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________________ वृषभदेव तथा शिव-सम्बन्धी प्राव्य मान्यताएं २७९ स्मरण किया है और मनुष्य तथा पशुओं के लिये स्वा- तस्कराणां पति, मुष्णतां पति, विकृन्तानां पति [गलस्थ्यप्रद भेषज देने के लिये भी उनसे प्रार्थना की गई है। कटों का सरदार] कुलुंचानां पति, मादि । इसके अतियहाँ रुद्र का पशुपति रूप में उल्लेख मिलता है । २ रिक्त इनमें 'सभा', 'सभापति' 'गण' 'गणपति', प्रादि के यजुर्वेद के त्र्यम्बक होम'३ सूक्त में रुद्र के साथ एक रुद्र के उपासकों के उल्लेख के साथ 'वात', 'व्रातपति', स्त्री देवता 'मम्बिका का भी उल्लेख किया गया है, जो तक्षक, रथकार, कुलाल, कर्मकार, निषाद, आदि का भी रुद्र की बहिन बतलाई गई है। इन्हें 'कृत्तिवासा': कहा निर्देश किया गया है। गया है और मृत्यु से मुक्ति तथा अमृततत्त्व की प्राप्ति ब्राह्मण ग्रन्थों के समय तक रुद्र का पद निश्चित रूप के लिये प्रार्थना की गई है। उनके विशेष वाहन मूषक से अन्य देवतामों से ऊंचा हो गया था और 'महादेव' का भी उल्लेख किया गया है तथा उन्हें यज्ञ भाग देने के कहा जाने लगा था ।५ जैमनीय ब्राह्मण में कहा गया है। पश्चात् 'भूजवत' पर्वत से पार चले जाने का भी अनुरोध कि देवताओं ने प्राणिमात्र के कर्मों का अवलोकन करने किया गया उपलब्ध होता है । मूषक जैसे धरती के नीचे और धर्म के विरुद्ध माचरण करने वाले का विनाश रहने वाले जन्तु से उनका सम्बन्ध इस बात का द्योतक हो करने के उद्देश्य से रुद्र की सृष्टि की रुद्र का यह नैतिक सकता है कि इस देवता को पर्वत-कन्दरामों में रहने उत्कर्ष ही था, जिसके कारण उनका पद ऊँचा हुमा और वाला माना जाता था तथा "मजवत" पर्वत से परे चले जिनके कारण अन्त में रुद्र को परम परमेश्वर माना जाने का अनुरोध इस बात का व्यंजक हो सकता है कि गया। इस देवता का वास भारतीय पर्वतों में माना जाता था । श्वेताश्वतर उपनिषद् से स्पष्ट है कि ब्राह्मण ग्रंथों कृत्तिवासाः" उपाधि से प्रतीत होता है कि उसका अपना के समय से रुद्र के पद में कितना उत्कर्ष हो चुका था। चर्म ही उसका वस्त्र था-अर्थात् वह दिगम्बर था। इसमें उन्हें सामान्यतः ईश, महेश्वर, शिव और ईशान "शत रुद्रिय स्तोत्र"४ में रुद्र की स्तुति में ६६ मंत्र कहा गया है १७ वह मोक्षाभिलाषी योगियों के ध्यान के हैं, जो रुद्र के यजुर्वेद कालोन रूप के सष्ट परिचायक विषय हैं और उनको एक स्रष्टा, ब्रह्म और परमात्मा है। रुद्र को यहाँ पहली बार 'शिव' 'शिवतर' तथा 'शकर' माना गया है। इस काल में वह केवल जन सामान्य मादि रूपों में उल्लिखित किया गया है। 'गिरिशत' के ही देवता नहीं थे, अपितु भार्यों के सबसे प्रगति शील 'गिरित्र' 'गिरिशा' 'गिरिचर' 'गिरिशय'-इन नवीन . वर्गों के पाराध्यदेव भी बन चुके थे । इस रूप में उनका उपाधियों से भी उन्हें विभूषित किया गया है। क्षेत्रपति' सम्बन्ध, दार्शनिक विचारधारा और योगाभ्यास के साथ तथा 'वणिक' भी निदिष्ट किये हैं। प्रस्तुत स्तोत्र के हो गया था, जिसको उपनिषद् के ऋषियों ने प्राध्यात्मिक बीस से वाईस संख्या तक के मन्त्रों में रुद्र के लिए कति उन्नति का एकमात्र साधन माना था। अपरवदिक काल पय विचित्र उपाधियों का प्रयोग किया गया है। अब तक में योगी, चिन्तक और शिक्षक के रप में जो शिव की रुद्र के माहात्म्य का गांन करने वाला स्तोता उन्हें इन कल्पना की गई है, वह भी इसी सम्बन्ध के कारण थी। उपाधियों से विभूषित करता है-स्तेनानां पति (चोरों श्वेताश्वतर उपनिषद्द में रुद्र को ईश, शिव और पुण्य का अधिराज), वंचक, स्तायूनां पति (ठगों का सरदार), कहा गया है। लिखा है कि प्रकृति, पुरुष अथवा परब्रह्म १. वही : (तैत्तिरीय संहिता) १, ८, ६ की शक्ति है, जिसके द्वारा बह विविध म्प विश्व की २. वही : (वाजसनेयी संहिता), ६, ३, ६, ३, ६, ८ (तैत्रिरीय) १,८,६ ५. कौशीतिकी : २१, ३ ३. यजुर्वेद : (तैत्तिरीय संहिता) १,८,६ (बाज- ६. जैमिनीय : ३, २६१,६३ सनेयी) ३, ५७, ६३ .. श्वेताश्वतर उपनिपद् ३०.११.४.१०,४, ११, ५,१६ ४. वही : (तैत्तिरीय संहिता) ४,५,१ ८. वही : ३, २-४, ३, ७, ४, १०-२४
SR No.538018
Book TitleAnekant 1965 Book 18 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1965
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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