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जन-दर्शन
सप्तभंगीवाद
प्रतिपादन भेद-मुखेन किया जाता है।
घटित नहीं होता। नय-सम्बन्धित भेवावच्छेदक कालादि:
६. प्रत्येक गुण की अपेक्षा से गुणी का देश भी नय सप्तभंगी में गुणपिण्डरूप द्रव्य पदार्थ को गौण भिन्न-भिन्न ही होता है। यदि गुण के भेद से गुणी में और पर्याय स्वरूप अर्थ को प्रधान माना जाता है। अतः देश भेद न माना जाए, तो सर्वथा भिन्न दूसरे पदार्थों के नय सप्तभंगी भेद-प्रधान है। उक्त भेद भी कालादि के गुणों का गुणी देश भी अभिन्न ही मानना होगा। इस द्वारा ही प्रमाणित होता है।
स्थिति में एक व्यक्ति के दु.ख, सुख और ज्ञानादि दूसरे
व्यक्ति में प्रविष्ट हो जायेगे, जो कि कथमपि इष्ट नहीं १. वस्तुगत-गुण प्रत्येक क्षण में भिन्न-भिन्न रूप से
है। अत गुणी-देश से भी धर्मों का अभेद नहीं, किन्तु भेद परिणत होते है। प्रतः जो अस्तित्व का काल है, वह
ही सिद्ध होता है। नास्तित्व प्रादि का काल नहीं है। भिन्न-भिन्न धर्मों का भिन्न-भिन्न काल होता है, एक नहीं। यदि बलात् अनेक ७. संसर्ग भी प्रत्येक ससर्ग वाले भेद मे भिन्न ही गणों का एक ही काल माना जाए, तो जितने गुण हैं, माना जाता है। यदि सम्बन्धियो के भेद के होते हुए भी उतने ही प्राश्रयभेद से वस्तु भी होनी चाहिए । इम उनके मंसर्ग का अभेद माना जाए, तो फिर ससगियो
एक वस्तु में अनेक वस्तु होने का दोप उपस्थित (सम्बन्धियों) का भेद कैमे घटित होगा? लोक व्यवहार होता है। अत: काल की अपेक्षा वस्तुगत धर्मों में भेद है, सभी टालों का मिश्री पान या अभेद नहीं।
भिन्न-भिन्न प्रकार का ससर्ग होता है, एक नहीं। अतः २. पर्याय-दृष्टि से वस्तुगत गुणों का प्रात्मरूप भी ससर्ग से भी अभेद नही, भेद ही सिद्ध होता है। भिन्न-भिन्न है। यदि अनेक गुणो का पात्मस्वरूप भिन्न न माना जाए, तो गुणों में भेद की बुद्धि कैसे होती है ? एक
२. प्रत्येक वाच्य (विषय) की अपेक्षा से वाचक प्रात्मस्वरूप वाले तो एक-एक ही होंगे, अनेक नहीं।
शब्द भिन्न भिन्न होते है । यदि वस्तुगत सम्पूर्ण गुणों को प्रात्म-स्वरूप से भी अभेद नहीं, भेद ही सिद्ध होता है।
एक शब्द के द्वागही वाच्य माना जाए, तब तो विश्व
के मम्पूर्ण पदार्थों को भी एक शब्द के द्वारा वाच्य क्यों न ३. नाना धर्मों का अपना-अपना आश्रय अर्थ भी
माना जाए? यदि एक शब्द द्वारा भिन्न-भि न समस्त नाना भी होता है। यदि नाना गुणो का आधारभूत पदार्थ
पदार्थों की वाच्यता स्वीकार कर ली जाए, तो विभिन्न अनेक न हो, तो एक को ही अनेक गुणों का प्राथय
पदार्थों के लिए विभिन्न शब्दो का प्रयोग व्यर्थ सिद्ध मानना पड़ेगा, जो कि तर्क-गंगत नहीं है। एक का आधार
होगा । अतः वाचक शब्द की अपेक्षा से भी प्रभेद वृत्ति एक ही होता है। प्रत अर्थ-भेद मे भी मब धर्मों में
नही, भेदवृत्ति ही : माणित होती है।
४. सम्बन्धियों के भेद से सम्बन्ध में भी भेद होता प्रत्येक पदार्थ गुण और पर्याय स्वरूप है। गुण और है। अनेक मम्बन्धियों का एक वस्तु में मम्बन्ध घटित पर्यायों में परसार भेदाभेद सम्बन्ध है। जब प्रमाणनहीं होता। देवदत्त का अपने पुत्र में जो मम्बन्ध है, वहीं सप्तभगी मे पदार्थ का अधिगम किया जाता है, तब गुणपिता, भ्राता आदि के माथ नहीं है। अतः भिन्न धर्मो पर्यायो में कालादि के द्वारा प्रभेद वृनि या अभेद का में सम्बन्ध की अपेक्षा से भी भेद ही सिद्ध होता है अभेद उपचार होता है और अस्ति या नास्ति आदि किमी एक नहीं।
शब्द के द्वारा ही अनन्त गुण पर्यायों के पिण्डस्वरूप ५. धर्मों के द्वारा होने वाला उपकार भी वस्तु अखण्ड पदार्थ का, अर्थात् अनन्त धमों का युगपत् परिपृथक्-पृथक् होने से अनेक रूप है, एक रूप नहीं। अत. बोध होता है और जब नग-सप्तभंगी से पदार्थ का उपकार की अपेक्षा से भी अनेक गुणों में अभेद (एकत्व) अधिगम किया जाता है, तब गुण पर्यायों मे कालादि के