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द्वारा भेदवृत्ति अथवा भेदोपचार होता है और पस्ति अनन्त भंगी क्यों नहीं? या नास्ति प्रादि किसी एक शब्द के द्वारा द्रव्यगत सप्तभंगी सम्बन्ध में एक प्रश्न और उम्ता है और मस्तित्व या नास्तित्व प्रादि किसी एक विवक्षित गुण- वह यह है कि जब जैनदर्शन के अनुसार प्रत्येक वस्तु में पर्याय का क्रमशः मुख्य रूप से निरूपण होता है । विकला- अनन्त धर्म है, तब सप्तभंगी के स्थान पर प्रन-तभंगी देश (नय) वस्तु के अनेक धमों का क्रमशः निरूपग स्वीकार करनी चाहिये, सप्तभंगी नहीं ? उक्त प्रश्न का करता है और सकलादेश (प्रमाण) सम्पूर्ण धर्मों का समाधान यह है कि प्रत्येक वस्तु में मनन्त धर्म है, और युगपत् निरूपण करता है । संक्षेप में इतना ही विकलादेश उसके एक-एक धर्म को लेकर एक-एक सप्तभंगी बनती पौर सकलादेश में, अर्थात् नय और प्रमाण में अन्तर है। है। इस दष्टि से अनन्त सप्तभंगी स्वीकार करने में जैन प्रमाण सप्तभगी में प्रभेदवृत्ति या प्रभेदोपचार का और नय दर्शन का कोई विरोध नहीं है, वह इसको स्वीकार करता सप्तभंगी में भेद वृत्ति या भेदोपचार का जो कथन है है। किन्तु वस्तु के किसी एक धर्म को लेकर, एक ही उसका अन्तर्मम यह है कि प्रमाण सप्तभंगी में जहां सप्तभंगी बन सकती हैं, अनन्त भंगी नहीं। इस प्रकार द्रव्यार्थिक भाव है, वहां तो अनेक धर्मों में अभेदबुत्ति जैन-दर्शन को अनन्त सप्त भंगी का होना, तो स्वीकार स्वतः है और जहां पर्यायार्थिक भाव है वहां अभेद का है, परन्तु अनन्तभंगी स्वीकार नहीं है। उपचार-प्रारोप करके अनेक धमों में एक अखण्ड प्रभेद Ramanar प्रस्थापित किया जाता है। और नय सप्तभंगी में जहां
प्राचार्य सिद्धसेन और अभयदेव सूरि ने 'सत् असत् द्रव्याथिकता है, वहां अभेद में भेद का उपचार करके एक
और प्रवक्तव्य' इन तीन भंगों को सकलादेशी पौर शेष धर्म का मुख्यत्वेन निरूपण होता है, और जहां पर्यायाधिक
चार भंगों को विकलादेशी माना है। न्यायावतार सूत्र ता हैं, वहां तो भेदवृत्ति स्वयं सिद्ध होने से उपचार की
वातिक वृत्ति में३ प्राचार्य शान्तिसूरि ने भी "अस्ति, आवश्यकता नहीं होती।
नास्ति और प्रवक्तव्य" को सकलादेश और शेष चार को व्याप्य-व्यापक-भाव
विकलादेश कहा है। उपाध्याय यशोविजय ने जैनतर्क
भाषा और गुरुतत्त्व-विनिश्चय में उक्त परम्परा का अनुस्पाद्वाद और सप्तभंगी में परस्पर क्या सम्बन्ध है?
गमन न करके सातों भंगों को सकलादेशी और विकलायह भी एक प्रश्न हैं। दोनों में व्याप्य-व्यापक भाव
देशी माना है। परन्तु अपने प्रष्टसहस्री विवरणों में सम्बन्ध माना जाता है। स्याद्वाद 'व्याप्य' है और सष्त
उन्होंने तीन भंगों को सकलादेशी और शेष चार को भंगी 'व्यापक'। क्योंकि जो स्याद्वाद है, वह सप्तभंगी विकलादेशी स्वीकार किया है। अकलंक और विद्यानन्द होता ही है, यह तो सत्य है। परन्तु जो सप्तभंगी है, वह
ह आदि प्राय. सभी जैनाचार्य सातों ही भंगों को सकलादेश स्पाद्वाद है भी और नहीं भी । नय स्याद्वाद नहीं है, फिर
__ और विकलादेश के रूप में स्वीकार करते हैं।
से भी उसमें सप्तभंगीत्व एक व्यापक धर्म है। जो स्याद्वाद
सत् प्रसत् और प्रवक्तव्य भंगों को सकलादेशी और प्रौद नय-दोनों में रहता है । "अधिक देशवृत्तित्वं व्यापक त्वम् अल्पदेश वृत्तित्वं व्याप्यत्वम् ।"
१. प्रतिपर्यायं सप्तभंगी वस्तुनि-इति वचनात् तथाऽनन्ता,
सप्तभंग्यो भवेयुरित्यपि नानिष्टम् । १. सकलादेशो हि योगपद्यन अशेपधर्मात्मक वस्तू
तत्वार्थश्लोक वार्तिक १, ६, ५२ कालादिभिरभेदवुत्या प्रतिपादयति, मभेदोपचारेण २. पं० सुखलाल जी और प. बेचरदास जी द्वारा वा, तस्य प्रमाणाधीनत्वात् । विकलादेशस्तु क्रमेण सम्पादित-सन्मति तक, सटीक पृ०४६ भेदोपचारेण, भेद-प्राधान्येन वा तस्य नयायत्तत्वात् । ३. पं० दलसुख मालवणिया सम्पादित, पृ०१४
-तत्वार्थश्लोक वा० १, ६, ५४। ४. पृ० २०८