पद्य समय प्रस्तुत ग्रन्थ का विषय उसके नाम से स्पष्ट है, ग्रन्थ सार कलश के नाम से अलग लिए गये है। उनकी दुढारी तीन अधिकारों में विभक्त है । ज्ञान, ज्ञेय और चरित्र भाषा में टीका पाडे राजमल ने बनाई थी। उस टीका इन तीनों ही अधिकारों मे वस्तुनत्त्व का स्पष्ट विवेचन पर से पं० बनारसीदास ने नाटक समयसार की हिन्दी किया गया है। ग्रन्थ की मूल गाथाए कुन्दकुन्दाचार्य के पद्यों में रचना की थी। यह टीका अपने मूलरूप से ब्र. परिपक्व अनुभव की मूचक है और इसीसे वे गम्भीर अर्थ शीतल प्रसाद जी के हिन्दी सार के साथ सूरत से प्रका- की प्रपक हैं । प्राचार्य अमृतचन्द्र ने गाथानों की विशद शित हो चुकी है। और उसमें नाटक समयसार के पद्य व्याख्या की है। उसीका अविकल हिन्दी अनुवाद संस्कृत भी मुद्रित हुए हैं। परन्तु प्रस्तुत संस्करण उस ढुढारी टीका के साथ दिया गया है । प्रवचन सार के पठन-पाठन भाषा का प्राज़ की भाषा में परिवर्ति रूप है। मूल भाषा की पद्धति पुरातन काल से चली आ रही है, आगरा, के साथ उसके रूपान्तर का मिलान बहुत सावधानी से जयपूर, सागानेर, कामा प्रादि प्रसिद्ध नगरों की प्राध्याकिया गया है, जिससे अभिप्राय में अन्तर न पड़े। म शैलियों में वाचन-चिन्तन होता रहा है। इसके तीन ___ इस टीका के कर्ता वही राजमल है जो पचाध्यायी हिन्दी पद्यानुवाद भी कवियों द्वारा लिखे गये हैं, जिनमे प्रादि ग्रन्थों के कर्ता हैं, चूकि उनकी इस भापा की कविवर वृन्दावन का पद्यानुवाद तो 'प्रवचन परमागम' पहली टीका थी, इसलिये इसमें कुछ कमी हो सकती के नाम से छप चुका है, परन्तु शेष दो अनुवाद अभी तक है। हम प्रत्येक विद्वान की कृति को उसके परिपक्व प्रकाशित नही हो सके, उनको प्रकाश में लाने की अनुभव की कृति के साथ मापने का प्रयत्न करते जरूरत है। इस ग्रन्थ की प्राकृत भाषा प्रौढ़ और हैं । इसी से हमें उसके एक कर्तृत्व पर सन्देह होने महत्वपूर्ण है, और उसकी प्राचीनता श्वेताम्बरीय प्रागमलगता है। पर गहरी दृष्टि से छानबीन करने पर वह दूर सूत्रों की भाषा से भी अधिक है। इस विषय पर डा० हो जाता है । टीका में खण्डान्वय के साथ एक-एक शब्द सत्यरंजन बनर्जी ने अपने लेख में पर्याप्त प्रकाश डाला
SR No.538018
Book TitleAnekant 1965 Book 18 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1965
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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