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________________ २७० अनेकान्त अभिहित किये जाते थे। गान्धार से विदेह तक तथा पांचाल से दक्षिण के मयदेश जर्मन विद्वान डाक्टर हीएर का मत है कि व्रात्यों तक भनेक जातियों में विभक्त होकर विभिन्न जनपदों में के योग और ध्यान का प्रयास था जिसने आर्यों को निवास कर रहे थे। इनकी सभ्यता पूर्ण विकसित एवं माकषित किया और वैदिक विचारधारा तथा धर्म पर समुन्नत थी एवं शिल्पकला इनके मुख्य व्यवसाय थे। अपना गहरा प्रभाव डाला है । दूसरी पोर श्री एन० एन० ये जहाजों द्वारा लघु एशिया तथा उत्तर पूर्वीय अफ्रीका घोष अपनी नवीन खोज के माधार पर इस निर्णय पर के दूरवर्ती देशों के साथ व्यापार करते थे। पहुंचे हैं३ कि प्राचीन वैदिक काल में व्रात्य जाति पूर्वी भारत में एक महान् राजनीतिक शक्ति थी। उस समय ये द्राविड़ लोग सर्प-चिह्न का टोटका अधिक प्रयोग वैदिक मार्य एक नये देश में अपना प्रभुत्व स्थापित करने में लाने के कारण नाग, अहि, सर्प, प्रादि नामों से के लिए लड़ रहे थे उनको सैन्यदल की अत्यधिक प्रावश्य विख्यात थे । श्यामवर्ण होने के कारण 'कृष्ण' कहलाते कता थी। प्रतः उन्होंने बड़ी प्रसन्नता से वात्यों को अपने थे। अपनी अप्रतिम प्रतिभा शीलता तथा उच्च प्राचार विचार के कारण ये अपने को दास व दस्यु (कान्तिमान) दल में मिला लिया। वात्यों को भी संभवतः प्रायों के नैतिक और आध्यात्मिक गुणों ने प्राकृष्ट किया, और वे नामों से पुकारते थे। व्रतधारी एवं वृत्त का उपासक होने मार्य जाति के अन्तर्गत होने के लिए तैयार हो गये और से व्रात्य तथा समस्त विद्यानों के जानकार होने से द्राविड़ फिर इस प्रकार पार्यों से मिल जाने पर उनकी सामाजिक नाम से प्रसिद्ध थे । संस्कृत का विद्याधर शब्द 'द्रविड़' तथा राजनीतिक व्यवस्था को प्रभावित किया । व्रात्य का शब्द का ही रूपान्तर है। ये अपने इष्टदेव को अर्हन, निरन्तर पूर्व दिशा के साथ सम्बद्ध किया जाना, उसके परमेष्ठी, जिन, शिव, एवं ईश्वर के नामों से अभिहित अनुचरों में 'पुंश्चली' और "मागध" का उल्लेख होना करते थे । जीवन-शुद्धि के लिये ये महिंसा संयम एवं तपो (ये दोनों ही पूर्व देशवासी तथा प्रायतर जाति के हैं), मार्ग के अनुगामी थे । इनके साधुदिगम्बर होते थे और पार्यों से पहले भी भारतवर्ष में प्रतिविकसित और समृद्ध बड़े-बड़े बाल रखते थे। अन्य लोग तपस्या एवं श्रम के सभ्यताएँ होने के प्रमाण स्वरूप अधिकाधिक सामग्री का साथ साथ साधना करके मृत्यु पर भी विजय प्राप्त कर लेते थे।४ मिलना प्रादि तथ्य श्री एन. एन. घोष के निर्माण की यर्जुवेद में एक स्थल पर रुद्र का 'किवि'५ (ध्वंसक ही पुष्टि करते हैं। या हानिकर के रूप में उल्लेख किया गया है और वैदिक साहित्य के अनुशीलन से तथा लघु एशियाई अन्यत्र 'द्रौर्वात्य' शब्द६ का प्रयोग किया गया है। भाष्यपुरातत्त्व एवं मोहन जोदणों तथा हड़प्पा नगरों की खुदाई कार महीधर ने जिसका अर्थ-'उच्छृखल माचरण से प्राप्त सामग्री के प्राधार पर यह बात सुनिश्चित हो किया है. इसके अतिरिक्त उनके धनुष तथा तरकस को चुकी है कि वैदिक प्रार्यगण लघु एशिया तथा मध्य 'शिव' कहा गया है ।७ उनसे प्रार्थना की गई है कि वह एशिया के देशों से होते हए त्रेतायुग के मादि में लगभग अपने भक्तों को मित्र के पथ पर ले चलें न कि भयंकर ३०००ई० पूर्व में हलावर्त मौर उतर पश्चिम के द्वार से समझे जाने वाले अपने पथ पर । भिषक रूप मे उनका पंजाब में पाये थे। उस समय पहले से हो द्राविड़ लोग - ४. 'ये नात रन्भूतकृतोति मृत्यु यमन्वविन्दन् तपसा १. वृत्रो हवा इदं सर्व कृत्वाशिवयो यदिदमंत्तरेणद्यावा- श्रमेण"-प्रथर्ववेद : ४, ३५ पथिवीय यदिदं सर्व वृत्वाशिश्ये तस्माद बुत्रो नाम ___५. यजुर्वेदः (वाजसनेयी संहिता) १०, २० "शतपथ ब्राह्मण" ११, ३, ४ ६. वही : (वाजसनेयी संहिता) ३६, ६, तथा महेश्वर २. होएर : दर वात्य (Vratya) का भाष्य-दुष्टं स्खलनोच्छलनादि व्रतम् । ३. एन. एन. घोष : इण्डो मार्यन लिटरेचर एण्ड ७. वही : (तैत्रिरीय संहिता) ४, ५, १ कल्चर (argin) १९३४ ई. ८. वही : ( ,) १,२,४
SR No.538018
Book TitleAnekant 1965 Book 18 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1965
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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