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साहित्य-समीक्षा
१. ममनन्त शक्ति के स्रोत हो।' लेखक मुनि कि वे जिज्ञासा दृष्टि से उस पर विचार करें, और धर्म के श्री नथमल, प्रकाशक, भारतीय ज्ञानपीठ काशी। पृष्ठ अन्तर्बाह्यस्वरूप पर विचार करते हुए तकणा से रहित एकात संख्या १०२ मूल्य सजिल्द-प्रति का, दो रुपया। मे उसके स्वरूप पर गहरी दृष्टि डालें, तब अनेकान्त दृष्टि
प्रस्तुत पुस्तक में मुनि श्री नथमलजी के २३ विचारा- से प्रापको उस प्रश्न का उत्तर स्वयमेव मिल जायगा । त्मक संक्षिप्त निबन्धों को प्रकाशित किया गया है। जो लेखक ने जहाँ धर्म के सम्बन्ध में विचार व्यक्त किये है योग विद्या के साधक हैं। योग विद्या के साधक को उससे वहाँ उन्होंने धर्म के साधनों पर भी दृष्टि डाली है। जब सम्बन्धित अनेक विषयों का परिज्ञान आवश्यक होता है। मानव में सहिष्णुता और विवेक जागृत हो जाता है तव योग विद्या के लिये ब्रह्मचर्य की प्रावश्यकता होती है। सत्ता में स्थित विश्वास उबुद्ध होने लगता है, उम समय उसका अभ्यासी ब्रह्मचर्य का यथाशक्य पालन करता है। धर्म उसे अत्यन्त प्रिय लगता है, उस पर उसकी आस्था क्योंकि मानव को जब तक अपनी अनन्त शक्ति के स्रोत सुदृढ़ हो जाती है। पुस्तक उपयोगी है। भारतीय ज्ञान का पता नहीं चलता, जब तक वह इन्द्रिय-विषयों के पास पीठ इस सुन्दर प्रकाशन के लिए धन्यवाद की पात्र है। से अपने को छुड़ाने का यत्न नहीं करता। किन्तु उनके ३. हिन्दी-पर संग्रह-सम्पादक डा० कस्तूरचन्दजी व्यामोह में ही रात-दिन लगा देता है। मन बड़ा चल कामलीवाल, प्रकाशक-साहिन्य-शोध विभाग श्री दि. जैन है वह एक क्षण भी स्थिर नहीं रहता, मन राजा है और अतिशय क्षेत्र महावीरजी, जयपुर (गजस्थान) पृष्ट मख्या इन्द्रियां उसकी दास हैं उसकी प्रेरणा से इन्द्रियाँ अविषम ५००, मूल्य ३) रुपया। में प्रवृत हो जाती हैं, प्रात्मा की निबलता मे वे अधिक प्रस्तूत पद सग्रह में हिन्दी के विभिन्न जैन कवियों के उपद्रव करती हैं, पावेग और उद्वेगों से व्यथित प्रात्मा पदो का मकलन किया गया है। अन्त मे उनका शब्दकोप अपनी मुध-बुध खो बैठता है। इसलिए साधक को अपने भी दे दिया गया है। पदों की संख्या ४०० है। उनमे उन मात्मबल को बलिष्ठ बनाने और शरीर को जड समझकर कवियो का सक्षिप्त परिचय भी निहित है, जिनकी रचउससे अन्तरंगराग छोड़ने का यत्न करना प्रावश्यक है। नामो का उक्त पुस्तक में सकलन हुपा है । ग्रंथ ऐसा करने पर वह मन की चचलता को स्थिर करने मे का प्राक्कथन डा० राममिहजी तोमर ने लिखा है। और समर्थ हो सकता है तभी वह ध्यान की सिद्धि करता हुआ
सम्पादक ने अपनी प्रस्तावना में पदो की भाषा शैली एवं अन्त में स्वात्मोपलब्धि का पात्र बनता है।
कवित्व के सम्बन्ध में अच्छा प्रकाश डाला है। इस मनिजी विचारशील विद्वान हैं उनके उपयोगी विचार सम्बन्ध मे अभी अन्वेषण करना आवश्यक है कि हिन्दी में पाठकों के लिए उपयोगी सिद्ध होंगे। भारतीय ज्ञानपीठ पदो की रचना कब शुरू हुई। जैन कवियो में अनेक पद का यह प्रकाशन सुन्दर है।
भक्ति और अध्यात्म प्रधान पाये जाते हैं। कुछ पद तो २. क्या धर्म बुद्धगम्य है ? लेखक, प्राचार्य तुलसी।
भाव भाषा और रस में उच्चकोटि के प्रतीत होते है। वैसे प्रकाशक, भारतीय ज्ञानपीठ काशी, मूल्य दो रुपया। पद अन्य भारतीय कवियों के नहीं पाये जाते। हिन्दी भाषा
इस पुस्तक का विषय उसके शीर्षक से स्पष्ट है। के इन पदों में जहाँ भक्ति का सुन्दर स्वरूप मिलता है इसके लेखक तेरापथी संघ के नायक प्राचार्य तुलसी हैं, वहां उनकी भाषा प्रांजलिता को लिए हुए गंभीर अर्थ की जो सुलझे हुए विद्वान और सुलेखक हैं। प्राचार्य तुलसी ने द्योतक है। ऐसे ग्रंथों का सर्व साधारण में प्रचार होना धर्म के सम्बन्ध में पर्याप्त विचार किया है और वे अपने चाहिए। इसके लिए डा. कस्तूरचन्दजी काशलीवाल अनुभवाधार से जिस नतीजे पर पहुंचे, उसका अच्छा और महावीर तीर्थक्षेत्र कमेटी के संचालकगण धन्यवाद विवेचन प्रस्तुत पुस्तक में किया है। पाठकों को चाहिए के पात्र हैं।
-परमानन्द जैन शास्त्री