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अनेकान्त
रइयो तिलोयसारो खमंतु तं बहुसुदाइरिया ॥
दुन्दुभि नाम के शुभ संवत्सर में बाहुबलि मन्त्री की ज्ञप्ति
"त्रिलोकसारे" के लिए यह क्षपणासार ग्रन्थ बनाया है वह पृथ्वी में चन्द अद्यावधि माधवचन्द्र विद्यदेव की दो कृतियाँ उपलब्ध तारे रहें तब तक जयवन्त रहे । हैं । उनमें से एक त्रिलोकसार ग्रन्थ की संस्कृत टीका है इस प्रशस्ति के साथ यहीं पर इस क्षपणासार का माद्य जो छप चुकी है। और दूसरी संस्कृत में बना क्षपणासार भाग मंगलाचरण का मय टीका के एक श्लोक भी छपा ग्रन्थ जो अभी तक छपा नहीं है। उक्त त्रिलोकसार ग्रन्थ है। उसमें भी नेमिचन्द्र पौर चन्द्र (सकलचन्द्र) का प्राकृत में गाथाबद्ध प्राचार्य नेमिचन्द्र का बनाया हुआ है। उल्लेख करते हुए उन्हें माधवचन्द्व और भोजराज के मंत्री उसी की संस्कृत टीका माधवचन्द्र ने लिखी है। इस टीका बाहबलि द्वारा स्तूत बताए गये हैं। की प्रशस्ति में माधवचन्द्र ने इतना ही लिखा है कि
इन उल्लेखों से पता लगता है कि ये माधवचन्द्र "मेरे गुरु नेमिचन्द्र सिद्धांतचक्री के अभिप्रायानुसार इसमें
त्रिलोकसार की टीका की तरह क्षपणासार में भी अपने को कुछ गाथाएँ कहीं कहीं मेरी रची हुई हैं वे भी प्राचार्यों
विद्य और नेमिचन्द्र का शिष्य लिखते हैं अतः दोनों द्वारा अनुसरणीय हैं।" इसके सिवा माधवचन्द्र ने यहाँ
अभिन्न हैं । हाँ, क्षपणासार में उन्होने सकलचन्द्र को भी अपने विषय में और कुछ अपना विशेष परिचय नहीं दिया
अपना गुरु लिखते हुए यह स्पष्ट कर दिया है कि सकलहै किन्तु क्षपणासार की प्रशस्ति में उन्होने अपना परिचय
चन्द्र उनके दीक्षा-गुरु थे और नेमिचंद्र उनके विद्या-गुरु थे। कुछ विशेष तौर पर दिया है। वह प्रशस्ति वीर सेवा
किन्तु इसमें बड़ी बाधा यह पाती है कि उक्त प्रशस्ति में मन्दिर देहली से प्रकाशित "जैन अन्य प्रशस्ति संग्रह" के
क्षपणासार का रचनाकाल शक सं० ११२५ दिया है जिसमें प्रथम भाग के पृ० १६६ पर छपी है। इस प्रशस्ति में
१३५ जोड़ने से विक्रम सं० १२६० होता है। समय की प्रथम से लेकर पांचवें पद्य तक क्रमशः यति वृषभ, वीर
की यह संगति त्रिलोकसार के कर्ता नेमिचन्द्र के समय के सेन, जिनसेन, मुनि चन्द्रसूरि, नेमिचन्द्र और सकलचन्द्र
साथ नही बैठती है। नेमिचन्द्र का समय विक्रम संवत् भट्टारक को नमस्कार करने के बाद दो पद्य निम्न
१०५० के लगभग माना जा रहा है। इसीलिए प्रेमीजी प्रकार हैं
आदि इतिहासज्ञ विद्वानों ने उक्त क्षपणासार के कर्ता माधव तपोनिधि महायशस्सकलचन्द्र भट्टारक
चन्द्र को त्रिलोकसार की टीका कर्ता माधवचन्द्र से भिन्न प्रसारित तपोबलाद् विपुलबोधसच्चक्रतः ।
प्रतिपादन किया है। श्रुतांबुनिधि नेमिचन्द्र मुनिपप्रसादा गतात्,
दवसंगहमिणं मुणिणाहा, दोससंचयचुदा सुदपुण्णा। प्रसाधितमविध्नतः सपदि येन षट्खंडकम् ॥
मोधयतु तणुसुत्तधरेण णेमिचंद मुणिणा भणियं जं ॥ अमुना माधवचन्द्र दिव्यगणिना विद्यचक्रेशिना,
"द्रव्यसंग्रह" क्षपणासारमकारि बाहुबलिसन्मन्त्रीशसंज्ञप्तये ।
इनमे अप्पसुद-तणुसुत्तधर, सुदपुण्णा-बहुसुदा ये वाक्य शककाले शरसूर्यचन्द्रगणिते जाते पुरे क्षुल्लके,
अर्थ-साम्य को लिए हुए हैं। इससे दोनों को अभिन्न शुभदे दुन्दुभिवत्सरे विजयतामाचन्द्रतारं भुवि ।।
मानने की पोर हमारा मन जाता है। इस प्रकार जबकि इन पद्यों में कहा है कि जिसने तपोनिधि, महा- नेमिचन्द्र का समय विक्रम की ११वीं शताब्दी के तीसरे यशस्वी सकलचन्द्र भट्टारक से दीक्षा लेकर तपस्या की चरण तक पहुँच जाता है तो उनके शिष्य माधवचन्द्र का उसके बल से तथा श्रुतसमुद्र पारगामी नेमिचन्द्र मुनि के समय भी विक्रम सं० ११२५ में जीवित रहना संभव हो प्रसाद से जिसे विशाल ज्ञानरूपी उत्तम चक्र मिला, उस सकता है । माधवचन्द्र ने त्रिलोकसार की टीका गोम्मटसार चक्र से जिसने षट्खण्डमय सिद्धान्त को जल्दी ही निविघ्नता की रचना के बाद बनाई है। क्योकि त्रिलोकसार गाथा से साध लिया ऐसे विद्य, दिव्यगणि और सिद्धान्तचक्री २५० की टीका में एक गाथा "तिण्णसय जोयणाणं..." इस माधवचन्द्र ने क्षुल्लकपुर में शक सं० ११२५ में उद्धृत हुई है वह गोम्मटसार जीवकांड की है।