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यशस्तिलक कालीन आर्थिक जीवन
गोकुलचन्द जी जैन एम. ए. प्राचार्य
सोमदेव ने यशस्तिलक (६५९ ई.) में कृषि, वाणिज्य लुटाती थी।७ इतनी उपज होती थी कि बोये हुए खेत सार्थवाह, नौसन्तरण और विदेशी व्यापार, बिनिमय के की लुनाई करना, लुने धान की दौनी करना और दौनी साधन, न्यास इत्यादि के विषय में पर्याप्त जानकारी दी किए धान को बटोरकर संग्रह करना मुश्किल हो जाता है। संक्षेप में उसका परिचय निम्न प्रकार है - या। कृषि
खेत में बीज डालने को वप्त कहा जाता था। पके
खेत को काटने के लिए लवन कहते थे तथा काटी गयी कृपि के लिए अच्छी और उपजाऊ जमीन, सिंचाई
धान की दौनी को विगाना कहा जाता था। के साधन, सहज प्राप्य श्रम और साधन आवश्यक हैं। सोमदेव ने यौधेय जनपद का वर्णन करते हुए लिखा है कि
पर्याप्त धान से समृद्ध प्रजा के मन में ही यह विचार वहाँ की जमीन काली थी। सिंचाई के लिए केवल वर्षा
सम्भव था कि हमारी यह पृथ्वी मानो स्वर्ण के कल्पद्रुमों
की शोभा को लूट रही है । के पानी पर निर्भर नहीं रहना पड़ता था ।२ श्रमिक भी। सहज रूप में उपलब्ध हो जाते थे। कुछ श्रमिक ऐसे होते अनुपजाऊ जमीन ऊपर कहलाती थी। जैसे मूखों को ये जो अपने-अपने हल इत्यादि कृषि के औजार रखते थे तत्त्व का उपदेश देना व्यर्थ है, उसी प्रकार ऊपर जमीन तथा बुलाये जाने पर दूसरों के खेत जोत-बो पाते थे। का जतिना-बाना और उसमें पानी देना व्यर्थ है? सोमदेव ने ऐसे श्रमिकों के लिए 'समाश्रित प्रकृति' पद का वाणिज्यप्रयोग किया है।३ श्रुतसागर ने इसका अर्थ अठारह वाणिज्य की व्यवस्था प्रायः दो प्रकार की होती थीप्रकार के हलजीवि किया है। इस प्रकार क हलजाविया स्थानीय तथा जहाँ दूर-दूर के व्यापारी जाकर धंधा करें। की कमी नहीं थी।
स्थानीय व्यापार के लिए हर वस्तु का प्रायः अपनाखेती करने में विशेषज्ञ व्यक्ति क्षेत्रज्ञ कहलाता था। अपना बाजार होता था। केसर, कस्तूरी आदि सुगन्धित उसकी पर्याप्त प्रतिष्ठा भी होती थी।५ कृषि की समृद्धि वस्तुएँ जिस बाजार में बिकती थीं वह सौगन्धियों का
एक कारण यह भी था कि सरकारी लगान उतना ही बाजार कहलाता था११ । वास्तव में यह बाजार का एक लिया जाता था, जितना कृषिकार सहज रूप में दे सके। भाग होता था, इसलिए इसे विपणि कहते थे। इस बाजार यही सब कारण थे कि कृषि की उपज पर्याप्त होती थी - और वसुन्धरा पृथिवी चिन्तामणि के समान शस्य सम्पत्ति ७. वपत्रक्षेत्रसंजातसस्यसम्पत्ति वन्धराः ।
चिन्तामणिसमारम्भाः सन्ति यत्र वसुन्धराः ॥ पृ०१६ १. कृष्ण भूमयः, पृ० १३
८. लवने यत्र नोप्तस्य लूनस्य न विगाहने । २. प्रदेवमाष्टका, वही। सुलभजलः, वहीं
विगाढस्य च धान्यस्य नालं संग्रहणे प्रजाः ।। पृ०१६ ३. समाश्रित प्रकृतयः, वही
६. प्रजा प्रकामसस्याढ्या सर्वदा यत्र भूमयः । ४. हलबहुलः, वही
मुष्णन्तीवामरावासकल्पद्रुमवनश्रियम् ।। पृ० १६८ ५. क्षेत्रज्ञप्रतिष्ठाः, वही
१०. यद्भवेनमुग्धबोधानामूषरे कृषिकर्मवत्, पृ० २८२ उत्त० ६. भर्तृकरसंवाघसहाः, पृ० १४
११. सौगन्धिकानां विपणिविस्तारेषु, पृ० १८ उत्त.