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________________ जैन-दर्शन में सप्तभंगीवाद उपाध्याय मुनि श्री अमरचन्द प्रभेदावच्छेदक कालादि का निरूपण ७. जो एक वस्तु-स्वरूप से वस्तु में अस्तित्व धर्म जीव आदि पदार्थ कथंचित् अस्तिरूप है, उक्त एक का ससर्ग है, वही अन्य धर्मों का भी है। अतः ससर्गर अस्तित्व-कथन में अभेदावच्छेदक काल आदि की घटन की अपेक्षा से भी सभी धर्मों में अभेद है। पद्धति इस प्रकार है : ८. जिस प्रकार 'अस्ति' शब्द अस्तित्व धर्म-युक्त १. वस्तु में जो अस्तित्व धर्म का समय है, काल है, वस्तु का वाचक है, उसी प्रकार 'अस्ति' शब्द अन्य अनन्त वही शेप अनन्त धर्मों का भी है, क्योंकि उसकी समय धर्मात्मक वस्तु का भी वाचक है। 'सर्वे सर्वार्थवाचकाः'। वस्तु में अन्य भी अनन्तधर्म-उपलब्ध होते है। अतः एक अतः शब्द की अपेक्षा से भी अस्तित्व आदि धर्म अस्तित्व के साथ काल की अपेक्षा अस्तित्व मादि सब प्रभिल हैं। धर्म एक हैं। ___कालादि के द्वारा यह अभेद व्यवस्था पर्यायस्वरूप २. जिस प्रकार वस्तु का अस्तित्व स्वभाव है, उसी अर्थ को गौण और गुणपिण्डरूप द्रव्य पदार्थ को प्रधान प्रकार अन्य धर्म भी वस्तु के प्रात्मीय-रूप है, स्वभाव है। करने पर सिद्ध हो जाती है। प्रमाण का मूल प्राणप्रतः प्रात्म-रूप की अपेक्षा से अस्तित्व आदि सब धर्म प्रभेद है। प्रभेद के बिना प्रमाण की कुछ भी स्वरूपअभिन्न हैं। स्थिति नहीं है। ३. जिस प्रकार वस्तु अस्तित्व का अर्थ है, उसी नय-सप्तभंगी: प्रकार अन्य धर्मों का भी वह आधार है। प्रतः अर्थ नय वस्तु के किसी एक धर्म को मुख्य रूपों में ग्रहण अर्थात् आधार की अपेक्षा अस्तित्व आदि धर्म अभिन्न हैं। करता है. वस्तुगत शेप धर्मों के प्रति वह तटस्थ रहना है। ४. जिस प्रकार पृथक्-पृथक् न होने वाले कचित् न वह उन्हें ग्रभरण करता है और न उनका निपंध ही अविष्वग् भावरूप तादात्म्य सम्बन्ध से अस्तित्व धर्म वस्तु करता है। न हाँ पौरन ना, एक मात्र उदासीनता । में रहता है, उसी प्रकार अन्य धर्म भी रहते हैं। अत: इमको 'मुनय' कहते हैं। इसके विपरीत, जो नय अपने सम्बन्ध की अपेक्षा से भी अस्तित्व आदि धर्म अभिन्न हैं। विपय का प्रतिपादन करना हुमा दूसरे नयों का खण्डन ५. अस्तित्व धर्म के द्वारा जो स्वानुरक्तत्व करण करता है, उने 'दुर्नय' कहा जाता है। नय सप्तभगी सुनय रूप उपकार वस्तु का होता है, वही उपकार अन्य धर्मों में होती है, दुर्नग में नहीं। वस्तु के घनन्त धों में से के द्वारा भी होता। अतः उपकार की अपेक्षा से भी किसी धर्म का काल आदि भेदावच्छेदकों द्वारा भेद मस्तित्व आदि धर्मों में अभेद है। की प्रधानता अथवा भेद के उपचार से प्रतिपादन करने ६. जो क्षेत्र द्रव्य में अस्तित्व का है वही क्षेत्र अन्य वाला वाक्य विकलादेश कहलाता है। इसी को 'नयधर्मों का भी है। अतः अस्तित्व आदि धर्मों में अभेद है। सप्तभगी' कहते है। नय-सप्तभंगी वस्तु के स्वरूप का इसी को गुरिण-देश१ कहते हैं। २. पूर्वोक्त सम्बन्ध और प्रस्तुत संसर्ग में यह अन्तर है १. अर्थ पद से लम्बी-चौड़ी प्रखण्ड वस्तु को पूर्णरूप से कि तादात्म्य सम्बन्ध धर्मों की परस्पर योजना करने ग्रहण की जाती है और गुणि-देश से प्रखण्ड वस्तु के वाला है और संसर्ग एक वस्तु में प्रशेष धमों को बुद्धि-परिकल्पित देशांश ग्रहण किये जाते हैं। ठहराने वाला है।
SR No.538018
Book TitleAnekant 1965 Book 18 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1965
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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