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बनान में सप्तभंगीवाद
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शेष चार भंगों को विकलादेशी मानने वालों का यह अभि- के, अर्थात् वचनागोचरता४ के उल्लेख भी प्राप्त होते हैं। प्राय है कि प्रथम भंग में द्रव्यार्थिक दृष्टि के द्वारा 'सत्' प्रवक्तव्य तो उपनिषत्साहित्य का एक मुख्य सूत्र है, यह रूप से प्रभेद होता है, और उसमें सम्पूर्ण द्रव्य का परि- निर्विवाद ही है। बुद्ध के विभज्यवाद और अव्याकृतवाव बोध हो जाता है। दूसरे भंग में पर्यायार्थिक दृष्टि के द्वारा में भी उक्त चार पक्षों का उल्लेख मिलता है। महावीरसमस्त पर्यायों में भेदोपचार से प्रभेद मानकर प्रसत्रूप से कालीन तत्त्व-चिन्तक संजय के प्रज्ञानवाद में भी उक्त भी समस्त द्रव्य का ग्रहण किया जा सकता है, और तीसरे चारों पक्षों की उपलब्धि होती है। भगवान महावीर ने प्रवक्तव्य भंग में तो सामान्यतः भेद भविवक्षित ही है। अपनी विशाल एवं तत्व-पशिणी दृष्टि से वस्तु के विराट प्रतः सम्पूर्ण द्रव्य के ग्रहण में कोई कठिनाई नहीं है। रूप को देखकर कहा-वस्तु में उक्त चार पक्ष ही नहीं,
उक्त तीनो भंग अभेद रूपेण समग्र द्रव्यगाही होने से अपितु एक-एक वस्तु में अनन्त पक्ष हैं । अनन्त विकल्प हैं, सकलादेशी हैं। इसके विपरीत अन्य शेप भग स्पष्ट ही अनन्त धर्म हैं । विश्व की प्रत्येक वस्तु अनन्त धर्मात्मक सावयव या अंशग्राही होने से विकलादेशी हैं । सातवें भङ्ग है। अतएव भगवान महावीर ने उक्त चतुष्कोटि से में अस्ति प्रादि तीन अंश हैं और शेष में दो-दो प्रश। विलक्षण वस्तुगत प्रत्येक धर्म के लिए सप्तभंगी का और इस सन्दर्भ में प्राचार्य शान्ति सूरि ने लिखा है-'तेच प्रतिपादन करके वस्तुबोध का सर्वग्राही एवं वैज्ञानिक रूप स्वाक्यवा पेक्षया विकलादेशाः"१।
प्रस्तुत किया। परन्तु प्राज के कतिपय विचारक उक्त मतभेद को
भगवान महावीर से पूर्व उपनिषदों में वस्तुतत्व के कोई विशिष्ट महत्व नही देते । उनकी दृष्टि में यह एक
सद-सद्वाद को लेकर विचारणा प्रारम्भ हो चुकी थी, विवक्षा भेद के अतिरिक्त कुछ नहीं है। जबकि एक सत्व
परन्तु उसका वास्तदिक निर्णय नहीं हो सका। संजय ने या प्रसत्व के द्वारा समग्र वस्तु का ग्रहण हो सकता है,
उसे अज्ञात कहकर टालने का प्रयत्न किया। बुद्ध ने कुछ तब सत्वासत्वादि रूप से मिश्रित दो या तीन धर्मों के
बातों में विभज्यवाद का कथन करके शेष बातों में प्रव्याद्वारा भी प्रखण्ड वस्तु बोध क्यों नहीं हो सकता? अतः
कृत कहकर मौन स्वीकार किया। परन्तु भगवान महावीर सातों ही भंगों को सकलादेशी और विकलादेशी मानना
ने वस्तु-स्वरूप के प्रतिपादन में उपनिषद के अनिश्चयवाद तर्क-सिद्ध राजमार्ग है।
को, संजय के अज्ञानवाद को और बुद्ध के एकान्त एवं सप्तभंगी का इतिहास
सीमित अव्याकृतवाद को स्वीकार नहीं किया । क्योंकि तत्त्व __ भारतीय दर्शनों में विश्व के सम्बन्ध के सत्-असत् चिन्तन के क्षेत्र में किसी वस्तु को केवल अव्याकृत अथवा उभय और अनुभय-ये चार पक्ष बहुत प्राचीनकाल से ही अज्ञात कह देने भर से समाधान नहीं होता । अतएव विचार-चर्चा के विषय रहे हैं। वैदिककाल में२ जगत के उन्होंने अपनी तात्त्विक दृष्टि और तर्क-मूलक दृष्टि से सम्बन्ध में सत् और असत् रूप से परस्पर विरोधी दो वस्तु के स्वरूप का यथार्थ और स्पष्ट निर्णय किया। उनकी कल्पनाओं का स्पष्ट उल्लेख है। जगत् सत् है या असत् ? उक्त निर्णय-शक्ति के प्रतिफल है-अनेकान्तवाद, नयवाद, इस विषय में उपनिपदों में भी विचार उपलब्ध होते है। स्यादवाद और सप्नभंगीवाद । वहीं पर सत् और असत् की उभयरूपता और अनुभयरूपता
विभज्यवाद १. न्यायवार्तिक सूत्र वृत्ति पृ०६४
एक बार बुद्ध के शिष्य शुभमाणवक ने बुद्ध से पूछा२. एक सद्विप्रा बहुधा वदन्ति,-ऋग्वेद १,१६४,४६ "भते ! सुना है कि गृहस्थ ही पागधक होता है, प्रवजिन
सद् सत् दोनों के लिए देखिए ऋग्वेद १०,१२६ आराधक नहीं होता । आपका क्या अभिप्राय है ?” बुद्ध ३. सदेव सौम्येदमन आसीत्-छान्दोग्योपनिषद् ६-२ प्रसदेवेदमन पासीत् । वही ३,१६,१
४. यतो वाचो निवर्तन्ते-तैत्तिरीय २-४