________________
विगम्बर और म्वेताम्बर परम्परा में महावत, अणुव्रत, समिति और भावना
११५
श्वेताम्बर परम्परा ने देशावकाशिक को शिक्षा व्रतों वार्तिक में समय का अर्थ एकत्व रूप से गमन किया है में स्थान दिया है । प्राचार्य कुन्दकुन्द देशवत नहीं मानते। और उसे ही सामायिक कहा है । अर्थात मन, वचन और समन्तभद्र इमे शिक्षा व्रतों में ही गिनते हैं, जबकि तत्वार्थ काया की क्रियाओं से निवृत्त होकर एक प्रात्म-द्रव्य में में देश-व्रत को गुण व्रतों में गिना गया है, यद्यपि उसमें ही लीन होना सामायिक है। आचार्य सोमदेव ने उपा. गुण ब्रत और शिक्षा व्रत व्रतों के ये दो भेद नहीं किए सकाध्ययन में 'समय' का अर्थ प्राप्त सेवा का उपदेश किया गए।
है। और उसमें जो क्रिया की जाती है, वह सामायिक ३-भोगोपभोग परिमाण व्रत को श्वेताम्बर परम्परा है। इसके अनुसार स्नान, अभिषेक, पूजन, स्तवन, जप, ने गुण व्रतों में ही गिना है। दिगम्बर परम्परा मे कई ध्यान आदि सब सामायिक के अंग है। वस्तुतः मन, इसे गुण व्रत रूप में स्वीकार करते हैं, कई शिक्षा व्रत मे। वचन और काया को एकाग्र करके साम्यभाव की वृद्धि के ४-सल्लेखना को सभी मानते हैं। किन्तु श्वेताम्बर लिए
लिए ही सामायिक का विधान किया गया है। पराम्परा इसे अतों में नहीं, बतों से ऊपर अलग से इसका देशावकाशिक में दिग्नत और उपभोग-परिभोग बत उल्लेख करती है । प्राचार्य कुन्दकुन्द की परम्परा इसे का ही विस्तार प्रोषधोपवास है। प्रोषधोपवास का अर्थ हैशिक्षा व्रतों में स्थान देती है, जबकि तत्वार्थ सूत्र और उपवास रखकर प्रोषध का अभ्यास करना। इसमें सम्पूर्ण रत्नकरण्ड इसे श्वेताम्बर परम्परा की तरह ही मानते है। दिन-रात्रि के लिए चारों प्रकार के माहार का प्रत्याख्यान
अणु व्रतों का ही गुण वर्धन करने वाले प्रतों को होता है। इसके साथ ही अब्रह्मचर्य, रत्न स्वर्ण माला, रंग, गुणव्रत कहा गया है ।१ रत्नकरण्ड और सागार धर्मामृत विलेपन, शस्त्र प्रादि सावध व्यापार का प्रत्याख्यान होता में भी गुण बतों की व्याख्या इसी प्रकार मिलती है। है। रत्नकरण्ड में प्रोपच का अर्थ एक बार भोजन किया
है और उपवास का अर्थ चारों प्रकार के प्राहार का परिजो अभ्यास के लिए हों, वे शिक्षाअत हैं। गुणवत
त्याग किया है। जो उपवास करके एक बार भोजन करता और शिक्षावत में स्पष्टतः अन्तर यह है कि शिक्षाव्रत
है वह प्रोषधोपवास के दिन पांचों पापों का प्रलंकार, स्वल्प कालिक होते हैं, और अणवत प्राय जीवन पर्यन्त+ होते है।
प्रारम्भ, गन्ध, पुष्प, स्नान प्रादि का त्याग किया जाता पहला शिक्षाव्रत है सामायिक । वह सावद्य-योग
सर्वार्थ सिद्धि (७२१) मे प्रोषध का अर्थ पर्व किया विरति रूप होता है। हरिभद्र ने प्रावश्यक वृत्ति में सामायिक किसके होती है, का विश्लेषण देते हए कहा है
है और जिसमें पांचों इन्द्रियां अपने-अपने विषयों से विमुख जिसकी आत्मा संयम, नियम और तप में सामायिक
. होकर रहती हैं, उसे उपवास कहा है। उसमें कहा गया सन्निहित है, उसके सामायिक होती है। सामायिक का है।
PART है-"अपने शरीर संस्कार के कारण स्नान, गन्ध, माला, काल-मान एक मुहूर्त है। रत्नकरण्ड में सामायिक का
आभरण प्रादि को त्यागकर शुभ स्थान में साधुओं के
आम विधि निर्देश इस प्रकार दिया गया है-एकान्त स्थान में,
निवास स्थान में, चैत्यालय में अथवा अपने उपवास गृह वन मे, मकान या चैत्यालय में बाह्य व्यापार से मन को में धम कथा म मन एकाग्र कर श्रावक का उपवास करना हटाकर तथा पर्यकासन में स्थिर होकर अन्तरात्मा में चाहिए पार किसा प्रकार का प्रारम्भ नहा करना लीन होना सामायिक है।
चाहिए।"
इस प्रकार दिगम्बर और श्वेताम्बर परम्परा में और पूज्यपाद ने सर्वार्थ सिद्धि में और अकलंक ने तत्त्वार्थ
कही-कहीं एक ही परम्परा में भी महाबत, समिति, ६. जैन सिद्धात दीपिका,
भावना और अणुव्रतों में चले पा रहे शब्द-भेद और अर्थ+ अणुव्रतानां गुण वर्षकत्वाद् गुणवतम् ।
भेद का एक चित्र हमारे समक्ष आ जाता है।