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________________ निश्चय और व्यवहार के कवोपल पर बदामृत : एक अनुशीलन जाते समय 'असिही-असिही' शब्द का उच्चारण अथवा चिन्तन करे । साधक क्रमश: धीमे-धीमे आहार में कमी पाँच महाव्रत, पांच समिति और तीन गुप्ति. का चिन्तन करता जाए, पद्मासन मादि पासनों का काल-पान क्रमशः कर और ज्ञानांकुश से विषय-कषायों में दौड़ते हुए मनो- बढ़ाए, नींद भी क्रमशः कम ले-पार्व-परिवर्तन न करे। मत्त हाथी को वश में कर १ पाहार-विजय प्रासन-विजय और निद्रा-विजय का इस दशवकालिक में हमें मिलता है एवं धम्मस्स विणो प्रकार क्रम भी दिया गया। मूलं' धर्म विनय का मूल है। इसी भावना का समर्थन मन, वचन और शरीर की प्रशुभ प्रवृत्ति से होने हमें एक गाथा में इस प्रकार मिलता है कि मन, वचन वाले दोषों की मुनि गुरु के पास गर्दा करे। गारव और और शरीर के योग से विनय के पांच प्रकारों-पाद. माया से दोपों को छिपाने का प्रयत्न न करे। पूजा-लाभ पतन, अभ्युत्थान, स्वागत-भाषण आदि का पालन कर। की इच्छा न रखते हुए मुनि बहिः शयन, मातापन प्रादि क्योंकि अविनीत मनुष्य कभी भी सुविहित मुक्ति को उत्तरगुणों को पालन करे१। जिस प्रकार जल मे दीर्घनहीं पा सकता। काल तक स्थित रहने पर भी पत्थर जल से भेदा नही वैयावृत्य के प्रकरण में कहा गया है कि मुनि प्राचार्य, जाता, मुनि उसी प्रकार उपसर्ग और परीपहों से भेद को उपाध्याय तपस्वी, ग्लान, शैक्षण, कूल, मघ चिर-प्रजित प्राप्त न कर२ । मुनि ! यद्यपि नुम सर्वव्रती हो, फिर भी मुनि और लोक-सम्मत विद्वान् असंयत सम्यग दृष्टि की तुम नव पदार्थ, सात तत्व, जीव समास और चतुर्दश भी वैयावृत्य करे। गुणस्थानो से अपने को भावित करो। मुनि छयालीस निर्वाण प्राप्ति के लिए यह प्रावत्यक माना गया कि अकारक आहार दाषा स राहत भाजन ग्रहण कर एक साधक के जीवन में ज्ञान और तपस्या दोनों का समान मूल मादि मचित वस्तुप्रो का सेवन न करे । केश- लुचन, महत्व रहे । जो ज्ञान तप-हत है अथवा जो तप ज्ञान- प्रस्नान, भूमि-शयन, विनय, पाणि-पात्र-भोजन आदि इन रहित है. वह अकृतार्थ-लक्ष्य को साधने वाला नहीं है। समस्त व्यावहारिक चर्यानों को सार मानता हमा इनका जो ज्ञान और तप से संयुक्त है, वही निर्वाण को प्राप्त सम्यक्तया पालन के सम्यक्तया पालन करे। करता है। इस प्रकार अनेक व्यावहारिक विधानों का उल्लेख आहार-विजय, प्रामन-विजय तथा निद्रा-विजय कर हमें इन पाहडों में मिलता है। इनसे यह स्पष्टतः प्रमासाधक गुरुप्रसाद में अपनी आत्मा को जानकर ध्यान णित हो जाता है कि प्राचार्य कुन्दकुन्द जहाँ निश्चय के कर४ । यद्यपि अात्मा स्वय चरित्रवान, दर्शनवान और परिपोपक थे, व्यवहार को भी उन्होंने सदा मुख्यता दी। ज्ञानवान है पर माधक गुरु-प्रमाद से उसे जानकर उसका केवल उनकी निश्चय दृष्टि को पकड़ कर व्यवहार की अवहेलना करना उनके साथ न्याय नहीं होगा । वे निश्चित १. भाव-पाभृत ७० रूप से व्यवहार के उतने ही समर्थक रहे है, जिसने कि वारसविहतपयरण तेरस किग्यिानो भाव-तिविहेण । निश्चय के । अपेक्षा इस बात की है कि उनके दृष्टिकोण धरहि मणमत्त दुरियं णाणांकुसएण मुणि-पवर ।। का मम्यग् मूल्यांकन हो और उसके सही रूप को प्रकाश २. वही, १०२ में लाया जाए। विणयं पंच-पयारं पालहि मण-वयण-काय जोएण। १. भाव-प्राभृत १११ प्रविणय-नरा सुविहियं ततो मुत्ति न पावंति ॥ वाहिर सवणत्तावण तरुमूलाईणि उत्तरगुणाणि । ३. मोक्ष-प्राभृत ५९ पालहि भाव-विसुद्धो पूयालाहं मनीहंती।। तव-रहियं ज णाणं, णाण-विजुत्तो तवो वि प्रकयत्यो। २. वही,९३ तम्हा णाण-तवेणं संजुत्तो लहइ निव्वाणं ॥ जह पत्थरो न भिज्जइ परिट्टियो दोहकाल मुदएण। ४. वही, ६३ तह साहु ण विभिज्जइ उवसम्ग-परीसहेहितो॥
SR No.538018
Book TitleAnekant 1965 Book 18 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1965
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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