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________________ म. कोबी और बाती-पन्दन-कल्प २५५ शतपुष्पामधुश्च मत्सा वासी सुमतिका। क्रिया से करते हैं और उसका संस्कृत पर्यायवाची नाम रसास्वाय बहा बीर्य भृगाराबादो विषये॥ तक्षणी तथा भाषा का पर्यायवाची नाम 'बाइस' देते हैं। हेमचन्द्राचार्य के अनुसार 'मृत्सा' और 'वासी' और 'शब्दकल्पद्रुम' के कर्ता ने पुल्लिग 'बासिनको 'वस'मुमृत्तिका'; दोनों पर्ष में प्रयुक्त हो सकता है। इस निवासे' रिया से सिद्ध किया है और उसका भी पर्व कोष के टीकाकार, प्रन्थकर्ता के शिष्य महेन्द्रसरि ने एक प्रकार का कुठार' तथा भाषा में 'बाइस' किया है। इसकी व्याख्या करते हुए लिखा है। (मृत्सा) 'तक्षणी' अथवा 'कुछार का एक प्रकार' वसूले केही बासी तमोपकरम् सुमृतिकाय पचा। योतक हैं। निः शाल्ये संस्कृते तत्र मृत्सारचित विक ४. अभियान राजेगा कोष-प्राकृत के इस जन इस प्रकार 'मृत्सा' और 'वासी'; दोनों शब्द तक्षण विश्वकोष (Encyclopaedia) में अनेक प्रमाणभूत प्रथवा छेदन के उपकरण विशेष है। 'मत्सा' का दूसरा ग्रन्थों के उतरण सहित निम्न रूप से ग्रन्थों के उबरण सहित निम्न रूप से 'बासी' शब्द की अर्थ यहाँ उपयोगी नहीं है, अत: उसकी चर्चा भी व्याख्या दी गई है५अपेक्षित नहीं है। ____ 'वासी वासी-स्त्री। 'वसूला' इति स्याने लोहका३. शम्बकल्पम-संस्कृत भाषा के 'महत्त्वपूर्णकोष रोपकरणविशेषे, हा. २६ अष्ट. १६ माचा०७ । गन्दकल्पद्रुम' में 'वासी' शब्द की व्यत्पत्ति व व्याख्या मा०८।" इस प्रकार की गई है-"वासी (स्त्री) वासयतीति वासी यहाँ विश्वकोष के कर्ता स्पष्ट रूप से 'बासी' का अन्त । गोरादित्वाद् डीष । तक्षगी। वाइस इति स्याता अर्थ 'बमला करते हैं और उसको लुहार का एक उपस्त्रम् । इति त्रिकाण्डशेष। करण विशेष बताते हैं। वासिः (पु. वस् निकासे+वसिवपिथतिसराणीति) 'वासीचन्दनकल्प' की व्याख्या करते हुए उन्होंने मागे उणा ४११२४ इति इन् । कुठारभेदः बाइस इति भाषा। लिखा है-वासीचन्दरणकप्प-वासीचन्दनकल्प-पु. उपइत्यणादि कोषः ।"३ कोषकार त्रिकाण्डशेष४ को उद्धत । कार्यनुपकारिणोरपि मध्यस्थ, पाव. ५ प्र०। वासीष करते हुए वासी शब्द (स्त्रीलिंग) की व्यत्पत्ति वासपति वामी-अपकारी तां चन्दनमिव दुष्कृतं तक्षणहेतुलयोप कारकत्वेन कल्पयन्तिमन्यन्ते वासीचन्दनकल्पाः हा० । १. अनेकार्य संग्रह, महेन्द्रसूरि द्वारा रचित वृत्ति महित, यदाहसंपा० थियोडेर झंकरीया, प्र. आल्फेड होल्डर, 'यो मामपकरोत्येष तत्वेनोपकरोत्यसो । वीयेना, १८६३, द्वितीय काण्ड, श्लोक ५७३, पृ. शिरोमोसना पायेन कुर्वाण इव नोवजम् ॥ ४३ (मिरीज अॉफ संस्कृत लेक्मीकोग्राफ़ी इम्पीग्यल अथ वास्यामपकारिण्या चन्दनस्य कल्प इव च्छेद इव ऐकेडेमी प्रॉफ सायन्सीम, वियेना, खण्ड १) ये उपकारित्वेन वर्तन्ते । वासीचन्दनकल्पा: । प्राह च२. वही, पृ० ८३ 'अपकारपरेऽपि परे, कुर्वन्त्युपकारमेव हि महान्तः । ३. शब्दकल्पद्रुम, स्यार राजा राधाकान्त देव बहादर, सुरभी करोति वासी मलयजमपि सक्षमाणमपि ॥' प्र. मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली १९६० काण्ड वास्या व चन्दनम्येव कल्प आचागे यंपा ते तथा । ४, पृ० ३५७ ५. अभिधान राजेन्द्रकोष (जैन विश्वकोष), प्राकृत ४. अमरकोष की पूर्ति में पुरुपोत्तम देव द्वारा रचित मागधी से संस्कृत, ले. विजयराजेन्द्रसूरि रतलाम, (मनुमानित रचनाकाल ईस्वी १३००); देखिये १९३४, खण्ड ६,१०११०० A History of Sanskrit Literature by ६. हारिभद्वीय प्रप्टक प्रकरण, प्रष्टक संख्या २९ Arthur A. Macdonell, Williom Herinc ७. प्राचागंग सूत्र monn, London, 1917, p. 433. ८. ज्ञाताधर्मकथा मूत्र
SR No.538018
Book TitleAnekant 1965 Book 18 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1965
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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