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________________ २५६ अनेकान्त अथ वास्यां चन्दनकरपारचन्दनतुल्या ते तथा। भावना तु पर भी।' इस व्याख्या की पुष्टि एक अन्य सूक्ति के द्वारा प्रतीतव । हा० २६ प्रष्ट० । ज्ञा०१। की गई है, जो इस प्रकार है-जो अपकारी हैं, वे अपकार यहाँ पर कोषकार 'पावश्यक' और 'हारिभद्रीय' करते रहते हैं; महान पुरुष तो उनका उपकार ही करते 'प्रष्टक' की वृत्तियों को उद्धृत करते हुए प्रस्तुत शब्द की हैं छीले जाने पर भी चन्दन बासी को सुरभित करता व्याख्या कर रहे हैं। 'आवश्यकमूत्र की वृत्ति के अनुसार 'वासीचन्दनकल्प' (३) तीसरे विकल्प में 'कल्प' का अर्थ प्राचार का अर्थ है-'उपकारी और अनुपकारी में मध्यस्थ ।' किया गया है। जिनका प्राचार वासी के प्रति चन्दन हारिभद्रीय प्रष्टक प्रकरण' के वत्तिकार ने 'बासी' का जैसा है. वे 'वासीचन्दनकल्पाः ' हैं। अर्थ तो 'काष्ठछेदन का उपकरण' किया है, पर 'कल्प' (४) अन्तिम विकल्प में कल्प' का अर्थ तुल्य किया शब्द के अनेक अर्थ प्रस्तुत करते हुए समस्त शब्द की गया है, जो वासी के प्रति चन्दन के समान है, वे 'वासीव्याख्या विभिन्न अर्थों में की है।। चन्दनकल्पा.' हैं। (१) 'कल्प' गब्द की व्याख्या कल्पन्ति' अर्थात् हारिभद्रीय 'अष्टक' के वत्तिकार ने इस प्रकार 'कल्प' 'मन्यन्त' हो सकती है। इसके प्राधार पर समग्र शब्द का के विभिन्न प्रों द्वारा प्रस्तुत शब्द-समुदाय की व्याख्या अर्थ होता है--जैसे चन्दन बसले को अपना उपकारी की है। यहां चारों विकल्पों में भावार्थ तो प्रायः एक ही समझता है, वैगे वे (वासीचन्दनकन्याः) अपने अपकारी निकलता है। अभयदेवसरिने जिस प्रकार प्रालंकारिक को भी उपकारी मानते है। (चन्दन वासी को उपकागे व्याख्या प्रस्तुत की है, उसी प्रकार यहां भी वृत्तिकार इमलिा मानता है कि वह छेदन के द्वारा चन्दन को 'वामी' और चन्दन को रूपक मानकर ही सारे मृक्त को अपनी सुगन्ध फैलाने का अवसर प्रदान करता है।) इस समझाते है। किन्तु वासी को तो सर्वत्र वसले के रूप में ब्याख्या कमाय वृत्तिकार एक सुभाषित को भी उदृत ही ग्रहण किया गया है। करते हैं, जिसका अर्थ है जो मरा उपकार कर रहा है, ५. 'पाइप्रसद्दमहण्णवो' प्राकृत भाषानों के विश्रुत वह तत्वत: मेग उपकार करता है, जैसे शिरामोक्ष (नाडी विद्वान् और प्राधुनिक कोपकार पं० हरिगोविन्ददाम सेठ काटकर उसमे से अशुद्ध खून निकालना-क प्रकार की ने अपने प्राकृत-हिन्दी शब्दकोष 'पाइप्रसद्दमहण्णवो' शल्य चिकित्मा) ग्रादि उपायो के द्वाग किसी को निरोग (प्राकृत शब्द महार्णव) मे 'वासी' का उल्लेख निम्न रूप किया जाता है। से किया है.--"वासी स्त्री [वासि (म)] वमूला, बढ़ई (२) दुखर 'विकल्प' में 'कल्प' का अर्थ छेद किया का एक अस्त्र; न हि वासिबढईण इहं अभेदो कहंचिदवि गया है। इसके माधार पर वासीनन्दनकल्पा का अर्थ (भमंमंग्रहणी, ४८६) देखो, वामी।"३ होता है-वे मनुष्य, जो अपकारी के प्रति भी उपकारिता 'वासी' की व्याख्या इस प्रकार की है--"वामी स्वो का माचार रखते हैं, जमे चन्दन वामी के द्वारा छेदे जाने (वामी) वसूला, बढई का एक अस्त्र (पृ० १, १ पउम १. अभिधान गजेन्द्रकोप, खण्ड ६, पृ० ११०६, ११०६ १४, ७८, कप्प, सुर, १, २८, औप)। वासी मुह, पु० २. प्रष्टक प्रकरण', रचयिता-हरिभद्रमूरि टीकाकार- (वासी मुख) वसूले के तुल्य मुंह वाला एक तरह क जिनेश्वरगरि, पं. मनसुख मगुभाई, अहमदाबाद, कोट, द्वीन्द्रिय जन्तुकी एक जाति (उत्त०३६, १२६)।" वि० सं० १९०८ । प्रस्तुत टीका का परिकार अभयदेव गरि ने किया है, ऐसा माना जाता है। ३. पाइयसद्दमहण्णवो (प्राकृत शब्द महार्णव) । इसलिए यहां की गई व्याख्या उनकी व्याख्या से हरगोविन्ददास त्रिकमचन्द सेट, कलकत्ता, मिलती-जुलती है । द्रष्टव्य जिनरत्नकोष, ले० हरि १९८५, पृ. ६४६ दामोदर वेलनकर, पृ०१८ ४. वही, पृ. ६४६
SR No.538018
Book TitleAnekant 1965 Book 18 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1965
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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