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________________ ने जो उत्तर दिया, वह मज्झिम निकाय (सुत्त , ६) में है३-अनेकान्त और एकान्त दोनों ही सम्यक् और मिथ्या उपलब्ध है। उन्होंने कहा-"माणवक! मैं विभज्यबादी के भेद से दो-दो प्रकार के होते हैं। एक वस्तु में मुक्ति है, एकांशवादी नहीं है।" इम प्रसंग पर बुद्ध ने अपने और पागम से अविरुद्ध पस्पर विरोधी से प्रतीत होने पापको विभज्यवादी स्वीकार किया है। विभज्यवाद का बाले अनेक धर्मों को ग्रहण करने वाला सम्यग् अनेकान्त अभिप्राय है-प्रश्न का उत्तर एकांशवाद में नही, परन्तु है, तथा वस्तु में तद वस्तु स्वरूप से भिन्न अनेक धर्मो की विभाग करके अनेकाशवाद में देना । इस वर्णन पर से मिथ्या कल्पना करना केवल अर्थ शून्य बचन विलास विभज्यवाद और एकांशवाद का विरोध स्पष्ट हो जाता मिथ्या अनेकान्त है। इसी प्रकार हेतु-विशेष सामर्थ्य से है। परन्तु बुद्ध सभी प्रश्नों के उत्तर में विभजवादी नहीं प्रमाण-निरूपित वस्तु एक देश को ग्रहण करने वाला थे । अधिकतर वे अपने प्रसिद्ध अव्याकृतवाद का ही प्राश्रय सम्यग एकान्त है और वस्तु के किसी एक धर्म का सर्वथा ग्रहण करते हैं। अवधारण करके अन्य अशेष धर्मों का निराकरण करने जैन आगमों में भी "विभज्यवाद' शब्द का प्रयोग वाला मिथ्या एकान्त है; अर्थात् नय सम्यग् एकान्त है उपलब्ध होता है। भिक्ष कैसी भाषा प्रयोग करे? इसके और दुनय मिथ्या एकान्त है। उत्तर में१ सूत्र कृतांग में कहा गया है कि उसे विभज्यवाद का प्रयोग करना चाहिए । मूल मूत्रगत 'विभज्यवाद' शब्द जैन दर्शन का यह अनेकान्तरूप ज्योतिर्मय नक्षत्र मात्र दार्शनिक चर्चा के क्षितिज पर ही चमकता नहीं का अर्थ, टीकाकार शीलांक 'स्याद्वाद' और 'अने रहा है। उसके दिव्य पालोक से मानव जीवन की प्रत्येक कान्तवाद' करते है। बुद्ध का विभज्यवाद सीमित क्षेत्र में छोटी-बड़ी साधना प्रकाशमान है। छेद सूत्र, मूल, उनकी था, अत: वह व्याप्य था । परन्तु महावीर का विभज्यवाद चुणियों और उनके भाप्यों में उत्सर्ग और अपवाद के समग्र तत्त्व दर्शन पर लागू होता था, प्रतः व्यापक था माध्यम से साध्वाचार का जो सूक्ष्म तत्त्व स्पर्शी चिन्तन और तो क्या, स्वयं अनेकान्त पर भी अनेकान्त का सार्व किया गया है, उसके मूल में सर्वत्र अनेकान्त और स्याद्वाद भौम सिद्धान्त घटाया गया है। प्राचार्य समन्तभद्र कहते का ही स्वर मुखर है। किंबहुना, जैन दर्शन में वस्तु हैं२,--"अनेकान्त भी अनेकान्त है प्रमाण अनेकान्त और स्वरूप का प्रतिपादन सर्वत्र अनेकान्त और स्याद्वाद के नय एकान्त ।" इतना ही नही, यह अनेकान्त और एकान्त माध्यम से ही हुआ है, जो अपने आप में सदा सर्वथा मम्यग हैं या मिथ्या-इस प्रश्न का उत्तर भी विभज्य परिपूर्ण है। यह वाद व्यक्ति देश और काल से प्रवाधित वाद में दिया गया है। प्राचार्य प्रकलक की वाणी वाणा है, प्रतएव अनेकान्त विश्व का अजर, अमर शाश्वत और १ विभाज्यवाय च वियागरेज्जा-गूत्र कृताग १, १४,२२. सर्व व्यापी सिद्धान्त है। २. अनेकान्तोप्यनेकान्तः, प्रमाण नयसाधनः-स्वयम्भूस्तोत्र। ३. तत्त्वार्थराजवातिक १-६-७ । अनेकान्त के ग्राहक बनें 'अनेकान्त' पुराना ख्यातिप्राप्त शोध-पत्र है। अनेक विद्वानों और समाज के प्रतिष्ठित व्यक्तियों का अभिमत है कि वह निरन्तर प्रकाशित होता रहे। ऐसा तभी हो सकता है जब उसमें घाटा न हो और इसके लिए ग्राहक संख्या का बढ़ाना अनिवार्य है हम विद्वानों, प्रोफेसरों, विद्यार्थियों, सेठियों, शिक्षा-संस्थानों, संस्कृत विद्यालयों, कालेजों और जनश्रत को प्रभावना में श्रद्धा रखने वालों से निवेदन करते हैं कि वे 'अनेकान्त' के ग्राहक स्वयं बने और दूसरों को बनावें।
SR No.538018
Book TitleAnekant 1965 Book 18 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1965
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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